(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता ‘तंग करती कविता’ )
☆ कविता # 122 ☆ तंग करती कविता ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# सर्द मौसम #”)
☆ विचार–पुष्प – भाग २ – खरे शिक्षण ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
[भारतीय संस्कृतीतमध्ये आपल्या जीवनात असणार्या गुरूंना अर्थात मार्गदर्शन करणार्या व्यक्तिंना अत्यंत महत्वाचे स्थान आहे, हे महत्व आपण शतकानुशतके वेगवेगळ्या पौराणिक, वेदकालीन, ऐतिहासिक काळातील अनेक उदाहरणावरून पाहिले आहे. आध्यात्मिक गुरूंची परंपरा आपल्याकडे आजही टिकून आहे. म्हणून आपली संस्कृतीही टिकून आहे.
एकोणीसाव्या शतकात भारताला नवा मार्ग दाखविणारे आणि भारताला आंतरराष्ट्रीय विचारप्रवाहात आणणारे, भारताबरोबरच सार्या विश्वाचे सुद्धा गुरू झालेले स्वामी विवेकानंद.
आपल्या वयाच्या जेमतेम चाळीस वर्षांच्या आयुष्यात, विवेकानंद यांनी गुरू श्री रामकृष्ण परमहंस यांचे शिष्यत्व पत्करून जगाला वैश्विक आणि व्यावहारिक अध्यात्माची शिकवण दिली आणि धर्म जागरणाचे काम केले, त्यांच्या जीवनातील महत्वाच्या घटना आणि प्रसंगातून स्वामी विवेकानंदांची ओळख या चरित्र मालिकेतून करून देण्याचा हा प्रयत्न आहे.]
मुलांना कोणत्या शाळेत घालायचं हा मोठा प्रश्न आजच्या पालकांसमोर असतो. खरय की शिक्षण आपल्या आयुष्यातला महत्वाचा घटक असतो. शिक्षण हे औपचारिक आणि अनौपचारिक दोन्हीही. औपचारिक शिक्षण म्हणजे शालेय, महाविद्यालयीन, पुस्तकी शिक्षण, तर अनौपचारिक शिक्षण म्हणजे घरात कुटुंबात,बाहेर समाजात, आजूबाजूला घडणार्य घटना यातून मिळालेले शिक्षण व मोठ्यांनी केलेले संस्कार सुद्धा. शाळेत घेतलेले पाठ्यपुस्तकांतले शिक्षण म्हणजे निव्वळ माहिती असते. ब्रिटीशांनी घालून दिलेल्या या शिक्षण पद्धतीमुळे आपल्या देशात जीवनमूल्ये शिकवणार्या, व्यवहारज्ञान शिकविणार्या गोष्टी विद्यार्थ्यांना मिळत नाहीत. शिक्षण क्षेत्रातली आजची स्थिति बघता स्वार्थ आणि मानवी मूल्यांची घसरण याच वरचढ होत आहेत.
हे तर स्वामी विवेकानंदांना तेंव्हाच कळलं होत. त्यांचाही या शिक्षण पद्धतीला विरोध होता. शिक्षणविषयी त्यांची मते आजही डोळे उघडणारी आहेत. ते म्हणतात, “ आपल्याला जीवन घडविणारे, माणूस निर्माण करणारे, व चांगले विचार आत्मसात करविणारे शिक्षण हवे आहे. तुम्ही जर चार पाच विचार आत्मसात करून आपल्या जीवनात व आचरणात उतरविलेत तर अवघे ग्रंथालय मुखोद्गत करणार्या व्यक्तिपेक्षाही तुमचे शिक्षण सरसच ठरेल. जे शिक्षण सामान्य लोकांमध्ये चारित्र्यबल, सेवा, तत्परता आणि साहस निर्माण करू शकत नाही ते काय कामाचे? यामुळे किल्ली दिलेल्या यंत्रासारखे तुम्ही राबता. ज्यामुळे सामान्य माणूस स्वताच्या पायावर उभा राहू शकतो, तेच खरे शिक्षण. चारित्र्य घडविणारे, मानसिक बल वाढविणारे, बुद्धी विशाल करणारे आणि स्वावलंबी बनविणारे असे शिक्षण आम्हाला हवे आहे”
हे स्वामी विवेकानंदांचे विचार आजही तंतोतंत लागू आहेत. आजच्या शिक्षण क्षेत्राला आणि देशाला पण .आजच्या घडीला भरकटलेला युवक, टंगळमंगळ करुन वेळ वाया घालविणारा युवक, दिशा नसणारा व ध्येय नसणारा युवक, रस्त्यारस्त्यात, चौकात हास्यविनोद करणारा, छेड छाड करणारा, आंदोलने, मोर्चे यात स्वार्थासाठी व कुणी संगितले म्हणून सहभागी होणारा युवक उद्याच्या भारताची चिंता आहे.
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘काम की चीज़ ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 125 ☆
☆ व्यंग्य – काम की चीज़ ☆
नेताजी फिर से थैला भर लॉलीपॉप लेकर जनता के बीच पहुँचे।लॉलीपॉप के बल पर दो चुनाव जीत चुके थे, अब तीसरे की तैयारी थी। ‘जिन्दाबाद, जिन्दाबाद’ के नारे लगाने वाले समर्थकों और चमचों की फौज थी।चमचे दिन भर मेहनत करके सौ डेढ़-सौ आदमियों को हाँक लाये थे।नेताजी के लिए यह मुश्किल समय था।एक बार चुनाव फतह हो जाए, फिर पाँच साल आनन्द ही आनन्द है।फिर पाँच साल तक जनता की शक्ल देखने की ज़रूरत नहीं।
नेताजी धड़ाधड़ श्रोताओं की तरफ लॉलीपॉप उछाल रहे थे कि भीड़ में से कोई काली चीज़ उछली और नेताजी के कान के पास से गुज़रती हुई पीछे खड़े उनके एक चमचे शेरसिंह की छाती से टकरायी।नेताजी ने घूम कर देखा तो एक पुराना सा काला जूता शेरसिंह के पैरों के पास पड़ा था और शेरसिंह आँखें फाड़े उसे देख रहा था।देख कर नेताजी का मुँह उतर गया, लेकिन दूसरे ही क्षण वे सँभल गये।शेरसिंह को बुलाया, जूता जनता को दिखाने के लिए कहा, बोले, ‘देखिए भाइयो, ये मेरी बातों के लिए विरोधियों का जवाब है।यही तर्क है उनके पास और यही है उनकी सभ्यता।लेकिन मैं उनको इस भाषा में जवाब नहीं दूँगा।छमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।इसका जवाब जनता देगी, आप देंगे।इस चुनाव में इन उपद्रवियों को भरपूर जवाब मिलेगा।मैं इसे आप पर छोड़ता हूँ।’
नेताजी भाषण समाप्त करके चले तो तो शेरसिंह गुस्से से कसमसाता हुआ बोला, ‘मैं जूते वाले को ढूँढ़ कर उसके सिर पर यही जूता दस बार बजाऊँगा,तभी मेरा कलेजा ठंडा होगा।’
नेताजी गुस्से से उसकी तरफ देखकर बोले, ‘नासमझ मत बनो।यह जूता हमारे बड़े काम आएगा।इसे सँभाल कर रखना।यह हमारे हजार दो हजार वोट बढ़ाएगा।हमारे देश के लोग बड़े जज़्बाती होते हैं।’
इसके बाद हर चुनाव-सभा के लिए चलते वक्त नेताजी शेरसिंह से पूछते, ‘वह रख लिया?’ और शेरसिंह द्वारा उन्हें आश्वस्त करने के बाद ही आगे बढ़ते।
फिर हर सभा में वे बीच में रुककर कहते, ‘एक ज़रूरी बात आपको बताना है जो विरोधियों के संस्कार और उनके अस्तर (नेताजी ‘स्तर’ को ‘अस्तर’ कहते थे)को दिखाता है।’ फिर वे शेरसिंह से हाथ ऊँचा कर जूता दिखाने को कहते। आगे कहते, ‘देखिए, पिछले महीने श्यामगंज की सभा में मुझ पर यह जूता फेंका गया।यह मेरे खिलाफ विरोधियों का तर्क है।लेकिन मुझे इसके बारे में उन्हें कोई जवाब नहीं देना है।अपना सिद्धान्त है, जो तोको काँटा बुवै ताहि बोउ तू फूल। मेरे बोये हुए फूल आपके हाथों में पहुँचकर विरोधियों के लिए तिरशूल बन जाएंगे।मैं इस घटिया हरकत का फैसला आप पर छोड़ता हूँ।मुझे कुछ नहीं करना है।’
वह जूता जतन से शेरसिंह के पास बना रहा और नेताजी की हर चुनाव-सभा में प्रस्तुत होता रहा।जूते के कारण नेताजी को भाषण लंबा करने की ज़रूरत नहीं होती थी।लोगों के जज़्बात को उकसाने का काम जूता कर देता था।जब कभी शेरसिंह उसे लेकर भुनभुनाने लगता तो नेताजी समझाते, ‘भैया, ज़रा जूते का मिजाज़ समझो।यह इज़्ज़त उतारता भी है और बढ़ाता भी है।यह आदमी के ऊपर है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करता है।पालिटिक्स में हर चीज़ के इस्तेमाल का गुर आना चाहिए।कुछ समझदार लोग तो अपनी सभा में खुद ही जूता फिंकवाते हैं।राजनीति में अपमान छिपाया नहीं, दिखाया और भुनाया जाता है।’
एक दिन नेताजी के मित्र और समर्थक त्यागी जी उनसे बोले, ‘भैया, पिछली मीटिंग में मुझे लगा कि आप जो जूता दिखा रहे थे वह पहले जैसा नहीं था।’
नेताजी हँसे, बोले, ‘आप ठीक कह रहे हैं।दरअसल वह ओरिजनल जूता एक सभा में शेरसिंह से खो गया था, तो मैंने अपने ड्राइवर का जूता मँगा लिया।उसे दूसरा खरिदवा दिया।यह जूता भी काले रंग का है।जनता को कहाँ समझ में आता है कि असली है या नकली।दिखाने के लिए जूता होना चाहिए,काम रुकना नहीं चाहिए।‘
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 124 ☆ स्वर्गादपि गरीयसी ☆
लोकतन्त्र को जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन के रूप में परिभाषित किया जाता है। गणतंत्र को एक अर्थ में लोकतंत्र का अधिकृत क्रियान्वयन कहा जा सकता है। गणतंत्र की अपनी स्थूल देह नहीं होती पर अपने हर नागरिक की हर साँस में दम भरता है गणतंत्र। गणतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता प्रत्येक नागरिक में समाहित होती है।
मतितार्थ स्पष्ट है। सत्ता यदि हरेक में समाहित है तो दायित्व भी हरेक का है। एक प्रेरक घटना याद आ रही है। जापान के एक विद्यालय में विदेशी प्रतिनिधिमंडल पहुँचा। दस-बारह वर्षीय एक छात्र से प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य ने प्रश्न किया, ‘यदि कोई शत्रु तुम्हारे देश पर आक्रमण कर दे तो तुम क्या करोगे?’ छात्र ने कहा, ‘मैं शत्रु का डटकर मुकाबला करूँगा। शत्रु का शीश काटकर अपनी मातृभूमि पर अर्पित कर दूँगा।’ प्रतिनिधिमंडल इतनी-सी आयु के बालक के इस उत्तर से अवाक रह गया। सदस्यों ने इस भावना का गहरे तक जाकर विश्लेषण करने की ठानी। बालक से उसके धर्म, पंथ, संप्रदाय की जानकारी ली। बालक स्थानीय मान्यता के एक पंथ से सम्बंधित था। यह पंथ एक देवता विशेष की पूजा करता है। प्रतिनिधिमंडल ने विचारपूर्वक अगला प्रश्न किया, ‘यदि तुम्हारे पंथ का देवता तुम्हारे देश पर आक्रमण कर दे तो तुम क्या करोगे?’ छात्र ने बिना किसी हिचकिचाहट के उत्तर दिया,’ मैं देवता से युद्ध करूँगा। आवश्यकता पड़ी तो देवता का शीश काटकर अपनी मातृभूमि पर अर्पित कर दूँगा।’
अनन्य मार्गदर्शक संदेश है। निजी आस्था अनेक हो सकती हैं पर सामूहिक और सर्वोच्च आस्था है देश। तभी तो भारतीय संस्कृति का उद्घोष है, ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ इस उद्घोष का वर्तन ही गणतंत्र का रक्षण करता है। हम भारतीय इसी भाव से भारत के गणतंत्र की सदा रक्षा करें। हमारा गणतंत्र स्वस्थ रहे, चिरंजीव हो।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 77 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 77) ☆
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित ‘सॉनेट – आशा’।)
आज देश आजादी का पचहत्तरवां अमृत महोत्सव मना रहा है, चारों तरफ उमंग है उत्साह है आजादी के अमृत महोत्सव का शोर है ।इस बिंदु पर देश के हजारों लेखकों बुद्धिजीवियों की कलमें चल रही है।आज एक बार फिर देश की आजादी , हिंदू हिंदी हिंदुस्तान खतरे में के शोर के बीच लगभग अस्सी वर्षिय झुकी कमर पिचके गाल और सगड़ी ठेले पर भरपूर बोझ लादे पसीने तर बतर भीगी शरीर लिए हीरा चच्चा दिखाई पड़े।
जब देश के आजादी की चर्चा चली और वर्तमान समय के विकास और राजनैतिक परिदृश्य और चरित्र पर चर्चा चली तो, कुरेदते ही उनके हृदय में पक रहा फोड़ा वेदनाओं के रूप में फूट कर बह निकला और मुंशी प्रेमचंद जी की कथा सवा सेर गेहूं के कथा नायक शंकरवा आज भी अमृत महोत्सव की पूर्व संध्या पर अपनी यादें लिए खड़ा दिखा था।
उनका ख्याल था कि भले ही देश में गरीबी बेरोजगारी थी लेकिन तब के लोगों में इमान धर्म दोनों था, लेकिन कभी-कभी उन्हीं के बीच नर पिशाच तब भी मिलते थे और आज भी मिलते हैं। चर्चा की पृष्ठभूमि राजनैतिक थी इसलिए मुझे भी उनसे बात करने में भरपूर आनंद आ रहा था लेकिन वहीं पर मेरे भीतर बैठा कहानी कार बीते दिनों की यादों को एक बार फिर अपने शब्दों में समेट लेना चाहता था। हीरा चच्चा को हम सब प्यार से हीरो बुलाते थे जिन्होंने बहुत कुरेदने पर बीते दिनों को याद करते हुए बोल पड़े कि बेटा जब देश गुलाम था, अंग्रेज सरकार अपना राजपाट समेटने के क़रीब थी देश में चारों ओर घोर अशिक्षा गरीबी बदहाली का नग्न तांडव था।
दिन भर मेहनत करने पर भी पेट भरने के लिए भोजन नहीं मिलता था, अब तो भला हो सरकार का कि लाख लूट पाट के बाद भी जीनें खाने के लिए कोटा से राशन मिल ही जाता है। चर्चा करते हुए सहसा उनकी आंखें छलक उठी और बीते दिनों को याद करते हुए उनके हृदय में झुरझुरी सी उठ गई थी। बोल उठे थे बेटा उस जमाने में सूदखोर पारस मिश्रा जी पेशे से प्रा०पाठशाला में अध्यापक थे, जिन्हें भगवान ने जीवन में सब कुछ दिया था रूपया पैसा मान मर्यादा सारा सुख लेकिन औलाद की कमी थी खाने पीने की कोई कमी नहीं, लेकिन स्वभाव से अति कृपण।
वे सूद पर पैसा उधार देते थे। मैंने उस समय उनके ही पोखरी में सिंघाड़े की खेती के लिए सिंघाड़े का बीज खरीदने के लिए ढाई रूपए दो अन्नी ब्याज पर लिया था, मूल का दो रुपया चुका दिया था अब अठन्नी मूल की बाकी रह गई थी, मेरा और उनका पुरोहित और यजमान का रिश्ता था। सो मैं एक तरह से उनकी गुलामी करता, उन्हें जहां भी तगादे पर जाना होता मैं ही उनका सारथी होता उन्हें अपनी सगडी ठेला पर बैठा दिन दिन भर ढोता,कभी कभी तगादे के दौरान दिन दिन भर खाने को कुछ भी नहीं मिलता, न खुद खाते न मुझे खाने देते, उनके मूल की अठ्ठन्नी मैं भूल गया था लेकिन एक दिन उस अठ्ठन्नी की याद दिलाते हुए मेरी पत्नी जगनी ने कहा कि उनका आठ आना देकर अपनी कर्ज मुक्ति का रूक्का(प्रमाणपत्र) लिखवा लें, कि उन्हें याद रहे। लेकिनमैं सोचता था कि जहां मैं मालिक की इतनी जी हजूरी करता हूं तो क्या वे आठ आना माफ नहीं करेगें। लेकिन तब मैं नहीं जानता था कि वह अठ्ठन्नी खाते से खारिज नहीं होने का परिणाम क्या होगा, जिसके बदले दस बरस बाद ब्याज के रुप में मुझे पांच हजार रुपए मुझे उनकी पोखरी पाट कर ब्याज में चुकाना पड़ा था लेकिन उस समय दिन भर मेहनत के बाद कलेवा(नास्ते) के लिए आधा किलो गुड़ रोज मिलता था,अब उनके उपर साठ किलो खांड के रूप में मेरा कलेवा बकाया चढ़ गया था। लेकिन मैं जब भी उनसेअपने कलेवा का तगादा करता तो उपरोहिती यजमानी का हवाला देकर निकल लेते। लेकिन आज मैंने भी ठान लिया था कि आज भले ही मेरा धर्म कर्म छूट जाय लेकिन मैं आज बच्चू से कलेवा वसूल कर के ही रहूंगा।उस दिन मैं सबेरे से ही जा बैठा उनके घर पर उन्होंने मुझे फिर टालने की गरज से कहा कि हिरवा बे धर्म हो जाएगा कलेवा तुझे पचेगा नहीं, और खुद भोजन करने चौके में चले गए थे। और मजबूरी में पूरा दिन बैठाने के बाद कलेवा चुकाते बोल पड़े थे “हिरवा ई खांड़ बहुत बढ़िया है इसमें से बीस किलो मुझे उधार दे दे मैं बाद में तुझे दे दूंगा”, लेकिन मेहनत से वसूले गए कलेवा से मैं कुछ भी देने के लिए तैयार नहीं था और खुद को फंसता हुआ पाया था लेकिन कलेजे पर पत्थर रख कर बीस किलो खांड़ देना ही पड़ा था। लेकिन उस समय मेरी अंतरात्मा से आह निकली “जा महराज तूं कबहूं सुख से ना रहबा” आज पारस महराज तो जीवित नहीं लेकिन उनके घर के खंडहर आज भी उनकी कृपणता की कहानी कहते हैं,मैं आज भी जब उस राह से गुजरता हूं तो मेरे द्वारा पाटी गई पोखरी एक बार फिर उनकी याद दिला जाती है। और वह अठ्ठन्नी नांच उठती है मेरी स्मृतियों में।
लेकिन गरीबों का दिन न तब ही बदला था न आज भी क्षेत्रीय राजनीति आज भी गांव गरीब पात्रता नकदी लेन देन के बाद ही तय होती है और हावी होता है हमारा मतलब। इस प्रकार वे मुझे राजनिति का नया अध्याय ले मेरे सामनेअपने विकास का संकल्प मुठ्ठी में दबाकर वोटर के रूप में खड़ा था।
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “तुम क्या जान लोगे?”।)
ग़ज़ल # 14 – “तुम क्या जान लोगे?” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’