संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपके “दीपावली पर दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – कच्छ उत्सव ।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 32 – कच्छ उत्सव – भाग – 3
(2017)
आज उत्सव में हमारा चौथा दिन था। सुबह नाश्ते के बाद हम उत्सव के बाहरी हिस्से के बाज़ार में खरीदारी करने गए। इस बाज़ार में वे लोग अपनी दुकान सजाए हुए थे जो उत्सव के भीतर बड़ी राशि देकर दुकान किराए पर न ले सके। वास्तव में इस बाज़ार में बड़ी मात्रा में हमें चीज़ें मिलीं। खरीदारी करने के बाद हम उत्सव के भीतरी अहाते में आर्ट ऐंड क्राफ्ट की दुकानों में सैर करते रहे।
शाम पाँच बजे हमें काला डूंगर नामक स्थान पर ले जाया गया। यह कच्छ का सर्वोच्च स्थान है। यहीँ से पाकिस्तान की सीमा स्पष्ट दिखाई देती है। यहाँ ऊपर चढ़ने के लिए पत्थर से सीढ़ियाँ तो बनी हैं पर वह भी थोड़ी ऊबड़ -खाबड़ हैं। सैनिकों का चेक पोस्ट भी बना हुआ है। ऊपर से सूर्यास्त देखने का आनंद बहुत ही निराला होता है। आकाश में रंग बदलता रहता है। सूर्यास्त के ठीक पहले आकाश में लालीमा -सी छा जाती है। सूरज अपनी किरणों को समेट लेता है और आसमान में एक विशाल लाल गेंद सा दिखाई देता है। कुछ ही क्षण में तीव्र गति से सूर्य ग़ायब सा हो जाता है।
वहाँ से निकलकर हम गांधी नु ग्राम आर्ट विलेज पहुँचे। यहाँ छोटी-छोटी झोंपड़ीनुमा दुकानें बनी हुई हैं। महिलाएँ काँच लगाकर चादरें काढ़ती हुई दिखाई दीं। हाथ से बनाई गई दरियाँ
थैले, जैकेट, दुपट्टे, बाँदनी के कपड़े, लाख की चूड़ियाँ बनाती वृद्धा महिलाएँ दिखीं। वनस्पतियों के रंगों से ब्लॉक प्रिंट किए गए सूती थान, चादरें और कई विविध प्रकार की वस्तुएँ वहाँ बनती हुई दिखीं। हमें न केवल आनंद मिला बल्कि कई जानकारियाँ भी मिलीं।
दिखने में अत्यंत साधारण कच्छी लोग इतने हुनरमंद हैं कि जितना भी गुणगान करें कम ही है।
हमने उत्सव में रहने के लिए चार ही दिन रखे थे और पाँचवे दिन सुबह नाश्ता खाकर हमें निकलना था। हम इसके आगे भुज में आसपास की जगहों का दर्शन करना चाहते थे।
पाठकों से निवेदन है कि वे जब उत्सव के लिए जाएँ तो अवश्य ही छह दिनों का कार्यक्रम बनाकर जाएँ। दिन कम होने के कारण हम आशापुरा मंदिर और कोटेश्वर मंदिर न देख पाए इसका हमें आज भी दुख है।
हम अपनी गाड़ी अर्थात जिस इनोवा से भुज स्टेशन से उत्सव तक गए थे अब उसमें ही बैठकर भुज आए। हमारे रहने की व्यवस्था बहुत अच्छी थी। दोपहर का भोजन खाकर हम चार बजे के करीब स्वामी नारायण मंदिर देखने गए। यह मंदिर न केवल विशाल और सुंदर है बल्कि इसपर जो नक्काशियाँ हैं वह देखने लायक है।
शाम को हम पास के ही एक संग्रहालय में गए। यह संग्रहालय शाम के सात बजे तक खुला रहता है। छोटी -छोटी मिट्टी से बनी कुटिया में प्रदर्शन के लिए विविध वस्तुएँ रखी गई हैं। यहाँ की वस्तुओं को देखकर कच्छी लोगों के जीवन का परिचय मिलता है। वे न केवल कठोर परिश्रमी हैं बल्कि वे अत्यंत साधारण जीवन यापन करते हैं। प्रकृति के प्रति अत्यंत सजग भी हैं।
उस रात हमने रात के भोजन के लिए कच्छी थाली मँगवाई। विशाल थाली में दस कटोरियाँ लगाई गई थीं। छाछ से प्रारंभ कर कई प्रकार की चटनियाँ, बाजरे की रोटियाँ वह भी घी में डूबी हुई, कई प्रकार की सब्ज़ियाँ थाली में परोसी गई और खूब प्रेम से भोजन करवाया गया।
दूसरे दिन हम लखपत के लिए रवाना हुए।
लखपत में एक गुरुद्वारा है। इस गुरद्वारे में गुरुनानक देव साहेब की पादुका है और पालकी है। हमने यहाँ दर्शन किए। यहीं से मक्का की यात्रा नानक जी ने की थी।
अगली सुबह हम धोलावीरा के लिए निकले। यह सिंधु घाटी सभ्यता की निशानी है। यह भुज से दूर है। पर सुबह सुबह अगर पर्यटक निकल जाएँ तो देर शाम तक लौटकर आ सकते हैं। मार्ग में ऊँटों के झुंड दिखे साथ में काले वस्त्र धारी म। इलाएँ दिखीं जो चाँदी के आभूषणों और माथे पर टिकली से सुसज्जित थीं।
धोलावीरा में चार हज़ार वर्ष पूर्व बसे र के खंडहर देखने को मिले। भरपूर पानी की व्यवस्था हुआ करथी थी जहाँ वर्षा का जल जमा किया जाता था। शहर के चारों ओर नालियों की व्यवस्था थी। यह हड़प्पा शहर के नाम से जाना जाता है।
मैं पहली बार 2005 में इस स्थान का दर्शन करने गई थी। तब केवल एक विशाल प्रवेश द्वार सा बना था। अब 2017 में यहाँ एक संग्रहालय भी देखने को मिला। इस संग्रहालय में उत्खनन के दौरान मिली वस्तुएँ रखी गई हैं। कई प्रकार के बर्तन दिखे जो मिट्टी से बने हैं। उस समय जो ज़ेवर पहने जाते थे वे भी दिखे। बच्चों के लिए खिलौने आदि दिखाई दिए।
मार्ग में नमक बनते तालाब दिखाई दिए। छोटे छोटे गड्ढों में पानी जमा दिखा और उसके चारों ओर नमक बनता दिखा। पानी की सतह चमकदार काँच के समान दिख रही थी। यातायात के लिए बनी सड़कें अत्यंत मुलायम और साफ़ हैं।
अगले दिन भुज रेलवे स्टेशन से हम सब मुंबई लौट आए। मुम्बई से पुणे लौटने के लिए इनोवा की व्यवस्था रखी गई थी। हम सब यायावर दल के सदस्य आराम से सुंदर व सुखद स्मृतियों के साथ अपने घर लौट आए।
हमारे देश में इतनी विविधताएँ हैं और दर्शनीय स्थान हैं कि हम आजीवन भी भ्रमण करते रहे तो पर्याप्त न होगा।
हर भारतीय को चाहिए कि वह अपने देश के हर राज्य का भ्रमण करे तभी अपनी संस्कृति से हम परिचित होंगे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “गधे और हाथी की लड़ाई… ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 311 ☆
व्यंग्य – गधे और हाथी की लड़ाई श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
अमेरिका में गधे और हाथी की रेस चल रही है। डेमोक्रेट्स का चुनाव चिन्ह गधा, और रिपब्लिकन का हाथी है।
चुनावो के समय अपने देश मे भी अचानक रुपयो की गड्डियां बाजार से गायब होने की खबर आती है, मैं अपनी दिव्य दृष्टि से देख रहा होता हूं कि हरे गुलाबी नोट धीरे धीरे काले हो रहे हैं।
अखबार में पढ़ा था, गुजरात के माननीय १० ढ़ोकलों में बिके। सुनते हैं महाराष्ट्र में पेटी और खोको में बिकते हैं। राजस्थान में ऊंटों में सौदे होते हैं।
सोती हुई अंतर आत्मायें एक साथ जाग जाती हैं और चिल्ला चिल्लाकर माननीयो को सोने नही देती। माननीयो ने दिलों का चैनल बदल लिया , किसी स्टेशन से खरखराहट भरी आवाजें आ रही हैं तो किसी एफ एम से दिल को सुकून देने वाला मधुर संगीत बज रहा है, सारे जन प्रतिनिधियो ने दल बल सहित वही मधुर स्टेशन ट्यून कर लिया। लगता है अब क्षेत्रीय दल, राष्ट्रीय दल से बड़े होते हैं। सरकारो के लोकतांत्रिक तख्ता पलट, नित नये दल बदल, इस्तीफे,के किस्से अखबारो की सुर्खियां बन रहे हैं। हार्स ट्रेडिंग सुर्खियों में है। यानी घोड़ो के सौदे भी राजनीतिक हैं।
रेस कोर्स के पास अस्तबल में घोड़ों की बड़े गुस्से, रोष और तैश में बातें हो रहीं थी। चर्चा का मुद्दा था हार्स ट्रेडिंग ! घोड़ो का कहना था कि कथित माननीयो की क्रय विक्रय प्रक्रिया को हार्स ट्रेडिंग कहना घोड़ो का सरासर अपमान है। घोड़ो का अपना एक गौरव शाली इतिहास है। चेतक ने महाराणा प्रताप के लिये अपनी जान दे दी,टीपू सुल्तान, महारानी लक्ष्मीबाई की घोड़े के साथ प्रतिमाये हमेशा प्रेरणा देती है। अर्जुन के रथ पर सारथी बने कृष्ण के इशारो पर हवा से बातें करते घोड़े, बादल, राजा, पवन, सारंगी, जाने कितने ही घोड़े इतिहास में अपने स्वर्णिम पृष्ठ संजोये हुये हैं। धर्मवीर भारती ने तो अपनी किताब का नाम ही सूरज का सातवां घोड़ा रखा। अश्व शक्ति ही आज भी मशीनी मोटरो की ताकत नापने की इकाई है। राष्ट्रपति भवन हो या गणतंत्र दिवस की परेड तरह तरह की गाड़ियो के इस युग में भी, जब राष्ट्रीय आयोजनो में अश्वारोही दल शान से निकलता है तो दर्शको की तालियां थमती नही हैं। बारात में सही पर जीवन में कम से कम एक बार हर व्यक्ति घोड़े की सवारी जरूर करता है। यही नही आज भी हर रेस कोर्स में करोड़ो की बाजियां घोड़ो की ही दौड़ पर लगी होती हैं। फिल्मो में तो अंतिम दृश्यो में घोड़ो की दौड़ जैसे विलेन की हार के लिये जरूरी ही होती है, फिर चाहे वह हालीवुड की फिल्म हो या बालीवुड की। शोले की धन्नो और बसंती के संवाद तो जैसे अमर ही हो गये हैं। एक स्वर में सभी घोड़े हिनहिनाते हुये बोले ये माननीय जो भी हों घोड़े तो बिल्कुल नहीं हैं। घोड़े अपने मालिक के प्रति सदैव पूरे वफादार होते हैं जबकि प्रायः नेता जी की वफादारी उस आम आदमी के लिये तक नही दिखती जो उसे चुनकर नेता बना देता है।
अपने वाक्जाल से जनता को उसूलो की बाते बताकर उल्लू बनाने की तकनीक नेता जी बखूबी जानते हैं। अंतर्आत्मा की आवाज वगैरह वे घिसे पिटे जुमले होते हैं जिनके समय समय पर अपने तरीके से इस्तेमाल करते हुये वे नितांत स्वयं के हित में जन प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने किये गलत को सही साबित करने के लिये शब्दों का इतना कुशल इस्तेमाल करते हैं कि हम लेखक शर्मा जाएं। भ्रष्टाचार या अन्य मजबूरी में नेताजी बिदा होते हैं तो उनकी धर्म पत्नी या पुत्र कुर्सी पर काबिज हो जाते हैं। पार्टी अदलते बदलते रहते हैं पर नेताजी टिके रहते हैं। गठबंधन तो उसे कहते हैं जो सात फेरो के समय पत्नी के साथ मेरा, आपका हुआ था। कोई ट्रेडिंग इस गठबंधन को नही तोड़ पाती। यही कामना है कि हमारे माननीय भी हार्स ट्रेडिंग के शिकार न हों आखिर घोड़े कहां वो तो “वो” ही हैं ! वो उल्लू होते हैं, और उल्लू लक्ष्मी प्रिय हैं, वे रात रात जागते हैं, और सोती हुईं गाय सी जनता के काम पर लगे रहते हैं। इसलिए गधे हाथी लड़ते रहें अपना नारा है, उल्लू जिंदाबाद।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 106 ☆ देश-परदेश – चल मेरी ढोलक ☆ श्री राकेश कुमार ☆
बचपन में खरगोश की ढोलक द्वारा ननिहाल की यात्रा की कहानी आज भी जहन में हैं। उपरोक्त फोटो में भी ढोलक नुमा ड्रम (प्लास्टिक कंटेनर) देख खरगोश वाली कहानी याद आ गई।
त्यौहार के समय मुम्बई से अपने गांव की रेल यात्रा के लिए जाते हुए लोगों को रेलवे ने इस प्रकार के ड्रम के साथ यात्रा करने की अनुमति नहीं दी थी। यात्रियों को कहा गया कि अपना सामान दूसरे साधनों का उपयोग कर ले सकते हैं। परेशान/ हैरान यात्रियों ने जल्दी जल्दी बड़े कपड़े के बैग्स में भर कर ही गाड़ी में बैठ पाए। ड्रम आदि वहीं छोड़ दिए गए।
प्रश्न ये उठता है, कि ये ड्रम के साथ यात्रा क्यों हो रही थी? अधिकतर यात्री मेहनत कश होते है, और किसी उद्योग/ कारखाने में कार्य करते हैं। उद्योग में लगने वाला कच्चा मॉल इन्हीं ड्रम में आता है। वहां कार्य करने वाले मजदूरों को फैक्ट्री से ये ड्रम मुफ्त में या कुछ न्यूनतम राशि में ये ड्रम मिल जाते होंगे।
गांव में अपने परिजनों के उपयोग के लिए ये ड्रम देश की आर्थिक राजधानी से मीलों दूर गरीब के घर के एसेट्स बन जाते हैं। रईसों की बेकार वस्तुएं, गरीबों की शान बन जाती हैं।
एशियन पेंट के खाली डिब्बों की असीमित मांग रहती हैं। एक बार हमारे पड़ोसी ने हमें एक पेंट की दुकान पर खड़ा हुआ क्या देखा? दूसरे दिन घर आकर बोला जब पेंट के डिब्बे खाली हो जाएं तो सबसे पहले मुझे देना “पड़ोसी पहले”।
हमारे देश के लोग तो अमेरिका जैसे देश में समान के लिए कपड़े के थैले भर कर ले जाते हैं। एक बार एयरपोर्ट पर अमेरिका के लिए चेक इन के समय एक व्यक्ति दो बड़े बड़े कपड़े के बैग में यात्रा कर रहा था। उत्सुकता वश हमने पूछ लिया कि इन बैग्स का क्या लाभ है? उसने बताया दस हज़ार वाले सूटकेस से ये पांच सौ वाला बैग, वापिस आकर फोल्ड कर रख सकते हैं। बड़े तेईस किलो तक सामान वाले सूटकेस के साथ तो अंतरराज्यीय यात्रा भी नहीं हो सकती हैं। कपड़े के बैग का वज़न भी सूटकेस से कम होता है, मतलब आप अधिक सामान ले जा सकते हैं।
बैंक की नौकरी समय नब्बे के दशक में कैश के लिए आर बी आई द्वारा लकड़ी के बक्से उपयोग होते थे। हमने भी ट्रांसफर के समय टीवी सेट को सुरक्षित ले जाने के लिए उन्हीं लकड़ी के बॉक्स से एक टीवी सेट के माप का डिब्बा दो दशकों तक उपयोग किया था। घर में उस डिब्बे के ऊपर चादर डालकर बैठने के लिए भी खूब उपयोग किया। वो तो बाद में एल ई डी टीवी आ जाने से उसकी उपयोगिता समाप्त हो गई थीं।
हमारे देशवासियों की सस्ता, सुंदर और टिकाऊ साधनों का उपयोग करने की आदत है। वर्षों से सीमित संसाधनों और अभाव में जीवन यापन करने से मानसिकता भी वैसी ही बन जाती है।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण कविता – युग – सत्य…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 212 – युग – सत्य…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “जीवन सार हीन दिखता ...”)
पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र.
विशेष –
39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया।
अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी”के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆
आकर्षक सादगीपूर्ण किंतु प्रभावशाली गरिमामय व्यक्तित्व, स्पष्ट वक्ता, बुलंद दमदार, आत्मविश्वास से भरी ओजस्व वाणी के धनी विधिवेत्ता स्व. राजेन्द्र तिवारी, पूर्व महाधिवक्ता मध्यप्रदेश को कौन नहीं जानता ? इसे सुसंयोग ही कहा जा सकता है कि संस्कारधानी के सुसंस्कारित ,सुविख्यात विधि पुत्र का जन्म भी संविधान के प्रणेता डॉ. भीमराव अंबेडकर के जन्म दिवस के दिन ही हुआ। 14 अप्रैल 1936 जन्म श्री राजेंद्र तिवारी जी की जन्म एवं कर्मभूमि जबलपुर ही रही।
कुशाग्र बुद्धि के तिवारी जी विद्यालयीन, महाविद्यालयीन एवं विश्वविद्यालयीन शिक्षा में सदैव अग्रणी रहे। उन्होंने संस्कृत साहित्य में एम.ए. किया और फिर विधि की पढ़ाई पूर्ण की।
उनकी सक्रियता का ही परिणाम था कि वे 1956-57 में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय,जबलपुर छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए।
आदरणीय तिवारी जी ने क्राईस्ट चर्च स्कूल में संस्कृत विषय का अध्यापन भी किया। वे एक आदर्श कुशल शिक्षक रहे किंतु कुछ समय बाद ही उन्होंने विधि-जगत को अपना कार्य क्षेत्र बना लिया। सन 1964 से वकालत करने लगे। 1985 से 88 तक वे राज्य सरकार के उपमहाधिवक्ता रहे। 1993 में हाई कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष चुने गए। 1995 में मध्यप्रदेश शासन ने उन्हें वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित किया। ज्ञान और कानून की बारीक समझ और प्रभावशाली विवेचना के कारण उन्हें हाईकोर्ट की रूलिंग कमेटी में रखा गया।
कठिन से कठिन मसलों पर उनके नीर-क्षीर परीक्षण – विश्लेषण और तर्कों से उन्होंने न्यायाधीशों और महाधिवक्ताओं को भी प्रभावित किया नगर-निगम अधिनियम की धारा 17एवं 19 की व्याख्या को लेकर जब दुविधा उत्पन्न हुई तब तत्कालीन महाधिवक्ता के तर्क सुनने के बावजूद भी माननीय श्री तिवारी जी के विचार जानने उन्हें कोर्ट मित्र के रूप में आमंत्रित किया गया। इस अत्यंत जटिल मामले में तिवारी जी की अद्भुत तर्कपूर्ण दलीलों ने सबको प्रभावित किया। उनकी यही दलीलें निर्णय का आधार भी बनी, जो बाद में मील का पत्थर साबित हुई। श्री तिवारी जी का ज्ञान, चिंतन, मनन, कल्पना , तर्कशक्ति धारदार शब्द और ओजस्वी वाणी की गूँज आज भी कोर्ट में उनकी याद दिलाती है । किसी कवि की ये पंक्तियां मानो उन्हीं के लिए लिखी गईं हैं..
मनु नहीं यह मनु पुत्र है सामने
जिसकी कल्पना की जीभ में
भी धार होती है बाण ही होते
नहीं विचारों के केवल ….
स्वप्न के हाथ में भी तलवार होती है।
हिंदी,अंग्रेजी,संस्कृत और उर्दू साहित्य में उनका पूर्ण अधिकार था। निरंतर अध्ययन, चिंतन- मनन उनका स्वभाव था। सुंदर शब्दों का चयन, वाक्य – विन्यास, स्पष्ट और शानदार अभिव्यक्ति जैसे सभी आदर्श वक्ता के गुण उनमें थे। उनके उद्बोधनों में कविता,श्लोक, शेरो-शायरी, कोटेशन, उद्धरण श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर देते थे। श्रोता उनके प्रभावशाली व्याख्यान को मानो सांस रोक कर सुनते थे। साहित्य से तो उन्हें लगाव था ही सांस्कृतिक एवं खेलकूद गतिविधियों तथा कार्यक्रमों में भी उनका अच्छा दखल था । संस्कारधानी की अनेक संस्थाओं को उनका मार्गदर्शन और संरक्षण प्राप्त होता रहा। रंगमंच, शास्त्रीय संगीत की जितनी ज्यादा उनमें समझ थी उतनी ही गजलों की भी। शायद ही कोई विधा ऐसी होगी जिसमें उनका हस्तक्षेप न हो।
महाकौशल शिक्षा प्रसार समिति जिसके द्वारा शासकीय अनुदान प्राप्त चंचलबाई महिलामहाविद्यालय तथा अन्य शैक्षणिक संस्थाएं संचालित हैं उसके वे अध्यक्ष भी रहे महाविद्यालय में कार्यरत होने एवं पारिवारिक संबंध होने के नाते उनका भरपूर सानिध्य मुझे मिला। उनके स्नेहिल प्रेमपूर्ण, मिलनसार, हंसमुख विनोद-प्रिय स्वभाव ने उन्हें कभी भी किसी को भी अपने उनके विराट व्यक्तित्व से दूर नहीं किया। यही कारण था कि छोटे बड़े सभी वय के लोगों के वे अज़ीज़ रहे। कभी भी, किसी से भी, किसी भी विषय पर घंटों – घंटों चर्चा कर लोगों को अपने ज्ञान और अनुभव से लाभान्वित कर देना उनकी विशेषता थी। अत्यधिक व्यस्त होने के बावजूद भी समय के अभाव की बात उन्होंने कभी नहीं की। समय की पाबंदी उनकी बड़ी विशेषता थी। मिनट और सेकंड का हिसाब रखने वाले श्री तिवारी जी सदैव अपने कार्य क्षेत्र में निर्धारित समय पर उपस्थित हो जाते थे। प्रातः सूर्योदय से पूर्व उठना, स्नान- ध्यान, पूजा-पाठ आदि कार्यों से निवृत होकर समाचार-पत्र, पत्रिकाओं का अध्ययन उनकी नियमित दिनचर्या में शामिल थे। रात्रि विश्राम पर जाने का कोई निर्धारित समय नहीं था। शॉर्टकट उन्हें पसंद नहीं था।काम के प्रति लगन निष्ठा और अनुशासन को वे सफलता का सूत्र मानते थे और यही संदेश उन्होंने अगली पीढ़ी को भी दिया। वे कहा करते थे कि –
“If you waste your time the time will waste you.”
समाज को समर्पित सिद्धांतवादी परिवार में जन्मे श्री राजेन्द्र तिवारी जी की पत्नी श्रीमती गीता तिवारी नगर के प्रसिद्ध शिक्षाविद एवं पूर्व महापौर पं. रामेश्वर प्रसाद गुरुजी की पुत्री थीं।
बहुआयामी, जादुई व्यक्तित्व वाले श्री राजेंद्र तिवारी जी ने आने वाली पीढ़ियों के लिए अनेक आदर्श स्थापित किए। उनकी शख्सियत की गूँज केवल कोर्ट में ही नहीं सवरन हर दिल में, हर तरफ सुनाई देती है। ऐसे ही व्यक्तित्व वाले विरले लोगों के लिए शायर इकबाल ने लिखा है ..
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “छोटा सा दीपक…”।)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता ‘ऐसे पुरुष महान बनो…‘।)
☆ लघुकथा – आकांक्षा…☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆
(देश की रक्षा कर रहे, बेटे ने सीमा से, अपनी बूढ़ी मां को खत लिखा, जो दिवाली के दिन उन्हें मिला…)
मां,
चरण स्पर्श,
मैं ठीक हूं, आप कैसी हैं, इस बार दिवाली पर घर आने को लिखा था, पर छुट्टियां रद्द हो गईं, इसलिए नहीं आ पाया, आप ने फसल का बताया था, आदमी न मिलने के कारण नहीं कट पाई है, आप दौड़ धूप नहीं कर पा रही हैं, इसलिए मजदूर नहीं मिल पाए, कोई बात नहीं मां, परेशान मत होना, अपनी सेहत का ख्याल रखना, अभी मेरी ड्यूटी बॉर्डर पर बनी चौकी में है, आप सब देश के दिवाली मना रहे हो, मां, हम तो, दिया भी नहीं जला सकते, यहां, , क्योंकि रोशनी में दुश्मन हमारी लोकेशन का पता लगा लेगा, इसलिए हम अंधेरे में रहकर ही प्रकाश पर्व की कल्पना कर रहे हैं, मां, पता नहीं ये क्यों लड़ते हैं, सब इंसान ही तो हैं, पर एक दूसरे के लहू के प्यासे, बिना किसी दुश्मनी के कारण भी दुश्मन हैं, यहां की तो हवाओं में भी बारूद की गंध आती है, और गोला बारूद के धमाकों की आवाज दिवाली के पटाखों का भ्रम पैदा करते हैं,
मां, दुश्मन की भी तो मां होगी न, वो भी तेरे जैसा ही सोचती होगी न, अपने बेटे की लंबी उम्र की कामना करती होगी, पर पता नहीं किसकी कामना ईश्वर मंजूर करें, तुम्हारी या दुश्मन के मां की,