☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-४ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆
विडा घ्या हो अंबाबाई
‘ठेविले अनंते तैसेची रहावे ‘ अशी आईची समाधानी, आनंदी वृत्ती होती. हातात कांचेच्या बांगड्या, गळ्यात काळी पोत आणि चेहऱ्यावरचे समाधानी हास्य हेच होते आईचे दागिने आणि वैभव.. शेवटपर्यंत सोने कधी आईच्या अंगाला लागलंच नाही. आई गरीबीशी सामना करणारी, आहे त्यात संसार फुलवणारी होती . नानांच्या पिठाला तिची मिठाची जोड असायची. मसाले करून देणे. सुतकताई, पिंपरीला कारखान्यात काम करायला पण जायची . विद्यार्थ्यांना डबा करून देणे अशी छोटी मोठी कामे करून मिळणारी मिळकत हाच तिचा महिन्याचा पगार होता.
माहेरी मोकळ्या हवेत हेलावणारा तिचा पदर सासरी आल्यावर पूर्णपणे बांधला गेला .वेळात वेळ काढून महिला मंडळ, एखादा सिनेमा हाच तिचा विरंगुळा होता. त्यावेळी सिनेमाचे तिकीट 4 आणे होतं. प्रभात टॉकीज मध्ये (म्हणजे आत्ताच कीबे) माझे काका विठू काका ऑपरेटर होते. त्यांचा आईवर फार जीव. ते आईला कामात खूप मदत करायचे. तिला मराठी सिनेमाचे पास आणून द्यायचे. तेवढाच तिच्या शरीराला आणि मनाला विसावा.
तिचा कामाचा उरक दांडगा होता. घरच्या व्यापातून वेळ काढून घरी पांच पानांचा सुंदरसा गोविंदविडा (हा सुंदरसा विडा करायला माझ्या वडिलांनी तिला शिकवलं होतं.)देवीसाठी तयार करून ती रोज जोगेश्वरीला द्यायची. हा नेम तिचा कधीही चुकला नाही.रात्रीच्या आरतीच्या वेळी तबकामध्ये निरांजनाशेजारी सुबक आकाराचा, पिरॅमिड सारखा गोविंदविडा विराजमान व्हायचा. “विडा घ्या हो अंबाबाई” म्हणून अंबेला रोज विनवणी असायची. एक दिवस कसा कोण जाणे विडा द्यायला उशीर झाला. (गुरव )भाऊ बेंद्रे आणि भक्त विड्याची वाट बघत होते. तबकात जागा रिकामी आहे हे सगळ्यांनी ओळखलं, प्रत्येकाच्या चेहऱ्यावर प्रश्नचिन्ह होतं. विडा विसरला असं कधीच झालं नव्हतं. विड्याची वाट बघत सगळेजण थांबले होते. भाऊ बेंद्रे तबक घेऊन उभेच राहयले.भक्त आईची विडा घेऊन येण्याची वाट बघत होते…
आणि इतक्यात लगबगीने आई पुढे धावली, विडा देवीपुढे ठेवला गेला. आणि टाळ्यांच्या गजरांत आरतीचा सूर मिसळला…
“विडा घ्या हो अंबाबाई, ही विनंती तुमच्या पायी.”
… आई अवघडून गेली. आपल्याकडून उशीर झाला म्हणून आईला अगदी अपराध्यासारखं झालं होतं. तिने देवीपुढे नाक घासले. त्यानंतर कधीही तिचा हा नियम चुकला नाही. आम्ही नंतर पेशवेकालीन मोरोबा दादांच्या वाड्यात राहायला गेलो, तरीसुद्धा आईने हा नियम चालू ठेवला होता. ती म्हणाली, “ जोगेश्वरी आईनी आपल्याला पोटाशी होतं ते पाठीशी घालून तिच्याच परिसरात तिच्या नजरेसमोरच ठेवलंय.” कारण मोरोबा दादांचा पेशवेकालीन वाडा जोगेश्वरीच्या पाठीमागेच… म्हणजे आप्पाबळवन्त चौकातच होता.
☆ “रुलाके गया सपना मेरा…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर☆
पौर्णिमेचं शशीबिंब आज माझ्या गवाक्षाशी बराच वेळ थबकलं.. तिथून न्याहाळलं होतं त्याला मी त्या गवाक्षात उभी असताना… आणि पुढे जाताना एक मंद स्मित रेषा आपल्या चेहऱ्यावर फुलवून निघायचं ठरवलं… अन मी नकळतपणे आलेही… नव्हे नव्हे ओढले गेले.. त्या गवाक्षापाशी… हळूच मान लवून बघत राहीले… रस्त्यावरती सांडलेला चांदणचुरा चमचमताना किती गोड नि मोहक दिसत होता… हरपून बसले भान माझं..वेडं लावलं मला त्यानं स्वत:चं… नजर मिटता मिटत नव्हती नि कितीही पाहिलं तरी तृप्ती होत नव्हती… तरी बरं त्यावेळी आजुबाजूला.. खाली रस्त्यावर कुणी कुणीच नव्हते.. माझ्याकडे पाहत.. प्रेमात पडलीस वाटतं असचं एखाद्याला मला चिडवायला मिळालं असतं…
मी पण छे.. काही तरीच काय तुमचं…नुसत्या नजरेने पाहिलं तर ते का प्रेम असतं… असं मी स्वतःशीच म्हणाले… हो स्वतःशीच.. तिथं माझं ऐकायला तरी कोण होतं… पण मी ते सांगताना खूप लाजले तेव्हा गालावरची खळी खट्याळपणानं सारं काही सुचवून गेली… असा किती वेळ माझा.. माझाच का आम्हा दोघांचाही.. गेला.. नंतर रोजचा तसाच जात राहिला… भेटण्याची वेळ नि भेटण्याचं ठिकाणं ठरून गेलेलं….
नंतर हळूहळू त्याचं येणं उशीरा उशीरानं होऊ लागलं… माझी चिडचिड होऊ लागली… आधीच भेटायचा वेळ तो किती थोडा .. त्यात याच्या उशीरानं येण्यानं भेटीचा क्षण संपून जाई…तो नुसता जात नसे तर माझ्या मनाला चुटपूट लावून जाई.. हुरहुर लागे जीवाला .. उद्यातरी भेटायला वेळ भरपूर मिळेल नं… छे तसं कुठं घडायला दोन प्रेमी जीवांच्या आयुष्यात… नाही का…
आणि एक दिवस त्याचं येणचं झालं नाही… विरहाचं दुख काय असतं ते त्या दिवशी कळलं… मी गवाक्षात उभी होते नेहमी सारखी.. पण आज चंद्र प्रकाश नव्हता .. होता तो काळोख सभोवताली… डोळे भिरभिरत होते त्याची वाट पाहताना…रस्त्यावरचा मर्क्युरी दिव्याचा प्रकाश माझी छेड काढू पाहताना नारळाच्या झावळीतून तिरकस नजरेने बघत होता… आमच्या आठवणींच्या सावल्यांचा खेळ माझ्या नजरेसमोर मांडताना.. इतकंच कानात सांगून गेला…’ वो जब याद आये बहूत याद आये…’ आणि आणि माझं वेडं मन गुणगुणत होतं… ‘ रूला के गया सपना मेरा.. ‘
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “हिंदी पखवाड़ा…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 215 ☆हिंदी पखवाड़ा… ☆
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सागर में मिलती धाराएँ, हिन्दी सबकी संगम है।
शब्द, नाद, लिपि से भी आगे, एक भरोसा अनुपम है। ।
गंगा कावेरी की धारा, साथ मिलाती हिन्दी है।
पूरब- पश्चिम, कमल- पंखुरी, सेतु बनाती हिन्दी है। ।
– गिरजा कुमार माथुर
हिन्दी का गुणगान करती हुयी अद्भुत पंक्ति अपने आप में सबके हृदय की भावनाओं का उद्गार ही है जो कवि गिरजा कुमार माथुर जी की लेखनी से प्रस्फुटित हुआ।
राष्ट्र निर्माण का कार्य हमारे शिक्षक बखूबी करते हैं। भारत के द्वितीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन जी के जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाकर हम सभी अपने शिक्षकों को नमन करते हुए उनके दिखाए रास्तों को याद कर उस पर चलने हेतु हर वर्ष संकल्प लेते हैं।
हिन्दी को जब तक हम बोलचाल, लेखन, कार्यालयीन व अध्ययन में शामिल नहीं करेंगे तब तक इसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित होने के लिए संघर्ष करना ही पड़ेगा। हमें प्रान्तवाद से ऊपर उठ कर देशहित में चिंतन करना चाहिए। जहाँ के निवासी अपनी भाषा व बोली का सम्मान नहीं करते उनका विकास वहीं रुक जाता है।
हम सबको एक जुट होकर संकल्प लेना चाहिए कि केवल हिन्दी को ही बढ़ावा देंगे। विश्व गुरु बनने की चाहत मातृ हिन्दी के प्रयोग से ही संभव हो सकती है।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख– “बाल साहित्यकार कैसा हो?”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 188 ☆
☆ जो बच्चों को जाने वही बाल साहित्यकार : जो बच्चों को दुनिया की सैर कराएं ☆
क्या सच में सिर्फ बच्चे को जानने वाला ही बाल साहित्यकार हो सकता है?
यह एक दिलचस्प सवाल है जिसके जवाब में हमें बाल साहित्य की गहराइयों में उतरना होगा। क्या बाल साहित्य सिर्फ मनोरंजन का माध्यम है या इससे कहीं ज्यादा है? क्या एक बाल साहित्यकार का काम सिर्फ बच्चों को कहानियां सुनाना है या उनका मन और मस्तिष्क भी विकसित करना है?
बाल साहित्य: सिर्फ कहानियां नहीं
बाल साहित्य बच्चों के लिए एक खिड़की की तरह होता है, जिसके ज़रिए वे दुनिया को देखते हैं। यह उनके मन को समृद्ध करता है, उनकी कल्पना शक्ति को बढ़ाता है और उन्हें जीवन के मूल्यों से परिचित कराता है। एक अच्छा बाल साहित्यकार न केवल बच्चों को मनोरंजन करता है बल्कि उन्हें सोचने, समझने और सवाल करने के लिए प्रेरित भी करता है।
बच्चों को जानना जरूरी, लेकिन काफी नहीं
हाँ, यह सच है कि एक बाल साहित्यकार को बच्चों की मनोदशा, उनकी रुचियों और उनकी भाषा को अच्छी तरह समझना चाहिए। लेकिन सिर्फ इतना ही काफी नहीं है। एक सफल बाल साहित्यकार को एक अच्छे लेखक की तरह होना भी जरूरी है। उसे कहानी कहने की कला आनी चाहिए, पात्रों को जीवंत बनाना आना चाहिए और भाषा पर पकड़ होनी चाहिए। वह क्या लिखकर क्या संदेश भेज देना चाहता है? यह सब बातें उसे आनी चाहिए।
बच्चे जिस चीज के बारे में नहीं जानते हैं उस अज्ञात चीजों को बातें करके उनकी रूचि और जिज्ञासा को बढ़ाया जा सकता है। उदाहरण के लिए हम रूडयार्ड किपलिंग का उदाहरण लें। उन्होंने ‘जंगल बुक’ जैसी कहानियों के माध्यम से बच्चों को प्रकृति और जानवरों के बारे में बहुत कुछ सिखाया। चूँकि बच्चे उनके बारे में नहीं जानते हैं इसलिए ऐसी कहानी पढ़ने में उनकी बहुत जरूरी रहती है। ऐसी कहानियों को आनंद के साथ पढ़ते हैं।
एक अच्छा बाल साहित्यकार वह होता है जो:
बच्चों की भाषा में लिखता है: वह ऐसी भाषा का प्रयोग करता है जिसे बच्चे आसानी से समझ सकें।
कल्पना शक्ति को बढ़ाता है: वह बच्चों की कल्पना शक्ति को उड़ान देने के लिए नए-नए विचारों और कहानियों का प्रयोग करता है।
सकारात्मक मूल्यों को बढ़ावा देता है: वह बच्चों में सत्य, अहिंसा, प्रेम और करुणा जैसे गुणों को विकसित करने के लिए प्रेरित करता है।
बच्चों को सोचने के लिए प्रेरित करता है: वह बच्चों को सवाल करने और अपनी राय बनाने के लिए प्रोत्साहित करता है।
बच्चों के हितों को ध्यान में रखता है: वह ऐसी कहानियाँ लिखता है जो बच्चों को पसंद आती हैं और उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं।
निष्कर्ष
बाल साहित्यकार होना सिर्फ एक बच्चे को जानने से कहीं ज्यादा है। यह एक कला है, एक शिल्प है, एक भाव और एक जिम्मेदारी भी है। एक अच्छा बाल साहित्यकार बच्चों के लिए एक मित्र, एक गुरु, एक पालक और एक मार्गदर्शक होता है। वह बच्चों के मन में बीज बोता है जो पूरे जीवन भर फलते-फूलते रहते हैं।
अंत में, यह कहना गलत होगा कि सिर्फ बच्चे को जानने वाला ही बाल साहित्यकार हो सकता है। एक सफल बाल साहित्यकार वह होता है जो बच्चों को जानने के साथ-साथ एक अच्छा लेखक भी होता है।
आप क्या सोचते हैं? क्या आप सहमत हैं इस बात से कि सिर्फ बच्चे को जानने वाला ही बाल साहित्यकार हो सकता है?
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना हैदराबादी कुर्सी।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 24 – हैदराबादी कुर्सी☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
अरे भाई, अपने शहर हैदराबाद की बात ही निराली है। यहाँ की गली-गली में जो बयार बहती है, वो क्या कहें! अब देखिए, दिल्ली में कभी कोई तैमूर, तो कभी चंगेज खाँ आए, वहाँ से लेकर यहां तक बड़े-बड़े लोग आए, लूट कर चले गए। सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात सब उठा ले गए, लेकिन हमारे हैदराबाद का वो ‘सिंहासन’, मतलब यहाँ के कल्चर का कोई जवाब नहीं मिला उनको। वो सिंहासन जो कि रिवायत और इज़्ज़त का हिस्सा था, वो यहाँ की हवा में ही रचा-बसा है।
अब बात करें सिंहासन की, तो आजकल वो कुर्सी बन गया है। पहले राजा-महाराजा सिंहासन पर बैठते थे, और शेर की तरह दहाड़ते थे, अब ये कुर्सी वाले भी कम नहीं हैं। कुर्सी पर बैठते ही बंदा खुद को असली शेर समझने लगता है। कुर्सी का अंग्रेजी नाम ‘चेयर’ है, जो अंग्रेजों की देन है। वैसे, उन्होंने हमें रंगरेज बना दिया, हर चीज़ में अपने रंग भर दिए। अब ये ‘चेयर’ असल में ‘चीयर’ से निकला है, जो उनके दोस्त-चमचों ने कुर्सी पर बैठने वाले पहले हिन्दुस्तानी को चियर-चियर करके इतना चीयर किया कि वो चेयर हो गया।
अब भाई, हम भी एक रिसर्च करने लगे थे, टॉपिक था ‘सिंहासन से कुर्सी तक – एक नज़र’। इसके लिए हमने किसी प्रोफेसर को गाइड नहीं बनाया, सीधे हमारे शहर के एक मंत्री साहब को गाइड बना लिया। उनकी एक खासियत थी – जब तक मंत्री रहे, उनका मुँह हमेशा टेढ़ा रहता था। सीधे मुँह बात कभी की ही नहीं। मुँह से सीधे शब्द भी निकलते थे, तो टेढ़े हो जाते थे। जैसे ही कुर्सी छूट गई, मुँह एकदम सीधा हो गया। फिर सोचा कि भाई, गलती मंत्री जी की नहीं, बल्कि कुर्सी की है।
एक दिन हम मेगनीफाइंग ग्लास लेकर मंत्री जी की कुर्सी का मुआयना करने लगे। वहाँ हमें छोटे-छोटे खटमल जैसे जीव मिले, जो सिर्फ वीआईपी लोगों की कुर्सियों में पनपते हैं। ये जीव, मंत्री साहब के साथ उनके बंगले तक चले आते थे और वहाँ जाकर अपनी जनसंख्या बढ़ा लेते थे। ये जीव परिवार नियोजन के सख्त खिलाफ थे। जो भी इन कुर्सियों पर ज्यादा समय तक बैठता, उसका मुँह भी टेढ़ा हो जाता। वजह ये कि ये जीव कुर्सीधारी के खून में से जनसेवा, कर्तव्यपरायणता, ईमानदारी, और काम के प्रति निष्ठा के कीटाणु चूस लेते हैं, और बदले में अहंकार, चालाकी, और वाक् पटुता के कीटाणु भर देते हैं। कुछ ही दिनों में कुर्सीधारी में बदलाव दिखने लगता है, और उसे इन जीवों से कटवाने का ऐसा नशा हो जाता है कि बिना इनके काटे एक दिन भी गुज़ारना मुश्किल हो जाता है।
अब हमारे हैदराबाद में एक बड़े ही नेक जनसेवक हैं। सोते-जागते जनसेवा करना उनकी आदत है। कांधे पर झोला लटकाए, और झोले में हर किस्म की चीजें ठूंसे हुए, बिना किसी स्वार्थ के लोगों की मदद करते हैं। उनकी निःस्वार्थ सेवा को देखते हुए शहर के कुछ बड़े लोग सोचने लगे कि इन्हें विधानसभा में होना चाहिए ताकि ये और अच्छी तरह से सेवा कर सकें। सो 67 में उन्हें जबरदस्ती एमएलए बना दिया गया। कुछ दिन कुर्सी पर बैठने के बाद ये जनसेवक भी कुर्सी के जीवों के असर में आ गए। अब हाल ये है कि कुर्सी के बिना उनका नशा पूरा ही नहीं होता। एक साथ तीन-तीन कुर्सियों पर बैठे रहते हैं, और हमेशा ऐसी कुर्सी की तलाश में रहते हैं जिसमें ज्यादा जीव बसते हों। सुना है कि एक खास मंत्रालय की कुर्सी में ये जीव भर-भर के होते हैं, तो अब जनाब उसी कुर्सी के पीछे पागलों की तरह दौड़ते फिर रहे हैं।
इससे सेठ लोग बहुत समझदार होते हैं। उन्हें पता है कि कुर्सी का नशा नुकसानदेह होता है। इसलिए उनकी दुकानों में कुर्सियों की जगह तख्त होते हैं, और उन पर मोटे गद्दे और तकिए रखते हैं। सेठ हमेशा सीधे मुँह बातें करता है, दाँत निपोरे रहता है, और इतनी दीनता दिखाता है कि तोंद के नीचे उसका सिर ही नहीं दिखता।
तो भाई, हैदराबाद की कुर्सी का मिजाज ऐसा है कि उस पर बैठते ही आदमी को अपने अहम का पूरा एहसास हो जाता है। ये कुर्सी धर्म, जाति, सब में बराबर है। चाहे कोई भी धर्म मानने वाला हो, कुर्सी उसे अपनाने में एक पल भी नहीं लगाती। आखिर, कुर्सी के जोड़ों में जो जीव बसे हैं, वो जानते हैं कि खून तो हर धर्म का लाल ही होता है, और उन्हें हर धर्म के लोगों की ईमानदारी, निष्ठा, और जनसेवा का खून चाहिए, जिससे वे खुद को तंदुरुस्त रख सकें।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – “कृषि और देश की सुरक्षा को बराबर महत्व देने वाले हमारे दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 306 ☆
आलेख – कृषि और देश की सुरक्षा को बराबर महत्व देने वाले हमारे दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
2 अक्टूबर को महात्मा गांधी के जन्मदिन के साथ-साथ स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री का भी जन्मदिन है। जब दूसरे भारत पाकिस्तान युद्ध के समय हमे अपनी खाद्य जरूरतों के लिए अमेरिका का मुंह देखना पड़ा तो स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का महत्वपूर्ण नारा दिया था। उन्होंने देश व्यापी उपवास को अपना अस्त्र बनाया। जनता में देश के लिए उत्सर्ग का आचरण प्रदर्शित किया। आम लोगों ने उनके आव्हान पर आगे बढ़कर प्रधानमंत्री सहायता कोष में अपने गहने दान किए। सदैव अपने परिश्रम, कर्तव्य और आचरण से ईमानदारी और सादगी की एक अनुकरणीय मिसाल उन्होंने बनाई । छोटी उम्र में ही उनने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया था, और कई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बने।
लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी से सात मील दूर एक छोटे से रेलवे टाउन, मुगलसराय में हुआ था। उनके पिता शारदा प्रसाद श्रीवास्तव एक स्कूल शिक्षक थे। जब लाल बहादुर शास्त्री केवल डेढ़ वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। तब उनकी माँ रामदुलारी देवी अपने तीनों बच्चों के साथ अपने पिता के घर मिर्जापुर जाकर बस गईं। यहीं पर शास्त्री जी का पालन पोषण हुआ और उनकी प्राथमिक शिक्षा शुरू हुई। कहा जाता है कि उस छोटे-से शहर में शास्त्री जी की स्कूली शिक्षा कुछ खास नहीं रही उन्होंने वहाँ काफी विषम परिस्थितियों में शिक्षा हासिल की। वहीं उन्हें स्कूल जाने के लिए रोजाना मीलों पैदल चलना और नदी पार करनी पड़ती थी। बड़े होने के साथ ही शास्त्री जी ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के लिए देश के संघर्ष में रुचि रखने लगे। वे भारत में ब्रिटिश शासन का समर्थन कर रहे भारतीय राजाओं की महात्मा गांधी द्वारा की गई निंदा से अत्यंत प्रभावित हुए थे। शास्त्री जी जब केवल ग्यारह वर्ष के थे तब से ही उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया था। शास्त्री जी स्वतंत्रता के पहले आजादी की लड़ाई के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता थे। वे स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लेते थे। आंदोलन के लिए उन्होंने अपनी पढ़ाई से भी समझौता किया। वर्ष 1930 में शास्त्री जी को कांग्रेस कमेटी के स्थानीय इकाई का सचिव बनाया गया था। शास्त्री जी स्वतंत्रता आंदोलन के उन क्रांति कारी नेताओ में शामिल हैं जिन्हें 1942 में ब्रिटिश गर्वेमेंट द्वारा जेल में बंद किया गया था। देश के आजाद होने के बाद उन्होंने कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। वो आजादी के बाद उत्तर प्रदेश में पुलिस मंत्री भी रहे थे। इसके बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें केंद्र में रेल मंत्री का पद दिया। पर शास्त्री जी के लिए नैतिकता सबसे उपर थी, 1956 में हुई एक रेल दुर्धटना के कारण उन्होंने अपना इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद वे एक बार फिर 1957 में परिवहन और संचार मंत्री बने। इसके बाद 1961 में वे गृह मंत्री बनाए गए। वर्ष 1925 में काशी विद्यापीठ से ग्रेजुएट होने के बाद उन्हें “शास्त्री” की उपाधि दी गई थी। ‘शास्त्री’ शब्द एक ‘विद्वान’ या एक ऐसे व्यक्ति को इंगित करता है जिसे शास्त्रों का अच्छा ज्ञान हो। काशी विद्यापीठ से ‘शास्त्री’ की उपाधि मिलने के बाद उन्होंने जन्म से चला आ रहा सरनेम ‘श्रीवास्तव’ हमेशा हमेशा के लिये हटा दिया और अपने नाम के आगे ‘शास्त्री’ लगा लिया। इसके पश्चात् शास्त्री शब्द लालबहादुर के नाम का पर्याय ही बन गया। 16 मई 1928 में शास्त्री जी का विवाह मिर्जापुर निवासी गणेशप्रसाद की पुत्री ललिता जी से हुआ। उनके क्रान्ति कारी सामाजिक विचार इसी से समझे जा सकते हैं की उन्होंने अपनी शादी में दहेज लेने से इनकार कर दिया था। लेकिन अपने ससुर के बहुत जोर देने पर उन्होंने कुछ मीटर खादी का दहेज लिया था। गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए देशवासियों से एकजुट होने का आह्वान किया था, उस समय शास्त्री जी केवल सोलह वर्ष के थे। उन्होंने महात्मा गांधी के इस आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय कर लिया था। वर्ष 1930 में महात्मा गांधी ने नमक कानून को तोड़ते हुए दांडी यात्रा शुरू की। इस प्रतीकात्मक सन्देश ने पूरे देश में एक तरह की क्रांति ला दी। शास्त्री जी विह्वल ऊर्जा के साथ स्वतंत्रता के इस संघर्ष में शामिल हो गए। उन्होंने कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया एवं कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश जेलों में रहे। आजादी के इस संघर्ष ने उन्हें पूर्णतः परिपक्व बना दिया। स्वतंत्रता संग्राम के जिन जन आन्दोलनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही उनमें वर्ष 1921 का ‘असहयोग आंदोलन’, वर्ष 1930 का ‘दांडी मार्च’ तथा वर्ष 1942 का ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ महत्वपूर्ण है। लाल बहादुर शास्त्री भारत के दूसरे प्रधानमंत्री थे उससे पहले जब नेहरू जी बीमार थे वे बिना विभाग के मंत्री के रूप में सारा काम देख ही रहे थे। नेहरू जी मृत्यु के 13 दिनों बाद उन्होंने प्रधानमंत्री का पद संभाला। अन्न संकट के कारण तब देश भुखमरी की स्थिति से गुजर रहा था। वहीं 1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान देश आर्थिक संकट से जूझ रहा था। उसी दौरान अमरीकी राष्ट्रपति ने शास्त्री जी पर दबाव बनाया कि अगर पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई बंद नहीं की गई तो हम गेहूँ के आयात पर प्रतिबंध लगा देंगे। यह वो समय था जब भारत गेहूँ के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था इसलिए शास्त्री जी ने देशवासियों को सेना और जवानों का महत्व बताने के लिए ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया था। इस संकट के काल में शास्त्री जी ने अपनी तनख्वाह लेना भी बंद कर दिया था और देशवासियों से कहा कि हम हफ़्ते में एक दिन का उपवास करेंगे। पाकिस्तान के साथ वर्ष 1965 का युद्ध खत्म करने के लिए वह समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए ताशकंद में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान से मिलने गए थे लेकिन इसके ठीक एक दिन बाद 11 जनवरी 1966 को अचानक खबर आई कि हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हो गई है। हालांकि उनकी मृत्यु पर वर्तमान समय में भी संदेह है। भारत सरकार ने वर्ष 1966 में लाल बहादुर शास्त्री को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित कर उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन किया था। उनके सिद्धांत आज भी प्रेरक और प्रासंगिक हैं।
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “जहर भी अब शुध्द मिलता है कहाँ…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #249 ☆
☆ जहर भी अब शुध्द मिलता है कहाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “समझौते अटपटे हुए हैं…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 73 ☆ समझौते अटपटे हुए हैं… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆