हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 91 – लघुकथा – पहल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “पहल।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 91 ☆

☆ लघुकथा — पहल ☆ 

दोनों शिक्षिका रोज देर से शाला आती थी. उन्हें बार-बार आगाह किया मगर कोई सुधार नहीं हुआ. एक बार इसी बात को लेकर शाला निरीक्षक ने प्रधान शिक्षिका को फटकार दिया. तब उसने सोचा लिया कि दोनों शिक्षिका की देर से आने की आदत सुधार कर रहेगी.

” ऐसा कब तक चलेगा?”  प्रधान शिक्षिका ने अपने शिक्षक पति से कहा,” आज के बाद इनके उपस्थिति रजिस्टर में सही समय अंकित करवाइएगा.”

” अरे! रहने दो. उनके पति नेतागिरी करते हैं.”

” नहीं नहीं, यह नहीं चलेगा. वे रोज देर से आती हैं और उपस्थिति रजिस्टर में एक ही समय लिखती हैं. क्या वे उसी समय शाला आती हैं?”

” अरे! जाने भी दो.”

” क्या जाने भी दो ?”  प्रधान शिक्षिका ने कहा,” आप उनको नोटिस बनाते हो या मैं बनाऊं?”

” ऐसी बात नहीं है.”

” फिर क्या बात है स्पष्ट बताओ?”

” पहले तुम तो समय पर आया करो, ताकि मैं भी समय पर शाला आ पाऊं,”  शिक्षक पति ने कहा,” तभी हमारे नोटिस का कुछ महत्व होगा, अन्यथा…” कह कर शिक्षक पति चुप हो गया.

वाचाल प्रधान शिक्षिका ने इसके आगे कुछ कहना ठीक नहीं समझा.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13-10-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 81 ☆ मैं हिंदी हूँ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता “मैं हिंदी हूँ

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 81 ☆

☆ मैं हिंदी हूँ ☆ 

मैं भारत की प्यारी हिंदी।

जन-जन की उजियारी हिंदी।।

 

मैं तुलसी की सृष्टि बनी।

मैं सूरदास की दृष्टि बनी।।

 

मैं हूँ मीरा की  पथगामी।

मैं हूँ कबीर की सतगामी।।

 

मैं रत्नाकर के छंद बनी।

मैं खुसरो की हूँ बन्द बनी।।

 

मैं घनानंद की प्रवाहिका।

मैं निराला की अनामिका।।

 

मैं बसंत का गीत बनी।

फिल्मों का संगीत बनी।।

 

मैं मोक्षदायिनी गंग बनी।

 मैं सप्तरंग का रंग बनी।।

 

मैं ही जीवन का सत्य अटल।

मैं ही भारत का भाग्य पटल।।

 

मैं हूँ तुलसी का रामचरित।

सुरसरिता-सी महिमामंडित।।

 

 मैं जयशंकर की कामायनी।

मैं शस्य धरा की प्राणदायिनी।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 83 – पाऊस म्हटलं की….! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #83 ☆ 

☆ पाऊस म्हटलं की….! ☆ 

पाऊस म्हटलं की

आपण कधीतरी ऐकलेली

एखादी प्रेम कविता

सहज मनात येते..

कारण…,

आपण शहरात राहणारी माणसं…

आपल्याला त्याच्या आणि तिच्या

पलिकडे पाऊस आहे

असं कधी वाटतंच नाही..

पाऊस म्हटलं की…

आपण हरवून जातो

त्याच्या,तिच्या आठवणींमध्ये

पण हा पाऊस…

जितका त्याचा आणि तिचा आहे ना..,

तितकाच,शेतक-याचा ही आहे..

कदाचित जरा जास्तच…!

पण ह्या पावसातही एक

फरक असतो बरं का…

पाऊस जरा जास्त झाला ना

तर त्याला, तिला

काही फारसा फरक पडत नाही..

पण माझा शेतकरी मात्र

घाबरून जातो,रडकुंडीला येतो

पण तरीही…

डोळ्यांच्या आड पडणारा पाऊस

त्याच्या पापण्यांचा बांध सोडून

त्याच्या गालावर कधी ओघळत नाही

कारण…,

पाऊस म्हटलं की त्यालाही

आठवत असते त्यानं…

कधीतरी ऐकलेली एखादी

शेतीमाती वरची कविता…!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #104 – सीधी बात न करता क्यों बे…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक भावप्रवण गीतिका  “सीधी बात न करता क्यों बे….”। )

☆  तन्मय साहित्य  #104 ☆

☆ सीधी बात न करता क्यों बे….

(एक मित्र से चर्चा के दौरान उसके दिए शब्द “क्यों बे” शब्द पर लिखी एक गीतिका)

 

क्या लिखता रहता है क्यों बे

रातों में जगता है क्यों बे।

 

लच्छेदार शब्द शस्त्रों से

लोगों को तू ठगता क्यों बे।

 

सच जब तेरे सम्मुख आए

मूँह छिपाकर भगता क्यों बे।

 

बातें दर्शन और धर्म की

यूँ फोकट में बकता क्यों बे।

 

बिना पिये पटरी से उतरे

सीधी बात न करता क्यों बे।

 

नौटंकी अभिनय बाजों से

रिश्ता उनसे रखता क्यों बे।

 

लिखता है जैसा जो भी तू

वैसा ना तू दिखता क्यों बे।

 

बाहर बाहर मौज खोजता

भीतर में नहीं रहता क्यों बे।

 

मन की मदिरा बहुत नशीली

बाहर निकल, बहकता क्यों बे।

 

कहे मदारी, सुने जमूरा

हाँ में हाँ तू कहता क्यों बे।

 

ह्रस्व दीर्घ की पंचायत में

छंदों में नहीं रमता क्यों बे।

 

बीच बजार खड़ी है कविता

दाम सही ना मिलता क्यों बे।

 

मिल-जुल हँसी-खुशी से जी ले

अपनों से ही जलता क्यों बे।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  गत अंक में हमने अपने प्रबुद्ध पाठकों से उनके पात्र ‘असहमत’ से परिचय  करवाया था। यदि आप पढ़ने से वंचित रह गए हों तो असहमत का परिचय निम्न लिंक पर क्लिक कर प्राप्त सकते हैं।

मैं ‘असहमत’ हूँ …..!

अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत का मन सुबह के नाश्ते में पोहा और जलेबी खाने का हो रहा था क्योंकि परसों ही उसने वाट्सएप ग्रुप में इस पर काफी कुछ पढ़ा था. पर जब वो सुबह जागा जैसे कि उसकी देर से बिस्तर छोड़ने की आदत थी तो नाश्ते का मेन्यू डिसाइड हो चुका था. मां ने आलू पराठे बनाये थे और मां से इसरार करने पर भी मां सहमत नहीं हुई बल्कि डांट पिलाई. दरअसल परिवार में बेरोजगार होना आपकी डिग्री और रिश्ते दोनों को ही कसौटी पर रख देता है और हर मांग डांट खाने का बहाना बन जाती है. पर आज असहमत भी राज़ी नहीं हुआ क्योंकि कभी कभी स्वाद या चटोरापन अनुशासन से ऊपर उठकर और भैया या पिताजी की जेब टटोलकर फाइनेंसियल निदान  ढूंढ ही लेता है. उसने कुशल वित्तमंत्री के समान सरकारी खजाने से उतनी ही overdrawing की जितना उसने पोहा, जलेबी और चाय + पान का बज़ट बनाया था. रिश्तों का जरूरत से ज्यादा शोषण उसके सिद्धांतों के विपरीत था. तो मां के बनाये आलू पराठे ठुकराकर उसने अपने निर्धारित गंतव्य की राह पकड़ी. वर्किंग डे था, रविवार नहीं तो उसका नंबर जल्द ही आ गया पर आर्डर पूरा करने के लिये उसने जेब में रखे कड़कड़ाते नोट को हल्का सा बाहर निकाला ताकि पोहे वाला उस पर ध्यान दे. नज़रों में संदेह देखकर बाकायदा पूरे नोट के दर्शन कराये और रोबीले स्वर में कहा: फुटकर देने लायक धंधा तो हो गया है ना. दुकानदार पक्का व्यापारी था, हलकट भी अगर पैसा लेकर पोहा खाने आया है तो वो ग्राहक उसके लिये कटहल के समान बन जाता था. खैर जलेबी के साथ पोहा खाकर फिर अदरक वाली कड़क मीठी एक नंबर चाय का आस्वादन कर फिनिशिंग शॉट मीठा पान चटनी चमनबहार से करके असहमत मंत्रमुग्ध हो गया था. घर अभी जाने का सवाल ही नहीं था क्योंकि अभी फिलहाल वो कुटने के लिये मानसिक और शारीरिक दोनों ही रूप से तैयार नहीं था. तो उसने बाकी पैसे वापस लेकर साईकल उठाई और “साइकिल से मार्निंग वॉक” के उद्देश्य से आगे बढ़ा.मौसम ठंडा था, हवा भी सामान्य से तेज ही चल रही थी. रास्ते में एक स्कूल ग्राउंड पर उसकी नजर पड़ी तो वो रुक गया और हो रही गतिविधि के नजारों में रम गया.

स्कूल टीचर क्लास के छात्रों के बीच कुर्सी दौड़ का खेल खिला रहे थे. जैसा कि सब जानते ही हैं कि कुर्सी हमेशा खिलाड़ियों से एक कम ही होती है. नौ खिलाड़ियों और आठ कुर्सियों से खेल शुरु हुआ, टीचर के हाथ में घंटी थी जो बजायी जा रही थी. जैसे ही घंटी का बजना बंद होता, खिलाड़ी दौड़कर सबसे पास या सबसे सुगम कुर्सी में विराजमान हो जाते पर इस दौड़ में कुर्सी नहीं हासिल कर पाने वाला पहले तो उज़बक के समान खड़ा रहता और फिर देखने वालों की हंसी के बीच किनारे आकर गौतम बुद्ध जैसा निर्विकार बन जाता.अब खेल रोचक होते जा रहा था और धूप भी तेज़.असहमत को अपने स्कूल के दिन भी याद आ गये जिनसे होता हुआ वो वर्तमान तक आ पहुंचा जहां कुर्सियां 8 ही रहीं पर खेलने वाले नौ नहीं बल्कि नब्बे हजार हो गये और ये खेल रोजगार पाने का नहीं बल्कि बेरोजगार होने का रह गया.फिर उसका ध्यान स्कूल में खेली जा रही कुर्सी दौड़ पर केंद्रित हुआ. अब कुर्सी एक बची थी और खिलाड़ी दो. एक हृष्टपुष्ट था और दूसरा स्लिम पर फुर्तीला. जैसे ही घंटी की आवाज थमी दोनों कुर्सी की तरफ दौड़े, पहुंचे भी लगभग एक साथ, शायद फ्रेक्शन ऑफ सेकेंड का अंतर रहा होगा पर जब तक स्लिम खिलाड़ी कुर्सी पर पूरा कब्जा जमाता, हृष्टपुष्ट के आकार ने उसकी फ्रेक्शन ऑफ सेकेंड की बढ़त पर पानी फेर दिया. नज़ारा ऐसा हो गया कि आखिरी कुर्सी पर दोनों खिलाड़ी विराज़मान नहीं बल्कि कब्जायमान हो गये. रिप्ले की सुविधा नहीं थी और टीचर को निर्णय लेना था तो उन्होंने अपने पसंदीदा स्लिम खिलाड़ी के पक्ष में निर्णय सुनाया पर हृष्टपुष्ट ये फैसला मानने को तैयार नहीं था तो बात प्रिसिंपल के चैम्बर तक पहुंची, टीचर और दोनों खिलाड़ियों के साथ. वैसे तो असहमत को इस फैसले से कोई लेना देना नहीं था पर हर जगह घुस कर तमाशा देखने की बुरी आदत ने उसे अनधिकृत रूप से प्रिसिंपल के चेम्बर में प्रविष्ट करा ही दिया.टीचर जी ने सोचा प्रिसिंपल से मिलने आये होंगे और प्रिसिंपल ने सोचा कि ये चारों एक साथ हैं. टीचर ने पूरा माज़रा प्रिसिंपल के संज्ञान में लाया और उनके निर्णय की प्रतीक्षा  में कुर्सी पर बैठ गये. खिलाड़ी रूपी छात्र ये दुस्साहस नहीं कर सकते थे पर असहमत ने कुर्सी पर बैठते हुये थर्ड अंपायर की बिन मांगी सलाह दे डाली ” सर, हृष्टपुष्ट नहीं पर ये स्लिम खिलाड़ी ही सही विजेता है.”

अब सबका ध्यान असहमत पर, आप कौन हैं?

जी मैं असहमत

प्रिसिंपल : आप सहमत रहो या असहमत, मेरे चैंबर में कैसे आ धमके, विदाउट परमीशन.

सर असहमत मेरा नाम है और अक्सर लोग कन्फ्यूज हो जाते हैं पर सच्ची बात बोलना मेरी आदत है तो आप सुन लीजिये.मुझे कौन सा रुककर यहां स्कूल चलाने को मिल रहा है. वैसे ये हृष्टपुष्ट बालक अपने आकार का गलत फायदा उठाना चाहता है.

प्रिंसिपल : हृष्टपुष्ट शर्मा इस बालक के पिताजी का नाम है  जो स्कूल के ट्रस्टी भी हैं. सवाल बाहर ग्राउंड की कुर्सी का नहीं बल्कि मेरी और इन शिक्षक महोदय की कुर्सी का बनेगा.

असहमत : सर 6-6 महीने के लिये कुर्सी बांट दीजिये, शायद दोनों ही संतुष्ट हो जायें.

प्रिसिंपल : देखो ये कुरसी तो टीचर्स के लिये हैं जो ऐसे खेल में कुछ समय के लिये काम में आती हैं. वरना स्टूडेंट तो डेस्क पर ही बैठते हैं जो हमें अपने सुपुत्र के एडमीशन के लिये आने वाले पिताश्री लोग भेंट करते हैं.

असहमत कुछ बोलता इसके पहले ही स्कूल की घंटी बज गई और प्रिसिंपल साहब ने असहमत को इशारा किया कि ये घंटी तुम्हारे लिये भी यहां से गेट आउट का संकेत है. और जाते जाते सलाह भी दी कि लोगों को क्या करना है और क्या नहीं, इस ज्ञान को बिना मांगे बांटने का सबसे अच्छा प्लेटफार्म सोशलमीडिया है. जिसको ज्ञान दोगे वे ध्यान नहीं दंगेे क्योंकि वे सब तुमसे बहुत बड़े ज्ञानी हैं. वे लोग भी बुद्धि बल से नहीं बल्कि संख्या बल से कुर्सियों पर कब्जायमान हैं.

असहमत समझ गया, फिर उसे याद आया कि सौ रुपये वाली पिटाई उसका घर पर इंतजार कर ही रही है तो यहां पिटने की एडवांस इन्सटॉलमेंट मंहगी पड़ सकती है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 106 ☆ गज़ल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 106 ?

☆ गज़ल ☆

जसे लव्हाळे जळात असते

तशी सदा तू   मनात असते

 

चिवटपणाची कमाल बघता

इथे तिथे त्या  घरात असते

 

 निशांत होता रवी उगवतो

जगी सुखाची प्रभात असते

 

 मनात माझ्या सदैव असता

 कधी कधी  मंदिरात असते

 

जमीन करते कयास नुसता

खरेखुरे अंबरात  असते

 

 ‘प्रभा’ मला तू नकोस विसरू

तुझ्याच मी अंगणात असते

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- १४ – भूतान – सौंदर्याची सुरेल तान-भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मी प्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- १४ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ भूतान – सौंदर्याची सुरेल तान – भाग १ ✈️

पूर्व हिमालयाच्या दक्षिण उतारावर तिबेट आणि भारत यांच्यामधील  छोट्याशा जागेत वसलेला भूतान हा एक चिमुकला देश! चिमुकला म्हणजे किती? जेमतेम आठ लाख लोकवस्ती असलेल्या, लांबट- चौकोनी आकाराच्या भूतानचा विस्तार ४७००० चौरस किलोमीटर म्हणजे आपल्या केरळ राज्याएवढा आहे.

मुंबईहून बागडोगरा इथे विमानाने पोहोचलो. पश्चिम बंगालमधील बागडोगरा हे भारतीय लष्कराचे मोठे ठाणे आहे. बागडोगरापासून जयगावपर्यंतचा बसचा प्रवास सुरम्य होता. सुंदर गुळगुळीत रस्ते, दोन्ही बाजुला दाट झाडी, लांबवर पसरलेले काळपट- हिरवे चहाचे मळे, भातशेती, शेलाट्या, उंच सुपार्‍या असा हिरवागार देखणा परिसर आहे. जयगाव हे भारताच्या सीमेवरील शेवटचे गाव संपले की एका स्वागत कमानीतून फुन्तशोलींग या भूतानच्या सरहद्दीवरील गावात आपण प्रवेश करतो. या प्रवेशद्वारातून वाहनांची सतत ये-जा असते. भूतानी वेशातील गोऱ्या, गोल चेहऱ्याच्या, शांत, हसतमुख ललनांनी हॉटेलमध्ये स्वागत केलं. लिफ्ट बंद असल्याने त्या सडपातळ, सिंहकटी पण काटक ललनांनी  आमच्या सर्वांच्या अवजड बॅगा तिसऱ्या मजल्यावर पटापट वाहून नेल्या.

भूतानची राजधानी ‘थिम्पू’ इथे निघालो होतो. स्क्रूसारखा वळणावळणांचा, संपूर्ण घाटरस्ता आहे. दुतर्फा साल, महोगनी, शिरीष अशी घनदाट वृक्षराजी आहे. मध्येमध्ये लाल, पिवळी ,पांढरी रानफुलं आणि खळाळणारे झरे आपले स्वागत करतात. घाटरस्त्यावरील वाहतूक अगदी शिस्तीत चालली होती. उंचावरच्या चुखा या गावात चहापाण्याला थांबलो. हॉटेलमधून स्वच्छ पाण्याची चुखाचाखू  ही नदी दिसत होती. इथे हैड्रॉलिक पॉवर प्रोजेक्ट आहे. भूतानमध्ये  हैड्रोइलेक्ट्रिक पॉवरची मोठ्या प्रमाणावर निर्मिती व निर्यात होते. ही वीज विकत घेण्यात भारताचा पहिला नंबर आहे.

दिव्यांनी उजळलेल्या राजधानीच्या शहरातील दुमजली उंचीएवढ्या बिल्डिंग्जवर लाकडी महिरपी उठावदार रंगाचे रंगविल्या आहेत. सरकारी नियमांप्रमाणे सर्व इमारती, राजवाडे, मॉनेस्ट्री यांचे बांधकाम पारंपरिक डिझाईन व स्थापत्यशास्त्रानुसार करावे लागते. भूतानमधील बहुतेक लोक बौद्ध धर्माचे पालन करतात. सातव्या शतकात तिबेटमधून आलेल्या लामाने इथे बौद्ध धर्माचा प्रसार केला. किंग जिगमे दोरजी वांगचुक यांच्या स्मरणार्थ १९७४ साली उभारलेले मेमोरिअल चार्टेन हा भुतानी स्थापत्यशास्त्राचा उत्तम नमुना आहे. या राजाने परंपरा आणि आधुनिकता यांची योग्य सांगड घातली. इतर देशांशी मैत्री जोडली. भूतानला जगाची दारे उघडी करून दिली. म्हणून या राजाबद्दल लोकांमध्ये खूप आदर आहे. स्मारकाच्या ठिकाणी बुद्धाचा खूप मोठा पुतळा आहे. त्याच्या पुढ्यात वाटीसारख्या आकाराची  तुपाची निरांजने तेवत होती. भाविक लांबट- गोल तांब्याची धर्मचक्रे फिरवत होते. त्यावर काही अक्षरे लिहिलेली होती.

चीन ने भेट दिलेली १७० फूट उंचीची ब्राँझची बुद्धमूर्ती(चंचुप्रवेश?) थिम्पू  मधील कुठल्याही ठिकाणांहून दिसते. एका उंच डोंगरावरील या मूर्तीभोवतालचे बांधकाम सुरू होते. तिथून दूरवरच्या हिमालयीन पर्वत रांगा दिसत होत्या.टकीन हा भूतानचा राष्ट्रीय प्राणी आहे. बकरीचे तोंड आणि गायीसारखे अंग असलेला हा प्राणी टकीन रिझर्वमध्ये जाऊन पाहिला. तिथेच हातमागावर विशिष्ट प्रकारे कापड विणण्याचे प्रात्यक्षिक पाहिले.या हँडीक्राफ्ट आवारात एक सुंदर शिल्प आहे. एका झाडाखाली उभ्या असलेल्या हत्तीच्या पाठीवर एक माकड बसलेले आहे. माकडाच्या पाठीवर ससा आणि त्याच्या पाठीवर एक पक्षी बसलेला आहे. जमिनीवरील बलाढ्य प्राणी, झाडांवरील प्राणी, बिळात राहणारे प्राणी आणि आकाशात उडणारे पक्षी ही एकमेकांवर अवलंबून असलेली एक निसर्गसाखळी आहे. या सर्वांनी एकमेकांच्या सहकार्याने रहाणे, झाडावरील फळे मिळविणे असे जगण्याचे साधे ,सोपे, सरळ तत्वज्ञान यात दडलेले आहे. ही चित्राकृती पुढे अनेक शिल्प, भरतकाम, चित्रकला यात वारंवार दिसत होती. आणखी एक वेगळेपण म्हणजे पुरुष लिंगाचे(Phallus–फेलस) चित्र बिल्डींगच्या, हॉटेलच्या दर्शनी खांबांवर, मॉनेस्ट्रीच्या बाह्य भिंतींवर रेखाटलेले असते व ते शुभ मानले जाते. दुकानात अशी चित्रे,की-चेन्स विकायला असतात. निसर्गातील  सृजनत्वाचे  ते प्रतीक मानले जाते.

हँडीक्राफ्ट स्कूलमध्ये बुद्ध धर्माशी संबंधित अनेक वस्तू, पेंटिंग, १२ तोंडे आणि २४ हात असलेली देवीची मूर्ती होती. विद्यार्थी मूर्तीकाम शिकत होते. हातमागावर विणकाम चालू होते.थिम्पू हेरिटेज म्युझियम व मिनिस्ट्री हाऊस पाहून व्हयू पॉईंटवर गेलो. तिथून दरीतली छोटी घरं आणि छोटासा पिवळसर  रंगाचा राजवाडा चित्रातल्यासारखा दिसत होता. थिम्पूचे एक आगळे वैशिष्ट्य म्हणजे या सबंध शहरात कुठेही ट्रॅफिक लाईट्स ( सिग्नल्स) नाहीत. वाहतूक कमी असली तरी ती अतिशय शिस्तबद्ध असते. एकाच मध्यवर्ती जंक्शनवर थोड्या उंच ठिकाणी बसून, एक पोलीस हातवारे करून वाहतुकीचे नियंत्रण करताना दिसला. आमच्या ड्रायव्हरने सांगितले की सगळीकडे सेन्सर्स बसविलेले आहेत. त्यामुळे कुठल्याही प्रकारची वाहतुकीतील बेशिस्त, चुका ड्रायव्हर करीत नाहीत.

भाग-१ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 93 ☆ ज़िंदगी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “ज़िंदगी। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 93 ☆

☆ ज़िंदगी ☆

ज़िंदगी बन गयी है

कुछ ऐसे दरख़्त सी

जिसकी जड़ें खोज रही हैं

कोई ऐसी मुलायम मिट्टी

जिसको पकड़ कर वो खड़ी हो सकें,

और चूस सकें पानी और वो धातु

जिससे दरख़्त पनपता रहे

और ख़ुशी में झूमे-गाये…

 

पर नहीं मिलती मुलायम मिट्टी कहीं,

सारी ज़मीन हो गयी है रेत के जैसी-

फिसल रहा है दरख़्त,

फिसल रही है ज़िंदगी,

फिसल रहे हैं हम! 

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 100 – “सकारात्मक सपने” – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी की पुस्तक  “सकारात्मक सपने” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 100 – “सकारात्मक सपने” – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव ☆ 

 पुस्तक चर्चा

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Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

कृति …सकारात्मक सपने

लेखिका …अनुभा श्रीवास्तव

प्रकाशक … डायमण्ड पाकेट बुक्स दिल्ली

मूल्य …११० रु

पृष्ठ .. १२४

साहित्य अकादमी म प्र. संस्कृति परिषद के सहयोग से प्रकाशित एवं लेखिका को इस कृति पर  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त। 

युवा लेखिका ने समय समय पर यत्र तत्र विभिन्न विषयो पर युवा सरोकारो के स्फुट आलेख लिखे , जिनमें से शाश्वत मूल्यो के आलेखो को प्रस्तुत पुस्तक में संग्रहित कर प्रकाशित किया गया है .

आत्मकथ्य  – युवा सरोकार के लघु आलेख 

जीवन में विचारो का सर्वाधिक महत्व है. विचार ही हमारे जीवन को दिशा देते हैं, विचारो के आधार पर ही हम निर्णय लेते हैं . विचार व्यक्तिगत अनुभव , पठन पाठन और परिवेश के आधार पर बनते हैं . इस दृष्टि से सुविचारो का महत्व निर्विवाद है . अक्षर अपनी इकाई में अभिव्यक्ति का वह सामर्थ्य नही रखते , जो सार्थकता वे  शब्द बनकर और फिर वाक्य के रूप में अभिव्यक्त कर पाते हैं . विषय की संप्रेषणीयता  लेख बनकर व्यापक हो पाती है.   इसी क्रम में स्फुट आलेख उतने दीर्घजीवी नही होते जितने वे पुस्तक के रूप में  प्रभावी और उपयोगी बन जाते हैं . समय समय पर मैने विभिन्न समसामयिक, युवा मन को प्रभावित करते विभिन्न विषयो पर अपने विचारो को आलेखो के रूप में अभिव्यक्त किया है जिन्हें ब्लाग के रूप में या पत्र पत्रिकाओ में  स्थान मिला है. लेखन के रूप में वैचारिक अभिव्यक्ति का यह क्रम  और कुछ नही तो कम से कम डायरी के स्वरूप में निरंतर जारी है.

अपने इन्ही आलेखो में से चुनिंदा जिन रचनाओ का शाश्वत मूल्य है तथा  कुछ वे रचनाये जो भले ही आज ज्वलंत  न हो किन्तु उनका महत्व तत्कालीन परिदृश्य में युवा सोच  को समझने की दृष्टि से प्रासंगिक है व जो विचारो को सकारात्मक दिशा देते हैं ऐसे आलेखों को प्रस्तुत कृति में संग्रहित करने का प्रयास किया  है . संग्रह में सम्मिलित प्रायः सभी आलेख स्वतंत्र विषयो पर लिखे गये हैं ,इस तरह पुस्तक में विषय विविधता है. कृति में कुछ लघु लेख हैं, तो कुछ लम्बे, बिना किसी नाप तौल के विषय की प्रस्तुति पर ध्यान देते हुये लेखन किया गया है.

आशा है कि पुस्तकाकार ये आलेख साहित्य की दृष्टि से  संदर्भ, व वैचारिक चिंतन मनन हेतु किंचित उपयोगी होंगे.

–  अनुभा श्रीवास्तव

खूशी की तलाश , आपदा प्रबंधन , कन्या भ्रूण हत्या , स्थाई चरित्र निर्माण हेतु नैतिकता की आवश्यकता , कम्प्यूटर से जीवन जीने की कला सीखने की प्रेरणा , देश बनाने की जबाबदारी युवा कंधों पर , कचरे के खतरे , धार्मिक पर्यटन की विरासत , आरक्षण धर्म और संस्कृति , आम सहमति से समस्याओ का स्थाई निदान, कागज जलाना मतलब पेड जलाना , भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई , तोड़ फोड़ राष्ट्रीय अपव्यय , शब्द मरते नहीं , कैसे हो गांवो का विकास , मुखिया मुख सो चाहिये , गर्व है सेना और संविधान पर , कार्पोरेट जगत और हिन्दी , संचार क्रांति , भ्रष्टाचार के विरुद्ध लडाई , महिलायें समाज की धुरी , जीवन और मूल्य जैसे समसामयिक विषयो पर आज के युवा मन के विचारो को प्रतिबिंबित करते छोटे छोटे सारगर्भित तथ्यपूर्ण आलेखो में अभिव्यक्त किया गया है .

लेख विषय की सहज अभिव्यक्ति करते हैं व मानसिक भूख शांत करते हैं . पुस्तक पढ़ने योग्य है , वैचारिक स्तर पर  संदर्भ हेतु संग्रहणीय भी है . युवाओ हेतु विषेश रूप से बहुउपयोगी है .

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 100 – लघुकथा – बेऔलाद ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “बेऔलाद । इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 100 ☆

? लघुकथा – ?? बेऔलाद ??‍♀️ ?

आठ बरस का दीपक रोज पास वाले ग्राउंड पर खेलने जाता था। आते समय अक्सर वह अपने दोस्त आकाश के यहां रुकता।

आकाश के यहां रोज कुछ ना कुछ बातों को लेकर कहा सुनी – लड़ाई होते रहती थी। जबकि घर में बेटा – बहू, सास – ससुर और उसका दोस्त आकाश। फिर भी क्यों?? लड़ाई होती है उसके समझ में नहीं आता। परंतु वह हमेशा ‘बेऔलाद’ शब्द का उच्चारण बार बार सुनता था।

आज लौटते समय पांव ठिठक गए। आकाश की दादी कह रही थी— उसे देखो बे औलाद हो कर भी कितना सुख, शांति और खुशी से घर-परिवार चल चला रहा है। किसी और का बेटा आज अपनों से भी ज्यादा सगा और वफादार है। तुझसे अच्छा तो मैं भी बेऔलाद होती!!!

दीपक की समझ में नहीं आया। घर आकर अपना सामान फेंकते हुए अपनी मां से पूछा— मम्मा यह  बेऔलाद क्या? होता हैं और वफादारी से इसका क्या संबंध। दूसरे कमरे में दादा दादी पोते की आवाज सुनकर सन्न हो गए।

मम्मी ने दीपक के मुंह को पोछते हुए कहा – – – बेटा बेऔलाद वे होते हैं जिनको भगवान ने एक अद्भुत शक्ति, सहनशीलता और बिना मां बाप के अनाथ बच्चों को सीने से लगाते, उसे पढ़ा लिखा कर योग्य बनाते हैं और सारी जिंदगी उसकी खुशी को अपनी खुशी समझते हैं।

ईश्वर इस नेक कार्य के लिए उनको बहुत-बहुत आशीर्वाद और सुखी होने का आशीर्वाद देते हैं। पास के कमरे से दादा-दादी की आंखों से खुशी की अश्रुधार बह निकली।

आँसू पोछ दादी बाहर आई दीपक को सीने से लगा लिया। उसी समय दीपक के पापा ऑफिस से घर के अंदर आए। मम्मी – पापा और नीरा के बहते आंसू देख जरा सा घबरा गया।

बोला – – क्या हुआ है? मुझे भी कुछ बताया जाएगा? पिताजी ने कसकर सीने से लगा लिया और कहा – – मुझे आज अपने भाग्य पर बहुत गर्व हो रहा है।

साक्षात भाग्यलक्ष्मी हमारे घर हैं।

पिताजी के सीने से लगे वह नीरा की ओर देख रहा था। 

बहुत ही मधुर मुस्कान लिए नीरा कहती है – – – आप सभी के लिए मैं चाय लेकर आती हूं। वह सभी के रोते रोते हंसी और हंसते हुए राज को समझ नहीं पा रहा  था।

पर दादा – दादी पूर्ण संतुष्ट। अपने दीपक के साथ खेलने लगे उन्हें अब भविष्य की चिंता नहीं थीं।  बेऔलाद का दर्द अब सदा सदा के लिए जाता रहा। मासूम दीपक सभी को खुश देख हंसने लगा।

   

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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