हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #122 ☆ व्यंग्य – वर्गभेद का टॉनिक ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘वर्गभेद का टॉनिक’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 122 ☆

☆ व्यंग्य – वर्गभेद का टॉनिक 

ईश्वर ने अच्छा काम किया जो चार वर्ण बनाये—-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें जो अन्तर रखा गया वह सिर्फ कर्म का ही नहीं था, श्रेष्ठता और हीनता का भी था। यानी श्रेष्ठता में ब्राह्मण से शुरू कीजिए और उतरते हुए शूद्र तक आ जाइए। सौभाग्य से अपना चयन तथाकथित सवर्णों में हो गया, अन्यथा आज़ादी के सत्तर साल बाद भी न गाँव में घोड़ी पर बारात निकाल पाते, न ऊँची जाति के कुएँ से पानी ले पाते। अगर गलती से मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़ जाते तो मन्दिर का शुद्धीकरण होता और लगे हाथ शायद अपनी भी ‘धुलाई’ हो जाती। कहने का मतलब यह कि प्रभु ने बड़ी दुर्गति और फजीहत से बचा लिया। इस महती अनुकम्पा के लिए जनम जनम तक प्रभु का आभारी रहूँगा।
ईश्वर ने एक और अच्छा काम किया कि अमीर गरीब बनाये। गरीब न हो तो अमीरों को अमीरी का एहसास कैसे हो और अमीरी की अहमियत कैसे समझ में आये।  ‘हमीं जब न होंगे तो क्या रंगे महफ़िल, किसे देख कर आप इतराइएगा (या इठलाइएगा)।’ कहते हैं कि आदमी इस जन्म में जो कुछ भी भोगता है, सब पूर्वजन्म के कर्मों का फल होता है। लेकिन यह समझ में नहीं आता कि कैसे कुछ लोग राजा का जन्म पाकर भी रंक बन जाते हैं और कुछ लोग रंक से राजा। लगता है कुछ लोग असंख्य पापों के साथ एकाध पुण्य कर लेते होंगे और कुछ लोग अनेक पुण्यों के बावजूद एकाध पाप में फँस जाते होंगे, जैसे युधिष्ठिर को अश्वत्थामा की मृत्यु के बारे में मिथ्याभाषण के लिए कुछ देर तक नरकभ्रमण करना पड़ा था। जो हो, इन बातों में सर खपाने से कोई फायदा नहीं है। सब प्रारब्ध की बात है।

आजकल समाज को तीन वर्गों में बाँटा जाता है —-उच्च वर्ग, मध्यवर्ग और निम्नवर्ग। लेकिन यह ‘झाड़ूमार वर्गीकरण’ है जिसे ‘स्वीपिंग क्लासिफिकेशन’ कहते हैं। फत्तेलाल एंड संस की हैसियत पाँच दस करोड़ की है, लेकिन यदि मैं उन्हें टाटा जी के वर्ग में रखूँ तो यह मेरी मूढ़ता होगी। इसीलिए समझदार लोग इन तीन वर्गों में उपवर्ग ढूँढ़ने लगे हैं,जैसे मध्यवर्ग को अब उच्च मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग में बाँटा जाता है। इस हिसाब से तीनों वर्गों को बाँटें तो वर्गीकरण होगा ——उच्च उच्च वर्ग, मध्य उच्च वर्ग, निम्न उच्च वर्ग;उच्च मध्य वर्ग, मध्य मध्य वर्ग,निम्न मध्य वर्ग; उच्च निम्न वर्ग, मध्य निम्न वर्ग, निम्न निम्न वर्ग। थोड़ा और बारीकी में चले जाएं तो सबसे ऊपर ‘उच्च उच्च उच्च वर्ग’ और सबसे नीचे ‘निम्न निम्न निम्न वर्ग’ होगा। एक मित्र को मैंने यह वर्गीकरण सुनाया तो कहने लगा, ‘तुम्हारी यह हुच्च हुच्च सुनकर मैं पागल हो जाऊँगा।’ ईश्वर उसे ये बारीकियाँ समझने की काबिलियत दे।

हमारे देश ने अंगरेज़ी हुकूमत की जो चन्द अच्छाइयाँ बरकरार रखीं उनमें से एक यह है कि समाज को साहबों और बाबुओं में बाँट दो। साहब हाई क्लास और बाबू लो क्लास। बाबू से साहब हो जाना निर्वाण प्राप्त करने से कम नहीं है। इसीलिए साहबों और बाबुओं की कालोनियाँ अलग अलग बनायी जाती हैं। दोनों कालोनियों को पास पास रखने से साहब लोगों को प्रदूषण का डर रहता है।
अब कर्मचारी चार वर्गों में बँटे हैं —क्लास वन, क्लास टू,क्लास थ्री और क्लास फ़ोर। यहाँ भी भेद सिर्फ काम का नहीं, श्रेष्ठता का भी है। क्लास वन और क्लास फ़ोर के बीच राजा भोज और भुजवा तेली का फर्क हो जाता है। क्लास वन  में भी सुपर क्लास वन होते हैं जिनकी श्रेष्ठता कल्पना से परे होती है। वैसे केन्द्रीय क्लास वन और प्रान्तीय क्लास वन में केन्द्रीय श्रेष्ठ जाति का माना जाता है। एक और वर्गीकरण ‘सीधी नियुक्ति वाला अफसर’ और ‘प्रोमोशन से नियुक्त अफसर’ का होता है। इनमें सीधी नियुक्ति वाला उच्च जाति का होता है।

मेरे एक परिचित किसी अध्ययन के लिए न्यूज़ीलैंड गये थे। जब वे वहाँ से लौटने को हुए तो उनके दफ्तर के सफाई कर्मचारी (जैनिटर) ने उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया और शाम को अपनी कार से उन्हें अपने घर ले गया। हमारे देश में यह अकल्पनीय है। हमारे यहाँ नेता फाइव स्टार होटल से उत्तम भोजन मँगाकर गरीब के घर में पालथी मारकर, गरीब को दिखा दिखा कर खाते हैं, क्योंकि उन्हें पता होता है कि गरीब के घर में खाने को कुछ नहीं मिलेगा। दुनिया में लोग होटल से बचा हुआ खाना लाकर गरीबों को खिलाते हैं, हमारे यहाँ होटल से भोजन लाकर गरीब के घर में बैठ कर खाने का रिवाज है। नेताओं को यह ख़ुशफहमी है कि गरीबों के घर में बैठकर पनीर, कोफ्ता और मशरूम खाने से वे उनके  हमदर्द साबित हो जाएंगे। हाल के लोकसभा चुनाव में एक नेताजी घर घर जाकर जीमने में इतने मसरूफ़ हो गये कि वोट माँगना भूल गये और चुनाव हार गये।

दरअसल मैं कहना यह चाहता हूँ कि समाज में ये जो भेद हैं ये समाज के स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद हैं क्योंकि आज का आदमी अपने से हीन आदमी को देखकर ही जीवित और स्वस्थ रहता है। अपने से श्रेष्ठ आदमी को देखकर मनोबल में जो गिरावट होती है वह अपने से निर्बल को देखकर सुधर जाती है।

अब आप ही सोचिए कि क्लास टू, थ्री या फ़ोर न हो तो क्लास वन किसे देखकर सन्तोष करे और किस पर शासन करे?vइसी तरह क्लास टू के स्वास्थ्य के लिए क्लास थ्री, और क्लास थ्री के सुकून के लिए क्लास फ़ोर का होना ज़रूरी है।  अब सरकार ने क्लास फ़ोर के सुख और सन्तोष का इंतज़ाम भी कर दिया है। उनके भी नीचे ‘डेली वेजेज़’ वाले या तदर्थ होते हैं। इनकी हालत देखकर ‘नियमित’ क्लास फ़ोर कर्मचारी अपने रक्त में कुछ वृद्धि कर सकते हैं। वैसे तो बेरोज़गारी की कृपा से अब इतने बेकार लोग दिखायी पड़ते हैं कि हर नौकरीशुदा आदमी अपने को सौभाग्यशाली समझकर अपना ख़ून और अपनी खुशी बढ़ा सकता है।

घर में जब मँहगाई की वजह से कद्दू की सब्ज़ी से सन्तोष करना पड़ता है तो गृहस्वामी को एकाएक याद आता है कि इस देश के करोड़ों लोगों को दो वक्त का भोजन नहीं मिलता। इस टिप्पणी से घर के लोगों को कद्दू का स्वाद कुछ बेहतर लगने लगता है। ऐसे ही जब घर के सामने कोई अट्टालिका उठती हुई दिखायी पड़ती है तो साधारण घर का स्वामी पत्नी से कहता है, ‘जानती हो?बंबई में आधी जनसंख्या झुग्गियों में रहती है।’ बंबई की झुग्गियों को याद करने से सामने खड़ी होती अट्टालिका के बावजूद अपना घर अच्छा लगने लगता है। बंबई की झुग्गियां हज़ारों मील दूर नगरों के गृहस्वामियों के लिए ‘टॉनिक’ भेजती हैं।

रेलों में सेकंड क्लास की मारामारी और दुर्गति देखकर ही ए.सी.के टापू में बैठने का पूरा आनन्द मिलता है। सड़क पर स्कूटर के बगल में साइकिल चले तो स्कूटर का आराम बढ़ता है, और  कार वाले के बगल में उसका उछाला हुआ कीचड़ झेलता स्कूटर वाला चले तो कार का सुख दुगना होता है। देश में मरे-गिरे,खस्ताहाल स्कूल न हों तो ठप्पेदार स्कूलों में पढ़ने का क्या मज़ा?और अपने सपूत की स्कूल यूनिफॉर्म तब ज़्यादा ‘स्मार्ट’ और ‘क्यूट’ लगती है जब सड़क पर, कंधे पर बस्ता लटकाये, स्याही के दाग वाली कमीज़ पहने, नाक पोंछता, रबर की चप्पलें सटसटाता,कोई ‘देसी’ स्कूल वाला बालक दिखता है।

इसलिए सज्जनो,अपनी साड़ी इसीलिए सफेद लगती है क्योंकि दूसरे की मैली होती है। फलसफाना अंदाज़ में कहूँ तो रात के कारण ही दिन का सुख है और धूप के कारण छाया का।

निष्कर्ष यह निकलता है कि समाज के स्वास्थ्य, सुख और सुकून के लिए वर्ग-भेद ज़रूरी है। यह अवश्य होना चाहिए कि जो सबसे नीची सीढ़ी पर हैं,उनसे भी नीचे कुछ सीढ़ियों की ईजाद हो ताकि अपने से नीचे देखकर उन्हें भी कुछ संतोष प्राप्त हो। धन का न हो सके तो कम से कम संतोष का बेहतर बँटवारा होना ही चाहिए।
अब वे दिन गये जब कहा जाता था ‘देख पराई चूपड़ी मत ललचावै जीव; रूखा सूखा खायके ठंडा पानी पीव।’ अब ठंडा पानी पीने से दूसरे की चूपड़ी देखकर उठी जलन शान्त नहीं होगी। अब यह जलन तभी मिटेगी जब हमारी रोटी भी आधी चूपड़ी हो और सामने कोई ऐसा आदमी हो जिसकी रोटी बिलकुल चूपड़ी न हो।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 74 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 74 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 74) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 74☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

तुम्हारी यादों के ज़ख़्म

जब भरने लगते हैं,

तो किसी बहाने तुम्हें

याद करने लगते हैं…!

 

When the wounds of your

memories begin to heal,

Then, on some pretext I

start remembering you!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कुछ इस अदा से तोड़े हैं

ताल्लुक़ उसने कि…

एक अरसे से तलाश रहा हूँ

गुनाह  अपने…!

 

In such a manner she

broke the relationship

That ever since I’ve been

looking for my fault..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

सुना है आज समंदर को

बड़ा  गुमान  आया  है

उधर ही ले चलो कश्ती

जहाँ  तूफान  आया  है…

 

Heard that the sea is

feeling too boisterous today…

Let’s take the boat there only

where the storm is raging…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मालूम नहीं मिट्टी ने है रंग बदला

या बीज में ही है मिलावट

ताउम्र अपनापन बो कर भी

अकेलापन काटता रहा मैं….!

 

Knoweth not if soil changed its nature

Or the seeds itself were adulterated!

Kept sowing affinity all my life…

But only to reap the stark solitude….!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 121 ☆ अहम् और अहंकार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 121 ☆ अहम् और अहंकार ?

प्रबोधन और व्याख्यान के लिए विभिन्न समुदायों के बीच जाना होता रहता है। प्रायः हर मंच से कहा जाता है कि फलां समुदाय या वर्ग की एकता देखो, पर हम ऐसी केकड़ा प्रवृत्ति के हैं कि हमारा वर्ग कभी एक नहीं हो सकता। जबकि सत्य यह है कि कोई भी समुदाय इसका अपवाद नहीं है। अलबत्ता अहंकार की अधिकता व्यक्ति विशेष को सर्वग्राही, सर्वमान्य बनने से रोकती है।

सिक्के का दूसरा पहलू है कि अहम्‌ के भाव के बिना कोई प्रगति कर भी नहीं सकता। यहाँ ‘अहम्‌’ का संदर्भ अपने अस्तित्व के प्रति सचेत रहने, अपने पर विश्वास रखने से है। तथापि ‘अति सर्वत्र वर्ज्येत’, यहाँ भी लागू होता है। इस अहम् को विस्तार न दें, आकार न दें। यह ऐसा ही है जैसे थोड़ी सी आग से हाथ सेंककर ठंड दूर कर ली जाए या भोजन बना लिया जाए, पर आग यदि बढ़ जाए, अलाव दावानल में बदल जाए तो उसमें व्यक्ति स्वयं ही भस्मीभूत हो जाएगा। अहम्‌ को आकार देना ही अहंकार है, इससे बचें।

फिर अहंकार भी किसलिए ! नीति कहती है कि हर मूल का मूल पहले से ही मौजूद है। सृष्टि में मौलिक कुछ भी नहीं है। जो बात हमने आज जानी, वह हम से पहले लाखों जानते थे, हमारे बाद करोड़ों जानेंगे। अपने ज्ञान की तुलना यदि हम अपने अज्ञान से करें तो कथित ज्ञान स्वयं ही लज्जित हो जाएगा, उसका आकार बहुत छोटा हो जाएगा, अतः आवश्यक है-अहंकार का निर्मूलन।

कबीर लिखते हैं-

जब मैं था तब हरि नाहिं, अब हरि हैं मैं नाहिं,
प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समाहिं।

अहंकार होगा तो हरि कैसे मिलेंगे, यदि हरि नहीं मिलेंगे तो अज्ञान का तम कौन हरेगा? मनुष्य के हाथ में कर्म तो है पर फल की निष्पत्ति उसके बस में नहीं।

समय के कुप्रबंधन के शिकार प्रायः कहते हैं, ‘आज इतना व्यस्त रहा कि भोजन के लिए समय ही नहीं रहा।’ अर्थात्‌ सारी भाग-दौड़ के बाद भी उस दिन भोजन पाना या ना पाना उसके हाथ में नहीं है। ‘मैं’ की अति व्यक्ति को दृष्टिहीन-सा कर देती है। वह कर्म का नियंता और उपभोक्ता भी खुद को ही समझने लगता है।

किसी नगर में एक साधु आए। नगरसेठ ने मुनीम के हाथ उस दिन के भोजन का निमंत्रण भेजा। नगरसेठ के यहाँ काम करते-करते मुनीम की ज़बान पर अहंकार चढ़ गया था। जाकर साधु से कहा,”आपको आजका भोजन हमारे सेठ खिलायेंगेे।” साधु फक्कड़ था, कहा,”अपने सेठ से कहना आज तो तू खिला रहा है, कल कौन खिलायेगा?” मुनीम ने सारा किस्सा जाकर सेठ को सुनाया। सेठ बुद्धिमान और विनम्र था। सारी बात समझ गया। स्वयं साधु के पास पहुँचा और हाथ जोड़कर बोला,” महाराज कल जिसने खिलाया था, आज भी वही खिला रहा है और आनेवाले कल भी वही खिलायेगा। मुझे तो उसने आज के लिए निमित्त भर बनाया है।”

मनुष्य के लिए अपनी इस नैमित्तिक स्थिति को समझना ज़रूरी है। पथिक यदि यह मान ले कि वह नहीं चलेगा तो पगडंडी कहीं जाएगी ही नहीं, वहीं पड़ी रहेगी, तो इससे बड़ी नादानी कोई नहीं।

धन, प्रसिद्धि, रूप आदि का संचय व्यक्ति को बौरा देता है। लोग बटोरकर बड़ा होना चाहते हैं। विनम्रता से कहना चाहता हूँ, “बाँटकर देखो, जितना बाँटोगे, अहंकार घटेगा। जितना अहंकार घटेगा, उतना तुम्हारा कद बढ़ेगा।”… विश्वास न हो तो प्रयोग करके देख लो।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 74 ☆ सॉनेट – तिल का ताड़ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘सॉनेट – तिल का ताड़।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 74 ☆ 

☆ सॉनेट – तिल का ताड़ ☆

*

तिल का ताड़ बना रहे, भाँति-भाँति से लोग।

अघटित की संभावना, क्षुद्र चुनावी लाभ।

बौना खुद ओढ़कर, कहा न हो अजिताभ।।

नफरत फैला समझते, साध रहे हो योग।।

*

लोकतंत्र में लोक से, दूरी, भय, संदेह।

जन नेता जन से रखें, दूरी मन भय पाल।

गन के साये सिसकता, है गणतंत्र न ढाल।।

प्रजातंत्र की प्रजा को, करते महध अगेह।।

*

निकल मनोबल अहं का, बाना लेता धार।

निज कमियों का कर रहा, ढोलक पीट प्रचार।

जन को लांछित कर रहे, है न कहीं आधार।

*

भय का भूत डरा रहा, दिखे सामने हार।।

सत्ता हित बनिए नहीं, आप शेर से स्यार।।

जन मत हेतु न कीजिए, नौटंकी बेकार।।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

८-१-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #104 ☆ वृक्षारोपण अभियान चला ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 104 ☆

☆ वृक्षारोपण अभियान चला  ☆

ये मानव अपने स्वारथ में,

     निस दिन  जंगल काट रहा है।

खत्म कर रहा मेरा जीवन,

      सबको ही दुःख बांट रहा है।

जाने अंजाने ये मानव,

        पर्यावरण बिगाड़ रहा है।

ईंधन और इमारत खातिर,

    प्रतिदिन मुझे उजाड़ रहा है।।1।।

 

अगर, ना होंगे वृक्ष  धरा पर,

            छाया ना मिल पायेगी।

 सूरज की तपती किरणों से,

             ये धरती जल जायगी।

यदि, खत्म  हो गया इस जग से मै

            धरती बंजर बन जाएगी।

होंगे खत्म जीव धरती से,

              सृष्टि ही मिट जायेगी।।3।।  

 

जो बढ़ा प्रदूषण इस जग में,

                बरखा ना हो पायेगी।।

ताल पोखरें  सूखे होंगे,

    जल बिनु मछली मर जायेगी।

यदि खत्म हुई हरियाली जग से,

               जीवन ही मिट जायेगा।

हर तरफ करूण क्रंदन होगा ।।4।।

 

अब भी चेत अरे!ओ मानव,

        ना मुझसे व्यर्थ तू बैर बढ़ा।

 अगर चाहता हित सबका तो,

              तू दुनियां में  पेड़ लगा।

तूने संरक्षण दिया मुझे,

             तो मैं सबको जीवन दूंगा।

 वर्षा होगी हरियाली होगी,

    खुशियों से दामन भर दूंगा।।5।।

 

दूंगा मैं फल-फूल धरा को,

         पशुओं को चारा दूंगा।  

जड़ी बूटियां जग को दे

       जीवन को मैं संवारूगा।

हरियाली की चादर ताने,

          धरती को छाया दूंगा। 

नीरस जीवन रसमय करके,

     सबको जीवन प्यारा दूंगा।।6।।

 

इस लिए धरा पर हे मानव!

     तू प्रति दिन वृक्ष लगाता जा।

ऊसर बीहड़ बंजर धरती पर,

    खुशियों के फूल खिलाता जा।

मैं सबका ही आह्वान करता हूं,

        मुझको मीत बनाता जा।

वृक्षरोपण  अभियान चला

    वृक्षरोपण अभियान चला।।7।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

04–08–2021

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #125 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 11 – “बूढ़ा शायर” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “बूढ़ा शायर”)

? ग़ज़ल # 11 – “बूढ़ा शायर” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

 

ज़िक्र छेड़ा ही है तो फिर माहौल बनाए रखिये,

सहर तक अपने अरमानों की लौ जलाए रखिये।

 

उजड़ने के बाद बाग़ में आता नहीं भूला भटका,

झूठी ही सही उम्मीद की इज्जत बचाए रखिये।

 

तरह-तरह की मुसीबतें रोज़ाना सिर खपायेंगी,

ख़ुद को ही नहीं सपनों को भी सजाए रखिये।  

 

अलबत्ता ये कठिन दौर भी यूँ ही गुज़र जायेगा,

हिम्मत ने साथ दिया उसे यूँ ही बनाए रखिये।

 

आया है सो जाएगा दुनिया से राजा रंक फ़क़ीर,

एक नज़्म मालिक के वास्ते भी छपाए रखिये।

 

सत्तर वसंत का रस नुमायाँ इस शख़्सियत में,

दिल-दौलत की महफ़िल यूँ ही सजाए रखिये।

 

तुम्हें बूढ़ा शेर भी कभी घास खाते नहीं दिखता,

शिकार में मैदानी अन्दाज़ यूँ ही बनाए रखिये।

 

चिंता चिता में ज़ाया न हो कोई पल “आतिश”,

कूच के वक़्त भी शायरी की लौ जलाए रखिये।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 62 ☆ गजल – अटपटी दुनियॉं ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “अटपटी दुनियॉं”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # काव्य धारा 62 ☆ गजल – अटपटी दुनियॉं ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

साथ रहते हुये भी घर एक ही परिवार में

भिन्नता दिखती बहुत है व्यक्ति के व्यवहार में।।

एक ही पौधे में पलते फूल-कॉटे साथ-साथ

होता पर अन्तर बहुत आचार और विचार मे।।

आदमी हो कोई सबके खून का रंग लाल है

भाव की पर भिन्नता दिखती बड़ी संसार में।।

हर जगह पर स्वार्थश टकराव औ’ बिखराव है

एकता की भावना पलती है केवल प्यार में।।

मेल की बातें तो कम, अधिकांश मन मे मैल है

भाईचारे का चलन है सिर्फ लोकाचार में।।

नाम के है नाते-रिश्ते, सच, किसी का कौन है ?

निभाई जाती है रस्में सभी बस उपचार में।।

भुला सुख-सुविधायें अपनी जो हमेशा साथ दे

राम-लक्ष्मण-भरत से भाई कहाँ संसार में।।

दुनियाँ की गति अटपटी है साफ दिखती हर तरफ

फर्क होता आदमी की बात औ’ व्यवहार में।।

कभी भी घुल मिल किसी को अपना कहना व्यर्थ है

रंग बदल जाते है अपनों के भी तो अधिकार में।।        

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #74 – दु:ख, पाप और कर्म ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #74 – दु:ख, पाप और कर्म ☆ श्री आशीष कुमार

दु:ख भुगतना ही, कर्म का कटना है. हमारे कर्म काटने के लिए ही हमको दु:ख दिये जाते है. दु:ख का कारण तो हमारे अपने ही कर्म है, जिनको हमें भुगतना ही है। यदि दु:ख नही आयेगें तो कर्म कैसे कटेंगे?

एक छोटे बच्चे को उसकी माता साबुन से मलमल के नहलाती है जिससे बच्चा रोता है. परंतु उस माता को, उसके रोने की, कुछ भी परवाह नही है, जब तक उसके शरीर पर मैल दिखता है, तब तक उसी तरह से नहलाना जारी रखती है और जब मैल निकल जाता है तब ही मलना, रगड़ना बंद करती है।

वह उसका मैल निकालने  के लिए ही उसे मलती, रगड़ती है, कुछ द्वेषभाव से नहीं. माँ उसको दु:ख देने के अभिप्राय से नहीं रगड़ती,  परंतु बच्चा इस बात को समझता नहीं इसलिए इससे रोता है।

इसी तरह हमको दु:ख देने से परमेश्वर को कोई लाभ नहीं है. परंतु हमारे पूर्वजन्मों के कर्म काटने के लिए, हमको पापों से बचाने के लिए और जगत का मिथ्यापन बताने के लिए वह हमको दु:ख देता है।

अर्थात् जब तक हमारे पाप नहीं धुल जाते, तब तक हमारे रोने चिल्लाने पर भी परमेश्वर हमको नहीं छोड़ता ।

इसलिए दु:ख से निराश न होकर, हमें परमेश्वर से मिलने के बारे मे विचार करना चाहिए और भजन सुमिरन का ध्यान करना चाहिए..!!

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “समाजभूषण” – देवेंद्र भुजबळ  ☆ परिचय – सौ राधिका भांडारकर

सौ राधिका भांडारकर

☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “समाजभूषण” – देवेंद्र भुजबळ  ☆ परिचय – सौ राधिका भांडारकर  

पुस्तकाचे नांव : समाजभूषण

लेखक आणि संकलक : देवेंद्र भुजबळ

प्रकाशक:–  लता गुठे {भरारी प्रकाशन}

प्रथम आवृत्ती : ५ सप्टेंबर २०२१

मूल्य :  रुपये २००/—

“…दैनंदिन जीवनात व व्यापार उद्योगात काम करत असताना ,आपण वास्तववादी,  विज्ञाननिष्ठ, 

अध्यात्मवादी असणे महत्वाचे आहे. त्याचबरोबर कष्टाला प्रामाणिकपणाची जोड द्या .चिकित्सक रहा.व नवीन कौशल्य आत्मसात करा. तात्पुरता विचार न करता, दीर्घकालीन विचार करा.व व्यसनांपासून लांब रहाल तर तुमचे यश निश्चित आहे….”

.”..स्वत:साठी जगत असताना इतरांच्या जीवनात आनंद निर्माण करण्याचा प्रयत्न प्रत्येक व्यक्तीने केल्यास, सर्व समाज सुखी झाल्याशिवाय रहाणार नाही…”.

“…महिला ही केवळ कुटुंबच एकत्र करते असे नाही, तर समाजदेखील एकत्र करण्यात तिचा मोलाचा वाटा असतो. महिलांनी कौटुंबिक जबाबदारीबरोबर समाजासाठी देखील वेळ देऊन आपले अस्तित्व निर्माण करावे.नवीन ओळखी निर्माण कराव्यात. समाजाला एकत्त्रित करुन समाजाची प्रगती साधावी. कारण जेव्हां समाज एकत्र येतो, तेव्हां सर्वांची प्रगती होत असते….”.

“….मनुष्य आयुष्यभर शिकतच असतो. मुलांना शिकवता शिकवता त्यांच्याकडून देखील अनेक गोष्टी शिकत असतो. मुलं म्हणजे देवाघरची फुलं..ती निरागस ,प्रेमळ, निस्वार्थी, निर्मळ मनाची असतात. मुलांमधील सकारात्मक गुण, त्यांच्यातील उर्जा, आपल्याला सदैव प्रसन्न ठेवते…”

—–असे लाखमोलाचे संदेश मा. देवेंद्र भुजबळ यांनी संपादित केलेल्या समाजभूषण या पुस्तकातून मिळाले. या पुस्तकात जवळजवळ पस्तीस लोकांच्या, जे स्वत:बरोबर समाजाच्या ऊन्नतीसाठी प्रयत्नशील, प्रयोगशील राहिले, त्यांच्या यशकथा आहेत. सोमवंशीय क्षत्रीय कासार समाजातले हे मोती देवेंद्रजींनी वेचले आणि ते या पुस्तकरुपाने वाचकांसमोर ठेवून, जीवनाविषयीचा दृष्टीकोनच तेजाळून टाकला…

एक जाणवतं, की ही सारी कर्तुत्ववान माणसं एका विशिष्ट समाजातलीच असली, तरी देवेंद्रजींचा उद्देश व्यापक आहे. सर्वसमावेशक आहे…अशा अनेक व्यक्ती असतील ज्यांच्या यशोगाथा प्रेरक आहेत. त्या सर्वांप्रती पोहचविण्याचं एक सुवर्ण मोलाचं काम करुन, अपयशी, निराश, भरकटलेल्या दिशाहीन लोकांना उमेद मिळावी या सद्हेतूने त्यांनी हे पुस्तक लिहीले हे नक्कीच—

मराठी माणसं स्वयंसिद्ध नसतात. उद्योगापेक्षा त्यांना नोकरी सुरक्षित वाटते. पाउलवाट बदलण्याची त्यांची मानसिकता नसते —या सर्व विचारांना छेद देणार्‍या कहाण्या या पस्तीस लोकांच्या आयुष्यात डोकावतांना वाचायला मिळतात.

बहुतांशी या सार्‍या व्यक्ती सर्वसाधारण ,सामान्य पार्श्वभूमी असलेल्या  कुटुंबात,जन्माला आलेल्या.   पण जगताना स्वप्नं उराशी बाळगून जगल्या. यात भेटलेल्या नायक नायिकेचा सामाईक गुण म्हणजे ते बदलत्या काळानुसार बदलले. त्यांनी शिक्षणाची कास धरली. धडाडीने नवे मार्ग निवडले. संघर्ष केला .काटे टोचले. मन आणि शरीर  रक्तबंबाळ झाले .पण बिकट वाट सोडली नाही. न्यूनगंड येऊ दिला नाही.आत्मविश्वास तुटू दिला नाही. वेळेचं उत्तम नियोजन, कामातील शिस्त, प्रामाणिकपणा, आधुनिकता, प्रचंड मेहनत, चिकाटी व नैतिकता, व्यवसायातल्या बारकाव्यांचा सखोल अभ्यास हे विशेष गुण असल्याने ते यशाचे शिखर गाठू शकले…

शिवाय यांना समाजभूषण कां म्हणायचं..तर ही सारी मंडळी स्वत:तच रमली नाहीत .आपण आपल्या समाजाचे प्रथम देणेकरी आहोत या भावनेने ते प्रेरित होते..समाजाच्या उन्नतीसाठी त्यांनी आपलं यश वाटलं—-

हे पुस्तक वाचताना आणखी एक जाणवलं, की आपलं अस्तित्व सिद्ध करण्यासाठी अनंत क्षेत्रं आपल्यापुढे आव्हान घेऊन उभी आहेत. फक्त त्यात उडी मारण्याची मानसिकता हवी. आणि व्यापक दृष्टीकोन हवा. कुठलंही काम कमीपणाचं नसतं. स्वावलंबी ,स्वाभिमानी असणं महत्वाचं आहे…

या पुस्तकातील ही पस्तीस माणसं, त्यांच्या कार्याने, विचारप्रणालीने, मनाच्या गाभार्‍यात दैवत्वरुपाने वास करतात—

शिवाय विविध क्षेत्रात नेत्रदीपक कर्तुत्व गाजवणार्‍या या पस्तीस लोकांबद्दल वेचक तेव्हढंच लिहीलं आहे. एकही लेख पाल्हाळीक नाही. हे सर्व श्रेय,मा. देवेंद्र भुजबळ, रश्मी हेडे, डॉ.स्मिता होटे, दीपक जावकर ,प्रसन्न कासार, या लेखकांच्या शब्द कौशल्याला आहे.

अत्यंत सकारात्मक, प्रेरणादायी, ऊर्जा देणारं,,फक्त युवापिढीसाठीच नव्हे तर ज्येष्ठांसाठी सुद्धा —-असं हे सुंदर पुस्तक.संग्रही असावं असंच—

देवेंद्रजी आपले अभिनंदन तर करतेच.  पण माझ्यासारख्या वाचनवेडीला पौष्टिक खुराक दिल्याबद्दल खूप खूप धन्यवाद !!! आणि मन:पूर्वक शुभेच्छा !!

 

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 115 ☆ वक्त और उलझनें ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख वक्त और उलझनें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 115 ☆

☆ वक्त और उलझनें

‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें सौ और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ रास्ते तो हर ओर होते हैं, परंतु यह आप पर निर्भर करता है कि आपको रास्ता पार करना है या इंतज़ार करना है, क्योंकि यह आपकी सोच पर निर्भर करता है। वैसे आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं, तभी तो मामले सुलझते कम और उलझते अधिक हैं। जी हां! यही सत्य है ज़िंदगी का… ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् जीवन में सीख देने वाले, मार्गदर्शन करने वाले बहुत मिल जाएंगे, भले ही वे ख़ुद उन रास्तों से अनजान हों और उनके परिणामों से बेखबर हों। वैसे बावरा मन ख़ुद को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझता है और हताशा-निराशा की स्थिति में उन पर विश्वास कर लेता है; जो स्वयं अज्ञानी हैं और अधर में लटके हैं।

स्वर्ग-नरक की सीमाएं निर्धारित नहीं है। परंतु हमारे विचार व कार्य-व्यवहार ही स्वर्ग-नरक का निर्माण करते हैं। यह कथन कोटिश: सत्य है कि   जैसी हमारी सोच होती है; वैसे हमारे विचार और कर्म होते हैं, जो हमारी सोच हमारे व्यवहार से परिलक्षित होते हैं; जिस पर निर्भर होती है हमारी ज़िंदगी; जिसका ताना-बाना भी हम स्वयं बुनते हैं। परंतु मनचाहा न होने पर दोषारोपण दूसरों पर करते हैं। यह मानव का स्वभाव है, क्योंकि वह सदैव यह सोचता है कि वह कभी ग़लती कर ही नहीं सकता, भले ही मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। इसलिए मानव को यह सीख दी जाती है कि यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का ही साकार रूप है। इसके साथ ही महात्मा बुद्ध की यह सीख भी विचारणीय है कि आवश्यकता से अधिक सोचना अप्रसन्नता व दु:ख का कारण है। इसलिए मानव को व्यर्थ चिंतन व अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियां हानिकारक हैं; जो मानव को पतन की ओर ले जाती हैं। इसलिए आवश्यकता है आत्मविश्वास की, क्योंकि असंभव इस दुनिया में कुछ है ही नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और जो हमने आज तक सोचा ही नहीं। इसलिए लक्ष्य निर्धारित कीजिए; अपनी सोच ऊंची रखिए और आप सब कुछ कर गुज़रेंगे, जो कल्पनातीत था। जीवन में कोई रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जब आपकी संगति अच्छी हो अर्थात् हम गलियों से होकर ही सही रास्ते पर आते हैं। सो! मानव को कभी निराश नहीं होना चाहिए। ‘नर हो, न निराश करो मन को’ का संबंध है निरंतर गतिशीलता से है; थक-हार कर बीच राह से लौटने व पराजय स्वीकारने से नहीं, क्योंकि लौटने में जितना समय लगता है, उससे कम समय में आप अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। सही रास्ते पर पहुंचने के लिए हमें असंख्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो संघर्ष द्वारा संभव है।

संघर्ष प्रकृति का आमंत्रण है; जो स्वीकारता है, आगे बढ़ता है। संघर्ष जीवन-प्रदाता है अर्थात् द्वन्द्व अथवा दो वस्तुओं के संघर्ष से तीसरी वस्तु का जन्म होता है; यही डार्विन का विकासवाद है। संसार में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात्  जीवन में वही सफलता प्राप्त कर सकता है, जो अपने हृदय में शंका अथवा पराजय के भाव को नहीं आने देता। इसलिए मन में कभी पराजय भाव को मत आने दो… यही प्रकृति का नियम है। रात के पश्चात् भोर होने पर सूर्य अपने तेज को कम नहीं होने देता; पूर्ण ऊर्जा से सृष्टि को रोशन करता है। इसलिए मानव को भी निराशा के पलों में अपने साहस व उत्साह को कम नहीं होने देना चाहिए, बल्कि धैर्य का दामन थामे पुन: प्रयास करना चाहिए, जब तक आप निश्चित् लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते। मानव में असंख्य संभावनाएं निहित हैं। आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचानने व संचित करने की। सो! निष्काम कर्म करते रहिए, मंज़िल बढ़कर आपका स्वागत-अभिवादन अवश्य करेगी।

वक्त पर ही छोड़ देने चाहिए, कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे। वक्त सबसे बड़ा वैद्य है। समय के साथ गहरे से गहरे घाव भी भर जाते हैं। इसलिए मानव को संकट की घड़ी में हैरान-परेशान न होकर, समाधान हेतु सब कुछ सृष्टि-नियंंता पर छोड़ देना चाहिए, क्योंकि परमात्मा के घर देर है, अंधेर नहीं। उसकी अदालत में निर्णय देरी से तो हो सकते हैं, परंतु उलझनों के हल लाजवाब मिलते हैं, परमात्मा वही करता है, जिसमें हमारा हित होता है। ‘ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय/ कभी यह हंसाए, कभी यह रुलाए।’ इसे न तो कोई समझा है, न ही जान पाया है। इसलिए यह समझना आवश्यक हैरान कि इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। आप इस प्रकार जिएं कि आपको मर जाना है और इस प्रकार की सीखें कि आपको सदा जीवित रहना है। यही मर्म है जीवन का…मानव जीवन पानी के बुलबुले की भांति क्षण-भंगुर है।जो ‘देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा प्रभात।’ सो! आप ऐसे मरें कि लोग आपको मरने के पश्चात् भी याद रखें। वैसे ‘Actions speak louder than words.’कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में अपना परिचय देते हैं। सो!आप श्रेष्ठ कर्म करें कि लोग आपके मुरीद हो जाएं तथा आपका अनुकरण- अनुसरण करें।

श्रेठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। आप अपने संस्कारों से जाने जाते हैं और व्यवहार से श्रेष्ठ माने जाते हैं। अपनी सोच अच्छी व सकारात्मक रखें, क्योंकि नज़र का इलाज तो संभव है; नज़रिए का नहीं। सो! मानव का दृष्टिकोण व नज़रिया बदलना संभव नहीं है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि मानव की आदतें जीते जी नहीं बदलती, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। इसलिए उम्मीद सदैव अपने से कीजिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो दूसरों से की जाती हैं। इसलिए मुसीबत के समय इधर-उधर नहीं झांकें; आत्मविश्वास प्यार व धैर्य बनाए रखें; मंज़िल आपका बाहें फैलाकर अभिनंदन करेगी। जीवन में लोगों की संगति कीजिए, जो बिना स्वार्थ व उम्मीद के आपके लिए मंगल कामना करते हैं। वास्तव में उन्हें क्षआपकी परवाह होती है और वे आपका हृदय से सम्मान करते हैं।

सो! जिसके साथ बात करने से खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए, वही अपना है। ऐसे लोगों को जीवन में स्थान दीजिए, इससे आपका मान-सम्मान बढ़ेगा और दु:खों के भंवर से मुक्ति पाने में भी आप समर्थ होंगे। यदि सपने सच नहीं हो रहे हैं, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। सो! अपना निश्चय दृढ़ रखो और अन्य विकल्प की ओर ध्यान दो। यदि मित्र आपको पथ-विचलित कर रहे हैं, तो  उन्हें त्याग दीजिए, अन्यथा वे दीमक की भांति आप की जड़ों को खोखला कर देंगे और आपका जीवन तहस-नहस हो जाएगा। सो! ऐसे लोगों से मित्रता बनाए रखें, जो दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखने का हुनर जानते हैं। वे न कभी दु:खी होते हैं; न ही दूसरे को संकट में डाल कर सुक़ून पाते हैं। निर्णय लेने से पहले शांत मन से चिंतन-मनन कीजिए, क्योंकि आपकी आत्मा जानती है कि आपके लिए क्या उचित व श्रेयस्कर है। सो! उसकी बात मानिए तथा स्वयं को ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त रखिए। आप मानसिक तनाव से मुक्त रहेंगे। व्यर्थ का कचरा अपने मनोमस्तिष्क में मत भरिए, क्योंकि वह अवसाद का कारण होता है।

दुनिया का सबसे कठिन कार्य होता है–स्वयं को पढ़ना, परंतु प्रयास कीजिए। अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें समझना सुगम नहीं, अत्यंत दुष्कर होता है। इसके लिए आपको एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि पुस्तकें इंसान की सबसे अच्छे मित्र होती हैं; कभी ग़लत राह नहीं दर्शाती। ख्याल रखने वालों को ढूंढना पड़ता है; इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ लेते हैं।

दुनिया एक रंगमंच है, जहां सभी अपना-अपना क़िरदार अदा कर चले जाते हैं। शेक्सपीयर की यह उक्ति ध्यातव्य है कि इस संसार में हर व्यक्ति विश्वास योग्य नहीं होता। इसलिए उन्हें ढूंढिए, जो मुखौटाधारी नहीं हैं, क्योंकि समयानुसार दूसरों का शोषण करने वाले, लाभ उठाने वाले अथवा इस्तेमाल करने वाले तो आपको तलाश ही लेंगे… उनसे दूरी बनाए रखें; उनसे सावधान रहें तथा ऐसे दोस्त तलाशें…धोखा देना जिनकी फ़ितरत न हो।

अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सज़ा है और एकांत सबसे बड़ा वरदान। एकांत की प्राप्ति तो मानव को सौभाग्य से प्राप्त होती है, क्योंकि लोग अकेलेपन को जीवन का श्राप समझते हैं, जबकि यह तो एक वरदान है। अकेलेपन में मानव की स्थिति विकृत होती है। वह तो चिन्ता व मानसिक तनाव में रहता है। परंतु एकांत में मानव अलौकिक आनंद में विचरण करता रहता है। इस स्थिति को प्राप्त करने के निमित्त वर्षों की साधना अपेक्षित है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव को सबसे अलग-अलग कर देता है और वह तनाव की स्थिति में पहुंच जाता है। इसके लिए दोषी वह स्वयं होता है, क्योंकि वह ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, सर्वोत्तम  समझता है और दूसरों के अस्तित्व को नकारना उसका स्वभाव बन जाता है। ‘ घमंड मत कर दोस्त/  सुना ही होगा/ अंगारे भी राख बढ़ाते हैं।’ मानव मिट्टी से जन्मा है और मिट्टी में ही उसे मिल जाना है। अहं दहकते अंगारों की भांति है, जो मानव को उसके व्यवहार के कारण अर्श से फ़र्श पर ले आता है, क्योंकि अंत में उसे भी राख ही हो जाना है। सृष्टि के हर जीव व उपादान का मूल मिट्टी है और अंत भी वही है अर्थात् जो मिला है, उसे यहीं पर छोड़ जाना है। इसलिए ज़िंदगी को सुहाना सफ़र जान कर हरपल को जीएं; उत्सव-सम मनाएं। इसे दु:खों का सागर मत स्वीकारें, क्योंकि वक्त निरंतर परिवर्तनशील है अर्थात् कल क्या हो, किसने जाना। सो कल की चिन्ता में आज को खराब मत करें। कल कभी आयेगा नहीं और आज कभी जायेगा नहीं अर्थात् भविष्य की ख़ातिर वर्तमान को नष्ट मत करें। सो! आज का सम्मान करें; उसे सुखद बनाएं…शांत भाव से समस्याओं का समाधान करें। समय, विश्वास व सम्मान वे पक्षी हैं, जो उड़ जाएं, तो लौट कर नहीं आते। सो! वर्तमान का अभिनंदन-अभिवादन कीजिए, ताकि ज़िंदगी भरपूर खुशी व आनंद से गुज़र सके।

बक्षदा एक सा नहीं रहता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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