हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75 – 14 – उत्तराखंड के व्यंजन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 14 – उत्तराखंड के व्यंजन ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #76 – 14 – उत्तराखंड के व्यंजन ☆ 

भारत की विविधता में भोजन की विविधताओं का अपना अलग योगदान है । पहाड़ों पर कृषि कार्य मुश्किल है और चोटियों को काट-काटकर सीढ़ीनूमा खेतों पर किसानी करना मेहनत भरा काम है । इन छोटे छोटे खेतों में पहाड़ी पुरुष और महिलाएं गेहूँ, धान,मक्का, तरह-तरह की दालें, आलू आदि की पैदावार करते हैं और इन्ही उपजों से तैयार होता है कुमायूं का  सीधा सरल व जायकेदार शाकाहारी भोजन । पहाड़ों पर मांसाहारी भोजन का भी खूब चलन है  । पहले जब शिकार की अनुमति थी तब पहाड़ के निवासी जंगली मुर्गी, तीतर, बतखों के अलावा पहाड़ी बकरी , चीतल आदि का शिकार करते और अपनी जिव्हा को तृप्त करते थे । चोरी छिपे शिकार तो अंग्रेजों के जमाने में भी होता था और अगर अभी भी होता है तो पता नहीं पर माँसाहार के शौकीनों के लिए बिनसर  अपने लजीज पहाड़ी मुर्ग के लिए प्रसिद्ध है और होटलों में पहले से आर्डर देकर इसके लजीज व्यंजनों का स्वाद लिया जा सकता है । हम तीन दिन बिनसर में रुके और इन तीन दिनों में हमने कुमांउनी थाली में निम्न व्यंजनों का भरपूर स्वाद लिया ।  

भांग और तिल की चटनी काफी खट्टी बनाई जाती है । भांग की चटनी हो या तिल की चटनी, इसके लिए दानों को पहले गर्म तवे या कड़ाही में भूनकर और फिर इसमें इसमें जीरा, धनिया, नमक और मिर्च स्वादानुसार डालकर पीसा जाता है । नींबू का रस डालकर इसे आलू के गुटके व  रोटी आदि के खाने का मजा अलग ही है । स्वाद आलौकिक इस चटनी में घबराइये नहीं , नशा  बिलकुल भी नहीं होता है ।

‘आलू के गुटके’ विशुद्ध रूप से कुमाऊंनी स्नैक्स हैं । उबले हुए आलू के बड़े बड़े टुकड़ों को , पानी का इस्तेमाल किये बिना  सब्जी के रूप में पकाया जाता है। लाल भुनी हुई मिर्च, धनिया, जीरा आदि मसाले से युक्त इस सब्जी में तडका भी लगाया जाता है और इसे मडुए की रोटी के साथ खाने का मजा कुछ और ही है ।

कुमाऊं का रायता देश के अन्य हिस्सों के रायते से काफी अलग होता है । इसमें बड़ी मात्रा में ककड़ी (खीरा), सरसों के दाने, हरी मिर्च, हल्दी पाउडर और धनिए का इस्तेमाल होता है।  यह रायता बनाने के लिए छाछ  की क्रीम का उपयोग होता और इसे निकालने के लिए  दही को हल्का मथकर एक कपड़े के थैले में भरकर किसी ऊंची जगह पर टांग दिया जाता है ।  कपड़े में से सारा पानी धीरे-धीरे बाहर निकल जाता है, जबकि छाछ की क्रीम थैले में ही रह जाती है ।  इस क्रीम का इस्तेमाल करने से  कुमाऊंगी रायता काफी गाढ़ा होता है।

कुमाऊं की शान है मडुए के आटे से  बनी मडुए की रोटी । मडुआ, रागी जैसा यह एक स्थानीय अनाज है और इसमें बहुत ज्यादा फाइबर होता है,  स्वादिष्ट होने के साथ ही यह स्वास्थ्यवर्धक भी  है । भूरे  रंग की मडुए की रोटी को  घी, दूध या भांग व तिल की चटनी के साथ परोसा जाता है और आलू के गुटके इसके स्वाद को द्विगुणित कर देते हैं।

सिसौंण के साग में बहुत ज्यादा पौष्टिकता होती है ।  सिसौंण एक किस्म की भाजी है जिसे  आम बोलचाल की  भाषा में ‘बिच्छू घास’ के नाम से पुकारा जाता है क्योंकि इसके पत्तों या डंडी को सीधे छूने पर यह दर्द होने लगता और शरीर के उस भाग में  सूजन आ जाती है और बहुत ज्यादा जलन होती है । सिसौंण के हरे पत्तों को सावधानी पूर्वक काटकर जो स्वादिष्ट  सब्जी बनाई जाती है उसमे  और आश्चर्य की बात यह है कि इसे खाने में कोई नुकसान नहीं होता ।

मास के चैंस कुमाऊं क्षेत्र के खायी जाने वाली प्रमुख दाल है।  मास यानी काली उड़द को दड़दड़ा पीस कर बनाई जाने वाली इस दाल में प्रोटीन काफी मात्रा में होता है और इसलिए इसे हजम करना कुछ कठिन होता है और इसे खाना  कब्जियत का कारण भी हो सकता है , ऐसा हम लोगों ने महसूस किया । जीरा, काली मिर्च, अदरक, लाल मिर्च, हींग आदि के साथ यह दाल न सिर्फ स्वाद के मामले में अदभुत होती है बल्कि स्वास्थ्य के लिजाज से भी काफी अच्छी मानी जाती है।.

काप या कापा एक प्रकार की हरी करी है । सरसों, पालक आदि के हरे पत्तों को काटकर उबाल लिया जाता और फिर  पीस कर ‘काप’ बनाया जाता है जोकि कुमाऊंनी खाने का एक अहम अंग है। इसे रोटी और चावल के साथ खाया जाता है ।

गहत की दाल कुमाऊं क्षेत्र में बहुत प्रसिद्द है और  चावल और रोटी के साथ भी इसके लजीज स्वाद का लुत्फ हम लोगों ने लिया । होटल के संचालक ने हमें बताया कि यह दाल खाने से पेट की पथरी (स्टोन) कट जाती है । इसके अलावा इसकी तासीर गर्म होती है, इसलिए सर्दियों में इस दाल का सेवन ज्यादा होता है । धनिए के पत्तों, घी और टमाटर के साथपरोसी गई  इस दाल का स्वाद भुलाए नहीं भूलता है ।

बिनसर में हमने झिंगोरा या झुंअर की खीर खाई । झिंगोरा या झुंअर एक अनाज है और यह उत्तराखंड के पहाड़ों में उगता है। दूध, चीनी और ड्राइ-फ्रूट्स के साथ बनाई गई झिंगोरा की खीर एक आलौकिक स्वाद देती है.

अल्मोड़ा में हमने खोया के अलावा सुगर बॉल का भी इस्तेमाल से तैयार  बाल मिठाई का लुत्फ़ लिया  और साथ ही दही जलेबी भी खाई । दही जलेबी खाने हम अल्मोड़ा के भीड़ भरे बाज़ार में से होकर गुजरे जोकि नंदा देवी मंदिर के नज़दीक ही है । जब हम इस रास्ते से गुजरे तो पत्थरों व लकड़ी से बनी एक पुरानी दोमंजिला  इमारत ने हमें आकर्षित किया जिसकी छत को भी पत्थरों के बड़े बड़े स्लैब से बनाया गया था ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 44 ☆ हौसला मत हारना ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘हौसला मत हारना’। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 44 ☆

☆ हौसला मत हारना

तुम हिम्मत मत हारना,

मैं अपनी सारी खुशियाँ तुम्हें दे दूँगा,

तुम होंसला मत हारना,

मैं अपनी जिंदगी ये लम्हें तुम्हारे नाम कर दूंगा,

तुम बुलन्दियों को छू लेना,

मैं तुम्हें अपने कंधे पर बैठा लूंगा,

तुम भरोसा रखो मुझ पर,

मैं खुद गिर जाऊंगा मगर तुम्हें गिरने नही दूँगा,

बस तुम बुलन्दी पर पहुंच कर,

मुझे भूल मत जाना नहीं तो तिनके की तरह बिखर जाऊंगा,

बस एक विनती है तुमसे,

कभी भरोसा मत तोड़ना नहीं तो पूरी तरह टूट जाऊँगा ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 96 ☆ गज़ल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 96 ☆

☆ गज़ल ☆

का उगा करतोस कांगावा

तू पुन्हा तो शब्द पाळावा

 

आरसा दावे अता भीती

जाणिवांचा हा असे कावा

 

सोहळा तारूण्य ढळल्याचा

साजरा होण्यास ही यावा

 

फारशी नसतेच मी येथे

तेथला येईल सांगावा

 

लादते आयुष्य पाठीवर

का कुणी शेर्पाच नेमावा?

 

तारका नांदोत आकाशी

जन्म हा धुलिकणच रे व्हावा

 

भाबड्या आहेत माझ्या कल्पना जगण्यातल्या

आडवाटा टाळल्याने राजरस्ते गाठले

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक-८ – सिंहगिरीचे शिल्प काव्य ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मीप्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- ८ – सिंहगिरीचे शिल्प काव्य ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

विशाखापट्टणम हे भारताच्या पूर्व किनाऱ्यावरील महत्त्वाचे बंदर आहे. या नैसर्गिक बंदरातून दररोज लक्षावधी टन मालाची आयात- निर्यात होते. जहाज बांधणीचा अवाढव्य कारखाना इथे आहे. विशाखापट्टणम हे ईस्टर्न नेव्हल कमांडचे मुख्यालय  आहे.

आम्ही इथल्या ऋषिकोंडा बीचवरील आंध्रप्रदेश टुरिझमच्या ‘पुन्नामी बीच रिसॉर्ट’ मध्ये राहिलो होतो. ऋषिकोंडा बीच ते भिमुलीपटनम असा  हा सलग बत्तीस किलोमीटर लांबीचा अर्धचंद्राकृती स्वच्छ समुद्र किनारा आहे. निळ्या हिरव्या उसळणाऱ्या लाटा गळ्यात पांढर्‍याशुभ्र फेसाचा मफलर घालून किनाऱ्यावरील सोनेरी वाळूकडे झेपावत होत्या. किनाऱ्यावरील हिरवळीने नटलेल्या, फुलांनी बहरलेल्या बागेत नेव्हल कमांडच्या बॅण्डचे सूर तरंगत होते. समुद्र किनार्‍यावरच पाणबुडीतले आगळे संग्रहालय बघायला मिळाले.’ आय एन एस कुरसुरा’ ही रशियन बनावटीची पाणबुडी १९७२ च्या पाकिस्तानी युद्धात कामगिरीवर होती. ९० मीटर लांब आणि ४ मीटर रुंद असलेल्या या पाणबुडीचे आता संग्रहालय केले आहे. आतल्या एवढ्याश्या जागेत पाणबुडीच्या सगळ्या भिंती निरनिराळे पाईप्स, केबल्स यांनी व्यापून गेल्या होत्या. छोट्या-छोट्या केबिन्समध्ये दोघांची झोपायची सोय होती. कॅप्टनची केबीन, स्वयंपाकघर, स्वच्छतागृह सारे सुसज्ज होते. क्षेपणास्त्रे होती. बघायला मनोरंजक वाटत होतं पण महिनोन् महिने खोल पाण्याखाली राहून शत्रुपक्षाचा वेध घेत सतर्क राहायचं हे काम धाडसाचं आहे. अशा या शूरविरांच्या  जीवावरच आपण निर्धास्तपणे आपलं सामान्य जीवन जगू शकतो या सत्याची जाणीव आदराने मनात बाळगायला हवी. विशाखापट्टणममधील सिंहगिरी पर्वतावरील सिंहाचलम मंदिर म्हणजे प्राचीन शिल्पकलेचा उत्कृष्ट नमुना आहे. हे ‘श्री लक्ष्मी वराह नृसिंह मंदिर’ चालुक्य ते विजयनगर या राजवटीत म्हणजे जवळजवळ ६०० वर्षांच्या कालावधीत बांधले गेले. दगडी रथाच्या आकाराच्या या मंदिरात कल्याणमंडप, नर्तक, वादक, रक्षक, पशुपक्षी, देवता यांच्या असंख्य सुबक मूर्ती कोरल्या आहेत. वराह नृसिंहाची मूर्ती चंदनाच्या लेपाने झाकलेली असते.

एका डोंगरावरील कैलासगिरी  बागेमध्ये शंकरपार्वतीचे शुभ्र, भव्य शिल्प आहे. तिथल्या व्ह्यू पॉइंटवरून अर्धचंद्राकृती समुद्रकिनारा व त्यात दूरवर दिसणाऱ्या बोटी न्याहळता आल्या. इथल्या  बागांमध्ये स्टीलचे मोठे- मोठे डबे, सतरंज्या घेऊन लोकं सहकुटुंब सहपरिवार  सहलीसाठी आले होते.

विशाखापट्टणमहून आम्ही बसने  बोरा केव्हज बघायला निघालो. वाटेत त्याडा इथले जंगल रिझॉर्ट पाहिले. थंडगार, घनदाट जंगलात नैसर्गिक वातावरणाला साजेशी बांबूची, लाकडाची छोटी झोपडीसारखी घरे राहण्यासाठी, पक्षी व वन्यप्राणी निरीक्षणासाठी बांधली आहेत. तिथे मोठ्या चिंचेच्या पारावर चहापाणी घेऊन बोरा केव्हजकडे निघालो. डांबरी रस्त्यावरून आमची बस वेगात चालली होती. रस्त्याच्या दुतर्फा साग, चिंच, पळस, आवळा असे मोठमोठे वृक्ष होते. त्यांच्या पलीकडे अनंतगिरी पर्वतरांगांच्या पायथ्यापर्यंत भाताची,तिळाची,मोहरीची शेती डुलत होती. कॉफीचे मळे होते. पर्वतरांगा हिरव्या पोपटी वनराईने प्रसन्न हसत होत्या. जिथे पर्वतांवर वनराई न्हवती तिथली लालचुटूक माती खुणावत होती.बोरा केव्हज् पाहण्यासाठी एका नैसर्गिक गुहेच्या तोंडाशी आलो. लांब-रुंद ८०-८५ पायऱ्या बाजूच्या कठड्याला धरून उतरलो. जवळजवळ सव्वाशे फूट खाली पोहोचलो होतो. गाईडच्या मोठ्या बॅटरीच्या मार्गदर्शनात गुहेच्या भिंती, छत न्याहाळू लागलो. निसर्गवैभवाचा अद्भुत खजिनाच समोर उलगडत गेला. कित्येक फूट घेराचे, शेकडो फूट उंचीचे, लवण(क्षार)  स्तंभ लोंबकळत होते. या विशाल जलशिलांना निसर्गतःच विविध आकार प्राप्त झाले आहेत. कुठे गुहेच्या छतावर सुंदर झुंबरे लटकली आहेत तर कुठे देवळांच्या छतावर कमळे कोरलेली असतात तसा कमळांचा आकार आहे. खाली खडकांवर मानवी मेंदूची प्रतिकृती आहे. भिंतीवर मक्याचे मोठे कणीस व मशरूम आहे. तर एकीकडे आई मुलाला घेऊन उभी आहे. दुसरीकडे म्हैस, माकडे, गेंडा,साप अशी शिल्पे तयार झाली आहेत. जरा पुढे गेल्यावर गुहेच्या भिंतीवर वडाच्या पारंब्यांचा विस्तार  आहे. कुठे दाढीधारी ऋषी दिसतात तर कुठे शिवपार्वती गणेश! गुहेच्या सुरुवातीला शिवलिंग तयार झाले आहे. या गुहेत पन्नास- साठ पायर्‍या चढून गेलं की मोठ्ठं शिवलिंग दिसतं.प्रकृतीचा हा अद्भुत आविष्कार आपण निरखून पाहू तेवढा थोडा.हा भूखंड प्राचीन दंडकारण्याचा भाग समजला जातो.

बोरा केव्हज् मधील निसर्गाचे हे अद्भूत शिल्पकाव्य दहा लाख वर्षांपूर्वीचे आहे. १८०७ साली सर विल्यम किंग यांना तिचा शोध योगायोगाने लागला. गोस्तानी नदी वाहताना अनंतगिरी पर्वतातील सिलिका, मायका, मार्बल, ग्रॅनाईट यासारखा न विरघळणारा भाग शिल्लक राहून प्रचंड मोठी गुहा तयार झाली. एका वेळी एक हजार माणसे मावू शकतात एवढी मोठी ही गुहा आहे.गुहेमध्ये वरून ठिबकणारे पाणी क्षार ( कॅल्साइट) मिश्रित होते. थेंब थेंब पाणी खाली पडल्यावर त्यातील थोडे सुकून गेले आणि राहिलेल्या क्षाराचे स्तंभ बनले. याच वेळी छतावरून ठिबकणारे थोडे थोडे पाणी सुकून छतावरून लोंबकळणारे क्षारस्तंभ तयार झाले. स्तंभाची एक सेंटीमीटर लांबी तयार व्हायला एक हजार वर्षे लागतात. यावरून या गुहेची प्राचीनता लक्षात येते.

अजूनही गुहेत ठिकठिकाणी पाणी ठिबकणे  व ते सुकणे ही प्रक्रिया चालूच आहे. चाळीस हजार वर्षांपूर्वी या गुहेत आदिमानव राहात होता असे पुरावे सापडले आहेत. आंध्र प्रदेश पर्यटन महामंडळाने या गुहेची उत्तम व्यवस्था ठेवली आहे. आवश्यक त्या ठिकाणी प्रखर झोतांचे दिवे सोडले आहेत. गुहेत स्वच्छता आहे. प्रशिक्षित मार्गदर्शक आहेत. हा प्राचीन अनमोल ठेवा चांगल्या तऱ्हेने जतन केला आहे.

अनंतगिरी वरील मानवनिर्मित शिल्प काव्य आणि निसर्गाने उभे केलेले शिल्पकाव्य मनावर कायमचे कोरले गेले.

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 82 ☆ मंज़र ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “मंज़र। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 82 ☆

☆ मंज़र ☆
यूँ आँखों के सामने अक्सर

मंज़र बदलते देखा है,

ज़र्रों को तूफ़ान में

और आँधियों को तिनकों में

चुटकी में तबदील होते देखा है,

पदचाप सुनाई भी नहीं आये

और चाँद को धरती पर उतरते देखा है,

फिर उसी पूनम के चाँद को 

वापस आसमान में बिना कुछ कहे

चुपचाप जाते हुए देखा है…

 

ऐसे वक़्त अकस्मात् ही

नज़र चली जाया करती थी

हाथों की लक़ीरों पर-

न जाने कितनी बार उनके पतले होने पर

आंसुओं को बरसते देखा है…

 

पर फिर अब मुस्कुरा उठी हूँ

इन मंज़रों के बदलते मिज़ाज पर –

मंज़र हैं, बदलेंगे ही…

रूह की खुशरंग फितरत तो

रहेगी हमेशा, हमेशा, हमेशा…

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे ☆ हेमन्त बावनकर

बिस्तर

घर पर बिस्तर

उसकी राह देखता रहा

और

उसे कभी बिस्तर ही नहीं मिला।

 

वेक्सिन 

किसी को अवसर नहीं मिला

किसी ने अवसर समझ लिया

मुफ्त का मूल्य

कोई कुछ समझ पाता

तब तक कई दायरे के बाहर आ गए।

 

ऑक्सीज़न

ऑक्सीज़न तो कायनात में  

कितनी करीब थी।  

सब कुछ बेचकर भी

एक सांस न खरीद सके,

अब किससे क्या कहें कि-

साँसें इतनी ही नसीब थी?

 

कफन

किसी को कफन मिला

किसी का कफन बिक गया

उस के नसीब को क्या कहें

जो पानी में बह गया।

 

सीना

लोग कई इंचों के सीनों के साथ

भीड़, रैली, माल, रेस्तरां

जमीन पर और हवा में

घूमते रहे बेहिचक।

सुना है

उनमें से कई करा रहे हैं

सीनों का सी टी स्कैन.  

 

वेंटिलेटर

वेंटिलेटर पर खोकर

अपने परिजनों को

अंत तक परिजन भी

यह समझ ही नहीं पाए

कि आखिर वेंटिलेटर पर है कौन?

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 106 ☆ अंतर नहीं होता कवि और चित्रकार में ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की  एक भावप्रवण कविता – अंतर नहीं होता कवि और चित्रकार में।  इस भावप्रवण रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 106 ☆

? अंतर नहीं होता कवि और चित्रकार में ?

चित्रकार की तूलिका की जगह

कवि के पास होती है कलम

और रंगों की जगह शब्द कैनवास बड़ा होता है,

विश्वव्यापी कवि का

अपनी कविता मे वह

समेट लेना चाहता है सारी दुनिया को

अपनी बाहों में शब्दों के घेरे से

लोगों के देखे पर अनदेखे संवेदना से सराबोर दृश्य

अपने हृदय में समेट लेती हैं

कवि और चित्रकार की भावनाये

फिर कभी एकांत में डैवेलप करता है

मन के कैमरे में कैद 

सारे दृश्य कवि कविता में

और

चित्रकार चित्र में

जिसे पढ़कर या सुनकर

या देखकर

लोग पुनः देख पाते हैं

स्वयं का ही देखा पर अनदेखा दृश्य

और इस तरह बन जाते हैं

एक के हजार चित्र , कविता से

हर मन पर अलग-अलग रंग के

ठीक वैसे ही

जैसे उतार देता है चित्रकार

दो तीन फ़ीट के कैनवास पर हमारे देखते-देखते एक

मनोहारी चित्र

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 88 – वृक्षारोपण   पर्यावरण संरक्षण – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  पर्यावरण दिवस के सन्दर्भ में एक कविता  “वृक्षारोपण   पर्यावरण संरक्षण। इस सामयिक एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 88 ☆

? वृक्षारोपण पर्यावरण संरक्षण ?

फूले उपवन डाली डाली

इनकी सुन्दरता निराली

झुम झुम कर गा रही

कोयल मतवाली काली

 

वृक्ष हमारे जीवन के अंग

बना कर रखे इनका संग

अपने हाथों करें संरक्षण

काट कर न करें इनको तंग

 

मिले हमको अनेक औषधी

जिससे मिटे जड़ से व्याधि

स्वस्थ शरीर सुन्दर मन

वृक्षों के नीचे बैठे तपोधी

 

करें हम वृक्षों का रोपण

तन मन हो इस पर अर्पण

भूले न इनको लगाकर

तभी होगा अपना समर्पण

 

अपने जीवन में करें प्रण

जैसे भुख के लिए अन्न

शुध्द वायु जीवन के लिए

वृक्षों का करें संरक्षण

 

पाकर हरी भरी धरा

मन भी होगा हरा भरा

बचाएंगे हम पर्यावरण

अपना ले हम परम्परा 

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 96 ☆ नांगराचा फाळ ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 96 ☆

☆ नांगराचा फाळ ☆

नांगराचा फाळ घेते काळजावर

वेदनेचा मातिच्या गर्भात वावर

 

वेदने खेरीज येथे सृजन नाही

सृजन दुःखालाच देते फक्त ग्वाही

मातिचा आधार ज्याला तेच स्थावर

 

तू प्रवासी पाहुणा आहे घडीचा

डाव रोजच खेळतो आहे रडीचा

तू सुखाला मागतो आहेस सत्वर

 

मोह माया येत नाही सोबतीला

सत्य आहे जे मिळाले ह्या घडीला

दौलतीचा सोस आहे सांग कुठवर

 

पेटली ही लाकडे जेव्हा स्मशानी

थांबली ही माणसे बघ दूर स्थानी

पेटलेला देह आहे फक्त नश्वर

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#49 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #49 –  दोहे  ✍

क्षणभर का सानिध्य ही, तन में भरे उजास।

 दर्शन की यमुना हरे, युगों युगों की प्यास।।

 

हृदय और मरुदेश में, अंतर नहीं विशेष।

हरित भूमियों के तले, पतझड़ के अवशेष ।।

 

तन-मन में शैथिल्य है, गहरा है अवसाद ।

एक सहारा शेष है, अपने प्रिय की याद।।

 

यह सांसों की बांसुरी ,कब लोगे तुम हाथ ।

प्रश्नाकुल साधे कहें, कब तक रहें, अनाथ।।

 

मरुथल जैसी जिंदगी, अंतहीन भटकाव।

 हरित भूमियों से मिले, जीवन के प्रस्ताव।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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