हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 118 ☆ ए टी एम से पाँच रुपैया बारह आना का विथड्रावल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक विचारणीय व्यंग्य  ‘ए टी एम से पाँच रुपैया बारह आना का विथड्रावल । इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 118 ☆

? व्यंग्य – ए टी एम से पाँच रुपैया बारह आना का विथड्रावल ?

आपको पता है गर्मियो में घूमने लायक जगह कौन सी होती हैं ? जिनके पास अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट कार्ड और एयरपोर्ट लाउंज में एंट्री के लिये वीसा पास हो, उन पासपोर्ट व दस वर्षो के यू एस वीजा या शेनजेंग वीजा धारको के लिये  स्विटजरलैंड वगैरह उत्तम होते हैं.  जिन सरकारी अफसरान को लंबी छुट्टी जाने पर मीटर बंद होने और लाइन अटैच किये जाने का भय हो उनके लिये कैजुएल लीव में मसूरी देहरादून या लेह लद्दाख से काम चल सकता है.  हवाई सफर से जुड़े पर्यटन स्थलो के चुनाव करने से लाभ यह मिलता है कि वीक एंड के साथ दो तीन दिन की छुट्टी से ही काम चलाया जा सकता है. 

पर जो भारत के आम नागरिक हैं, अंत्योदय की सरकारी योजना के लाभार्थी हैं,  उनके लिये गर्मियो में घूमने जाने का सबसे अच्छे स्थान होते हैं शहर के शापिंग माल जहाँ बिना खरीददारी किये यहाँ वहाँ मटरगश्ती की जा सकती है,  प्राईवेट बैंक के बड़े बड़े हाल जहाँ भले ही खुद का खाता न हो,  खाता हो तो  भले ही उसमें रुपये न हों आप लोन लेने से लेकर बीमा करवाने या और कुछ नही तो कोई फार्म लेने के बहाने वहां थोड़ा समय तो गर्मी का अहसास ठंडक के साथ कर ही सकते हैं. 

जब ये दोनो भ्रमण स्थल भी अपर्याप्त लगें तो छै बाई छै का बिल्कुल निजी पर्यटन केंद्र होता है आपके पास का किसी भी बैंक का  ए टी एम. यदि अकारण वहां बार बार जाने से गार्ड आपको घूरने लगे तो एक से दूसरे दूसरे से तीसरे एटीएम इसीलिये बने हुये हैं. हाथ में एक झूठा सच्चा जीरो बैलेंस वाले एकाउंट का कार्ड  भी भारत की आम जनता को गर्मियो में राहत का सबब बन सकता है. मुझे तो लगता है हमारे सुदूर दर्शी प्रधान सेवक जी ने इसी लिये जन जन के खाते गर्मियो से बहुत पहले ही खुलवा दिये थे.

आजू बाजू इतने सारे एटीएम लाइन से देखता हूं तो मैं प्रायः सोचता हूं कि जब किसी भी एटीएम पर किसी भी बैंक का कार्ड चल सकता है तो हर बैंक अपने अलग एटीएम क्यो लगाते हैं ? मेरी यह धारणा पक्की हो जाती है कि जरूर ये गरीबो को गर्मियो की छुट्टियां बिताने के लिये ही बनाये जाते हैं. वैसे एटीएम की उपस्थिति से बाजार,  हवाई अड्डे,  रेल्वे स्टेशन का लुक चकाचक हो जाता है,  कस्बा स्मार्ट सा लगने लगता है. यह बाई प्राडक्ट के रूप में देखा जा सकता है. एटीएम टाईप के मशीनी  बूथ से दूध,  कोल्डड्रिंक,  टिकिट,  जाने क्या क्या निकल रहा है इन दिनो जगह जगह. दरअसल एटीएम टाईप की मशीनें हमें आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाती हैं वे स्वालंब की झलक दिखलाती हैं. और कवि ने कहा है “स्वाबलंब की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष”  

यूं आन लाइन शापिंग के युवा समय में वैसे भी एटीएम शो पीस बनते जा रहे हैं. एटीएम आजकल कैश न होने का रोना रोने के महत्वपूर्ण काम भी आ रहे हैं. राजनीति करने ,  टीवी चैनलो पर हाट डिस्कशन के लिये,  कार्टून बनाने और व्यंग्य लिखने जैसे क्रियेटिव काम भी एटीएम के जरिये संपन्न हो पा रहे हैं.  

मैं तो रुपयो के इंफ्लेशन से बड़ा खुश हूं,  जो लोग पैट्रोल की कीमतें जता जता कर सरकार को कोसते हैं मेरा उनसे और तमाम अर्थशास्त्रियो से एक सवाल है,  यदि रुपया १९५८ के मजबूत स्तर पर आज तक बना होता तो बेचारा ए टी एम पाँच रुपैया बारह आने का विथड्रावल कैसे  देता ? वो तो भला हो पांच साला चुनावो का हर बार मंहगाई बढ़ती गई और आज शान से एटीएम २००० के गुलाबी नोट उगल सकता है,  क्या हुआ जो आजकल थोड़ी बहुत किल्लत है चुनावो में यदि एक वोट की कीमत एक दो हजार का नोट अनुमानित है तो यह हमारे लोकतंत्र की बुरी कीमत तो नही है,  गरीब वोटर की इस छोटी सी  मदद के लिये मुझे तो थोड़े दिनो बिना ड्रावल किये इस एटीएम से उस एटीएम भागना मंजूर है, एटीएम एटीएम की  ठंडक के अहसास के साथ. 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 71 ☆ उलझनों के बीच सुलझन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “उलझनों के बीच सुलझन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 71 – उलझनों के बीच सुलझन

स्कूल खुलते ही सभी आक्रोशित दिख रहे हैं; एक तरफ बच्चे जो इतने दिनों से अपने अनुसार जीवन जी रहे थे उन्हें गुस्सा आ रहा है तो दूसरी तरफ शिक्षक भी धैर्य खो चुके हैं। जल्दी से अपनी पकड़ मजबूत करने हेतु उल्टे – सीधे निर्णय लेकर बच्चों व अभिवावकों पर नियंत्रण रखने की कोशिश कर रहे हैं। अक्सर ऐसा होता है बिना समय की नब्ज को पहचाने हम अधीरता के वशीभूत निर्णय कर लेते हैं, जो अप्रिय लगते हैं।

दो बच्चों के बीच हाथापाई हुई और कटघरे में आसपास बैठे सारे लोग आ गए।आनन- फानन में प्राचार्या ने बच्चों के स्कूल आने पर प्रतिबंध लगा दिया अब तो सारे अविभावक भी जोश में आकर अपने अधिकारों की माँग पर अड़ गए। एक साथ कई बैठकें रखी गयीं। औपचारिक बातचीत होने के अलावा कुछ भी निष्कर्ष नहीं निकल रहा था। सभी मानसिक उलझनों के बीच कुछ अच्छा ढूंढने की कोशिश में और उलझते जा रहे थे। अंत में ये तय हुआ कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है, लोग अपनी- अपनी जगह सही हैं; बस इतने दिनों बाद मिल रहे हैं इसलिए एक दूसरे को समझने में थोड़ा वक्त लगेगा।

जाने- अनजाने लोगों द्वारा जब ऐसा होता है तो स्थिति भयावय हो जाती है। कार्यक्षेत्रों में ऐसा होना कोई नई बात नहीं है। भय बिनु होय न प्रीत को चरितार्थ करते हुए भय का सहारा लेकर समय- समय पर लोग अपने उल्लू सीधे करते हुए नज़र आते हैं। इससे टेढ़े- मेढ़े विचारों का जन्म होता और कलह का वातावरण निर्मित हो जाता है। ऐसी तमाम उलझनों से सुलझते हुए जीना कोई आसान कार्य नहीं होता है। बड़े- बड़े गुनी लोग भी आसानी से इसकी गिरफ्त में आ जाते हैं।

आजकल छोटी सी बात को बड़ा तूल देते हुए हफ्ते भर मीडिया वाले जिसका राग अलापते हैं अंत में उसे ही सिरे से खारिज करते हुए कह देते हैं ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था ये तो महज सोची समझी चाल थी जो सत्ता दल अपने पक्ष में करने हेतु कर रहा है। वहीं सुस्त विपक्ष भी अचानक से होश में आता है और आनन- फानन में अपने प्रवक्ता द्वारा कहलवाने लगता है हम लोगों का इसमें कोई हाथ नहीं ये तो गोदी मीडिया है। अपने पक्ष में आरोपी ही प्रायोजित साक्षात्कार करवाते हैं और माइंड चेंजिंग गेम की तरह सब कुछ मूक दर्शकों के ऊपर छोड़कर मामले को रफा – दफा कर देते हैं।

कोई भी मुद्दा हो खत्म राजनीति पर ही होता है। जब कोई रास्ता नहीं दिखता तो समस्या का राजनीतिकरण करके मामले को सलटा दिया जाता है। आश्चर्य तो तब होता है कि देश की हर घटना कैसे इससे जुड़ी होती है। क्या जन सेवक ही सबकी सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। अरे भई जनतंत्र है जनता को ही जिम्मेदारी लेना सीखना होगा तभी उलझनों के बीच सुलझन निकल सकेगी।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 80 ☆ गीत – जीते जी मर जाना क्या ? ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण गीत जीते जी मर जाना क्या ?”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 80 ☆

☆ जीते जी मर जाना क्या ? ☆ 

जीते जी चमको सूरज से

      जीते जी मर जाना क्या?

कितना पाया, कितना खोया

     इसका गणित भिड़ाना क्या?

 

पढ़ें किताबें, करें यात्रा

      सुन लें जीवन की ध्वनियाँ।

बच्चों से भी हँसें – हँसाएं

      दुलाराएं मुन्ना – मुनियाँ।।

 

कर दें कुछ तारीफ गैर की

       इसमें मोल चुकाना क्या ?

 

जीवित रखना स्वाभिमान को

      कुछ हितकारी भी बनना।

सत्य, प्रेम के आभूषण से

      दुख गैरों के तुम सुनना।।

 

मत गुलाम आदत के होना

        खुद को रोज रुलाना क्या ?

 

जो मिथ्या है और दिखावा

       उसको जल्दी छोड़ो जी।

जीवन की सच्चाई जानो

       सच से मुख मत मोड़ो जी।।

 

आवेगों और संवेगों की

       नमता से शर्माना क्या ?

 

बदलें खुद को शांत चित्त से

          जानें भी परिणामों को।

संशय, भ्रम में भटक न जाना

        करें सुनिश्चित कामों को।।

 

मानें उचित सलाह सभी की

      बातें और बढ़ाना क्या ?

 

पढ़ें पूर्वजों के शास्त्रों को

      जिनने जीवन दान किया।

नहीं भुलाया है संस्कृति को

      सबका ही सम्मान किया।।

 

चेहरों पर दे दें मुस्कानें

         अपना दर्द सुनाना क्या ?

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 90 – लघुकथा – फुर्सत ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “फुर्सत।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 90 ☆

☆ लघुकथा — फुर्सत ☆ 

पत्नी बोले जा रही थी। कभी विद्यालय की बातें और कभी पड़ोसन की बातें। पति ‘हां- हां’ कह रहा था। तभी पत्नी ने कहा, ” बेसन की मिर्ची बना लूं?” पति ने ‘हां’ में गर्दन हिला दी।

” मैं क्या कह रही हूं? सुन रहे हो?” पत्नी मोबाइल में देखते हुए कह रही थी।

पति उसी की ओर एकटक देखे जा रहे थे । 

तभी पत्नी ने कहा, ” तुम्हें मेरे लिए फुर्सत कहां है ? बस, मोबाइल में ही घुसे रहते हो।”

पति ने फिर गर्दन ‘हां’ में हिला दी । तभी पत्नी ने चिल्ला कर कहा, ” मेरी बात सुनने की फुर्सत है आपको ?”  कहते हुए पति की ओर देखा।

पति अभी भी एकटक उसे ही देखे जा रहा था।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

11-01-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 82 – ती…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #82 ☆ 

☆ ती…! ☆ 

आजपर्यंत तिनं

बरंच काही साठवून ठेवलंय ..

ह्या… चार भिंतींच्या आत

जितकं ह्या चार भिंतींच्या आत

तितकंच मनातही…

कुणाला कळू नये म्हणून

ती घरातल्या वस्तूप्रमाणे

आवरून ठेवते…

मनातला राग..,चिडचिड,

अगदी तिच्या इच्छा सुध्दा..,

रोजच्या सारखाच

चेहऱ्यावर आनंद आणि समाधानाचा

खोटा मुखवटा लाउन

ती फिरत राहते

सा-या घरभर

कुणीतरी ह्या

आवरलेल्या घराचं

आणि आवरलेल्या मनाचं

कौतुक करावं

ह्या एकाच आशेवर…!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #103 – कैसे मैं खुद को, गहरे तल में उतार दूँ ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक भावप्रवण गीतिका  “कैसे मैं खुद को, गहरे तल में उतार दूँ”। )

☆  तन्मय साहित्य  #103 ☆

☆ कैसे मैं खुद को, गहरे तल में उतार दूँ

(गीतिका)

बने रहो आँखों में ही, मैं तुम्हें प्यार दूँ

नजर, मिरच-राईं से, पहले तो उतार दूँ ।

 

दूर रहोगे तो, उजड़े-उजड़े पतझड़ से

अगर रहोगे साथ मेरे, तो मैं बहार दूँ।

 

जलती रही चिताएँ, निष्ठुर बने रहे तुम

कैसे नेह भरे जीवन का, ह्रदय हार दूँ।

 

प्रेम रोग में जुड़े, ताप से कम्पित तन-मन

मिला आँख से आँख, तुम्हें कैसे बुखार दूँ।

 

सुख वैभव में रमें,रसिक श्री कृष्ण कन्हाई

जीर्ण पोटली के चावल, मैं किस प्रकार दूँ।

 

चुका नहीं पाया जो, पिछला कर्ज बकाया

मांग रहा वह फिर, उसको कैसे उधार दूँ।

 

पानी में फेंका सिक्का, फिर हाथ न आया

कैसे मैं खुद को, गहरे तल में उतार दूँ ।

 

दायित्वों का भारी बोझ लिए काँधों पर

चाह यही हँसते-हँसते, जीवन गुजार दूँ।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- १३ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मी प्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- १३ – भाग ७ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ लक्षद्वीपचा रंगोत्सव – भाग ३ ✈️

या तीनही बेटांवर आम्हाला कावळे सोडून पक्षी दिसले नाहीत. फार थोड्या गाई व कोंबडे दिसले. समुद्रपक्ष्यांच्या एक-दोन जाती मनुष्य वस्ती नसलेल्या पिट्टी बेटावर आहेत असं कळलं. लक्षद्वीप बेटांपैकी बंगाराम,तिनकारा,अगत्ती अशी बेटे परकीय प्रवाशांसाठी राखीव आहेत. तिथे हेलिपॅडची सुविधा आहे. इथल्या गडद निळ्या, स्वच्छ जलाशयातील क्रीडांसाठी,कोरल्स व मासे पाहण्यासाठी परदेशी प्रवाशांचा वाढता ओघ भारताला परकीय चलन मिळवून देतो.

कोरल्स म्हणजे छोटे- छोटे आकारविहीन  समुद्र जीव असतात. समुद्राच्या उथळ, समशीतोष्ण पाण्यात त्यांची निर्मिती होते. हजारो वर्षांपासूनचे असे जीव त्यांच्यातील कॅल्शिअम व एक प्रकारचा चिकट पदार्थ यामुळे कोरल रीफ तयार होतात. ही वाढ फारच मंद असते. या रिफस् मुळेच किनाऱ्यांचं संरक्षण होतं. संशोधकांच्या म्हण़़ण्याप्रमाणे जागतिक तापमानवाढीमुळे आर्टिक्ट व अंटार्टिक यावरील बर्फ वितळत असून त्यामुळे जगभरच्या समुद्रपातळीत झपाट्याने वाढ होत आहे. लक्षद्वीप द्वीपसमूहातील बेटं समुद्रसपाटीपासून केवळ एक ते दोन मीटर उंच आहेत. त्यावर डोंगर /पर्वत नाहीत तर पुळणीची वाळू आहे. या द्वीपसमूहातील बंगाराम या कंकणाकृती प्रवाळबेटाचा एक मनुष्य वस्ती नसलेला भाग २०१७ मध्ये समुद्राने गिळंकृत केला. आपल्यासाठी पर्यावरण रक्षणाचे महत्त्व पटविणारा हा  धोक्याचा इशारा आहे.

प्रवासाच्या शेवटच्या दिवशी सकाळी ११ वाजता आमची बोट कोचीन बंदराला लागणार होती. थोडा निवांतपणा होता. रोजच्यासारखे लवकर आवरून छोट्या बोटीत जाण्याची घाई नव्हती. म्हणून सूर्योदयाची वेळ साधून डेकवर गेलो. राखाडी आकाशाला शेंदरी रंग चढत होता. सृष्टी देवीने हिरव्यागार नारळांचे काठ असलेलं गडद निळं वस्त्र परिधान केलं होतं . उसळणाऱ्या पाण्याच्या लांब निर्‍या करून त्याला पांढऱ्या फेसाची किनार त्या समद्रवसने देवीने  लावली होती.पांढऱ्याशुभ्र वाळूतील  शंख, खेकडे, समुद्रकिडे त्यांच्या छोट्या- छोट्या पायांनी सुबक, रेखीव रांगोळी काढत होते. छोट्या-छोट्या बेटांवर नारळीच्या झाडांचे फ्लाॅवरपॉट सजले होते .अनादि सृष्टीचक्रातील एका नव्या दिवसाची सुरुवात झाली. आभाळाच्या भाळावर सूर्याच्या केशरी गंधाचा टिळा लागला. या अनादिअनंत शाश्वत दृश्याला आम्ही अशाश्वतांनी नतमस्तक होऊन नमस्कार केला.

लक्षद्वीप समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 92 ☆ सुकून ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “सुकून। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 92 ☆

☆ सुकून ☆

जाने कहाँ खो गया सुकून है?

 

यह कैसी ख़ामोशी है

जो माहौल में अमावस बन छायी है?

वक़्त ने भी जाने क्यों

ले ली अंगडाई है?

कहाँ गया वो दिल का जुनून है?

जाने कहाँ खो गया सुकून है?

 

आँखों में जाने कैसे अब्र हैं

जो झूमते भी नहीं और बरसते भी नहीं?

ज़हन में जाने कैसी हलचल है

कोई भी मंज़र इसे जंचते ही नहीं…

यह डूबता हुआ सूरज जाने कैसा शगुन है?

जाने कहाँ खो गया सुकून है?

 

ऐ उड़ते हुए परिंदे

तुमने न जाने क्या ठानी है?

यह उड़ना तुम्हारा…यही तो…

हमारी मौजूदगी की निशानी है…

बजने लगी तुमको देख मेरे भी दिल में गुनगुन है…

बस करीब आने ही वाला सुकून है…

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 3 – सजल – कोई रहा नहीं हमदम है… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ ” मनोज साहित्य“ में आज प्रस्तुत है सजल “कोई रहा नहीं हमदम है…”। अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 3 – सजल – कोई रहा नहीं हमदम है … ☆ 

सजल

समांत-अम

पदांत-है

मात्राभार- १६

 

रोती आँखें सबको गम है।

लूट रहे उनमें दमखम है।।

 

अट्टहास वायरस है करता,

सबकी आँखों में डर-सम है।

 

आक्सीजन की नहीं व्यवस्था,

देख सिलेंडर में अब बम है।

 

धूम मची है नक्कालों की,

उखड़ी साँसें निकला दम है।

 

बन सौदागर खड़े हुए अब,

कोई रहा नहीं हमदम है ।

 

लाशों का अंबार लग रहा,

आँख हो रही सबकी नम है ।1

 

लोग अधिक हैं लगे पंक्ति में ।

वैक्सीन की डोजें कम है।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल ” मनोज “

18 मई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 117 ☆ एक शब्द चित्र ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता ‘एक शब्द चित्र’। इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 117 ☆

? कविता – एक शब्द चित्र  ?

 

मरीचिका मृग छौने की ,

प्रस्तर युग से कर रही ,

विभ्रमित उसे।

 

मकरन्द की,

अभिनव चाह,

संवेदन दे रही भ्रमर को नये नये ।

 

घरौंदे की तलाश में,

कीर्ति, यश की चाह में,

आकर्षण अमरत्व का,

पदचिन्ह खूबसूरत सा,

कोई बना पाने को,

मानव है भटक रहा ।

शुबहा शक नहीं,

इसमें कहीं,

भटकतों को मंजिल है,

मिलती नहीं ,

कामना है यही इसलिये,

मझधार में कोई न छूटे,

नाव खेने में जिंदगी की,

न साहस किसी का टूटे ।

 

ये विपदाओं से खेलने की शक्ति,

हर किसी को मिले,

कि जिससे हर कली,

फूल बन खिले ।।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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