हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #4 – कच-देवयानी ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है  तीसरी प्रेमकथा  – कच-देवयानी )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #4 – कच-देवयानी ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

शोणितपुर अर्थात आज का सोहागपुर पौराणिक काल की एक जासूसी प्रेम कहानी का गवाह रहा है। महाभारत में यह कहानी विस्तार से वर्णित है। अंगिरस पुत्र बृहस्पति और भृगु पुत्र शुक्राचार्य आश्रमों में प्रतिद्वंदिता थी। देवताओं के गुरु बृहस्पति और असुरों के गुरु शुक्राचार्य रहे हैं। शुक्राचार्य ने घोर तपस्या करके शिव से मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की थी इसलिए शुक्राचार्य देवासुर संग्राम में मारे गए असुरों को जीवित कर देते थे। इस कारण देवताओं को शर्मनाक पराजय का बार-बार सामना करना पड़ता था। देवताओं के राजा इंद्र और उनके गुरु बृहस्पति ने पुत्र कच को जासूस बनाकर मृत संजीवनी विद्या प्राप्त करने हेतु शुक्राचार्य के शोणितपुर स्थित आश्रम भेजा।

शुक्राचार्य अपने आश्रम में पुत्री देवयानी के साथ रहते थे, जहाँ असुरों का प्रवेश वर्जित था लेकिन आश्रम के बाहर असुर निष्कंटक होकर अत्याचार करते थे। कच शिष्य के रूप में विद्या प्राप्त करने के निमित्त शुक्राचार्य के शोणितपुर स्थित आश्रम पहुँचा तो असुरों ने विरोध किया परंतु आश्रम में शुक्राचार्य की शक्ति के चलते असुर कुछ न कर सके। उन्हें गुरु की ज़रूरत भी पड़ती थी इसलिए वे चुप रहे, परंतु वे कच को मारने की कोशिश में रहते थे। कच को बहुत दिन हो गए परंतु उसे संजीवनी विद्या का कोई अतापता नहीं मिल रहा था।

शीत ऋतु के बाद वसंत का आगमन होता है। पृथ्वी के स्वामी सूर्य की उत्तरायण यात्रा प्रारम्भ हो जाती है याने पृथ्वी दक्षिणी गोलार्ध को सूर्य के सामने से हटाकर उत्तरी गोलार्ध सामने लाने लगती है। उनकी तीखी किरणें ज़मीन को भेदकर पेड़-पौधों की जड़ से सृजन के बीज अंकुरित करने लगती हैं। इसी समय सतपुड़ा के आँचल में फाल्गुन मास में धरती की छाती फोड़कर चटक लाल-पीले पलाश-टेसु और सफ़ेद रंग के महुआ जंगल को रंगीला और रसीला बना देते हैं। आम्र-मंजरी और महुआ की ख़ुश्बू से एक हल्का सा नशा छाया रहता है। जंगल रूमानियत की गिरफ़्त में होता है। एक अजीब सा रसायन ख़ून में उत्तेजना भर देता है। जीव-जंतु मनुष्य सब मस्ती में सराबोर हो प्रेम के प्रदीप्त खेल के वशीभूत होकर प्रणय लीन होते हैं। जीव-जंतु का परस्पर प्रेम ही प्रकृति का अनुपम उपहार है। मनुष्य को प्रकृति के चमत्कार को निहारने, वनस्पति की सुगंध को देह में बसा लेने, पक्षियों के कलरव संगीत से मस्तिष्क झंकृत करने और वायु के महीन रेशमी स्पर्श रूपी इन्द्रिय सुख सर्वाधिक इसी मौसम में प्राप्त होते हैं। इस सुहावने मौसम को वसंत कहते हैं। कामदेव पुत्र वसंत छोटे भाई मदन के साथ मिलकर चर-अचर में उद्दीपन भर उन्हें मस्ती से सराबोर कर देते हैं।

वासंती बयार में देवयानी के हृदय में कच को लेकर प्रेमांकुर फूटने लगे तब कच ने संजीवनी विद्या प्राप्त करने के तरीक़े के बारे में सोचा। असुरों के डर से वह आश्रम की सीमा से बाहर नहीं निकलता था। जब देवयानी के हृदय में कच का वास हो गया और उसे विश्वास हो गया कि देवयानी उसे शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या के उपयोग  जीवित करा लेगी तो वह एक दिन आश्रम की गाय को जंगल में चराने ले गया। असुर देवलोक के उस प्राणी से चिढ़े बैठे थे, उन्होंने अवसर पाकर कच को मारकर नदी में बहा दिया। जब देवयानी ने गाय को अकेले लौटते देखा तो उसे समझते देर न लगी। वह नदी से कच का मृत शरीर आश्रम में लाकर अत्यंत दुखी होकर शुक्राचार्य से उसे संजीवनी विद्या द्वारा जीवित करने का अनुनय करने लगी। कच शुक्राचार्य की संजीवनी विद्या से जीवित होकर फिरसे आश्रम में विद्या ग्रहण करने लगा। लेकिन जब उसे जीवित किया जा रहा था तब कच मृत अवस्था में था अतः उसे संजीवनी विद्या का पता न चल सका।

कच को यह स्पष्ट हो गया कि संजीवनी तक पहुँचने का रास्ता उसकी मृत्यु और देवयानी के प्रेम मार्ग से होकर गुज़रता है। एक दिन वह रसोई हेतु लकड़ियाँ लाने के बहाने दुबारा आश्रम से बाहर वन में गया। इस बार असुरों ने उसे मारकर नए तरीक़े से उसकी मृत देह को ठिकाने लगाने की योजना सोच रखी थी। उन्होंने कच को मारकर उसके टुकड़े करके जंगली कुत्तों को खिला दिए। जब बहुत देर तक कच नहीं आया तो देवयानी दुखी होकर पिता शुक्राचार्य से उसका पता लगाने की ज़िद करने लगी। शुक्राचार्य ने दिव्य दृष्टि से कच का शरीर कुत्तों के पेट में देखा। उन्होंने संजीवनी विद्या और मंत्रोपचार से कच को पुनः जीवित कर दिया। एक बार फिर जब उसे जीवित किया जा रहा था तब कच मृत अवस्था में था, अतः उसे संजीवनी विद्या का पता न चल सका।

देवयानी कच पर आसक्त होती जा रही थी परंतु कच को संजीवनी विद्या नहीं मिल पा रही थी। शरद ऋतु की पूर्णिमा के दिन कच देवयानी के केशों के लिए सुगंधित पुष्प लेने वन की ओर गया तो असुरों ने उसे मारकर उसकी देह को जला हड्डियों का चूर्ण मदिरा में मिला शुक्राचार्य को पिला दिया कि अब शुक्राचार्य का पेट फाड़ कर ही कच बाहर जीवित निकल सकता था उस स्थिति में शुक्राचार्य की मृत्यु तय थी, अतः शुक्राचार्य स्वयं का जीवन ख़तरे में डाल कर कच को संजीवनी विद्या से जीवित न कर पाएँगे।

देवयानी पिता और प्रेमी दोनों में से किसी एक को भी खोना नहीं चाहती थी, वह बहुत दुखी हो गई। बाप बेटी ने गहन चिंतन-मनन के बाद तय किया कि शुक्राचार्य संजीवनी विद्या से कच को जीवित करते हुए उसे मृत संजीवनी विद्या इस तरीक़े से सिखाएँगे कि कच जीवित होकर विद्या का उपयोग कर पाएगा। कच शुक्राचार्य का पेट फाड़ कर जीवन वापस पाएगा जिसमें शुक्राचार्य की मृत्यु हो जाएगी। कच नया जीवन पाते ही संजीवनी विद्या का उपयोग गुरु शुक्राचार्य की मृत देह पर करके उन्हें जीवित कर देगा।

योजना के अनुसार कच पुनर्जीवित हुआ और शुक्राचार्य भी जीवन पा गए। कच को संजीवनी विद्या प्राप्त हो गई। तब देवयानी ने कच के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। कच अपने पिता बृहस्पति और इंद्र की आज्ञा से असुर लोक में शोणितपुर आया था। उसे देवलोक वापिस जाकर मृत संजीवनी विद्या देवताओं को देना था अतः वह असुर लोक में नहीं रुक सकता था। कच ने देवयानी और शुक्राचार्य को तर्क दिया  कि उसका नया जन्म शुक्राचार्य के पेट से होने के कारण वह और देवयानी भाई-बहन हो गए हैं इसलिए वह देवयानी से विवाह नहीं कर सकता।

जब कच ने देवयानी का प्रेम प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया तो देवयानी ने क्रोध में आकर उसे शाप दिया कि तुम्हारी विद्या तुम्हें फलवती नहीं  होगी। इस पर कच ने भी शाप दिया कि कोई भी ऋषिपुत्र तुम्हारा पाणिग्रहण नहीं करेगा और तुम अपने पति प्रेम को तरसोगी। महाभारत में ययाति, देवयानी और उसकी सखी शर्मिष्ठा की कथा प्रसिद्ध है। देवयानी के पति ययाति शर्मिष्ठा से प्रेम करने लगे तो वह अपने पिता शुक्राचार्य के पास लौटने को मजबूर हुई थी। ऐसी अनेकों कहानियाँ सतपुड़ा के जंगलों में बसी असुरों की राजधानी शोणितपुर से जुड़ी हैं, लोक मान्यता है कि सोहागपुर के वर्तमान पुलिस थाना जिसे अंग्रेज़ों ने 1861 में बनाया, की नींव असुर राजा बांणासुर  के क़िले पर रखी हुई है।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 37 ☆ कृष्ण कन्हैया ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  कृष्ण कन्हैया।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 37 ☆ कृष्ण कन्हैया ☆

गोकुल तुम्हें बुला रहा, हे कृष्ण कन्हैया।

वन वन भटक रही हैं, ब्रजभूमि की गैया।

दिन इतने बुरे आये कि, चारा भी नही है।

इनको भी तो देखो जरा, हे धेनु चरैया।

 

करती हैं याद, देवकी माँ रोज तुम्हारी।

यमुना का तट, और  गोपियाँ सारी।

गई सूख धार यमुना की, उजडा है वृन्दावन।

रोती तुम्हारी याद में, नित यशोदा मैया।

 

रहे गाँव वे, न लोग वे, न नेह भरे मन।

बदले से हैं घर द्वार, सभी खेत, नदी, वन।

जहाँ दूध की नदियाँ थीं, वहाँ अब है वारूणी।

देखो तो अपने देश को, बंशी के बजैया।

 

जनमन न रहा वैसा, न वैसा है आचरण।

बदला सभी वातावरण, सारा रहन सहन।

भारत तुम्हारे युग का, न भारत है अब कहीं।

हर ओर प्रदूषण की लहर आई कन्हैया।

 

आकर के एक बार, निहारो तो दशा को।

बिगड़ी को बनाने की, जरा नाथ दया हो।

मन में तो अभी भी, तुम्हारे युग की ललक है।

पर तेज विदेशी हवा में, बह रही नैया।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#49 – असंम्भव कुछ नही ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#49 – असंम्भव कुछ नही ☆ श्री आशीष कुमार☆

एक समय की बात है किसी राज्य में एक राजा का शासन था। उस राजा के दो बेटे थे – अवधेश और विक्रम।

एक बार दोनों राजकुमार जंगल में शिकार करने गए। रास्ते में एक विशाल नदी थी। दोनों राजकुमारों का मन हुआ कि क्यों ना नदी में नहाया जाये।

यही सोचकर दोनों राजकुमार नदी में नहाने चल दिए। लेकिन नदी उनकी अपेक्षा से कहीं ज्यादा गहरी थी।

विक्रम तैरते तैरते थोड़ा दूर निकल गया, अभी थोड़ा तैरना शुरू ही किया था कि एक तेज लहर आई और विक्रम को दूर तक अपने साथ ले गयी।

विक्रम डर से अपनी सुध बुध खो बैठा गहरे पानी में उससे तैरा नहीं जा रहा था अब वो डूबने लगा था।

अपने भाई को बुरी तरह फँसा देख के अवधेश जल्दी से नदी से बाहर निकला और एक लकड़ी का बड़ा लट्ठा लिया और अपने भाई विक्रम की ओर उछाला।

लेकिन दुर्भागयवश विक्रम इतना दूर था कि लकड़ी का लट्ठा उसके हाथ में नहीं आ पा रहा था।

इतने में सैनिक वहां पहुँचे और राजकुमार को देखकर सब यही बोलने लगे – अब ये नहीं बच पाएंगे, यहाँ से निकलना नामुमकिन है।

यहाँ तक कि अवधेश को भी ये अहसास हो चुका था कि अब विक्रम नहीं बच सकता, तेज बहाव में बचना नामुनकिन है, यही सोचकर सबने हथियार डाल दिए और कोई बचाव को आगे नहीं आ रहा था। काफी समय बीत चुका था, विक्रम अब दिखाई भी नही दे रहा था.

अभी सभी लोग किनारे पर बैठ कर विक्रम का शोक मना रहे थे कि दूर से एक सन्यासी आते हुए नजर आये उनके साथ एक नौजवान भी था। थोड़ा पास आये तो पता चला वो नौजवान विक्रम ही था।

अब तो सारे लोग खुश हो गए लेकिन हैरानी से वो सब लोग विक्रम से पूछने लगे कि तुम तेज बहाव से बचे कैसे?

सन्यासी ने कहा कि आपके इस सवाल का जवाब मैं देता हूँ – ये बालक तेज बहाव से इसलिए बाहर निकल आया क्यूंकि इसे वहां कोई ये कहने वाला नहीं था कि “यहाँ से निकलना नामुनकिन है”

इसे कोई हताश करने वाला नहीं था, इसे कोई हतोत्साहित करने वाला नहीं था। इसके सामने केवल लकड़ी का लट्ठा था और मन में बचने की एक उम्मीद बस इसीलिए ये बच निकला।

दोस्तों हमारी जिंदगी में भी कुछ ऐसा ही होता है, जब दूसरे लोग किसी काम को असम्भव कहने लगते हैं तो हम भी अपने हथियार डाल देते हैं क्यूंकि हम भी मान लेते हैं कि ये असम्भव है। हम अपनी क्षमता का आंकलन दूसरों के कहने से करते हैं।

आपके अंदर अपार क्षमताएं हैं, किसी के कहने से खुद को कमजोर मत बनाइये। सोचिये विक्रम से अगर बार बार कोई बोलता रहता कि यहाँ से निकलना नामुमकिन है, तुम नहीं निकल सकते, ये असम्भव है तो क्या वो कभी बाहर निकल पाता? कभी नहीं…….

उसने खुद पे विश्वास रखा, खुद पे उम्मीद थी बस इसी उम्मीद ने उसे बचाया।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -15 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 15 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

मेरी नृत्य की यह यात्रा शुरू थी। उसमें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। उसी वक्त मेरे आयुष्य में कुछ अच्छी घटनाएं भी हो रही थी। इस मधुर और मनोहर यादों में मुझे समझने वाले दर्शकों का भी सहयोग मिला था। इन सब की यादों की माला में मेरी ताई, गोखले चाची, श्रद्धा, मम्मी-पापा, टी.म.वी. की अनघा जोशि मॅडम, मेरे भाई बहन, मेरे काम में मदद करने वाली मेरी प्यारी सहेलियां, रिक्षा चलाने वाले चाचा और दर्शक भी थे।

ताई की बहुत मिठास याद मुझे बताने का मन हो रहा है। नृत्य सीखने से पहले स्तर पर रहने के बाद बहुत बरस के बाद कौन सा चित्र देखने को मिलेगा यह मालूम नहीं था। समाज की प्रतिक्रिया कैसी होगी यह भी मालूम नहीं था। नृत्य शुरू रहेगा या नहीं ऐसे द्विधा मनःस्थिति में रहती थी। मुझे अचानक कहा गया कि दीपावली के बाद ‘सुचिता चाफेकर’ निर्मित ‘कलावर्धिनी’ की तरफ से होने वाली नृत्यांगना कार्यक्रम में तुझे ‘तीश्र अलारूप’ याने नृत्य का पहला पाठ पेश करना है, पुना मे ‘मुक्तांगण’ हॉल में, सुनकर मैं सोच में पड़ गई। क्योंकि खुद ताई ने पुणे के कार्यक्रम के लिए मेरा नाम दिया था। पुणे में मेरा कोई रिश्तेदार नहीं था। दीदी मुझे अपने मायके लेकर गई। उधर खाना करके आराम करने के बाद हम हॉल में आ गए। मैं सज-धज के मेकअप रूम में तैयार होकर बैठी थी। बाहर से इतने भीड़ से दीदी आगे आ गई। उन्होंने मुझे टेबल पर बिठाया और खुद नीचे बैठकर मेरे हाथ और पांवों को आलता लगाया। यह मेरे जिंदगी का बहुत बड़ा सम्मान था।

मेरे नृत्य का कार्यक्रम बहुत रंग में आया था और खुद सुचेता चाफेकर और पुणे के दर्शक मेरे पीठ थपथपाकर प्रशंसा करने लगे, मेरी तारीफ करने लगे। वह दिन मेरे लिए अविस्मरणीय है।

वैसे ही दोपहर की कड़ी धूप में अपना सब काम छोड़कर, संसार की महत्व का काम बाजू में रखकर तीन बजे धूप में मेरी एम.ए. की पढ़ाई करने के लिए तैयार करवाने वाली मेरी गोखले चाची को इस जीवन में कभी भी भूल नहीं पाती।

खुद की कॉलेज की पढ़ाई करते करते मेरे लिए एम.ए. की रायटर मन से हंसते-खेलते मुझे साथ देने वाली मेरी सहेली, मेकअपमेन, श्रद्धा म्हसकर, मेरे अपूर्वाई की सहेली बन गई मेरी भाग्य से।

टि.म.वी की अनघा मैडम ने मुझे जो चाहे मदद की थी। उसी के साथ ही मेरी दूसरी सहेली ‘सविता शिंदे’ मेरी जिंदगी के अधिक करीब आ गई। मुझे घूमने को लेकर जाकर मेरे साथ अच्छी अच्छी बातें करते करते हम एक दूसरों की कठिनाईयां समझकर दूर करते थे।

जब हमारे घर से क्लास तक छोड़ने कोई नहीं होते थे तो काॅर्नर के रिक्षा वाले चाचा मेरे पापा जी को कहते थे कि हम शिल्पा जी को क्लास तक छोड़ कर फिर वापस लेकर घर छोड़ देंगे। पिताजी लोगों की परख करके ही मुझे उनके साथ जाने को कहते थे।

मेरे मन में ऐसी सोच आती है, सच में मुझे आंखें नहीं होती तो भी बहुत सी आंखों ने मुझे सहारा दिया है। जिसकी वजह से मैं अनेक आंखों से दुनिया देख रही हूँ, सुबह देख रही हूँ, खुशियाँ मना रही हूँ।

 

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 15 – कवितेशी बोलू काही ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे

श्री शेखर किसनराव पालखे

 ☆   साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 15 – कवितेशी बोलू काही ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे ☆ 

अनामिक हे सुंदर नाते

तुझ्यासवे ग जुळून यावे

तुझ्याच साठी माझे असणे

तुलाच हे ग कळून यावे

 

आनंदाने हे माझे मन

सोबत तुझ्या ग खुलून यावे

दुःखाचे की काटेरी हे क्षण

कुशीत तुझ्या ग फुलून यावे

 

भेटावी मज तुझी अशी ही

घट्ट मिठी ती हवीहवीशी

अथांगशा या तुज डोहाची

अचूक खोली नकोनकोशी

 

रुजावेस तू मनात माझ्या

प्रेमळ नाजूक सुजाणतेने

तूच माझे जीवन व्हावे

अन तुच असावे जीवनगाणे

 

© शेखर किसनराव पालखे 

सतारा

05/06/20

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 90 ☆ जीने का हुनर ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख जीने का हुनर। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 90 ☆

☆ जीने का हुनर

‘अपने दिल में जो है, उसे कहने का साहस और दूसरों के दिल में जो है, उसे समझने की कला से इंसान अगर अवगत है… तो रिश्ते कभी टूटेंगे नहीं।’ इससे तात्पर्य यह है कि मानव को साहसी, सत्यवादी व स्पष्टवादी होना चाहिए। यदि आप साहसी हैं, तो अपने मन की बात नि:संकोच सबके सम्मुख कह देंगे और आपके व्यवहार में दोगलापन नहीं होगा। आपकी कथनी व करनी में अंतर नहीं होगा, क्योंकि स्पष्ट बात कहने का साहस तो वही इंसान जुटा सकता है, जो सत्यवादी है। सत्य की इच्छा होती है कि वह उजागर हो और झूठ असल में असंख्य पर्दों में छुप के रहना चाहता है… सबके समक्ष आने में संकोच अनुभव करता है। इसलिए सदैव सत्य का साथ देना चाहिए। इसके साथ-साथ मानव को दूसरों को समझने की कला से भी अवगत होना चाहिए, जिसके लिए उसमें संवेदनशीलता अपेक्षित है। ऐसा व्यक्ति ही दूसरे के मनोभावों को समझ सकता है और उसके सुख-दु:ख की अनुभूति करने में समर्थ होता है।

‘स्वयं का दर्द महसूस होना जीवित होने का प्रमाण है तथा दूसरों के दर्द को महसूस करना इंसान होने का प्रमाण है।’ इसलिए दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखना बहुत सार्थक है तथा बहुत बड़ा हुनर है। जो इंसान इस कला को सीख जाता है, कभी दु:खी नहीं होता। वैसे इस संसार में जीवित इंसान तो बहुत मिल जाते हैं, परंतु वास्तव में संवेदनशील इंसान बहुत ही कम मिलते हैं। आधुनिक युग में प्रतिस्पर्द्धा के कारण व्यक्ति आत्मकेंद्रित होता जा रहा है…संबंध व सरोकारों से दूर… बहुत दूर। वह अपने व अपने परिवार से इतर सोचता ही नहीं, क्योंकि आजकल सब के पास समय का अभाव है। हर इंसान अधिकाधिक धन कमाने में जुटा रहता है और इस कारण वह सबसे दूर होता चला जाता है। एक अंतराल के पश्चात् एकांत की त्रासदी झेलता हुआ इंसान तंग आ जाता है। उसे दरक़ार होती है अपनों की और वह अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, जिनके लिए सुख-सुविधाएं जुटाने में उसने अपना जीवन होम कर दिया था। परंतु ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गयीं खेत’ अर्थात् अवसर हाथ से निकल जाने के पश्चात् वह केवल प्रायश्चित ही कर सकता है, क्योंकि ‘गुज़रा वक्त कभी लौटकर नहीं आता।

आधुनिक युग में हर इंसान मुखौटे लगाकर जीता है और अपना असली चेहरा उजागर हो जाने के भय से हैरान-परेशान रहता है…जैसे ‘हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और ‘होते हैं। प्रदर्शन अथवा दिखावा करना दुनिया का दस्तूर है। इसलिए वह सबसे दूर रह कर अकेले अपना जीवन बसर करता है तथा अपने सुख-दु:ख व अंतर्मन की व्यथा-कथा को किसी से साझा नहीं करता। महात्मा बुद्ध के अनुसार ‘आप अपना भविष्य स्वयं निर्धारित नहीं करते; आपकी आदतें आपका भविष्य निश्चित करती हैं। इसलिए अपनी आदतें बदलें, क्योंकि आपकी सोच ही आपके व्यवहार को आदतों के रूप में दर्शाती है।’ सो! लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है… ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार कीजिए।’ सो! दूसरों से बदलाव की अपेक्षा मत कीजिए, बल्कि स्वयं को बदलें, क्योंकि दूसरों पर व्यर्थ दोषारोपण करना समस्या का समाधान नहीं है। रास्ते में बिखरे कांटों को देखकर दु:खी मत होइए… दूसरों को बुरा-भला मत कहिए। आप रास्ते में बिखरे असंख्य कांटों को साफ करने में तो असमर्थ होते हैं, परंतु पांव में चप्पल पहन कर अन्य विकल्प को आप सुविधापूर्वक अपना सकते हैं।

सफलता व संबंध आपके मस्तिष्क की योग्यता पर निर्भर नहीं होते, आपके व्यवहार की महानता और विचारों पर निर्भर होते हैं और आपकी सकारात्मक सोच आपके विचारों व व्यवहार को बदलने का सामर्थ्य रखती है। इसलिए स्वार्थ भाव को तज कर परहितार्थ सोचिए व निष्काम भाव से कर्म को अंजाम दीजिए। स्वामी विवेकानंद जी के मतानुसार ‘जीवन में समझौता मत कीजिए। आत्मसम्मान बरक़रार रखिए तथा चलते रहिए’ अथवा जीवन में उसे कभी भी दाँव पर मत लगाइए। समझौता करते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा कीजिए। समय, सत्ता, धन व शरीर जीवन में हर समय काम नहीं आते; सहयोग नहीं देते। परंतु अच्छा स्वभाव, अध्यात्म मार्ग व सच्ची भावना जीवन में सहयोग देते हैं। शरीर नश्वर है, क्षणभंगुर है। समय बदलता रहता है। धन कभी एक स्थान पर टिक कर नहीं रह सकता और सत्ता में भी समय के साथ परिवर्तन होता रहता है। परंतु मानव का व्यवहार, ईश्वर के प्रति अटूट आस्था, विश्वास व समझ अथवा जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण उसके सच्चे साथी हैं… उसके व्यक्तित्व का अंग बन कर उसके अंग-संग रहते हैं। इसके लिए आवश्यकता है कि आप हर पल ज़िंदगी व उससे प्राप्त सुख-सुविधाओं के लिए प्रभु का शुक़्राना अदा करें। सुबह आंखें खुलते ही सृष्टि- नियंता के प्रति उसके शुक्रगुज़ार रहें, जिसने स्वर्णिम सुबह देने का सुंदर अवसर प्रदान किया है। मुस्कुराना अर्थात् हर हाल में सदा खुश रहना तथा जो मिला है, उसमें संतोष करना… जीने की सर्वोत्तम कला है तथा सर्वश्रेष्ठ उपाय है…किसी का दिल न दु:खाना अर्थात् हमें स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठना चाहिए तथा किसी के हृदय को मन, वचन, कर्म से दु:ख नहीं पहुंचाना चाहिए। जीवन में जैसी भी विषम परिस्थितियां हों; मानव को अपना आपा नहीं खोना चाहिए… सम-भाव में रहना चाहिए, क्योंकि अहं ही मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। सो! उसे सदैव नियंत्रण में रखना चाहिए। जब अहं, क्रोध के रूप में प्रकट होता है, उस स्थिति में मानव सब सीमाओं को लाँघ जाता है, जिसका खामियाज़ा उसे अवश्य भुगतना पड़ता है… जो तन, मन, धन अर्थात् शारीरिक, मानसिक व आर्थिक हानि के रूप में भी हो सकता है। इसलिए सदैव मधुर वचन बोलिए, क्योंकि आपके शब्द आपके व्यक्तित्व का आईना होते हैं। केवल शब्द ही नहीं; उनके कहने का अंदाज़ अधिक मायने रखता है। इसलिए अवसरानुकूल सत्य व सार्थक शब्दों का प्रयोग करना उसी प्रकार अपेक्षित है, जैसे हमारी जिह्वा सदैव दांतों के बीच मर्यादा में रहती है। परंतु उस द्वारा नि:सृत शब्द उसे जहां फर्श से अर्श पर पहुंचा सकते हैं, वहीं फ़र्श पर गिराने का सामर्थ्य भी रखते हैं। इसलिए चाणक्य ने ‘वृक्ष के दो फलों…सरस, प्रिय वचन व सज्जनों की संगति को अमृत-सम स्वीकारा है तथा कटु वचनों को त्याज्य बताया है।’ इसलिए जो भी अच्छा लगे; उसे ग्रहण कर शेष को त्याग देना बेहतर है। अक्सर क्रोध में मानव कटु शब्दों का प्रयोग करता है। सो! ऋषि अंगिरा मानव को सचेत करते हुए कहते हैं कि ‘यदि आप किसी का अनादर करते हो, तो वह उसका अनादर नहीं; आपका अनादर है, क्योंकि इससे आपका व्यवहार झलकता है। इसलिए जब भी बोलो; सोच कर बोलो, क्योंकि शरीर के घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव आजीवन नासूर बन रिसते रहते हैं और उनके इलाज के लिए कोई मरहम नहीं होती।

हमारी सोच, हमारे बोल, हमारे कर्म हमारे भाग्य- विधाता हैं। इनकी उपेक्षा कभी मत करो। ज़िंदगी में कुछ लोग बिना रिश्ते के, रिश्ते निभाते हैं, जो दोस्त कहलाते हैं। सो! संवाद जीवन-रेखा हैं… उसे बनाए रखिए। इसीलिए कहा गया है कि ‘वाकिंग डिस्टेंस भले ही रख लें, टाकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें।’ संवाद की सूई व स्नेह का धागा भले ही उधड़़ते रिश्तों की तुरपाई तो कर देता है, परंतु संवाद जीवन की धुरी है। आजकल संवादहीनता समाज में इस क़दर अपने पांव पसार रही है कि संवेदनहीनता जीवन का हिस्सा बन कर रह गई है, जिससे संबंधों में अजनबीपन का अहसास स्पष्ट दिखाई पड़ता है। वास्तव में यह मानव मन में गहराई से अपनी जड़ें स्थापित कर चुका है। संबंधों में गर्माहट शेष रही नहीं। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में कैद है, जिसका मुख्य कारण है–संस्कृति व संस्कारों के प्रति निरपेक्ष भाव व संबंधों में पनप रही दूरियां। हम पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से आकर्षित होकर ‘हैलो-हाय व जीन्स-कल्चर’ को अपना रहे हैं। ‘लिव-इन’ का प्रचलन तेज़ी से पनप रहा है। विवाहेतर संबंध भी हंसते-खेलते परिवारों में सेंध लगा दबदबा कायम कर रहे हैं और मी टू के कारण भी हंसते-खेलते परिवारों में मातम-सा पसर रहा है, जो दीमक के रूप में परिवार-संस्था की मज़बूत चूलों को खोखला कर रहा है।

अक्सर लोग अच्छे कर्मों को अगली ग़लती तक स्मरण रखते हैं। इसलिए प्रशंसा में गर्व मत महसूस करें और आलोचना में तनाव-ग्रस्त व विचलित न रहें। ‘सदैव निष्काम कर्म करते रहो’ में छिपा है– सर्वश्रेष्ठ जीवन जीने का संदेश। इसके साथ ही मानव को जीवन में तीन चीज़ों से सावधान रहने की शिक्षा दी गई है… झूठा प्यार, मतलबी यार व पंचायती रिश्तेदार। सो! झूठे प्यार से सावधान रहें। सच्चे दोस्त बहुत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए प्रत्येक पर विश्वास करके, मन की बात न कहने का संदेश प्रेषित किया गया है। आजकल सब संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। सगे-संबंधी भी पद-प्रतिष्ठा को देख आपके आसपास मंडराने लगते हैं। उनसे सावधान रहिए, क्योंकि वे आपको किसी भी पल कटघरे में खड़ा कर सकते हैं…आप का मान-सम्मान मिट्टी में मिला सकते हैं; आपकी पीठ में छुरा भी घोंप सकते हैं। सो! झूठे प्यार,दोस्त व ऐसे संबंधियों को दूर से दुआ-सलाम कीजिए। वे जी का जंजाल होते हैं और पलक झपकते ही गिरगिट की भांति रंग बदलने लगते हैं। इसलिए उन पर कभी भूल कर भी विश्वास मत कीजिए।

‘लाखों डिग्रियां हों/ अपने पास/अपनों की तकलीफ़/ नहीं पढ़ सके/ तो अनपढ़ हैं हम’…यह पंक्तियां हाँट करती हैं; हमारी चेतना को झकझोरती हैं। यदि हम अपनों के सुख-दु:ख सांझे नहीं कर सके, तो हमारा शिक्षित होना व्यर्थ है। सो! जीवन में संवेदना अर्थात् सम+ वेदना…दूसरे के दु:ख को उसी रूप में अनुभव करने में ही जीवन की सार्थकता है… जब आप दु:ख के समय अपनों की ढाल बनकर खड़े होते हैं; उन्हें दु:खों से निज़ात दिलाने के लिए जी-जान लुटा देते हैं; सदैव सत्य की राह का अनुसरण करते हुए मधुर वाणी का प्रयोग करते हैं; अहं को त्याग, समभाव से जीवन-यापन करते हैं और सृष्टि-नियंता के प्रति शुक़्रगुज़ार रहते हैं–दूसरों के दु:ख को महसूसते हैं तथा उनकी हर संभव सहायता करते हैं।

अंत में मैं कहना चाहूंगी, जिसे आप भुला नहीं सकते; क्षमा कर दीजिए तथा जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते; भूल जाइये। हर क्षण को जीएं, प्रसन्न रहें तथा जीवन से प्यार करें। आप बिना कारण दूसरों की परवाह करें; उम्मीद के साथ अपनत्व भाव बनाए रखें, क्योंकि अपेक्षा व प्रतिदान ही दु:खों का कारण है। इसलिए ‘खुद से जीतने की ज़िद है मुझे/ खुद को भी हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ आप खुद से बेहतर बनने के सत्-प्रयास करें, क्योंकि यह आपको स्व-पर व राग-द्वेष से मुक्त रखेगा। इसलिए मतभेद भले ही रखिए, मनभेद नहीं, क्योंकि दिलों में पड़ी दरार को पाटना अत्यंत दुष्कर है। क्षमा करना और भूल जाना श्रेयस्कर मार्ग है… सफलता का सोपान है। इसलिए सदैव वर्तमान में जीओ, क्योंकि अतीत अर्थात् जो गुज़र गया, कभी लौटेगा नहीं और भविष्य कभी आयेगा नहीं। वर्तमान को सुंदर बनाओ, सुख से जीओ और अपना स्वभाव आईने जैसा साफ व सामान्य रखो। आईना प्रतिबिंब दिखाने का स्वभाव कभी नहीं बदलता, भले ही उसके टुकड़े हज़ार हो जाएं। सो! किसी भी परिस्थिति में अपना व्यवहार, आचरण व मौलिकता मत बदलो। दौलत के पीछे मत दौड़ो, क्योंकि वह केवल रहन-सहन का तरीका बदल सकती है; नीयत व तक़दीर नहीं। सब्र व सच्चाई को जीवन में धारण कर धैर्य का दामन थामे रखो … विषम परिस्थितियां तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर पाएंगी। मन में कभी भी शक़, संदेह, संशय व शंका को घर मत बनाने दो, क्योंकि इससे पल भर में महकती बगिया उजड़ सकती है, तहस-नहस हो सकती है। परिणामत: खुशियों को ग्रहण लग जाता है। सो! आत्मविश्वास रखो, दृढ़-प्रतिज्ञ रहो, निरंतर कर्मशील रहो और फलासक्ति से मुक्त रहो। सृष्टि-नियंता पर विश्वास रखो अर्थात् ‘अनहोनी होनी नहीं, होनी है सो होय।’ सो! भविष्य के प्रति चिंतित व आशंकित मत रहो। सदैव स्वस्थ, मस्त व व्यस्त रहो।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 42 ☆ गाँवों के विकास से बदलेगी तस्वीर ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत विचारणीय आलेख  “गाँवों के विकास से बदलेगी तस्वीर ”.)

☆ किसलय की कलम से # 42 ☆

☆ गाँवों के विकास से बदलेगी तस्वीर ☆

 कुछ वर्षों पूर्व स्वाधीनता दिवस पर देश के प्रधानमंत्री जी ने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से हर विकासखंड में एक आदर्श ग्राम विकसित करने का आह्वान किया था।

यदि इस योजना पर गंभीरतापूर्वक अमल हुआ होता तो निश्चित ही देश का कायाकल्प हो जाता। आज भी गाँवों से गरीबी एवं बेरोजगारी के कारण बड़े पैमाने पर शहरों की ओर पलायन जारी है। कहीं न कहीं सरकारी तंत्र की उदासीनता ग्रामीण प्रगति के आड़े आती है। ग्राम विकास की पहले भी कई योजनाएँ चलाई गईं, लेकिन उनके क्रियान्वयन में खामियों और भ्रष्टाचार के चलते अपेक्षित परिणाम नहीं मिल सके हैं। हमारे देश में विकास का आधार गाँव ही हैं। आज भी हमारी अधिसंख्य आबादी गाँवों में ही निवास करती है। जब तक गाँवों में शिक्षा, विकास एवं सम्मानजनक जीवनशैली के प्रति जागरूकता नहीं आती। जब तक तीव्रगामी शहरों की तरह ग्रामीण प्रगति भी प्रतिस्पर्धात्मक रूप नहीं लेती। जब तक हमारी सरकारें ग्रामीण विकास की योजनाओं के लिए समुचित बजट आवंटन और योजनाओं के क्रियान्वयन की पारदर्शी व्यवस्था लागू नहीं करतीं, तब तक  ‘सुविकसित गाँव’ का सपना यथार्थतः साकार होना मुश्किल ही लगता है। हमें देखना होगा कि सरकारें आशा के अनुरूप आदर्श ग्राम योजना हेतु बजट आवंटित करती रहेंगी अथवा ये भी हवा हवाई घोषणाएँ ही सिद्ध होंगी। सरकारें विकास के क्या पैमाने बनाती हैं और योजनाओं को कैसे अमल में लाती हैं। सिर्फ नेक सोच जताने या घोषणा करने से काम नहीं चलेगा। आप, हम, सभी को यह भी स्मरण रखना होगा कि सुपरिणामों के बाद ही सही मायनों में इंसान वाहवाही का हकदार होता है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 89 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 89 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

मटक मटक कर चल रही,

कर सोलह शृंगार।

साजन से वह कर रही,

जन्म जन्म का प्यार।।

 

अलंकार से हो रहा,

कविता का शृंगार।

शोभा ऐसे बढ़ रही,

रूप रंग साकार।।

 

गोरी कैसे लिख रही,

अपने भाव विचार।

व्याकुल मन में चल रहा,

करना है अभिसार।।

 

विनती तुमसे कर रही,

करती हूँ मनुहार।

नयन हमारे पढ़ रहे,

कितना तुमसे प्यार।।

 

द्वार द्वार पर सज रहे,

मनहर बंदनवार।

राम पधारे राज्य में,

मंगलमय त्योहार।।

 

संकट की इस दौर में,

कैसे पाएँ त्राण।

जाप करो हनुमंत का,

बच जायेंगे प्राण।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 79 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 79 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

भाग सराहें आपने, आ गई वेक्सीन

कोरोना से जूझती, अब मत हों गमगीन

 

दुनिया में इज्जत बढ़ी, नाम हुआ चहुँ ओर

मोदी जी का ये जतन, मचा रहा है शोर

 

दो गज दूरी साथ रख,मुँह पर रखें मास्क

सेनिटाइज हाथ करें,नव समझकर टास्क

 

दवाई के साथ रखें,खूब कड़ाई आप

घर में रह कर कीजिये, नित भगवत का जाप

 

वेक्सीन लगवाइए, बिन डर बिन संकोच

तभी सुरक्षा आपकी, रखिये ऊँची सोच

 

अफवाहों से बच चलें, दें न उन पर ध्यान

मुश्किलों से डरें नहीं, चलिए सीना तान

 

बीमारी ना देखती, जाति धरम आधार

इसीलिए सब भाइयो, बदलो अब आचार

 

कोरोना के काल में, वेक्सीन वरदान

कोरोना भी डर रहा, सुन कर उसकी तान

 

सब मिलकर लगवाइए, कहता यह “संतोष”

फिर पछितावा होयगा, मत देना फिर दोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 82 – विजय साहित्य – अस्तित्व….! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 82 – विजय साहित्य ☆ अस्तित्व….! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

शब्दांनीच शब्दांची

ओलांडली आहे मर्यादा

फेसबुक प्रसारण आणि

ऑनलाईन सन्मानपत्र,

नावलौकिक कागदासाठी

धावतात शब्द…..

अर्थाचं, आशयाचं,

आणि साहित्यिक मुल्यांचं

बोटं सोडून…..;

आणि करतात दावा

कवितेच्या चौकटीत

विराजमान झाल्याचा..

खरंच कविते,

लेखक बदलला तरी चालेल

पण तू अशी

विकली जाऊ नकोस

किंवा येऊ नकोस घाईनं ;

कवितेच्या, काव्याच्या

मुळ संकल्पनेशी

फारकत घेऊन….!

तू सौदामिनी,

होतीस,आहेस आणि

राहशीलही….!

पण तुला खेळवणारे

खुशाल चेंडू हात

एकदा तरी,

होरपळून

निघायला हवेत..;

तुझ्या बावनकशी

अस्तित्त्वासाठी…!

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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