(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “पीढ़ी का अंतर”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 99 ☆
☆ लघुकथा — पीढ़ी का अंतर ☆
” भाई ! तुझ में क्या है? भावों के वर्णन के साथ अंतिम पंक्तियों में चिंतन की उद्वेलना ही तो है, ” लघुकथा की नई पुस्तक ने कहा।
” और तेरे पास क्या है?” पुरानी पुस्तक अपने जर्जर पन्नों को संभालते हुए बोली, ” केवल संवाद के साथ अंत में कसा हुआ तंज ही तो है।”
” हूं! यह तो अपनी-अपनी सोच है।”
तभी, कभी से चुप बैठे लघुकथा के पन्ने ने उन्हें रोकते हुए कहा, ” भाई! आपस में क्यों झगड़ते हो? यह तो समय, चिंतन और भावों का फेर है। यह हमेशा रहा है और रहेगा।
” बस, अपना नजरिया बदल लो। आखिर हो तो लघुकथा ही ना।”
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा लिखित एक भावप्रवण कविता ‘पल पाखी’। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “सच्ची चाहत”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 80 ☆ सच्ची चाहत☆
काम किसी का नहीं रुकता है, बस चाहत सच्ची होनी चाहिए। जब कोई व्यक्ति जाता है तो उससे बढ़िया आता है। प्रश्न ये है कि प्रमुख व्यक्ति जब सबको जोड़कर रखे हुए है तो उसकी टीम अनायास टूट कैसे जाती है? अक्सर देखने में आता है कि नए लोगों का स्वागत है, वहीं पुराने लोग उपेक्षित होकर सब कुछ छोड़ने पर मजबूर होते हुए दिखते हैं। सबको बाँध कर रखना संभव नहीं हो सकता है। लोगों को अपनी कार्यक्षमता को बढ़ाना चाहिए। लोग निरन्तर आ रहे हैं और जुड़ने पर गर्व महसूस करते हैं।जबकि दूसरी ओर नए – नए लोगों का आना और पुरानों का बेइज्जत होकर जाना ये क्रम भी चल रहा है। इन सबके बीच यदि कोई पूज्यनीय है तो वो है सत्कर्म। कर्म करते रहें, सही योजना बनाकर जब भी आयोजन होंगे तो सफलता कदम चूमेंगी ही।
शत प्रतिशत ताकत के साथ जब आप किसी कार्य में जुटेंगे तो उसका परिणाम अवश्य ही दूरगामी होगा। पूर्णता के साथ आगे बढ़ते रहें। क्रमशः ऊँचाई की ओर देखते हुए एक -एक कदम रखते जाएँ अवश्य ही सफ़लता मिलेगी। यदि शिखर पर विराजित होना है तो स्वयं को हर पल तरोताजा व तकनीकी रूप से समृद्ध रखना होगा। लक्ष्य एक हो किन्तु उसे पाने के तरीके में नई – नई योजना होनी चाहिए। जब तक मन आनंदित नहीं होगा कार्य करते समय उदासीनता घर कर लेगी। उत्साह बनाए रखने के लिए नवीनता का होना जरूरी होता है। ये कार्य हमारे लिए क्यों जरूरी है इससे हमें व समाज को क्या फायदा होगा ये प्रश्न भी पूछते रहना चाहिए। लाभ व हानि का मुद्दा ही मन में जोश भरता है।
कार्य में इतनी गुणवत्ता होनी चाहिए कि दूसरा कोई विकल्प न हो, जब भी कोई नाम ढूंढा जाए तो आपका ही अक्स सामने उभर कर आए। ये सही है कि समझौते के बिना दुनिया नहीं चलती किन्तु योग्यता के महत्व को कोई आज तक नकार नहीं सका है सो अपने अंदर जुनून पैदा करें और कोई इतिहास रचें जो न भूतों न भवष्यति हो।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक अतिसुन्दर विचारणीय कविता “तुमको भी कुछ सूत्र सिखा दें….…..”। )
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– असहमत आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ असहमत…! भाग – 10 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
आज असहमत का मन साउथ सिविल लाईन की तफ़रीह करने का हो रहा था तो उसने साईकल उठाई और शहर के इस पॉश एरिया की सैर के लिये निकल पड़ा. ये एरिया शहर की छवि को दुरुस्त करता है, सपाट चौड़ी साफ सड़कें, अनुशासित शालीन लोग, अपने कीमती वाहनों से अक्सर यहां आवागमन करते हैं. जबलपुर की पहचान हाईकोर्ट और भव्य रेल्वे प्लेटफार्म से शुरुआत होती है , साउथ सिविल लाईन नाम से पहचाने जाने वाले इस इलाके की, फिर जब और आगे बढेंगे तो बायें तरफ पुलिस अधीक्षक ऑफिस, इंदिरा मार्केट और दायीं तरफ रेल्वे हॉस्पिटल का क्षेत्र तो किसी तरह आपको एडजस्ट करते रहते हैं पर आगे जाने पर शहर की हवा और नक्शा दोनों बदलने लगते ह़ै.इलाहाबाद बैंक चौक के नाम से विख्यात इस बड़े चौराहे को पार करने के साथ ही साऊथ सिविल लाईन के नाम से पहचाने जाने वाली जगह शुरु हो जाती है. जिले के सारे महत्वपूर्ण प्रशासनिक अधिकारी,पुलिस अधिकारी और कोर्ट के योअर ऑनर्स के विशालकाय बंगलों से सजा है यह क्षेत्र, हालांकि यहां पर मल्टीप्लेक्स स्टोरीज़ भी कॉफी हैं.जबलपुर के सांसद का निवास और सदर क्षेत्र के विधायक भी यंहा के निवासी हैं.
साऊथ सिविल लाईन्स की सैर करते हुये असहमत को अपने कॉलेज के दिन याद आ रहे थे. यहां का भ्रमण उसे अनूठा आनंद दे रहा था.अधिकांश बंगलों पर अंदर सैर करने की उसकी ख़्वाहिश को रौबदार नेमप्लेट,गेट पर खड़े संतरी और और सायरन लगी गाड़ियां ,कमज़ोर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे.सपना तो उसका भी था कि इन प्रभावशाली बंगलों में से किसी एक में उसकी भी नेमप्लेट लगे पर उसका प्रारब्ध इस मामले में उससे असहमत था. ये भी कहा जा सकता है कि ईश्वर जब इन पदों को हासिल करने की योग्यता बांट रहे थे तो असहमत इसी बात पर गर्वित था कि शहर की टॉकीज़ों में उसे फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने से कोई नहीं रोक सकता क्योंकि करेंट बुकिंग की खिड़की से शो की टिकट लेने में उसे महारथ हासिल थी. सरकारी बंगलों में रहने वालों के बारे में उसकी इस धारणा को कोई नहीं बदल पाया कि ” बाहर कुछ भी जल्वा हो पर घर पर हमेशा IG की नहीं बल्कि बाईजी की ही चलती है. बाई जी याने मैडम जिनके लिये IAS, IPS का एग्जाम क्वालिफाई करना बिल्कुल भी जरूरी नहीं है. सरकारी बंगलों के बाद कुछ प्राइवेट बंगले भी बने थे जिनमें कॉलेज और विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर निवास कर रहे थे. संतरी तो नहीं थे पर कुत्तों से सावधान के बोर्ड लगे थे, कुछ में कुत्ते की फोटो भी थी जिसे देखकर शाम को अपने मालिक /मालकिन के साथ सैर पर निकले कुत्ते भौंकना शुरु कर देते थे. असहमत वैसे तो अपने प्रकृति प्रदत्त गुण के कारण किसी से नहीं डरता था पर कुत्ते उसकी कमजोरी थे. इनको देखकर असहमत के साथ साथ उसकी साईकल की भी धड़कन भी तेज हो जाती है.अचानक एक छोटे बंगले पर उसकी नज़र चिपक गई जिसके गेट पर न तो संतरी था न ही कुत्ते वाली चेतावनी, सिर्फ नेमप्लेट ही चमक रही थी जिस पर लिखा था “प्रोफेसर मनसुख लाल ” उसे याद आ गया कि ये उसके कॉलेज़ के ही इतिहास विषय के विभागाध्यक्ष रह चुके हैं और रिटायरमेंट के बाद इस बंगले को गुलज़ार कर रहे हैं. प्रोफेसर साहब काफी रसिक मिज़ाज के थे और शहर वाले इन्हें इनके जूली सदृश्य प्रकरण के कारण जबलपुर के प्रोफेसर मटुकनाथ के नाम से जानते थे. इनकी गाइडेंस में रिसर्च कर रहे स्कालर्स में छात्रों से ज्यादा छात्राओं का अनुपात था. हालांकि ये तो बाद में पता चला कि प्रोफेसर साहब गाईड कम मिसगाईड ज्यादा किया करते थे. कुछ की थीसिस तो इन्होने घर बैठे बैठे कंप्लीट करवा दी हालांकि घर कौन सा होगा ये छात्रा नहीं बल्कि प्रोफेसर डिसाइड करते थे. जले भुने और मेहनत करके भी लटकने वाले छात्र इनको प्रोफेसर गूगल कहते थे, जिसका अर्थ उनकी शैली में “हल्दी लगे न फिटकरी, फिर भी रंग चोखा” होता था.जब असहमत इनके पास पहुंचा तो प्रोफेसर साहब किसी विदुषी से लॉन में बैठकर पाठकों की अज्ञानता और सस्ते, हल्के साहित्य से लगाव और शालीन अभिरुचियों से दूर होते जाने के विषय पर बात कर रहे थे. प्रोफेसर साहब कह रहे थे कि पता नहीं मोबाइल और लैपटॉप में उलझी इस युवा पीढ़ी की साहित्य के प्रति ये अवहेलना और स्तरहीन दृष्टिकोण देश को किस रसातल में ले जायेगा. पाठक दिनों दिन पथभ्रष्ट होता जा रहा है, टीवी, और सोशलमीडिया से दोस्ती की पींगे मार रहा है.न चरित्र है न ही साहित्य के प्रति लगाव. प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, मैथिली शरण गुप्त, दिनकर सही समय में अवतरित हुये तो साहित्य ने उनका मूल्यांकन किया. अब तो हाल ये हो गया है कि खुद ही लिखो और खुद ही पढ़ो. अगर मार्केटिंग की कोशिश की तो लोग उसी तरह से दूर भागते हैं जैसे कोई फ्लॉप mutual fund scheme पकड़ा रहा है. पाठकों को जबसे सस्ता इंटरनेट मिला है, उसकी आदत बिगड़ गई है, उसे हर वस्तु सस्ती या मुफ्त चाहिए.
अभी तक असहमत बैठ जरूर गया था प्रोफेसर साहब की बैठक में, पर उसे किसी ने नोटिस नहीं किया था. वैसे भी प्राध्यापकों की आदत होती है विशेषकर कॉलेज और विश्वविद्यालय वाले, जहाँ पर छात्रों की अटेंडेंस लेने का तो सवाल ही नहीं उठता और कितने आये हैं कितने नहीं इस पर ध्यान दिये बगैर वो जो घर से लेक्चर तैयार करके लाते हैं उसे डिलीवर करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं.अगर आप समझ गये तो आप सौभाग्यशाली होते हैं.
पर असहमत तो ऐसा नहीं था कि कोई उसकी मौजूदगी से बेखबर रहे. तो वो बोला और इस बार उसकी आवाज़ में उन बहुत सारे उपेक्षित छात्रों के दर्द भी शामिल थे जिनका रिसर्च वर्क प्रोफेसर साहब के अनुमोदन की राह देखते देखते युवा प्रेमिका से वयोवृद्ध पत्नी बन चुका था.
असहमत : सर,आपको पाठकों से नाराज होना शोभा नहीं देता क्योंकि ये सारे लोग आपको बहुत अच्छे से जानते हैं और जब आप इनको इतिहास पढ़ा रहे थे, तो यहां की सारी स्टूडेंट कम्युनिटी आपका इतिहास चटकारे ले लेकर कॉलेज केंटीन में शेयर किया करती थी. जहां तक साहित्य की बात हैं तो वक्त की नब्ज पहचानने वाले कुमार विश्वास, मनोज़ मुंतिजर, चेतन भगत आज के युवाओं के दिलों में बस चुके हैं.
ये सब सुनते ही, प्रोफेसर का रौद्र रूप देखकर असहमत के तोते उड़ गये और इसके पहले कि प्रोफेसर उसे पकड़ पाते वो ऐसी तेज़ गति से भागा जैसे साउथ सिविल लाईन के सारे कुत्ते उसका पीछा कर रहे हैं.??♂️??♂️??♂️
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ आलेख #88 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में (भोपाल एवं जबलपुर) – 4 ☆
गांधीजी का मध्यप्रदेश में छठवीं बार आगमन 1933 में हुआ और इस दौरान वे बालाघाट, सिवनी, छिंदवाड़ा, बैतूल,इटारसी सागर, दमोह, कटनी, जबलपुर, मंडला , सोहागपुर, बाबई, हरदा, खंडवा गए। गांधीजी ने 28 नवंबर 1933 से शुरू किए अपने इस दौरे में कुल सत्रह दिन मध्य प्रदेश में बिताए। इस हरिजन दौरे के दौरान उन्होंने अस्पृश्यता निर्मूलन और जातिगत ऊंच-नीच की भावना को समाप्त करने पर बल दिया। उनके दमोह और सागर दौरे की कुछ झलकियां निम्न हैं:-
“गांधीजी का दमोह आगमन – महात्मा गांधी रेहली तथा गढाकोटा होते हुए 2 दिसंबर,1933 को क्षेत्र के अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी पंडित जगन्नाथ प्रसाद पटैरिया शेवरले कार से दमोह पहुंचे। चुंगी नाके पर उनका स्वागत किया गया तथा उन्हें एक विशाल जूलूस में मुख्य बाजार ले जाया गया। दमोह में उनका अभूतपूर्व स्वागत किया गया, उनके सिर पर छत्र रखा गया, सड़कों पर अभ्रक डाला गया और पूरे रास्ते उन पर पुष्पवर्षा की गई। गांधीजी ने वर्तमान गांधी चौक में एक विशाल सभा को संबोधित किया,जहाँ झुन्नी लाल वर्मा द्वारा स्वागत भाषण दिया गया। अन्य स्थानों की भांति यहां भी उन्हें थैलियां भेंट की गयी। इस अवसर पर दमोह की यह विशेषता रही कि यहां ईसाईयों ने भी, जिनमें अंग्रेज भी शामिल थे, थैली प्रदान करी। इससे गांधीजी अत्यंत प्रसन्न हुये। बाद में उन्होंने हरिजनों के लिए एक बाल्मीकि गुरुद्वारे का भूमिपूजन किया था। इधर दमोह में आज जहां टोपी लेन है, वहां सैकड़ों टेलर मास्टर जमा थे। लोग गांधी टोपियां सिला रहे थे।
सागर :-“संसार के सर्वश्रेष्ठ महान पुरुष,त्यागी महात्मा गांधी का हृदय से स्वागत कीजिए” यह पंक्तियां उस आमंत्रण पत्र का हिस्सा हैं जो 1, 2 व 3 दिसंबर,1933 को बापू के सागर जिले के विभिन्न स्थानों के दौरे के लिए छापा गया था। बापू का कार्यक्रम मूलतः आज के देवरी विधानसभा क्षेत्र में स्थित अनंतपुरा गांव जाने के लिए बना था, जहां उन्हें एक नवयुवक जेठालाल द्वारा संचालित ‘खादी निवास’ नामक बुनकरों की बस्ती में चल रहे काम का निरीक्षण करना था। गांधीजी नरसिंहपुर जिले के करेलीरेलवे स्टेशन पर 1 दिसंबर 1933 उतरे और करेली और बरमान के कार्यक्रमों में हिस्सा लेते हुए वे कार से देवरी पहुंचे थे, जहां दलितों के बीच उन्होंने आधा घंटा बिताया और मुरलीधर मंदिर के कपाट हरिजनों के लिए खुलवा दिए। इसके बाद वे अनंतपुरा ग्राम में पूरा दिन और पूरी रात रुके। बाद में गांधीजी ने ‘अनंतपुरा में मैंने क्या देखा’ प्रसंशात्मक लेख लिखा, जो 15 दिसंबर 1933 के हरिजन में छपा।
गांधी का आगमन सागर के लिए बड़ी घटना थी। यहाँ भी उन्होंने कोरी समाज के मंदिर की नींव रखी। दलितों को जहां मंदिर प्रवेश में दिक्कतें थीं तो उनके खुद के पूजास्थल बनवाना भी उस समय क्रांतिकारी कदम था। गांधीजी ने गल्लामंडी प्रांगण की आमसभा को संबोधित किया और फिर इसी कार्यक्रम में गांधी अपने उपयोग की चीजें भी नीलाम कर हरिजन आंदोलन के लिए धन एकत्रित किया। बहुतों ने सामान खरीदा। कइयों ने सामान लिए बिना भी अपने गहने और रूपये गांधी जी को दे दिए।
गांधी यात्रा के कुछ संस्मरण :-
(i) गांधीजी जब रायपुर से बिलासपुर जा रहे थे तो रास्ते में एक वृद्धा मोटर के सामने खडी हो गयी और बोली की मरने के पहले वह गांधीजी के चरण धोकर पुष्प चढ़ाना चाहती है। गांधीजी ने हंसकर कहा कि इसके लिए वे एक रुपया लेंगे। वृद्धा के पास रुपया न था वह बोली मैं घर जाकर देखती हूँ शायद कुछ मिल जाय। आसपास खड़े लोगों ने उसे रुपया देना चाहा पर वह इसके लिए तैयार न हुई, गांधीजी ने भी हँसते हुए अपने चरण आगे बढ़ा वृद्धा की इच्छा पूरी की। बिलासपुर में गांधीजी की विशाल सभा शनिश्चरा पड़ाव पर हुयी। सभा की समाप्ति पर लोग चबूतरे की ईंट, पत्थर और मिटटी तक घर ले गए.
(ii) गांधीजी के बैतूल से इटारसी जा रहे थे। एक छोटे से स्टेशन ढोढरा पर रेल गाडी रुकी, बाहर अपार जनसमूह महात्मा गांधी की जय के नारे लगा रहा था। दीनता और गरीबी इतनी की आम जन के पास ठीक से तन ढकने को कपडे तक न थे। गांधीजी डिब्बे से बाहर आये, मनकीबाई नामक महिला ने उन्हे माला अर्पित की और गांधीजी को कुछ सिक्के यह कहते हुए दिए कि उसने गांव वालों से एक एक पैसा मांगकर एकत्रित किया है। गांधीजी ने इसे दरिद्रनारायण का प्रसाद मानते हुए ग्रहण किया.
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “लाल हथेली –”
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- १६ – भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
✈️ नाईलकाठची नवलाई ✈️
कैरोहून रात्रीच्या ट्रेनने सकाळी आस्वान इथे आलो. अबुसिंबल इथे जाण्यासाठी बरोबर अकरा वाजता सर्व गाड्या निघाल्या. त्याला Convoy असे म्हणतात. म्हणजे सशस्त्र सैनिकांची एक गाडी पुढे, मध्ये सर्व टुरिस्ट गाड्या, शेवटी परत सशस्त्र सैनिकांची गाडी. वाटेत कुठेही न थांबता हा प्रवास होतो व परतीचा प्रवासही याच पद्धतीने बरोबर चार वाजता सुरू होतो. तीन तासांच्या या प्रवासात दोन्ही बाजूला दृष्टी पोहोचेल तिथपर्यंत प्रचंड वाळवंट आहे. इथे रानटी टोळ्यांच्या आपापसात मारामाऱ्या चालतात आणि एकेकट्या प्रवासी गाडीवर हल्ला करून लुटीची शक्यताही असते. म्हणून ही काळजी घेतली जाते. अबूसिंबल हे सुदानच्या सीमेवरील ठिकाण आहे. रामसेस (द्वितीय) या राजाचे ६५ फूट उंचीचे सॅ॑डस्टोनमधील चार भव्य पुतळे सूर्याकडे तोंड करून या सीमेवर उभे आहेत. शेजारच्या डोंगरावर त्याची पत्नी नेफरतरी हिचे असेच दोन भव्य पुतळे आहेत. डोंगराच्या आतील भाग कोरून तिथे पन्नास- पन्नास फूट उंच भिंतीवर असंख्य चित्रे, मिरवणुका कोरलेल्या आहेत. सूर्याची प्रार्थना करणारी बबून माकडे,गाई, कोल्हे, पक्षी असे तरतऱ्हेचे कोरीव काम आहे. तसेच नुबिया या शेजारच्या राज्यातील सोन्याच्या खाणीतून आणलेले सोने साठविण्याची मोठी जागा आहे. चार हजार वर्षांपूर्वीचे हे सारे पुतळे, कोरीवकाम वाळूखाली गाडले गेले होते. बर्कहार्ड नावाच्या स्विस प्रवाशाने १८१३ मध्ये ते शोधून काढले. १९६४ मध्ये नाईलवर आस्वान धरण बांधण्याच्या वेळी हे सर्व पुन्हा पाण्याखाली बुडणार होते, पण मानवी प्रयत्नाला विज्ञानाची जोड दिली गेली. सर्व कोरीवकाम तुकड्या-तुकड्यानी कापून जवळ जवळ सातशे फूट मागे या प्रचंड शिळा वाहून आणल्या. त्या दोनशे फूट वर चढविल्या आणि जसे पूर्वीचे बांधकाम होते तसेच ते परत कोरड्या उंच जागेवर डोंगर तयार करून त्यात उभे केले. या कामासाठी चार वर्षे आणि १०० मिलियन डॉलर खर्च आला. धरणाच्या बॅकवॉटरचे ‘लेक नासेर’ हे जगातले सर्वात मोठे कृत्रिम सरोवर बांधण्यात आले. या सरोवराचा काही भाग सुदान मध्ये गेला आहे.
नाईल क्रूझमधून केलेला प्रवास खूप सुंदर होता. या क्रूझ म्हणजे पंचतारांकित तरंगती हॉटेल्सच आहेत. जवळजवळ दीडदोनशे लहान-मोठ्या क्रूझ, प्रवाशांची सतत वाहतूक करीत असतात. नदीचे पात्र इथे खूप रुंद नाही. स्वच्छ आकाश, प्रखर सूर्यप्रकाश आणि नाईलचा अविरत जीवनप्रवाह यावर वर्षातून तीन पिके घेतली जातात. नदीच्या दोन्ही तीरांवर केळी, ऊस, कापूस,भात, संत्री अशा हिरव्यागार बागायतीचा दोन-तीन मैल रुंदीचा पट्टा दिसतो. त्या पलिकडे नजर पोहोचेल तिथपर्यंत वाळवंट! नदीकाठी अधून मधून पॅपिरस नावाची कमळासारखे लांब देठ असलेली फुले होती. त्याची देठे बारीक कापून पाण्यात भिजवून त्याचा पेपर बनविला जातो.पूर्वी तो लिहिण्यासाठी वापरत असत. आता त्यावर सुंदर पेंटिंग्स काढली जातात. ३६४ फूट उंचीच्या आणि दोन मैल लांबीच्या आस्वानच्या प्रचंड धरणाच्या भिंतीवरून मोठा हायवे काढला आहे.सोव्हिएत युनियनच्या मदतीने हे सारे काम झाले आहे. तिथून छोट्या लॉ॑चने फिले आयलंडला गेलो. इथले देवालयही आस्वान धरणामध्ये बुडण्याचा धोका होता. आधुनिक तंत्रज्ञानाने व युनेस्कोच्या मदतीने हे देवालयही पाण्याच्या वर नवीन बेटावर उचलून ठेवले आहे. या देवळात इजिप्तशियन संस्कृती चिन्हांपासून ग्रीक, रोमन, ख्रिश्चन सारी शिल्पे आढळतात. इसिस म्हणजे दयेची देवता सर्वत्र कोरलेली दिसते. तिच्या हातात आयुष्याची किल्ली कोरलेली असते.
कोमओम्बो इथे क्रोकोडाइल गॉड व गॉड ऑफ फर्टिलिटीच्या मूर्ती आहेत. क्रोकोडाइलची ममीसुद्धा आहे. पन्नास-साठ फूट उंचीचे आणि दोन्ही कवेत न मावणारे ग्रॅनाईटचे प्रचंड खांब व त्यावरील संपूर्ण कोरीवकाम बघण्यासारखे आहे. एडफू इथे होरस गॉडचे देवालय आहे. आधीच्या देवालयाचे दगड वापरून, शंभर वर्षे बांधकाम करून हे देवालय उभारले आहे. त्याच्या वार्षिक उत्सवाची मिरवणूक भिंतीवर कोरलेली आहे.तसेच हॅथर देवता व ससाण्याचे तोंड असलेला होरस गॉड यांचे दरवर्षी लग्न करण्यात येत असे. त्याची मिरवणूक चित्रे भिंतीवर कोरली आहेत.
लक्झरला पोहोचण्यापूर्वी एसना(Esna) इथे बोटीला लॉकमधून जावे लागते. ती गंमत बघायला मिळाली. बोट धरणातून जाताना धरणाच्या खूप उंच भिंतीमुळे अडविलेले पाणी वरच्या पातळीवर असते. तिथून येताना बोट सहाजिकच त्या पातळीवर असते. नंतर धरणाच्या भिंतीवरून पाणी खूप खोल पडते. बोट एकदम खालच्या पातळीवर कशी जाणार? त्यासाठी दोन बोटी एकापाठोपाठ उभ्या राहतील एवढ्या जागेत पाणी अडविले आहे. दोन्ही बाजूचे दरवाजे बंद करून त्या लॉकमधले पाणी पंपांनी कमी करत करत धरणाच्या खालच्या पातळीवर आणतात. आपली बोट हळूहळू खाली जाताना समजते. नंतर पुढचे लॉक उघडले जाऊन दोन्ही बोटी अलगद एकापाठोपाठ एक धरणाच्या खालच्या पातळीवर प्रवेश करतात व पुढचा प्रवास सुरु होतो. त्याचवेळी समोरून आलेल्या बोटींनाही या लॉकमध्ये घेऊन लॉकमधले पाणी वाढवून बोटींना धरणाच्या पातळीवर सोडले जाते.