हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 66 ☆ योग-विज्ञान की जीवन में उपादेयता ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “योग-विज्ञान की जीवन में उपादेयता।)

☆ किसलय की कलम से # 66 ☆

☆ योग-विज्ञान की जीवन में उपादेयता ☆ 

ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव जी सर्वप्रथम योग का ज्ञान देकर आदि गुरु बने थे। इसी योग को धारण कर भगवान श्री कृष्ण महायोगेश्वर कहलाए। हमारे ऋषि-मुनियों व पूर्वजों ने निश्चित रूप से योग को व्यापक बनाया है। महर्षि पतंजलि के अनुसार योग मन के नकारात्मक अतिरेक को कम करने का विशिष्ट विज्ञान है। योग के व्यापक गुणों की मीमांसा तथा व्याख्या से इन्होंने ही हमें अवगत कराया। कालांतर में योग-विज्ञान पर विविध ग्रंथ भी लिखे गए। वैदिक काल में योग-विज्ञान की एक प्रमुख क्रिया को सूर्य-उपासक आर्यों ने सूर्य नमस्कार का नाम दिया। शनैः-शनैः योग-विज्ञान का प्रचार-प्रसार आर्यावर्त की सीमाओं को पार कर गया। जब योग विज्ञान अपने जनक-देश भारत से पूरे विश्व का भ्रमण करते हुए पुनः भारत में ‘योगा’ बनकर लौटा, तब हमें आभास हुआ कि योग का क्या महत्त्व है।

वर्तमान में भारत के विख्यात योगगुरु बाबा रामदेव ने इस अद्भुत एवं चमत्कारिक योग-विज्ञान को देश के जन-जन तक पहुँचाया। आज विश्वव्यापी होने के कारण ही ‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ प्रतिवर्ष दिनांक 21 जून को संपूर्ण विश्व में मनाया जाने लगा है। मुख्यतः हमारे द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्रियाओं व अभ्यासों को योग के रूप में मान्यता प्राप्त है। ‘युज’ शब्द जिसका अर्थ ‘योग’ अथवा जोड़ होता है। शरीर और अंतस के जुड़ाव की व्यापक धारणा को ध्यान में रखकर ही इस योग को महत्ता प्राप्त हुई है। योग धर्म, संप्रदाय, लिंग, आयु आदि से ऊपर उठकर ‘सर्वजन हिताय’ है। मानव को पथच्युत होने से बचाने वाला योग, जीवन को श्रेष्ठता प्रदान करने की एक विधि है। जीवन में आए तनाव तथा मनोविकारों को दूर करने में योग क्रियाएँ आश्चर्यजनक तथा चमत्कारिक परिणाम देती हैं।

योग कोई धर्म नहीं है। अनेक प्रबुद्ध जन इसे योग कला भी कहते हैं। योग एक ऐसा विज्ञान है जो हमें सदैव स्वस्थ जीवन प्रदान करता है। मानसिक शांति दिलाने तथा विभिन्न बीमारियों को दूर करता है। योग में श्वास का विशेष महत्त्व होता है, जिसे हर उम्र का व्यक्ति कर सकता है। योग प्रमुखतः चार अंगों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम ‘कर्म-योग’ है, जो वस्तुतः अच्छे और बुरे कर्म पर आधारित है, क्योंकि अच्छे विचार हमें मानवोचित संस्कारों की ओर ले जाते हैं तथा बुरे विचार सदैव दुख पहुँचाते हैं। यही दुख मानव जीवन को कठिनाई में डालते हैं। कर्म-योग अच्छे कर्म के माध्यम से अंतस में अच्छे विचारों का बीजारोपण करते हैं। द्वितीय क्रम में ‘ज्ञान-योग’ आता है जो हमारे मन एवं हमारी भावनाओं को सकारात्मक दिशा में ले जाने हेतु सक्षम होता है। ज्ञान-योग हमें जीवन की वास्तविकता के निकट ले जाता है। मानवता का पाठ पढ़ाता है। सद्भावना, त्याग एवं समर्पण के भाव में बढ़ोतरी करता है। तीसरे क्रम में ‘भक्ति-योग’ है, जिसमें मानव अपने इष्ट की स्तुति, प्रार्थना, जप आदि के माध्यम से हृदय की वैचारिक विकृतियों को दूर करता है। चतुर्थ क्रम में ‘क्रिया-योग’ है, जिसमें आसनों व श्वासोच्छ्वास से शरीर के आंतरिक अंगों को स्वस्थ बनाए जाने के साथ-साथ ऑक्सीजन की ग्राह्यता भी बढ़ाई जाती है।

आज आधुनिक विज्ञान द्वारा भी योग विज्ञान को मान्यता प्राप्त है। देखा गया है कि नियमित योग-विज्ञान की क्रियाओं व मुद्राओं से चिंता, शारीरिक सूजन, हृदय की अस्वस्थता, लचीलापन, पाचन शक्ति, शारीरिक ऊर्जा, निद्रा, शारीरिक दर्द आदि से मुक्ति तो मिलती ही है, साथ ही खुशहाल जीवन भी जिया जा सकता है। योग मन को एकाग्र करने की एक विधि भी कही जा सकती है। साँसों के व्यायाम व ध्यान से तन और मन की शुद्धि तो होती है, इसे नियमित करते रहने से मानव दवाईयाँ सेवन करने से भी बचता है, क्योंकि दवाईयाँ तो किसी न किसी रूप में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती ही हैं। योग हमारे मन में सकारात्मकता लाता है। शरीर में पाए जाने वाले हानिकारक अपशिष्टों को बाहर करता है। अवांछित वजन भी योग से कम किया जा सकता है। शरीर की नसों तथा सभी अंगों तक रक्त संचार बढ़ता है, जिससे त्वचा की कांति में वृद्धि होती है। वायु-विकार एवं मधुमेह भी नियंत्रित रहता है। अवसाद से उबरने में भी योग-विज्ञान सहायक होता है। सिर दर्द, गर्दन दर्द, पीठ दर्द व अनेक बीमारियों की चिकित्सा के रूप में भी योग प्रभावी प्रभावी है।

आज के भागमभाग जीवन में योग-विज्ञान की उपादेयता अत्यंत बढ़ गई है। प्रतिदिन लगभग आधा घंटे के योग से आपका जीवन हमेशा स्वस्थ बना रह सकता है। यही कारण है कि योग के चमत्कारिक परिणामों को देखते हुए व्यक्तिगत, सामाजिक एवं शासकीय स्तर पर भी योग विज्ञान के प्रचार-प्रसार के साथ ही योग-मुद्राओं, आसनों व योग क्रियाओं को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। आइए, हम आज से ही योग-विज्ञान को नियमित रूप से प्रयोग करने का संकल्प लें और ‘सर्वे संतु निरामया’ सूत्र को चरितार्थ करें।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

दिनांक: 6 जनवरी 2022

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #114 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 114 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

ठंड बहुत है आज तो, है अँगीठी पास।

आती प्रिय की याद है,जगती मन में आस।।

 

 

नहीं पेट की गड़बड़ी,नहीं दर्द का नाम।

पानी पीना कुनकुना, देता है आराम।।

 

सबके कर्मो का यहीं, होने लगा हिसाब।

आँच कभी आए नहीं, दे दो सही जवाब।।

 

सूरज तो निकला नहीं, कैसे निकले धूप।

मौसम बिगड़ा दिख रहा, लगता दृश्य  अनूप।।

 

कृषक कुहासा देखकर, हो जाता हैरान।

उसको फसलों में हुआ, बहुत बड़ा नुकसान।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 103 ☆ वीणा के नव-नव तारों से …. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “वीणा के नव-नव तारों से …. । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 103 ☆

☆ वीणा के नव-नव तारों से …. 

शिकारी  अब जाल  बदलेगा

अब फिर नया साल बदलेगा

 

सूरज    लाता    नया   सबेरा

चँदा   अपनी   चाल  बदलेगा

 

मौसम   भी    लेगा  अंगड़ाई

पंचांग   का    काल   बदलेगा

 

वीणा   के नव-नव  तारों   से

अब  नया   सुरताल  बदलेगा

 

नया    आलम    नई    पुरवाई

नव   बरस अब  हाल  बदलेगा

 

नई    उमंगें     नई         तरंगें

अब  पिछले  सवाल  बदलेगा

 

डरायेगा   फिर  नए रूप    में

कोरोना  अब ख्याल  बदलेगा

 

मुश्किलें   दूर  हों   बाईस   में 

लिखा  भाग्य -भाल   बदलेगा

 

हो “संतोष” खुशियाँ हर तरफ

नव   वर्ष   बेमिसाल  बदलेगा

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 108 – प्रश्न….! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 108 – विजय साहित्य ?

☆ प्रश्न….!  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

साक्षर आहेस..

उच्च विद्याविभुषित आहेस..

विद्या वाचस्पती आहेस…

मग मला सांग..

हा सारा व्यासंग

जोपासताना..

दूर विदेशी जाऊन

कीर्तीवंत,

ज्ञानवंत आणि

यशवंत होताना

तुझ्या..

माय बापाचा चेहरा

तू कितीदा वाचलास..?

कितीदा वाचलेस प्रश्न

माय बापाच्या डोळ्यातले

नी कितीदा दिलीस उत्तरे

तुला जीवनाच्या परीक्षेत

अनुत्तीर्ण करणारी….!

ते जाऊ दे..

तुझा मुलगा सध्या…

काय वाचतो रे…?

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! ☆टे  स्ट  र ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

? टे  स्ट  र ! ?

“अगं ऐकलंस का ?”

“का s s य आहे ?”

“चहा घेतलास का तू ?”

“मी तुमच्या सारखी सूर्यवंशी नाही, माझा चहा कधीच झालाय!”

“मग तुला तो आज जरा वेगळा…..”  “अजिबात लागला नाही, नेहमीसारखीच तर त्याची चव आहे.”

“अगं मला तो आज फारच बेचव लागतो आहे, म्हणून विचारलं.”

“हे बघा आज पासून मी केलेल्या कुठल्याही पदार्थाला नांव ठेवणं अजिबात बंद, कळलं ? जे पुढ्यात येईल ते नांव न ठेवता गपचूप खायचं आणि प्यायचं कळलं ?”

“म्हणजे काय, आता आज चहा पुचकावणी झालाय हे पण बोलायची चोरी ?”

“मी आत्ता काय कानडीत बोलले, कुठल्याही पदार्थात चहा पण येतो !”

“आणि मी तसं म्हटलं तर?”

“मी आमच्या हो. मे. सं. कडे तुमची तक्रार करीन हं !”

“आता हे हो मे सं का काय म्हणालीस, ते नक्की काय आहे ते सांगशील का जरा !”

” अहो दोन महिन्या पूर्वीच आम्ही आमचा ‘होम मेकर संघ’ स्थापन केलाय.”

“अगं पण तुमचं बायकांचं ऑलरेडी एक ‘अनाकलनिय महिला मंडळ’ आहे ना ? मग आता हा पुन्हा नवीन संघ कशाला ?”

“अहो उगाच आमच्या मंडळाचे नांव नका खराब करू ! त्याचे नांव ‘अनारकली महिला मंडळ’ आहे!”

“तेच  गं ते, तर ते एक मंडळ असतांना हा नवीन संघ कशाला काढलात ?”

“अहो, असं काय करता, त्या मंडळात नोकरी करणाऱ्या महिलां सुद्धा आहेत ! पण त्यांचे प्रश्न वेगळे आणि आमचे प्रश्न वेगळे.”

“ते कसे काय बुवा ?”

“असं बघा, आमच्या या नवीन होम मेकर संघात फक्त नोकरी न करणाऱ्या बायकांचा, ज्या फक्त ‘रांधा वाढा उष्टी काढा’ अशी माझ्यासारखी घरकामं करतात त्यांचाच समावेश आहे !”

“बरं, पण तुमचे प्रश्न वेगळे म्हणजे काय ?”

“म्हणजे हेच, स्वतःच्या नवऱ्याचे कशावरूनही टोमणे खाणे, आम्ही केलेल्या अन्नाला नांव ठेवून आमचा मानसिक छळ करणे, इत्यादी, इत्यादी !”

“यात कसला मानसिक छळ, मी फक्त चहा….”

“तेच ते, त्यामुळे आम्हां बायकांच्या मनाला किती वेदना होतात ते तुम्हाला कसं कळणार ?”

“काय गं, कुणाच्या डोक्यातून ही संघ काढायची कल्पना आली ?”

“अहो त्या दुसऱ्या मजल्यावरच्या लेले काकू आहेत ना, त्यांनी वकिलीची online परीक्षा दिली होती मागे.”

“बरं मग ?”

“तर अशाच आम्ही दुपारच्या गप्पा मारायला जमलो होतो, तेंव्हा त्यानी ही कल्पना मांडली आणि आम्ही तिथल्या तिथे होम मेकर संघ स्थापून मोकळ्या झालो.”

“बरं बरं ! पण या तुमच्या संघाकडे कुणा बायकोने, स्वतःच्या नवऱ्या विरुद्ध तक्रार केली तर, त्याचा न्याय निवडा कोण करत ?”

“आमच्या संघाच्या अध्यक्षिणबाई, मंथरा टाळकुटे !”

“अगं पण तिला तर तुम्ही सगळ्या बायका खाजगीत आग लावी, चुगलखोर असं म्हणता नां, मग ती कशी काय अध्यक्ष झाली संघाची ?”

“अहो तिचे मिस्टर पूर्वी ख्यातनाम जज होते, एवढं qualification तिला पुरलं अध्यक्ष व्हायला !”

“अस्स अस्स ! अग पण जज साहेब जाऊन तर बरीच वर्ष झाली नां ?”

“म्हणून काय झालं ? जज साहेब हयात असतांना मंथराबाईं बरोबर, त्यांनी न्याय निवडा केलेल्या कितीतरी केसेसेची चर्चा ते करत असत. त्या मुळे मंथराबाईंना अशा केसेस….”

“अशा केसेस म्हणजे ? अग आम्ही नवरे मंडळी काय चोरी, डाका, मारामाऱ्या करणारे वाटलो की काय तुम्हांला ?”

“तसं नाही पण….”

“अगं नुसतं चहा बेचव झालाय, आज आमटी पातळ झाल्ये हे स्वतःच्या बसायकोला बोलणं आणि चोरी, डाका, मारामाऱ्या यात काही फरक आहे का नाही ?”

“आहे नां, पण तुम्ही असं बोलल्यामुळे आमच्या मनाला किती यातना होतात, सगळी मेहनत पाण्यात गेली असं वाटतं त्याच काय ? मग आम्ही न्याय कोणाकडे मागायचा ? म्हणून हा संघ स्थापन केलाय आम्ही.”

“काय गं, आत्ता पर्यंत कोणा कोणाला आणि कसली शिक्षा केल्ये तुमच्या अध्यक्षिण बाईंनी ?”

“अहो कालचीच गोष्ट, काल कर्वे काकूंची तक्रार आली होती त्यांच्या मिस्टरांबद्दल.”

“कसली तक्रार ?”

“अहो काल सकाळच्या जेवणात काकूंच्या हातून आमटीत मीठ जरा जास्त पडलं म्हणून…”

“करव्या तिला बोलला तर काय चुकलं त्याच ?”

“चुकलं म्हणजे, एवढ्याशा कारणावरून कर्वे काकांनी काकूंच्या माहेरचा उद्धार केला ! मग काकू पण लगेच तक्रार घेऊन गेल्या मंथराबाईंकडे आणि अध्यक्षिण बाईंनी त्यांना शिक्षा केली.”

“म्हणजे चूक करवीणीची आणि शिक्षा करव्याला का ?”

“अहो बोलून बोलून त्यांचा मानसिक छळ केल्या बद्दल.”

“काय शिक्षा फार्मावली अध्यक्षिणबाईंनी?”

“कर्वे काकांना काकूंनी रात्री उपाशी ठेवायचं.”

“अगं पण तो डायबेटीसचा पेशंट आहे, त्याला रात्री जेवल्यावर गोळी घ्यायची असते आणि तो रात्री जेवला नाही तर….”

“अहो म्हणूनच उदार होऊन आमच्या अध्यक्षिणबाईंनी, त्यांना रात्री दुधा बरोबर एक पोळी  खायची परवानगी दिली ! तशा प्रेमळ आहेत त्या !”

“कळलं कळलं! आता मला सांग ती मंथरा एकटीच राहते का कोणी….”

“अहो त्यांची नर्मदा नावाची मावशी आहे, ती असते त्यांच्या सोबतीला आणि तीच घरच सगळं काम करते.”

“स्वयंपाक पण ?”

“आता सगळं काम म्हटलं की त्याच्यात स्वयंपाकपण आलाच नां ?”

“मग मला सांग तुमच्या अध्यक्षिणबाईंनां शिक्षा कोण करणार ?”

“त्यांना कशाला शिक्षा ?”

“अगं ती कोण नर्मदा मावशी आहे, तिच्या हातून स्वयंपाक बिघडला, तर तुमच्या म्हणण्याप्रमाणे ती कजाग मंथरा, त्यांना बोलल्याशिवाय राहणार आहे का ?”

“अगं बाई खरच की ! हे कसं लक्षात आलं नाही आम्हां बायकांच्या ?”

“कसं लक्षात येणार ? पण यावर माझ्याकडे एक उपाय आहे.”

“काय?”

“आजपासून तू त्या मंथरेकडेच सकाळ संध्यकाळ जेवायला जात जा!”

“म्हणजे काय होईल ?”

“अगं म्हणजे एखाद दिवशी स्वयंपाक बिघडला तर ती मंथरा गुपचूप जेवते का नर्मदेचा उद्धार करते ते कळेल नां.”

“अहो पण असं बरं दिसणार नाही आणि समजा मी गेले त्यांच्याकडे रोज जेवायला तर तुमच्या जेवणाचं काय?”

“मी ठेवीन की बाई !”

“काय?”

“अगं स्वयंपाकाला आणि तिचा स्वयंपाक बिघडला तर तिला हक्काने सुनवीन पण आणि त्यावरून मला त्या करव्या सारखी शिक्षा पण नको भोगायला.”

“वारे वा, घरात एवढी अन्नपूर्णा असतांना स्वयंपाक करायला बाई कशाला? त्या पेक्षा मीच होमेसं चा राजीनामा देते म्हणजे प्रश्नच नाही !”

“अगं पण त्यामुळे तू बिघडवलेल्या अन्नाच्या चवीचा मूळ प्रश्न थोडाच सुटणार आहे.”

“हो, तेही खरंच. मग यावर तुम्हीच एखादा उपाय सांगा, म्हणजे झालं.”

“अगं साधा उपाय आहे आणि तो तू तुमच्या सगळ्या महिला मंडळाला सांगितलास तर तुमचा तो संघ आपोआप बरखास्त झालाच म्हणून समज.”

“काय सांगताय काय, मग लवकर सांगा बघू तो उपाय.”

“तुला माहित्ये, सगळ्या थ्री स्टार, फाईव्ह स्टार, सेवन स्टार हॉटेलात लाख, लाख पागर देऊन एक “टेस्टरची” पोस्ट असते आणि त्याच काम फक्त हॉटेलात लोकांनी जेवणाची ऑर्डर दिल्यावर त्या पदार्थाची चव त्यांच्या ऑर्डरप्रमाणे आहे का नाही, हे चाखून बघणं.”

“पण त्याचा इथे काय….”

“अगं तेच सांगतोय नां, तू एखादा पदार्थ केलास तर तो वाढण्यापुर्वी चाखून बघायचा, म्हणजे मग….”

“त्यात काय कमिजास्त आहे ते कळेल आणि तो वाढण्यापूर्वीच खाणेबल किंवा पिणेबल करता येईल, असंच नां ?”

“अगदी बरोबर, मग आता जरा नवीन फक्कडसा चहा….”

“आत्ता आणते आणि हो आधी त्याची टेस्ट घेऊनच बरं का !”

असं बोलून माझ्या घरची न्युली अपॉइंटेड टेस्टर किचन मधे पळाली आणि मी मनाशी हसत हसत सुटकेचा निश्वास टाकला !

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ ‘काळजातल्या जाणीवांची सोनोग्राफी’ – डाॅ. विजयकुमार माने ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? पुस्तकावर बोलू काही ?

 ☆ ‘काळजातल्या जाणीवांची सोनोग्राफी’ – डाॅ. विजयकुमार माने ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ 

पुस्तकाचे नाव : काळजातल्या जाणिवांची सोनोग्राफी

कवी:              : डाॅ. विजयकुमार माने

प्रकाशक         : अक्षरदीप प्रकाशन

मूल्य               : रू.150/.

वैद्यकीय क्षेत्रात काम करताना ,डोळ्यांना किंवा कोणत्याही उपकरणाना न दिसणा-या मनातील जाणीवांचा शोध घेऊन त्या शब्दबद्ध करणा-या डाॅ. विजयकुमार माने यांचा ‘काळजातल्या जाणीवांची सोनोग्राफी’ हा काव्यसंग्रह नुकताच वाचनात आला.भोवतालचा समाज,निसर्ग,वास्तव या सगळ्याचे भान ठेवून त्याच्या नोंदी मनात करता करता त्याना शब्दामध्ये उतरवून आपल्यासमोर ठेवताना विजयकुमार माने यांच्यातील एक डाॅक्टर आणि संवेदनशील माणूस या दोघांचेही दर्शन होते.हा त्यांचा दुसरा काव्यसंग्रह.काव्यक्षेत्रातील त्यांचे हे दुसरे पाऊल अधिक दमदारपणे पडले आहे यात शंकाच नाही.

विषयांची विविधता हे या संग्रहाचे वैशिष्ट्य म्हणावे लागेल.समाज, देश, निसर्ग, प्रेम, स्त्री, अशा विविध विषयांवर कविता आहेतच पण त्याशिवाय अभंग, गझल, देशभक्ती, वैचारिक, लावणी असे विविध प्रकारही त्यांच्या काव्यातून वाचायला मिळतात. अशा या  विविधांगी संग्रहाचा थोडासा परिचय.

कविता संग्रहातील पहिली कविता काळजातल्या जाणीवा व पुढे आलेल्या मूळ,बाप किंवा गुरू या कविता श्री.माने यांना गझल रचनेची वाट सापडली आहे हे दाखवून देतात.पहिल्या कवितेच्या शेवटी ते म्हणतात”माणसाला वाचण्याचा,लेखणीला वाव आहे”. म्हणूनच त्यांच्या लेखणीला कसा वाव मिळत गेला हे पाहण्याची उत्सुकता निर्माण होते आणि आपण संग्रह पुढे वाचत जातो.

आस, गुरुकृपा आणि रमाई माऊली या कविता मध्ये अभंग रचनेचा प्रयोग केला आहे व तो यशस्वी झाला आहे. पांडुरंग, गुरू, आणि रमामाता आंबेडकर या तिघांविषयी  त्यांना असलेला आदर व प्रेम  या काव्यातून व्यक्त होतो.

गृहिणीची कैफियत, साऊ, स्वतःशी बोल या त्यांच्या कविता स्त्री प्रश्नांना वाचा फोडणा-या आहेत.

विशेषतः ‘स्वतःशी बोल ‘ या कवितेत त्यांनी  स्त्रीला तिच्या स्वतंत्र व्यक्तीमत्वाची जाणीव करून दिली आहे हे विशेष महत्त्वाचे.

अशाच त्यांच्या काही आशावादी विचार मांडणा-या कवितांचा विचार करता येईल.नैराश्य,आशा,लढा शत्रूंशी या कवितांतील आशावाद जगण्याची उमेद देणारा आहे.

त्याच वेळेला परस्पर प्रेम, नातेसंबंध, बंधुभाव यांची जपणूक करणा-या कविताही वाचायला मिळतांत. विशेषतः प्रेम, राख, ती, कधी कळणार तुला, पाऊस खेळत होता, भरलेला रिकामा वाडा, प्रेमानं जपलयं या कविता वाचनीय आहेत.

या भावनांबरोबरच कविने वैचारिक किंवा काही संदेश देणा- या रचना ही लिहील्या आहेत.दान या कवितेतून त्यानी नेत्रदान,अवयवदान,देहदान यांचे महत्त्व पटवून देऊन आपल्या व्यवसायाशी असलेली बांधिलकी दाखवून दिली आहे.आभाळमाया,माणूस व्हायचं ठरलयं,अस्तित्वाचा शोध,तुरुंग या कविता यासाठी वाचल्या पाहिजेत.’माणसं वाचता वाचता माणूस व्हायचं ठरलयं’ आणि पुढे देवमाणूस व्हायचं ठरलयं अस ते म्हणतात.त्यानी हे जे ठरवलंय ते आजच्या  काळात खरोखरच लाख मोलाचं आहे.

वास्तवाची जाणीव असणं हे तर साहित्यिकाचं मुख्य लक्षण! ही जाणीव माने यांच्या कवितेतूनही दिसून येते.महापुराची त्यांनी घेतलेली नोंद,भाडोत्री आई ही सेरोगेट मदर या विषयावरील कविता,मानवी दुग्धपेढी,चिमणी,गणपती पुरातला ,सैनिक,समाज आणि एकता या सर्वच कविता आजच्या समस्या आणि वास्तव याची नोंद घेणा-या आहेत.महापुरात सांगली नगर वाचनालयवर आलेल्या  संकटाने ते अस्वस्थ होतात आणि त्याच्या पुनर्उभारणीचे चित्र ही ते रंगवतात.

नोकरी, देवाची क्षमा मागून, कवायत, पानगळ, पायवाट, या त्यांच्या कवितांतून वेगळा विचार मांडलेला दिसतो, तर तिरंगा, बापू, बाबासाहेब या कविता त्यांच्या मनातील आदरभाव व्यक्त करणा-या आहेत. मी पाऊस,नदीच्या काठावर यासारख्या कवितांतून निसर्गाचे विलोभनीय दर्शन घडते. कंबर, शेकोटी, नजरेचा बाण, झाडावरचे पोळे अशा कवितांच्या निमित्ताने ते आपल्या शृंगारीक कल्पनांचे पोळे आपल्यासमोर रिकामे करतात. याच्या जोडीलाच हास्यधन, शर्विलक या कविता हसत हसत 

मानवी गुणदोषांविषयी बोलून जातात.

त्यांच्या काही काव्यपंक्तिंचा येथे आवर्जून उल्लेख करावासा वाटतो.

    सूर माझा कोकिळेचा, अंतराला छेडणारा

    गोडबोल्या पोपटांना,आज येथे भाव आहे. किंवा

                       *

    आज चिमण्या शोधतो आहे

    उद्या झाडे शोधावी लागतील

    काॅन्क्रीटच्या जंगलात घरटी

    प्लॅस्टिकचीच बांधावी लागतील.

                       *

    सापडेना राम कोठे वानप्रस्थी शोधताना

    मारलेल्या श्रावणाच्या कावडीचा शाप आहे .

                       *

    कल्पनेच्या लेखणीत, प्रपाताची शाई

    काळ्या धरतीवर, लिहिते ही वनराई

    शब्दांचा सुटला वारा, कविराजा तू डोल

यासारख्या अनेक ओळींचा उल्लेख करावासा वाटतो.पण शब्दमर्यादा लक्षात घेता ते शक्य होत नाही.

वेगवेगळ्या औषधांची मात्रा देऊन डाॅक्टरने  पेशंटला ठणठणीत बरे करावे  त्याप्रमाणे 

डाॅ.विजयकुमार माने यांनी वेगवेगळ्या विषयांवर वेगवेगळ्या पद्धतीच्या काव्यरचना करून वाचकाचे मन निरोगी व प्रसन्न करण्याचा प्रयत्न केला आहे.त्यांनी अशा पद्धतीची सोनोग्राफी करून आम्हाला ‘ट्रीटमेंट’ देत रहावे , एवढीच अपेक्षा आणि पुढील वाटचालीसाठी शुभेच्छा.      

 

©  श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #83 ☆ जो जस करहिं तो तस फल चाखा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “जो जस करहिं तो तस फल चाखा…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 83 ☆ जो जस करहिं तो तस फल चाखा… 

फल का क्या? कर्म करने पर मिलता है। अब समस्या ये है कि जो देंगे वही मिलेगा, ये लेन- देन किसी को भी चैन से बैठने ही नहीं देता। कोई भी एप  से जुड़ो नहीं कि तुरंत मैसेज आना शुरू हो जाते हैं अब समस्या ये है कि सारा दिन नोटिफिकेशन ही देखते रहें या कोई जरूरी कार्य भी करें। खैर तकनीकी को समझना और जानना है तो कदम बढ़ाना ही होगा। हर वर्ष एक ही राह पर चलते रहने से कभी तरक्की मिली है। इस बार कुछ नया हो ऐसी सोच के साथ पूर्वाग्रहों से मुक्त होने का मंत्र मेरे मोटिवेशनल कोच द्वारा दिया गया।

सकारात्मक सोच के साथ जो भी चलेगा वो विजेता के रूप में उभरेगा ही। संघ की परिकल्पना को अमलीजामा पहनाते हुए सबके साथ सामंजस्य बैठाने में मशक्कत तो करनी पड़ती है किंतु जान- पहचान बढ़ने से कई समस्याओं का हल चुटकी बजाते ही मिल जाता है। व्हाट्सएप पर सार्थक चैटिंग हो तो बहुत से नए रास्ते खुलते हैं जहाँ न केवल कल्पनाओं की उड़ान को पंख मिलते हैं वरन अपनी सशक्त पहचान भी बन जाती है। जो लोग दूरगामी दृष्टि के मालिक होते हैं वही लीडर के रूप में प्रतिष्ठित होकर अपना परचम फैलाते हैं।

डर- डर कर कदम बढ़ाने से भला कभी किसी को मंजिल मिली है। सार्थक करते हुए लोगों को जोड़ते जाना कोई आसान कार्य नहीं होता। मन अगर सच्चा हो और केवल सबकी भलाई का लक्ष्य हो तो आगे  बढ़कर पूरे दमखम के साथ कार्य को पूरा करने हेतु जुट जाना चाहिए। पूर्णता तक पहुँचने वाले ही शिखर पर प्रतिस्थापित होते हैं। खाली दिमाग शैतान का घर न बनने पाए इसलिए सही नेतृत्व के साथ चलते रहने में ही भलाई है। जैसा करेंगे वही मिलेगा तो क्यों न सबका हित साधें और बढ़ें।

नया वर्ष ऐसे चिंतन हेतु एक नयी ऊर्जा लेकर आता है सो हम सब चिंतन- मनन करते हुए अपने लिए भी एक मुकाम तय करें और उसे पूरा करने के लिए जुट जाएँ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 101 – लघुकथा – क्या बोले? ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “क्या बोले?।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 101 ☆

☆ लघुकथा — क्या बोले? ☆ 

आज वह स्कूल से आई तब बहुत खुश थी। चहकते हुए बोली, ” मम्मीजी! आप मुझे रोज डांटती थी ना।”

” हां। क्योंकि तू शाला में कुछ ना कुछ चीजें रोज गुमा कर आती है।”

” तब तो मम्मीजी आप बहुत खुश होंगी,”  उसने अपने बस्ते को पलटते हुए कहा।

” क्यों?” मम्मी ने पूछा,” तूने ऐसा क्या कमाल कर दिया है?”

” देखिए मम्मीजी,” कहते हुए उसने बस्ते की ओर इशारा किया,” आज मैं सब के बस्ते से पेंसिल ले-लेकर आ गई हूं।”

” क्या!” पेंसिल का ढेर देखते ही मम्मीजी आवक रह गई। उसने झट से ने खोला और कहना चाहा,” अरे बेटा, तू तो चोरी करके लाई हैं।” मगर वह बोल नहीं पाए।

बस कुछ सोचते हुए चुपचाप रह गई।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-11-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 138 ☆ कविता – खूब बढ़ें कन्ज्यूमर पर हाँ उत्पादन भी उतना हो ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय कविता  ‘खूब बढ़ें कन्ज्यूमर पर हाँ उत्पादन भी उतना हो’ । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 138 ☆

? कविता – खूब बढ़ें कन्ज्यूमर पर हाँ उत्पादन भी उतना हो ?

पुरानी फाईलें सहेज रहा था

आलमारी में

मुझे मिली

मेरे बब्बा जी की डायरी

मैने जाना वे मण्डला में अप्रभावित थे  

१९२० के स्पैनिश फ्लू और

प्लेग से, कोरोना सी  गांवों तक 

व्यापक नही थी

वे महामारियां  

पीछे के पन्नो पर

घर खर्च का हिसाब दिखा

मैने जाना कि

१९२५ में

आधा पैसा भी होता था

और उससे

भर पेट खाना भी खाया जा

सकता था.

 

उन दिनो सत्तू, बूंदी के लड्डू, और जलेबी

वैसे ही कामन थे

जैसे आज

ब्रेड बटर , कार्न फ्लैक्स और पिज्जा

तब  फेरी वाले आवाज लगाते थे

सास की चोरी , बहू का कलेवा हलवा हलेवा

मतलब हलुआ भी बना बनाया मिलता था उन दिनों

और खोमचे लेकर गाता निकलता था चने वाला

ऊपर चले रेल का पहिया

नीचे खेलें कृष्ण कन्हैया, चना जोर गरम,

मैं लाया मजेदार चना जोर गरम

यानी चना जोर गरम वैसा ही पाप्युलर था

जैसे अब पापकार्न है.

 

डायरी ने यह भी बतलाया कि तब

तीन रुपये महीने में बढ़ियां तरीके से

घर चल जाता था.

ऐसा जैसा आज साठ हजार में भी नही चल पाता.

 

आबादी बढ़ती रही

चुनाव होते रहे

बाढ़, अकाल और युद्ध भी हुये

हर घटना से मंहगाई का इंडैक्स कुछ और बढ़ता रहा

शेयर बाजार का केंचुआ

लुढ़कता पुढ़कता चढ़ता बढ़ता रहा

सोने का भाव जो आज पचास हजार रुपये प्रति १० ग्राम है

महज २० रुपये था १९२५ में

और पिताजी की शादी के समय १९५० में केवल १०० रु प्रति १० ग्राम

 

बच्चे दो या तीन अच्छे वाला नारा देखते देखते

हम दो हमारे दो

में तब्दील हो चुका है

प्रगति तो बेहिसाब हुई है

पर पर-केपिटा इनकम उस तेजी से नही बढ़ी

क्योंकि आबादी सुरसा सी बढ़ रही है

और अब जनसंख्या नियंत्रण कानून

जरूरी लगने लगा है

 

आने वाले कल की कल्पना करें

शादी के लिये

सरकारी अनुमति लेने की नौबत न आ जाये !

शादी के बाद माता पिता बनने के लिये भी

परमीशन लेनी पड़ सकती है .

आनलाईन प्रोफार्मा भरना होगा

पूछा जायेगा

होने वाले बच्चे के लिये

स्कूल में सीट आरक्षित करवाई जा चुकी है ?

आय के ब्यौरे देने होंगे

परवरिश की क्षमता प्रमाणित करने के लिये  

स्वीकृति के लिये सोर्स लगेंगे

रिश्वत की पेशकश की जायेगी

अनुमति मिलने के डेढ़ साल के भीतर

जो पैरेंट्स नही बन सकेंगे

उन्हें टाईम एक्सटेंशन लेना होगा .

 

पानी की कमी के चलते

टी वी कैंपेन चलेंगे

नहाओ ! हफ्ते में बस एक दिन

कोई राजनेता समझायेंगें

हमने नहाती हुई हीरोईन के विज्ञापन

इसीलिये तो दिखलाये हैं कि बस देखकर ही

सब नहाने का आनंद ले सकें

वर्चुएल स्नान का आनंद

 

अंगूर दर्जन के भाव मिलेंगे और

आम फांक के हिसाब से

संतरे की फांक  

पाली पैक में प्रिजर्वड होकर बिकेंगी

किसी मल्टी नेशनल ब्रांड के बैनर में

मिलेगा घी चम्मच की दर पर

अगर उत्पादन न बढ़ा उतना

जितने कन्ज्यूमर्स बढ़ रहे हैं तो

मैं प्रगति का हिमायती हूं

खूब बढ़ें कन्ज्यूमर

पर हाँ उत्पादन भी उतना हो

 

कवियों की संख्या भी बढ़ेगी

बढ़ती आबादी के साथ

और उसे देखते हुये

वर्चुएल प्लेटफार्म

बढ़ाने पड़ेंगे, कविता करने के लिये.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 91 ☆ समसामयिक दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  “समसामयिक दोहे ”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 91 ☆

☆ समसामयिक दोहे ☆ 

चाहत से कुछ कब मिले, बिन चाहे मिल जाय।

जब बरसे उसकी कृपा, धन से मन भर जाय।। 1

 

लाख बुराई जग करे, बुरा न चाहें ईश।

ईश्वर ही सच्चा सखा, सदा झुकाऊँ शीश।। 2

 

नंगा पैदा खुद हुआ, जाए खाली हाथ।

बुरा – भला जो भी किया, जाए अपने साथ।। 3

 

कृपा करें परमात्मा, मार सके कब कोय।

सुख – दुख भी उसकी कृपा, मत जीवन भर रोय।। 4

 

जग में ढूंढ बुराइयां, अपनी ठोके पीठ।

ऐसा मानव जगत में,  रीछ बहुत ही ढीठ।। 5

 

कपटी खुश होता नहीं, दूजों के सुख देख।

बस अपने में मुग्ध है, चाहे खुद अभिषेक।। 6

 

मैल, कपट मन में रखें, हैं वे रिश्तेदार।

झूठ दिखावा कर रहे, खोखल उनका प्यार।। 7

 

खाली – मूली बात कर, झूठे ही हरषायँ।

काम पड़े जब तनिक – सा, कभी काम ना आयँ।। 8

 

कपट रखें कुछ बावरे , करते मीठी बात।

सदा दूर रखना प्रभू, इनका, मेरा साथ।। 9

 

करता हूँ कर्तव्य मैं, कब है मन में चाह।

तनिक काम जब भी कहा, लोग करें बस आह।। 10

 

मानव वे ही श्रेष्ठ हैं, करें न पीछे वार।

मिलें, खिलें वे फूल से, सदा लुटाएं प्यार।। 11

 

कपटी , दम्भी मूढ़ हैं, पीटें अपना ढोल।

तनिक-तनिक – सी बात पर, बिगड़ें उनके बोल।। 12

 

खुद में निरी बुराइयाँ, हे मानव तू देख।

जीवन में लिखते रहो, रोज नए अभिलेख।। 13

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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