हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #12 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य में हास्य की उपस्थिति होने से उसकी सम्प्रेषणीयता बढ़ जाती है पर प्रहारक क्षमता कमजोर हो जाती है. ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – ‘व्यंग्य में हास्य की उपस्थिति होने से उसकी सम्प्रेषणीयता बढ़ जाती है पर प्रहारक क्षमता कमजोर हो जाती है.’।  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 12 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य में हास्य की उपस्थिति होने से उसकी सम्प्रेषणीयता बढ़ जाती है पर प्रहारक क्षमता कमजोर हो जाती है. ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

व्यंग्य  एक गंभीर विधा है. जो समाज, व्यक्ति के सरोकारों, मानवीय संवेदनाओं के साथ आगे बढ़ती हैं. जिसमें जीवन और समाज में  व्याप्त सारी विसंगतियों पर अपनी बात करती है. जिससे व्यक्ति समाज,या शासन का का वह तबका  जिसके कारण व्यक्ति समाज प्रभावित है वह सोचने को मजबूर ह़ो जाता है. व्यंग्य वह शक्ति निहित है कि शोषक तंत्र के माथे पर चिंता की रेखाएं खिच जाती है.. तब यह गंभीर  चिंतनीय विचारणीय हो जाता है. इस स्थिति में हमारे पास वह अस्त्र होना चाहिए. जिससे सामने वाले पर तीखा प्रहार पड़े. उन अस्त्रों में हमारे पास शब्द हैं. शैली हैं. विचार हैं. इन अस्त्रों के उपयोग से ही हम सार्थक ढ़ंग से सामने वाले के पास अपनी बात पहुँचाने में सक्षम होंगे. अन्यथा अगर किसी एक टूल में कमजोर हो जाएंगे. तब इस स्थिति में हमारी विसंगति, सोच का असरहीन होने की पूरी संभावना है.इससे हमारे प्रयास और उद्देश्य विफल हो जाएंगे.यह विफलता शोषण और शोषक को शक्ति प्रदान करेगी।यह अराजकता धीरे धीरे समाज में बड़ी समस्या बन सामने आ सकती है.  समस्या का विकराल में परिवर्तित होने पर समाज और व्यक्ति का बहुत बड़ा नुकसान होने की पूरी की पूरी संभावना है.इस स्थिति में हमें सिर्फ पश्चताने के सिवा कुछ हाथ नहीं आना है. सभी सभ्य समाज, व्यक्ति शासन, या सत्ता  सदा सजग जिम्मेदार चिंतक, विचारक, लेखक कला साधक समाज सुधारक, समाज सुधारक संस्था की ओर आशा की नज़र से देखता है. इस समय लेखक कवि, और कलाकार का दायित्व बढ़ जाता है कि वह गंभीरता से उस विसंगति, कमजोरी, पर विचार करे. अपने पूरे टूल्स के साथ के उन कमजोरियों के समाज और सत्ता के सामने लाए. या उन विसंगतियों का संकेत करे. जिससे पीड़ित, शोषित वर्ग उन विसंगतियों के प्रति सजग सतर्क हो सके. यह काम सिर्फ और सिर्फ गंभीर प्रवृत्ति वाले लोग ही अच्छे ढ़ंग से कर सकते हैं. जिससे बेहतर समाज, बेहतर मनुष्य को बनाने की संकल्पना कर सकते हैं. यह कार्य हास्य की उपस्थित में पूरी क्षमता के साथ संभव नहीं है. गंभीरता में हमारी क्षमताओं का घनत्व बढ़ जाता है. जिससे हमारी सोच और बात की संप्रेषणीयता को विस्तार मिलता है. तब इससे इसकी पठनीयता बढ़ जाती है. संप्रेषणीयता और पठनीयता के तत्वों के कारण हमारे उद्देश्य की सफलता के अवसर बढ़ जाते हैं.हास्य रचनाओं में तरलता प्रदान करता है. जिससे रचनाओं का उद्देश्य कमजोर हो जाता है. किसी कमजोर चीज या शक्ति का प्रभावहीन होना बहुत साधारण सी बात है. तब हमारा उद्देश्य पीछे ह़ो जाता है. हमारा यह श्रम और प्रयास विफल हो जाता है. गंभीर से गंभीर रचना अपने सरोकार और संवेदनशीलताको लेकर अपनी बात समाज के सामने आती है.उसका प्रभाव सकारात्मक लिए होता है. यदि उसमें हास्य का मिश्रण कर दें. तब उसकी संप्रेषणीयता और पठनीयता तो बढ़ जाएगी. तब लोग उसको हास्य में ले लेंगे.और उसॆ  हास्य में उड़ा देंगे. इस स्थिति में हमारा को उद्देश्य हास्यास्पद होने की संभावना बढ़ जाती है. यह विकट स्थिति है. इससे बचना चाहिए. हरिशंकर परसाई जी सदा विसंगतियों पर बहुत गंभीरता से लिखा. चाहे इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर,अकाल उत्सव, वैष्णव की फिसलन, पवित्रता का दौरा,आदि अनेक रचनाएं अपने गंभीर उद्देश्य को लेकर चलती है.. उनकी रचनाओं में हास्य के छीटे जरूर आते हैं पर व्यंग्य और विषय की गंभीरता को कम नहीं करते हैं. इस पर परसाई जी का कहना है कि “हास्य लिखना मेरा यथेष्ट नहीं है यदि स्वाभाविक रूप से हास्य आ जाए तो मुझे गुरेज भी नहीं है.” यहां पर परसाई जी ने हास्य को प्राथमिकता नहीं दी है. वरन वे अपनी बात को गंभीरता से क ने विश्वास करते हैं. उनकी चर्चित रचन ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर ‘ का संवाद हैं

एक  इंस्पेक्टर ने कहा  – हाँ  मारने वाले तो भाग गए थे. मृतक  सड़क पर बेहोश पड़ा था. एक भला आदमी वहाँ रहता है. उसने उठाकर अस्पताल भेजा. उस भले आदमी के कपड़ों पर खून के दाग लग गए हैं.

 मातादीन ने कहा- उसे फौरन गिरफ्तार करो

 कोतवाल ने कहा – “मगर उसने तो मरते हुए आदमी की मदद की थी “

मातादीन ने कहा – वह सब ठीक है. पर तुम खून के दाग ढूंढने कहाँ जाओगे  जो एविडेंस मिल रहा है. उसे तो कब्जे में करो. वह भला आदमी पकड़कर बुलवा लिया गया.

उसने कहा- “मैंने तो मरते आदमी को अस्पताल भिजवाया था. मेरा क्या कसूर है?

चाँद की पुलिस उसकी बात से एकदम प्रभावित हुई. मातादीन प्रभावित नहीं हुए. सारा पुलिस महकमा उत्सुक था। अब मातादीन क्या तर्क निकालते हैं।

मातादीन ने उससे कहा- पर तुम झगड़े की जगह गए क्यों? उसने जवाब दिया -“मैं झगड़े की जगह नहीं गया. मेरा वहां मकान है. झगड़ा मेरे मकान के सामने हुआ.

अब फिर मातादीन की प्रतिभा की परीक्षा थी. सारा महकमा उत्सुक देख रहा था.

मातादीन ने कहा- “मकान है, तो ठीक है. पर मैं पूछता हूं कि झगड़े की जगह जाना ही क्यों?” इस तर्क का कोई जवाब नहीं था. वह बार-बार कहता मैं झगड़े की जगह नहीं गया. मेरा वहां मकान है. मातादीन उसे जवाब देते – ‘तो ठीक है, पर झगड़े की जगह जाना ही क्यों ? इस तर्क प्रणाली  से पुलिस के लोग बहुत प्रभावित हुए.

संवाद हमें ह़ँसने के लिए विवश अवश्य करता है. व्यंग्य के उद्देश्य कहीं भी तरल या कमजोर नहीं करता है. यहाँ हास्य हैं पर रचना की गंभीरता पर कोई असर नहीं पड़ता है. परसाई जी सदा इन विशेषता के आज भी याद आते हैं. उन्होंने अपने व्यंंग्य में टूल्स का समानुपातिक मात्रा में प्रभावी ढ़ंग से लिखा. यहां पर उनके समकालीन लेखक के पी सक्सेना जी का अवश्य ही उल्लेख करना चाहूंगा. उन्होंने विपुल मात्रा में लिखा। पर उनकी रचनाएं हमें समरण नहीं है. उनकी रचनाओं में पठनीयता थी लोगों को बहुत पसंद आती थी. वे मंच पर बहुत सराहे जाते थे. पर हास्यपरक होने के उन पर आरोप लगते रहे. उन्हें भी जीवन भर यह मलाल रहा कि मेरी रचनाओं में व्यंंग्य हैं परंतु यह स्वीकारते नहीं. इसके पार्श्व में मूल कारण यही था कि उनकी रचनाओं में हास्य व्यंंग्य की गंभीरता को तरल कर देते थे. जिससे व्यंग्य प्रभावहीन होकर अपने उद्देश्य में विफल हो जाता था. जब व्यंंग्य अपने सरोकारों और मानवीय संवेदना से छिटककर सामने आता है. तब प्राणहीन प्रस्तर प्रतिमा के समान दिखती है.उसका आकर्षण तो होता है, पर जीवंतता गायब रहती है.यही व्यंंग्य की गंभीर रचना में हास्य दुष्प्रभाव है.   

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

ईमेल: [email protected]

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #122 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 8 – “रंग” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “रंग ”)

? ग़ज़ल # 8 – “रंग ” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

सामने आते ही दिल में उतर जाते हैं,

इश्क़ज़दा चेहरों के रंग बदल जाते हैं।

 

माशूक़ का चेहरा खिला सुर्ख़ ग़ुलाब,

ख़ाली बटुआ देख के रंग बदल जाते हैं।

 

जो क़समें खाते सदियों साथ चलने की,

पहली फ़ुर्सत उनके ढंग बदल जाते हैं।

 

समा जाना चाहते थे जो एक दूसरे में,

बासी ख़ुशबू उनके अंग बदल जाते हैं।

 

एक सा नहीं रहता समय का मिज़ाज,

वक़्त के साथ सबके ढंग बदल जाते हैं।

 

ज़िंदगी में पत्थर तो हम सभी उठाते हैं,

मुलज़िम सामने पा के संग बदल जाते हैं।

 

मौत की सज़ायाफ़्ता क़ैद में सब ज़िंदगी,

कुव्वत हिसाब कूच के ढंग बदल जाते हैं।

 

सियासती चेहरों के रंग को क्या कहिए,

चाल के हिसाब उनके ढंग बदल जाते हैं।

 

कई मुखौटा लगाकर चलते हैं हम सब,

क़ज़ा की चौखट सबके रंग बदल जाते हैं।

 

मुहब्बत सियासत में सब जायज़ ‘आतिश’

दाँव लगता देख सबके ढंग बदल जाते हैं।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 59 ☆ गजल – दुनियॉं ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 59 ☆ गजल – दुनियॉं ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆

फल-फूल, पेड़-पौधे ये जो आज हरे है

आँधी में एक दिन सभी दिखते कि झरे है।

 

सुख तो सुगंध में सना झोंका है हवा का

दुख से दिशाओं के सभी भण्डार भरे है।

 

नभ में जो झिलमिलाते हैं, आशा के हैं तारे

संसार के आँसू से, पै सागर ये भरे है।

 

जंगल सभी जलते रहे गर्मी की तपन से

वर्षा का प्यार पाके ही हो पाते हरे है।

 

ऊषा की किरण ही उन्हें देती है सहारा

जो रात में गहराये अँधेरों से डरे है।

 

रॅंग-रूप का बदलाव तो दुनियाँ का चलन है

मन के रूझान की कभी कब होते खरे है ?

 

सब चेहरे चमक उठते है आशाओं के रंग से

आशाओं के रंग पर छुपे परदों में भरे है।

 

इतिहास ने दुनियॉं को दी सौगातें हजारों

पर जख्म भी कईयों को जो अब तक न भरे है।

 

यादों में सजाता है उन्हें बार-बार दिल

जो साथ थे कल आज पै आँखों से परे है।       

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #71 – सबसे कीमती गहने ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #71 – सबसे कीमती गहने ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार बाजार में चहलकदमी करते एक व्यापारी को व्यापार के लिए एक अच्छी नस्ल का ऊँट नज़र आया।

व्यापारी और ऊँट बेचने वाले ने वार्ता कर, एक कठिन सौदेबाजी की। ऊँट विक्रेता ने अपने ऊँट को बहुत अच्छी कीमत में बेचने के लिए, अपने कौशल का प्रयोग कर के व्यापारी को सौदे के लिए राजी कर लिया। वहीं दूसरी ओर व्यापारी भी अपने नए ऊँट के अच्छे सौदे से खुश था। व्यापारी अपने पशुधन के बेड़े में एक नए सदस्य को शामिल करने के लिए उस ऊँट के साथ गर्व से अपने घर चला गया।

घर पहुँचने पर, व्यापारी ने अपने नौकर को ऊँट की काठी निकालने में मदद करने के लिए बुलाया। भारी गद्देदार काठी को नौकर के लिए अपने बलबूते पर ठीक करना बहुत मुश्किल हो रहा था।

काठी के नीचे नौकर को एक छोटी मखमली थैली मिली, जिसे खोलने पर पता चला कि वह कीमती गहनों से भरी हुई है।

नौकर अति उत्साहित होकर बोला, “मालिक आपने तो केवल एक ऊँट ख़रीदा। लेकिन देखिए इसके साथ क्या मुफ़्त आया है?”

अपने नौकर के हाथों में रखे गहनों को देखकर व्यापारी चकित रह गया। वे गहने असाधारण गुणवत्ता के थे, जो धूप में जगमगा और टिमटिमा रहे थे।

व्यापारी ने कहा, “मैंने ऊँट खरीदा है,” गहने नहीं! मुझे इन जेवर को ऊँट बेचने वाले को तुरंत लौटा देना चाहिए।”

नौकर हतप्रभ सा सोच रहा था कि उसका स्वामी सचमुच मूर्ख है! वो बोला, “मालिक! इन गहनों के बारे में किसी को पता नहीं चलेगा।”

फिर भी, व्यापारी वापस बाजार में गया और वो मखमली थैली ऊँट बेचने वाले को वापस लौटा दी।

ऊँट बेचने वाला बहुत खुश हुआ और बोला, “मैं भूल गया था कि मैंने इन गहनों को सुरक्षित रखने के लिए ऊँट की काठी में छिपा दिया था। आप, पुरस्कार के रूप में अपने लिए कोई भी रत्न चुन सकते हैं।”

व्यापारी ने कहा “मैंने केवल ऊँट का सौदा किया है, इन गहनों का नहीं। धन्यवाद, मुझे किसी पुरस्कार की आवश्यकता नहीं है।”

व्यापारी ने बार बार इनाम के लिए मना किया, लेकिन ऊँट बेचने वाला बार बार इनाम लेने पर जोर डालता रहा।

अंत में व्यापारी ने झिझकते और मुस्कुराते हुए कहा, “असल में जब मैंने थैली वापस आपके पास लाने का फैसला किया था, तो मैंने पहले ही दो सबसे कीमती गहने लेकर, उन्हें अपने पास रख लिया।”

इस स्वीकारोक्ति पर ऊँट विक्रेता थोड़ा स्तब्ध था और उसने झट से गहने गिनने के लिए थैली खाली कर दी।

वह बहुत आश्चर्यचकित होकर बोला “मेरे सारे गहने तो इस थैली में हैं! तो फिर आपने कौन से गहने रखे?

“दो सबसे कीमती वाले” व्यापारी ने जवाब दिया।

“मेरी ईमानदारी और मेरा स्वाभिमान”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 85 – हरवलेले माणूसपण ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 85 – हरवलेले माणूसपण ☆

समृध्दीने नटलेल घर पाहून हरवले देहभान ।

शोधून सापडेना कुठेही हरवलेले माणूसपण ।।धृ।।

 

कुत्र्या पासून सावध राहा भलीमोठी पाटी।

भारतीय स्वागताची आस  ठरली खोटी।

शहानिशा करून सारी आत घेई वॉचमन ।।१।।

 

झगमगाट पाहून सारा पडले मोठे कोडे ।

सोडायचे कुठे राव हे तुटलेले जोडे ।

ओशाळल्या मनाने कोपऱ्यात  ठेऊन ।।२।।

 

सोफा टीव्ही एसी सारा चकचकीतच मामला।

पाण्यासाठी जीव मात्र वाट पाहून दमला ।

नोकराने आणले पाणी भागली शेवटी तहान ।।३।।

 

भव्य प्रासादातील तीन जीव पाहून ।

श्रीमंतीच्या कोंदणाने गेलो पुरता हेलावून ।

चहावरच निघालो अखेर रामराम ठोकून।।४।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 112 ☆ प्रकृति शिक्षिका के रूप में ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख  प्रकृति शिक्षिका के रूप में। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 112 ☆

☆ प्रकृति शिक्षिका के रूप में ☆

मानव व प्रकृति का संबंध अनादि व अखंड है। प्रकृति का सामान्य अर्थ है–समस्त चराचर में स्थित सभी वनस्पति,जीव व पदार्थ, जिनके निर्माण में मानव का हाथ नहीं लगा; अपने स्वाभाविक रूप में विद्यमान हैं। इसके अंतर्गत मनुष्य भी आ जाता है, जो प्रकृति का अंग है और शेष सृष्टि उसकी रंगभूमि है। सो! उसकी अन्त:प्रकृति उससे अलग कैसे रह सकती है? मनुष्य प्रकृति को देखता व अपनी गतिविधि से उसे प्रभावित करता है और स्वयं भी उससे प्रभावित हो बदलता-संवरता है; तत्संबंधी अनुभूति को अभिव्यक्त करता है। उसी के माध्यम से वह जीवन को परिभाषित करता है। मानव प्रकृति के अस्तित्व को हृदयंगम कर उसके सौंदर्य से अभिभूत होता है और उसे चिरसंगिनी के रूप में पाकर अपने भाग्य को सराहता है और उसे मां के रूप में पाकर अपने भाग्य को सराहता है।

मानव प्रकृति के पंचतत्वों पृथ्वी,जल,वायु,अग्नि, आकाश व सत्,रज,तम तीन गुणों से निर्मित है…फिर वह प्रकृति से अलग कैसे हो सकता है? जिन पांच तत्वों से प्रकृति का रूपात्मक व बोधगम्य रूप निर्मित हुआ है,वे सब इंद्रियों के विषय हैं। इन पांच तत्वों के गुण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध ही असंख्य रूपों में मानव चेतना के कोश को कर्म, चिन्तन, कल्पना, भावना, भावुकता, संकल्प, जिज्ञासा, समाधान आदि से कितना समृद्ध किया है–इसका अनुमान मानव की उपलब्धियों से लगाया जा सकता है। प्रकृति का वैभव अपरिमित एवं अपार है। उसकी पूर्णता को न दृष्टि छू सकती है, न ही उसकी सीमाओं तक कान ही पहुंच सकते हैं और न ही क्षणों की गति को मापा जा सकता है। प्रकाश व शब्द की गति के साथ कौन दौड़ लगा सकता है? प्रकृति के अद्भुत् सामर्थ्य व निरंतर गतिशीलता के कारण उसमें देवत्व की स्थापना हो गयी तथा उसकी अतिन्द्रियता, अद्भुतता, उच्चता, गहनता आदि के कारण उसे विराट की संज्ञा प्रदान की गयी है। विराट में मानव,मानवेतर प्राणी व अचेतन जगत् का समावेश है। अचेतन जगत् ही प्रकृति है और जगत् का उपादान अथवा मूल तत्व है। वह स्वयंकृत, चिरंतन व सत्य है। उसका निर्माण व विनाश कोई नहीं कर सकता। प्रकृति के अद्भुत् क्रियाकलाप व अनुशासनबद्धता को देख कर मानव में भय, विस्मय, औत्सुक्य व प्रेम आदि भावनाओं का विकास हुआ, जिनसे क्रमश: दर्शन, विज्ञान व काव्य का विकास हुआ। सो! मानव मन में आस्था, विश्वास व आदर्शवाद जीवन-मूल्यों के रूप में सुरक्षित हैं और विश्व में हमारी अलग पहचान है। सम्पूर्ण विश्व के लोग भारतीय दर्शन से प्रभावित हैं। रामायण व महाभारत अद्वितीय ग्रंथ हैं और गीता को मैनेजमेंट गुरू स्वीकारा जाता है। उसे विश्व के विभिन्न देशों में पढ़ाया जाता है। यह एक जीवन-पद्यति है; जिसे धारण कर मानव अपना जीवन सफलतापूर्वक बसर कर सकता है।

प्रकृति हमारी गुरू है, शिक्षिका है, जो जीने की सर्वोत्तम राह दर्शाती है। प्रकृति हमारी जन्मदात्री मां के समान है और हमारी प्रथम गुरू कहलाती है और जो संस्कार व शिक्षा हमें मां से प्राप्त होती हैं, वह पाठ संसार का कोई गुरू नहीं पढ़ा सकता। प्रकृति हमें सुक़ून देती है; अनगिनत आपदाएं सहन करती है और हम पर लेशमात्र भी आँच नहीं आने देती। वह हमारी सहचरी है; सुख-दु:ख की संगिनी है। दु:ख की वेला में यह ओस की बूंदों के रूप में आंसू बहाती भासती है, जो सुख में मोतियों-सम प्रतीत होते हैं। इतना ही नहीं, दु:ख में प्रकृति मां के समान धैर्य बंधाती है।

प्रकृति हमें कर्मशीलता का संदेश देती है और उसके विभिन्न उपादान निरंतर सक्रिय रहते हैं।क्षरात्रि के पश्चात् स्वर्णिम भोर, अमावस के बाद पूनम व विभिन्न मौसमों का यथासमय आगमन समय की महत्ता व गतिशीलता को दर्शाता है। नदियाँ निरंतर परहिताय प्रवाहशील रहती हैं। इसलिए वे जीवन-दायिनी कहलाती हैं। वृक्ष भी कभी अपने फलों का रसास्वादन नहीं करते तथा पथिक को शीतल छाया प्रदान करते हैं। वे हमें आपदा के लिए संचय करने को प्रेरित करती है। जैसे जल के अभाव में वह बंद बोतलों में बिकने लगा है। बूंद-बूंद से सागर भर जाता है और जल को बचा कर हम अपने भविष्य को सुरक्षित कर सकते हैं। वायु भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। परंतु मानव की बढ़ती लालसाओं ने जंगलों के स्थान पर कंक्रीट के महल बनाकर पर्यावरण-प्रदूषण में बहुत वृद्धि की है, जिसका विकराल रूप हमने कोरोना काल में आक्सीजन की कमी के रूप में देखा है; जिसके लिए लोग लाखों रुपये देने को तत्पर थे। परंतु उसकी अनुपलब्धता के कारण लाखों लोगों को अपने प्राण गंवाने पड़े। काश! हम प्रकृति के असाध्य भंडारण व असाध्यता का अनुमान लगा पाते कि वह हमें कितना देती है? हम करोड़ों-अरबों की वायु का उपयोग करते हैं; अपरिमित जल का प्रयोग करते हैं; वृक्षों का भी हम पर कितना उपकार है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। वे कार्बन-डॉयोक्साईड लेकर हमें आक्सीजन देते हैं। इतना ही नहीं, वे हमें अन्न व फल-फूल देते हैं, जिससे हमें जीवन मिलता है।

मानव व प्रकृति का संबंध अटूट, चिरंतन व शाश्वत् है। प्रकृति विभिन्न रूपों में हमारे सम्मुख बिखरी पड़ी है। प्रकृति के कोमल व कमनीय सौंदर्य से प्रभावित होकर कवि उसे कल्पना व अनुभूति का विषय बनाता है, जो विभिन्न काव्य- रूपों में प्रकट होती है। यदि हम हिन्दी साहित्य पर दृष्टिपात करें, तो प्रकृति हर युग में मानव की प्रेरणा-शक्ति ही नहीं रही, उसकी चिर-संगिनी भी रही है। वैदिक-कालीन सभ्यता का उद्भव व विकास प्रकृति के उन्मुक्त प्रांगण में हुआ। मंत्रदृष्टा ऋषियों ने प्रकृति के प्रति जहां अनुराग व्यक्त किया, वहीं उसके उग्र,रम्य व मानवीकरण आदि रूपों को अपनाया। ऋग्वेद मानव सभ्यता का प्राचीनतम ग्रंथ है। प्रकृति के दिव्य सौंदर्य से अभिभूत होकर जहां मानव उसके उन्मुक्त सौंदर्य का बखान करता है; वहीं विराट के प्रति भय, विस्मय श्रद्धा आदि की अनुभूतियों में अनंत सौंदर्य का अनुभव करता है। वाल्मीकि का प्रकृति-जगत् के कौंच-वध की हृदय-विदारक घटना से उद्वेलित आक्रोश व करुणा से समन्वित शोक का प्रथम श्लोक रूप में प्रस्फुरण इस तथ्य की पुष्टि करता है कि भावातिरेक या अनुभूति की तीव्रता ही कविता की मूल संजीवनी शक्ति है। महाभारत में प्रकृति केवल पर्वत, वन, नदी आदि का सामान्य ज्ञान कराती है। नल दमयंती प्रसंग में वह प्रकृति से संवेदनात्मक संबंध स्थापित न कर, स्वयं को अकेला व नि:सहाय अनुभव करती है।

कालिदास को बाह्य-जगत् का सर्वश्रेष्ठ कवि स्वीकारा जाता है। उनका प्रकृति-चित्रण संस्कृत साहित्य में ही नहीं, विश्व साहित्य में दुर्लभ है। वे प्रकृति को मूक, चेतनहीन व निष्प्राण नहीं मानते, बल्कि वे उसमें मानव की भांति सुख- दु:ख व संवेदनशीलता अनुभव करते हैं। इस प्रकार अश्वघोष, भवभूति, भास, माघ, भारवि, बाणभट्ट आदि में प्रकृति का व्यापक रूप में वर्णन हुआ है।

हिन्दी साहित्य के आदिकाल अथवा पूर्व मध्य-कालीन काव्य में प्रकृति का उपयोग पृष्ठभूमि, उद्दीपन व उपमानों के रूप में हुआ। विद्यापति के काव्य में प्रकृति कहीं-कहीं उपदेश देती भासती है और आत्मा परमात्मा में इस क़दर लीन हो जाती है, जैसे समुद्र में लहर और भौंरों का गुंजन नायिका को मान त्यागने का संदेश देता भासता है। वियोग में उनका बारहमासा वर्णन द्रष्टव्य है।

पूर्व मध्यकालीन काव्य में प्रकृति उन्हें माया सम भासती है तथा उन्होंने भावाभिव्यक्ति के लिए प्रकृति के विभिन्न रूपों को अपनाया है। कबीरदास जी ‘माली आवत देखि के, कलियन करि पुकार/ फूलि-फलि चुनि लहि, कालहि हमारी बारि’ के माध्यम से मानव को नश्वरता का संदेश देते हैं। दूसरी ओर ‘तेरा सांई तुझ में, ज्यों पुहुपन में वास/ कस्तूरी का मृग ज्यों फिरि-फिरि ढूंढे घास’ के माध्यम से वे मानव को संदेश देते हैं कि ब्रह्म पुष्पों की सुगंध की भाति घट-घट में व्याप्त है, परंतु अज्ञान के कारण बावरा मानव उसे अनुभव नहीं कर पाता और मृग की भांति वन-वन में ढूंढता रहता है। प्रेममार्गी शाखा के प्रवर्त्तक जायसी के काव्य में प्रकृति के उपमान, उद्दीपन व रहस्यात्मक रूपों का चित्रण हुआ है। वे चराचर प्रकृति में ब्रह्म के दर्शन करते हैं। समस्त जड़-चेतन प्रकृति में प्रेमास्पद के प्रतिबिंब को निहारते व अनुभव करते हैं। ‘बूंद समुद्र जैसे होइ मेरा/ मा हिराइ जस मिले न हेरा।’ जिस प्रकार बूंद समुद्र में मिलकर नष्ट हो जाती है,उसी प्रकार आत्मा भी ब्रह्ममय हो जाती है।

रामभक्ति शाखा के कवि तुलसीदास की वृत्ति प्रकृति-चित्रण में अधिक नहीं रमी, तथापि उनका प्रकृति-चित्रण स्वाभाविक बन पड़ा है। प्रकृति उनके काव्य में उपमान व उद्दीपन रूप में नहीं आयी, बल्कि उपदेशिका के रूप में आयी है। संयोग में वर्षा व बादलों की गर्जना होने पर पशु-पक्षी व समस्त प्रकृति जगत् उल्लसित भासता है और वियोग में मन की अव्यवस्थित दशा में मेघ-गर्जन भय संचरित करते हैं। मानवीकरण में मनुष्य का शेष सृष्टि के साथ रागात्मक संबंध स्थापित हो जाता है और मानव उसमें अपनी मन:स्थिति के अनुसार उल्लास, उत्साह, आनंद व शोक की भावनाएं- क्रियाएं आरोपित करता है। राम वन के पशु-पक्षियों से सीता का पता पूछते हैं। तुलसी सदैव लोक- कल्याण की भावना में रमे रहे और प्रकृति से उपदेश-ग्रहण की भावना में उन पर श्रीमद्भागवत् का प्रभाव द्रष्टव्य है–’आन छोड़ो साथ जब, ता दिन हितु न होइ/ तुलसी अंबुज अंबु बिनु तरनि, तासु रिपु होइ।’ जब कुटुम्बी साथ छोड़ देते हैं, तो संसार में कोई भी हितकारी नहीं रह पाता। कमल का जनक जल जब सूख जाता है, तो उसका मित्र सूर्य भी उसे दु:ख पहुंचाता है।

कृष्ण भक्ति शाखा के अतर्गत सूर, नंददास, रसखान आदि को कृष्ण के कारण प्रकृति अति प्रिय थी। प्रकृति का आलंबन, उद्दीपन व आलंकारिक रूप में चित्रण हुआ है। वियोग में प्रकृति गोपियों को दु:ख पहुंचाती है और वे मधुवन को हरा-भरा देख झुंझला उठती हैं– ‘मधुबन! तुम कत रहत हरे/ विरह-वियोग स्याम सुंदर के ठाढ़ै,क्यों न जरे।’ कहीं-कहीं वे प्रकृति में उपदेशात्मकता का आभास पाते हैं और संसार के मोहजाल को भ्रमात्मक बताते हुए कहते हैं–’यह जग प्रीति सुआ, सेमर ज्यों चाखत ही उड़ि जाय।’ तोते को सेमर के फूल में रूई प्राप्त होती है और वह उड़ जाता है। सूर ने प्रकृति के व्यापारों का मानवीय व्यापारों से अतु्लनीय समन्वय किया है।

उत्तर मध्यकालीन को प्राकृतिक सौंदर्य आकर्षित नहीं कर पाता। बिहारी को गंवई गांव में गुलाब के इत्र का कोई प्रशंसक नहीं मिलता। केशव को प्राकृतिक दृश्यों के अंकन का अवसर मिला,परंतु वे अलंकारों में उलझे रहे। बिहारी सतसई में जहां मानवीकरण व आलंबनगत रूप चित्रण हुआ, वहीं पर नैतिक शिक्षा के रूप में अन्योक्तियों का आश्रय लिया गया है। इनके प्रकृति-चित्रण में हृदय-स्पर्शिता का अभाव है। सो! प्रकृति उद्दीपन व उपमान रूप में हमारे समक्ष है। ‘ नहीं पराग,नहीं मधुर मधु,नहीं विकास इहिं काल/ अलि कली ही सौं बंध्यौ,आगे कौन हवाल’ के माध्यम से राजा जयसिंह को सचेत किया गया है। ‘जिन-जिन देखे वे सुमन, गयी सो बीति बहार/ अब अलि रही गुलाब की, अपत कंटीली डार।’ यह उक्ति सम्पत्ति-विहीन व्यक्ति के लिए कही गयी है तथा भ्रमर को माध्यम बनाकर प्राचीन वैभव व वर्तमान की दरिद्रावस्था का बखूबी चित्रण किया गया है।

भारतेन्दु युग आधुनिक युग का प्रवेश-द्वार है और इसमें नवीन व प्राचीन काव्य-प्रवृत्तियों का समन्वय हुआ है। प्रकृति मानवीय भावनाओं के अनुरूप हर्ष-विषाद को अतिशयता प्रदान करती, वियोगियों को रुलाती तथा संयोगियों को उल्लसित करती है। इनका बारहमासा वर्णन विरहिणी की पीड़ा को और बढ़ा देता है तथा कहीं-कहीं प्रकृति उपदेश देती भासती है। ‘ताहि सो जहाज को पंछी सब गयो,अहो मन होई’ (भारतेन्दु ग्रंथावली)। अत:जीव जहाज़ के पक्षी की भांति पुन: ब्रह्म में मिलने का प्रयास करता है। बालमुकुंद जी के हृदय में प्रकृति के प्रति सच्चा अनुराग है, जो आलंबन, उद्दीपन व उपमान रूप में उपलब्ध है।

द्विवेदी युगीन कवियों ने प्रकृति को काव्य का वर्ण्य-विषय बनाया है तथा प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण किया है। श्रीधर पाठक, रूपनारायण पाण्डेय, रामनरेश त्रिपाठी आदि ने आलंबनगत चित्र प्रस्तुत किए हैं तथा स्वतंत्रतावादी कवियों ने रूढ़ रूपों को नहीं अपनाया, बल्कि जीवन के विस्तृत क्षेत्र में उसके साधारण चित्रमय, सजीव व मार्मिक रूप प्रदान किए हैं। पाठक ने कश्मीर सुषमा, देहरादून आदि कविताओं में प्रकृति के मनोरम चित्र उपलब्ध हैं। शुक्ल जी ने प्रकृति के आलंबन व त्रिपाठी ने पथिक व स्वप्न खंड काव्यों में प्रकृति का मार्मिक चित्रण किया  है। हरिऔध ने जहां ऐंद्रिय सुख की अनुभूति की, वहीं प्रकृति से उपादान ग्रहण कर नायिका के सौंदर्य का वर्णन किया है। मैथिलीशरण गुप्त जी के साकेत, पंचवटी, यशोधरा आदि काव्यों में मनोरम प्राकृतिक चित्रण उपलब्ध है। पंचवटी में प्रकृति की अपूर्व झांकी दिखाई देती है और प्रकृति मानव के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया रूप में संबंध स्थापित करती है। साकेत में प्रकृति का मानव व मानवेतर जगत् से तादात्म्य स्थापित हो जाता है। वे प्रकृति को सद्गुणों से परिपूर्ण मानते हैं– ‘सर्वश्रद्धा, क्षमा व सेवा की, ममता की वह धर्म में भी प्रतिमा/ खुली गोद में जो उसकी, समता की वह प्रतिमा।’ प्रकृति ममतामयी मां है, जो समभाव से सब पर अपना प्रेम व ममत्व लुटाती है।उपदेशिका की भांति मानव में उच्च विचार व सदाशयता के भाव संचरित करती है। वे भारतीयों में राष्ट्रीय-चेतना के भाव जाग्रत करते हुए ओजपूर्ण शब्दों में कहते हैं—‘पृथ्वी, पवन, नभ, जल, अनल सब लग रहे काम में/ फिर क्यों तुम्ही खोते हो, व्यर्थ के विश्राम में।’ कवि ने सर्वभूतों को सर्वदा व्यस्त दिखाते हुए देशवासियों को आलस्य त्यागने व जाग्रत रहने का संदेश दिया है। रामनरेश त्रिपाठी के काव्य में प्रकृति के सुंदर, मधुर, मंजुल रूप प्रकट होते हैं, उग्र नहीं। वे प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुए मानव-व्यापारों व मानव- संवेदना का आभास पाते हैं।

छायावाद में प्रकृति को स्वछंद रूप प्राप्त हुआ है और उसका उपयोग आध्यात्मिक भावों के प्रकाशन के लिए हुआ है। प्रकृति कवि की चेतना, प्रेरणा व स्पंदन है। इसलिए छायावाद को प्रकृति काव्य के नाम से अभिहित किया गया है।यदि प्रकृति को छायावाद से निकाल दिया जाए, तो वह पंगु हो जाएगा। प्रसाद ने प्रकृति में चेतना का अनुभव किया और वह मधुर, कोमल व सुकुमार भावनाओं की अभिव्यक्ति का साधन बन गयी, परंतु कवि ने कामायनी में प्रकृति के भयावह, विकराल व विराट आदि रूपों का दर्शन किया है। वे प्रकृति को सचेतन व सजीव मानकर उसमें अलौकिक सत्ता का दर्शन करते हैं तथा समस्त सृष्टि के कार्य-व्यापारों को सर्वोत्तम शक्ति द्वारा अनुप्राणित स्वीकारते हैं। प्रसाद ने संसार को रंगभूमि मानते हुए कहा है कि मानव यहां अपनी शक्ति के अनुसार संसार रूपी घोंसले में अपनी शक्ति के अनुसार ठहर सकता है, ‘शक्तिशाली विजयी भव’ का संदेश देता है। पंत प्रकृति के उपासक ही नहीं, अनन्य मित्र थे। उनके काव्य में मानव और प्रकृति का एकात्म्य हो जाता है। मधुकरि का मधुर राग उन्हें मुग्ध करता है और वे ‘सिखा दो न हे मधुप कुमारि/ मुझे भी अपने मीठे गान'(पल्लविनी)। वे प्रकृति के सहचरी, देवी, सखी, जननी आदि रूपों को काव्य में चित्रित करके उनमें अलौकिक सत्ता का आभास पाते हैं और प्रकृति उन्हें प्रेरणा प्रदान करती है।

निराला के काव्य में प्रकृति के चित्र दिव्य, समृद्ध व रहस्यात्मक रूप में आए हैं। उनके काव्य में दो तत्वों की प्रधानता है-रहस्यवाद व मानवीकरण। उनके काव्य विराटता व उदात्तता की दृष्टि से सराहनीय हैं। प्रकृति उसे सजीव प्राणी की भांति अपना रूप दिखाती, हाव-भावों से मुग्ध करती, संवेदना प्रकट करती उत्साहित करती है। इस प्रकार प्रकृति व मनुष्य का तादात्म्य हो जाता है। बादल प्रकृति को हरा-भरा कर देते हैं, जिससे प्रेरित होकर प्रकृति कर्त्तव्य- पथ पर अग्रसर होने का संदेश देती है।

महादेवी वर्मा सृष्टि में सर्वत्र दु:ख देखती हैं। प्रकृति उनके लिए सप्राण है तथा वे मानव व प्रकृति के लिए एक प्रकार की अनुभूति, सजीवता, विश्रंखलता, आत्मीयता व व्यापकता  का अनुभव करती हैं। वे संसार में प्रियतम को ढूंढती हैं । वे कभी प्रेम भाव में बिछ जाती हैं और जब प्रियतम अंतर्ध्यान हो जाते हैं, वे निराश होकर दु:ख-दैन्य भाव को इस प्रकार व्यक्त करती हैं—‘मैं फूलों में रोती, वे बालारुण में मुस्काते/ मैं पथ में बिछ जाती,वे सौरभ सम उड़ जाते।’ वे प्रकृति के चतुर्दिक प्रियतम के संदेश का आभास पाती हैं और प्रश्न कर उठती हैं — ‘मुस्काता प्रेम भरा नभ,अलि! क्या प्रिय आने वाले हैं?’ वे जीवन को संध्या से उपमित करती हैं ‘प्रिय सांध्य गगन मेरा जीवन’ ‘मैं नीर भरी दु:ख की बदली’ के माध्यम से वे प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करती हैं। वेएक ओर प्रकृति में विराट की छाया देखती हैं और दूसरी ओर अपना प्रतिबिंब पाती हैं। वै छायावाद का आधार स्तंभ-मात्र नहीं हैं, रहस्य व अरूप की साधिका रही हैं।

प्रगतिवाद भौतिकवादी दर्शन है, जिस पर मार्क्सवाद का प्रभाव था। समस्त सृष्टि का विकास दो वस्तुओं के संघर्ष से होता है, जो द्वंद्व का परिणाम है। यह वैज्ञानिक दर्शन है, जिसमें भावुकता के स्थान पर बुद्धि को स्वीकारा गया है।यह यथार्थवाद पर आधारित है। इन कवियों को जीवन से अनुरक्ति है और प्रकृति से प्रेम है।उन्होंने प्रकृति के उपेक्षित तत्वों व पात्रों को महत्व दिया है और प्रकृति उनके लिए शक्ति- प्रणेता है। वे दिन-रात व ऋतु-परिवर्तन को देख जीवन के विकास के लिए परिवर्तन-शीलता को अनिवार्य मानते हैं। इनके गीतों पर लोकगीतों कि प्रभाव द्रष्टव्य है।

प्रयोगवादी कविता में प्रकृति के भावात्मक स्वरूप का ग्रहण हुआ अबोध बालक की तरह ईश्वर, प्रकृति, जीवन-सौंदर्य के विभिन्न स्तरों पर प्रश्न करता है। इन कवियों ने जहां प्रकृति के उपेक्षित व वैज्ञानिक स्वरूपों को ग्रहण किया है,

वहीं प्रकृति में दैवीय सत्ता का आभास न पाकर , भौतिकता के संदर्भ में एक शक्ति के रूप में स्वीकारा गया है। इनका दृष्टिकोण भावात्मक न होकर, बौद्धिक है और प्रकृति के उपेक्षित स्वरूप(कुत्ता, गधा,चाय की प्याली, चूड़ी का टुकड़ा, प्लेटफार्म, धूल, साइरन) को काव्य का विषय बनाया।इन्होंने असुंदर, भौंडे, भदेस आदि में सौंदर्य के दर्शन किए तथि युगबोध के अनुकूल प्रकृति का चित्रण किया। इन्होंने जहां प्रकृति को अपनी मानसिक कुंठाओं की अभिव्यक्ति का साधन बनाया, वहां नवीन उपमानों, बिम्बों को अपने काव्य में प्रतिष्ठित किया तथा मानवीकरण कर मनोरम चित्रण किया है।

नयी कविता प्रयोगवाद का विकसित चरण है तथा इसमें उपलब्ध प्रकृति चित्रण की विशेषता है–ग्राम्य चित्रपटी की अवधारणा। नयी कविता वाद मुक्त है तथा वे जो भी मन में आता है, कहते हैं। वे क्षणवादी हैं और हर पल को जी लेना चाहते हैं,क्योंकि वे भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं हैं। उनमें एक दर्शन का अभाव है। कई बार उन्हें प्रकृति के विभिन्न रूप स्पंदनहीन भासते हैं और उन्हें अपने अस्तित्व के बारे में शंका होने लगती है। नये कवियों की विषय-व्यापकता, नया भाव-बोध तथा नवीन दृष्टिकोण सराहनीय है। सो! प्रकृति व मानव का संबंध अनादि काल से शाश्वत् व अटूट रहा है। वह हर रूप में आराध्या रही है। परंतु जब-जब मानव ने प्रकृति का अतिक्रमण किया है, उसने अपना प्रकोप व विकराल रूप दिखाया है, जो प्राकृतिक प्रदूषण व कोरोना के रूप में हमारे समक्ष है। इन असामान्य परिस्थितियों में मानव नियति के सम्मुख विवश व असहाय भासता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 62 ☆ हिंदी साहित्य की पुस्तकों के बढ़ते मूल्य व अनुपलब्धता एक चुनौती ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “हिंदी साहित्य की पुस्तकों के बढ़ते मूल्य व अनुपलब्धता एक चुनौती।)

☆ किसलय की कलम से # 63 ☆

हिंदी साहित्य की पुस्तकों के बढ़ते मूल्य व अनुपलब्धता एक चुनौती ☆

हमारी हिंदी विश्व की श्रेष्ठ भाषाओं में शामिल है। विश्व के अधिकांश देश हिंदी और हिंदी पुस्तकों-ग्रंथों के प्रति रुचि रखते हैं। विभिन्न देशों के लोग हिंदी भाषा से परिचित हैं, बोलने और पढ़ने के अतिरिक्त वहाँ हिंदी सिखाई भी जाती है। इसका मुख्य कारण हिंदी जैसी लिखी जाती है वैसी ही पढ़ी जाती है। समृद्ध साहित्य और परिपक्वता इसकी विशिष्टता है। आज विश्व का समस्त ज्ञान हिंदी माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। हिंदी भाषा निश्चित रूप से देवभाषा संस्कृत से बनी है। संस्कृत के प्रायः अधिकांश ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद हो चुका है। हिंदी के महान लेखकों एवं कवियों द्वारा प्रचुर मात्रा में सृजन भी हुआ है। इस तरह हिंदी साहित्य अपने आप में साहित्य का सागर बन चुका है।

प्रारंभ में हिंदी पुस्तकों की हस्तलिखित पांडुलिपियाँ हुआ करती थीं। शनैः शनैः अक्षर कंपोज करने वाली प्रिंटिंग मशीनों से आगे आज ऑफसेट मशीनें बाजार में उपलब्ध हैं। अंतरजाल की बढ़ती उपयोगिता के चलते आज अधिकांश हिंदी साहित्य डिजिटल फार्म में भी सुरक्षित किया जाने लगा है। अत्यंत उपयोगी पुस्तकों के तो अनेक संस्करण निकलते रहते हैं। उनकी उपलब्धता बनी रहती है, लेकिन जो सामान्य, दिवंगत अथवा सक्षम लोगों की श्रेष्ठ पुस्तकें हैं उनका पुनः प्रकाशन नहीं हो पाता जिस कारण एक बड़ा पाठक वर्ग लाभान्वित होने से वंचित रहता है। आर्थिक, बौद्धिक व बहुमूल्य समयदान के उपरांत साहित्यकारों का सृजन जब पुस्तक का रूप लेता है तब यह खुशी उनको अपनी संतान के जन्म से कमतर नहीं लगती। प्रत्येक लेखक अथवा कवि का सपना होता है कि उनकी पुस्तक का प्रचार-प्रसार हो। लोग उनकी पुस्तक के माध्यम से उनको जानें।

आज हम देख रहे हैं कि अधिकांश पूर्व प्रकाशित उपयोगी पुस्तकें धीरे-धीरे नष्ट हो रही हैं और कुछ गुमनामी के अँधेरे में चली जा रहीं हैं। उनकी उपयोगिता और दिशाबोधिता की किसी को चिंता नहीं होती, न ही शासन की ऐसी कोई जनसुलभ नीतियाँ हैं, जिनसे इन प्रकाशित पुस्तकों की कुछ प्रतियाँ ग्रंथालयों में सुरक्षित रखी जा सकें। आज अक्सर देखा जाता है कि पाठक जिन पुस्तकों को पढ़ना चाहता है वे बाजार में उपलब्ध ही नहीं रहतीं अथवा इतनी महँगी होती हैं कि आम पाठक इनको खरीदने में असमर्थ रहता है।

आज जब शासन समाचार पत्रों, सरकारी अकादमियों एवं विभिन्न शासकीय विभागों को प्रकाशन हेतु सब्सिडी और सहायता देता है। विभिन्न शासकीय योजनाओं के चलते भी इनका लाभ आज सुपात्र को कम, जुगाड़ व पहुँच वालों को ज्यादा मिलता है। इसके अतिरिक्त यह भी देखा गया है कि दिवंगत अथवा गुमनाम साहित्यकारों की पुस्तकों के पुनः प्रकाशन अथवा उनकी पांडुलिपियों के प्रकाशन की कोई भी सरकारी आसान योजना नहीं है। ऐसा कोई विभाग भी नहीं है जो लुप्त हो रहे ऐसे हिंदी साहित्य को संरक्षित करने का काम कर सके।

देश में जब धर्म के नाम पर, संस्थाओं के नाम पर, सामाजिक सरोकारों के नाम पर, जनहित के नाम पर सहायता, सब्सिडी और अन्य तरह से राशि उपलब्ध करा दी जाती है, तब क्या अथक बौद्धिक परिश्रम और समय लगाकर सृजित किए गए उपयोगी साहित्य प्रकाशन हेतु उक्त सहायता प्रदान नहीं की जाना चाहिए? होना तो यह चाहिए कि एक ऐसा सक्षम शासकीय संस्थान बने जो पांडुलिपियों की उपादेयता की जाँच करे और साहित्यकारों के संपर्क में भी रहे जिससे वे अपने साहित्य के निशुल्क प्रकाशन हेतु उस संस्थान तक सहजता से पहुँच सकें।

बिजली की छूट, किसानों को छूट, गरीबों को छूट, आयकर में छूट के अलावा रसोई गैस और सौर ऊर्जा पर सब्सिडी दी जाती है तो क्या प्रकाशित उपयोगी पुस्तकों के क्रय पर कुछ सरकारी छूट उपलब्ध नहीं हो सकती? इससे इन पुस्तकों को लोग आसानी से खरीद कर लाभान्वित तो हो सकेंगे। अन्य प्रक्रिया के अंतर्गत उपयोगी पुस्तकों के प्रकाशन पर भी सरकारी मदद मिलना चाहिए क्योंकि आज अकादमियों अथवा शासकीय योजनाओं से लाभ लेना हर साहित्यकार के बस में नहीं होता। पहुँच, जोड़-तोड़, उपयोगिता सिद्ध करना सब कुछ उन्हीं के पास होता है जो सरकारी सहायता चेहरे देखकर प्रदान करते हैं।

वाकई आज हिंदी साहित्य की पुस्तकों की महँगी कीमतें हिंदी पाठक के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। कुछ भी हो हिंदी साहित्य की पुस्तकों हेतु छपाई वाला उपयुक्त पेपर सस्ते दामों में मिलना चाहिए। आसमान को छूते प्रिंटिंग चार्ज भी कम होना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि जब पुस्तकों के प्रकाशन की लागत कम होगी तभी अधिक से अधिक हिंदी साहित्य की पुस्तकें बाजार में उपलब्ध हो पाएँगी और लोग अधिक से अधिक लाभान्वित भी हो सकेंगे। दुर्लभ होती जा रहीं उपयोगी पुस्तकों का पुनः प्रकाशन सरकारी खर्च पर होना चाहिए।

जब कहा गया है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है तब साहित्यिक पुस्तकों के ऊँचे दाम तथा इनकी अनुपलब्धता के चलते समाज का दर्पण क्या दिखाएगा? साहित्य का संरक्षण व संवर्धन हमारी संस्थाओं तथा सरकार की प्राथमिकता में होना चाहिए। साहित्यकारों को दी जाने वाली सुविधाएँ व प्रोत्साहन ही उपयोगी साहित्य सृजन को अपेक्षित बढ़ावा देगा। इस तरह हम कह सकते हैं कि सभी के मिले-जुले प्रयास ही हिंदी साहित्य की पुस्तकों के बढ़ते मूल्य और अनुपलब्धता का समाधान है।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 100 ☆ यों तो दुनिया में कहीं था न पता तेरा….☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण रचना  “यों तो दुनिया में कहीं था न पता तेरा….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 100 ☆

यों तो दुनिया में कहीं था न पता तेरा…. ☆

आखिर दिल की पुकारों में तुझको देख लिया

डूबते वक़्त किनारों में तुझको देख लिया

 

यों तो दुनिया में कहीं था न पता तेरा, मगर

हमने कुछ प्यार के मारों में तुझको देख लिया

 

फिर कभी लौटके आयी नहीं खुशबू वैसी

दिल ने सौ बार बहारों में तुझको देख लिया

 

हमने पायी है वही टूटते दिल की तस्वीर

जिन्दगी! चाँद-सितारों में तुझको देख लिया

 

तू भले ही रहा दुनिया से अलग हो के “संतोष”

पर किसी ने था हज़ारों में तुझको देख लिया

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 105 – वाट ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 105 – विजय साहित्य ?

☆ वाट  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

चंद्र लाजरा  पहा, काय काय बोलतो

मेघ कुंतलातूनी, शब्द शब्द डोलतो…  ||धृ.||

 

सांग तू मनातले, कोण आवडे तुला

छेड प्रीत मारवा, हास लाजऱ्या फुला

हात दे हातात तू, पाय वाट सोडतो… ||१||

 

दोन चंद्र भोवती, सांग कोण देखणा

एक सांगतो मना, प्रेम पुष्प वेचना

ये अशी समीप तू, भाव रंग वाचतो… ||२||

 

कला, कळा अंतरी, भावती तुला मला

शब्द श्वास जाहला, दाटला पुन्हा गळा

पौर्णिमा मनातली, प्रीत स्पर्श जाणतो..||३||

 

रात राणी सोबती,देई साक्ष चांदवा

भावना मनातल्या, प्रेम रंगी नांदवा

भेट तू पुन्हा पुन्हा, मीच वाट पाहतो..||४||

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! ☆ स र्व ज्ञा नी ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

? स र्व ज्ञा नी ! ??

“पंत हा तुमचा पेपर, निघतो, जरा घाईत आहे !”

“अरे मोऱ्या थांब जरा, तुला एक विचारायचं होतं!”

“बोला ना पंत !”

“अरे गाढवा, काल माझं एक काम होतं तुझ्याकडे म्हणून तुला मोबाईल लावला, तर ‘समाधान सल्ला केंद्राला फोन केल्याबद्दल धन्यवाद ! वैयक्तिक सल्ल्यासाठी एक दाबा, कौटुंबिक सल्ल्यासाठी दोन दाबा, प्रेम प्रकारणाच्या सल्ल्यासाठी…..”

“तीन दाबा ! बरोबर ना पंत ?”

“हो, बरोबर. आता ही सल्ला केंद्राची काय नवीन भानगड सुरु केल्येस तू मोऱ्या ?”

“अहो भानगड कसली पंत, घरी बसल्या बसल्या चार पैसे मिळवायचा आणि त्यातून झालीच तर थोडी समाजसेवा करायचा उद्योग चालू केलाय एवढच !”

“म्हणजे रे मोऱ्या ?”

“अहो पंत, हल्ली सगळेच लोकं काहींना काही समस्यांचे शिकार झालेले आहेत. त्यातून काही जणांना नैराश्य येवून, त्या पैकी काही जणांची मजल आत्महत्या करण्यापर्यंत गेल्याच तुम्ही पेपरात वाचल असेलच !”

“खरं आहे तुझं मोऱ्या, हल्ली एवढ्या तेवढ्या कारणावरून आत्महत्या कारण्याच प्रमाण वाढलंय खरं !”

“बरोबर, म्हणूनच अशा डिप्रेशनमधे गेलेल्या लोकांसाठी मी ‘समाधान सल्ला केंद्र’ सुरु केलं आहे !”

“हे बरीक चांगल काम करतोयस मोऱ्या, पण तुझ्याकडे सल्ला मागणारे ना तुझ्या ओळखीचे ना पाळखीचे, ते तुझ्याकडे मोबाईल वरून त्यांना पाहिजे तो सल्ला मागणार, मग याच्यातून तुला अर्थप्राप्ती कशी होते ते नाही कळलं मला !”

“पंत, तुम्ही नेट बँकिंग बद्दल ऐकलं असेलच !”

“हो ऐकून आहे खरा, पण त्यात फसवलं जाण्याची भीती असते असं म्हणतात, म्हणून मी माझ्या अकौंटला तो ऑपशनच ठेवला नाहीये बघ !”

“ते ठीक आहे पंत ! पण माझ्याकडे सल्ला मागणाऱ्यांना मी ठराविक रक्कम माझ्या अकाउंटला जमा करायला सांगतो आणि ती तशी जमा झाल्याचा मेसेज मला माझ्या बँकेतून आल्यावरच मी त्यांना पाहिजे तो सल्ला देतो !”

“अस्स, म्हणजे पहिले दाम मग तुमचं काम, हे सूत्र तू अवलंबल आहेस तर !”

“अगदी बरोबर पंत, म्हणजे पैसे बुडण्याची भीतीच नाही !”

“ते सगळं खरं रे मोऱ्या, पण प्रत्येकाच्या निरनिराळ्या समस्यांवर तुझ्याकडे समाधानकारक उत्तर कशी काय असतात बुवा ?”

“पंत माझ्याकडे कुठे उत्तर असतात !”

“अरे गाढवा, पण तूच तर प्रत्येकाला त्याच समाधान होईल असं उत्तर देतोस नां ?”

“हो पंत, पण त्यासाठी मी आमच्या पेरेन्ट कंपनीचा सल्ला घेतो !”

“आता ही तुझ्या पेरेन्ट कंपनीची काय भानगड आहे मोऱ्या ?असं कोड्यात बोलू नकोस, नीट सविस्तर मला समजेल असं काय ते सांग बघू !”

“त्याच काय आहे ना पंत, माझ्या सासूबाई स्वतःला ‘सर्वज्ञानी’ समजतात आणि त्यांनी सुद्धा त्यांचे ‘सर्वज्ञानी सल्ला केंद्र’ नावाचे मोबाईलवरून सल्ला देण्याचे केंद्र सुरु केले आहे.”

“बर मग ?”

“अहो त्या वरूनच माझ्या बायकोच्या डोक्यात, आपण पण असं सल्ला केंद्र मोबाईलवर चालू करावं असं आलं आणि सासूबाईंच्या त्या सर्वज्ञानी सल्ला केंद्रलाच मी आमची पेरेन्ट कंपनी म्हणतो !”

“अस्स !”

“मग मी काय करतो पंत माहीत आहे, मला आलेल्या सगळ्या समस्यांवरचा सल्ला मी मोबाईलवरून, माझ्या पेरेन्ट कंपनीला, म्हणजेच माझ्या सासूबाईंच्या ‘सर्वज्ञानी सल्ला केंद्राला’ विचारतो आणि त्यांनी दिलेला तोच सल्ला पुढे…..”

“ढकलून मोकळा होतो, बरोबर ?”

“बरोब्बर पंत !”

“पण काय रे मोऱ्या, तुझ्या सासूबाई तू त्यांचा एकुलता एक जावई  असलास म्हणून तुला काय नेहमीच फुकटचा सल्ला देतात का ?”

“नाही हो पंत ! अहो मी त्यांना प्रत्येक वेळेस, वेगळेच नांव सांगून, मला एखाद्याने किंवा एखादीने विचारलेला सल्ला त्यांना विचारून त्याचे उत्तर घेतो आणि तोच माझा सल्ला म्हणून पुढे पाठवतो आणि सासूबाईंच्या अकाउंटला पैसे जमा करतो ! तेवढीच त्यांना आर्थिक मदत पण होते !”

“अरे पण तुला यातून कसे काय अर्थार्जन होते ते नाही कळलं मला !”

“पंत, सध्याचा जमाना हा कमिशनचा जमाना आहे, हे तुम्ही पण मान्य कराल ! ‘माझं काय ?’ हाच प्रश्न कुठच्याही व्यवहारात हल्ली लोकांचा असतो ! मग मी तरी त्याला कसा अपवाद असणार ?”

“तू म्हणतोयसं ते खरं आहे मोऱ्या, हल्ली जमानाच आलाय तसा, पण मग तू काय करतोस ?”

“पंत, मी जेवढे पैसे सासूबाईंना देतो, त्यावर माझे दहा टक्के कमिशन आकारून सासूबाईंनी दिलेला सल्ला पुढे ढकलतो !”

“धन्य आहे तुझी मोऱ्या !”

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

१७-१२-२०२१

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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