हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #87 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में (भोपाल एवं जबलपुर) – 3 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में  के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #87 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में (भोपाल एवं जबलपुर) – 3 ☆ 

भोपाल :- वर्तमान मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में गांधीजी अपने तीन दिवसीय प्रवास पर  सितंबर 1929 में रियासत के नवाब हमीदुल्ला खान के आमंत्रण पर पधारे। भोपाल में एक आमसभा बेनज़ीर मैदान में आयोजित की गई और यहां  गांधीजी का सावर्जनिक अभिनंदन किया गया। गांधीजी नवाब की सादगी भारी जीवन शैली से प्रभावित हुए और इसकी प्रसंशा उन्होंने आम सभा में भी की।  गांधीजी ने अपने भाषण में कहा कि “ देशी लोग भी यदि पूरी तरह प्रयत्नशील हों तो देश में रामराज्य की स्थापना की जा सकती है।  रामराज्य का अर्थ हिन्दू राज्य नहीं वरन यह ईश्वर का राज्य है। मेरे लिए राम और रहीम में कोई अंतर नहीं है। मैं सत्य और अहिंसा से परे किसी ईश्वर को नहीं जानता। मेरे आदर्श राम की हस्ती इतिहास में हो या न हो, मुझे इसकी परवाह नहीं। मेरे लिए यही काफी है कि हमारे  रामराज्य का प्राचीन आदर्श शुद्धतम  प्रजातन्त्र का आदर्श है। उस प्रजातन्त्र में गरीब से गरीब रैयत को भी शीघ्र और बिना किसी व्यय के न्याय मिल सकता था। “

गांधीजी ने यहां  भी अस्पृश्यता निवारण की अपील की और हिन्दू मुस्लिम एकता पर जोर दिया और अजमल जामिया कोष  के लिए लोगों से चन्दा देने की अपील की। गांधीजी को भोपाल की जनता ने खादी के कार्य के लिए रुपये 1035/- की थैली भेंट की। उन्होंने मारवाड़ी रोड स्थित खादी भंडार का अवलोकन किया।

उसी दिन 11 सितंबर 1929  की शाम को राहत मंजिल प्रांगण में सर्वधर्म प्रार्थना सभा का आयोजन हुआ और इसमें भोपाल के नवाब अपने अधिकारियों के साथ न केवल सम्मिलित हुए वरन फर्श पर  घुटने टेक कर प्रार्थना सुनते रहे। गांधीजी ने लौटते समय सांची के बौद्ध स्तूप देखने गए और वहां से आगरा चले गए.

जबलपुर :- महाकौशल के सबसे बड़े नगर, मध्यप्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर, देश के उन  चंद शहरों में शामिल है, जिसे गांधीजी का स्वागत करने का अवसर चार बार मिला। गांधीजी पहली बार जबलपुर 21 मार्च 1921 को पधारे। जबलपुर से उन्हे कलकत्ता जाना था और उस दिन सोमवार था , गांधीजी का पवित्र दिन यानि  मौन व्रत, इसीलिए कोई आमसभा तो नहीं हुई पर उन्होंने सी एफ एंड्रयूज़ को जो पत्र लिखा उसमें मद्यपान और सादगी से रहने की उनकी सलाह पर लोगों के द्वारा अमल किए जाने की बात कही। गांधीजी का प्रभाव था कि  लोग मद्य व अफीम के व्यापार को समाप्त कर देना चाहते थे पर सरकार उनके इन प्रयासों को विफल करने में लगी थी ऐसा उल्लेख इस पत्र में उन्होंने किया। इस दौरान गांधीजी के साथ उनकी नई शिष्या मीरा बहन भी आई थी और वे खजांची चौक स्थित श्याम सुंदर दास भार्गव की कोठी में ठहरे थे.

दूसरी बार गांधीजी देश व्यापी हरिजन दौरे के समय,  सागर से रेल मार्ग से कटनी और फिर सड़क मार्ग से स्लीमनाबाद, सिहोरा, गोसलपुर, पनागर होते हुए, जहां आम जनता ने जगह जगह उनका भव्य स्वागत किया, जबलपुर दिनांक 03 दिसंबर 1933 को पधारे और साठियां कुआं स्थित व्योहार राजेन्द्र सिंह के घर ठहरे। जब गांधीजी का मोटर काफिला जबलपुर पहुंचा तो रास्ते में भारी भीड़ उनके दर्शन के लिए जमा थी और इस कारण गांधीजी को निवास स्थल तक पहुंचने  के लिए मोटरकार से उतरकर कुछ दूर पैदल चलना पड़ा था। यहां उनके अनेक कार्यक्रम हुए। शाम को  गोलबाज़ार के मैदान में आयोजित एक आमसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ‘यदि ऊंच नीच के  भेद को समूल नष्ट कर देने का यह प्रयत्न सफल हो जाता है तो जीवन के सभी क्षेत्रों में इसकी स्वस्थ प्रतिक्रिया होगी और पूंजी व श्रम के बीच की लड़ाई खत्म हो जाएगी और इसके स्थान पर दोनों में सहयोग और एकता स्थापित हो जाएगी। उन्होंने कहा कि यदि हम  हिन्दू धर्म से अस्पृश्यता समाप्त करने में सफल हो जाते हैं तो आज भारत में हम जो वर्गों और संप्रदायों के बीच लड़ाई देख रहे हैं वह खत्म हो जाएगी। हिन्दू और मुसलमान के बीच तथा पूंजी और श्रम के बीच का मतभेद समाप्त हो जाएगा।‘ धार्मिक आंदोलनों की विवेचना करते हुए गांधीजी ने कहा कि ‘धार्मिक आंदोलनों की विशेषता यही है कि आने वाली सारी बाधाएं  ईश्वर की कृपा  से दूर हो जाती हैं।‘  गांधीजी को नगर की अनेक सार्वजनिक संस्थाओं और नेशनल ब्वायज स्काउट ने अभिनंदन पत्र भेंट किया और गांधीजी ने सभी सच्चे स्काऊटों को आशीर्वाद दिया। 4 दिसंबर को गांधीजी का पवित्र दिन मौन दिवस था इस दिन उन्होंने अपने अनेक साथियों को पत्र लिखे। लगातार दौरे के कारण गांधीजी को कमजोरी महसूस हो रही थी अत:  उनके चिकित्सक डाक्टर अंसारी द्वारा विश्राम की सलाह दी गई और हरिजन दौरे के आयोजकों को परामर्श दिया गया कि आगे के दौरों में एक दिन में अधिकतम चार घंटे का ही कार्यक्रम रखा जाए, बाकी समय आराम के लिए छोड़ दिया जाए। जबलपुर के गुजराती समाज ने गांधीजी के हरिजन कोष  हेतु रुपये छह हजार का दान दिया।

06 दिसंबर 1933 को गांधीजी ने मंडला में एक सभा को संबोधित  करते हुए कहा कि मैं चाहता हूं कि आप अपने  विश्वास पर तो सच्चे रहें और यदि इस मामले में (अस्पृश्यता के लिए) आप मुझसे सहमत नहीं हैं तो मुझे ठुकरा दें। ‘ लौटते समय वे नारायांगंज में रुके भाषण दिया, एक हरिजन के निवास पर भी गए। (ऐसा उल्लेख मेरे मित्र जय प्रकाश पांडे ने अपनी एक कहानी में किया है।)

07 दिसंबर 1933 को अपने जबलपुर प्रवास के अंतिम दिन गांधीजी ने हितकारिणी हाई स्कूल में आयोजित महिलाओं की सभा को संबोधित किया। इसके बाद गांधीजी खादी भंडार, और वहां से जवाहरगंज और गोरखपुर गए, गलगला में हरिजनों की सभा को संबोधित किया  और सदर बाजार स्थित दो मंदिरों के द्वार  हरिजन प्रवेश हेतु खुलवाए।  गांधीजी ने लिओनार्ड थिओलाजिकल कालेज में एक सभा को संबोधित किया और कहा कि ‘मैं संसार के महान धर्मों की समानता में विश्वास करता हूं और मैंने शुरू से ही दूसरे धर्मों को अपना धर्म समझना सीखा है, इसीलिए इस आंदोलन में (अस्पृश्यता के लिए)  शामिल होने के लिए दूसरे धर्मों के अनुयाईओं को आमंत्रित करने और उनका सहयोग लेने में कोई कठिनाई नहीं है। ‘ गांधीजी ने उपस्थित लोगों से अपील की कि वे हरिजन सेवक संघ के माध्यम से हरिजनों की सेवा करें और यदि वे उनका धर्म परिवर्तन कर उन्हे ईसाई बनाएंगे तो अस्पृश्यता निवारण के लक्ष्य में हम लोग  असफल हो जाएंगे।  उन्होंने ईसाइयों से कहा कि यदि आपके मन में यह विश्वास है कि हिन्दू धर्म ईश्वर की देन  न होकर शैतान की देन  है तो आप हमारी मदद नहीं कर सकते  और मैं ईमानदारी से आपकी मदद की आकांक्षा भी नहीं कर सकता।‘        

इस दौरे के बाद आठ वर्षों तक उनका जबलपुर प्रवास नहीं हुआ और 27 फरवरी 1941 को इलाहाबाद में कमला नेहरू स्मृति चिकित्सालय का उद्घाटन करने जाते समय वे अल्प काल के लिए जबलपुर में रुके और भेड़ाघाट के भ्रमण पर गए।

अगले वर्ष 1942 पुन: उनका जबलपुर में अल्प प्रवास हुआ और मदनमहल स्थित द्वारका प्रसाद मिश्रा के घर पर रुककर उन्होंने स्थानीय काँग्रेसियों से व्यापक विचार विमर्श किया। उनके आगमन की तिथि पर कुछ मतभेद हैं। कुछ स्थानों पर इस तिथि को 27 अप्रैल 1942 बताया गया है। इस दौरान अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक इलाहाबाद में हुई थी पर गांधीजी उस बैठक में स्वयं शामिल नहीं हुए थे।  उन्होंने इस बैठक में अपने विचार एक पत्र के माध्यम से मीरा बहन के माध्यम से भिजवाए थे। बाद में वे 9 अगस्त 1942 से 06 मई 1944 तक आगा खान पैलेस में नजरबंद रहे। गांधीजी 20 जनवरी 1942 को वर्धा से बनारस गए थे संभवतया इसी दौरान वे जबलपुर अल्प समय के लिए रुके होंगे.

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 3 – जो मैं बाग़वां होती — ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “जो मैं बाग़वां होती –” 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 3 ✒️

? गीत – जो मैं बाग़वां होती —  डॉ. सलमा जमाल ?

जो मैं बाग़वां होती ,

तो गु्ल्शन को महका देती ।

मनाते जश्न धरती पुत्र ,

खेतों को लहका देती ।।

 

कभी महफ़िल , तो अकेले ,

हर दिन सुख-दुख के झमेले ,

कभी बसंत , कभी पतझड़ ,

हंसने – रोने के मेले ,

सभी जंगल हरे रखती ,

पलाश हर सू दहका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

झील – झरने और नदियां ,

उन्हें बहते गुज़रीं सदियां ,

बातें पेड़ों – पहाड़ों की ,

साग़र – लहरों की बतियां ,

बिना किसी जाम मीना के ,

क़ायनात बहका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

पीते शेर , भेड़ , बकरी ,

मिलकर इक घाट पे पानी ,

पुरुष पाते देवत्व को ,

नारीं होतीं महारानी ,

फ़रिश्ता बनके ज़मीं पर ,

जन्नत को दमका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

अंधेरी रात अमावस्या ,

ऋषि-मुनियों की तपस्या ,

बैठे वीरान मरघट पे ,

लेकर अघोरी समस्या ,

गर मैं चांद – तारे होती ,

रातों को चमका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

होती बग़िया की माली ,

लगाती फूलों की डाली ,

सहेजती गुल को हाथों से ,

और कांटों की रखवाली ,

तराना छेड़ती ‘ सलमा ‘

परिंदों को चहका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ सरदार पेठ – शिरूर घोडनदी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? मनमंजुषेतून ?

☆ सरदार पेठ – शिरूर घोडनदी ☆

आम्ही पुणं सोडून शिरूर घोडनदी या तालुक्याच्या ठिकाणी नवीन बि-हाड केलं ! शिरूर मधे आमचे नातेवाईक- बाबासाहेब पवार रहात होते, खरं तर ते देवासचे सरदार पवार,आजोबांची बहिण (माँसाहेब) बाबासाहेब पवारांच्या वडिलांची सावत्र आई ! त्यांच्याच गावात पिंपरी दुमाला येथे आम्ही स्थायिक झालो होतो. त्यांनीच आम्हाला शिरूरला भाड्याचं घर बघून दिलं, ते जिथे रहात होते ते घर सोडून दुसरं घर !

पवारांचं घर मोठं आणि प्रशस्त होतं. दोन मजली स्वतंत्र वाडा, पवार काकींचं व्यक्तिमत्व सरंजामदारणीसारखंच रूबाबदार होतं !त्यांच्या घरातलं वातावरण आणि राहणीमान उच्चभ्रू होतं !

त्यांनी आम्हाला दाखवलेलं घर पलिकडच्या वाड्यात वरच्या मजल्यावर होतं. घर छान होतं.   आमचं ते घर सरदार पेठेत होतं, पण येण्याजाण्याचा रस्ता पाठीमागच्या बाजूने होता ते गैरसोयीचं वाटे. तिथे आम्ही चार पाच महिनेच राहिलो. त्या घराच्या समोरच एक दोन मजली घर होतं. त्या घराची मालकीण मुस्लिम होती, ती मुंबईला रहात होती….त्या घरात कोणीच रहात नसल्यामुळे त्या घराला “भूतबंगला” म्हणत. पण आईला ते घर आवडलं आणि आम्ही त्या चार खोल्यांच्या  प्रशस्त घरात रहायला गेलो. कुणीही शेजार पाजार नसलेला तो एक स्वतंत्र बंगलाच होता. पाठीमागे छोटंसं अंगणही होतं. आम्ही विद्याधाम प्रशाला या शाळेत जात होतो. मी सातवी अ मधे प्रवेश घेतला तेव्हा पहिल्याच दिवशी माझी राणी गायकवाड नावाच्या मुलीशी ओळख झाली. लता रजपूत, संजीवनी कळसकर, चित्रा कुलकर्णी,मंगल पंढरपूरे, सुनंदा बेलावडे, माधुरी तिळवणकर, पुढे आठवीत फैमिदा शेख, सरस बोरा, उज्वल, निर्मल या वर्गातल्या  मुली होत्या. ती शाळा मला खुप आवडली. मी पहिली कविता आठवीत असताना लिहिली- हस्तलिखित नियतकालिकासाठी !

माझी धाकटी बहीण खूप हुषार होती, तिने पहिला नंबर कधीच सोडला नाही. 

आम्ही तीन सख्खी, तीन चुलत भावंडे अशी सहा मुलं, आई आणि आमच्या गावाकडच्या एक काकी आईला सोबत म्हणून आलेल्या. त्या एकट्याच होत्या, पती लवकरच वारले, एकुलत्या एक मुलीचं लग्न झालं होतं, त्यामुळे बरीच वर्षे काकी आमच्याकडेच राहिल्या ! त्या पहाटे उठून बंब पेटवत आणि सगळ्यांच्या आंघोळी होईपर्यंत बंबावर लक्ष देत. त्यांनी आईला स्वयंपाकघरात कधीच मदत केली नाही. त्यांना स्वयंपाक येत नव्हता की करायला आवडत नव्हता माहीत नाही पण तशी ती खूप तडफदार बाई होती. पूर्वी त्या वडनेरहून पिंपरीला घोड्यावर बसून येत. आम्ही त्यांना वडनेरच्या काकी म्हणत असू. माझे आजोबाही जवळपासच्या गावात, शेतावर घोड्यावर बसूनच जात ! ह्या काकी म्हणजे आजोबांच्या चुलतभावाची सून !

आमच्या त्या “भूतबंगला” घरात आम्ही एक वर्ष राहिलो. मला ते घर खूपच आवडायचं. पण आमच्याकडे पहिलवान असलेला वडिलांचा मामेभाऊ आला होता. रात्री झोपेत तो खूप जोरात ओरडला.  आम्ही सगळे जागे झालो, “या घरात भुताटकी आहे, कुणीतरी अज्ञात शक्तिने माझा हात ओढला ” असं तो म्हणाला !

नंतर काही दिवसांनी आम्ही ते घर सोडलं आणि थोडं पुढे भूविकास बँकेशेजारी बरमेचा निवास मधे रहायला गेलो. हे ही घर बरंच मोठं होतं ! सरदार पेठेत तीन घरं बदलल्यानंतर वडिलांनी छत्रपती सोसायटीत बंगला बांधण्यासाठी प्लाॅट विकत घेतला !

शिरूरमध्ये वडिलांची पत प्रतिष्ठा होती. सगळे त्यांना बाजीरावशेठ म्हणत !तीन दुकानात आमची खाती होती आणि तिथून कुठलीही वस्तू आणायची आम्हाला मुभा होती.

शिरूर या शहराला माझ्या आयुष्यात खूप महत्वाचे स्थान आहे. माझी जडणघडण शिरूरमध्येच झाली, शिरूरमध्ये रेडिओ ऐकायचं वेड लागलं, वाचनाची आवड निर्माण झाली. खूप सिनेमा पाहिले. राणी गायकवाड ही खूप जिवाभावाची मैत्रीण मिळाली…. वडनेरच्या काकी, गावाकडून आणलेली कली ही कामवाली पोरगी, जना मोलकरीण या सा-यांना माझ्या आईनं मोठ्या हिकमतीनं सांभाळलं. आई नेहमी आजारी असायची पण रोजचा स्वयंपाक कधीच टाळला नाही, सुगरणच होती ! तिनं आम्हाला खूप आरामशीर सुखवस्तू आयुष्य जगू दिलं !

खंत एकच– शिरूरमधे मला काॅलेज अर्धवट सोडावं लागलं, तो जो “हादरा” मला बसला,, त्यामुळे मी खूप निराशावादी कविता केल्या. 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 10 – सकारात्मकता को खोजें … ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है सजल “सकारात्मकता को खोजें… । अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 10 – सकारात्मकता को खोजें…  ☆ 

सजल

समांत- आरों

पदांत- – की

मात्राभार- 16

 

खोई रौनक बाजारों की।

प्लेटें रूठीं ज्योनारों की।।

 

घोड़े पर दूल्हा है बैठा,

किस्मत फूटी इन क्वारों की।

 

सब पर कानूनी पाबंदी,

भूल गए हैं मनुहारों की।

 

मिलना जुलना नहीं रहा अब,

लगी लगामें सरकारों की।

 

करोना के जाल में उलझी,

नहीं गूँज अब जयकारों की।

 

संकट में भी बढ़ी दूरियाँ,

हालत बुरी है दीवारों की।

 

जन्म-मरण संस्कार गुम गए,

घटी रौनकें त्योहारों की ।

 

साँसों की अब बढ़ी किल्लतें,

नहीं व्यवस्था अंगारों की।

 

सकारात्मकता को खोजें,

खबरें झूठी अखबारों की।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 131 ☆ व्यंग्य – हिंडोले ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय व्यंग्य  ‘हिंडोले ’ । इस विचारणीय व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 131 ☆

?  व्यंग्य – हिंडोले ?

पत्नी मधुर स्वर में भजन गा रहीं थीं . “कौन झूल रहे , कौन झुलाये हैं ? कौनो देत हिलोर ? … गीत की अगली ही पंक्तियों में वे उत्तर भी दे देतीं हैं . गणपति झूल रहे , गौरा झुलायें हैं , शिव जी देत हिलोर.” … सच ही है  हर बच्चा झूला झूलकर ही बडा होता है . सावन में झूला झूलने की हमारी सांस्कृतिक विरासत बहुत पुरानी है . राजनीति के मर्मज्ञ परम ज्ञानी भगवान कृष्ण तो अपनी सखियों के साथ झूला झूलते , रास रचाते दुनियां को राजनीति , जीवन दर्शन , लोक व्यवहार , साम दाम दण्ड भेद बहुत कुछ सिखा गये हैं .  महाराष्ट्र , राजस्थान , गुजरात में तो लगभग हर घर में ही पूरे पलंग के आकार के झूले हर घर में होते हैं . मोदी जी के अहमदाबाद में  साबरमती तट पर विदेशी राजनीतिज्ञों के संग झूला झूलते हुये वैश्विक राजनीती की पटकथा रचते चित्र चर्चित रहे हैं . आशय यह है कि राजनीति और झूले का साथ पुराना है .

मैं सोच रहा था कि पक्ष और विपक्ष राजनीति के झूले के दो सिरे हैं . तभी पत्नी जी की कोकिल कंठी आवाज आई “काहे को है बनो रे पालना , काहे की है डोर , काहे कि लड़ लागी हैं ? राजनीती का हिंडोला सोने का होता है , जिसमें हीरे जवाहरात के लड़ लगे होते हैं , तभी तो हर राजनेता इस झूले का आनंद लेना चाहता है . राजनीति के इस झूले की डोर वोटर के हाथों में निहित वोटों में हैं . लाभ हानि , सुख दुख , मान अपमान , हार जीत के झूले पर झूलती जनता की जिंदगी कटती रहती है . कूद फांद में निपुण ,मौका परस्त कुछ नेता उस हिंडोले में ही बने रहना जानते हैं जो उनके लिये सुविधाजनक हो . इसके लिये वे सदैव आत्मा की आवाज सुनते रहते हैं , और मौका पड़ने पर पार्टी व्हिप की परवाह न कर  जनता का हित चिंतन करते इसी आत्मा की आवाज का हवाला देकर दल बदल कर डालते हैं .  अब ऐसे नेता जी को जो पत्रकार या विश्लेषक बेपेंदी का लोटा कहें तो कहते रहें , पर ऐसे नेता जी जनता से ज्यादा स्वयं के प्रति वफादार रहते हैं . वे अच्छी तरह समझते हैं कि ” सी .. सा ” के राजनैतिक खेल में उस छोर पर ही रहने में लाभ है जो ऊपर हो . दल दल में गुट बंदी होती है . जिसके मूल में अपने हिंडोले को सबसे सुविधाजनक स्थिति में बनाये रखना ही होता है . गयाराम  जिस दल से जाते हैं वह उन्हें गद्दार कहता है , किन्तु आयाराम जी के रूप में दूसरा दल उनका दिल खोल कर स्वागत करता है और उसे हृदय परिवर्तन कहा जाता है. देश की सुरक्षा के लिये खतरे कहे जाने वाले नेता भी पार्टी झेल जाती है.

किसी भी निर्णय में साझीदारी की तीन ही सम्भावनाएं होती हैं , पहला निर्णय का साथ देना, दूसरा विरोध करना और तीसरा तटस्थ रहना. विरोध करने वाले पक्ष को विपक्ष कहा जाता है.  राजनेता वे चतुर जीव होते हैं जो तटस्थता को भी हथियार बना कर दिखा रहे हैं . मत विभाजन के समय यथा आवश्यकता सदन से गायब हो जाना ऐसा ही कौशल है . संविधान निर्माताओ ने सोचा भी नहीं होगा कि राजनैतिक दल और हाई कमान के प्रति वफादारी को हमारे नेता देश और जनता के प्रति वफादारी से ज्यादा महत्व देंगे . आज पक्ष विपक्ष अपने अपने हिंडोलो पर सवार अपने ही आनंद में रहने के लिये जनता को कचूमर बनाने से बाज नही आते .

मुझ मूढ़ को समझ नहीं आता कि क्या संविधान के अनुसार विपक्ष का अर्थ केवल सत्तापक्ष का विरोध करना है ? क्या पक्ष के द्वारा प्रस्तुत बिल या बजट का कोई भी बिन्दु ऐसा नही होता जिससे विपक्ष भी जन हित में सहमत हो ? इधर जमाने ने प्रगति की है , नेता भी नवाचार कर रहे हैं . अब केवल विरोध करने में विपक्ष को जनता के प्रति स्वयं की जिम्मेदारियां अधूरी सी लगती हैं . सदन में अध्यक्ष की आसंदी तक पहुंचकर , नारेबाजी करने , बिल फाड़ने , और वाकआउट करने को विपक्ष अपना दायित्व समझने लगा है .लोकतंत्र में संख्याबल सबसे बड़ा होता है , इसलिये सत्ता पक्ष ध्वनिमत से सत्र के आखिरी घंटे में ही कथित जन हित में मनमाने सारे बिल पारित करने की कानूनी प्रक्रिया पूरी कर लेता है . विपक्ष का काम किसी भी तरह सदन को न चलने देना लगता है . इतना ही नही अब और भी नवाचार हो रहे हैं , सड़क पर समानांतर संसद लगाई जा रही है . विपक्ष विदेशी एक्सपर्टाइज से टूल किट बनवाता है , आंदोलन कोई भी हो उद्देश्य केवल सत्ता पक्ष का विरोध , और उसे सत्ता च्युत करना होता है . विपक्ष यह समझता है कि सत्ता के झूले पर पेंग भरते ही झूला हवा में ऊपर ही बना रहेगा , पर विज्ञान के अध्येता जानते हैं कि झूला हार्मोनिक मोशन का नमूना है , पेंडलुम की तरह वह गतिमान बना ही रहेगा . अतः जरूरी है कि पक्ष विपक्ष सबके लिये जन हितकारी सोच ही सच बने , जो वास्तविक लोकतंत्र है .

पारम्परिक रूप से पत्नियों को  पति का कथित धुर्र विरोधी समझा जाता है . पर घर परिवार में तभी समन्वय बनता है जब पति पत्नी झूले दो सिरे होते हुये भी एक साथ ताल मिला कर रिदम में पेंगें भरते हैं .यह कुछ वैसा ही है जैसा पक्ष विपक्ष के सारे नेता एक साथ मेजें थपथपा कर स्वयं ही आपने वेतन भत्ते बढ़वा लेते हैं . मेरा चिंतन टूटा तो पत्नी का मधुर स्वर गूंज रहा था ” साथसखि मिल झूला झुलाओ. काश नेता जी भी देश के की प्रगति के लिये ये स्वर सुन सकें .

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 106 – कविता – बेटी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है / कन्या पर एक सारगर्भित एवं भावप्रवण कविता “बेटी ” । इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 106 ☆

? बेटी ?

धन्य धन्य यह भारत भूमि, जो संस्कारों का जतन करें।

बेटी ही वो सृष्टि है, मां बनकर कन्यादान करें।

 

जब हुआ धर्म का हनन, देवों ने मिलकर किया मनन।

बेटी रूप में शक्ति ने, सृष्टि को किया वरन।

 

सृष्टि की अनुपम माया है, बेटी की सुंदर काया है।

पुन्यात्मा वो मनुष्य बहुत, जिन्होंने बेटी धन पाया है।

 

नभ से आई गंगा धन, भूलोक समाई समाई सरिता बन।

सबको तारण करती है, हैं गंगा जल बेटी का तन।

 

सदियों से रीत चली आई, बेटियां होती सदा पराई।

नवजीवन जीवित रखने को, बेटियां दो कुलों में समाई।

 

रीत रिवाज सजाती बेटी, मां के संग बनाती रोटी।

बाबुल के घर आंगन में, रहती जैसे जन्म घुटी।

 

दिन बहना के सुनी कलाई, बिन बेटी अधूरी विदाई।

समय आ गया अब देखो, चांद में पांव बेटी धर आई।

 

बेटियां होती अनमोल धन, सदैव इसका इनका करें जतन।

दया धर्म करुणा ममता, खुशियों से भरा बेटी का मन।

 

धन्य धन्य यह भारत भूमि, जो संस्कारों का जतन करें।

बेटी ही वो सृष्टि है, मां बनकर कन्यादान करें।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 67 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 67 –  दोहे ✍

आँसू थे जयदेव के, ढले गीत गोविंद ।

विद्यापति का अश्रु दल, खिला गीत अरविंद।।

 

सत्य प्रेम से कर सके, जो सच्चा अनुबंध ।

जो पूजे श्रम देवता, भरे अश्रु सौगंध ।।

 

प्रियवर आये द्वार पर, मना लिया त्यौहार ।

पलक पावडे बिछ गए, आँसू वंदनवार ।।

 

नयन नयन से भर रहे, आँसू को अँकवार।

पूछ रहे कब मिले थे, हम तुम पिछली बार ।।

 

आँसू आए आंख में, पाहुन आए द्वार ।

आँसू पूछें  करोगे, कब तक अत्याचार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 67 – कड़क लहजे में सलीके… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कड़क लहजे में सलीके…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 67 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || कड़क लहजे में सलीके….. || ☆

बिम्ब जैसे दस बजे की इस किशोरी धूप का 

लगा आँचल को बताने जा रही है

एक हिस्सा गाँव  के प्रारूप का  

 

लग रही हो पेड़ कोई

सम्हलता अखरोट का

या नई खपरैल से

तिरता हुआ हो टोटका

 

कड़क लहजे में सलीके

से उभरता है रुका

अर्थ सांची के सुनहले से

किसी स्तूप का

 

किसी शासक की बसाई

राजधानी का नहीं

है तजुर्वा सूर्य की यह

बादशाहत का कहीं

 

लोग पूछें यह बसाहट क्यों

यहाँ  किस बात की है

तो बताना यह इलाका

रहा दिन के भूप का

 

बहुत मामूली लगे पर

है नहीं यह तय यहाँ

खोजना गर खोजियेगा

आप फिर चाहे जहाँ

 

आपकी मर्जी कदाचित

जो समझना समझिये

यह नहीं पनघट पुराना

गाँव के उस कूप का

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

05-12-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 114 ☆ मोहल्ला और मंदिर….! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय व्यंग्य  ‘ मोहल्ला और मंदिर ….!’ )  

☆ कविता # 114 ☆ मोहल्ला और मंदिर….! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जब उन्होंने इस मोहल्ले में प्लाट खरीदा, तो कुछ लोगों ने खुशी जाहिर की, कुछ लोगों ने ध्यान नहीं दिया और कुछ लोगों के व्यवहार और बाडी लेंग्वेज ने बता दिया कि प्लाट के साथ फ्री में मिली सड़क उनके अंदर खुचड़ करने की भावना पैदा कर रही है। दरअसल इस प्लाट को लेने मोहल्ले के कई लोग इच्छुक थे।  इच्छुक इसलिए भी थे क्योंकि इसी प्लाट के आखिरी छोर पर सड़क आकर खतम हो जाती है।  हर किसी को फायदेमंद बात इसीलिए लग रही थी कि जिस साइज का प्लाट था उसके सामने की सड़क की जगह उस प्लाट मालिक को मुफ्त में मिल जायेगी, इस कारण से भी मोहल्ले के लोगों में खींचतान और बैर भाव पनप रहा था।प्लाट लेने वालों की संख्या को देखते हुए संबंधित विभाग ने प्लाट को ऑक्शन के नियमों के अनुसार बेचने का फैसला किया, बंद लिफाफे में ड्राफ्ट के साथ आवेदन मंगाए गए, सबके सामने लाटरी खोली गई और मधुकर महराज को प्लाट मिल गया। मधुकर महराज सीधे सादे इंसान थे, बंद गली का आखिरी मकान के मकान मालिक बनने की खुशी में जल्दी मकान बनाने लगे तो मोहल्ले में कुछ खुचड़बाजों ने राजनीति चालू कर दी। कुछ लोगों के अंदर आस्था का सैलाब उमड़ने लगा, मोहल्ले में मंदिर बनना चाहिए ऐसी बातें दबी जुबान चालू हो गईं।

गुप्ता जी की व्याकुलता बढ़ गई है  रोज उनके सपने में  रामचंद्र जी और बजरंगबली आने लगे, वे सुबह उठते और मोहल्ले वालों से कहते हैं कि बंद गली के आखिरी मकान के सामने की सड़क पर रातों-रात मंदिर बनना चाहिए। सपने की बात उन्होंने अपने गुट के लोगों को बताई, यह बात मोहल्ले में फैल गई। मधुकर जी का मकान तेजी से बनकर खड़ा हो गया, सामने की खाली जगह को देखकर लोगों की छाती में सांप लोटने लगता …..

मंदिर बनाने के बहाने कब्जा करने की नीति का खूब प्रचलन है यही कारण है कि गली गली, मोहल्ले मोहल्ले, सड़क के किनारे, दुकानों के बगल में खूब बजरंगबली और दुर्गा जी बैठे दिखाई देते हैं।

तो जबसे मधुकर जी का दो मंजिला मकान बनकर खड़ा हुआ है तब से मोहल्ले में पड़ोसियों के बीच बजरंगबली और दुर्गा जी के दो गुट बन गये , दुर्गा जी गुट के वर्मा जी मोहल्ले में उमड़ी अध्यात्मिक राजनीति की खबर मधुकर महराज तक पहुंचाते रहते । मधुकर जी सीधे सादे हैं पर इस खबर से विचलित रहते कि उनके घर के सामने की खाली जगह पर कुछ लोग रातों-रात मंदिर बनाना चाह रहे हैं।

मंदिर के नाम पर मोहल्ले में अचानक एकजुटता देखने मिलने लगी। पहले आपस में इंच इंच के लिए झगड़े होते थे।

बजरंगबली समर्थक गुट बजरंगबली की मूर्ति देख आया था, और कुछ लोग दुर्गा जी की मूर्ति देख आये थे।

चतुर्वेदी जी के घर में हुई मीटिंग से पता चला कि आजकल बने बनाए रेडीमेड मंदिर बाजार में मिलते हैं, पर कीमत थोड़े ज्यादा है, चंदे की बात में झगड़ा हो गया, झगड़ा इतना बढ़ा कि मामला पुलिस तक पहुंच गया, पुलिस मोहल्ले पहुंच गई, मोहल्ले में खुसर-पुसर मच गई, मधुकर महराज घोर संकोच में फंस गए, उगलत लीलत पीर घनेरी।

गृह प्रवेश की तिथि और ऊपर से थाने में पेशी। उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। पुलिस वाला बोला- इतनी मंहगाई में मकान बनाने की क्या जरूरत आ गई, इतनी मंहगाई में इतना सारा पैसा कहां से आ गया, बजरंगबली से क्यों पंगा ले रहे हो। पुलिस के ऐसे घातक सवालों और धमकियों से मधुकर जी का मन दुखी हो गया। वे नारियल फोड़कर रातों-रात अपने घर में घुस गये। मोहल्ले में घूरती निगाहों का वे सामना करते रहे, दिन बीतते गए, मंदिर बनने की घुकघुकी में मन उद्वेलित रहता।

मोहल्ले में धीरे धीरे आस्था का सैलाब ठंडा पड़ने लगा, जिनके सपनों में बजरंगबली और दुर्गा जी आ रहे थे, उनकी नजरें झुकी झुकी रहने लगीं, गुप्ता जी दिल के दौरे से चले गए, मधुकर जी ने सामने की जगह घेर ली, कुछ लोगों को जलाने के लिए सामने गेट लगा दिया,

मंदिर की बात धीरे धीरे लोग भूल गए…

+   +  +  +  +

बीस साल बाद मधुकर जी ने उस जमीन पर मंदिर बना दिया, मोहल्ले में इर्ष्या जलन की हवा चलने लगी, दो गुट आपस में लड़ने लगे, कटुता फैल गई, पड़ोसियों ने आपत्ति उठाई कि मंदिर की छाया उनके घर के सामने नहीं पड़नी चाहिए नहीं तो पुलिस केस कर देंगे। बात आई और गई…. मधुकर महराज ने महसूस किया कि जब से मंदिर बना है तब से आज तक मोहल्ले का कोई भी व्यक्ति मंदिर में पूजा करने या दर्शन करने नहीं आया, मधुकर महराज को इसी बात का दुख है। बजरंगबली खुशी खुशी चोला बदलते रहते हैं, मोहल्ले वालों को इसकी कोई खबर नहीं रहती। आस्था लोभ मोह में भटकती रहती, इसीलिए मधुकर जी ने मंदिर में एक बड़ा घंटा भी लगवा दिया है, जो सुबह-शाम बजने लगता है, पर मोहल्ले वालोंं को कोई फर्क नहीं पड़ता……

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #57 ☆ # महापरिनिर्वाण दिवस – 6 डिसेंबर 1956 # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# महापरिनिर्वाण दिवस – 6 डिसेंबर 1956 #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 57 ☆

☆ #महापरिनिर्वाण दिवस – 6 डिसेंबर 1956 # ☆ 

(बाबासाहेब के परिनिर्वाण पर आचार्य अत्रे जी के एक लेख से प्रेरित श्रद्धांजलि स्वरुप कविता)

शोषितों का उध्दारक

भ्रमितों का उपदेशक

अंधेरों का प्रकाशपुंज

आज अस्त हो गया

 

अंबर झुक गया

समय रूक गया

दिशाओं ने क्रंदन किया

मानव पस्त हो गया

 

गली गली में हाहाकार मच गया

घर घर में अंधकार बस गया

विधाता ने छीन लिया

हम सबका “बाबा “

अनाथों का दुःखी

संसार रच दिया

 

दौड़ पड़े मुंबई रेले के रेले

सुध नहीं थी कि

रूककर दम भी ले लें

आंखों से बहती धारा

हर एक था दुःख का मारा

आर्तनाद कर रहे थे

तू हमको भी उठाले

 

हर गली, गांव,कस्बा, शहर

वीरान हो गया

पल भर में एक शमशान हो गया

चूल्हें नहीं जले,

दीयें नहीं जलें

सर पटकर बिलखता

हर इंसान हो गया

 

मुंबई में जैसे

जन सैलाब आ गया

हर वर्ग के लोगों का

“सहाब” आ गया

पथ पर दौड़ते

दर्शन को प्यासे लोग

उनके आंखों का

टुटता हुआ ख्वाब आ गया

 

दादर की चैत्यभूमी पर है वो सोया

जिस व्यक्ति के निर्वाण पर

हर कोई है रोया

आज ही के दिन

हर वर्ष

यहां लगता है मेला

यहीं पर हम सबने

अपना “भीम” है खोया

 

ऐसे निर्वाण के लिए

“देव “भी तरसते होंगे

उनके हाथों से आकाश से

पुष्प बरसते होंगे

जीते जी जो इन्सान

” भगवान ” बन गया

उसके स्वर्ग आगमन से

वे भी लरजतें होंगे /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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