हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 10 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-4 ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में’ – भाग-4 (अंतिम भाग)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 10 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-4 ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

स्वंतत्रता के पूर्व साहित्य को समय के संदर्भ में देखने के लिए उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद महत्वपूर्ण लेखक हैं. उनके उपन्यास और कहानियों से गुजरने के बाद भारत में ग्रामीण और शहरी परिवेश का पता लगाने के लिए उस समय की राजनैतिक सामाजिक और आर्थिक स्थिति का बहुत बारीकी से पता चल जाता है. लोगों का रहन सहन जीवन शैली रीति रिवाज का निर्वहन, जमींदारी और सांमती प्रभाव आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, पता चल जाता है. पूस की रात और कफन आदि रचनाओं से आम आदमी की मन:स्थिति मालुम हो जाती है. देश की राजनीतिक स्थितियां कांग्रेसियों का स्वतंत्रता आंदोलन का आम जन पर प्रभाव ग्रामीण राजस्व व्यवस्था और अंग्रेजी शासन पड़ रहे असर से भी पाठक रुबरु हो जाता है. उस वक्त स्वतंत्रता आंदोलन में संघर्ष कर रहे राजनीतिक दलों ने आमजन  को स्वतंत्रता का अर्थ और महत्व से परिचय कराया और साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि स्वतंत्रता के बाद लोगों की तकदीर और तस्वीर बदल जाएगी. इस आश्वासन के बाद लोगों ने उस आंदोलन को तन मन धन और जन से पूरा पूरा सहयोग किया और यह आंदोलन जन आंदोलन में बदल गया और देश  को शीघ्र ही स्वतंत्रता मिल गई. लोगों को विश्वास था अब हमारे दिन फिरने वाले हैं. पर ऐसा कुछ हुआ नहीं. नेताओं की आम आदमी के प्रति उपेक्षा, भाई भतीजावाद, भ्रष्टाचार,पीड़ित का शोषण  आदि विसंगतियों के चलते नेताओं से सामान्य जन का मोहभंग हो गया. इन विसंगतियों और मानवीय सरोकारों को किसी लेखक ने बहुत ईमानदारी और सरोकारी ढंग से उकेरा है. तो वह है स्वतंत्रता के बाद के सबसे अधिक चर्चित सबसे अधिक पढ़े जाने वाले लेखक व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई. हम जब साहित्य समय के संबंध से देखते हैं तो हरिशंकर परसाई इस खाते में सबसे सटीक बैठते हैं. स्वतंत्रता के बाद परसाई ने मूल रूप से समाज  में व्याप्त आर्थिक मानवीय, राजनैतिक राष्ट्रीय और वैश्विक सरोकारों को साहित्य का विषय बनाया है. परसाई जी की मृत्यु के बाद प्रथम पुण्यतिथि पर जबलपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में वरिष्ठ आलोचक डॉक्टर नामवर सिंह ने कहा था कि अगर भारत के इतिहास को जानना है तो हमें परसाई जी की रचनाओं से गुजरना होगा (उनके वक्तव्य के शब्द अलग हो सकते हैं पर आशय यही था) परसाई जी का साहित्य समकालीनता का समय सामाजिक और मानवीय सरोकारों पर केंद्रित रहा. उस समय में देश में व्याप्त सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य, पाखंड, प्रपंच, ठाकुरसुहाती, अफसरशाही आदि विसंगतियों के साथ वैयक्तिक नैतिक मूल्यों में हो रहे पतन पर कलम चलाई है. स्वतंत्रता के बाद के आरंभिक दिनों की रचनाओं में यह सब मिल जाता है. स्वतंत्रता आंदोलन में साहित्यकार पत्रकारों ने बहुत बड़ी भूमिका का निर्वाह किया था. पर  बाद में उन भी नैतिक पतन आरंभ हो गया. वे लाभ का अवसर पर सत्ता उन्मुखी होते गए. अपना सामाजिक राष्ट्रीय दायित्व भूलकर दरबारी परंपरा का निर्वाह करते नजर आने लगे.  जबलपुर से प्रकाशित साप्ताहिक अखबार के अपने स्तंभ में 18 जनवरी 1948 को प्रकाशित रचना “साहित्य में ईमानदारी” से उस समय के साहित्यकारों की प्रकृति का पता चलता है. ‘प्रजातंत्र की भावना को लेकर जो जन जागरण हुआ तो साहित्य कोटि-कोटि मुक्त भारतीय की वाणी बन गया. सरकारी भृकुटि की अवहेलना कर हमारे अनेक साहित्यकारों ने इमानदारी के साथ देशवासियों का चित्र खींचा. अनेक कवि व लेखक जेल गए. यातना सही, बलिदान किए, परंतु सच्चे रहे.’ यह साहित्यकारों का स्वतंत्रता आंदोलन के समय का चित्र है, पर स्वतंत्रता के बाद का चित्र कुछ अलग बात कह रहा है.,” परंतु इधर कुछ दिनों से दिख रहा है कि ‘इतिहास पलटता है’ के सिद्धांत पर रीतिकाल फिर आ रहा है. ‘साहित्य सेवी’ जनता जनार्दन की सेवा छोड़कर देवी चंचला और सरकार की सेवा में पुनः रत दिखाई दे रहे हैं. इस प्रकार का साहित्य, साहित्य नहीं रहता बल्कि बाजार का भटा भाजी हो जाता है. और साहित्यकार एक कुंजड़ा’ वो आगे शिक्षा जगत के पतन और मंत्रियों में नाम के प्रति आशक्ति के आचरण पर कहते हैं “आजकल देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में मंत्रियों को डॉक्टर ऑफ लिटरेचर (साहित्य मर्मज्ञ) की उपाधियां देने में जो होड़ लगी है। उसे देखकर अचंभा और दुख दोनों होते हैं. दही बड़े की तरह है यहां साहित्य की डॉक्टरेट पैसे की दो मिल रही हैं. अब जरा पाने वालों की लिस्ट लीजिए, अधिकांश मंत्री लोग हैं.” यह दृश्य लगभग 74 वर्ष पूर्व का है. स्वतंत्रता के समय में आए ईमानदारी, नैतिकता, जनसेवा का ज्वर उतर गया  और स्वार्थ लोलुपता जोड़ जुगाड़ के चक्कर में नेता और अफसर लगे थे आज भी अधिकांश साहित्यकार भी सत्ता के अधिक पास देखना चाहते हैं. नैतिकता ईमानदारी साहित्य सेवा उन्हें दूसरों के लिए अच्छी लगती है. इस समय को दस साल बढ़ कर  उस समय को देखते हैं तो देश के अखबारों की सुर्खियों में तीन शब्द प्रमुख रुप से रहते थे, बम,विस्फोट बम. इसी शीर्षक से प्रहरी में अप्रैल 6,1958 में प्रकाशित लेख में वे विद्यार्थियो की प्रवृत्ति पर कहते हैं “विद्यार्थियों का विरोध परीक्षा से है. कठिन प्रश्न यदि परीक्षा में आ गए तो विद्यार्थी परीक्षा भवन  से हट जाएंगे क्योंकि उनका हक है. आसान प्रश्न आए जिन्हें वे साल भर बिना पढ़े भी कर सकें. वैसे उनकी वास्तविक मांग यह है कि प्रश्नपत्र एक महीने पहले अखबार में छप जाए. ना छपने से उन्हें असुविधा होती हैं.ठीक पढ़ने के वक्त पर उन्हें पता लगाना पड़ता है कि किसने पेपर निकाला है. उसमें क्या आया है. उनकी यह मांग न्यायोचित है.”

उनकी दूसरी मांग यह है कि परीक्षा भवन में उन्हें नकल करने दी जाए. इस संबंध में हमारा सुझाव है कि उन्हें परचा दे दिया जाए और कह दिया जाए कि वह घर से कर कर ले आए इससे परीक्षा का बहुत सा खर्च बच जाएगा.दोनों मांग पूरी नहीं होने पर सत्याग्रह होगा .उनकी बात क्यों नहीं मानी जाएगी जबकि हमारे यहां प्रजातंत्र है. जनता चाहेगी जैसा शासन होगा तो फिर विद्यार्थी चाहेंगे वैसे ही परीक्षा क्यों न होगी. यदि मध्य प्रदेश की राजधानी काठमांडू में है तो इसे मानना पड़ेगा क्योंकि यह उनका जनतांत्रिक निर्णय है.” इस लेख में शिक्षा जगत में बढ़ती अराजकता शिक्षा नीति की विसंगति आदि को भलीभांति समझा जा सकता है. राजनीतिक दलों को युवा शक्ति की जरूरत चुनावों के समय में होती है उनकी नजर छात्रों पर रहती है बे उनकी अनाप-शनाप मांग पर भी पिछले दरवाजे से दे देते हैं. शिक्षा जगत का यह दृश्य आज के समय पर सोचने को मजबूर करता है.

भारतीय राजनीति में आठवां दशक बहुत उथल-पुथल वाला रहा 73-74 में छात्र क्रांति आरंभ हो चुकी थी. जनता सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार भाई भतीजावाद अकर्मण्य अफसरशाही से परेशान थी. वे परिवर्तन चाहते थे. परिवर्तन हेतु छात्र आंदोलन शुरू हुआ. जयप्रकाश नारायण इस आंदोलन के अगुआ हुए. उन्होंने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया. आपातकाल लगाया गया. विपक्ष के छोटे बड़े राजनेता, छात्र नेता जेल में ठूंस दिए गए. उस समय संजय गांधी युवा शक्ति बन कर सामने आए. आतंक और भय का वातावरण व्याप्त था. पर ढाई साल बाद चुनाव हुए. तत्कालीन सरकार हार गई. विभिन्न विचार वाले राजनीतिक दलों ने मिलकर ‘जनता पार्टी’ बनाई और चुनाव जीत गए. पर ढाई साल के बाद ही उनमें मतभेद उभरकर आ गए. सभी नेताओं की महत्वाकांक्षाएं और सामने आ गई. इन सब पर परसाई जी के बहुत सारे लेख मिल जाएंगे. उस समय के नेता राजनारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, चंद्रशेखर, जॉर्ज फर्नांडिस, मधु लिमए आदि सभी के नेताओं पर उनके लेख मिल जाते हैं .जिससे समय का इतिहास का पता चल जाता है. उदाहरणार्थ एक लेख ‘जार्ज का जेरुसलम’ उल्लेखनीय है.

“साधु जॉर्ज करिश्मा करने वाले नेता हैं कुछ करिश्मा रहस्य में ढके हैं जरा याद करो जब चरण सिंह प्रधानमंत्री बनने को उतारू थे. तब जनता पार्टी की सरकार के खिलाफ चरण सिंह ने  अविश्वास प्रस्ताव रखवाया था. तब लोकसभा में जनता सरकार के पक्ष में सबसे अच्छा जार्ज बोले थे. वे लगातार दो घंटे बोले थे. लगता था जनता सरकार बच गई. पर दूसरे दिन खुद जॉर्ज ने उसी जनता पार्टी से इस्तीफा दे दिया जिसके काम की तारीफ वे चौबीस घंटे पहले कर चुके थे. साधो यह क्या चमत्कार था. कैसे बदल गए वीर शिरोमणि जार्ज.  तब अखबारों ने संकेत दिए थे और दिल्ली में आम चर्चा थी कि रात को गृहमंत्री चरण सिंह जार्ज के बंगले में ‘भ्रष्टाचार विरोधी फोर्स की रेड( छापा )डलवा दी थी. नतीजा यह हुआ की रेड के फौरन बाद जार्ज के राजनीतिक विचार बदल गए उन्होंने जनता पार्टी छोड़ दी.”

जब आप यह पढ़ते हो तो सोच भी नहीं सकते कि भारतीय राजनीति में ऐसा भी हुआ था. या हुआ है. तभी परसाई जी ने लिखा. जिसे हमने आज जाना. परसाई ने अपने लेखन के समय के साथ जिया. इस कारण परसाई के समय की रचनाओं में  इतिहासिक परिस्थितियां, सामाजिक राजनीतिक वातावरण को हम जान रहे हैं. वैयक्तिक विचलन, समाज में पतनोन्मुख नैतिक मूल्यों का पतन. आदि उनकी रचनाओं में मिल जा ती हैं. वैष्णव की फिसलन, टॉर्च बेचने वाली कंधे, श्रवण कुमार के, भोलाराम का जीव. आदि वैयक्तिक पतन की रचनाएँ हैं. जब देश में अकाल पड़ा तो उस समय की अफसरशाही, भ्रष्टाचार को समान रूप से परसाई और शरद जोशी ने निर्भीकता ‘अकाल उत्सव’ और ‘जीप पर सवार इल्लियों ‘में लिखा जो साहित्य में समय को हस्तक्षेप करने वाली रचना जानी जाती है.. शासन में व्याप्त विसंगतियां और अफसरशाही पर हरिशंकर परसाई ने – इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर, भोलाराम का जीव आदि और शरद जोशी ने वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं, आदि रचनाओं से साहित्य में समाज के संबंधों समय के परिपेक्ष्य में साक्षात्कार कराया. इसी तरह साहित्य और समाज के अंतर संबंधों पर समय को केंद्र में रखकर बाबा नागार्जुन, धर्मवीर भारती, धूमिल, मुक्तिबोध आदि ने बहुत लिखा जिसे पढ़ने से हम उस समय से रूबरू हो जाते हैं.

समाप्त 

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #122 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 6 – “हबीब” ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।  आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “हबीब”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 6 – “हबीब” ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

हम पर जान लुटाता ऐसा नहीं कोई हबीब,

दिलोजान से चाहता ऐसा नहीं कोई हबीब।

 

भरी जवानी गेसुओं की छांव छिनी जिससे,

दिखता हो जमाने में ऐसा नहीं कोई गरीब।

 

ज़हर पीने की क़ाबलियत नहीं किसी में,

दर्द कुछ पी सके ऐसा नहीं कोई दरीब।

 

आह से बर्फ पिघलती दर्दीले पहाड़ों की,

हमारे रोने से बदलेगा नहीं कोई नसीब।

 

बरसते आंसुओं से ही तो समंदर भरा है,

समझ कर खारा आता नहीं कोई करीब।

 

उदू की क़ैद में छटपटाए बुलबुल बेतहाशा,

जाकर छुड़ा ले उसे ऐसा नहीं कोई रक़ीब।

 

मुहब्बत में ज़ख़्म मिले ‘आतिश’  बेशुमार,

उसके घाव सहलाता ऐसा नहीं कोई तबीब।

 

हबीब-प्यारा

दरीब-प्रशिक्षित

तबीब-वैद्य

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 57 ☆ गजल – समय ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 57 ☆ गजल – समय ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆

जग में सबको हँसाता है औ’ रूलाता है समय।

सुख औ’ दुख के चित्र रचता औ’ मिटाता है समय।

है चितेरा समय ही संसार के श्रृंगार का

नई खबरों का सतत संवाददाता है समय।

बदलती रहती ये दुनियाँ समय के सहयोग से

आशा की पैगों पै सबको नित झुलाता है समय।

नियति को, श्रम को, प्रगति को है इसी का आसरा

तपस्वी को तपस्या का फल प्रदाता है समय।

भावना मय कामना को दिखाता है रास्ता

हर गुणी साधक को शुभ अवसर दिलाता है समय।

सखा है विश्वास का, व्यवसाय का, व्यापार का

व्यक्ति की पद-प्रतिष्ठा का अधिष्ठाता है समय।

नियंता है विष्व का, पालक प्रकृति परिवेश का

सखा है परमात्मा का, युग-विधाता है समय।

शक्तिशाली है, सदा रचता नया इतिहास है

किन्तु जाकर फिर कभी वापस न आता है समय।

सिखाता संसार को सब समय का आदर करें

सोने वालों को हमेशा छोड़ जाता है समय।

है अनादि अनंत फिर भी है बहुत सीमित सदा

जो समय को पूजते उनको बनाता है समय।

हर सजग श्रम करने वाले को है इसका वायदा

एक बार ’विदग्ध’ उसको यश दिलाता है समय।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #69 – साधन और साध्य ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #69 – साधन और साध्य ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार अकबर ने तानसेन से कहा था कि तेरा वीणावादन देखकर कभी—कभी यह मेरे मन में खयाल उठता है कि कभी संसार में किसी आदमी ने तुझसे भी बेहतर बजाया होगा या कभी कोई बजाएगा? मैं तो कल्पना भी  नहीं कर पाता कि इससे श्रेष्ठतर कुछ हो सकता ‘है।

तानसेन ने कहा,क्षमा करें, शायद आपको पता नहीं कि मेरे: गुरु अभी जिन्दा हैं। और एक बार अगर आप उनकी वीणा सुन लें तो कहां वे और कहां मैं!

बड़ी जिज्ञासा जगी अकबर को। अकबर ने कहा तो फिर उन्हें बुलाओ! तानसेन ने कहा, इसीलिए कभी मैंने उनकी बात नही छेड़ी। आप मेरी सदा प्रशंसा करते थे, मैं चुपचाप पी लेता था, जैसे जहर का घूंट कोई पीता है, क्योंकि मेरे गुरु अभी जिन्दा हैं, उनके सामने मेरी क्या प्रशंसा! यह यूं ही है जैसे कोई सूरज को दीपक दिखाये। मगर मैं चुपचाप रह जाता था, कुछ कहता न था, आज न रोक सका अपने को, बात निकल गयी। लेकिन नहीं कहता था इसीलिए कि आप तत्‍क्षण कहेंगे, ‘उन्हें बुलाओ’। और तब मैं मुश्किल में पड़ुगा, क्योंकि वे यूं आते नहीं। उनकी मौज हो तो जंगल में बजाते हैं, जहां कोई सुननेवाला नहीं। जहां कभी—कभी जंगली जानवर जरूर इकट्ठे हो जाते हैं सुनने को। वृक्ष सुन लेते हैं, पहाड़ सुन लेते हैं। लेकिन फरमाइश से तो वे कभी बजाते नहीं। वे यहां दरबार मे न आएंगे। आ भी जाएं किसी तरह और हम कहें उनसे कि बजाओ तो वे बजाएंगे नहीं।

तो अकबर ने कहा, फिर क्या करना पड़ेगा, कैसे सुनना पड़ेगा? तो तानसेन ने कहा, एक ही उपाय है कि यह मैं जानता हूं कि रात तीन बजे वे उठते हैं, यमुना के तट पर आगरा में रहते हैं—हरिदास उनका नाम है—हम रात में चलकर छुप जाएं—दो बजे रात चलना होगा; क्योंकि कभी तीन बजे बजाए, चार बजे —बजाए, पांच बजे बजाए; मगर एक बार (जरूर सुबह—सुबह स्नान के बाद वे वीणा बजाते हैं— तो हमें चोरी से ही सुनना होगा, बाहर झोपड़े के छिपे रहकर सुनना होगा।.. शायद ही दुनिया के इतिहास में किसी सम्राट ने, अकबर जैसे बड़े सम्राट ने चोरी से किसी की वीणा सुनी हो!.. लेकिन अकबर गया।

दोनों छिपे रहे एक झाड़ की ओट में, पास ही झोपड़े के पीछे। कोई तीन बजे स्नान करके हरिदास यमुना सै आये और उन्होंने अपनी वीणा उठायी और बजायी। कोई घंटा कब बीत गया—यूं जैसे पल बीत जाए! वीणा तो बंद हो गयी, लेकिन जो राग भीतर अकबर के जम गया था वह जमा ही रहा।

आधा घंटे बाद तानसेन ने उन्हें हिलाया और कहा कि अब सुबह होने के करीब है, हम चलें! अब कब तक बैठे रहेंगे। अब तो वीणा बंद भी हो. चुकी। अकबर ने कहा, बाहर की तो वीणा बंद हो गयी मगर भीतर की वीणा बजी ही चली जाती है। तुम्हें मैंने बहुत बार सुना, तुम जब बंद करते हो तभी बंद ‘हो जाती है। यह पहला मौका है कि जैसे मेरे भीतर के तार छिड़ गये हैं।। और आज सच में ही मैं तुमसे कहता हूं कि तुम ठीक ही कहते थे कि कहा तुम और कहां तुम्हारे गुरु!

अकबर की आंखों से आंसू झरे जा रहे हैं। उसने कहा, मैंने बहुत संगीत सुना, इतना भेद क्यों है? और तेरे संगीत में और तेरे गुरु के संगीत में इतना भेद क्यों है? जमीन—आसमान का फर्क है।

तानसेन ने कहा – कुछ बात कठिन नहीं है। मैं बजाता हूं कुछ पाने के लिए; और वे बजाते हैं क्योंकि उन्होंने कुछ पा लिया है। उनका बजाना किसी उपलब्‍धि की,किसी अनुभूति की अभिव्यक्ति है। मेरा बजाना तकनीकी है। मैं बजाना जानता हूं मैं बजाने का पूरा गणित जानता हूं मगर गणित! बजाने का अध्यात्म मेरे पास नहीं! और मैं जब बजाता होता हूं तब भी इस आशा में कि आज क्या आप देंगे? हीरे का हार भेंट करेंगे, कि मोतियों की माला, कि मेरी झोली सोने से भर देंगे, कि अशार्फेयों से? जब बजाता हूं तब पूरी नजर भविष्य पर अटकी रहती है, फल पर लगी रहती है। वे बजा रहे हैं, न कोई फल है, न कोई भविष्य,वर्तमान का क्षण ही सब कुछ है। उनके जीवन में साधन और साध्य में बहुत फर्क है, साधन ही साध्य है; ओर मेरे जीवन में अभी साधन और साध्य में कोई फर्क नहीं है। बजाना साधन है। पेशेवर हूं मैं। उनका बजाना आनंद है, साधन नहीं। वे मस्ती में हैं।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 110 ☆ ज़िंदगी और ज़िंदगी ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िंदगी और ज़िंदगी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 110 ☆

☆ ज़िंदगी और ज़िंदगी ☆

कुछ लोग ज़िंदगी होते हैं, कुछ लोग ज़िंदगी में होते हैं; कुछ लोगों से ज़िंदगी होती है और कुछ लोग होते हैं, तो ज़िंदगी होती है। वास्तव में ज़िंदगी निरंतर चलने का नाम है और रास्ते में चंद लोग हमें ऐसे मिलते हैं, जिनकी जीवन में अहमियत होती है। उनके बिना हम ज़िंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकते और कुछ लोगों के ज़िंदगी में होने से हमें अंतर नहीं पड़ता अर्थात् उनके न रहने से भी हमारा जीवन सामान्य रूप से चलता रहता है। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जिन्हें हम अवसरवादी कह सकते हैं। ये स्वार्थ के कारण हमारा साथ देते हैं। सो! ऐसे लोगों से मानव को सावधान रहना चाहिए। सच्चे दोस्त वे होते हैं, जो सुख-दु:ख में हमारे अंग-संग रहते हैं और सदैव हमारे हितैषी होते हैं। वे हमारी अनुपस्थिति में भी हमारे पक्षधर होते हैं। वास्तव में उनके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते, क्योंकि वे हर विषम परिस्थिति व आपदा में वे हमारा साथ निभाते हैं।

जीवन एक यात्रा है। इसे ज़बरदस्ती नहीं; ज़बरदस्त तरीके से जीएं। मानव जीवन अनमोल है तथा चौरासी लाख योनियों के पश्चात् प्राप्त होता है। इसलिए हमें जीवन में कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए, बल्कि इसे उत्सव समझना चाहिए और असामान्य परिस्थितियों में भी आशा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। मुझे स्मरण हो रही हैं अब्दुल कलाम की पंक्तियां– ‘आप अपना भविष्य नहीं बदल सकते, परंतु अपनी आदतों में परिवर्तन कर सकते हैं; जिससे आपका भविष्य स्वतः बदल सकता है।’ भले ही हम अपनी नियति नहीं बदल सकते, परंतु अपनी आदतों में परिवर्तन कर सकते हैं और यह हमारी सोच पर निर्भर करता है। यदि हमारी सोच सकारात्मक होगी, तो हमें गिलास आधा खाली नहीं; आधा भरा हुआ दिखाई पड़ेगा, जिसे देख हम संतोष करेंगे और अवसाद रूपी शिकंजे से सदैव बचे रहेंगे।

हर समस्या का समाधान होता है–आवश्यकता होती है आत्मविश्वास व धैर्य की। यदि हम निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं और बीच राह से लौटने से परहेज़ करते हैं, तो हमें सफलता अवश्य प्राप्त होती है। मन का संकल्प व शरीर का पराक्रम यदि किसी कार्य में लगा दिया जाए, तो असफल होने का प्रश्न ही नहीं उठता। हर समस्या के समाधान के केवल दो ही रास्ते नहीं होते हैं। हमें तीसरे विकल्प की ओर ध्यान देना चाहिए तथा तथा उस दिशा में अग्रसर होना चाहिए। ऐसी सीख हमें शास्त्राध्ययन, गुरुजन व सच्चे दोस्तों से प्राप्त हो सकती है।

संसार में जिसने दूसरों की खुशी में ख़ुद की खुशी सीखने का हुनर सीख लिया, वह कभी भी दु:खी नहीं हो सकता। बहुत ही आसान है/ ज़मीन पर मकान बना लेना/ दिल में जगह बनाने में/ ज़िंदगी गुज़र जाती है। सो!  चंचल मन पर अंकुश लगाना आवश्यक है। यह पल भर में तीन लोकों की यात्रा कर लौट आता है। यदि इच्छाएं कभी पूरी नहीं होती, तो क्रोध बढ़ता है; यदि पूरी होती हैं, तो लोभ बढ़ता है। इसलिए हमें हर परिस्थिति में सम रहना है और सुख-दु:ख के ऊपर उठना है। इसके लिए आवश्यकता है– मौन रहने और अवसरानुकूल सार्थक वचन बोलने की। मानव को तभी बोलना चाहिए, यदि उसके शब्द मौन पर बेहतर हैं। जितना समय आप मौन रहते हैं; आपकी इच्छाएं शांत रहती हैं और आप राग-द्वेष व स्व-पर के भाव से मुक्त रहते हैं। जब तक मानव एकांत व शून्य में रहता है; उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है और वह अलौकिक आनंद की अनुभूति करता है।

परमात्मा सदैव हमारे मन में निवास करता है। ‘तलाश ना कर मुझे/ ज़मीन और आसमान की ग़र्दिशों में/ अगर तेरे दिल में नहीं/ तो मैं कहीं भी नहीं।’ आत्मा व परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। वह घट-घट वासी है तथा उसे कहीं भी खोजने की आवश्यकता नहीं; अन्यथा हमारी दशा उस मृग की भांति हो जाएगी, जो जल की तलाश में भटकते हुए अपने प्राणों का त्याग कर देता है। ‘कस्तूरी कुंडली बसे/ मृग ढूंढे बन माहिं/ ऐसे घट-घट राम हैं/  दुनिया देखे नाहिं।’ सो! मानव को मंदिर-मस्जिद में जाने की आवश्यकता नहीं।

परमात्मा तक पहुंचने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा हमारा अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव है; जो हमें सब से अलग कर देता है। इसलिए कहा जाता है कि जो अपनों के बिना बीती वह उम्र और जो अपनों के साथ बीती  वह ज़िंदगी। सो!अहंकार प्रदर्शित कर रिश्तों को तोड़ने से अच्छा है, क्षमा मांगकर रिश्तों को निभाना। संसार में अच्छे लोग बड़ी कठिनाई से मिलते हैं, उन्हें छोड़ना नहीं चाहिए। प्रकृति का नियम है–जैसे कर्म आप करते हैं, वही लौटकर आपके पास आते हैं। इसलिए सदैव निष्काम भाव से सत्कर्म कीजिए और किसी के बारे में बुरा भी मत सोचिए, क्योंकि समय से पहले और भाग्य से अधिक इंसान को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। इसलिए अपनी ख़ुदी को ख़ुदा की रज़ा में मिला दीजिए; तुम्हारा ही नहीं, सबका मंगल ही मंगल होगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 61 ☆ परहित सरिस धरम नहिं भाई ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “परहित सरिस धरम नहिं भाई।)

☆ किसलय की कलम से # 61 ☆

☆ परहित सरिस धरम नहिं भाई 

परहित, परोपकार, परसेवा अथवा परमार्थ जैसे शब्दों को ही सुनकर हमारे मन में दूसरों की मदद हेतु भाव उत्पन्न हो जाते हैं। किसी भी तरह के जरूरतमंदों की सहायता करना, उनकी सेवा करना मानवसेवा का प्रमुख उदाहरण है। यदि ईश्वर ने आपको सक्षम बनाया है, या आप गरीबों की अंशतः भी मदद करते हैं तो इससे बढ़कर अच्छा कार्य और कुछ भी नहीं हो सकता। परहित का आधार मात्र आर्थिक नहीं होता। आप समाज में रहते हुए अनेक तरह से ये कार्य कर सकते हैं। आपके द्वारा किया गया श्रमदान, शिक्षादान, अंगदान, सहृदयता, अथवा भावनात्मक संबल भी परहित है। किसी को गंतव्य तक पहुँचाना, अनजान को राह दिखाना, किसी को दिशाबोध कराना सहृदयता ही है। भूखे को खाना, प्यासे को पानी, धूप से व्यथित व्यक्ति को अपने घर की छाँव देकर भी मदद की जा सकती है। अपने घर की पुरानी, अनुपयोगी वस्तुएँ, कपड़े, बर्तन, बचा भोजन आदि भी हम जरूरतमंदों को दे सकते हैं। घर के आयोजनों में कुछ गरीबों को बुलाकर उन्हें भोजन करा सकते हैं या फिर भोजन ले जाकर गरीबों में बाँट सकते हैं। गरीब बच्चों की शालेय शुल्क, पोशाक, जूते, बैग, पुरानी किताबें आदि भी दी जा सकती हैं। ये कार्य  सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से व्यापक स्तर पर भी किए जा सकते हैं। प्रतिवर्ष नवंबर, दिसंबर और जनवरी महीनों में ठंड का प्रभाव काफी बढ़ जाता है। हर किसी का सुबह और रात में निकलना मुश्किल हो जाता है। अब आप ही सोचें कि जो बेसहारा अथवा गरीब लोग विभिन्न कारणों से फुटपाथ, पेड़ों के नीचे या खुली जगह में रात काटने पर विवश होते हैं, उनकी क्या हालत होती होगी? हम यदि मानवीयता और सहृदयता के भाव से सोचेंगे तो स्वमेव लगेगा कि इन जरूरतमंदों की मदद निश्चित रूप से की जाना चाहिए। हम चाहें तो इन्हें यथासंभव खाने के पैकेट्स दे सकते हैं। इन्हें अपने घरों के पुराने कपड़े दे सकते हैं। रात में मंदिर, पूजाघरों, धर्मशालाओं, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, फुटपाथों और पेड़ों के नीचे उन तक पहुँचकर उन्हें पुराने कपड़े, ऊनी वस्त्र, कंबल, चादर आदि भी दे सकते हैं। जब भी परसेवा की बात आती है तो हर किसी के मन में एक प्रश्न जरूर उठता है- कहीं ऐसा तो नहीं कि ये ठंड में ठिठुरता अथवा भूखा आदमी अपने बुरे कर्मों से आज इस अवस्था में है, इसकी मदद करना चाहिए या नहीं। तब यहीं पर हमें अपनी नेकनियति की विशालता पहचानने की आवश्यकता होती है कि आँखों के सामने ठंड में ठिठुरते अथवा भूखे आदमी को मानवीय आधार पर यूँ ही तो नहीं छोड़ा जा सकता। हमें यह ध्यान रखना होगा कि एक इंसान होने के नाते गरीब और जरूरतमंदों की सेवा करना भी हमारा सामाजिक दायित्व है। तब देखिए, आपका यह सेवाकार्य, यह सेवाभाव आपके मन को कितनी शांति पहुँचाता है। आपकी यह प्रवृत्ति आपकी खुशी का कारण तो बनेगी ही, साथ में अन्य लोगों को भी ऐसे कार्यों हेतु प्रेरित करेगी।

मनुष्य के सामाजिक प्राणी बनने का कारण भी यही है कि वह सुख-दुख में परस्पर काम आए। अपने से कमजोर अथवा जरूरतमंदों की सहायता करे। अन्य बात यह भी है कि जब ईश्वर ने आपको इतना काबिल बनाया है कि आप समाज के कुछ काम आ सकते हैं, तब आपको दया, करुणा व नम्रता के भावों को अपने हृदय में स्थान देना चाहिए। जरूरतमंदों की पीड़ा अनुभव कर उनकी यथोचित सहायता हेतु आगे आना चाहिए।

समाज में भले ही आज परोपकारियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है, फिर भी समाज में ऐसे अनेक लोग दिखाई दे ही जाते हैं जो परहित का बीड़ा उठाए नेक कार्यों में संलग्न हैं। समाज में ऐसी संस्थाएँ भी होती हैं जो निश्छल भाव से जरूरतमंदों की तरह-तरह से सहायता करती रहती हैं। कुछ संस्थाएँ ऐसी भी होती हैं जो व्यापक स्तर पर जनसेवा में जुड़ी रहने के बाद भी प्रचार-प्रसार से दूर रहती हैं। उनका मात्र यही उद्देश्य होता है कि वे यथासामर्थ्य समाज में अपना कर्त्तव्य निर्वहन करें। ऐसे लोग और ऐसी संस्थाओं को मैंने बहुत निकट से देखा है। इन्हें न तो अपनी प्रशंसा की भूख होती है और न ही किसी सम्मान की आशा। परहित कार्यों से जुड़े लोग बताते हैं कि परहित से मिली शांति और खुशी ने हमारी जीवनशैली ही बदल दी है। वे आगे कहते हैं कि दुनिया में आत्मशांति से बढ़कर कोई दूसरी चीज नहीं होती और वही हमें इस कार्य से प्राप्त होती रहती है। हमें बुजुर्गों के आशीर्वचन, बच्चों के मुस्कुराते चेहरे और जरूरतमंदों की अप्रतिम खुशी के सहज ही दर्शन हो जाते हैं। इनके अतिरिक्त भी लोग पशु-पक्षियों के प्रति भी सहृदयता रखते दिखाई देते हैं। हमारे शहर में हाल ही में घटी एक घटना का संदर्भित जिक्र है कि जब एक शख्स ने एक कुत्ते की गोली मारकर हत्या कर दी, तब इस अमानवीय कृत्य को देखकर क्षेत्रीय नागरिकों का आक्रोश फूट पड़ा और प्रशासन को उसे गिरफ्तार कर उसके विरुद्ध कार्यवाही करना पड़ी। लोगों का कहना था कि आखिर एक पशु के साथ आदमी इतनी क्रूरता कैसे कर सकता है। इस अपराध के लिए उसे क्षमा नहीं किया जाना चाहिए। यह घटना एक ज्वलंत प्रश्न हमारे सामने खड़ा करती है। पानी में भीगे, ठंड में ठिठुरते और गर्मियों में पशु-पक्षियों को भोजन, दाना, पानी के बर्तन, सकोरे आदि रखते हुए तो सभी ने देखा ही होगा। घायल पशु-पक्षियों की चिकित्सा कराते भी हमने देखा है। आसपास गौशालाएँ, आवारा कुत्तों की देखरेख करते लोग दिखाई दे जाते हैं। हिंदू धर्म में हिंसा को अनुचित माना गया है। जैन धर्म तो अहिंसा की धुरी पर ही चल रहा है। दुनिया में निःस्वार्थ और निःशुल्क अनगिनत चिकित्सालय संचालित हैं। असंख्य अनाथालय और वृद्धाश्रम अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। हमारे शहर में ही एक कैंसर हॉस्पिस है जहाँ कैंसर के गंभीर रोगियों को निःशुल्क चिकित्सा, दवाईयों के साथ रोगियों की सेवा-सुश्रूषा भी हॉस्पिस द्वारा की जाती है। ऐसे परोपकारियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना और ऐसे कार्यों में सहभागी बनना प्रत्येक के लिए गौरव की बात है। जीवन के अंतिम समय में जब लोग अपने ही स्वजनों की सेवा और उनके समीप जाने में भी कतराते हैं, तब ये हॉस्पिस वाले ऐसे मरीजों की अंतिम साँस तक तीमारदारी और दवाईयाँ उपलब्ध कराते हैं। इसे परोपकार का उत्कृष्ट उदाहरण कहा जा सकता है। यहाँ यह भी उल्लेख करना उचित है कि अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धति के उपलब्ध होने के कारण लोग एवं मृतात्मा के परिजन लीवर, आँखें, किडनी व अन्य अंग भी दान कर मानवीयता का परिचय देते हैं।

यह बात अलग है कि समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो मानवता को ताक पर रखकर स्वार्थवश इस परहित को एक धंधे के तौर पर संचालित करते हैं। ये लोग व्यक्तिगत अथवा अपनी संस्था के माध्यम से सरकारी अनुदान, लोगों के दान अथवा सहायता को स्वार्थसिद्धि का माध्यम बना लेते हैं। ये अनैतिक कार्य करने वाले लोग  अर्थ को ही ईश्वर और प्रतिष्ठा का पर्याय मानते हैं। इन्हें संपन्नता तो प्राप्त हो जाती है, लेकिन ये वास्तविक सुख शांति से सदैव वंचित ही रहते हैं।

इस दुनिया में हमने जन्म लिया है। अन्य प्राणियों की अपेक्षा बुद्धि, विवेक और क्षमताएँ भी हमें अधिक प्राप्त हैं। सोचिए! क्या हमें इनका सदुपयोग नहीं करना चाहिए। सुख, शांति, प्रेम, भाईचारे व आदर्श जीवन शैली एक आदर्श इंसान की चाह होती है। यदि यह सुनिश्चित हो जाए तो एक आम इंसान इसके आगे और कोई अपेक्षा नहीं करेगा। आपकी यश, कीर्ति, मान, प्रतिष्ठा तो आपके विवेक पर निर्भर रहती है, जो आपके बुद्धि, कौशल एवं श्रम का ही सुफल होता है। यह बात अलग है कि कुछ उँगलियों पर गिने जाने वाले लोग भी होते हैं जो समाज में अराजकता, हिंसा, विद्वेष आदि फैलाकर अपना छद्म वर्चस्व स्थापित करते हैं। एक प्रतिभावान, परोपकारी व सहृदय इंसान का सम्मान कौन नहीं करेगा? फिर हमें बजाय शॉर्टकट के आदर्श मार्ग अपनाने में संकोच क्यों होता है। पता नहीं क्यों आज के अधिकांश लोग न्याय, धर्म, परोपकार व भाईचारे के मार्ग पर चलना ही नहीं चाहते। झूठी योग्यता का ढिंढोरा पीटकर स्वार्थ सिद्ध करना इंसानियत कदापि नहीं हो सकती।

आईये हम एक सच्चे इंसान की तरह आदर्श जीवनशैली अपनाएँ। खुद जिएँ और लोगों को चैन से जीने दें। भले ही कुछ इंसान असामाजिक गतिविधियों में लिप्त रहकर समाज में विकृति फैलाएँ, लेकिन हमें परोपकार के मार्ग को नहीं छोड़ना चाहिए। मानवता के पथ पर आगे बढ़कर घर, समाज और देशहित की सोच लिए आगे बढ़ते जाना है, क्योंकि दुनिया में जरूरतमंदों की मदद करना परहित का श्रेष्ठतम उदाहरण है। कहा भी गया है कि-

परहित सरिस धरम नहिं भाई,

परपीड़ा सम नहिं अधमाई।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 109 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 109 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे 

माँ का आँचल देखकर, बदली उसकी चाल।

ममता उसको मिल रही, खुश हो जाता लाल ।।

 

आनन की शोभा बढ़ी, देख मधुर मुस्कान।

गाल गुलाबी हो रहे, सुंदरता की शान।।

 

झटकी अलकें देखकर, रुक जाती तकरार।

मन तो कैसे रीझता, हो जाता है प्यार।।

 

सूरत तेरी मोहिनी, आँखें हैं अनमोल।

जो भी मन में हो रहा, तू नयनों से बोल।।

 

अधरों पर धर बाँसुरी, लिया प्रेम आलाप।

दौड़ी आई राधिका, दूर हुए संताप।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 9 – गैस त्रासदी ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 9 ☆ हेमन्त बावनकर

 गैस त्रासदी !

(2-3 दिसंबर 1984 की रात  यूनियन कार्बाइड (यूका), भोपाल से मिक गैस  रिसने  से कई  लोगों  की मृत्यु हो गई थी।  मेरे काव्य -संग्रह  ‘शब्द …. और कविता’ से  उद्धृत  गैस त्रासदी पर श्रद्धांजलि स्वरूप।)

हम

गैस त्रासदी की बरसियां मना रहे हैं।

बन्द

हड़ताल और प्रदर्शन कर रहे हैं।

यूका और एण्डर्सन के पुतले जला रहे हैं।

 

जलाओ

शौक से जलाओ

आखिर

ये सब

प्रजातंत्र के प्रतीक जो ठहरे।

 

बरसों पहले

हिटलर के गैस चैम्बर में

कुछ इंसान

तिल तिल मरे थे।

हिरोशिमा नागासाकी में

कुछ इंसान

विकिरण में जले थे।

 

तब से

हमारी इंसानियत

खोई हुई है।

अनन्त आकाश में

सोई हुई है।

 

याद करो वे क्षण

जब गैस रिसी थी।

 

यूका प्रशासन तंत्र के साथ

सारा संसार सो रहा था।

 

और …. दूर

गैस के दायरे में

एक अबोध बच्चा रो रहा था।

 

ज्योतिषी ने

जिस युवा को

दीर्घजीवी बताया था।

वह सड़क पर गिरकर

चिर निद्रा में सो रहा था।

 

अफसोस!

अबोध बच्चे….. कथित दीर्घजीवी

हजारों मृतकों के प्रतीक हैं।

 

उस रात

हिन्दू मुस्लिम

सिक्ख ईसाई

अमीर गरीब नहीं

इंसान भाग रहा था।

 

जिस ने मिक पी ली

उसे मौत नें सुला दिया।

जिसे मौत नहीं आई

उसे मौत ने रुला दिया।

 

धीमा जहर असर कर रहा है।

मिकग्रस्त

तिल तिल मर रहा है।

 

सबको श्रद्धांजलि!

गैस त्रासदी की बरसी पर स्मृतिवश!

 

© हेमन्त बावनकर

पुणे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 103 – साद ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 103 – विजय साहित्य ?

☆ साद  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

 

आलें आले संमेलन

मांदियाळी लेखकांची

साहित्यांचे उपासक

लावा वर्णी रसिकांची…! १

 

ठेवा दूर मानपान

नको चर्चा खलबत

साहित्याच्या सागरात

सोडा नवे गलबत…! २

 

नवे जुने साहित्यिक

भेटायाची दैवी संधी..

पुर्वग्रह दुषिताने

नका होऊ जायबंदी…! ३

 

आलें आले संमेलन

वैचारिक मेजवानी

माणसाची माणसाला

स्नेहभेट खानदानी…! ४

 

खानदान साहित्याचे

विविधांगी अगणित

नको यांत कंपूगिरी

व्हावी कला द्विगुणित..! ५

 

नको यांत जात पात

नको कर्मठ प्रवाह

साहित्याच्या शब्दांगणी

हवा प्रतिभेला वाव…! ६

 

कसें नसावे लेखन

यांचे करून मनन

साहित्यिक मेळाव्यात

करू प्रतिभा जतन…! ७

 

आलें आले संमेलन

नको प्रमाद नी वाद

नको लौकिक आभासी

हवी अभिजात साद..! ८

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! ☆ ना गी ण ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

? ना गी ण ! ??

रविवार असल्यामुळे, नाष्टा वगैरे करून फुरसतीत दाढी करत होतो आणि तेवढ्यात दारावरची बेल वाजली. तोंड फेसाने माखल्यामुळे बायकोला म्हटलं, “बघ गं जरा कोण तडमडलय सकाळी सकाळी ते !” “बघते !” असं बोलत बायकोने दरवाजा उघडला. “मकरंद भावजी तुम्ही एवढ्या सकाळी आणि ते ही लुंगीवर आणि हे तुमच्या बरोबर कोण आलंय ?” हिचा तो तार स्वर ऐकून मी घाबरलो आणि टॉवेलने तोंड पुसत पुसत बाहेर आलो. “काय रे मक्या, काय झालंय काय असं एकदम माझ्याकडे लुंगीवर येण्या इतकं?” “वारेव्वा, मला काय धाड भरल्ये ? अरे तुलाच ‘नागीण’ चावल्ये ना ? वहिनी म्हणाल्या तसं मोबाईलवर, म्हणून शेजारच्या झोडपट्टीत राहणाऱ्या ह्या ‘गारुडयाला’ झोपेतून उठवून आणलंय, तुझी नागीण उतरवायला !” “अरे मक्या गाढवा नागीण चावली नाही, नागीण झाल्ये मला !” “असं होय, मला वाटलं चावल्ये, म्हणून मी या गारुड्याला घेवून आलो !” मी गारुड्याला म्हटलं “भाईसाब ये मेरे दोस्त की कुछ गलतफईमी हुई है ! आप निकलो.” “ऐसा कैसा साब, मेरी निंद खराब की इन्होने, कुछ चाय पानी….” मी गपचूप घरात गेलो आणि पन्नासची नोट आणून त्याच्या हातावर नाईलाजाने ठेवली. तो गारुडी गेल्यावर मी मक्याला म्हटलं “अरे असं काही करण्या आधी नीट खात्री का नाही करून घेतलीस गाढवा ? आणि नागीण चावायला आपण काय जंगलात राहतो का रे बैला ?” पण मक्या तेवढ्याच शांतपणे मला म्हणाला “अरे जंगलात नाहीतर काय ? ही आपली ‘वनराई सोसायटी’ आरे कॉलनीच्या जंगलाच्या बाजूला तर आहे ! आपल्या सोसायटीत रात्री अपरात्री बिबट्या येतो हे माहित नाही का तुला ?” “अरे हो पण म्हणून…” “मग नागीण का नाही येणार म्हणतो मी ? गेल्याच आठवड्यात बारा फुटी अजगर पकडाला होता ना आपल्या पाण्याच्या टाकी जवळ, मग एखादी नागीण…” शेवटी मी त्याची कशी बशी समजूत काढली आणि त्याला घरी पिटाळलं !

पण मक्या गेल्या गेल्या बायको मला म्हणाली, “आता साऱ्या ‘वनराईत’ तुमच्या या नागिणीची बातमी जाणार बघा !” “ती कशी काय ?” “अहो आपल्या ‘वनराई व्हाट्स ऍप गृपचे’ मकरंद भाऊजी ऍडमिन आणि अशा बातम्या ते ग्रुपवर लगेच टाकतात !” तीच बोलणं पूर होतंय न होतंय तोच आमच्या दोघांच्या मोबाईलवर, एकाच वेळेस मेसेज आल्याची बेल वाजली ! बायकोच भाकीत एवढ्या लवकर प्रत्यक्षात उतरेल असं वाटलं नव्हतं ! तो मक्याचाच व्हाट्स ऍप मेसेज होता ! “आपल्या ‘वनराईत’ बी बिल्डिंगमध्ये राहणारे वसंत जोशी यांना नागीण झाली आहे. तरी यावर कोणाकडे काही जालीम इलाज असल्यास त्यांनी लगेच जोशी यांच्याशी संपर्क साधावा, ही कळकळीची नम्र विनंती !” मी तो मेसेज वाचला आणि रागा रागाने मक्याला झापण्यासाठी मोबाईल लावणार, तेवढ्यात परत दाराची बेल वाजली ! कोण आलं असेल असा विचार करत दरवाजा उघडला, तर वरच्या मजल्यावरचे ‘वनराईतले’ सर्वात सिनियर मोस्ट गोखले अण्णा दारात काठीचा आधार घेत उभे !

“अण्णा, तुम्ही ? काही काम होत का माझ्याकडे ?” “अरे वश्या आत्ताच मक्याचा व्हाट्स ऍप मेसेज वाचला आणि मला कळलं तुला नागीण झाल्ये म्हणून ! म्हटलं चौकशी करून यावी आणि त्यावर माझ्याकडे एक जालीम उपाय आहे तो पण सांगावा, म्हणून आलो हो !” “अण्णा माझे डॉक्टरी उपाय चालू आहेत, बरं वाटेल एक दोन….” मला मधेच तोडत अण्णा म्हणाले “अरे वश्या ह्या नगिणीवर आलो्फेथीचे डॉक्टरी उपाय काहीच कामाचे नाहीत बरं !” “मग?” “अरे तिच्यावर आयुर्वेदिकच उपाय करायला हवेत, त्या शिवाय ती बरं व्हायचं नांव घेणार नाही, सांगतो तुला!” “पण डॉक्टर म्हणाले, तसा वेळ लागतो ही नागीण बरी व्हायला, थोडे पेशन्स ठेवा!” “अरे पण पेशन्स ठेवता ठेवता तीच तोंड आणि शेपटी एकत्र आली, तर जीवाशी खेळ होईल हो, सांगून ठेवतो !” “म्हणजे मी नाही समजलो ?” “अरे वश्या ही नागीण जिथून सुरु झाल्ये ना ती तिची शेपटी आणि ती तुझ्या कपाळावरून जशी जशी पुढे जात्ये नां, ते तीच तोंड !” “बापरे, असं असतं का ?” “हो नां आणि एकदा का त्या तोंडाने आपलीच शेपटी गिळली की खेळ खल्लास!” “काय सांगताय ? मग यावर काय उपाय आहे म्हणालात अण्णा ?” “अरे काय करायच माहित्ये का, रात्री मूठ भर तांदूळ भिजत घालायचे आणि सकाळी मूठभर हिरव्यागार दुर्वा आणून त्यांची दोघांची पेस्ट करून त्याचा लेप करून या नागिणीवर लावायचा ! दोन दिवसात आराम पडलाच म्हणून समज !” “अहो अण्णा, पण नागीण आता कपाळावरून केसात शिरत्ये, मग केसात कसा लावणार मी लेप ?” “वश्या तुझ्याकडे इलेक्ट्रिक रेझर असेलच ना, त्याने त्या सटवीच्या मार्गातले केस कापून टाक, म्हणजे झालं !” “अण्णा पण कसं दिसेल ते ? डोक्याच्या उजव्या डाव्या बाजूला रान उगवल्या सारखे केस आणि मधून पायावट! हसतील हो लोकं मला तशा अवतारात !” “हसतील त्यांचे दात दिसतील वश्या ! तू त्यांच हसणं मनावर घेवू नकोस!” “बरं बघतो काय करता येईल ते !” अण्णांना कटवायच्या हेतूने मी म्हणालो. “नाहीतर असं करतोस का वश्या, सगळं डोकंच भादरून टाक, म्हणजे प्रश्नच मिटला, काय ?” “अहो अण्णा, पण तसं केलं तर लोकं वेगळाच प्रश्न नाही का विचारणार ?” “ते ही खरंच की रे वश्या ! तू बघ कसं काय करायच ते, पण त्या सटविच तोंड आणि शेपटी एकत्र येणार नाही याची काळजी घे हो बरीक ! नाहीतर नस्ती आफत ओढवायची !” असं म्हणून अण्णा काठी टेकत टेकत बाहेर पडले आणि मी सुटकेचा निश्वास टाकला !

मी किचनकडे वळून म्हटलं “अगं जरा चहा टाक घोटभर, बोलून बोलून डोकं दुखायला लागलंय नुसतं !” आणि सोफ्यावर बसतोय न बसतोय तर पुन्हा दाराची बेल वाजली ! आता परत कोण तडमडल असं मनात म्हणत दार उघडलं, तर दारात शेजारचे कर्वे काका हातात रक्त चंदनाची भावली घेवून उभे ! मी काही विचारायच्या आत “ही रक्त चांदनाची भावली घे आणि दिवसातून पाच वेळा त्या नागिणीला उगाळून लाव, नाही दोन दिवसात फरक पडला तर नांव नाही सांगणार हा धन्वंतरी कर्वे !” असं बोलून आपल्या शेजारच्या घरात ते अदृश्य पण झाले! ते गेले, हे बघून मी सुटकेचा निश्वास टाकतोय न टाकतोय तर लेले काकू, हातात कसलासा कागदाचा चिटोरा घेवून दारात येवून हजर ! लेले काकूंनी तो कागद मला दिला आणि म्हणाल्या “या कागदावर किनई एका ठाण्याच्या वैद्याच नांव, पत्ता आणि फोन नंबर आहे, ते नागिणीवर जालीम औषधं देतात ! आधी फोन करून अपॉइंटमेंट घ्या बरं ! त्यांच्याकडे भरपूर गर्दी असते, पण लगेच गुण येतो त्यांच्या हाताचा ! आमच्या ह्यांना झाली होती कमरेवर नागीण, पण दोन दिवसात गायब बघा त्यांच्या औषधी विड्याने ! आणि हो काम झाल्यावर हा पत्त्याचा कागद आठवणीने परत द्या बरं का !” एवढं बोलून लेले काकू गुल पण झाल्या !
मी त्या कागदावरचा नांव पत्ता वाचत वाचत दार लावणार, तेवढ्यात ए विंग मधल्या चितळे काकूंनी एक कागदाची पुडी माझ्या हातावर ठेवली आणि “ही आमच्या ‘त्रिकालदर्शी बाबांच्या’ मठातली मंतरलेली उदी आहे ! ही लावा त्या नागिणीवर आणि चिंता सोडा बाबांवर! पण एक लक्षात ठेवा हं, ही उदी लावल्यावर दुसरा कुठलाच उपाय करायचा नाही तुमच्या नागिणीवर, नाहीतर या उदीचा काही म्हणजे काही उपयोग होणार नाही, समजलं ?” मी मानेनेच हो म्हटलं आणि आणखी कोणी यायच्या आत दार बंद करून टाकलं ! आणि मंडळी घरात जाऊन पहिलं काम काय केलं असेल, तर PC चालू करून त्यावर “Please do not disturb !” अस टाईप करून त्याची मोठ्या अक्षरात प्रिंटरवर प्रिंट आउट काढली आणि परत दार उघडून पटकन बाहेरच्या कडीला अडकवून दार लॉक करून, शांतपणे सोफ्यावर आडवा झालो !

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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