(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण ग़ज़ल “मुखौटे”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 66 ☆ गजल – ’मुखौटे’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #77 – मन का राजा ☆ श्री आशीष कुमार☆
राजा भोज वन में शिकार करने गए लेकिन घूमते हुए अपने सैनिकों से बिछुड़ गए और अकेले पड़ गए। वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर सुस्ताने लगे। तभी उनके सामने से एक लकड़हारा सिर पर बोझा उठाए गुजरा। वह अपनी धुन में मस्त था। उसने राजा भोज को देखा पर प्रणाम करना तो दूर, तुरंत मुंह फेरकर जाने लगा।
भोज को उसके व्यवहार पर आश्चर्य हुआ। उन्होंने लकड़हारे को रोककर पूछा, ‘तुम कौन हो?’ लकड़हारे ने कहा, ‘मैं अपने मन का राजा हूं।’ भोज ने पूछा, ‘अगर तुम राजा हो तो तुम्हारी आमदनी भी बहुत होगी। कितना कमाते हो?’ लकड़हारा बोला, ‘मैं छह स्वर्ण मुद्राएं रोज कमाता हूं और आनंद से रहता हूं।’ भोज ने पूछा, ‘तुम इन मुद्राओं को खर्च कैसे करते हो?’ लकड़हारे ने उत्तर दिया, ‘मैं प्रतिदिन एक मुद्रा अपने ऋणदाता को देता हूं। वह हैं मेरे माता पिता। उन्होंने मुझे पाल पोस कर बड़ा किया, मेरे लिए हर कष्ट सहा। दूसरी मुद्रा मैं अपने ग्राहक असामी को देता हूं ,वह हैं मेरे बालक। मैं उन्हें यह ऋण इसलिए देता हूं ताकि मेरे बूढ़े हो जाने पर वह मुझे इसे लौटाएं।
तीसरी मुद्रा मैं अपने मंत्री को देता हूं। भला पत्नी से अच्छा मंत्री कौन हो सकता है, जो राजा को उचित सलाह देता है, सुख दुख का साथी होता है। चौथी मुद्रा मैं खजाने में देता हूं। पांचवीं मुद्रा का उपयोग स्वयं के खाने पीने पर खर्च करता हूं क्योंकि मैं अथक परिश्रम करता हूं। छठी मुद्रा मैं अतिथि सत्कार के लिए सुरक्षित रखता हूं क्योंकि अतिथि कभी भी किसी भी समय आ सकता है। उसका सत्कार करना हमारा परम धर्म है।’ राजा भोज सोचने लगे, ‘मेरे पास तो लाखों मुद्राएं है पर जीवन के आनंद से वंचित हूं।’ लकड़हारा जाने लगा तो बोला, ‘राजन् मैं पहचान गया था कि तुम राजा भोज हो पर मुझे तुमसे क्या सरोकार।’ भोज दंग रह गए।
आपल्या समुहातील लेखिका व कवयित्री सुश्री उषा ढगे यांचा ‘सुनृत’ हा दुसरा काव्यसंग्रह प्रकाशित झाला आहे. त्यांचे समुहातर्फे हार्दिक अभिनंदन आणि पुढील लेखनासाठी शुभेच्छा.?
संपादक मंडळ
ई अभिव्यक्ती मराठी
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख प्रेम, प्रार्थना और क्षमा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 118 ☆
☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा ☆
प्रेम, प्रार्थना और क्षमा अनमोल रतन हैं। शक्ति, साहस, सामर्थ्य व सात्विकता जीवन को सार्थक व उज्ज्वल बनाने के उपादान हैं। मानव परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है और प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव उससे अपेक्षित है…यही समस्त जीव-जगत् की मांग है। प्रेम व करुणा पर्यायवाची हैं…एक के अभाव में दूसरा अस्तित्वहीन है। सो! प्रेम में अहिंसा व्याप्त है; जो करुणा की जनक है। जब इंसान को किसी से प्रेम होता है, तो वह उसका हित चाहता है; मंगल की कामना करता है। उस स्थिति में सबके प्रति हृदय में करुणा भाव व्याप्त रहता है और उसके पदार्पण करते ही स्नेह, सौहार्द, त्याग, सहनशीलता व सहानुभूति के भाव स्वतः प्रकट हो जाते हैं और अहं भाव विलीन हो जाता है। अहं मानव में निहित दैवीय गुणों का सबसे बड़ा शत्रु है। अहं में सर्वश्रेष्ठता का भाव सर्वोपरि है तथा करुणा में स्नेह, त्याग, समानता, दया व सर्वमांगल्य का भाव व्याप्त रहता है। सो! किसी के प्रति प्रेम भाव होने से हम उसकी अनुपस्थिति में भी उसके पक्षधर व उसकी ढाल बनकर खड़े रहते हैं। प्रेम दूसरों के गुणों को देखकर हृदय में उपजता है। इसलिए स्व-पर व राग-द्वेष आदि उसके सम्मुख टिक नहीं पाते और हृदय से मनोमालिन्य के भाव स्वत: विलीन हो जाते हैं। प्रेम नि:स्वार्थता का प्रतीक है तथा प्रतिदान की अपेक्षा नहीं रखता।
ईश्वर के प्रति श्रद्धा व प्रेम का भाव प्रार्थना कहलाता है, जिसमें अनुनय-विनय का भाव प्रमुख रहता है। श्रद्धा में गुणों के प्रति स्वीकार्यता का भाव विद्यमान रहता है। शुक्ल जी ने ‘श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति की संज्ञा से अभिहित किया है।’ प्रभु की असीम सत्ता के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए मानव को सदैव उसके सम्मुख नत रहना अपेक्षित है; उसकी करुणा- कृपा को अनुभव कर उसका गुणगान करना तथा सहायता के लिए ग़ुहार लगाना, प्रार्थना कहलाता है। दूसरे शब्दों में यही भक्ति है। श्रद्धा किसी व्यक्ति के प्रति भी हो सकती है…यह शाश्वत् सत्य है। जब हम किसी व्यक्ति में दैवीय गुणों का अंबार पाते हैं, तो मस्तक उसके समक्ष अनायास झुक जाता है।
प्रार्थना हृदय के वे उद्गार हैं, जो उस मन:स्थिति में प्रकट होते हैं; जब मानव हैरान-परेशान, थका-मांदा, दुनिया वालों के व्यवहार से आहत, आपदाओं से अस्त-व्यस्त व त्रस्त होकर प्रभु से मुक्ति पाने की ग़ुहार लगाता है। प्रार्थना के क्षणों में वह अपने अहं को मिटाकर उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला देता है। उन क्षणों में अहं अर्थात् मैं और तुम का भाव विलीन हो जाता है और रह जाता है केवल सृष्टि-नियंता, जो सृष्टि अथवा प्रकृति के कण-कण में व्याप्त होता है। उस स्थिति में आत्मा व परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उन अलौकिक क्षणों में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव नदारद हो जाते हैं… सर्व- मांगल्य व सर्व-हिताय की भावना बलवती व प्रबल हो जाती है।
जहां प्रेम होता है, वहां क्षमा तो बिन बुलाए मेहमान की भांति स्वयं ही दस्तक दे देती है और अहं का प्रवेश वर्जित हो जाता है। सो! स्व-पर व अपने-पराये का प्रश्न ही कहाँ उठता है? किसी के हृदय को दु:ख पहुंचाने, बुरा सोचने व नीचा दिखाने की कल्पना बेमानी है। प्रेम के वश में मानव क्रोध व दखलांदाज़ी करने की सामर्थ्य ही कहां जुटा पाता है? वैसे संसार में सभी ग़लत कार्य क्रोध में होते हैं और क्रोध तो दूध के उबाल की भांति सहसा दबे-पांव दस्तक देता है तथा पल-भर में सब नष्ट-भ्रष्ट कर रफूचक्कर हो जाता है। वर्षों पहले के गहन संबंध उसी क्षण कपूर की मानिंद विलुप्त हो जाते हैं और अविश्वास की भावना हृदय में स्थायी रूप से घर कर लेती है। क्रोध अव्यवस्था फैलाता है तथा शांति भंग करना उसके बायें हाथ का खेल होता है। क्रोध की स्थिति में जन्म-जन्मांतर के संबंध टूट जाते हैं और इंसान एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करता। सो! उससे निज़ात पाने का उपाय है…क्षमा अर्थात् दूसरों को मुआफ़ कर उदार हृदय से उन्हें स्वीकार लेना। इससे हृदय की दुष्प्रवृत्तियों व निम्न भावनाओं का शमन हो जाता है। इसलिए जैन संप्रदाय में ‘क्षमापर्व’ मनाया जाता है। यदि हमारे हृदय में किसी के प्रति दुष्भावना व शत्रुता है, तो उससे क्षमा याचना कर दोस्ताना स्थापित कर लिया जाना अत्यंत आवश्यक है, जो श्लाघनीय है और मानव स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है, हितकारी है।
वैसे भी यह ज़िंदगी चार दिन की मेहमान है। इंसान इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ लौट कर जाना है…फिर किसी से ईर्ष्या व शत्रुता भाव क्यों? जो भी हमारे पास है… हमने यहीं से लिया है और उसे यहीं छोड़ उस अनंत-असीम सत्ता में समा जाना है… फिर अभिमान कैसा? परमात्मा ने तो सबको समान बनाया है…यह जात-पात, ऊंच-नीच व अमीर-गरीब का भेदभाव तो मानव-मस्तिष्क की उपज है। सब उस प्रभु के बंदे हैं और सारे संसार में उसका नूर समाया है। कोई छोटा-बड़ा नहीं है, इसलिए सबसे प्रेम करें; दया भाव प्रदर्शित करें; संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग कर किसी को पीड़ा मत पहुंचाएं तथा जो मिला है, उसमें संतोष करें। सो! दूसरों के अधिकारों का हनन मत करें–यही जीवन की उपादेयता है, सार्थकता है।
शक्ति, सामर्थ्य, साहस व सात्विकता वे गुण हैं, जो मानव जीवन को श्रद्धेय बनाते हैं। सो! इनके सदुपयोग की आवश्यकता है। इसलिए यदि आप में शक्ति है, तो आप तन, मन, धन से निर्बल की रक्षा करें तथा अपने कार्य स्वयं करें, क्योंकि शक्ति सामर्थ्य का प्रतीक है और जीवन का सार व प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव दर्शाने का उपादान है। सो! यदि आप में शक्ति व सामर्थ्य है, तो साहसपूर्वक निरंतर कर्मशील रह कर सबका मंगल करें तथा विपरीत व विषम परिस्थितियों में आत्म-विश्वास से आगामी आपदाओं-बाधाओं का सामना करें। साहसी व्यक्ति को धैर्य रूपी धरोहर सदैव संजोकर रखनी चाहिए और निर्बल, दीनहीन व अक्षम पर कभी भी प्रहार नहीं करना चाहिए। हां! इसके लिए दरक़ार है…भावों की सात्विकता, पावनता व पवित्रता की; जिसका पदार्पण जीवन में सकारात्मक सोच, आस्था व विश्वास पर आधारित होता है। यदि मानव में स्नेह, प्रेम, करुणा व श्रद्धा के साथ क्षमा-भाव भी व्याप्त है, तो सोने पर सुहागा क्योंकि इससे सभी ग़लतफ़हमियां, वाद-विवाद व झगड़े तत्क्षण समाप्त हो जाते हैं। इसका दूसरा रूप है प्रायश्चित… जिसके हृदय में प्रवेश करते ही मानव को अपनी ग़लती का आभास हो जाता है कि वह दोषी ही नहीं; अपराधी है। सो! वह उसे न दोहराने का निश्चय करता है तथा उससे क्षमा मांग कर अपने हृदय को शांत करता है। उस स्थिति में दूसरे भी सुक़ून पाकर धन्य हो जाते हैं। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ अर्थात् क्षमा भाव ही सबसे श्रेष्ठ गुण है। क्षमा याचना करना अथवा दूसरों को क्षमा करना… इन दोनों स्थितियों में मानव हृदय की कलुषता व मनोमालिन्य समाप्त हो जाता है अर्थात् जब छोटे ग़लतियां करते हैं, तो बड़ों का दायित्व है… वे उन्हें क्षमा कर उदारता व उदात्तता का परिचय दें। इसलिए यदि आप क्रोध अथवा अज्ञानवश किसी जीव के प्रति हिंसक व निर्दयता का भाव रखते हैं और उसे शारीरिक व मानसिक कष्ट पहुंचाते हैं; तो आपको उससे क्षमा याचना कर अपना बड़प्पन दिखाना चाहिए। परंतु अहंनिष्ठ व्यक्ति से ऐसी अपेक्षा रखने की कल्पना करना भी बेमानी है।
‘सो! रिश्ते जब मज़बूत होते हैं, बिन बोले महसूस होते हैं तथा ऐसे संबंध अटूट होते हैं; ऐसी सोच के लोग महान् कहलाते हैं।’ उनका सानिध्य पाकर सब गौरवान्वित अनुभव करते हैं। वास्तव में ऐसी सोच के धनी…’व्यक्ति नहीं; व्यक्तित्व होते हैं।’ परंतु वे अत्यंत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए उन्हें भी अमूल्य धन-सम्पदा व धरोहर की भांति सहेज-संभाल कर रखना चाहिए तथा उनके गुणों का अनुसरण करना चाहिए ताकि वे उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर कर सकें। वास्तव में वे आपको कभी भी चिंता के सागर में अवगाहन नहीं करने देते।
प्रेम, प्रार्थना व क्षमा अनमोल रत्न हैं। उन्हें शक्ति, सामर्थ्य, साहस, धैर्य व सात्विक भाव से तराशना अपेक्षित है, क्योंकि हीरे का मूल्य जौहरी ही जानता है और वही उसे तराश कर अनमोल बना सकता है। इसके लिए आवश्यकता है कि हम उन परिस्थितियों को बदलने की अपेक्षा स्वयं को बदलने का प्रयास करें …उस स्थिति में जीवन के शब्दकोश से कठिन व असंभव शब्द नदारद हो जायेंगे। इसलिए आत्मसंतोष व सब्र को जीवन में धारण करें, क्योंकि ये दोनो अनमोल रत्न हैं; जो आपको न तो किसी की नज़रों में झुकने देते हैं और न ही किसी के कदमों में। इसका मुख्य उपादान है– आपका मधुर व्यवहार, जीवन में समझौतावादी दृष्टिकोण व सुख दु:ख में सम रहने का भाव, जो समरसता का द्योतक है। सो! आप दैवीय गुणों व सकारात्मक दृष्टिकोण द्वारा सबके जीवन को उमंग, उल्लास व असीम प्रसन्नता से आप्लावित कर; उनकी खुशी के लिए स्वार्थों को तिलांजलि दे ‘सुक़ून से जीएँ व जीने दें’ तथा ‘सबका मंगल होय’ की राह का अनुसरण कर जीवन को सुंदर, सार्थक व अनुकरणीय बनाएं।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय एवं सार्थक आलेख “भारतीय संविधान के निहितार्थों का दुरुपयोग”।)
☆ किसलय की कलम से # 69 ☆
☆ भारतीय संविधान के निहितार्थों का दुरुपयोग ☆
देशभक्तों और आजादी हेतु प्राणोत्सर्ग करने वाले रणबांकुरों के स्वतंत्रता आंदोलन के परिणाम स्वरूप भारतीय संविधान को भारतीयों द्वारा ही बनाए जाने की मांग अंतत: अंग्रेजों को मानना ही पड़ी थी। राष्ट्र समर्पितों के राष्ट्रप्रेम, देश के सर्वांगीण विकास की भावना एवं राष्ट्रीय एकता का प्रतिमान रूपी हमारा संविधान हम सबके सामने है। यह हमारी सोच, संस्कृति एवं हमारे गणतंत्र राष्ट्र की ढाल है, जिसके मजबूत सहारे से आज हम 21 वीं सदी की शिखरीय यात्रा पर अग्रसर हैं। आधे करोड़ से भी अधिक रुपयों के खर्च पर हमारे संविधान का निर्माण 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में हुआ । 395 अनुच्छेद एवं 8 अनुसूचियों वाले इस संविधान को पूर्ण रूपेण 26 जनवरी सन 1950 को लागू किया गया। विश्व के वृहद्तम संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत इसमें संशोधनों की भी व्यवस्था की गई है, जो कि हमारे संविधान के लचीलेपन का द्योतक है । सन 1950 से हम प्रतिवर्ष संविधान स्थापना स्मृति को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हुए 72 वर्ष का सफर तय कर चुके हैं परंतु क्या आज भी हम, अपने संविधान में निहित भावनाओं को समझ सके हैं? क्या हमारा संविधान जन-जन तक पहुँच सका है? आज भी हमारे देश में अधिकांश ऐसे लोग हैं जिन्होंने संविधान की प्रति भी नहीं देखी। आज उच्च पदों पर स्वार्थ, ईर्ष्या, दुर्भाव एवं व्यक्तिवाद की छाप स्पष्ट नजर आती है। संविधान की सीमाएँ अब उच्च पदस्थ हस्तियों के इशारों पर बदल जाती हैं। संविधान एवं न्याय ज्ञाता स्वार्थों के अनुरूप उनके मायने ही बदलने की कोशिशों में लगे रहते हैं। कुछेक तथाकथित कानूनविदों ने इसी संविधान का माखौल उड़ाते हुए इसकी जनसेवी भावना को हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया है। क्या आज हम गणतंत्र दिवस इतनी सहजता से मना पाते हैं, जितना एक स्वतंत्र, समृद्ध एवं खुशहाल राष्ट्र के लोगों को मनाना चाहिए । हमारे देश के नेता और नागरिक दोनों ही इस महापर्व को मनाते वक्त आनंदित होने के स्थान पर आशंका-कुशंकाओं से भयभीत नजर आते हैं। देश की सीमा, आंतरिक व्यवस्था अथवा राजनीतिक क्षेत्र कहीं भी अमन-चैन नहीं है। आज भी देश के सुदूर ग्रामीण और वनांचलों में ऊँच-नीच, जाति-पाँति एवं अमीरी-गरीबी की दीवारें विद्यमान हैं। गणतंत्र का दंभ भरने वालों की नजरें इन तक पहुँचने में शायद सदी भी कम पड़े। कागजी योजनाओं एवं स्वार्थपरक नीतियों के क्रियान्वयन में ही इनका कार्यकाल समाप्त हो जाता है। उन्हें अपनी सर आँखों पर बैठाने वाला मतदाता स्वयं मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहता है। मौलिक संविधान की जानकारी के अभाव में आम नागरिक अपनी आवश्यकताओं हेतु आवाज उठाने से डरता है, जिसका लाभ चालाक तंत्र बखूबी उठाता रहता है। तात्पर्य यह है कि परोक्ष रूप से अपने ही देश में अपने ही लोगों द्वारा हमारा शोषण होता रहता है। हम संविधान को पढ़कर संविधान में दिए हकों का उपयोग नहीं कर पाते। बदलते समय और परिवेश में हमारा विशाल संविधान भी अपना बखूबी दायित्व निर्वहन करने में असमर्थ सा प्रतीत होता है। तभी तो आज संविधान की उपादेयता एवं उसमें समयोचित संशोधनों की सुगबुगाहट होने लगी है।
आज संविधान की आड़ में अनेक प्रभावी एवं राष्ट्रीय एकता को एक सूत्र में पिरोने वाली नीति लागू नहीं कर सकते। आज उचित एवं अनिवार्य होते हुए भी देश के कर्णधार नीतिगत निर्णय नहीं ले पाते। राजनीतिक विपक्ष नीतिगत निर्णयों की अनदेखी कर “विरोध हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है” का नारा चरितार्थ करने में लगा रहता है। आज हमारे संविधान में ऐसे संशोधनों की महती आवश्यकता है, जिससे सुदूर भारतवासी भी गणतंत्र का शत प्रतिशत लाभ प्राप्त कर सके। वह अपने ही देश में शोषण का शिकार न हो । संविधान में ऐसी व्यवस्था होना चाहिए जिससे हम राष्ट्रीय एकता को और मजबूत बनाते हुए राष्ट्र के विकास को नए आयाम दे सकें। हम उन समस्त देशभक्तों, स्वतंत्रता के पुजारियों एवं ज्ञात-अज्ञात शहीदों की आकांक्षाओं को पूरा कर सकें। हमारे इतिहास पुरुषों ने अपने बुद्धि-विवेक से हमारे लिए ऐसे संविधान का निर्माण किया है जिसकी बरगदी छाँव में हमारा गणतंत्र गुणोत्तर पुष्पित-पल्लवित हो रहा है। हमें गर्व होता है कि हम विश्व के महानतम् एवं विशाल गणतंत्र देश के नागरिक हैं। समय और प्रगति का पहिया निरंतर गतिशील है। हम भारतीयों में वर्तमान ऊँचाई से भी आगे दृष्टि दौड़ाने का हौसला है। हम शिखर पर पहुँचने का जज़्बा रखते हैं परंतु 72 वर्ष पूर्व के संविधान से यह अब संभव नहीं है। हमारी धारणा, बदलते जा रहे परिवेश में संविधान के नीतिगत पहलू के बदलाव से है।
प्रत्येक जागरूक भारतवासी अपने संविधान के विशाल वृक्ष में और भी नए एवं मीठे फलों की इच्छा रखता है तथा यह निश्चित ही है कि जब तक हम इन मीठे फलों अर्थात संविधान के अनिवार्य से लगने वाले संशोधनों को मूर्तरूप देने हेतु निजी स्वार्थ एवं पक्ष-विपक्ष की भावना से ऊपर नहीं उठेंगे तब तक हमारा विकास और राष्ट्र की खुशहाली का सपना अधूरा ही रहेगा। आज के गिरते राजनीतिक स्तर को देखकर प्रत्येक भारतीय चिंतित दिखाई देने लगा है। इस चिंता का विषय निश्चित रूप से यही है कि आज की दलगत राजनीति में क्या सकारात्मक परिवर्तन हो पाएगा ? क्या हमारे संविधान में ऐसा परिवर्तन संभव है कि हमारे देश के कर्णधार संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठकर तथा मिल-जुलकर राष्ट्रीय विकास की धारा में शामिल हो पाएँ। शायद हाँ शायद न। यही प्रश्न हमारे भविष्यपथ का दिशा सूचक है।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण रचना “प्रेम के बस में हैं घनश्याम…. ”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
“हे s s च ! मी म्हणतोय नां ते हे s s च ! ते व्हाट्स ऍपवर तुमच्या महिला मंडळाच्या “खुमखूमी” ग्रुपवर सारखे, सारखे पुणेकरांवरचे पुणेरी विनोद वाचून, तुझी भाषा जन्माने जरी तू अस्सल गिरगावकरीण असलीस, तरी आता साध्या साध्या प्रश्नांची उत्तर देतांना पण, पुणेरी भाषेत द्यायला लागली आहेस !”
“आता या विषयावर, बेडवर पडल्या पडल्या, रात्री अकरा वाजता माझं बौद्धीक घेणार आहात कां ?”
“अगं, काही जणांची मराठी जशी इंग्राजळलेली असते, तशी तुझीही मराठी आता साधं साधं बोलतांना पण, मुळा मुठेच्या पात्रात डुबकी मारल्या सारखी बोलायला लागल्ये, कळलं ?”
“इ s s श्श ! हल्ली मुळा मुठेच्या पात्रात चुळ भरण्या इतकं सुद्धा पाणी नाहीये, त्यात मी मेली डुबकी कशी काय मारणार ?”
“हे तुला कुणी सांगितलं?”
“अहो परवा लेले काकी गेल्या होत्या पुण्याला, त्या सांगत होत्या !”
“काय ?”
“त्यांची गाडी नदीच्या पुलावरून जातांना, त्यांनी भक्तीभावाने एक पाच रुपयाचं नाणं, चालत्या गाडीतून नदी पात्रात टाकलं !”
“मग ?”
“मग काय मग, खालून एका माणसाचा किंचाळण्याचा आवाज आला ! म्हणून त्यांनी ड्रायवरला गाडी थांबवायला सांगितली आणि त्या खाली नदी पात्रात डोकावून पाहायला लागल्या आणि बघतात तर काय ?”
“काय ?”
“अहो त्यांनी फेकलेलं ते नाणं पात्रात शेती करणाऱ्या शेतकऱ्याच्या कपाळाला लागून, त्यातून रक्त येत होतं !”
“बापरे !”
“त्या मग तशाच धावत गाडीत बसल्या आणि त्यांनी ड्रायवरला गाडी हाणायला सांगितली !”
“हा s णा s य s ला ! काय ही तुझी भाषा ? मी मगाशी जे म्हटलं ते काही अगदीच खोटं नाही ! अगं गिरगांवातल्या गोरेगावकर चाळीला स्मरून, निदान दामटवायला, हाकायला असं तरी म्हणं गं !”
“त्यानं काय फरक पडणार आहे ?”
“जाऊ दे, तुझ्याशी या विषयावर आत्ता वाद घालण्यात अर्थ नाही ! गूड नाईट !”
“अरे वा रे वा, असं कसं गुड नाईट !”
“म्हणजे ? मी नाही समजलो !”
“अहो आत्ता माझा चांगला डोळा लागत होता, तर तुम्हीच नाही का, ‘अगं ऐकतेस का?’ असं बोलून माझी झोप उडवलीत ती !”
“अरे हॊ, आत्ता आठवलं. तू उद्यासाठी जो ‘साखरभात’ करून ठेवला आहेस नां, तो जरा चमचाभर आणून देतेस का ?”
“आत्ता ? रात्री अकरा वाजता ? अहो वाटलं तर सकाळी नाश्त्याला घ्या तो आणि जेवतांना पण घ्या की, आत्ता कशाला उगाच रात्री झोपताना तुम्हाला चमचाभर साखर भात हवाय ?”
“अगं त्याच काय आहे नां, आमच्या मास्तरांनी ‘साखरझोप’ ह्या विषयावर निबंध लिहून आणायला सांगितला आहे !”
“बरं, मग ?”
“मग काही नाही, म्हटलं अनायासे तू आज साखरभात केलाच आहेस, तर तो थोडा खाऊन झोपीन ! म्हणजे रात्री साखरझोप लागून, सकाळी त्यावर काहीतरी लिहिता येईल असा एक सुज्ञ विचार मनांत साखर पेरून गेला इतकंच !”
“अस्स होय ! आता आमच्या ह्या प्रौढ ढ विद्यार्थ्यांची मलाच मेलीला काळजी घेतली पाहिजे ! नाहीतर उगाच मी त्याला आत्ता साखरभात दिला नाही, म्हणून तो जर उद्या परीक्षेत नापास झाला, तर त्याचे खापर माझ्या डोक्यावर फोडून मोकळा व्हायचा !”
असं बोलून बायको किचन मधे गेली आणि बाउल मधे साखरभात घेवून आली. मी पण विजयी मुद्रेने तो बाउल घ्यायला हात पुढे केला आणि धाडकन बेडवरून खाली पडलो!
ताजा कलम – या पुढे भविष्यात प्रौढ शिक्षणाच्या मास्तरांनी, ‘झोप’ या विषयाला धरून निबंध लिहायला सांगितला, तरी त्या विषयी आज जागेपणी, काहीही न लिहिण्याचा मी संकल्प करत आहे !
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है परंपरा और वास्तविकता के संघर्ष पर आधारित मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘प्रेम ना जाने कोय’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 84 ☆
☆ लघुकथा – प्रेम ना जाने कोय ☆
शादी के लिए दो साल से कितनी लडकियां दिखा चुकी हूँ पर तुझे कोई पसंद ही नहीं आती। आखिर कैसी लडकी चाहता है तू, बता तो।
मुझे कोई लडकी अच्छी नहीं लगती। मैं क्या करूँ? मैंने आपको कितनी बार कहा है कि मुझे लडकी देखने जाना ही नहीं है पर आप लोग मेरी बात ही नहीं सुनते।
तुझे कोई लडकी पसंद हो तो बता दे, हम उससे कर देंगे तेरी शादी।
नहीं, मुझे कोई लडकी पसंद नहीं है।
अरे! तो क्या लडके से शादी करेगा? माँ ने झुंझलाते हुए कहा।
हाँ – उसने शांत भाव से उत्तर दिया।
क्या??? माँ को झटका लगा, फिर सँभलते हुए बोली – मजाक कर रहा है ना तू?
नहीं, मैं सच कह रहा हूँ। मैं विकास से प्रेम करता हूँ और उसी से शादी करूंगा।
माँ चक्कर खाकर गिरने को ही थी कि पिता जी ने पकड लिया।
क्यों परेशान कर रहा है माँ को – पिता ने डाँटा।
माँ रोती हुई बोली – कब से सपने देख रही थी कि सुंदर सी बहू आएगी घर में, वंश बढेगा अपना और इसे देखो कैसी ऊल जलूल बातें कर रहा है। पागल हो गया है क्या? लडका होकर तू लडके से प्यार कैसे कर सकता है? उससे शादी कैसे कर सकता है? बोलते – बोलते वह सिर पकडकर बैठ गई।
क्यों नहीं कर सकता माँ? लडका इंसान नहीं है क्या? और प्यार शरीर से थोडे ही होता है। वह तो मन का भाव है, भावना है। किसी से भी हो सकता है।
माँ हकबकाई सी बेटे को देख रही थी। उसकी बातें माँ के पल्ले ही नहीं पड रही थीं।