हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 99 ☆ याद जब कभी  भी….☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण रचना  “याद जब कभी  भी ….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 99 ☆

☆ याद जब कभी  भी …. ☆

 

न जाने किनके सर मुकद्दर आये

अपने हिस्से में  बस पत्थर  आये

 

याद जब कभी  भी आई  उनकी

दिल के हर जख्म फिर उभर आये

 

राह तकते रहे  हर सू हम जिनकी

वो  गैर  की  बाहों  में नजर  आये

 

राह में लुटते रहे रहज़न जब तक

तब तक न वहाँ कोई रहबर आये

 

चाह मंज़िल की रुकती है न कभी

राह में कैसे भी क्यों न मंजर आये

 

कत्ल किया था किसी और ने कभी

इल्जाम  लेकिन   हमारे  सर  आये

 

उगलता नफरती खून अखबारों में

मुहब्बत की भी “संतोष” खबर आये

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 104 – नाती जपूया ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 104 – विजय साहित्य ?

☆ नाती जपूया  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

 

आद्य गुरू मायबाप

स्थान त्यांचे अंतरात

नाती जपूया प्रेमाने

भावस्पर्शी काळजात …१

 

आज्जी आजोबा घराचे

सौख्य समृध्दी दालन

तत्त्वनिष्ठ संस्कारांचे

ध्येयवादी संकलन … २

 

काका, काकू, मामा,मामी

आत्या मावशीचा बोल

कधी धाक , कधी लाड

भावनांचा समतोल …३

 

मित्र मैत्रिणीचे नाते

काळजाचा गोतावळा

सुख दुःख समाधान

असे उरी कळवळा …४

 

नाते बंधु भगिनींचे

वैचारिक छत्रछाया

घास अडतसे ओठी

धावतसे प्रेममाया …  ५

 

नाते सहजीवनाचे

लेणे सासर माहेर

नाती जपूया प्रेमाने

देऊ काळीज आहेर…६

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! ☆ लक्ष्मी गेली सिंगापुरी, आली अन्नपूर्णा दारी ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

? लक्ष्मी गेली सिंगापुरी, आली अन्नपूर्णा दारी ! ??

“नमस्कार पंत !”

“नमस्कार, काहीही म्हण मोरू पण आजच्या तुझ्या नमस्कारात नेहमी सारखा उत्साह नाही !”

“म्हणजे काय पंत, मी नाही समजलो ?”

“अरे म्हणजे जुलमाचा राम राम कसा असतो ना, तसा वाटला आजचा तुझा नमस्कार आणि तुझा चेहरा पण  पडलेला दिसतोय !”

“पंत, सकाळी सकाळी बातमीच अशी कानावर आली, की मूडच गेला सगळा.”

“तू असा कोड्यात बोलणार आहेस का बातमी सांगणार आहेस ?”

“मला वाटलं आत्ता पर्यंत तुम्हाला ‘लक्ष्मी….’!”

“अरे मोरू, दिवाळी आली आणि गेली सुद्धा, तुझं ‘लक्ष्मी पूजन’ राहील असेल तर……”

“पंत, मी या दिवाळीत लक्ष्मी पूजन अगदी मुहूर्त साधून केलं आहे. मी बातमी सांगतोय ती ‘करूर’ काकांच्या ‘लक्ष्मी’ बद्दलची !”

“हां हां, ते ‘दक्षिण भारतातून’ आपल्याकडे

येवून बऱ्याच वर्षापासून

कुटुंबा सोबत राहतायत, तेच ना ?”

“हो हो, तेच ते !”

“त्यांच काय झालं मोरू ?”

“अहो त्यांची ‘लक्ष्मी’ पळून गेली ‘विलास’ बरोबर !”

“अरे बापरे, करूर काकांना शॉक बसला असेल ना ?”

“हो ना पंत !”

“पण मोरू कुठे पळाले असतील हे दोघे, तुला काही कल्पना ?”

“अहो, कल्पना कशाला करायच्या आपण, त्या दोघांनी  चक्क पेपरात बातमीच दिली आहे, की आम्ही दोघ आता ‘सिंगापूरला’ रहाणार आहोत म्हणून !”

“बापरे, मुलीच्या या अशा वागण्यापुढे आई बापावर काय प्रसंग आला असेल हे त्यांच त्यांनाच ठाऊक !”

“मी तेच म्हणतोय, भारतातलाच एखादा शोधला असता तिनं, तर नक्की मिळाला असता ‘करूरांच्या लक्ष्मीला.’ तशी रूपाने, अंगापिंडाने बरी होती की ती !”

“जाऊ दे रे मोरू, तू असा चेहरा पाडून बसू नकोस, ‘लक्ष्मीच्या’ नशिबात ‘सिंगापूर’ होत म्हणायचं आणि गप्प बसायचं ! शेवटी ‘लक्ष्मी’ कुणाचीही असो, ती चंचल असते हेच खरं !”

“हो ना पंत, आपल्या हातात तेवढंच आहे.”

“मोरू ‘लक्ष्मी’ सिंगापूरला गेली ठीक आहे पण आता तुला एक गोड बातमी देतो, म्हणजे तुझा गेलेला मूड थोडा तरी परत येईल !”

“कसली बातमी पंत ?”

“अरे आता आपली ‘अन्नपूर्णा’ परत येणार आहे आणि ती सुद्धा तब्बल शंभर वर्षांनी, त्यातच आनंद मानायचा झालं !”

“पंत, आता ही ‘अन्नपूर्णा’ कोणाची कोण आणि ती कुठून परत येणार आहे ?”

“म्हणजे तू पेपरातली ‘अन्नपूर्णेची’ बातमी वाचली नाहीस का ?”

“नाही पंत, कुठली बातमी ?”

“अरे मोरू, वाराणसीतील मंदिरातून १०० वर्षांपूर्वी चोरण्यात आलेली आणि कॅनडातील एका विद्यापीठाच्या कला दालनात ठेवण्यात आलेली ‘अन्नपूर्णा’ या हिंदू देवतेची मूर्ती, कॅनडातील संबंधित विद्यापीठ लवकरच भारताकडे सुपूर्द करणार आहे !”

“अरे व्वा पंत, खूपच चांगली बातमी दिलीत, ‘लक्ष्मी सिंगापुरी’ गेल्याच दुःख आहेच, पण शंभर वर्षांनी परत  येणाऱ्या ‘अन्नपूर्णेचे’ स्वागत करायला या तुमच्या बातमीने मनांत थोडा उत्साह संचारला आहे, हे नक्की ! धन्यवाद पंत !”

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 132 ☆ आलेख – हरीश नवल बजरिये अंतरताना ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय आलेख  ‘हरीश नवल बजरिये अंतरताना’ । इस विचारणीय आलेख  के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 132 ☆

? आलेख – हरीश नवल बजरिये अंतरताना ?

किसी भी व्यक्ति को जानने समझने के लिये अंतरताना यानी इंटरनेट आज वैश्विक सुलभ सबसे बढ़ियां संसाधन है. एक क्लिक पर गूगल सहित ढ़ेरो सर्च एंजिन व्यक्ति के विषय में अलग अलग लोगों के द्वारा समय समय पर पोस्ट किये गये समाचार, आलेख, चित्र,  वीडीयो, किताबें वगैरह वगैरह जानकारियां पल भर में स्क्रीन पर ले आते हैं. यह स्क्रीनीग बड़ी रोचक होती है. मैं तो कभी कभी स्वयं अपने आप को ही सर्च कर लेता हूं. कई बार स्वयं मेरी ही विस्मृत स्मृतियां देखकर प्रसन्नता होती है. अनेक बार तो अपनी ही रचनायें ऐसे अखबारों या पोर्टल पर पढ़ने मिल जाती हैं, जिनमें कभी मैने वह रचना भेजी ही नही होती. एक बार तो अपने लेख के अंश वाक्य सर्च किये और वह एक नामी न्यूज चैनल के पेज पर बिना मेरे नामोल्लेख के मिली. इंटरनेट के सर्च एंजिन्स की इसी क्षमता का उपयोग कर इन दिनो निजी संस्थान नौकरी देने से पहले उम्मीदवारों की जांच परख कर रहे हैं. मेरे जैसे माता पिता बच्चो की शादी तय करने से पहले भी इंटरनेट का सहारा लेते दिखते हैं.  अस्तु.

मैने हिन्दी में हरीश नवल लिखकर इंटरनेट के जरिये उन्हें जानने की छोटी सी कोशिश की. एक सेकेन्ड से भी कम समय में लगभग बारह लाख परिणाम मेरे सामने थे. वे फेसबुक, से लेकर विकीपीडीया तक यू ट्यूब से लेकर ई बुक्स तक, ब्लाग्स से लेकर समाचारों तक छाये हुये हैं. अलग अलग मुद्राओ में उनकी युवावस्था से अब तक की ढ़ेरों सौम्य छबियां देखने मिलीं. उनके इतने सारे व्यंग्य पढ़ने को उपलब्ध हैं कि पूरी रिसर्च संभव है. इंटरनेट ने आज अमरत्व का तत्व सुलभ कर दिया है.

बागपत के खरबूजे लिखकर युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले हरीश जी आज  व्यंग्य के परिपक्व मूर्धन्य विद्वान हैं. उन्हें साहित्य के संस्कार परिवार से विरासत में मिले हैं. उनकी शालीनता व शिष्‍टता उनके साहित्य व व्यक्‍तित्व की विशेषता है. उनसे फोन पर भी बातें कर हृदय प्रफुल्लित हो जाता है. वे इतनी सहजता और आत्मीयता से बातें करते हैं कि उनके विशाल साहित्यिक कद का अहसास ही नही होता. अपने लेखन में मुहावरे और लोकोक्‍तियों का रोचक तरीके से प्रयोग कर वे पाठक को बांधे रहते हैं.  वे माफिया जिंदाबाद कहने के मजेदार प्रयोग करने की क्षमता रखते हैं. पीली छत पर काला निशान, दिल्ली चढ़ी पहाड़, मादक पदार्थ, आधी छुट्टी की छुट्टी, दीनानाथ का हाथ, वाया पेरिस आया गांधीवाद, वीरगढ़ के वीर,  निराला की गली में जैसे टाइटिल ही उनकी व्यंग्य अभिव्यक्ति के परिचायक हैं.

प्रतिष्ठित हिन्दू कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहते हुये उन्होंने ऐसा अध्यापन किया है कि  उनके छात्र जीवन पर्यंत उन्हें भूल नही पाते. उन्होने शिक्षा के साथ साथ छात्रो को संस्कार दिये हैं औ उनके  व्यक्तित्व का रचनात्मक विकास किया है. अपने लेखन से उन्होने मेरे जैसे व्यक्तिगत रूप से नितांत अपरिचित पाठको का विशाल वैश्विक संसार रचा है.  डॉ. हरीश नवल बतौर स्तम्भकार इंडिया टुडे, नवभारत टाइम्स, दिल्ली प्रेस की पत्रिकाएँ, कल्पांत, राज-सरोकार तथा जनवाणी (मॉरीशस) से जुड़े रहें हैं. उन्होने इंडिया टुडे, माया, हिंद वार्ता, गगनांचल और सत्ताचक्र के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण काम किये हैं. वे एन.डी.टी.वी के हिन्दी प्रोग्रामिंग परामर्शदाता, आकाशवाणी दिल्ली के कार्यक्रम सलाहकार, बालमंच सलाहकार, जागृति मंच के मुख्य परामर्शदाता, विश्व युवा संगठन के अध्यक्ष, तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय सह-संयोजक पुरस्कार समिति तथा हिन्दी वार्ता के सलाहकार संपादक के पद पर सफलता पूर्वक काम कर चुके हैं.  वे अतिथि व्याख्याता के रुप में सोफिया वि.वि. बुल्गारिया तथा मुख्य परीक्षक के रूप में मॉरीशस विश्वविद्यालय (महात्मा गांधी संस्थान) से जुड़े रहे हैं. दुनियां के ५० से ज्यादा देशो की यात्राओ ने उनके अनुभव तथा अभिव्यक्ति को व्यापक बना दिया है. उनके इसी हिन्दी प्रेम व विशिष्ट व्यक्तित्व को पहचान कर स्व सुषमा स्वराज जी ने उन्हें ग्यारहवें विश्व हिन्दी सम्मेलन की पांच सदस्यीय आयोजक समिति का संयोजक मनोनीत किया था.  

हरीश जी ने आचार्य तुलसी के जीवन को गंभीरता से पढ़ा समझा और अपने उपन्यास रेतीले टीले का राजहंस में उतारा है.  जैन धर्म के अंतर्गत ‘तेरापंथ’ के उन्नायक आचार्य तुलसी भारत के एक ऐसे संत-शिरोमणि हैं, जिनका देश में अपने समय के धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक आदि विभिन्न क्षेत्रों पर गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है. आचार्य तुलसी का दर्शन, उनके जीवन-सूत्र, सामाजिक चेतना, युग-बोध, साहित्यिक अवदान और मार्मिक तथा प्रेरक प्रसंगों को हरीश जी ने इस कृति में प्रतिबिंबित किया है.  पाठक पृष्ठ-दर-पृष्ठ पढ़ते हुये आचार्य तुलसी के व्यक्तित्व और अवदान से परिचित होते हैं व आत्मोत्थान की राह ढ़ूंढ़ सकते हैं.

उनके लेखन में विविधता है. समीक्षात्मक लेख,  पटकथा लेखन, संपादन, निबंध लेखन, लघुकथा, व्यंग्य के हाफ लाइनर, जैसे प्रचुर प्रयोग, और हर विधा में श्रेष्ठ प्रदर्शन उन्हें विशिष्ट बनाता है. अपनी कला प्रेमी चित्रकार पत्नी व बेटियों के प्रति उनका प्यार उनकी फेसबुक में सहज ही पढ़ा जा सकता है. उन्हें यू ट्यूब के उनके साक्षात्कारो की श्रंखलाओ व प्रस्तुतियो में जीवंत देख सुन कर कोई भी कभी भी आनंदित हो सकता है. लेख की शब्द सीमा मुझे संकुचित कर रही है, जबकि वास्तविकता यह है कि “हरीश नवल बजरिये अंतरताना” पूरा एक रिसर्च पेपर बनाया जा सकता है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 98 – लघुकथा – प्रेम का सुख ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “प्रेम का सुख।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 98 ☆

☆ लघुकथा — प्रेम का सुख ☆ 

” इतनी खूबसूरत नौकरानी छोड़कर तू उसके साथ।”

” हां यार, वह मन से भी साथ देती है।”

” मगर तू तो खूबसूरती का दीवाना था।”

” हां। हूं तो?”

” तब यह क्यों नहीं,”  मित्र की आंखों में चमक आ गई, ” इसे एक बार……”

” नहीं यार। यह पतिव्रता है।”

” नौकरानी और पतिव्रता !”

” हां यार, शरीर का तो कोई भी उपभोग कर सकता है मगर जब तक मन साथ ना दे…..”

” अरे यार, तू कब से मनोवैज्ञानिक बन गया है?”

” जब से इसका संसर्ग किया है तभी समझ पाया हूं कि इसका शरीर प्राप्त किया जा सकता है, मगर प्रेम नहीं। वह तो इसके पति के साथ है और रहेगा।”

यह सुनकर मित्र चुप होकर उसे देखने लगा और नौकरानी पूरे तनमन से चुपचाप रसोई में अपना काम करने लगी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-08-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 79 ☆ जोड़ तोड़ की जद्दोजहद ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “जोड़ तोड़ की जद्दोजहद”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 79 – जोड़ तोड़ की जद्दोजहद 

लक्ष्य प्राप्ति के लिए आगे बढ़ते समय दो प्रश्न हमेशा ही मन में कौंधते हैं कि ऐसी क्या वजह है कि हम जोड़ने से ज्यादा तोड़ने पर विश्वास करते हैं। क्यों नहीं सकारात्मक कार्यों में जुट कर कुछ अच्छा व सार्थक करें पर नहीं हमें तो सब पर अपना आधिपत्य जमाना है सो हमारे हाथ में उन लोगों की लगाम कैसे आए यही चिंतन दिन रात चलता रहता है। ये भी अटल सत्य है कि जिस चीज को जी जान से चाहो वो तुरंत मिल जाती है पर क्या उसे पाने के बाद मन प्रसन्न होगा?

सबको साथ लेकर चलें, श्रेय लेने की कोशिश करने पर ही सारे विवाद सामने आते हैं। जब अपनी सोच एकदम स्पष्ट होगी तो विवाद का कोई प्रश्न नहीं उठेगा। गति और प्रगति के बीच की रेखा यदि स्पष्ट हो तो सार्थक परिणाम दिखाई देने लगते हैं। धीरे – धीरे ही सही जो लगातार चलता है वो विजेता अवश्य बनता है और यही तो उसके प्रगति की निशानी है। सबको साथ लेकर चलने पर जो आंनद अपनी उपलब्धियों पर मिलता है वो तोड़फोड़ करने पर नहीं आता। जो मजबूत है उसका सिक्का तो चलना ही है। बस नियत सच्ची हो तो वक्त बदलने पर भी प्रभाव कम नहीं होता है।

समझाइश लाल जी सबको समझाते हुये सारे कार्य करते और करवाते हैं किंतु जब उनकी बारी आती है तो समझदारी न जाने कहाँ तफरी करने चली जाती है। खुद के ऊपर बीतने पर क्रोध से लाल पीले होते हुए अनर्गल बातचीत पर उतर आते हैं। तब सारे नियमों को ध्वस्त करते हुए नयी कार्यकारिणी गठित कर लेते हैं। पुरानों को सबक सिखाने का ये अच्छा तरीका है।वैसे भी बोलने वालों  के  मुख पर लगाम कसना ही शासक का धर्म होता है। अनचाही चीजों को हटाने का नियम तो वास्तु शास्त्र में भी है। जो भी चीज अनुपयोगी हो उसे या तो किसी को दे दो या नष्ट कर देना चाहिए। कबाड़ कबाड़ी के पास ही शोभता है।

सबसे जरूरी बात ये है कि जब हम लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं तो रास्ते में बहुत सारे भ्रमित करने वाले चौराहे मिलते हैं किन्तु हमें लक्ष्य पर केंद्रित होते हुए सही दिशा को ही चुनना पड़ता है। भले ही वहाँ काँटे बिछे हों। चारो तरफ अपनी शक्ति को न बिखेरते हुए केवल और केवल लक्ष्य पर केंद्रित होना चाहिए। हाँ इतना जरूर है कि साधन और साध्य के चयन में ईमानदारी बरतें अन्यथा वक्त के मूल्यांकन का सामना करते समय आप पिछड़ जाएंगे। ये सब तो प्रपंच की बातें लगतीं हैं वास्तविकता यही है कि जहाँ स्वार्थ सिद्ध हो वहीं झुक कर समझौता कर लेना चाहिए। होता भी यही है, सारे दूरगामी निर्णय लाभ और हानि को ध्यान में रखकर किए जाते हैं ये बात अलग है कि वक्त के साथ व्यवहार बदलने लगता है आखिर मन का क्या है वो ऊबता बहुत जल्दी है और इसी जद्दोजहद में ऊट कब किस करवट बैठ जाए इसे केवल परिस्थिति ही तय करेगी।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 88 ☆ सतरंगी दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  “सतरंगी दोहे”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 88 ☆

☆ सतरंगी  दोहे ☆ 

परहित से बढ़कर नहीं, जग में कोई धर्म।

परपीड़ा में जो हँसें, है वह पाप अधर्म।।

 

मन को अच्छा जो लगे, वो ही करिए आप।

लेकिन ऐसा मत करो, जिसमें हो संताप।।

 

मानव जीवन सफल हो, ऐसा कर लें काम।

खुशबू फैले फूल – सी, सुखद मिले परिणाम।।

 

जंगल में मंगल करें, प्रेम प्रीत श्रीराम।

जो सुमिरें भगवान को, बिगड़े बनते काम।।

 

योग करें मित्रो सदा, देता शुभ परिणाम।

तन – मन आनन्दित रहे, नहीं लगें कुछ दाम।।

 

कोरोना ने डस लिए, लाखों – लाखों प्राण।

श्रद्धा अर्पित मैं करूँ, ईश्वर कर कल्याण।।

 

निज कर्मों से हैं दुखी, रोग बढ़ाएं, क्लेश।

मानव रूपी जीव के, सर्पों के से वेश।।

 

कर्तव्यों से हैं विमुख, गया शील, व्यवहार ।

खड़ा – खड़ा नित देखता , कलियुग का संसार।।

 

डर से जीवन न चले, करें नित्य संघर्ष।

भेद मिटाएँ आपसी, करिए सदा विमर्श।।

 

तू – तू मैं – मैं त्यागिए , होगी शक्ति विनष्ट।

चैन छिने, दुख भी बढ़ें, बढ़ें सभी के कष्ट।।

 

रोना – धोना छोड़िए, मन करिए अनुकूल।

ईश्वर ने तो लिख दिए, मूल, शूल औ फूल।।

 

मुझमें निरी बुराइयाँ ,खोज रहा नित यार।

कोशिश मैं करता रहा, बाँटू जग में प्यार।।

 

चलता ही चलता चले, सुख – दुख यह मेल।

कभी पास हम हो गए , और कभी हम फेल।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 90 – गोष्ट..! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

? साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #90 ?

☆ गोष्ट..! ☆

 

माझा बाप

माझ्या लेकरांना मांडीवर घेऊन 

गावकडच्या शेतातल्या खूप गोष्टी सांगतो..

तेव्हा माझी लेकरं

माझ्या बापाकड हट्ट करतात

राजा राणीची नाहीतर परीची 

गोष्ट सांगा म्हणून तेव्हा..

बाप माझ्याकडं आणि मी बापाकड 

एकटक पहात राहतो

मला…

कळत नाही लेकरांना

कसं सांगाव 

की राजा राणीची आणि परीची 

गोष्ट सांगायला 

माझ्या बापान कधी अशी स्वप्न

पाहिलीच नाहीत..,

त्यान..

स्वप्न पाहिली ती फक्त..

शेतातल्या मातीची

पेरणीनंतरच्या पावसाची..,

त्याच्या लेखी 

नांगर म्हणजेच राजा 

अन् माती म्हणजेच राणी 

मातीत डोलणारी पिक म्हणजेच

त्यान जिवापाड जपलेली परी…,

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #110 – कविता – सहमी गौरैया बैठी है….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं समसामयिक विषय पर एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कविता  “सहमी गौरैया बैठी है…..”। )

☆  तन्मय साहित्य  #110 ☆

☆ कविता – सहमी गौरैया बैठी है…..

(एक प्रयोग – न्यूज पेपर पढ़ते हुए बनी एक अखबारी कविता)

कॉन्फ्रेंस कौवों की मची हुई है

काँव-काँव की धूम

सहमी गौरैया बैठी है

एक तरफ होकर गुमसूम।

 

एक ओर सब्सिडी वाला

चालू है गिद्धों का भोज

बोनी-टोनी, ऊसी-पूसी

ताके-झाँके डगियन फ़ौज,

शाख-शाख पर रंग बदलते

गिरगिटिया नजरें मासूम

सहमी गौरैया बैठी है

मन मसोस होकर गुमसूम।

 

तोतों की है बंद पेंशन

बाजों के अपने कानून

निरीह कपोतों की गर्दन पर

इनके हैं निर्मम नाखून,

इधर बिके बिन मोल पसीना

उधर निकम्मों को परफ्यूम

सहमी गौरैया बैठी है

मन मसोस होकर गुमसूम।

 

जन सेवक बनकर शृगाल

जंगल में डोंडी पीट रहे

अमन-चैन में है जंगल अब

हँसी-खुशी दिन बीत रहे,

चकित शेर है देख, भेड़ियों के

सिर पर चंदन कुंकूम

सहमी गौरैया बैठी है

मन मसोस होकर गुमसूम।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

बेरोजगारी की लंबी रात के बाद उम्मीद की रोशनी की किरण नजर आई जब असहमत को एक प्राइवेट कंपनी में sales executive के लिये इंटरव्यू कॉल आया. परिवार के लोग खुश थे और असहमत पर बिन मांगी सलाहों की बौछार कर दी. असहमत अपने स्वभाववश उन्हें नजरअंदाज करता गया.  ऐसे समय पर जो भारतीय मातायें होती हैं वे वही करती हैं जो उनसे अपेक्षित होता है याने भगवान से प्रार्थना उनकी संतान की सफलता के लिये और I promise to pay की तर्ज पर सफल परिणाम आने के बाद मंदिर में लड्डू रूपी प्रसाद चढ़ाना.  जहाँ तक इंटरव्यू के लिये ड्रेस का सवाल था तो कोट का मौसम नहीं था तो उसे प्लेन लाईट कलर शर्ट, टाई, डार्क कलर पैंटऔर ब्लेक लेदर शूज़ पहनने के निर्देश दिये गये पिताजी की तरफ से.  पर जब असहमत इंटरव्यू देने कंपनी के ऑफिस पहुंचा तो उसने गर्मी के हिसाब से हॉफ शर्ट, लाईट कलर पेंट और बहुत लाइट वेट स्पोर्टिंग शूज़ पहन रखे थे.  कंठलंगोट याने टाई गायब थी पर असहमत इस लुक में बहुत सहज महसूस कर रहा था.  ऑटो से आने के कारण धूल और गर्म हवा से बचाव होना उसके मूड को खुश कर गया और हॉल में बैठे अनेक कैंडीडेट्स के साथ वो भी वेटिंग हॉल में बैठ गया. कंपनी के बारे में, पैकेज़ के बारे में और अनुमानित काम के बारे में लोग अपने अपने प्वाइंट रख रहे थे और असहमत ये सब सुनकर सिर्फ अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था.  

आखिरकार उसका नंबर आ ही गया और वो उस चैंबर के बाहर खड़ा हो गया. जैसे ही कॉलबेल बजी, बाहर बैठे स्टॉफ ने उसे अंदर जाने का इशारा किया और असहमत धड़ाक से अंदर घुस गया.  उसके इस बैकग्राउंड साउंड के साथ प्रवेश ने साक्षात्कार बोर्ड के सदस्यों का ध्यानाकर्षित किया जो इंटरव्यू देकर गये व्यक्ति के बारे में डिस्कस कर रहे थे.  “कॉफी बाद में लाना पहले नेक्सट कैंडिडेट को भेज दो” ये सब शायद असहमत के पहनावा या प्रवेश प्रक्रिया का असर था जिससे असहमत बेअसर रहा और उसने निर्विकार रूप और निडरता से जवाब दिया “I am the one to be interviewed and I don’t mind to be interviewed on a cup of coffee”. ऐसा बंदा पाकर पूरा बोर्ड निहाल हो गया.  

यहां पर जो बोर्ड के ऑफीसर सवाल पूछेंगे, उन्हें अधि.  के नाम से लिखा जायेगा और असहमत का शार्ट फार्म अस.  लिखा जायेगा.

अधि.  You came here for an interview, not for a coffee and you should ask for permission to come in.

अस. May I take my seat and we can discuss such petty issues later.

अधि.Yes you can sit but mind your selection of words, it is an interview not a discussion with a high profile guest.

अस. Thanks and sorry for a seat and my selection of words. Now my answers will be “to the point and logical “

अधि.  What you are wearing is not fit to the occasion, you should wear formals.

असहमत :  My dress is neither formal nor casual but it is seasonal, I mean comfortable. Now let us come to the point if you don’t mind it Sir.

असहमत का ये इंटरव्यू शायद इतिहास में अपना अलग स्थान बनाने जा रहा था हालांकि जॉब मिलने की उम्मीद का ग्राफ हर जवाब के साथ नीचे जा रहा था.

बोर्ड के अधिकारियों की सोच बहुत पॉजीटिव थी और असहमत का व्यक्तित्व उन्हें चुनौती दे रहा था तो उन्होंने इस इंटरव्यू को अपने लिये एक चैलेंज माना कि ये अदना सा लड़का बोर्ड के सामने इस तरह की हिमाकत कैसे कर सकता है.

अधि. आपका नाम

अस.असहमत

अधि.पूरा नाम

अस.  यही है, घर, स्कूल, कॉलेज और अगर सफल हुआ तो ऑफिस में भी

अधि.  And do you think that your attitude of this size will get you a seat in our company.

अस.  Why not sir, my designation will be sales executive and attitude plays an important role in the field of marketing.

अधि.  How???

असहमत  People ie. my targeted hub will not be impressed by a meek and submissive personality. I will impress them to think out of box and take a innovative decision to invest in my product.

शायद बोर्ड के लिये ये बंदा असहमत नहीं बल्कि अनपेक्षित लगा तो दूसरे अधिकारी ने बॉलिंग का जिम्मा संभाला और बाउंसर डाली

अधि.  “Why you choose this company for employment “

अस. Because I got this interview call from your company only and I don’t have any other options.

अधि.  And why you think that we should select you when we have so many options.

असहमत: I know you have many but I am talented, fearless person with so many new ideas and believes in experimenting with my approach. This attitude may cost me some times but I am confident that gathering of you great people here is to select right and best person for the task.

पानी बोर्ड के सर से ऊपर जा रहा था पर ये पारंपरिक इंटरव्यू बोर्ड नहीं था बल्कि सदस्य भी नयेपन को खोज़ रहे थे तो बॉलिंग का जिम्मा तीसरे सदस्य को दिया गया.  

अधि.  : अच्छा मि. असहमत ये बतलाइये कि अगर आपके सेल्स प्रमोशन में आपकी स्पर्द्धा अमिताभ बच्चन, रनबीर, दीपिका और रणधीर से हो हालांकि ऐसा होगा तो बिल्कुल नहीं पर फिर भी अगर ऐसा हो  ही गया तो आप अपना प्रोडक्ट कैसे प्रमोट करेंगे.  

असहमत : ये तो कोई चैलेंज ही नहीं है  सर, पहले सज्जन एक वॉशिंग पाउडर का, दूसरा couple टॉयलेट सीट पर खड़ा होकर एक मोबाइल नेटवर्क और सिम का और तीसरा बंदा एक अल्टिमा पेंट से सजे घर के दम पर लड़कियों को शादी के लिये रिझाता है जो कि पूरी तरह अविश्वसनीय और illogical है.  इनके अलावा एक महाशय के डॉलर अंडरवियर पर कस्टम ऑफीसर अपना रोल या ड्यूटी भूल जाती है.  लोग इसे क्रिकेट मैच के दौरान या वैसे भी बार बार देखकर देखकर पक चुके हैं.  तो वो तो खीज़कर इनके प्रोडक्ट के अलावा दुनियां का हर प्रोडक्ट इस्तेमाल करने को तैयार हैं.  इनकी टैग लाइनें भी क्रिकेट की बॉल से ज्यादा घिस गई हैं जो न तो स्विंग हो रही हैं न ही स्पिन.  तो जनता न तो इनकी बातों पर विश्वास करती है और न ही इस्तेमाल करती है.  

इस जवाब से लाजवाब होकर और जब किसी प्रश्न पूछने का औचित्य बोर्ड को नजर नहीं आया तो असहमत को इंटरव्यू खत्म होने और जाने का आदेश मिला. लेकिन ये तो असहमत था आखिर बाहर जाते हुये पूछ ही लिया कि “Shall I presume my self selected for the company Sir.  

जवाब बोर्ड के चेयरमैन ने दिया ” आपने इस इंटरव्यू को एक रियल्टी शो जैसा लिया है इस बात की हम सबको बहुत खुशी है, मज़ा भी बहुत आया पर फैसला भी रियल्टी शो की तरह से ही होगा याने हम जज लोग तो डिसाइड कर चुके हैं पर पब्लिक आपको वोट कितना करती है, ये भी मैटर करेगा.  

तो पब्लिक ये डिसाइड करे कि असहमत इस जॉब के लिये select होना चाहिए या reject. Like का मतलब भी सिलेक्टे ही माना जायेगा. Pl. disclose your opinion and vote for Asahmat.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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