हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 2 ??

राष्ट्र का संगठन :

राष्ट्र का गठन राज्य या प्रदेश से होता है। प्रदेश, जनपद से मिलकर बनते हैं। जनपद की इकाई तहसील होती है। तहसील नगर और गाँवों से बनती है। नगर या गाँव वॉर्ड अथवा प्रभाग से, प्रभाग मोहल्लोेंं से, मोहल्लेे परिवारों से और परिवार, व्यक्ति से बनता है। इस प्रकार व्यक्ति या नागरिक, राष्ट्र की कोशिका है। व्यक्तियों के संग से संघ के रूप में उभरता है राष्ट्र।

व्यक्ति, समष्टि, सृष्टि  एवं एकात्मता :

संगी-साथी हो चाहे जीवनसंगी, किसीका साथ न हो तो मनुष्य पगला जाता है। मनुष्य को साथ चाहिए, मनुष्य को समाज चाहिए। दूसरे शब्दों में ’मैन इज़ अ सोशल एनिमल।’

सामाजिक होने का अर्थ है कि मनुष्य अकेला नहीं रह सकता। अकेला नहीं रह सकता, अत: स्त्री-पुरुष साथ आए। यूँ भी सृष्टि युग्मराग है। प्रकृति और पुरुष साथ न हों तो सृष्टि चलेगी कैसे?

पाषाणयुग में स्त्री, पुरुष दोनों शिकार करने में सक्षम थे, आत्मनिर्भर थे। आरंभ में लैंगिक आकर्षण के कारण वे साथ आए। यौन सम्बंध हुए, स्त्री ने गर्भ धारण किया। गर्भ में जीव क्या आया मानो मनुष्य की मनुष्यता अवतरित हुई।

वस्तुत: मनुष्य में विराटता अंतर्भूत है। विराट एकाकी नहीं होता और सज्जन में, शठ में सब में होती है। इसी विराटता ने सूक्ष्म से स्थूल की ओर पैर पसारना आरंभ किया। मनुष्य में समूह जागा।

गर्भवती के लिये शिकार करना कठिन था। सुरक्षित प्रसव का भी प्रश्न रहा होगा। भूख, सुरक्षा, शिशु का जन्म आदि अनेक भाव एवं विचार होंगे जिन्होंने सहअस्तित्व तथा दायित्वबोध को जन्म दिया।

मनुष्य का परिवार पनपा। परिवार के लिये बेहतर संसाधन जुटाने की इच्छा ने मनुष्य को विकास के लिये प्रेरित किया। अब पास-पड़ोस भी आया। मनुष्य सुख दुख बाँटना चाहता था। वह समूह में रहने लगा। इसे विकास की मानसिक प्रक्रिया या प्रोसेस ऑफ साइकोलॉजिकल इवोल्यूशन कह सकते हैं।

वैसे इन तमाम सिद्धांतों से पहले अपौरूषेय आदिग्रंथ ऋग्वेद,  ईश्वर का ज्ञानोपदेश सीधे लेकर आ चुका था। स्पष्ट उद्घोष है-

॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥

 ( ऋग्वेद 10.181.2)

अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें। ऋग्वेद द्वारा प्रतिपादित सामूहिकता का मंत्र मानुषिकता एवं एकात्मता का प्रथम अधिकृत संस्करण है।

अथर्ववेद एकात्मता के इसी तत्व के मूलबिंदु तक जाता है-

॥ मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥2॥

(अथर्ववेद 3.30.3)

अर्थात भाई, भाई से द्वेष न करें, बहन, बहन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 105 – “लेखन कला” – परबंत सिंह मैहरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  परबंत सिंह मैहरी जी की पुस्तक  “लेखन कला” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 105 – “लेखन कला” – परबंत सिंह मैहरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – लेखन कला

लेखक.. परबंत सिंह मैहरी, हावडा 

पृष्ठ १३२, मूल्य ३००, पेपर बैक

प्रकाशक.. रवीना प्रकाशन गंगा नगर दिल्ली ९४

हिन्दी साहित्य के सहज, शीघ्र प्रकाशन के क्षेत्र में रवीना प्रकाशन एक महत्वपूर्ण नाम बनकर पिछले कुछ समय में ही उभर कर सामने आया है. लगभग हर माह यह प्रकाशन २० से २५ विभिन्न विषयो की, विभिन्न विधाओ की, देश के विभिन्न क्षेत्रो से नवोदित तथा सुस्थापित लेखको व कवियों की किताबें लगातार प्रकाशित कर चर्चा में है. रवीना प्रकाशन से ही  हाल ही चर्चित पुस्तक लेखन कला प्रकाशित हुई है. यह पुस्तक क्या है,  गागर में सागर है.

आज लोगों में विशेष रूप से युवाओ में  प्रत्येक क्षेत्र में इंस्टेंट उपलब्धि की चाहत है. नवोदित लेखको की सबसे बड़ी जो कमी परिलक्षित हो रही है वह है उनकी न पढ़ने की आदत. वे किसी दूसरे का लिखा अध्ययन नही करना चाहते पर स्वयं लिक्खाड़ बनकर फटाफट स्थापित होने की आशा रखते दिखते हैं. परबंत सिंह मैहरी स्वयं एक वरिष्ठ लेखक, पत्रकार व संपादक हैं. उन्होने अपने सुदीर्घ अनुभव से लेखन कला सीखी है. बड़ी ही सहजता से, सरल भाषा में, उदाहरणो से समझाते हुये उन्होने प्रस्तुत पुस्तक में अभिव्यक्ति की विभिन्न विधाओ कहानी,लघुकथा,  उपन्यास, निबंध, हास्य, व्यंग्य, रिपोर्टिंग, संस्मरण, पर्यटन, फीचर, आत्मकथा, जीवनी, साक्षात्कार,नाटक, कविता, गजल, अनुवाद आदि लगभग लेखन की प्रत्येक विधा पर सारगर्भित दृष्टि दी है.

मैं वर्षो से हिन्दी का निरंतर पाठक, लेखक, समीक्षक व कवि हूं.  किन्तु किसी एक किताब में इस तरह का संपूर्ण समावेश मुझे अब तक कभी पढ़ने नही मिला. यद्यपि इस तरह के स्फुट लेख कन्ही पत्र पत्रिकाओ में यदा कदा पढ़ने मिले पर जिस समग्रता से सारी विषय वस्तु को एक नये रचनाकार के लिये इस पुस्तक में संजोया गया है, उसके लिये निश्चित ही लेखक व प्रकाशक के प्रति हिन्दी जगत ॠणी रहेगा.

निश्चित ही स्वसंपादित सोशल मीडीया ने भावनाओ की लिखित अभिव्यक्ति के नये द्वार खोले हैं, जिससे नवोदित रचनाकारो की बाढ़ है. हर पढ़ा लिखा स्वयं को लेखक कवि के रूप में स्थापित करता दिखता है, किंतु मार्गदर्शन व अनुभव के अभाव में उनकी रचनाओ में वह पैनापन नही  दिखता कि वे रचनायें शाश्वत या दीर्घ जीवी बन सकें. ऐसे समय में इस पुस्तक की उपयोगिता व प्रासंगिकता स्पष्ट है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ जीवन की Balance Sheet ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “जीवन की Balance Sheet”.)

☆ संस्मरण ☆ जीवन की Balance Sheet ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(इतिहास के झरोखों से)

हमारे प्रिय मित्र ने आदेश दिया की आइना के सामने जाकर आज अपनी जिंदगी का लेखा जोखा पेश करो।आजकल समय कुछ नेगेटिव बातो का है तो हमे भी लगने लगा कहीं चित्रगुप्त के सामने पेश होने की ट्रेनिंग तो नहीं हो रही। अभी तो जिंदगी शुरू की है रिटायरमेंट के बाद से।

खैर, हमने इंटरव्यू की तैयारी शुरू कर दी और अपनी सबसे अच्छी वाली कमीज़ (जिससे हमने स्केल 3 से लेकर 5 के interview दिए थे वो मेरा lucky charm थी)  पहन, जूते पोलिश कर आइना खोजने लगे। अरे ये क्या? आइना कहां है? मिल नहीं रहा था, मिलता भी कैसे आज एक वर्ष से अधिक हो गया जरूरत ही नहीं पड़ी।

श्रीमती जी से पूछा तो बोली क्या बात है, अब Covid की दूसरी घातक लहर चल पड़ी है तो आपको सजने संवरने की पड़ी है, अपने उस मोबाइल में ही लगे रहो। एक साल से सब्जी की दुकान तक तो गए नहीं। अब जब सारी दुनिया दुबक के पड़ी है और आपको जुल्फें संवारने की याद आ रही है।

हमने उलझना ठीक नहीं समझा और बैठ गए मोबाइल लेकर, दोपहरी को जैसे ही श्रीमतीजी नींद लेने लगी हम भी अपने मिशन में लग गए और आइना खोज लिया। एक निगाह अपनी नख से शिखा तक डाली और थोड़ी से चीनी खाकर चल पड़े।अम्माजी की याद आ गई जब भी घर से किसी अच्छे काम के लिए जाते थे तो वो मुंह मीठा करवा कर ही बाहर जाने देती थी और आशीर्वाद देकर कहती थी जाओ सफलता तुम्हारा इंतजार कर रही है। हमने भी मन ही मन अपनी सफलता की कामना कर ली।

जैसे ही आईने के सामने पहुंचे मुंह से निकल ही रहा था May I come in, sir लेकिन फिर दिल से आवाज़ आई अब तुम स्वतंत्र हो, डरो मत,आगे बढ़ो।आईने में जब अपने को देखा तो लगा ये कौन है लंबी सफेद दाढ़ी वाला पूरे चेहरे पर दूध सी सफेदी देख कर निरमा Washing Powder के विज्ञापन की याद आ गई ।

अपने आप को संभाल कर हमने अपने कुल देवता का नमन किया।

पर ये क्या मन बहुत ही चंचल होता है विद्युत की तीव्र गति से भी तेज चलता है हम भी पहुंच गए कॉलेज के दिनों में स्वर्गीय प्रोफ सुशील दिवाकर की वो बात जहन में थी जब हमारी बढ़ी हुई दाढ़ी पर उन्होंने कहा था “Not shaving” तो हमने एकदम कहा था ” No sir Saving” वो खिल खिला कर हंसने लगे।बहुत ही खुश मिजाज़ व्यक्ति थे।

अब कॉलेज के प्रांगण में थे तो प्रो दुबे एस एन की याद ना आए ऐसा हो ही नहीं सकता, Economics को सरल और सहज भाव में समझा देते थे आज भी उनकी बाते ज़ुबान पर ही रहती है।

एक दिन कक्षा में Demand और Supply पर चर्चा हो रही थी।उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए बतलाया कि सरकार जब अपने स्तर पर मज़दूर को रोज़गार देती है तो उससे Demand निकलती है, मजदूर पेट भरने के बाद कुछ अपने पर खर्च करने की सोचता है,अपनी Shave करने के लिए बाज़ार से एक Blade खरीदता है,और शुरू हो जाती है Demand, दुकानदार, होलसेलर को ऑर्डर भेजता है और होलसेलर फैक्ट्री को ऑर्डर भेजता है, फैक्ट्री जो बंद हो गई थी मजदूर लगा कर फैक्ट्री चालू कर देता है और रोज़गार देने लगता है।कैसे एक Blade से रोज़गार शुरू होता है।

अपनी लंबी दाढ़ी देख कर हम भी आपको कहां से कहां ले गए, इसलिए आइना नही देख रहे थे हम आजकल।

Note: हमने किसी दाढ़ी बढ़ाए हुए को भी आइना दिखाने की कोशिश नहीं की।?

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य#112 – कविता – माघ का महीना …. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  “माघ का महीना ….”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 112 ☆

? कविता –? माघ का महीना कड़कड़ाती ठंड, बड़े भाग्य शाली हैं बसे है रेवा खंड ? ?

 

शंभु पसीना बन कर निकली, मां नर्मदा बेटी समान

माघ महिना तिल दान स्नान, पूजे नर्मदा सरिता जान।

 

बहे नर्मदा अविरल धारा, शिव शंभु ने दिया वरदान

कण-कण शंकर हर कंकण, दर्शन मात्र पून्य महान।

 

मकर वाहिनी सरिता नर्मदा, निश्चल तेज बहे छल छल

घाट घाट को खूब संवारती, श्वेत जल धार बहे निर्मल।

 

साधु संतो की अमृत वाणी, गुजें हर पल वेदों का स्वर

त्रिपुर सुन्दरी मां विराजती, भेड़ाघाट नर्मदा तेवर।

 

पंचवटी में नौका विहार, सबके मन करती खुशहाल

संगमरमर की सुंदर आभा, मूरत बन कर करें निहाल।

 

तीर्थ स्नान बारम्बार, दर्शन मात्र मां नर्मदा

भक्तों का करती कल्याण स्मरण करें नित भोर सर्वदा।

 

अमरकंटक से निकली नर्मदा, सतपुडा के घने जंगल

सागौन नीलगिरी और पलाश, वृक्ष साधे नभ मंडल।

 

भेट चढ़ाएं लाल चुनरिया, भोग लगे चना अरु खिचड़ी

भक्त जनों की दुख पीड़ा, कष्ट हरे संवारती बिगड़ी।

 

आरती वंदन पुन्य सलीला, माघ महिना लगता मेला

दूर दूर से दर्शन को आए, घाटन घाट सजा रंगीला।

 

मां नर्मदा महाआरती, करती भक्तों का कल्याण

जनम जनम के पाप कटे, नित करते जप और ध्यान।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 123 ☆ भाकरी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 123 ?

☆ भाकरी ☆

तिनं शिकून घेतलंय

भाकरी करण्याचं तंत्र

पीठ, पाण्याचं प्रमाण

दोघांना खेळवणारी

परात आहे तिच्या घरात

 

कणीक ओळखू शकते

बोटांची हालचाल

बोटांनाही कळतात

कणकीच्या भावना

बाळाला थोपटावं

तसंच थोपटते

आकार देते

इथवर सगळं ठीक आहे

 

तापलेल्या तव्यावर

भाकरी फिरवताना

कसरत करावी लागते

भाकर थोडी तापली की

पाठीवरून पाण्याचा

प्रेमानं हात फिरवावा लागतो

 

बाळाला शेक देताना

जपतात तशी

जपून शेकावी लागते भाकरी

तेव्हाच होते ती खमंग खरपुस

थोडी जर बिघडली तर

आहेच

जीभ नाक मुरडायला मोकळी…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ किर्तीमुख.. ☆ संग्राहक – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ किर्तीमुख.. ☆ संग्राहक – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

देवळात गाभाऱ्याचे दरवाजावर किर्तीमुख कितीजणांना माहीत आहे?”

एकदा पार्वतीच्या सौंदर्याची स्तुती ऐकून महा शक्तिशाली जलंधर राक्षसाने पार्वतीस लग्नाची मागणी घालण्यास राहूला आपला दूत म्हणून पाठवले. राहू कैलासावर गेला,त्याने जलंधरासाठी पार्वती ला मागणी घातली, हे  ऐकून संतापलेल्या भोलेनाथांच्या तिसऱ्या डोळ्यातून एक भीषण राक्षस निर्माण झाला,आणि राहूवर धावून गेला.त्या राक्षसाचे महाभयंकर रूप बघून राहू गर्भगळीत झाला,त्याने शिवाच्या पायावर लोळणंच घेतली.भोलेनाथांनी दूत बनून आलेल्या राहूला माफ आणि तिथून काढता पाय घेतल्यावर महादेव परत ध्यानस्थ झाले. पण इकडे त्या भयंकर राक्षसाची भूक वाढतच होती. त्याने भोलेनाथांना विचारले, की मी काय खाऊ?ध्यानात मग्न होत असलेल्या महादेवांनी सांगितले,की खा स्वतःलाच.देवाधिदेव महादेवाची आज्ञा शिरसावंद्य मानून राक्षसाने स्वतःला पायापासून खायला सुरवात केली आणि खात खात त्याचे फक्त डोकेच उरले.

तरीही त्याची भूक भागली नाही.महादेवाचे ध्यान संपल्यानंतर त्याला दिसले ते फक्त राक्षसाचे डोके.त्या राक्षसाच्या आज्ञा पालनावर  भोलेनाथ प्रचंड खुश झाले. त्यांनी त्या डोक्याला नाव दिले कीर्तिमुख.

ह्या जगात कधीही न संपणारी गोष्ट म्हणजे मनुष्याचे पाप.

अमर्याद अशी भूक असलेल्या किर्तीमुखाला देवाने काम दिले भक्तांची पापं खाण्याचे पंढरपूरचा विठ्ठल असो,  कोल्हापूरची अंबाबाई,किंवा तुळजापूरची भवानी,ह्या महाराष्ट्राच्या देवतांच्या मागे जी चांदीची महिरप किंवा कमान असते,त्याकडे आपले फारसे लक्ष जात नाही.त्या कमानीवरच विराजमान असते हे किर्तीमुख.दक्षिण भारतात शिवमंदिरांच्या शिखरावर ही किर्तीमुखे कोरलेली असतात जी शिवभक्तांची पापे गिळत असतात.शिवाचा मनुष्याच्या पापे करण्याच्या क्षमतेवर पुरेपूर विश्वास.म्हणून किर्तीमुखाला आजही पोटभर खायला मिळते

संग्राहक : सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – संस्मरण ☆ लेखांक # 8 – मी प्रभा… नावात काय आहे ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? आत्मकथन ?

☆ लेखांक# 8 – मी प्रभा… नावात काय आहे ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

माझं नाव प्रभा सोनवणे! गेली पंचेचाळीस वर्षे मी या नावानेच ओळखली जाते,साहित्य क्षेत्रात जी काही लुडबुड केली, ती आता नावारूपास आली आहे, कवयित्री, लेखिका, संपादक म्हणून प्रभा सोनवणे हे नाव लोकांना माहित आहे, परवा पासपोर्टचं नूतनीकरण करायला गेलो, त्या आधी एजंटने सांगितले होते आधार कार्डावर जसं संपूर्ण नाव आहे तसंच पासपोर्ट वर असायला हवं, म्हणजे नव-याच्या नावासकट! मग त्या संपूर्ण नावाची गॅझेट मधे नोंद करून घेतली त्यासाठी पैसा, वेळ वाया घालवला, पासपोर्ट ऑफिस च्या बाहेर एजंट ने सांगितले तिथे स्क्रीन वर नीट पाहून घ्या नाव आणि पत्ता बरोबर आहे का! तरीही व्हायचा तो घोटाळा झालाच, पत्ता चेक केला,नाव चेक करायचं राहून गेलं, पूर्वी पासपोर्ट वर “सोनवणे प्रभा” एवढंच नाव होतं ते तसंच राहिलं! नव-याचं नाव जोडायचं राहून गेलं, म्हणजे ज्या साठी केला होता आट्टाहास…..ते राहूनच गेलं!

प्रसिद्ध इंग्रजी लेखक  शेक्सपिअर म्हणतो नावात काय आहे? पण नावात बरंच काही आहे. आई सांगायची तिला माझं नाव मृणालिनी ठेवायचं होतं पण त्या काळात देवबाप्पा हा सिनेमा खूप गाजला होता (माझा जन्म १९५६ सालचा आहे) त्यातल्या “चंदाराणी ” नावाचा बराच प्रभाव होता, माझ्या मामांनी माझं नाव चंदाराणी ठेवलं आणि  आईला आवडत असलेलं एक चांगलं  नाव मला मिळालं नाही!

लग्नानंतर सासूबाईंनी प्रभा नाव ठेवलं, आजीला आवडत असलेलं “नूतन”, गुरूजींनी क अक्षरावरून नाव ठेवायला सांगितलं म्हणून “कात्यायनी” ही नावं सुद्धा मी वापरली आहेत. कारण असं वाटतंच आपलं एक छानसं नाव असावं.

पण आता वयाच्या पासष्टाव्या वर्षी प्रभा हेच नाव स्वतःचं वाटतं कारण गेली पंचेचाळीस वर्षे तिच माझी ओळख बनली आहे. प्रभा सोनवणे या नावाला स्वतःची एक प्रतिमा निर्माण करता आली, या नावाची जनमानसात एक छाप आहे…..म्हणूनच या मालिकेचं नाव आहे……  मी…. प्रभा अर्थात हे शीर्षक मंजुषा मॅडमनी सुचवलं आहे!

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 75 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 75 –  दोहे ✍

चटकाते चप्पल फिरे, फिर चुनाव की दौड़ ।

मंत्री पद पर बैठकर, जोड़े पांच करोड़।।

 

पावन गांधी नाम को, इतना किया खराब।

 नाम रखा उस मार्ग का, बिकती जहां शराब।।

 

चादर गांधी नाम की, ओढ़े फिरें जनाब ।

मांसाहारी आचरण, जमके पियें शराब।।

 

सत्याग्रह के अर्थ को, क्या समझेंगे आप ।

भ्रष्ट आचरण युक्त हैं, सारे क्रियाकलाप।।

 

तख्तनशीनी  हुई तो, हुए दूधिया आप ।

बदली सारी व्यवस्था, छिपा लिए सब पाप।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 75 – “जो छुपाये स्वयम्  में है ….” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “जो छुपाये स्वयम्  में है ….।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 75 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “जो छुपाये स्वयम्  में है ….” || ☆

नदी,घाटी,पर्वतों ,

पसरा हुआ है नील ।

जहाँ मौसम दिख रहा

है स्वत: ही अश्लील ।।

 

निकल कर अमराईयों से

झील पोखर में उतरता ।

सालता है , निरुत्तर हो

गली कूचों से गुजरता ।।

 

महमहाती देह की इस

नर्म सी बारादरी पर।

हुक्म की बे-वजह कह-

लो हो रही तामील।।

 

यहाँ पर यह कठिनतम

शालीन झुरमुट बेतहाशा ।

जो छुपाये स्वयम्  में है

वेदना दायक तमाशा।।

 

देह का आस्वाद देती

सामने आ थमी ।

रजत-पट की दिख रही

है श्वेत श्यामा रील ।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

20-01-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 25 ☆ हम साथ साथ (लाए गए) हैं ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “हम साथ साथ (लाए गए) हैं” । इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ शेष कुशल # 25 ☆

☆ व्यंग्य – ‘हम साथ साथ (लाए गए) हैं’ ☆ 

हाँ तो श्रीमान, आपने कभी तराजू में मेंढक तौल कर देखे हैं ?

नहीं ना, तो ऐसा कीजिए घर में ही शादी के रिसेप्शन के अंतिम दौर में एक फेमेली फोटो खिंचवाने की ज़िम्मेदारी ले लीजिए. पहले ऐसा करें कि महोबावाली मौसी को ढूंढ लें. किते को गई हैं, मिल नई रई इत्ते बड़े गार्डन में. मोबाइल लगा लीजिए. उठा नई रई – रूम में धरो होगो. वे बैठी हैं उते अलाव के कने. लो अब वे मिलीं तो मौसाजी गायब.यार जल्दी करो हम तुमे स्टेज के पास इकट्ठा होने को कह रहे हैं तुम इधर उधर हो जाते हो. अरे कोई दद्दा को लेके आओ यार. तुमई चले जाओ उधर जमीं है महफिल बुढ़ऊओं की – वहीदा रहमान के दीवाने हैं दद्दा. ‘चौदहवीं का चाँद’ इकत्तीस बार देखी उनने. उसी की स्टोरी सुना रहे होंगे. सुनाते रहें यार हमें क्या, हम तो एक बार फोटो खिंचवा दें तो हमारी ज़िम्मेदारी खतम. कोसिस करते हैं मगर बे हमारे केने से आएंगे नई.

लो अब पप्पू कहाँ चला गया. जहीं तो खड़ा हूँ जब से फेविकोल लगा के. खड़ा मत रह पिंकी बुआ को बुला, जल्दी, केना कि खाना बाद में खा लियो. खाना नई खा रईं बे पाँचवें दौर की पानी पतासी खा रई हैं. जब तक पेट ना पिराने लगेगा तब तक इनिंग्स चलती रहेगी बुआ की. आर्गुमेंट मतकर यार, तेनगुरिया फेमेली की जेई वीकनेस है – काम कम बहस ज्यादा. बड़ी मुस्किल से पूरी फेमेली इकट्ठी हुई है, तुम बतकही में टेम खराब कर दे रहे हो.

चलिये, जो जो आ सकते थे स्टेज के पास आ चुके, मगर दो जन हो कर भी नहीं हैं. कक्का ने फोटो खिंचवाने से मना कर दिया. कहने लगे तुमने हमें पहले क्यों नहीं बताया, अब हमने टाई खोल दी है और बिना उसके हम फोटो खिंचवाएंगे नहीं. आप चिंता न करो कक्का ट्रिक-फोटोग्राफी आती है हमें, टाई बाद में अलग से जोड़ देंगे. कक्का यूं भी मन भाए मुंडी हिलाए के मूड में थे सो आसानी मान गए, मगर गुनेवाली नई बहू मंच के सामनेवाली कुर्सियों पर अब तक जमीं हुई थी. इसरार किए जाने पर बोलीं – हमें पसंद नई फोटो खिंचाना, हमारे फोटो अच्छे नई आते. ‘नखरे देखो इसके अब्बी से’ – मौसी ने बड़ी माँ के कान में फुसफुसा के इस तरह कहा कि सबको सुनाई भी दे जाए और लगे कि वे सिर्फ बड़ी माँ को कहना चाहती हैं. बिट्टू भैया ने समझाया – कौन तुमे मॉडलिंग के ट्रायल में भेजनी है जे फोटो. फेमेली साथ में है तो खिंचा लेव.

सबको इकट्ठा करने की कवायद पूरी हुई तो अब सेट जमा लीजिए. चलो लेडीज़ सब उस तरफ, जेन्ट्स सब इस तरफ. पिंटू यार तुम पीछे खड़े रहो – बिजली के खंबे से लंबे हो और आगे घुसे चले आ रए. बच्चे सब नीचे बैठेंगे. पप्पू तुम सामने आओ ना. नई हम पीछे ही खड़े रहेंगे – मुंडी दिख जाये फेमेली में इतनी ही हैसियत है हमारी. पप्पू के पापा ने उसे घूर कर देखा और मौके की नज़ाकत को भाँपते हुवे मन मसोस कर रह गए वरना अब तक बापवाली दिखा दिए होते. सेंटर में सरवैया परिवार की कैटरीना कैफ और तेनगुरिया परिवार के विक्की कौशल, तीन घंटे से खड़े खड़े आशीर्वाद के लिफाफों से अभिसिंचित हो रहे थे मगर थकान तो छू तक नहीं गई थी. शांत, स्थितप्रज्ञ, धैर्यवान कोई था तो बस कैमेरामेन – दोनों छोर से सिकुड़ने की चिरौरी और कैमरे के लेंस की ओर देखने का सतत आग्रह करता हुआ. बहरहाल, पोज खिंचा ही चाहता था कि अचानक, रुको रुको – दद्दा आप सोफ़े पे बीच में बैठो और विक्की और कैटरीना ऊकड़ूँ, पैर छूते हुवे, कैमरे की ओर देखो. दद्दा हाथ रखो दोऊ के सिर पे.

ओके, रेडी, क्लिक, डन, बाय.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares