मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 94 – मी, मोबाईल व्हायला हवं होतं.. ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

? साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #94  ?

☆ मी, मोबाईल व्हायला हवं होतं.. 

खरंच माणसा ऐवजी मी,

मोबाईल व्हायला हवं होतं..

काळजामध्ये माझ्याही,

सिमकार्ड असायला हवं होतं…!

 

स्वतः पेक्षा जास्त कुणीतरी,

माझी काळजी घेतली असती..

मोबाईलच्या गॅलरीत का होईना,

आपली माणसं भेटली असती…!

 

माझं रिकामं पोट सुध्दा,

दिसलं असतं स्क्रिन वर..

इलेक्ट्रिसिटी खाऊन मी,

जेवलो असतो पोटभर…!

 

कुणालाही माझी कधी,

अडचण झाली नसती..

खिसा किंवा पर्समध्ये ,

हक्काची जागा असती..!

 

माझ्यामधल्या सिमकार्डचंही,

रिचार्ज करावं लागलं असतं..

वय झाल्यावर मला कुणी ,

वृध्दाश्रमात सोडलं नसतं…!

 

आपलेपणाने कुणीतरी मला,

जवळ घेऊन झोपलं असतं..

रात्री जाग आल्यावरही,

काळजीने मला पाहिलं असतं..!

 

माझ्यासोबत लहान मुलं,

आनंदाने हसली असती..

कधी कधी माझ्यासाठी,

रूसूनही बसली असती..!

 

कधी कधी माझं सुद्धा,

नेटवर्क डाऊन झालं असतं..

स्विच ऑफ करुन मला पुन्हा ,

रेंज मध्येही आणलं असतं..!

 

प्रत्येकाने मला अगदी,

सुखात ठेवलं असतं..!

प्रत्येक वेळी स्वतः बरोबर,

सोबतही नेलं असतं..!

 

आत्ता सारखं एकटं एकटं,

तेव्हा मला वाटलं नसतं..!

तळहातावरच्या फोडासारखं,

प्रत्येकाने मला जपलं असतं…!

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117,विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #114 – नव वर्ष अभिनंदन… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं नववर्ष पर एक विचारणीय गीतिका “नव वर्ष अभिनंदन…”)

☆  तन्मय साहित्य  #114 ☆

☆ नव वर्ष अभिनंदन…

करें हम नए वर्ष की बात

उजालों की होगी सौगात

पुराने अनुभव होंगे साथ

चलो! हम मिलकर साथ चलें

ले हाथों में हाथ,

प्रेम से आओ गले मिले।

 

आशाओं के दीप जलाएं, खुशियां सब पाएं

मधुर छंद, गीतों के संग, नूतन अभिलाषाएं

नई किरण के साथ, सोच चिंतन हो नया नया

सीख, पुरातन से लें, त्रुटियां पुनः न दुहरायें,

नहीं फिर हो जीवन मे हार

भाई-चारे की बहे बयार

करे सब एक-दूजे से प्यार

विजयरथ आगे सदा चले

सीढ़ी उन्हें बना लें

पथ हो चाहे पथरीले,

प्रेम से आओ गले मिलें।।………

 

स्वागत हँस कर करें समय के, नवपरिवर्तन का

अभिनंदन मन से, प्रकृति के मोहक नर्तन का

मौसम सुख-दुख के आये, मुरझाये कभी न हम

जीवन एक तपस्या, विधि के पूजन अर्चन का,

रहे अंतर में,  सात्विक भाव

स्वच्छ परिवेश, नगर अरु गांव

हरित पेड़ों की शीतल छांव

प्रदूषण से शिकवे गीले

पर्यावरण विशुद्ध, सभी

हम होंगे, खिले खिले,

प्रेम से आओ गले मिलें।।………

 

जातिवाद और धर्म पंथ के, भेद मिटे सारे

सम्यक दर्शन, समभावो के, फैले उजियारे

नया वर्ष-उत्कर्ष, हर्ष, संकल्प, सुखद होंगे

घर आँगन में खुशियों के, चमके चंदा-तारे,

करें  इक – दूजे का सम्मान

सभी के अधरों पर मुस्कान

सुलभ हो सब को अक्षरज्ञान

न कोई पथ में हमें छले

जीतेंगे  निश्चित  ही

संघर्षों के सभी किले,

प्रेम से आओ गले मिले।।……….

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 7 – नज़्म-उसे भूल जा ना याद कर ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है नव वर्ष के आगमन पर आपकी एक भावप्रवण रचना “उसे भूल जा ना याद कर”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 7 ✒️

? नज़्म – उसे भूल जा ना याद कर —  डॉ. सलमा जमाल ?

जो जुदा हुए वो अजीज़ थे,

तेरे अपने तेरे क़रीब थे ।

उन्हें भूल जा ना याद कर ,

जो तूने सहा ना फ़रियाद कर ।।

 

यह कैसी ग़म की हवा चली ,

सुनसान हो गई है गली – गली ,

सुबहा से पहले शाम ढली ,

चमन को सिर्फ़ ही ख़िज़ां मिली ,

जो गया ख़ुदा का हबीब था ,

तू फ़िर से गुलशन आबाद कर ।

जो तूने ————————- ।।

 

वो करोना से जुदा हुए ,

सारी उम्र तुझ पर फ़िदा हुए ,

ना वबा का कोई कुसूर था ,

ये सब इंसान का ही फ़ितूर था ,

ये क़हर हमारा नसीब था ,

बची उम्र को ना बर्बाद कर ।

जो तूने ———————— ।।

 

किसी के जाने से कमी नहीं ,

ये दुनियां आज तक थमीं नहीं ,

जो मिल रहा वो ग़नीमत है ,

अभी कुछ दिनों की अज़ीयत है ,

वो दीन – दुनिया का रक़ीब था ,

उसे रिश्तों से आज़ाद कर ।

जो तूने ———————— ।।

 

दवा अस्पताल का बहाना था ,

क़ज़ा को उन्हें ले जाना था ,

जो बचा है उसका बन रहनुमा ,

कहीं सब हो जाए ना धुंआं ,

बहारों का वो अक़ीब था ,

उसकी यादों को पुरताब कर ।

जो तूने ————————- ।।

 

इक बार मिलती है ज़िन्दगी ,

कर शुक्र अल्लाह की बन्दगी ,

जो बचा है उसको सहेज ले ,

 तू गिले-शिकवे सारे समेट ले ,

फ़लसफ़ा ये तेरा अजीब था ,

‘ सलमा ‘ तू अपना दिल शाद कर ।

जो तूने ————————- ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #13 – अलंकृत भाषा ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे।

आज प्रस्तुत है असहमत से अलग एक अनोखी कहानी हमारी भाषा…. उसकी बोली। )     

☆ कथा-कहानी #13 – अलंकृत भाषा ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

विराटनगर शाखा में उच्च कोटि की अलंकृत भाषा में डाक्टरेट प्राप्त शाखाप्रबंधक का आगमन हुआ. शाखा का स्टाफ हो या सीधे सादे कस्टमर, उनकी भाषा समझ तो नहीं पाते थे पर उनसे डरते जरूर थे. कस्टमर के चैंबर में आते ही प्रबंधक जी अपनी फर्राटेदार अलंकृत भाषा में शुरु हो जाते थे और सज्जन पर समस्या हल करने आये कस्टमर यह मानकर ही कि शायद इनके चैंबर में आने पर ही स्टाफ उनका काम कर ही देगा, दो मिनट रुककर थैंक्यू सर कहकर बाहर आ जाते थे. बैठने का साहस तो सिर्फ धाकड़ ग्राहक ही कर पाते थे क्योंकि उनका भाषा के पीछे छिपे बिजनेस  प्लानर को पहचानने का उनका अनुभव था.

एक शरारती कस्टमर ने उनसे साहस जुटाकर कह ही दिया कि “सर,आप हम लोगों से फ्रेंच भाषा में बात क्यों नहीं करते.

साहब को पहले तो सुखद आश्चर्य हुआ कि इस निपट देहाती क्षेत्र में भी भाषा ज्ञानी हैं ,पर फिर तुरंत दुखी मन से बोले कि कोशिश की थी पर कठिन थी. सीख भी जाता तो यहाँ कौन समझता,आप ?

 शरारती कस्टमर बोला : सर तो अभी हम कौन समझ पाते हैं. जब बात नहीं समझने की हो तो कम से कम स्टेंडर्ड तो अच्छा होना चाहिए.

जो सज्जन कस्टमर चैंबर से बाहर आते तो वही स्टाफ उनका काम फटाफट कर देता था. एक सज्जन ने आखिर पूछ ही लिया कि ऐसा क्या है कि चैंबर से बाहर आते ही आप हमारा काम कर देते हैं.

स्टाफ भी खुशनुमा मूड में था तो कह दिया, भैया कारण एक ही है, उनको न तुम समझ पाते हो न हम. इसलिए तुम्हारा काम हो जाता है. क्योंकि उनको समझने की कोशिश करना ही नासमझी है. इस तरह संवादहीनता और संवेदनहीनता की स्थिति में शाखा चल रही थी.

हर व्यक्ति यही सोचता था कौन सा हमेशा रहने आये हैं, हमें तो इसी शाखा में आना है क्योंकि यहाँ पार्किंग की सुविधा बहुत अच्छी है. पास में अच्छा मार्केट भी है, यहाँ गाड़ी खड़ी कर के सारे काम निपटाकर बैंक का काम भी साथ साथ में हो जाता है. इसके अलावा जो बैंक के बाहर चाय वाला है, वो चाय बहुत बढिय़ा, हमारे हिसाब की बनाकर बहुत आदर से पिलाता है. हमें पहचानता है तो बिना बोले ही समझ जाता है. आखिर वहां भी तो बिना भाषा के काम हो ही जाता है।पर हम ही उसके परिवार की खैरियत और खोजखबर कर लेते हैं पर चाय वाले से इतनी हमदर्दी ?

क्या करें भाई, है तो हमारे ही गांव का, जब वो अपनी और हमारी भाषा में बात करता है तो लगता है उसकी बोली हमको कुछ पल के लिये हमारे गांव ले जा रही है.

एक अपनापन सा महसूस हो जाता है कि धरती की सूरज की परिक्रमा की रफ्तार कुछ भी हो, शायद हम लोगों के सोशल स्टेटस अलग अलग लगें  पर हमारा और उसका टाईम ज़ोन एक ही है. याने उसके और हमारे दिन रात एक जैसे और साथ साथ होते हैं.

शायद यही अपनापन महसूस होना या करना, आंचलिकता से प्यार कहलाता हो.

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #91 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 1 – जंगल में खेती ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी #91 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 1 जंगल में खेती ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆ 

हटा में जन्मे जगन मोहन पांडे जब बैक की नौकरी के चौथे पल में पहुंचे तो उच्च प्रबंधन को उनकी कर्मठता के बारे में अनायास ही पता चल गया और बड़े साहब ने उन्हें वरिष्ठ प्रबंधन श्रेणी में पदोन्नत किए जाने के लिए पूरा जोर लगा दिया। बड़े साहब की कृपा दृष्टि से उन्हे पदोन्नति मिल गई और पंडिताइन ने हटा की चंडी माता के मंदिर में सवा किलो गुजिया का प्रसाद, जो उन्होंने गफ़लू हलवाई के यहां गुजिया का आकार छोटा रखने का  विशेष आर्डर दे कर बनवाई थी, चढ़ाया और प्रेम से चीन्ह चीन्ह कर उसी अंदाज में दिया जिस पर सदियों पहले कहावत बनी थी, ‘अंधा बांटे रेवड़ी चीन्ह चीन्ह के देय।’

खैर प्रमोशन की खुशियां बधाइयों के साथ खत्म हो गई और पांडेजी की नई पदस्थापना के आदेश आ गए। बैंक की नौकरी  जिंदगी भर दमोह, सागर में गुजारने वाले पांडे जी को बहुत आघात लगा जब उनकी पदस्थापना का समाचार मिला। उमरिया में उन्हें बैंक द्वारा संचालित ग्रामीण प्रशिक्षण संस्थान में मुख्य प्रबंधक बनाकर भेजा जा रहा था। जब सारे जुगाड़ चिरौरी बिनती काम ना आई तो पांडे जी ने ‘ ‘प्रभु इच्छा ही बलियसी’ ऐसा मानकर उमरिया अकेले जाकर नौकरी के शेष बचे तीन वर्ष काटने का निर्णय आखिरकार ले ही लिया।

उमरिया जंगल का आदिवासी बहुल क्षेत्र था और आदिवासी युवाओं को प्रशिक्षण की प्रतिदिन  शुरुआत पांडे जी इसी कहावत से करते ‘ उत्तम खेती मध्यम वान, अधम चाकरी भीख निदान।‘ पांडेजी रोज यही बताते कि खेती श्रेष्ठ व्यवसाय है नौकरी और व्यापार के चक्कर में मत पड़ो। उनकी बातें सुनते सुनते आदिवासी युवा जब अघा गए तो एक थोड़े चतुर गोंड ने कहा ‘सर कहना सरल है पर करना कठिन, आप हमारे गाँव चलकर देखिए तो समझ में आएगा कि जंगल में खेती करना कितना कठिन है।’

बस फिर क्या था पांडेजी ने हामी भर दी और शनिवार रविवार परिवार के पास हटा जाने की अपेक्षा उमरिया जिले के दूरदराज के गाँव भेजरी जाने का फरमान जारी कर दिया। यात्रा भत्ता चित्त करने के उद्देश्य से दौरा सरकारी बनाया और प्रधान कार्यालय से इसकी अनुमति भी ले ली।

जब पांडेजी गाँव जाने लगे तो उनके मन में खेती किसानी को लेकर बहुत सी बुन्देली कहावतें, मुख से बाहर निकलने कुलबुलाने लगी। ग्रामीणों को बातचीत के लिए उकसाने हेतु उन्होंने खटिया पर बैठते ही कहा “ गेवड़े खेती हमने करी, कर धोबिन सौं  हेत। अपनों करो कौंन सें कइए, चरों गदन ने खेत।“

आदिवासियों को उनकी बुन्देली भाषा समझ में नहीं आई तो पांडेजी ने इसका अर्थ कथावाचक जैसे रोचक अंदाज में सुनाते हुए बताया कि ‘गाँव के समीप कभी खेती किसानी नहीं करनी चाहिए क्योंकि गाँव के पालतू पशु खड़ी फसल को नष्ट कर देते हैं उसे कहा जाते हैं। इसी प्रकार अगर किसी गाँव में धोबी या कुम्हार रहते हैं तो उनसे भी ज्यादा प्रेम संबंध बनाना ठीक नहीं है क्योंकि किसान तो धोबिन के प्रेमालाप में डूबा रहेगा और उसका गधा सारी फसल को नष्ट कर देगा।“

पांडे जी की रोचकता लिए इस कहानी को सुनते ही आदिवासियों के मन से अनजान व्यक्ति के प्रति भय खतम हो गया और उन्होंने अपनी व्यथा सुनाई “ साहब जू हमारे खेत तो जंगल की तलहटी  में हैं और हमें उनकी दिन रात रखवाली करनी पड़ती है। दिन में तो पक्षी और बंदर फसल को खाने आते रहते हैं और रात में हिरण और नील गाय पूरा खेत साफ कर जाती हैं। “

पांडे जी ने हटा में फसलों की बर्बादी की ऐसी दुखद दास्तान नहीं सुनी थी तुरंत बोल उठे “ खेती धन की नाश, धनी न हुईयै पास। और फिर इसका अर्थ बताते हुए बोले कि जो व्यक्ति खेती अपने हाथ से करता है अथवा अपनी निगरानी में कृषि कार्य की देखभाल कराता है उसे ही लाभ प्राप्त होता है। दूसरों के हाथ खेती छोड़ने से हानि होती है। आप लोग खुद मेहनत करोगे तभी फसल की रक्षा होगी।‘

पांडे जी की मधुर वाणी ने आदिवासियों को गुस्सा कर दिया। वे बोले “साहब जू हम लोग शहरी बाबू नहीं है जो बटिया खेती, साँट सगाई करें। हम लोग तो दिन रात खेत की रखवाली पौष की कड़कड़ाती ठंड में भी करते हैं फिर भी जानवर खेत में घुसकर फसल बर्बाद कर देते हैं।“

किसानों की यह परेशानी सुनकर पांडेजी के मन में बैंक के क्षेत्राधिकारी की आत्मा प्रवेश कर गई और वे खेतों का निरीक्षण करने के बाद कुछ सलाह देने की बात बोल उठे। आदिवासी भी सहर्ष उन्हे अपने खेतों में ले गए। जब पांडेजी खेतों को देखने पहुंचे तो वहाँ की प्राकृतिक छटा, कटीली झाड़िया और श्वेत फूलों से लदे  काँस की लहलहाती घाँस को देखकर अपने दद्दा की वह कहावत जो वे बचपन से सुनते आए थे याद आ गई “ जरयाने उर काँस में, खेत करो जिन कोय, बैला दोऊ बेंचकैं, करो नौकरी सोय।“

एक आदिवासी ने पूछ  ही लिया कि ‘महराज का गुनगुना रहे हो।‘

पांडे जी बोल उठे ‘ कंटीली झाड़ियों और काँस से भरी हुई भूमि में खेती करने से कोई लाभ नहीं होता है। इस भूमि में उत्पादन कम होगा इससे अच्छा तो यह है कि बैल बेचकर परदेश चले जाओ और वहाँ नौकरी करो।‘

पांडे जी की बात सुनकर किसान निरुत्साहित नहीं हुआ, बोला ‘ हम खेती किसानी लाभ के लिए नहीं करते हैं, बस दो जून की रोटी मिल जाए और उन्हा लत्ता का जुगाड़ हो जाए इसी उम्मीद से यहां फसल उगाते हैं। हम काहे को परदेश जाकर नौकरी करेंगे।’

पांडे जी ने खेतों को ध्यान से देखा लेकिन बाड़ी व बिजूका उन्हे किसी भी खेत में दिखाई नहीं दिए। कृषि कार्य में निरीक्षण को लेकर उनके दिमाग में आदिवासियों की यही सबसे बड़ी कमजोरी है ऐसा भाव उपजा और वे पंद्रह दिन बाद इस समस्या का कोई निदान बताएंगे ऐसा कहकर अपना सरकारी दौरा पूरा कर उमरिया वापस आ गए।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 115 ☆ हेमंत ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 115 ?

☆ हेमंत ☆

 हेमंत ऋतूच तर सुरू आहे,

 हवेतला गारवा..

सारं कसं मस्त…

 सुखासीन!!

मार्गशीर्ष ,पौष व्रतवैकल्यात  रमलेला..

संक्रांतीची गोड चाहूल…

 

ती ही हेमंतातलीच संध्याकाळ,

तू दिलास तिळगुळ,

काहीही न बोलता…..

रात्री मैत्रीणींबरोबर सिनेमाला गेले,

तिथल्या गर्दीत दिसलास अचानक,

तो “आम्रपाली”होता वैजयंतीमालाचा!

लक्षात राहिला,

संक्रातीच्या दिवशी पाहिला म्हणून!

तू कोण कुठला काहीच माहित नाही,

मैत्रीण म्हणाली एकदा,

कोण गं हा देव मुखर्जी ??

आणि हसलो खूप!!

एकदा शाळेत जाताना–‐-

कुठूनसे सूर येत होते,

जाने वो कैसे लोग थे…..

आणि तू दिसलास….

आज ऋतूंचा हिशेब मांडताना,

तू आठवलास, त्याच बरोबर,

तिळगुळ..आम्रपाली….आणि हेमंतकुमार चे सूरही आठवले!

 हेमंत असतोच ना वर्षानुवर्षे,

आठवणीत, सिनेमात, गाण्यात,

आणि तिळगुळातही…….

 

© प्रभा सोनवणे

(१७ डिसेंबर  २०२१)

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- 18 – भाग 2 – शांतिनिकेतन ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मी प्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- 18 – भाग 2  ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ शांतिनिकेतन ✈️

‘उत्तरायण ‘हा अनेक इमारतींचा समूह आहे. समूहातील एका इमारतीत आता म्युझियम केलेले आहे. रवींद्रनाथांनी लिहिलेली पत्रे ,त्यांच्या कविता, ड्रॉइंग, पेंटिंग, त्यांना मिळालेल्या भेटवस्तू व इतर कलाकारांच्या चित्रकृती त्यात ठेवल्या आहेत.

बदलत्या ऋतूंना अनुसरून शांतिनिकेतनमध्ये अनेक उत्सव साजरे केले जातात. निसर्गाच्या पार्श्वभूमीवर हे सामाजिक, सांस्कृतिक उत्सव साजरे होतात. फेब्रुवारीमध्ये माघोत्सव तर मार्चमध्ये वसंत उत्सव होतो. श्रावणात सजवलेल्या पालखीतून वृक्ष रोपाची मिरवणूक निघते. रवींद्र संगीत म्हणत, फुलांचे अलंकार घालून, शंखध्वनी करत ठरलेल्या ठिकाणी वृक्षारोपण होते.शारदोत्सवात इथे आनंद बाजार भरतो. डिसेंबरमध्ये विश्वभारती संस्थापना दिवस साजरा होतो. त्यावेळी खेळ नृत्य संगीत आदिवासी लोकसंगीत, आणि स्थानिक कला  यांचा महोत्सव भरविण्यात येतो.

गुरुदेव रवींद्रनाथ हे लोकोत्तर पुरूष होते. कथा, कादंबरी, निबंध, कविता, तत्वज्ञान, नृत्य ,नाट्य ,शिल्प, चित्रकला अशा अनेक कला प्रकारांमध्ये त्यांनी मुक्त संचार केला. त्याचप्रमाणे ते उत्तम संगीतकारही होते. त्यांच्या दोन हजारांहून अधिक रचना आजही बंगालभर आवडीने गायल्या जातात.

उत्तरायण मधील म्युझियम मधून रवींद्रनाथांना मिळालेला नोबेल पुरस्कार २००४ मध्ये चोरीला गेला. आता तिथे त्या पुरस्काराची प्रतिकृती ठेवण्यात आली आहे. सुरक्षेच्या कारणास्तव म्युझियम मधील अनेक दालने बंद होती. भारताचा राष्ट्रीय वारसा असलेल्या पुरस्काराची प्रतिकृती पाहताना आणि बंद केलेल्या  अनेक दालनांचे कुलूप पाहताना मन विषण्ण होते. एकूणच सगळीकडे अलिप्तता, उदासीन शांतता जाणवत होती ‘कृष्णाकाठी कुंडल आता पहिले उरले नाही’ ही कविता वारंवार आठवत होती. कदाचित पुलंचे ‘बालतरूची पालखी’ आणि शांतिनिकेतनवरील इतर लिखाण डोळ्यापुढे होते म्हणूनही ही निराशा झाली  असेल. तरीही सर्वसामान्य कष्टकरी बंगाली खेडूत पर्यटकांनी तिथे मोठ्या प्रमाणावर गर्दी केली होती. याचे कारण म्हणजे तळागाळातील सर्वसामान्य लोकांच्या हृदयातून वाहणारे, लोकजीवनात मुरलेले रवींद्र संगीत आणि रवींद्रनाथांबद्दलचे भक्तीपूर्ण प्रेम! बंगालमधील निरक्षर व्यक्तीच्या ओठावरसुद्धा त्यांची गीते संगीतासह असतात.

कालौघात अनेक गोष्टींमध्ये बदल हा अपरिहार्य असतो. तो स्वीकारणे, जुन्या गोष्टींमध्ये बदल करणे सुसंगत ठरते. शिक्षण आनंददायी व्हावे, निसर्ग सान्निध्यात व्हावे ही कल्पना रवींद्रनाथांनी यशस्वीपणे सत्यात उतरवली होती. केवळ पुस्तकी नव्हे तर अनेक कला प्रकारांचे शिक्षण एकाच ठिकाणी देण्यात यावे ही संकल्पना प्रत्यक्षात उतरविणारे ते द्रष्टे पुरुष होते. आधुनिक काळाला अनुसरून शिक्षण पद्धतीत योग्य ते बदल करावेत,  कालबाह्य प्रथांची औपचारिकता बदलावी या मागणी मध्ये गैर काहीच नाही. स्वातंत्र्यपूर्व काळामध्ये रवींद्रनाथांनी भारतीयत्वाचा, त्यातील परंपरा, संस्कृती यांचा अभिमान जनमानसात स्वकृतीने रुजविला. जालियनवाला हत्याकांडाचा निषेध म्हणून ब्रिटिशांनी दिलेली ‘सर’ ही पदवी सरकारला परत केली. त्या गुलामीच्या काळात अनेक कलाकार, बुद्धिमंत घडविले. अनेकांच्या हृदयात देशभक्तीची ज्योत लावली. गुरुदेवांच्या ‘जन गण मन’ या गीताने राष्ट्रीय भावना प्रज्वलित करीत अनेकांना देशासाठी लढण्याची प्रेरणा दिली. राष्ट्रीय काँग्रेसच्या कोलकता अधिवेशनात २७ डिसेंबर १९११ रोजी या गीताचे सर्वप्रथम जाहीर गायन झाले होते. स्वातंत्र्यानंतर २४ जानेवारी १९५० रोजी संसदेने या गीताला राष्ट्रगीत म्हणून मान्यता दिली. रवींद्रनाथांचे कर्तृत्व हे असे अलौकिकच आहे.

शंभर- सव्वाशे वर्षांपूर्वीच्या कालमानाप्रमाणे, त्या वेळच्या सामाजिक स्थितीला अनुसरून शिक्षणामध्ये, लोकांमध्ये भारतीय संस्कृतीमधील चांगले संस्कार रूजावेत म्हणून रवींद्रनाथांनी अनेक प्रथा, पद्धती सुरू केल्या. आज रवींद्रनाथ असते तर त्यांनी स्वतःच कालानुसार त्यात अनेक बदल केले असते. कारण ते थोर द्रष्टे होते व लोककल्याण हा एकच विचार त्यांच्या मनात होता. भारत सरकारने रवींद्रनाथांच्या १५० व्या जयंतीनिमित्त विश्वभारतीसाठी भरघोस अनुदान देण्याचे जाहीर केले .शांतिनिकेतनमधील मरगळ झटकली जाऊन, आधुनिक काळाशी सुसंगत असे बदल तिथल्या सर्व ज्ञानशाखांमध्ये झाले आणि आजची तरुण बुद्धिमान पिढी इथे चैतन्याने वावरू लागली तर गुरुदेवांच्या १५० व्या जयंतीनिमित्ताने तीच त्यांना खरीखुरी आदरांजली ठरेल.

भाग दोन आणि शांतिनिकेतन समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 14 – गीत – नए वर्ष में आएँ खुशियाँ… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है सजल “नए वर्ष में आएँ खुशियाँ… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 14 – नए वर्ष में आएँ खुशियाँ…  ☆ 

नए वर्ष में आएँ खुशियाँ,

मंगलमय संदेश मिले।

स्वस्थ निरोगी हो यह काया,

सुखमय अब परिवेश मिले।

 

जीवन सबका जगमग दमके,

सुख की बदली ही बरसे।

छल-छद्मों की ढहा दिवालें,

नेह प्रेम बस ही दरसे।

 

मानव पर यदि तम घिर जाए,

कभी उसे ना क्लेश मिले ।

 

नये वर्ष में सुख यश वैभव,

नूतन नव संगीत बजे। 

नई सर्जना नई चेतना,

के मधुरिम नव गीत सजे।

 

मिले सभी को तरुवर छाया,

निष्कंटक पथ उपवन  हो।

अन्तरघट में बजे बांसुरी,

मन-भावन वृंदावन हो।

 

द्वार तुम्हारे चलकर पहुँचें,

कृष्ण-सखा दरवेश मिले। 

 

मिले कृष्ण का संग सभी को,

कलयुग का द्वापर युग हो।

सत्य न्याय का शंखनाद कर,

राम राज्य सा सत युग हो ।

 

हम विकास के पथ हैं गढ़ते,

सबको लेकर ही बढ़ते।

मित्र सुदामा बने अगर तो,

उनका भी हित ही करते।

 

जो भी बुरी नज़र है डाले,

वैसा ही परिवेश मिले।

 

शांति और सद्भाव रहे जग,

सदियों से सबने चाहा।

वासुधैव की रहे भावना,

पहले से हमने चाहा।

 

गीता की अमरित वाणी का,

जग में फिर सम्मान मिले।

अखँड रहेगा भारत अपना,

विश्व गुरू का मान मिले।

 

पुनर्जन्म जब हो धरती पर,

हमको भारत देश मिले।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

01-01- 2022

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 137 ☆ आलेख – पानी व सम्प्रेषण की नाट्य कला ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय आलेख पानी व सम्प्रेषण की नाट्य कला । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

प्रसंगवश, ई- अभिव्यक्ति में प्रकाशित महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई के आयोजन नुक्कड़ नाटक “जल है तो कल है” का उल्लेख करना चाहूंगा।  इस नाटक के लेखक श्री संजय भारद्वाज, अध्यक्ष, हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे हैं। आप इसे निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं >>

☆महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई  का आयोजन नुक्कड़ नाटक “जल है तो कल है” – लेखक श्री संजय भारद्वाज ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 137 ☆

? आलेख – पानी व सम्प्रेषण की नाट्य कला ?

पानी भविष्य की एक बड़ी वैश्विक चुनौती है. पिछली शताब्दि में विश्व की जनसंख्या तीन गुनी हो गई है, जबकि पानी की खपत सात गुणित बढ़ चुकी है. जलवायु परिवर्तन और जनसांख्यकीय वृद्धि के कारण जलस्त्रोतो पर जल दोहन का असाधारण दबाव बना है.

बारम्बार बादलो के फटने और अति वर्षा से जल निकासी के मार्ग तटबंध तोड़कर बहते हैं, बाढ़ के हालात बनते हैं.  समुद्र के जल स्तर में वृद्धि से आवासीय भूमि कम होती जा रही है और इसके विपरीत पेय जल की कमी से वैश्विक रुप से लोगो के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है.विश्व की बड़ी आबादी के लिये पीने के स्वच्छ पानी तक की  कमी है.

वैज्ञानिक तकनीकी समाधानो के लिये  अनुसंधान कर रहे हैं. विशेषज्ञ बताते हैं कि जल आपदा से बचने हेतु हमें अपने आचरण बदलने चाहिये, जल उपयोग में मितव्ययता बरतनी चाहिये.

किन्तु वास्तव में हम किस दिशा की ओर अग्रसर हैं?

थियेटर ही वह समुचित मीडिया है जो दर्शको को भावनात्मक और मानसिक रूप से एक समग्र अनुभव देते हुये, मानव जाति और उसके पूर्वजो की  अनुष्ठानिक पृष्ठभूमि और सांकेतिकता के साथ उनकी विविधता किन्तु पानी के साथ एक सार्वभौमिक सम्बंध का सही परिचय करवा सकता है. इस तरह हमारी विविध सांस्कृतिक समानताओ को ध्यान में रखते हुये दुनिया को देखने और बेहतर समझने का बड़ा दायरा इस प्रदर्शन का  सांस्कृतिक तत्व होगा.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 119 ☆ भरारी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 119 ?

☆ भरारी ☆

पंख होते लाभलेले पाखराचे

मेघ हे मी पेललेले अंबराचे

 

संकटांनी बाप माझा ग्रासलेला

शिक्षणाने देह तरिही पोसलेला

गोडवे गाऊ किती मी दप्तराचे

 

घेतलेली मी भरारी खूप मोठी

झोपडीची आज झाली छान कोठी

आरतीला दीप जळती कापराचे

 

पाय वाटेने निघालो त्यात काटे

टोचले पायास काही दगड गोटे

लाभले मज आज रस्ते डांबराचे

 

मी परीक्षा जीवणाची पास झालो

संकटांना मी कुठे त्या शरण गेलो

दावणे सोडून द्यावे वासराचे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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