(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना “तुझको स्वयं बदलना होगा”.
वैदिक काळामध्ये लोपामुद्रा, आदिती, विश्वावरा, इंद्राणी, सर्परागिणी, शाश्वती अशा अनेक ऋषिका होऊन गेल्या. वेदांच्या स्तोत्रांच्या किंवा मंत्रांच्या जाणकार, त्यांचे रहस्य समजून घेणाऱ्या, त्यांचा प्रचार करणाऱ्या त्या सर्व स्त्रिया ऋषिका नावाने प्रसिद्ध आहेत. आपण आज जहू या ऋषिके ची माहिती घेऊया.
ऋषिका जुहू ब्रह्मवादिनी होती. ब्रह्मवादिनी म्हणजे उपनयन करणारी आणि अग्निहोत्र करणारी. वेदांचा अभ्यास करणारी आणि घरातील लोकांची निस्वार्थ सेवा आणि स्वेच्छेनं मिळालेल्या अन्नपाणी पैशांनी जगणारी. ब्रह्मा + वादिनी= ब्रम्ह .ब्रम्हाला साक्षात आत्मतत्व म्हणतात. . ब्रह्मतत्त्वाचे अध्ययन करू इच्छिणारी ब्रह्मवादिनी. तिचे उपनयन करुन तिला वेदाध्ययन करता येत असे .खूप तपस्या करून ब्रम्हाचे ज्ञान रसिकांना पोचवण्याचे काम ब्रह्मवादिनी करते.
ऋषिका जुहू आणि ब्रह्मदेव हे पती-पत्नी होते म्हणून तिला ब्रह्म जाया असेही म्हणतात. काही कारणाने ब्रह्मदेवाने तिचा त्याग केला. पण ऋषिका जुहू अजिबात घाबरली किंवा विचलित झाली नाही. ती पतिव्रता होती. धर्मपरायण होती आणि म्हणून तिचा धर्मपरायण निर्णायक मंडलावर पूर्ण विश्वास होता. त्या काळात पत्नीचा त्याग करणे हा मोठा अपराध मानला जात असे .अशा पतीना प्रायश्चित्त घ्यावे लागत असे. वायू अग्नी सूर्य सोम आणि वरुण या देवतानी ब्रह्मदेवाला प्रायश्चित्त दिले. सर्वात प्रथम सोम राजाने ब्रह्मदेवाला या पवित्र चारित्र्याच्या स्त्रीचा निसंकोचपणे स्वीकार करण्यास सांगितले. वरूण देवता आणि मित्र म्हणजे सूर्याने देखील त्यास अनुमोदन दिले. मग अग्नि देवतेने तिचा हात धरून तिला तिच्या पतीकडे सोपवले. सर्व देवांनी ब्रह्मदेवाला सांगितले तुझ्या पत्नीने खूप तपस्या केली आहे. त्यामुळे तिचे रूप अति उग्र झाले आहे. तिला शत्रू कधीच स्पर्श करू शकणार नाही. तिचे चारित्र्य शुद्ध आहे. ती पापी मुळीच नाही.ती तेजस्विनी आहे. निष्पाप आहे. निरपराध आहे.निर्दोष आहे .तिच्यावर अन्याय होता कामा नये. ब्रह्मदेवाला ते पटले आणि ऋषिका जुहूचा पत्नी म्हणून त्याने स्वीकार केला. पण ब्रह्मवादिनी असूनही ऋषिका जुहू ला अन्यायाविरुद्ध लढावेच लागले.
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण कविता “किससे बात करें…..”।)
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भक्ति रस में रचित अतिसुन्दर रचना “कान्हा की नगरिया”।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– असहमत आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ असहमत…! भाग – 14 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
आज बहुत दिनों के बाद असहमत की फिर से तफरीह करने की इच्छा हुई तो उसने विजयनगर या संजीवनी नगर की ओर जाने का प्लान बनाया. पर उसके प्लान में बनने वाले फ्लाई ओवर ने उसे गड्ढों की गहराई मेंं उतार दिया. जबलपुर वालों को दिये जाने वले झुनझुनों में ये भी एक है जिसके आभासी वीडियो देख देख कर लोगों के सीने 36″ से 63″ हो गये और उन्होंने वाट्सएप पर जबलपुर के मूल निवासियों को “Dream project of dream city ” के टाइटल से भेजना शुरु कर दिया. ये संदेश भोपाल, इंदौर, भिलाई, रायपुर, पुणे, मुंबई, जयपुर, दिल्ली जब पहुंचे तो पाने वालों की पहले तो नज़र लाला रामस्वरुप के 70-71-72 वाले कैलेंडर पर गई (लोग कहीं भी रहें पर प्राय: ये केलेंडर तो उनके घर में मिल ही जाता है जो रोज याद दिलाता रहता है कि जबलपुर की पहचान रूपी ये केलेंडर अभी भी बेस्ट है) पर वहां अप्रैल नहीं जुलाई चल रहा था. भेजने वाले को तुरंत ब्लाक करने की लिखित चेतावनी दी गई. इसके पहले भी किसी वाट्सएप ग्रुप के जन्मदिन की शानदार पार्टी के फर्जी निमंत्रण भेजे गये थे. पर चूंकि पार्टी का वेन्यू गुप्त था और निमंत्रण में आने जाने रुकने तथा स्टार्टर पेय पदार्थों का कहीं कोई जिक्र नहीं था तो “delete for all” के जरिये ये मैसेज़ भी वीरगति को प्राप्त हुआ.
तो फ्लाई ओवर के सपनों रूपी जर्जर रास्तों को छोड़कर असहमत शार्टकट पकड़ने के चक्कर में विजयनगर और संजीवनी नगर के बदले जानकीनगर पहुंच गया. वहां कुछ भूतपूर्व बैंकर पर वर्तमान में भी अलसेट देने में सक्षम स*ज्जनों ने असहमत को पकड़ ही लिया. सवाल जवाब का सिलसिला शुरु हो गया.
“बहुत हीरो बनते हो, ग्रुप का भी क्या बर्थडे मनाया जाता है. ये कैसा जन्मदिन है, न बर्थडे केक, न पार्टी.
असहमत : सब वर्चुअल है, आभासी, रियल कुछ नहीं है. पार्टी नही है तो गिफ्ट भी नहीं है. ये सब हवाई किले हैं जो सोशल मीडिया पर चलते हैं. कोरोना लॉकडाउन पार्ट वन में भी तो लोगों ने बहुत सारी रेसेपी शेयर कर डाली जो कभी रियल लाईफ में नहीं बनी. जब सब कुछ बंद था और लोग सोचसमझ कर मितव्ययता से खर्च कर रहे थे तो ये सब कौन बना सकता था.
एक सज्जन को पुराना जमाना याद आ गया जब अखबार और पैट्रोल का खर्च बैंक बिल के आधार पर देती थी. तो reimbursement के लिये The Economic Times के बिल, उसकी मुद्रित प्रतियों से भी ज्यादा नंबर के बन जाते थे. पता चला कि शहर में तो मुश्किल से 50 कॉपी आती थीं और 100 लोग बिल के बेस पर क्लेम करते थे. कभी कभी डी.ए.नहीं बढ़ता था पर पैट्रोल के रेट बढ़ जाने से बजट संतुलित रहता था. मैन्युअल बैंकिंग के जमाने में जब स्टाफ का लेजर अलग होता था तो लेज़र का ग्रैंड टोटल कभी भी ग्रैंड नहीं होता था. जिनकी OD limit होती तो नीली स्याही में बेलैंस सिर्फ सपनों में आता था. सुना जरूर गया कि किसी जमाने में ओवरटाईम सबसे बेहतर टाईम हुआ करता था और बोनस किसी डिटरजेंट टिकिया का नाम नहीं होता था बल्कि हर साल परिवार के सदस्यों द्वारा देखा जाने वाला वो सपना था, जो चमकते दमकते फ्लाई ओवर जैसा ही आभासी हुआ करता था. टेक्नालाजी न तो साइंस है न इंजीनियरिंग, ये हमारे पास वह होने या पाने का आभास देती है जो हमें वर्तमान की कड़वाहट को गुड़ की आभासी चाय से कुछ पलों के लिये दूर कर देती है. यही तो जिंदगी है जब सपनों में पाने का सुख, हकीकत में न होने के दुख पर भारी पड़ता है और हम कोई गालिब तो है नहीं जो ये कह दें कि “हमको मालुम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल को बहलाने को गालिब खयाल अच्छा है.”
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।
☆ कथा-कहानी #91 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 2- बिजूका ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
जगन मोहन पांडे बिजुरी से अपने मुख्यालय उमरिया आ तो गए पर दिन रात उन्हें जंगल में खेती किसानी करते आदिवासी दिखते। कभी कभी वे सोचते कि आदिवासियों को जबरन सलाह देकर वे ‘दार भात में मूसर चंद’ तो नहीं बन रहे हैं। अगले पल उन्हें लगता ‘बदरिया ऊनी है तो बरसें जरूर।‘ वे सोचते जिस प्रकार आसमान में उमड़ने वाले बादल जलवृष्टि करते हैं उसी प्रकार दिमाग में आया विचार अवश्य ही कोई उपाय सुझाएगा। दिन और रात बीतते बीतते शुक्रवार आ गया। उस रात पांडे जी सोते सोते अचानक जाग उठे और आर्कमिडीज की तर्ज पर यूरेका यूरेका चिल्ला उठे । हुआ यों कि रात के सपने में उन्हें अपने गाँव के कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार दिखाई दिए। वे दोनों पोला केवट के पास सन की रस्सी खरीदने जा रहे थे। मोल भाव में पोला केवट से हुई तकरार वाणी में थोड़ी हिंसक हुई ही थी कि पांडे जी की नींद खुल गई और उन्हें कलुआ बसोर के बनाए बिजूका से खेतों की रखवाली करते किसान याद आ गए। बस क्या था , शनिवार रविवार के अवकाश का पांडेजी ने फायदा उठाया और चल दिए हटा के निकट अपने गाँव झामर जहां जाकर उन्होंने सबसे पहले कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार को अपनी बखरी में बुलवाया। दोनों ने बखरी के बाहर लगे नीम के पेड़ के नीचे अपने जूते उतारे और फिर दहलान में बाहर खड़े होकर जोर से ‘पाएं लागी महराज’ कहकर अपने आगमन की सूचना पांडे जी को दे दी । पांडेजी अकड़ते हुए बाहर आए और नीचे जमीन में पैर सिकोड़ कर बैठे रमुआ और कलुआ ‘सुखी रहा’ का आर्शीवाद दिया और समाने चारपाई पर पसर गए। बचपन से ही अपने दद्दा को इन लोगों से बेगार कराते देखने वाले पांडेजी को उन्हें पटाकर अपना काम निकलवाने की कला आती थी। उन्होंने दोनों से कहा कि वे उनके साथ उमरिया चलें और पंद्रह दिन वहाँ रहकर आदिवासी युवाओं को बिजूका बनाने की कला सिखाने को कहा । पांडे जी का यह आमंत्रण दोनों ने एकसुर में यह कहते हुए खारिज कर दिया कि बिजूका बनाना कौन कठिन है । पांडेजी भी कहाँ हार मानने वाले थे झट बोले ‘जीकी बंदरिया ओई से नाचत है, अरे तुम लोग तो बिजूका बनाने की कला में माहिर हो, देखते नहीं जिस खेत में तुम्हारे बनाए बिजूका खड़े रहते हैं वहाँ पंछी तो छोड़दो चींटी भी फसल की बर्बादी नहीं करती।‘ इस ठकुरसुहाती का भी कोई असर दोनों पर जब नहीं हुआ तो पांडे जी ने आखरी दांव चला मजदूरी का, बोले की दोनों को सरकारी रेट से भी ज्यादा मजदूरी बैंक से दिलवाएंगे और ठहरने की सुविधा भी । यह दांव चल निकला और दोनों पांडेजी के साथ उमरिया जाने के लिए तैयार हो गए। पांडे जी ने भी दोनों से बिजूका बनाने की सामग्री और कीमत के बारे में जानकारी ली और उचित समय पर उन्हें उमरिया ले जाने का आश्वासन दिया ।
बिजूका बनाने की कला सिखाने का प्रशिक्षण शुरू करवाने के पहले पांडेजी को अपने मुख्यालय से अनुमति लेना आवश्यक था । उन्होंने एक प्रस्ताव बनाकर मुख्यालय भिजवा दिया । प्रस्ताव भेजे कोई दस दिन हुए ही थे कि हेड आफिस से फोन आ गया । सामने सहायक महाप्रबंधक लाइन पर थे। उन्होंने पांडेजी के मधुर वाणी में किए गए नमस्कार का तो कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया उलटे जोर से हड़का दिया । ‘ तुम्हारा दिमाग खराब है पांडे जो ऐसे बचकाने प्रपोजल हेड आफिस भेजते हो।‘
पांडे जी ने अनजान बनते हुए कहा कि ‘ सर कौन से प्रस्ताव की बात कर रहे हैं । ‘
उधर से जवाब आया ‘ अरे वही बिजूका के प्रशिक्षण का प्रस्ताव, मैंने सर्किल मेनेजमेंट कमेटी के सामने तुम्हारा प्रस्ताव रखा था। उसने तूफान मचा दिया सब लोग मेरे ऊपर चिल्ला पड़े ऐसे बेहूदा प्रस्ताव प्रस्तुत कर के हमारा समय क्यों बर्बाद कर रहे हो । ‘
खैर पांडेजी साहबों को भी पटाने में माहिर थे । उन्होंने तीन बार सारी कहा और धीमे से बोले ‘बादर देख कें पोतला नई फ़ोरो जात साहब। ‘
साहब को भी यह बुन्देलखंडी कहावत समझ में ना आती देख पांडे जी ने अर्ज किया कि हूजूर फल की आशा में कर्म नहीं छोड़ा जाता, मैं इसी आधार पर एक बार हेड आफिस आकर सर्किल मेनेजमेंट कमेटी के सामने इस प्रस्ताव की चर्चा करना चाहता हूँ ।‘
थोड़ी आनाकानी के बाद निर्णय पांडे जी के पक्ष में इस शर्त के साथ हुआ कि बड़े साहब से मिलवाने की जिम्मेदारी तो सहायक महाप्रबंधक की होगी पर प्रस्ताव का प्रस्तुतीकरण पांडेजी को ही करना पड़ेगा और साहब की डांट भी उन्हें ही झेलनी पड़ेगी । फोन रखते रखते पांडेजी को यह भी बता दिया गया कि बड़े साहब बहुत गुस्सैल हैं और जरा जरा सी गलतियों पर गालियां देना , फ़ाइल मुँह पर फेंक देना बहुत ही सामान्य घटनाएं हैं ।
पथरीले , दर्पीले बुंदेलखंड के वासी पांडे जी के स्वभाव को सुनार नदी के पानी ने गर्वीला बना दिया था। वे किसी भी आसन्न संकट से निपटना जानते थे । पांडे जी अगले सप्ताह भोपाल गए और बड़े साहब के सामने फ़ाइल लेकर हाजिर हो गए ।पांडेजी के भाग्य से उस दिन बड़े साहब का मूड अच्छा था। शुरुआती अभिवादन के बाद उन्होंने पांडेजी से पूरा प्रस्ताव प्रस्तुत करने को कहा , एक दो सवाल पूछे और फिर उनके गाँव में बिजूका बनाने वालों को मिलने वाली मजदूरी के बारे में जानकारी मांगी ।
पांडे जी ने छूटते ही जवाब दिया सर मजदूरी तो अनाज के रूप में फसल आने पर मिलती है और बिजूका खरीदने वाला किसान कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार को एक एक पैला गेंहू देता है ।
बड़े साहब को जब पैला समझ में ना आया तो पांडेजी ने बताया कि ‘पाँच किलो बराबर एक पैला।‘
साहब पाँच किलो की मजदूरी सुनकर गुस्सा गए और कड़कते हुए बोले ‘व्हाट नानसेन्स पाँच किलो गेंहू भी कोई मजदूरी हुई।‘
पांडेजी समझ चुके थे कि उनकी दाल बस गलने ही वाली है इसलिए धीरे से बोले ‘सर सरकार भी तो गरीबों को पाँच किलो गेंहू हर महीना देती है । ‘
पांडे जी के इस जवाब से बड़े साहब खुश हो गए , सहायक महाप्रबंधक को उन्होंने रिवाइज्ड प्रपोजल पांडेजी की सूचनाओं के आधार पर बनाने को कहा और साथ ही इस नवोन्मेष प्रस्ताव को भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय को भेजने का भी निर्देश दिया।
पांडेजी ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों की पूरी बातें तो ध्यान से नहीं सुनी बस गो अहेड मिस्टर पांडे की प्रतिध्वनि उनके कान में बारम्बार गूँजती रही ।
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १८ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
मोरोक्को – रसरशीत फळांचा देश
मोरोक्को हे आफ्रिका खंडाचे उत्तर टोक आहे पण भौगोलिक दृष्ट्या ते युरोपला जवळचे आहे. स्पेनहून आम्हाला मोरोक्को इथे जायचे होते. मोरोक्कोला विमानाने जाता येतेच पण आम्हाला जिब्राल्टरच्या सामुद्रधुनीतून प्रवास करायचा होता. भूमध्य सागर व अटलांटिक महासागर हे जिब्राल्टरच्या सामुद्रधुनीने जोडलेले आहेत असा शालेय पुस्तकात वाचलेला भूगोल अनुभवायचा होता.
स्पेनच्या दक्षिण टोकाला असलेल्या अल्गिशिरास बंदरात पोहोचलो. तिथून बोटीने प्रवास केला.’टॅ॑जेर मेड’ या आठ मजली बोटीचा वेग चांगलाच जाणवत होता. बंदर सोडल्यावर जवळजवळ लगेचच भूमध्य सागरातून उगवलेला, मान उंचावून बघणारा, उंचच- उंच सुळक्यासारखा डोंगर दिसू लागला.हाच सुप्रसिद्ध ‘जिब्राल्टर रॉक’! हवामान स्वच्छ, शांत असल्याने जिब्राल्टर रॉकचे जवळून दर्शन झाले.
हा जिब्राल्टर रॉक फार प्राचीन, जवळ जवळ वीस कोटी वर्षांपूर्वीचा मानला जातो. जिब्राल्टरचा एकूण विस्तार फक्त साडेसहा चौरस किलोमीटर आहे. त्यात हा १४०८ फूट उंच डोंगर आहे. हा संपूर्ण डोंगर चुनखडीचा आहे. पाणी धरून ठेवण्याच्या त्याच्या क्षमतेमुळे इथे सदोदित हिरवी वृक्षराजी बहरलेली असते. डोंगराच्या पश्चिमेकडील उतारावर जिब्राल्टर हे छोटेसे गाव वसलेले आहे. बोटीतून आपल्याला तिथल्या हिरव्या- पांढऱ्या, बैठ्या इमारती व हिरवी वनराजी दिसते. सभोवतालच्या सागरात असंख्य छोट्या पांढऱ्या बोटी दिसत होत्या.उंच उसळणाऱ्या डॉल्फिन माशांचे दर्शनही झाले. या खडकाचे उत्तरेकडील भूशिर (आयबेरिअन पेनिन्सुला ) हे एका अगदी चिंचोळ्या पट्ट्याने स्पेनच्या भूभागाला जोडले गेले आहे. तर दक्षिणेला अरूंद अशी ही जिब्राल्टरची सामुद्रधुनी आहे.
अत्यंत मोक्याची अशी भौगोलिक परिस्थिती लाभल्यामुळे ऐतिहासिक काळापासून हे ठिकाण आपल्या ताब्यात ठेवण्यासाठी अनेकांनी प्रयत्न केले. आठव्या शतकापासून चौदाव्या शतकापर्यंत इथे उत्तर आफ्रिकेतील म्हणजे मोरोक्कोतील मूरिश लोकांची लोकांची राजवट होती. त्यांनी या खडकाचे जाबेल तारिक म्हणजे तारिकचा खडक असे नामकरण केले. त्याचे जिब्राल्टर असे रुपांतर झाले. नंतर सतराव्या शतकापर्यंत हे ठिकाण स्पेनच्या ताब्यात होते.इ.स.१७०४ मध्ये ते ब्रिटिश साम्राज्याचा भाग झाले.ते आजपर्यंत ब्रिटिशांच्या अधिपत्याखाली आहे. या महत्वपूर्ण ठिकाणी ब्रिटनचा नाविक व व हवाई तळ आहे.
जेमतेम चाळीस हजार लोकसंख्या असलेल्या जिब्राल्टरमध्ये ब्रिटिश, स्पॅनिश, ज्यू,, आशियाई, पोर्तुगीज असे सर्व वंशाचे लोक आहेत. त्यामुळे इथे चर्च, मॉस्क, देऊळ, सिनेगॉग सारे आहे. जिब्राल्टरमध्ये शेती नाही किंवा खनिजांचे उत्पन्नही नाही. पण हा जगातला सर्वात व्यस्त असा सागरी मार्ग आहे. भूमध्यसागर आणि अटलांटिक महासागर यांना जोडणाऱ्या या सागरी मार्गावर दर सहाव्या मिनिटाला एक व्यापारी बोट बंदरात येते अथवा तिथल्या बंदरातून सुटते. या अवाढव्य बोटींची देखभाल,दुरुस्ती करणे,इंधन भरणे अशा प्रकारची अनेक कामे इथल्या डॉकयार्डमध्ये होतात. पर्यटन हाही एक व्यवसाय आहे.
बोटीने दोन तास प्रवास करून आम्ही मोरोक्को मधील टॅ॑जेर बंदरात पोहोचलो. बंदरातून गाईडने आम्हाला समुद्रकिनारी नेले. या ठिकाणाला ‘केप पार्टल’ असे नाव आहे. भूमध्य सागर आणि अटलांटिक महासागर इथे मिळतात असे त्याने सांगितले. तिथल्या समुद्राचा रंग निळसर हिरवा होता. काही भागाचा रंग ढगांच्या सावलीमुळे, धुक्यामुळे काळपट वाटत होता. पण दोन वेगळे समुद्र ओळखता येत नाहीत. मला आपल्या ‘गंगासागर’ ची आठवण झाली. गंगा नदी कोलकात्याजवळील ‘सागरद्वीप’ या बेटाजवळ बंगालच्या उपसागराला मिळते. त्या ठिकाणाला ‘गंगासागर’ म्हणतात. ते बघताना गाईड म्हणाला होता, ‘समोर तोंड केल्यावर तुमच्या उजव्या हाताला बंगालचा उपसागर आहे व डावीकडून गंगा येते. त्या विशाल जलाशयातून आपल्याला सागर व सरिता वेगळे ओळखता येत नाहीत. तसेच इथे झाले असावे.
टॅ॑जेरला वैशिष्ट्यपूर्ण भौगोलिक स्थान लाभले आहे. त्याचप्रमाणे इतिहासाच्या एका फार मोठ्या कालखंडाचे हे शहर साक्षीदार आहे. युरोप व अरब देशातील कलाकार, राजकारणी, लेखक, उद्योगपती यांचे हे आवडते ठिकाण आहे. मुस्लिम, ख्रिश्चन,ज्यू अशी संमिश्र वस्ती असल्याने इथे बहुरंगी सांस्कृतिक वातावरण आहे. शहरात मशिदी, चर्च याबरोबर सिनेगॉगही आहे. ‘फ्रॉम रशिया विथ लव्ह’ या चित्रपटाचे थोडे चित्रिकरण इथे केले आहे.
केप स्पार्टलजवळील टेकड्यांवर वसलेला कसबाह विभाग ऐश्वर्यसंपन्न आहे. इथल्या भव्य राजवाडयासारख्या बंगल्यांना किल्ल्यासारखी भक्कम तटबंदी आहे. आतल्या हिरव्या बागा फळाफुलांनी सजल्या होत्या. सौदी अरेबिया व कुवेत येथील धनाढ्य व्यापाऱ्यांचे हे बंगले आहेत असे गाईडने सांगितले. इथल्या सुलतानाचा सतराव्या शतकात बांधलेला भव्य पॅलेस व गव्हर्नर पॅलेसही इथेच आहे. इथून समुद्राचे सुंदर दर्शन होते .जुन्या शहरात ग्रॅ॑ड सोक्को म्हणजे खूप मोठे मार्केट आहे.
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है सजल “कैसी यह लाचारी है… ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।