हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #40 ☆ # तुम जुगनू बनके —- # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है महामारी कोरोना से ग्रसित होने के पश्चात मनोभावों पर आधारित एक अविस्मरणीय भावप्रवण कविता “# तुम जुगनू बनके —- #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 40 ☆

☆ # तुम जुगनू बनके —- # ☆ 

तुम जुगनू बनके

मेरे जीवन में आये हो

तम के काले बादलों से

किरण लाये हो

 

पतझड़ में उजड़ गई थी

जो मेरी बगीया

तुम ने सींचा तो

हर फूल में तुम मुस्कुराये हो

 

हर कली तक रही है

कब से राह तुम्हारी

इस उपवन में जबसे तुम

भ्रमर बनकर आये हो

 

हम भी मरन्नासन्न थे

महामारी की लहर में

तुम ही तो दवा पिलाकर

हमें होश में लाये हो

 

ये तपता हुआ तन

ये प्यासा प्यासा मन

तुम रिमझिम फुहार बनकर

ये अगन बुझाये हो

 

कल का क्या भरोसा

रहे ना रहे हम

कुछ पल आंखें मूंद लो

बहुत सताये हो

 

अभी ना करो जिद  

जाने की “श्याम” तुम

मुद्दत के बाद तो

पहलू में आये हो 

 

© श्याम खापर्डे 

11/06/2021

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 43 ☆ अभंग … ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 43 ☆ 

☆ !! अभंग.. !! ☆

जन्माचे सार्थक, आपुल्याच हाती !!

आठवावी स्मृती, पूर्वजांची…०१

 

स्मरण चिंतन, सतत करावे !!

बंधन पाळावे, सर्वपरी…०२

 

व्यर्थ बडबड, थांबवून द्यावी !!

तयारी करावी, भजनाची…०५

 

अन्यवार्ता जीवा, नकोच करणे !!

ओठासी घालणे, कुलूप हो…०६

 

मोजके बोलावे, सत्यच वदावे !!

मना आवरावे, पुन्हा-पुन्हा…०७

 

जीवन अमोल, खर्च होय पहा !!

नर्क आहे महा, मृत्यू पाठी…०८

 

म्हणोनी सांगणे, इतुके बोलणे !!

सत्कार्या कारणे, कार्य करा… ०९

 

कवी राज म्हणे, योग्य ज्ञान घ्यावे !!

बाकीचे सांडावे, कायमचे…१०

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 99 ☆ व्यंग्य – अरे मन मूरख जनम गँवायो ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘ अरे मन मूरख जनम गँवायो ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 99 ☆

☆ व्यंग्य –  अरे मन मूरख जनम गँवायो

जैसे शादी-ब्याह, मुंडन-जनेऊ की एक निश्चित उम्र होती है, उसी तरह साहित्यकार का अभिनन्दन साठ वर्ष की उम्र प्राप्त करने पर ज़रूर हो जाना चाहिए। साठ पार करने के बाद भी अभिनन्दन न हो तो समझना चाहिए दाल में कुछ काला है, वैसे ही जैसे आदमी का ब्याह अट्ठाइस- तीस साल तक न हो तो लगता है कुछ गड़बड़ है। जो पायेदार, पहुँचदार और समझदार साहित्यकार होते हैं उनका अभिनन्दन साठ तक आते आते चार-छः बार हो जाता है। कमज़ोर और लाचार साहित्यकार ही अभिनन्दित होने के लिए साठ की उम्र तक पहुँचने का इन्तज़ार करते हैं।

मेरे जीवन का सबसे बड़ा दुख यही है कि साठ पार किये कई साल बीतने के बाद भी अब तक अभिनन्दन नहीं हुआ। जो तथाकथित मित्र हैं उन्होंने इस दिशा में कुछ नहीं किया। दूसरे साहित्यकारों के मित्रों ने उन पर हजार हजार पृष्ठों के अभिनन्दन-ग्रंथ छपवा दिये। इन अभिनन्दन- ग्रंथों के लिखे जाने में अक्सर खुद साहित्यकार का काफी योगदान रहता है। वे ही तय करते हैं कि ग्रंथ में क्या क्या शामिल किया जाए और क्या शामिल न किया जाए, किससे लिखवाया जाए और किससे बचा जाए। आजकल दूसरे साहित्यकारों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। आप यह सोचकर निश्चिंत हो जाते हैं कि वे आपकी तारीफ के पुल बाँधेंगे, लेकिन जब ग्रंथ छप कर आता है तो पता चलता है कि जिन पर भरोसा किया था उन्होंने मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा।

साठ पर पहुँचने से काफी पहले से मैं अपने तथाकथित दोस्तों की तरफ बड़ी उम्मीद से देखता रहा हूँ,लेकिन उन्होंने साठ पूरा करने की निजी बधाई देने और सौ साल तक ज़िन्दा रहने की शुभकामना देने में अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। सवाल यह है कि बिना अभिनन्दन के सौ साल तक क्यों और कैसे जिया जाए?अभिनन्दन- विहीन ज़िन्दगी एकदम बेशर्मी की, बेरस ज़िन्दगी होती है। लानत है ऐसी ज़िन्दगी पर और लानत है ऐसे दोस्तों पर। ऐसे दोस्तों से दुश्मन भले।

आपको रहस्य की बात बता दूँ कि मैंने दस-पन्द्रह हज़ार रुपये अपने अभिनन्दन  के खाते में डाल रखे हैं। कोई भरोसे का आदमी मिले तो उसे सौंपकर निश्चिंत हो जाऊँ। खर्चे के अलावा एक हज़ार रुपये अभिनन्दन के आयोजक को मेहनताने के दिये जाएंगे ताकि काम पुख्ता और मुकम्मल हो।

रकम प्राप्त करने से पहले मुझे आयोजक से कुछ न्यूनतम आश्वासन चाहिए। समाचारपत्रों और स्थानीय टीवी में भरपूर प्रचार होना अति आवश्यक है—अभिनन्दन से पहले सूचना के रूप में और अभिनन्दन के बाद रिपोर्ट के रूप में। स्थानीय अखबारों से मेरे मधुर संबंध हैं, उनका उपयोग किया जा सकता है।

कार्यक्रम में बोलने वाले कम से कम दस वक्ता होना चाहिए। उनका चुनाव मैं करूँगा। उनके अलावा कोई बोलने के लिए आमंत्रित न किया जाए, अन्यथा आयोजक को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा। कार्यक्रम के बीच में बोलने के लिए अपनी चिट भेजने वालों को शंका की दृष्टि से देखा जाए।

कार्यक्रम में सौ, दो सौ श्रोता होना ही चाहिए, अन्यथा कार्यक्रम का कोई मतलब नहीं है। मुझे हाल में एक साहित्यिक कार्यक्रम का आमंत्रण मिला था जिसमें लिखा था कि सबसे पहले पहुँचने वाले पाँच श्रोताओं को पुरस्कार दिया जाएगा। मैंने अभिनन्दित की सूझ की दाद दी। क्या आइडिया है! मेरे कार्यक्रम में भी कुछ ऐसा ही किया जा सकता है। सबसे पहले पहुँचने वालों के अतिरिक्त सबसे अन्त तक रुकने वालों  को भी पुरस्कृत किया जा सकता है। मेरे पास अपनी लिखी किताबों की प्रतियाँ पड़ी हैं। वे पुरस्कार देने के काम आ जाएंगीं।

कार्यक्रम में कम से कम पचास मालाएँ ज़रूर पहनायी जाएं। इसमें बेईमानी न हो। ऐसा न हो कि दस बीस मालाओं को पचास बार चला दिया जाए। सभा में पचास आदमी ऐसे ज़रूर हों जो माला पहनाने को तैयार हों। यह न हो कि नाम पुकारा जाए और आदमी अपनी जगह से हिले ही नहीं। साहित्यकार राज़ी न हों तो कोई भी पचास आदमी तैयार कर लिये जाएं।

एक बात और। कार्यक्रम आरंभ होने के बाद आने जाने का एक ही दरवाज़ा रखा जाए और उस पर तीन चार मज़बूत आदमी रखे जाएँ, ताकि जो घुसे वह अन्त तक बाहर न निकल सके। जो भी बाहर निकलने को आये उसे ये तीन चार स्वयंसेवक विनम्रतापूर्वक हँसते हँसते पीछे की तरफ धकेलते रहें। चाय का भी एक बहाना हो सकता है। श्रोताओं को पीछे धकेलते समय कहा जाए कि बिना चाय पिये हम आपको बाहर नहीं जाने देंगे। ज़ाहिर है कि चाय कार्यक्रम के एकदम अन्त में ही प्रकट हो, जब कृतज्ञता-ज्ञापन की औपचारिकता हो रही हो।

पाँच-छः चौकस और मज़बूत टाइप के लोग श्रोताओं के इर्दगिर्द खड़े रहें ताकि कोई ‘हूटिंग’ न कर पाये। ’हूटिंग’ और आलोचना से मेरे कोमल साहित्यिक मन को धक्का लगता है। स्पष्ट है कि जब मेरे विरोधियों को बोलने का मौका नहीं मिलेगा तो वे ‘हूटिंग’ और हल्ला-गुल्ला मचाने की घटिया हरकत पर उतरेंगे। अतः उनकी छाती पर सवार रहना ज़रूरी होगा।

अभिनन्दन में होती देर से जब मन उदास होता है तो मन को यह कह कर समझा लेता हूँ कि हर महान आदमी के साथ ऐसा ही होता है। एक तो सामान्य और नासमझ लोग महानता को देर से पहचान पाते हैं। दूसरे, जो समझ पाते हैं वे दूसरे की महानता से जलते हैं। महानता को स्वीकार करने के लिए जो उदारता चाहिए वह उनमें कहाँ?इसलिए मुझे पूरा यकीन है कि अभिनन्दन में विलम्ब मेरी महानता का सबूत है।  ‘दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 97 ☆ सामान्य लोग, असामान्य बातें ! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 97 ☆ सामान्य लोग, असामान्य बातें ! ☆

सुबह का समय है। गाय का थैलीबंद दूध लेने के लिए रोज़ाना की तरह पैदल रवाना हुआ। यह परचून की एक प्रसिद्ध दुकान है। यहाँ हज़ारों लीटर दूध का व्यापार होता है। मुख्य दुकान नौ बजे के लगभग खुलती है। उससे पूर्व सुबह पाँच बजे से दुकान के बाहर क्रेटों में विभिन्न ब्रांडों का थैलीबंद दूध लिए दुकान का एक कर्मचारी बिक्री का काम करता है।

दुकान पर पहुँचा तो ग्राहकों के अलावा किसी नये ब्रांड का थैलीबंद दूध इस दुकान में रखवाने की मार्केटिंग करता एक अन्य बंदा भी खड़ा मिला। उसके काफी जोर देने के बाद दूधवाले कर्मचारी ने भैंस के 50 लीटर दूध रोज़ाना का ऑर्डर दे दिया। मार्केटिंग वाले ने पूछा, “गाय का दूध कितना लीटर भेजूँ?” ….”गाय का दूध नहीं चाहिए। इतना नहीं बिकता,” उत्तर मिला।…”ऐसे कैसे? पहले ही गायें कटने लगी हैं। दूध भी नहीं बिकेगा तो पूरी तरह ख़त्म ही हो जायेंगी। गाय बचानी चाहिए। हम ही लोग ध्यान नहीं देंगे तो कौन देगा? चाहे तो भैंस का दूध कुछ कम कर लो पर गाय का ज़रूर लो।”….”बात तो सही है। अच्छा गाय का भी बीस लीटर डाल दो।” ..संवाद समाप्त हुआ। ऑर्डर लेकर वह बंदा चला गया। दूध खरीद कर मैंने भी घर की राह ली। कदमों के साथ चिंतन भी चल पड़ा।

जिनके बीच वार्तालाप हो रहा था, उन दोनों की औपचारिक शिक्षा नहीं के बराबर थी। अलबत्ता जिस विषय पर वे चर्चा कर रहे थे, वह शिक्षा की सर्वोच्च औपचारिक पदवी की परिधि के सामर्थ्य से भी बाहर था। वस्तुतः जिन बड़े-बड़े प्रश्नों पर या प्रश्नों को बड़ा बना कर शिक्षित लोग चर्चा करते हैं, सेमिनार करते हैं, मीडिया में छपते हैं, अपनी पी.आर. रेटिंग बढ़ाने की जुगाड़ करते हैं, उन प्रश्नों को बड़ी सहजता से उनके समाधान की दिशा में सामान्य व्यक्ति ले जाता है।

एक सज्जन हैं जो रोज़ाना घूमते समय अपने पैरों से फुटपाथ का सारा कचरा सड़क किनारे एकत्रित करते जाते हैं। सोचें तो पैर से कितना कचरा हटाया जा सकता है..! पर टिटहरी यदि  रामसेतु के निर्माण में योगदान दे सकती है तो एक सामान्य नागरिक की क्षमता और  उसके कार्य को कम नहीं समझा जाना चाहिए।

आकाश की ओर देखते हुए मनुष्य से प्राय: धरती देखना छूट जाता है। जबकि सत्य यह है कि सारा बोझ तो धरती ने ही उठा रखा है। धरती की ओर मुड़कर और झुककर देखें तो ऐसे लोगों की कमी नहीं जो अपने-अपने स्तर पर समाज और देश की सेवा कर रहे हैं।

इन लोगों को किसी मान-सम्मान की अपेक्षा नहीं है। वे निस्पृह भाव से अपना काम कर रहे हैं।

युवा और किशोर पीढ़ी, वर्चुअल से बाहर निकल कर अपने अड़ोस-पड़ोस में रहनेवाले इन एक्चुअल रोल मॉडेलों से प्रेरणा ग्रहण कर सके तो उनके समय, शक्ति और ऊर्जा का समाज के हित में समुचित उपयोग हो सकेगा।

सोचता हूँ, सामान्य लोगों की असामान्य बातों और तदनुसार क्रियान्वयन पर  ही जगत का अस्तित्व टिका है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 53 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 53 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 53) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 53 ☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

एक बार वक़्त से

लम्हा गिरा कहीं

वहाँ दास्ताँ मिली

मगर लम्हा कहीं नहीं

 

Once  a  moment  from  the

time  just  fell  somewhere

On searching got the stories

but never again that moment

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कुछ दर्द  ऐसे  भी

मिले  जिंदगी  में,

जिन्होंने जान भी ले ली

और जिंदा भी छोड़ दिया!

 

Came across few pains

in the life, like that

which  took  the  life,

but left me alive too!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

दो  गज  से  ज़रा  ज़्यादा

जगह  देना  कब्र  में  मुझे…

किसी की याद में करवट बदले              

बिना मुझे नींद ही नहीं आती…

 

Give me little more than two

yards of space in the grave

Can’t sleep without rolling

in  someone’s  memory..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

तसल्ली  से  पढ़े  होते

तो समझ में आते हम,

ज़रूर कुछ पन्ने बिना

पढ़े ही पलट दिए होंगे…

 

If only you’d read me calmly

to understand me fully…

You must have flipped over

few pages without reading... !

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 54 ☆ बुंदेली ग़ज़ल – काय रिसा रए… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित बुंदेली ग़ज़ल    ‘काय रिसा रए। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 54 ☆ 

☆ बुंदेली ग़ज़ल – काय रिसा रए ☆ 

काय रिसा रए कछु तो बोलो

दिल की बंद किवरिया खोलो

 

कबहुँ न लौटे गोली-बोली

कओ बाद में पैले तोलो

 

ढाई आखर की चादर खों

अँखियन के पानी सें धो लो

 

मिहनत धागा, कोसिस मोती

हार सफलता का मिल पो लो

 

तनकउ बोझा रए न दिल पे

मुस्काबे के पैले रो लो

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 41 ☆ शिक्षा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  शिक्षा के क्षेत्र पर लिखी गई विशेष कविता  “शिक्षा  “।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 41 ☆ शिक्षा  

पैसा जिसके पास है दे सकता जो दान

उसको यूनिवर्सिटी की हर डिगरी आसान

शिक्षा, सर्विस, मान के भी हैं वे हकदार

बहुत प्रदूषित हो गया शिक्षा का संसार

 

बिना शुल्क यद्यपि सुलभ शिक्षा का अधिकार

तदपि प्रवेश की प्राप्ति का बहुत कठिन आधार

यदि प्रवेश  भी मिल सका तो मुश्किल है खर्च

कोई गरीब कैसे करे जीवन बेडा पार ?

 

पुस्तक, कापी, ड्रेस और फीस के विविध प्रकार

निर्धन पालक को कठिन लेना राशि उधार

शिक्षा कम शालाओ का टीम टाम पर जोर

दुखी पालकों पर बढ रहा है आर्थिक भार

 

ऊँची अभिलाषाओं का मन में भरा गुबार

इससे कोचिंग क्लास का बढा हुआ व्यापार

लेते उॅंची फीस सब एडमीशन के साथ

किंतु सफल परिणाम हो, कोई न जिम्मेदार

 

शासन और समाज को शायद नहीं यह ध्यान

शुभ शिक्षा बिन असंभव श्रेष्ठ राष्ट्र निर्माण

यदि शिक्षक और पाठ्यक्रम का स्तर प्रतिकूल

तो शिक्षा कर सकती नहीं पूर्ण सुखद अनुमान

 

सदाचार अब है नहीं जीवन का आधार

इससे अनुचित हो रहे सब दैनिक व्यवहार

शिक्षा शिक्षा न रही बन गई है दूकान

लेनदेन से हो रहे वहाॅ सभी व्यापार

आवश्यक है हो सभी शिक्षा में सुधार

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #6 – शब्बो-राजा ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है   – शब्बो-राजा )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #6 – शब्बो-राजा ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

ज्येष्ठ-आषाढ़ यानि मई-जून के महीनों में पलकमती नदी के तन का पानी सूख जाता है। किनारे  फटने लगते हैं। शहर के मवेशियों के झुंड सुबह-सुबह खुरों से धूल उड़ाते हुए जंगल में घास चरने जाते और शाम को वापस अपने ठौर पर लौटते हैं। बस्ती के लोग भी गरमी से बेहाल अपने घरों में क़ैद हो जाते थे। बारिश की आस में सोहागपुरी सुराहियों के ठंडे पानी से प्यास बुझाते थे।

सावन-भादों यानी जुलाई-अगस्त के महीनों में मानसूनी बादल पहाड़ों के शिखरों से नर्मदा की तलहटी तक पूरी ज़मीन को तर-बतर करके वातावरण को एक रूमानी ख़ुशबू से सराबोर कर देते हैं। पलकमती नदी किनारों को तोड़ती हुई बहने लगती थी। पहाड़ों से तेज़ बहाव के उन्माद में बहकर आतीं बड़ी छोटी इमारती और जलाऊ लकड़ी पकड़ने के लिए तारबाहर के कुछ दुस्साहसी युवक नदी में कूदकर लकड़ियों को पकड़ते थे। उनमें राजाराम, मुराद खान और  मुन्ना खान प्रमुख थे। साथ में लखन यादव, हरि शंकर ग्वालि, सुरेश पटवा भी मुझ उफनती नदी में एक किनारे से कूद लकड़ी पर सवार होकर दूसरे किनारे लग जाया करते थे। जैसा उन्माद मेरे बहाव में होता था वैसा ही ख़ून का उबाल उन जवानों के ख़ून और अरमानों में था। वे उफान से भरी नदी में कूद भँवर से बचते हुए लकड़ी के भारी लक्कड़ पर सवार होकर अपने आपको अकबर बादशाह समझते हुए दूसरी पार लग जाते थे।

आज़ादी के बाद अंग्रेज़ यहाँ से चले गए। लेकिन एक एडवर्ड डेरिक वॉन अपने पाँच लड़कों जॉर्ज, विन्स्टोन, एडवर्ड, एडविन और हेनरी व एक लड़की गार्ड़िनिया के साथ यहीं तारबाहर में रेल लाइन के किनारे बस गए। रनिंग-रूम के मुख्य ख़ानसामा शेख़ हयात और उनके दो सहायक असग़र और दिलावर भी परिवार बसा कर उनके पास ही जम गए थे। असग़र का मुराद और दिलावर का मुन्ना नाम का लड़का था। दिलावर की एक लड़की शबनम भी थी। घर-मुहल्ले में उसे शब्बो के नाम से बुलाते थे। उनके पीछे कल्लू और दम्मु धोबी के भरेपूरे परिवार रहते थे।

मुराद और मुन्ना रेल्वे लाइन के किनारे बने घरों में पड़ोसी थे। वे मुहल्ले की बकरियाँ और कुछ गाय-भैंस जंगल में ले जाकर चराया करते थे। रामचरन धोबी का लड़का राजाराम भी कभी-कभी उनके साथ जाया करता था। वे तीनो एक साथ गिल्ली-डंडा, गड़ा-गेंद सुआ-कंचा या अण्डा-डावरी खेला करते थे। तीनो की उम्र यही कुछ 18-20 के बीच थी। मार्च के  महीने में एक दिन राजाराम दोपहर में मुन्ना को खेलने के लिए बुलाने आया। मुन्ना और मुराद बकरी चराने गए हुए थे। माता-पिता भी काम से बाहर गए थे।

मुन्ना की बहिन शब्बो घर पर अकेली थी। उसकी उम्र यही 16-17 साल के आसपास थी। शादी की बात चलती लेकिन दहेज की रक़म न होने से बात बन नहीं पाती थी। यौवन उसका शबाब पर था। उसके उरोजों और नितम्बों में पुष्ट भराव और कटि पर दुबलापन उसकी चाल में एक लहर पैदा करता था। उसकी चाल की मस्ती जवान लड़कों के दिलों में तीर की तरह उतर जाती थी। ऋषि वात्सायन के हिसाब से वह मृगी जातक की कन्या थी। जब चलती थी तो उसके सुडौल गोलाकार नितम्ब आपस में टकरा कर देखने वाले के दिल में स्पंदन पैदा करते थे। उसे इसका अहसास रहता कि लड़के उसे पीछे से निहारते हैं। वह और भी लहरिया चाल से चलती थी।

राजाराम सुबह भट्टी से कपड़े उतारने से लेकर शाम को धुलाई से प्रेस तक के काम दिन भर करता था। माँ-बाप का सबसे छोटा लड़का होने से उसकी खिलाई पिलाई अच्छी थी। मटन-मछली उसके रोज़ के खाने में शामिल रहती थी। राजाराम औसत क़द का भरी-भरी पुष्ट माँसपेशियों वाला वृषभ जाति का गबरू जवान पुरुष था। क्रिकेटर सचिन और धोनी जैसा ऊर्जा और उत्साह से लबालब भरा।

जब राजा शब्बो के घर पहुँचा तब वो बोरों  से ढाँक कर बने कच्चे गुसलखाने में नहा रही थी। उसने बोरों की झीनी परत से राजा को आते देख लिया। राजा गुसलखाने के बिलकुल नज़दीक आकर आवाज़ लगा रहा था। शब्बो साँस थामकर बैठी रही। राजा की आवाज़ आनी बंद हो गई तो उसने नहाने के लिए बदन पर पानी उँडेला। राजा वहीं खड़ा था उसने चौंक कर गुसलखाने में झाँका तो वह शबनम में भीगे जादुई सौंदर्य को देखता ही रह गया। शब्बो ने उसी समय ऊपर देखा तो वह भी अपलक राजा की आँखों में खो गई। जिसे लोग पहले नज़र का इश्क़ कहते हैं, दोनो को वही हो गया था। राजा और शब्बो के दिलों में कामदेव विराजमान हो चुके थे। वे अपने आप में खोए-खोए रहने लगे। शब्बो आँटा गूँथते, कुएँ से पानी भरकर लाते, बकरियों को दुहते और चौका-बर्तन समेटते हर समय अनमनी और खोई-खोई सी रहने लगी। माँ के बुलाने पर उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उससे बात करता तो एकटक उसे देखे जाती। उसकी आँखों में एक नशा सा छाया रहता था। उसका शबाब पहले से और भी ज़्यादा निखर आया था। मुहल्ले की सारी औरतें उससे जलतीं और उसकी ग़ज़ब की सुंदरता का राज पूछती वह बेचारी हल्की सी मुस्कान छोड़कर चली जाती।

ऐसा ही कुछ हाल राजा का था। वह नदी किनारे धोबी घाट की सिल पर कपड़े फींचता तो कपड़े फटने तक फींचता जाता था। प्रेस करता तो एक ही कपड़े पर स्त्री चलाता जाता था। काम से फ़ुरसत होकर वह केबिन से सिगनल खींचने वाले साँडे पर आकर बैठ जाता, जहाँ से शब्बो का घर सीधा दिखता था। शाम होते ही यह रिवाज सा था कि गोपाल सेठ की हवेली से पंडा बाबू और वॉन साहिब के घर से पोटर खोली तक लोग चड्डी-बनियान पर ही वहाँ आकर बतियाते रहते थे। लेकिन वॉन साहिब हमेशा ख़ाकी ड्रेस में घुटनों तक जुराबें पहनकर जूतों में टिपटाप आते थे। उनका हैट हमेशा सिर पर रहता था। नसवार सूँघी लाल नाक उसके ऊपर दो पैनी गोल आँखें सामने वाले को तौलती हुई सी देखतीं रहतीं थीं।

सोहागपुर में आज भी ऐसी जगह नहीं है जहाँ इश्क़ज़दा लोग एक दूसरे को जी भरकर देख सकें, बातें कर सकें, मिल सकें। एक ही उपाय है कि भाई-बहन का दिखावटी रिश्ता क़ायम कर लो तब मिलना सम्भव है। अब थोड़े लोग मड़ई तरफ़ मोटर साइकल पर निकलने लगे हैं। लेकिन उस ज़माने में मोटर साइकल के बारे में तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे। साइकिल भी लोगों के पास नहीं होती थी। दोनो कसमसाकर रह जाते थे। मुहब्बत न रिवाज जानती है, न धर्म और न हैसियत, बस हो जाती है। बिना कुछ सोचे-समझे। सोच-समझ कर रिश्ता तो हो सकता है पर मुहब्बत नहीं। जो मुहब्बत के पचड़े में पड़ते हैं उनमें से गिने चुने सफल होते हैं बाक़ी नाकाम होकर उसी नाकामी के साथ ज़िंदगी गुज़ारते हैं या उसे अंदरूनी ताक़त बनाकर सारी मुश्किलों से पार निकल जाते हैं। कुछ भाई-बहन के रिश्ते के रास्ते से मुहब्बत के बारीक धागे को ज़माने की सुई में पिरोकर इश्क़ का पैरहन उधेड़-उधेड़ कर ताज़िंदगी सीते रहते हैं। देखें, हमारे इन दो मुहब्बतज़दा किरदारों की क़िस्मत में क्या लिखा है।

मिलने की सूरत या तो डोल ग्यारस की रात को जब बच्चे बूढ़े जवान पूरी रात गणेश प्रतिमा और झाँकी देखने निकलते, तब सम्भव थी या मुहर्रम की रात या दशहरा की रात जब थाने के पीछे जहाँ अब दुकानें लग गयीं हैं वहाँ ताज़िये मुहर्रम पर या दुर्गा मूर्ति दशहरे पर पूरी रात रखी जातीं थीं। तब तक दिल में लगी आग सुलगते रहती रही। ऊपर राख जम जाती थी परंतु अंदर शोले भड़कते रहते थे।

उस साल मुहर्रम और दशहरा एक ही दिन पड़े थे। दुर्गा प्रतिमा थाने के पीछे और ताज़िये पलकमती नदी किनारे मछली बाज़ार तरफ़ रखे गए थे। हिंदू मुसलमान बिना किसी भेद-भाव के दुर्गा दर्शन और ताज़िये के नीचे से निकलने की रस्म निभा रहे थे। शब्बो अपनी अम्मी के साथ बस्ती के रिश्तेदारों के बीच वहाँ बैठी थी जहाँ ताज़िये रखे थे। राजा दुर्गा प्रतिमा देख कर दोस्तों के साथ ताज़िये की तरफ़ जा रहा था वहीं शब्बो ताज़िये देख कर दुर्गा प्रतिमा की तरफ़ जा रही थी। दोनों की नज़रें मिली। बात हो गई। राजा तबियत ठीक न होने का बहाना करके दोस्तों से विदा होकर घर की तरफ़ चला। थोड़ी दूर जाकर वह शब्बो को ढूँढने दशहरा मैदान की तरफ़ मुड़ लिया। उसकी आँखें शब्बो से मिलीं। आँखों-आँखों में मिलने का इकरार हुआ। थोड़ी देर बाद शब्बो निस्तार के बहाने एक छोटी लड़की के साथ निकली और रास्ते में से उसे वापस विदा करके राजा का हाथ थाम के पुल के नीचे आ पहुँची। दोनो आलिंगनबद्ध होकर सुधबुध भूल कर खड़े रहे। जैसे अब कभी जुदा नहीं होना है।

मुराद और मुन्ना पुल की दूसरी ओर से जहाँ ताज़िये रखे थे वहाँ से निस्तार के लिए पुल के नीचे पहुँचे तो वहाँ कुछ साये उनको दिखाई दिए। कौतूहल वश वे वहाँ पहुँचे तो राजा और शब्बो को एक दूसरे की बाहों में समाए देखा। राजा ने कहा कि वो शब्बो को निस्तार के लिए लाया था।

मुराद मन ही मन शब्बो को चाहता था। वह सब समझ गया। उसके तन बदन में आग लग गयी। बात आयी गई हो गई। मुराद राजा और शब्बो पर नज़र रखने लगा। उसका शक पक्का हो गया कि मुहब्बत का खेल चल रहा है। जो उसे पूरी चाहिए थी शायद बँट गई है। शब्बो की मुस्कान जूठी हो गई है। शब्बो का राजा से लिपटता साया सोते जागते उसकी आँखों के सामने नाचता रहता था। उसकी सांसें तेज़ और तेज़ होती जाती थीं। वह अपनी मज़बूत बाँहों में ऐसी ताक़त महसूस करता था कि यदि चाँद को पकड़ पाए तो उसे लोंच खरोंच कर रुई के फ़वबों की तरह आसमान में बिखेर दे। चाँद के हल्के काले दाग़ में हाथ घुसेड़ कर बीच से चीर दे। वह रोटी का एक टुकड़ा हड्डी वाले मटन टुकड़े के साथ मुँह में डालता और चबाता रहता जब तक कि गोश्त लिपटी हड्डी चूर-चूर होकर उसके ऊदर में न समा जाती। सुख-दुःख, मिलन-विछोह, रात-दिन की तरह  मुहब्बत-अदावत का भी चोली-दामन का साथ है। ये कभी अलग नहीं होती हैं। एक दूसरे के पीछे चिपकी चली आती हैं। ईसा से 600 साल पहले बुद्ध ने कहा था कि राग के साथ द्वेष भी सहज ही उत्पन्न होता है। दो लोग प्रेम में रहते हैं तो दुनिया के लोगों को सहज ही अच्छा नहीं लगता। माँ भी जब एक बच्चे को दुलार करती है तो दूसरे को अच्छा नहीं लगता। लोग प्रेम का जाप ज़रूर करते हैं लेकिन दुनिया को चलाने वाली चीज़ द्वेष है। राजा और शब्बो के प्रेम प्रसंग में भी राजा, मुराद और मुन्ना के बीच घातक द्वेष ने जन्म ले लिया। मुराद बार-बार मुन्ना से राजा और शब्बो के प्रसंग की बात उनके माता-पिता को बताने को कहता। मुन्ना के पिता को हृदय रोग था। तनावपूर्ण स्थिति उनकी जान ले सकती थी। इसलिए मुन्ना उन्हें नहीं बताना चाहता था। इस स्थिति से निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझता था।

दूसरी तरफ़ आशिक़ और माशूक़ के दिलों में मुहब्बत की आग भड़क रही थी। दशहरे की रात के आलिंगन से उनके बदन की ख़ुशबू एक दूसरे में समा चुकी थी। वह ख़ुशबू उन्हें एक दूसरे के पास खींच लाती थी। शब्बो का चेहरा और दमकने लगा था। जब राजा रेल्वे लाइन के नज़दीक कैबिन से निकल कर सिग्नल तक जाते सांडों पर आकर बैठता तो शब्बो दालान में बड़ा आईना लेकर ऐसे कोण पर रखकर  सँवरने लगती जहाँ से उसके पीछे बैठा राजा उसे पूरा दिखता और राजा वहाँ से उसका चेहरा देख पाता था। मुराद और मुन्ना यह देख कर जल-भुन कर रह जाते। मुन्ना शब्बो के बाल खींचकर आईना उठा उसे कमरे के अंदर धकेल कर कुँडी चढ़ा देता। प्रेमी-प्रेमिकाओं के मार्ग की बाधाएँ उनकी आग और भड़का देती।

पलकमती नदी सोहागपुर में घुसने के पहले ईसाई क़ब्रिस्तान तक पूर्व से पश्चिम की तरफ़ बहती है। वहाँ से उत्तर की ओर घूम जाती है। नदियों की चाल कुछ-कुछ साँपों जैसी होती है,  सीधी-सपाट न चलकर सर्पाकार चलती हैं। जहाँ ऊँची ज़मीन या रुकावट आई वहाँ से मुड़ जाती हैं। ऐसा लचीलापन आदमी को भी ज़िंदगी गुज़ारने  में सहायक होता है। डारविन ने भी विकासवाद का सिद्धांत गढ़ते समय जल की इसी विशेषता को ध्यान में लाकर उन जीवों की सूची बनाई थी जो सामने कठिनाई आने पर बदलना शुरू कर देते हैं। उसने दुनिया के सामने origin of species जैसी महानतम खोज दुनिया को दी जिससे आज के मानव जीवन को सरल स्वस्थ और आनंददायक बनाया जा  सके।

नदी किनारे क़ब्रिस्तान के बाद बाएँ हाथ पर तीन-चार घर चर्मकारों के फिर बसोडों  के थे। वे आसपास के गाँव में मरे मवेशियों का चमड़ा नदी किनारे पर डालकर ही उतारा करते थे। जानवर के शव को जंगली कुत्ते या सियार न ख़राब कर  पाएँ, उसके पहले ही उनको यह काम करना होता था क्योंकि हिंसक जानवर मृत पशु के चमड़े को जगह-जगह से काट कर ख़राब कर देते थे। चमड़ा उतारने वाले अपनी खुरपी से पुट्ठों की तरफ़ से चमड़ा उतरना शुरू करते थे। कंधों तक एक पूरा चमड़ा उतार लेते थे। जंगली कुत्ते, सियार, गिद्द, कौवे उनके ऊपर मँडराते रहते थे। वे किसी योगी की साधना से काम में रत रहते थे। काम कोई भी हो लगन से ही कुशलता आती है। जानवरों की हड्डियाँ एकत्र करके बड़े शहरों में उद्योगपतियों को बेच आते थे। वे उनको गोली-कैप्सूल पैक करने की जिलेटिन बनाने या शक्कर बनाने के लिए सल्फ़र के रूप में उपयोग कर लेते थे।

चमार-बसोड के घरों के बाद ग्वालियों की बस्ती शुरू होती थी। पहला घर जैरमा ग्वाली का पड़ता था। जिसकी ग्वालिन बहुत मोटी थी। साठ चुन्नट का बड़ा घेरदार लहंगा पहनती थी। सामने करबला घाट था। वहाँ उस समय चार-पाँच पुरुष पानी भरा रहता था। लड़के बीस फ़ुट ऊँचाई से डाई लगाकर नदी के अंदर ड़ुपकी लगाते थे। मुराद, मुन्ना, राजा, सुरेश, इमरत, लखन, मदन, सुमा सब वहाँ नहाने आते थे। घाट की दूसरी तरफ़ रेत का बड़ा सा मैदान था, जिसमें शंकर लाल पहलवान आठ दस पट्ठों को कुश्ती सिखाया करते थे। लड़के उन्हें शंकर भैया कह कर बुलाते थे। सोहागपुर के लोगों में यह चलन है कि वे जिसे सम्मान देना हो उसे भैया कहकर सम्बोधित करने लगते थे। जैसे अरविन्द भैया, रज्जन भैया, रवि भैया, शरद भैया, रम्मु भैया आदि-आदि।

कुश्ती सीखने वालों में राजा का बड़ा भाई गुड्डा भी आता था। एक दिन उसके साथ राजा भी आया। वो सुरेश के पास बैठ गया। कुश्ती-रियाज़ ख़त्म होने के बाद उसने अपनी प्रेम कहानी सुरेश को सुनाई और मुश्किल बताई कि मुराद और मुन्ना सब जान गए हैं। सुरेश उस समय लंगोट का पक्का और हनुमान भक्त पहलवान था। किताबें और कुश्ती उसके शौक़ थे। वह रोज़ हनुमान चालीसा और शनिवार को सुंदरकाण्ड का पाठ करता था। उसने राजा को अपनी सोच के हिसाब से और दोनो के अलग धर्म की दुहाई देकर शब्बो को भुलाने की समझाइश दी परंतु वह उलटे घड़े पर पानी डालने जैसा था। राजा के दिमाग़ के अंदर कुछ भी नहीं गया।

प्रेमांध लोग कुछ भी कर सकते हैं। तुलसीदास साँप को रस्सी समझ कर हवेली पर चढ़ रत्नावली के पास पहुँचे थे। उस समय गरमियों में लोग खटिया डालकर आँगन में सोया करते थे। वह चैत की चाँदनी भरी रात थी। राजा को नींद नहीं आ रही थी। वह आसमान में खिले चाँद सितारों को निहार रहा था। अचानक उठा और शब्बो के घर की तरफ़ चल दिया। साँड़े पर जाकर बैठ गया। सामने आँगन में शब्बो अपनी माँ के साथ सो रही थी। थोड़ी दूर से पलंग से उसके पिता उठे और शब्बो की माँ को धीरे से जगाकर घर के भीतर ले गए। खिली चाँदनी में राजा ने देखा तो उससे रहा नहीं गया वह उठा और खटिया के नज़दीक पहुँचा। देखा ज़माने से बेख़बर उसकी शब्बो गहरी नींद में सोई हुई थी। उसने शब्बो के चेहरे पर हाथ फेरा तो वो चौंककर उठ पड़ी। उसने राजा को भींचकर गले लगा लिया। अगले ही क्षण वह काँप उठी। उसने राजा को धक्के देकर भाग जाने को कहा। राजा खटिया से नीचे गिरा। आवाज़ से मुन्ना जाग गया। राजा उठ कर भागा। तब तक बाजु के आँगन में मुराद भी जाग गया था। दोनों ने राजा को भागते हुए देख लिया।

चीता जब शिकार पर झपट्टा मारता है तो थोड़ा पीछे झुक जाता है। मुराद और मुन्ना ने राजा पर कुछ भी प्रकट न होने दिया। खेलना कूदना सामान्य रखा। शाम को राजा को  घर बुलाया ताज़ी मछली सालन के साथ रोटी चावल खाया। उसके अगली दोपहर को बंशी लेकर मछली पकड़ने का कार्यक्रम बन गया। मुराद मुन्ना और राजा तीनों वंशी, तिलेंडा, केंचुए, आँटे की गोलियाँ और रोटियों के बीच में तली मिर्चियाँ रखकर ईसाई क़ब्रिस्तान के किनारे से निकलकर नयागाँव के बाहर-बाहर नदी किनारे बस्ती से तक़रीबन तीन मील दूर वहाँ पहुँचे जहाँ पानी गहरा था और मछली ख़ूब थीं।

तीनों अपनी वंशी डालकर तिलेंडा हिलने का इंतज़ार करते। जब गल का हुक मछली के गलफड़ें में फँस जाता तो ऊपर का तिलेंडा हिलता। ठीक उसी समय जिस दिशा में वह हिल रहा है उसकी उलटी दिशा में वंशी को  तेज़ी से खींच देते। मछली फड़फड़ातीं हुई हाथ में आ जाती। शाम हो चली थी। पक्षी अपने डेरों पर लौटने लगे थे। उन तीनो ने रोटी मिर्ची खाईं, फिर लेट गए। मुराद ने एक लम्बी रस्सी निकाली और एक खेल की पेशकश की। रस्सी से एक के हाथ पैर बाँध दिए जाएँगे उसे ख़ुद खोलना होगा। पहले कौन बँधेगा कहने भर की देर थी। राजा बोला मैं। उसे जोखिम भरे खेल खेलने का बहुत शौक़ था। मुराद और मुन्ना ने राजा को नदी किनारे ही एक ऊँची जगह पर पैर लटका कर बिठाया। मुन्ना राजा के हाथ पीछे बाँधने लगा। बाँधकर उसने रस्सी नीचे मुराद की तरफ़ फेंकी। हाथ पर रस्सी की कसावट से राजा को कुछ शक हुआ लेकिन वो बैठा रहा। मुराद उसके पैर में रस्सी खींचकर बाँधने लगा। उसका ग़ुस्से से तमतमाता चेहरा राजा के सामने था। राजा ने उसे देखा तो दहल गया। उसने पैर फेंकना शुरू ही किया था कि मुराद ने अपनी कमर में शर्ट के अंदर रखा हुआ ख़ंजर निकाला और राजा के पेट में सीधा भौंक दिया। राजा सीधा मुराद के ऊपर गिरा। मुराद ने ख़ंजर नहीं छोड़ा। राजा के पेट से निकाल कर तीन बार और उसकी आँतों में घुसा कर घुमा दिया। राजा की आँते बाहर लटक गईं। मुराद और मुन्ना सन्न रह गए। मुन्ना बोला- यार अपन ने तो सोचा था कि इसे रस्सी से बाँधकर नदी में डाल देंगे। दम निकल जाने पर रस्सी खोलकर डूबकर मर जाने की बात बता देंगे। फिर उन्होंने वहीं गड्डे में लाश को दबाया, काँटेदार झड़ियाँ लाकर उसके ऊपर रख दीं। नदी में ख़ंजर और कपड़े धोकर घर लौट गए।

रात को क़बरबिज्जु और सियारों ने राजा के शव को निकाल कर खाया। सुबह गिद्द मँडराने लगे। चमारों ने देखा की गिद्द कहाँ उड़ रहे हैं। वे खुरपी लेकर उस दिशा में चल दिए। जो देखा उसकी ख़बर पुलिस को दी। पोस्टमार्टम हुआ। प्रेमी की लाश सुपुर्देख़ाक कर दी गई। मुराद और मुन्ना को ख़ंजर सहित बंदी बनाया गया। सोहागपुर में सनसनी फैल गई। प्रकरण चला सरकारी वक़ील डब्लू. एन. शर्मा ने अभियोजन पक्ष की ओर से एवं मूसा वक़ील ने बचाव पक्ष की ओर से पैरवी की। घटना का कारण एक ख़ूनी-अदावत थी। अब घटना की चीरफाड़ एक अदालत में होने लगी। वह अदालत भी नदी किनारे पर ही है। राजा को जब ख़ंजर मारा तो वह मुराद के ऊपर गिरा उस समय ख़ंजर उसके फेंफड़ों तक गप गया था और उसकी तत्काल मौत हो गई थी। क़ब्रिस्तान के चौकीदार और नयागाँव ने खेतों में मौजूद किसानों ने उन तीनों को जाते देखा था और मुराद व मुन्ना ही लौटकर आए थे। ख़ंजर और ख़ून सने कपड़े अभियुक्तों से बरामद हुए थे। उनका इक़बालिया बयान पुलिस ने अदालत के सामने रखा था। हत्या का आरोप  सिद्ध हुआ। उस समय लोगों की उम्र बाप से पूछकर तय की जाती थी। जन्म प्रमाण पत्र नहीं होते थे। मूसा वक़ील ने मुराद और मुन्ना के वालिदान से एक शपथ-पत्र दिलवा कर यह सिद्ध करने की कोशिश की थी, कि आरोपी अपराध के समय नाबालिग़ थे। लेकिन अभियोजन पक्ष ने वालिदान द्वारा स्कूल में भर्ती करते समय लिखाई गई तारीख़ का साक्ष्य पेश कर दिया, जिस पर आरोपियों के वालिदान के दस्तखत थे।  मुराद और मुन्ना को बीस-बीस साल की बामशक़्क़त क़ैद की सज़ा सुनाई गई।

शब्बो पथरा गई थी। उसने खाना छोड़ दिया था। उसका दिमाग़ फिर गया था। “आजा-राजा आजा-राजा” चिल्लाते पड़ी रहती थी। चार महीने जी सकी वो, फिर वो भी अल्लाह को प्यारी हो गई। जिसने जीवन दिया, प्रेम दिया लेकिन जीने नहीं दिया। उसने या रिवायत ने या दीवारों ने या ख़ुदगर्ज़ी ने या कपट ने। पता नहीं कैसी दुनिया और कैसा समाज बनाया है इन इंसानों ने। सतपुड़ा के आँचल में पलते गोंड़, भील और कोरखू लोगों में ऐसी रवायत नहीं है। प्यार होता है। पता भी नहीं चलता। एक दूसरे के हो जाते हैं। ज़िंदगी मज़े से गुज़ार के गुज़रते हैं। किसी को ख़बर तक नहीं होती। मुन्ना और मुराद के बाप और मुन्ना की माँ इस सदमे को बर्दाश्त न कर सके। सज़ा की एलानी के साथ वो भी क़ब्रिस्तान की नज़र हुए। मुराद की एक बहन मग्गो बची थी। जिसे मुहल्ले वालों ने सम्भाला। एक चिंगारी सात ज़िंदगी समय से पहले भस्म कर गई। कुछ लोगों ने उस घटना को मज़हबी रंग देने की कोशिश की थी लेकिन दोनों मज़हब के समझदार बुज़ुर्गों ने मामले को सम्भाला। वैसे भी सोहागपुर में समवेत संस्कृति शुरू से ही विकसित हुई है। हिंदू-मुसलमान-ईसाई-सिक्ख सभी यहाँ मिलकर रहते और त्योहार मानते रहे हैं।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #53 – समय का सदुपयोग ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #52  ? समय का सदुपयोग ?  श्री आशीष कुमार☆

किसी गांव में एक व्यक्ति रहता था। वह बहुत ही भला था लेकिन उसमें एक दुर्गुण था वह हर काम को टाला करता था। वह मानता था कि जो कुछ होता है भाग्य से होता है।

एक दिन एक साधु उसके पास आया। उस व्यक्ति ने साधु की बहुत सेवा की। उसकी सेवा से खुश होकर साधु ने पारस पत्थर देते हुए कहा- मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूं। इसलिय मैं तुम्हे यह पारस पत्थर दे रहा हूं। सात दिन बाद मै इसे तुम्हारे पास से ले जाऊंगा। इस बीच तुम जितना चाहो, उतना सोना बना लेना।

उस व्यक्ति को लोहा नही मिल रहा था। अपने घर में लोहा तलाश किया। थोड़ा सा लोहा मिला तो उसने उसी का सोना बनाकर बाजार में बेच दिया और कुछ सामान ले आया।

अगले दिन वह लोहा खरीदने के लिए बाजार गया, तो उस समय मंहगा मिल रहा था यह देख कर वह व्यक्ति घर लौट आया।

तीन दिन बाद वह फिर बाजार गया तो उसे पता चला कि इस बार और भी महंगा हो गया है। इसलिए वह लोहा बिना खरीदे ही वापस लौट गया।

उसने सोचा-एक दिन तो जरुर लोहा सस्ता होगा। जब सस्ता हो जाएगा तभी खरीदेंगे। यह सोचकर उसने लोहा खरीदा ही नहीं।

आठवे दिन साधु पारस लेने के लिए उसके पास आ गए। व्यक्ति ने कहा- मेरा तो सारा समय ऐसे ही निकल गया। अभी तो मैं कुछ भी सोना नहीं बना पाया। आप कृपया इस पत्थर को कुछ दिन और मेरे पास रहने दीजिए। लेकिन साधु राजी नहीं हुए।

साधु ने कहा – तुम्हारे जैसा आदमी जीवन में कुछ नहीं कर सकता। तुम्हारी जगह कोई और होता तो अब तक पता नहीं क्या-क्या कर चुका होता। जो आदमी समय का उपयोग करना नहीं जानता, वह हमेशा दु:खी रहता है। इतना कहते हुए साधु महाराज पत्थर लेकर चले गए।

शिक्षा:- जो व्यक्ति काम को टालता रहता है, समय का सदुपयोग नहीं करता और केवल भाग्य भरोसे रहता है वह हमेशा दुःखी रहता है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 67 – शब्दभ्रम ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 67 – शब्दभ्रम 

नको नुसते शब्दभ्रम करा थोडे तरी काम।

जनतेच जीवन वर किती कराल आराम।।।धृ।।

 

आश्वासनांची खैरात कशी वारेमाप लुटता।

निवडणुका येता सारे हात जोडत फिरता

कधी बोलून गुंडाळता कधी देता थोडा दाम ।।

 

योजनांची गंमत सारी कागदावरच  चालते।

भोळीभाबडी जनता फक्त  फॉर्म भरून दमते।

सरते शेवटी लावता कसा तुम्ही चालनचा   लगाम।।

 

सत्ता बदलली पार्टी बदली, पण दलाली तशीच राहिली।

नेते बदलले कधी खांदे पण लाचारी तिच राहिली।

टाळूवरचे लोणी खाताना , यांना  फुटेल कसा घाम।

 

जात वापरली रंग वापरला ,यांनी  देव सुद्धा वापरले।

 इतिहासातल्या उणिवानी,त्यांचे वंशज दोषी ठरले।

माजवून समाजात दुफळी,खुशाल करतात आराम ।

 

प्रत्येक वेळी नवीन युक्ती कशी नेहमीच करते काम ।

सुशिक्षितही म्हणतो लेका आपलं नव्हेच हे काम ।

म्हणूनच सुटलेत का हो सारेच  कसे बेलगाम  ।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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