मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 85 – फराळ..! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #85 ☆ 

☆ फराळ..! ☆ 

(दिवाळी निमित्त खास छोट्या दोस्तांसाठी.. बालकविता…!)

आई म्हंटली दिवाळीला

फराळ करू छान

फराळात चकलीला

देऊ पहिला मान..!

 

गोल गोल फिरताना

तिला येते चक्कर

पहिलं कोण खाणार

म्हणून घरात होते टक्कर..!

 

करंजीला मिळतो

फराळात दुसरा मान

चंद्रासारखी दिसते म्हणून

वाढे तिची शान..!

 

एकामागून एक करत

करंजी होते फस्त

फराळाच्या डब्यावर

आईची वाढे गस्त..!

 

साध्या भोळ्या शंकरपाळीला

मिळे तिसरा मान

मिळून सा-या एकत्र

गप्पा मारती छान…!

 

छोट्या छोट्या शंकरपाळ्या

लागतात मस्त गोड

दिसत असल्या छोट्या तरी

सर्वांची मोडतात खोड..!

 

बेसनाच्या लाडूला

मिळे चौथा मान

राग येतो त्याला

फुगवून बसतो गाल..!

 

खाता खाता लाडूचा

राग जातो पळून

बेसनाच्या लाडू साठी

मामा येतो दूरून..!

 

चटपटीत चिवड्याला

मिळे पाचवा मान

जरा तिखट कर

दादा काढे फरमान..!

 

खोडकर चिवडा कसा

मुद्दाम तिखटात लोळतो

खाता खाता दादाचे

नाक लाल करतो…!

 

दिवाळीच्या फराळाला

सारेच एकत्र  येऊ

थोडा थोडा फराळ आपण

मिळून सारे खाऊ..!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत के पिताजी के दोस्त थे  शासन के उच्च पद पर विराजमान. जब तक कुछ बन नहीं पाये तब तक दोस्त रहे, बाद में बेवफा क्लासफेलो ही रहे. असहमत उन्हें प्यार से अंकल जी कहता था पर बहुत अरसे से उन्होंने असहमत से ” सुरक्षित दूरी ” बना ली थी. कारण ये माना जाता था कि शायद उच्च पदों के प्रशिक्षण में शिक्षा का पहला पाठ यही रहा हो या फिर  असहमत के उद्दंड स्वभाव के कारण लोग दूरी बनाने लगे हों पर ऐसा नहीं था .असली कारण असहमत का उनके आदेश को मना करने  का था और आदेश भी कैसा “आज हमारा प्यून नहीं आया तो हमारे डॉगी को शाम को बाहर घुमा लाओ ताकि वो “फ्रेश ” हो जाय.मना करने का कारण यह बिल्कुल नहीं था कि प्यून की जगह असहमत का उपयोग किया जा रहा है बल्कि असहमत के मन में कुत्तों के प्रति बैठा डर था. डर उसे सिर्फ कुत्तों से लगता था बाकियों को तो वो अलसेट देने के मौके ढूंढता रहता था.

अपेक्षा अक्सर घातक ही होती है अगर वह गलत वक्त पर गलत व्यक्तियों से की जाय और न तो न्याय संगत हो न ही तर्कसंगत. जहाँ तक साहब जी की मैडमकी बात है तो पुत्र का चयन भी राष्ट्रीय स्तर की प्रशासनिक परीक्षा में होने से उनके आत्मविश्वास, रौब और रुआब में कोई कमी नहीं आई थी. नारी जहां अपनी सोच और अपने रूखे व्यवहार का स्त्रोत बदलने में देर नहीं लगातीं वहीं पुरुष का आत्मविश्वास और ये सभी दुर्गुण उसके पदासीन होने तक ही रह पाते हैं पर हां आंच ठंडी होने में समय लगता है जो व्यक्ति के अनुसार ही अलग अलग होता है. तो साहब को सरकारी बंगले से सरकारी वाहन , सरकारी ड्राईवर, माली और प्यून के बिना खुद के घर में रहने के शॉक से गुजरना पड़ा. वो सारे रीढ़विहीन जी हुजूरे अब कट मारने लगे और मोबाइल भी इस तरह खामोश हो गया जैसे उनकी पदविहीनता को मौन श्रद्धांजलि दिये जा रहा हो. ये समय उन…

डॉक्टर, साहब जी की बीमारी समझ गये और अवसाद याने depression का पहले सामान्य इलाज ही किया. पर नतीजा शून्य था क्योंकि अवसाद की जड़ें गहरी थीं. थकहारकर एक्सपेरीमेंट के नाम पर सलाह दी कि “सर आप अपने घर के एक शानदार कमरे को ऑफिस बना लीजिए और वो सब रखिये जो आपके आलीशान चैंबर में रहा होगा. AC, heavy curtains, revolving chair, teakwood large table, two or three phones, intercoms, etc. etc. जब ये सब करना पड़ा तो किया गया और फिर सब कुछ उसी तरह सज गया सिर्फ कॉलबेल या इंटरकॉम को अटैंड करने वाले को छोड़कर. अंततः ऐसे मौके पर भूले हुए क्लासफेलो याद आये. सादर आमंत्रित किया गया. मालुम था कि असहमत को इस काम के लिये दोस्ती के नाम पर यूज़ किया जा सकता है. असहमत के पिता जी भी इंकार नहीं कर पाये, क्योंकि इस कहावत पर उनका विश्वास था कि कुछ भी हो, निवृत्त हाथी भी सवा लाख…

असहमत के ज्वाईन करते ही साहब का डमी ऑफिस शुरु हो गया. असहमत का रोल मल्टी टास्किंग था, पीर बावर्ची भिश्ती, खर सब कुछ वही था, सिर्फ आका का रोल साहब खुद निभा रहे थे.इस प्रयोग ने काफी प्रभावित किया, साहब को लगी अवसाद याने डिप्रेशन की बीमारी को और धीरे धीरे असहमत साहब का प्रिय विश्वासपात्र बनता गया.असहमत भी मिल रही importance और चाय, लंच, नाश्ते के कारण काफी अच्छा महसूस कर रहा था पर जो एक जगह रम जाये वो जोगी और असहमत नहीं और अभी तो बहुत कुछ घटना बाकी था जिसमें असहमत का हिसाब बराबर करना भी शामिल था. साहब भी बिना मलाई के अफसरी करते करते बोर भी हो गये थे और अतृप्त भी. चूंकि अपने मन की हर बात वो अब असहमत से शेयर करने लगे थे तो उन्होंने उससे दिल की बात कह ही डाली कि “वो अफसर ही क्या जो सिर्फ तनख्वाह पर पूरा ऑफिस चलाये ” और इसी बात पर ही असहमत के फ़ितरती दिमाग को रास्ता सूझ गया हिसाब बराबर करने का. तो अगले दिन इस डमी ऑफिस में कहानी के तीसरे पात्र का आगमन हुआ जो बिल्कुल हर कीमत पर अपना काम करवाने वाले ठेकेदारनुमा व्यक्तित्व का स्वामी था. साहब भी भूल गये कि ऑफिस डमी है और लेन देन का सौदा असहमत की मौजूदगी में होने लगा. आगंतुक ने अपने डमी रुके हुये बिल को पास करवाने की पेशगी रकम पांच सौ के नोटो की शक्ल में पेश की और साहब ने अपनी खिली हुई बांछो के साथ फौरन वो रकम लपक ली, थोड़ा गिना, थोड़ा अंदाज लगाया और जेब में रखकर हुक्म दिया “जाओ असहमत जरा इनकी फाईल निकाल कर ले आओ. फाईल अगर होती तो आती पर फाईल की जगह आई “एंटी करप्शन ब्यूरो की टीम”. साहब हतप्रभ पर टीम चुस्त, पूरी प्रक्रिया हुई, हाथ धुलवाते ही पानी रंगीन और साहब का चेहरा रंगहीन. ये शॉक साहब को वास्तविकता के धरातल पर पटक गया और उन्होंने आयुक्त को समझाया कि सर ये सब नकली है और हमारे ऑफिस ऑफिस खेल का हिस्सा है. पर आयुक्त मानने को तैयार नहीं, कहा “पर नोट तो असली हैं, शिकायत भी असली है और शिकायतकर्ता भी असली है. आपका पुराना कस्टमर है और शायद पुराना हिसाब बराबर करने आया है. फिर उन्होंने रिश्वतखोर अफसर को अरेस्ट करने का आदेश दिया.

अरेस्ट होने की सिर्फ बात सुनकर ही साहब की सारी हेकड़ी निकल गई और अपने साथ साथ ले गई साहबी, अकड़, लालच, संवेदनहीनता, उपेक्षा करने की आदत, सब कुछ होने के बाद भी असंतुष्टि और साथ ही डिप्रेशन की बीमारी भी. सारा रौब पलायन होने के बाद व्यक्तित्व में आ गई निचले दर्जे की विनम्रता जिसे गिड़गिड़ाना भी कह सकते हैं. ये वह अवस्था होती है जब अपने अलावा उपस्थित हर व्यक्ति महत्वपूर्ण लगने लगता है. अंततः साहब को जो इलाज चाहिए था वो इस शॉक थेरैपी से मिल गया और असहमत के फितूरी दिमाग से रचे गये इस नाटक ने न केवल नाटक का पटाक्षेप किया बल्कि अपने हिसाब बराबर करने का मौका भी पाया. साहब की बीमारी के निदान और उनके हृदय परिवर्तन की खुशी में असहमत ने फिर अपने नकली बॉस को असली ऑर्डर दिया ” अंकल जी, जाइये इस पूरी टीम को और इसके नायक याने मेरे लिये, घर की बनी कड़क चाय और लजी़ज नाश्ते का इंतजाम कीजिये. कहानी यहीं खत्म हुई साहब भी अवसादहीन और प्रफुल्लित हुये और असहमत ने भी चाय नाश्ते के बाद घर की राह पकड़ी.

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 6 – दीप पर्व विशेष – दीपावली का पर्व यह …☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  दीप पर्व पर विशेष कविता  “दीपावली का पर्व यह …”। अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 6 – दीप पर्व विशेष – दीपावली का पर्व यह … ☆ 

 

मातु लक्ष्मी कृपा कर, सरस्वती दे ज्ञान ।

गणपति से आशीष ले, सभी बने विद्वान ।।

 

फुलझड़ियां मुस्कान की, जगमग जलते दीप।

खुशियों के बम फूटते, पाकर मोती सीप।।

 

दीपक घर घर में जलें, दूर हटे अज्ञान ।

तमस सभी मन के मिटें, सबका हो कल्यान।।

 

रंग बिरंगी रोशनी, झूम उठेगी शाम।

राम अयोध्या आ गए, सँबरे सबके काम।।

 

दीपावली का पर्व यह, फिर आया इस बार ।

हंसी-खुशी सब साथ में, सुखमय हो संसार।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

 

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 121 ☆ कान्हा राष्ट्रीय उद्यान – हार्ड ग्राउंड बारासिंघा और बाघों का बसेरा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक ज्ञानवर्धक आलेख  ‘कान्हा राष्ट्रीय उद्यान – हार्ड ग्राउंड बारासिंघा और बाघों का बसेरा। इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 121 ☆

?  कान्हा राष्ट्रीय उद्यान – हार्ड ग्राउंड बारासिंघा और बाघों का बसेरा ?

घने ऊँचे वृक्षों के बीच से सूरज की रोशनी कुछ इस तरह से झर रहीं थीं मानो स्वर्ण किरणें सीधे स्वर्ग से आ रही हों. हम खुली जीप पर सवार थे. जंगल की नमी युक्त, महुये की खुशबू से सराबोर हवा हमें एक मादक स्पर्श से अभीभूत कर रही थी.गर्मी के मौसम में भी हल्की ठंड का अहसास हो रहा था,मानो प्रकृति ने एारकंदीशनर चला रखा हो. पत्तों की कड़खड़ाहट भी हमें चौंका देती थी, लगता था कि अगले ही पल कोई वन्य जीव हमारे सामने होगा. मेरे बच्चों की जिज्ञासा हर पल एक नया सवाल लेकर मेरे सम्मुख थी. मिलिट्री कलर की ड्रेस में ग्राम खटिया का रहने वाला मूलतः आदिवासी गौंड़, हमारा गाइड मुन्नालाल बार बार बच्चों को शांत रहने का इशारा  कर रहा था जिससे वह किसी आसन्न जानवर की आहट ले सके. बिटिया चीना ने खाते खाते चिप्स का पैकेट खाली कर दिया था, और उसने पालीथिन के उस खाली पैकेट को अपने बैग में रख लिया जंगल में घुसने से पहले ही हमें बताया गया था कि जंगल नो पालीथिन जोन है. जिससे कोई जानवर पालिथिन गलती से न खा  ले, जो उसकी जिंदगी की मुसीबत बन जाये. कान्हा का अभयारण्य क्षेत्र ईकोलाजिकल फारेस्ट के रूप में जाना जाता है. जंगल में यदि कोई पेड़ सूखकर गिर भी जाता है तो यहां की विशेषता है कि उसे उसी स्थिति में प्राकृतिक तरीके से ही समाप्त होने दिया जाता है. यही कारण है कि कान्हा में जगह जगह उँचे  बड़े दीमक के घर “बांमी” देखने को मिलते हैं.

पृथ्वी पर पाई जानें वाली बड़ी बिल्ली की प्रजातियों में से सबसे रोबीला, अपनी मर्जी का मालिक और खूबसूरत है,भारत का राष्ट्रीय पशु – बाघ. जहां एक बार भारत के जंगलों में 40,000 से अधिक बाघ थे, पिछले दशक में ऐसा लगा मानो यह प्रजाति विलुप्त  होने की कगार पर है.  शिकार के कारण तथा जंगलों की अंधा धुंध कटाई के चलते भारत के वन्य क्षेत्रों में बाघों की संख्या घट कर 2000 से भी कम हो गई थी. समय रहते सरकार और पर्यावरण विदो ने सक्रिय भूमिका निभाई. कान्हा जैसे वन अभयारण्यों में पुनः बाघों को अपना घर मिला और प्रसन्नता का विषय है कि अब बाघो की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज हुई है.  बाघों को तो चिड़ियाघर में भी देखा जा  सकता है,  परंतु जंगल में मुक्त विचरण करते बाघ देखने का रोमांच और उत्साह अद्भुत होता है. वन पर्यटन हेतु प्रदेश टूरिज्म डिपार्टमेंट ने   कान्हा राष्ट्रीय उद्यान,  बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, पेंच राष्ट्रीय उद्यान आदि में बाघ सफारी हेतु इंतजाम किये हैं. इन वनो में हम भी शहरी आपाधापी छोड़कर जंगल के नियमों और प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुये, बिना वन्य प्राणियो को नुकसान पहुंचाये उन्हें निहार सकते हैं. इन पर्यटन स्थलो के वन संग्रहालयो में पहुंचकर वन्य प्राणियो के जीवन चक्र को समझ सकते हैं, और लाइफ टाइम मैमोरीज के साथ ही प्राकृतिक छटा में, अविस्मरणीय फोटोग्राफ लेकर एक रोचक, रोमांचक अनुभव कर सकते हैं.

कान्हा राष्ट्रीय उद्यान व बाघ अभयारण्य मध्य प्रदेश राज्य के मंडला एवम्‌ बालाघाट जिलों में स्थित है. कान्हा में हमें बाघों व अन्य वन्य जीवों के अलावा पृथ्वी पर सबसे दुर्लभ हिरण प्रजातियों में से एक -हार्ड ग्राउंड बारहसिंगा को भी देखने का मौका मिलता हैं. समर्पित स्टाफ व उत्कृष्ट बुनियादी पर्यटन ढांचे के साथ कान्हा भारत का सबसे अच्छा और अच्छी तरह से प्रबंधित अभयारण्य हैं. यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य, हरे भरे साल और बांस के सघन जंगल, घास के मैदान तथा शुद्ध व शांत वातावरण पर्यटक को सम्मोहित कर लेता हैं. कान्हा पर्यटकों, प्राकृतिक इतिहास,वन्य जीव फोटोग्राफरों, बाघ और वन्यजीव प्रेमियों के साथ बच्चो और आम लोगों के बीच बड़े पैमाने पर प्रसिद्ध है. कहा जाता है कि लेखक श्री रुडयार्ड किपलिंग को ‘जंगल बुक’ नामक विश्व प्रसिद्ध उपन्यास लिखने के लिए इसी जंगल से प्रेरणा मिलीं थी.  किपलिंग रिसार्ट नामक एक परिसर उनकी स्मृतियां हर पर्यटक को दिलाता रहता है. बाघ व बारह सिंगे के सिवाय कान्हा में  तेंदुआ, गौर (भारतीय बाइसन), चीतल, हिरण, सांभर, बार्किंग डीयर, सोन कुत्तों के झुंड, सियार इत्यादि अनेक स्तन धारी जानवरों, तथा कुक्कू, रोलर्स, कोयल, कबूतर, तोता, ग्रीन कबूतर, रॉक कबूतरों, स्टॉर्क, बगुलों, मोर, जंगली मुर्गी, किंगफिशर, कठफोड़वा, फिन्चेस, उल्लू और फ्लाई कैचर जैसे पक्षियों की 250 से अधिक प्रजातियों, विभिन्न सरीसृपों और हजारों कीट पतंगे हम यहाँ  देख सकते हैं. प्रकृति की सैर व वन्य जीवों को देखने के अलावा बैगा और गोंड आदिवासीयो की संस्कृति व रहन सहन को समझने के लिए भी पर्यटक यहाँ देश विदेश से आते हैं.

भारत में सबसे पुराने अभयारण्य में से एक, कान्हा राष्ट्रीय उद्यान को 1879 में आरक्षित वन तथा 1933 में अभयारण्य घोषित किया गया, 1973 में इसे वर्तमान स्वरूप और आकार में अस्तित्व में लाया गया था, लेकिन इसका इतिहास महाकाव्य रामायण के समय से पहले का हैं. कहा जाता हैं कि अयोध्या के महाराज दशरथ ने कान्हा में स्थित श्रवण ताल में ही श्रवण कुमार को हिरण समझ के शब्द भेदी बाण से मार दिया था तथा श्रवण कुमार का अंतिम संस्कार श्रवण चित्ता में हुआ था. आज भी वर्ष में एक दिन जब श्रवण ताल में आदिवासियो का मेला भरता है, सभी को वन विभाग द्वारा कान्हा वन्य क्षेत्र में निशुल्क प्रवेश दिया जाता है. 

इस क्षेत्र में पायी जाने वाली रेतीली अभ्रक युक्त  मिट्टी जिसे स्थानीय भाषा में ‘कनहार’ के नाम से जाना जाता है, के कारण इस वन क्षेत्र में कान्हा नामक वन्य ग्राम था जिसके नाम पर ही इस जंगल का नाम कान्हा पड़ा. एक अन्य प्रचलित लोक गाथा के अनुसार कवि कालिदास जी द्वारा रचित ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ में वर्णित ऋषि कण्व यहां के निवासी थे तथा उनके नाम पर इस क्षेत्र का नाम कान्हा पड़ा.

कान्हा राष्ट्रीय पार्क के चारों ओर बफर क्षेत्र में आदिवासी संस्कृति और जीवन स्तर को देखने के लिए गांव का भ्रमण तथा जंगल को पास से देखने व समझने के लिए एवम्‌ पक्षियो को  निहारने के लिए सीमित क्षेत्र में पैदल जंगल भ्रमण किया जा सकता हैं. कान्हा के प्राकृतिक परिवेश और शांत वातावरण में स्वास्थ्यप्रद भोजन, योग और ध्यान के साथ स्वास्थ्य पर्यटन का आनंद भी लिया जा सकता है. कान्हा क्षेत्र बैगा और गोंड आदिवासियों का निवास रहा है. बैगा आदिवासियों को भारतीय उप महाद्वीप के सबसे पुराने निवासियों में से एक के रूप में जाना जाता है। वे घुमंतू खेती किया करते थे और जंगल से शहद, फूल, फल, गोंद, आदि लघु वनोपज एकत्र कर के अपना जीवन यापन करते थे. स्थानीय क्षेत्र और वन्य जीवन का उनको बहुत गहरा ज्ञान है. बांस के घने जंगल कान्हा की विशेषता हैं. यहां के स्थानीय ग्रामीण बांस से तरह तरह के फर्नीचर व अन्य सामग्री बनाने में बड़े निपुण हैं. मण्डला में कान्हा सिल्क के नाम से स्थानीय स्तर पर कुकून से रेशम बनाकर हथकरघा से रेशमी वस्त्रो का उत्पादन इन दिनों किया जा रहा है. आप कान्हा से लौटते वक्त सोवेनियर के रूप में बांस की कोई कलाकृति, वन्य उपज जैसे शहद, चिरौंजी, आंवले के उत्पाद या रेशम के वस्त्र अपने साथ ला सकते हैं, जो बार बार आपको प्रकृति के इस रमणीय सानिध्य की याद दिलाते रहें.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 102 – लघुकथा – धनलक्ष्मी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  पारिवारिक विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “धनलक्ष्मी । इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 102 ☆

? लघुकथा – धनलक्ष्मी ?

लगातार व्यापार में मंदी और घर के तनाव से आकाश बहुत परेशान हो उठा था। घर का माहौल भी बिगड़ा हुआ था। कोई भी सही और सीधे मुंह बात नहीं कर रहा था। सभी को लग रहा था कि आकाश अपनी तरफ से बिजनेस पर ध्यान नहीं दे रहा है और घर का खर्च दिनों दिन बढ़ता चला जा रहा है।

आज सुबह उठा चाय और पेपर लेकर बैठा ही था कि अचानक आकाश के पिताजी की तबीयत खराब होने लगी घर में कोहराम मच गया। एक तो त्यौहार, उस पर कड़की और फिर ये हालात। किसी तरह हॉस्पिटल में भर्ती कराया। घर आकर पैसों को लेकर वह बहुत परेशान था कि पत्नी उमा आकर बोली… चिंता मत कीजिए सब ठीक हो जाएगा। मैं और तीनों बेटियों ने कुछ ना कुछ काम करके कुछ रुपये जमा कर रखा है, जो अब आपके काम आ सकता है। बेटियों ने ट्यूशन और सिलाई का काम किया है।

पिताजी का इलाज आराम से हो सकता है। आकाश अपनी तीनों बेटियों और पत्नी से नफरत करने लगा था। क्योंकि उसे तीन बेटियां हो गई थी। रुपयों से भरा बैग देकर उमा ने कहा… आपका ही है, आप पिताजी को स्वस्थ  कर घर ले कर आइए।

आकाश अपनी पत्नी और बेटियों का मुंह देखता ही रह गया। सदा एक दूसरे को कोसा करते थे परिवार में सभी लोग। परंतु आज वह रुपए लेकर अस्पताल गया, मां समझ ना सकी कि इतने रुपए कहां से लाया।

मां ने समझाया… आज धनतेरस है शाम को मैं तेरे बाबूजी के साथ रह लूंगी। घर जा कर पूजा कर लेना।

पूजा का सामान लेकर वह घर पहुंचा। पत्नी ने सारी तैयारी कर रखी थी और तीनों बेटियों को लेकर एक जगह बैठ गई थी। आकाश ने पूजा शुरू की और आज सबसे पहले अपनी धनलक्ष्मी और धनबेटियों को पुष्प हार पहना, तिलक लगाकर वह बहुत प्रसन्न था।

मन ही मन सोच रहा था सही मायने में आज तक मैं लक्ष्मी का अपमान करता रहा आज सही धनतेरस की पूजा हुई है। उमा और तीनों बेटियां बस अपने पिताजी को देखे जा रही थी। घर दीपों से जगमगा रहा था। बेटियों ने बरसों बाद अपने पिताजी को गले लगाया और माँ के नेत्र तो आंसुओं से भीगते चले जा रहे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 110 ☆ ‘तू’ ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 110 ☆

☆ ‘तू’ ☆

हासते आहेस तू

लाजते आहेस तू

 

मख्ख माझा चेहरा

वाचते आहेस तू

 

तळ मनाचा खोल पण

गाठते आहेस तू

 

लाज पदराखालती

झाकते आहेस तू

 

सूर्य नाही काजवा

मागते आहेस तू

 

सृजनतेची वेदना

जाणते आहेस तू

 

जीवनाचा अर्थही

सांगते आहेस तू

 

एक भक्तीचा दिवा

लावते आहेस तू

 

सोबतीने आजही

चालते आहेस तू

 

देह आणिक भाकरी

भाजते आहेस तू

 

नाहताना चांदणे

सांडते आहेस तू

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 62 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 62 –  दोहे 

 

रोई ब्रज की गोपिका, रोए थे नंदलाल।

चुप्पी साधे राधिका, आंसू करे सवाल।

 

आंसू का इतिहास है आशु का भूगोल ।

आंसू का विज्ञान अब, रहस्य रहा है खोल।।

 

आंसू है संवेदना आंसू, मन की पीर।

यशोधरा का रूप है ,जसोदा की जंजीर।।

 

जनक दुलारी चल पड़ी ,ओढ़ अश्रु का चीर ।

आंसू डूबी अयोध्या, राम मौन गंभीर ।।

 

घनानंद का अश्रुधन ,अर्पित कृष्ण सुजान।

उसी अश्रु की धार में ,डूबे थे रसखान ।।

 

आंसू डूबी सांस से, रचित ईश्वरी फाग।

रजउ ब्रह्म थी ,जीव थी ,ऐसा था अनुराग।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 62 – खबर तो यह भी जरूरी ….. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “खबर तो यह भी जरूरी ….. । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 62 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || खबर तो यह भी जरूरी ….. || ☆

 

खबर तो यह भी जरूरी

है, नई

फर्श से दीवार आकर

सट गई

 

शून्य पसरा भवन के

सद विचारों में

दिख रहे ध्वंश के बादल

दरारों में

 

ईंट की अपनी व्यथा

सहकर्मियों से

दूसरी एक ईंट आकर

कह गई

 

शुरू झड़ना हुआ

चूना समय का

बचा न अस्तित्व

जैसे विनय का

 

लोक प्रचलित कहावत

सी चेतना

डाक में आये खतों

सी बँट गई

 

अस्तव्यस्तस्थितियाँ

सिंहद्वारों की

भूख में डूबी

बस्ती कहारों की

 

कमर से आ झुकी

नाइन पूछती

जल रही वो आग

कैसे बुझ गई ?

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

24-10-2019

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 108 ☆ जीतने वाले…. ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  ‘जीतने वाले….’).   

☆ कविता # 108 ☆ जीतने वाले.... ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जीत के

अक्षर में

शब्द हंसते हैं,

 

शब्द हमेशा

टटोलते हैं

जीत का मतलब,

 

जीतने वाले

शब्दों से

खेलते नहीं,

 

जीतने वाले

शब्दों को

मान देते हैं,

 

जीतने वाले

शब्दों को

मधुर बनाते हैं,

 

जीतने वाले

शब्दों को

हंसी देते हैं,

 

जीतने वाले

शब्दों को

नये अर्थ देते हैं,

 

जीतने वाले

शब्दों को

आत्मसात करते हैं,

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #52 ☆ # दीपोत्सव मनाएं # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी नवरात्रि पर्व पर विशेष कविता “# दीपोत्सव मनाएं #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 52 ☆

☆ # दीपोत्सव मनाएं # ☆ 

जगमग जगमग दीप जले हैं

दीपों की सजी है माला

दुल्हन सी सजी है धरती

चारों तरफ है उजाला

 

आकाश में चमकते तारें

ओढ़नी में सजे जैसे सितारे

अमावस्या की काली रात में

बिखरे हैं रंगीन नजारें

 

चारों तरफ है बेरोजगारी

जनता है त्रस्त महंगाई की मारी

जीना है दूभर गरीब का

कौन दूर करें लाचारी

 

महामारी में सबकुछ लुट गया हो

परिवार राह में छूट गया हो

जनम जनम के जो थे साथी

उनसें बंधन टूट गया हो

 

कैसे जिएं वो मन को मारें

व्यर्थ है उसके लिए नजारें

कैसा दीया और कैसी बाती

जख्म है ताजा

लहू की बहती हैं धारें

 

आओ सब कुछ भूल जाएँ 

घर घर में हम खुशियां लाएं 

कोई ना हो किस्मत का मारा

दीप जलायें, दीपोत्सव मनाएं  

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares