(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 225 – कथा क्रम (स्वगत)…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “झोंके छतनार सभी...”)
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य “पूंजी, सत्ता, और बाज़ार का प्रॉडक्ट है लिट्फेस्ट…” ।)
☆ शेष कुशल # 47 ☆
☆ व्यंग्य – “पूंजी, सत्ता, और बाज़ार का प्रॉडक्ट है लिट्फेस्ट…”– शांतिलाल जैन ☆
‘मैं लिट्फेस्ट में गया था, वहाँ…..’ पिछले दस दिनों में दादू कम से कम दो सौ बार बता चुका है. सौ पचास बार तो मेरे सामने ही बता चुका है. साथ में तो मैं भी गया था. हर बार बताते समय उसका सीना छप्पन इंच से कुछ ही सेंटीमीटर कम फूला हुआ होता है. आमंत्रित रचनाकारों में दादू की वाईफ़ के मौसाजी के कज़िन भी थे जो सुदूर लखनऊ से आए थे. उत्सव की साईडलाईंस में हम उनसे मिलने और मौसी के लिए लौंग की सेव, घर की बनी मठरी, ठण्ड के करंट लड्डू और नींबू के आचार की बरनी देने गए थे. दादू को सपत्नीक जाना था मगर एनवक्त पर भाभीजी को माईग्रेन हो गया. वह मुझे साथ ले गया. वह राजनीति का मंजा हुआ ख़िलाड़ी है, मजबूरी में किए गए काम का भी क्रेडिट लेने और गर्व अभिव्यक्त करने के अवसर में बदल सकता है. ‘स्तरीय अभिरुचि’ और ‘साहित्य की श्रीवृद्धि में अकिंचन योगदान’ जैसे भावों से भरा दादू घूम घूम कर सबको बता रहा है ‘मैं लिट्फेस्ट में गया था, वहाँ…..’.
लिट्फेस्ट में कुछ लोग इंट्री फीस के साथ आए थे कुछ डोनेशन से मिलनेवाले वीआईपी ‘पास’ से. दादू ने इंट्री के लिए जुगाड़ से वीआईपी ‘पास’ का इंतज़ाम किया हुआ था. इंट्री सशुल्क रही हो या निःशुल्क, कुछ लोग अपने पसंदीदा लेखकों को सुनने, पुस्तकों पर हस्ताक्षर करवाने आए थे, शेष तो बस तफ़रीह को. रचनाकारों के हाथों में लगभग बिना ढक्कन का पेन होता था जो लिखने के काम आता तो नहीं दिखा, किताब पर हस्ताक्षर करने के काम अवश्य आ रहा था, उसी से उन्होंने रसीदी-टिकट पर दस्तख़त करने जैसा महत्पूर्ण कार्य संपन्न किया. आईएफएससी कोड, अकाउंट नंबर, बैंक डिटेल्स वे घर से लिखकर लाए थे. पेन उपकरण तो सरस्वतीजी का था मगर अपने स्वामी लेखक को लक्ष्मीजी तक पहुँचाने में उसकी महती भूमिका थी.
बहरहाल, वहाँ चार से छह सत्र एक साथ चल रहे थे. मेरी-गो राऊंड. इधर से घुसकर उधर निकल जाईए, उधर से घुसकर और उधर, उधर से और भी उधर, उधरतम स्तर पर पहुंचकर फिर इधर आ जाईए. दुनिया गोल है. सचमुच. सत्र होरीझोंटल ही नहीं वर्टिकल भी चल रहे थे. बैक-टू-बैक सत्र की खूबसूरती यह थी कि दर्शकों को एक ही लेखक को बहुत देर तक झेलना नहीं पड़ रहा था. अगले टाईम स्लॉट की मॉडरेटर अपने उतावले पेनल के साथ पास ही तैयार खड़ी थी. उसने आज ही अपने हेयर्स स्ट्रेट करवाए थे. उन्हें संभालते-संभालते वह शी…शी… की छोटी छोटी ध्वनियों से स्टेज जल्दी खाली करने के संकेत प्रेषित कर रही थी. यूं तो लेखक संकेत-इम्यून होता है, उसे पीछे से कुर्ता-खींच कर दिए गए संदेशों से निपटने का उसे पर्याप्त अनुभव होता है, मगर यहाँ उसे अगलीबार नाम कट जाने का डर का सता रहा था सो मन मारकर बैठ गया.
लिट्फेस्ट एक अलग तरह का अनुभव था. आप जितना आश्चर्य इस बात पर करते हैं कि आप कहाँ आ गए हैं उससे ज्यादा आश्चर्य इस बात पर होता है कि साहित्य कहाँ आ पहुँचा है! कुछ समय पहले के रचनाकारों ने कथा कविता को आमजन की चौक-चौपालों से उठाकर साहित्यिक संगोष्ठियों में पहुँचाया, वहाँ से प्रायोजकों की बैसाखियों पर चलकर लिटरेचर फेस्टिवल में आ पहुँचा है. सितारा होटलों, वातानुकूलित प्रेक्षागृहों, लकदक सजावट से घिरे अंतरंग कक्षों, रंगीन पर्दों से सजे बहिरंगों में गाँव की, मजदूर की, गरीब की कथा-कविता तो मिली, किसान, मजदूर या गरीब कहीं नहीं दिखा. कथा-कविता में खेत में बहते पसीने की गंध सुनाई दी, मगर उसने नाक में घुसकर हमारा मूड ख़राब नहीं किया. हैवी रूम-फ्रेशनर जो मार दिया गया था, हमने इत्मीनान से गहरी सांसें खींची. आप भी जा सकते हैं वहाँ. इयर-ड्रम्स के चोटिल होने का भी कोई ख़तरा नहीं. अहो-अहो और वाह-वाह के नक्कारखाने में प्रतिरोध की तूती सुनाई नहीं देगी. कुछ आमंत्रित लेखक बुलाए जाने पर सीना फुलाए फुलाए घूम रहे थे. कुछ जाऊँ, न जाऊँ की उहापोह में रहे होंगे, अब जब आ ही गए थे तो कह रहे थे – ‘कोई सुने न सुने तूती बोल तो रही है.’ सफाई भी, जस्टिफाई भी. यही क्या कम है कि निज़ाम ने अभी तक तूती की वोकल कार्ड को मसक नहीं दिया है. खैर, आयोजकों ने भी फेस सेविंग का पूरा इंतज़ाम किया हुआ था, चार अनुकूल रचनाकारों के पैनल में एक विपरीत विचार का रखकर बेलेंसिंग की गई थी. शहरी कुलीनताओं और एलिट अंग्रेज़ी साहित्य के सत्रों के बीच हर दिन एक दो सत्र हिंदी के और हिंद के शोषितों पर केंद्रित कर के भी रखे गए थे.
बहरहाल, अगर आप लिट्फेस्ट में बतौर श्रोता पहलीबार जा रहे हैं तो कुछ मशविरा आपके लिए.
एक तो अपनी पसंद के लेखक को ब्रोशर पर छपे फोटो या उनकी किताब के पीछे छपे फोटो से मिलान करके ढूँढने की गलती मत कीजिएगा. फोटो में वे एम एस धोनी जैसे बालों में हो सकते हैं और हकीकत में गंजे. हमें भी मौसाजी के कज़िन को ढूँढने में परेशानी हुई. फोटो उन्होंने अपनी जवानी का अवेलेबल कराया रहा होगा या शी-कलीग्स की पसंद का. जैसे वे ब्रोशर में थे सच में नहीं, जैसे सच में थे पोस्टर पर नहीं. मिलान करने के लिए आप चैट जीपीटी या डीपसीक की मदद ले सकते हैं. तब तक ऐसा करें कि थोड़े से खाली खाली खड़े लेखक के साथ सेल्फी लेते चलिए और वाट्सअप स्टेटस पर डालते चलिए. रील भी बना सकते हैं. अगर आप किसी लेखिका के संग सेल्फी लेना चाहते हैं तो अलर्ट रहिए और सत्र समाप्ति के दो तीन मिनिट में ही ले लीजिए, उसे मृगनयनी शो रूम से साड़ी खरीदने के लिए भागने की जल्दी जो होगी.
दूसरे, अपने रिश्तेदार से मिलने आप लंच टाईम के आसपास मत जाईएगा. बाउंसर आपको भोजन के तम्बू में बिना ‘पास’ के घुसने नहीं देगा और आपके मेहमान गुलाबजामुन की सातवीं किश्त का लुत्फ़ लिए बगैर बाहर आएँगे नहीं. साहित्य आपके ऑफिस की आधे दिन की सेलेरी कटवा देगा.
वैसे तो इन दिनों सनातन के बिना विमर्श के आयोजन पूरे होते नहीं, सो बजरिए मानस रामचर्चा का सत्र भी रखा गया है. लेकिन अगर आप महज़ मज़े के लिए जाना चाहते हैं तो शाम के सत्रों में पहुँचिएगा. सुबह गंभीर लेखकों से चलकर शाम होते होते विमर्श बॉलीवुड, ओटीटी, पॉपुलर बैंड, मंचीय कविता और स्टेंड-अप कॉमेडी के सेलेब्रिटीज तक पहुँच चुका होगा. मनोरंजन का नया डेस्टिनेशन! लिट्फेस्ट. अगर आप मक्सी, देवास, हरदा, इटारसी या बाबई में रहते हैं तो लिट्फेस्ट तो आप अपने शहर में एन्जॉय नहीं कर पाएँगे. इन शहरों में ये तब तक नहीं आएगा जब तक यहाँ साहित्य का बाज़ार विकसित नहीं हो जाता. लिटरेचर टूरिज्म बाज़ार का नया फंडा है. आप अपने हॉली-डेज जयपुर लखनऊ, भोपाल, दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नाई, कोझिकोड के लिए प्लान कर सकते हैं. पूंजी, सत्ता, और बाज़ार का प्रॉडक्ट हैं लिट्फेस्ट. मीडिया मुग़ल, कारोबारी या अफसर उठता है और लिट्फेस्ट नामक जलसा आयोजित कर डालता है. जाने भी दो यारों, एन्जॉय दी फेस्ट.
और हाँ एक झोला लेते हुए जाईएगा. लौटते में आपके हाथों में कुछ पुस्तकें होंगी. कुछ भेंट में, मिलेंगी. कुछ आप उम्दा पसंदगी की नुमाईश करने के प्रयोजन से खरीदेंगे ही. दादू ने तो किताबों के साथ फोटो लेकर प्रोफाइल और स्टेटस पर लगा दी है. आप भी शान से कह पाएँगे – ‘मैं लिट्फेस्ट में गया था, वहाँ…..’
और हाँ, कहते समय शर्ट का ध्यान रखें, सीना फूल जाने से बटन टूट जाने का खतरा रहता है.
पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र.
विशेष –
39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया।
अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल”के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
स्व. स्व. महेश महदेल
☆ कहाँ गए वे लोग # ४५ ☆
☆ “सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय☆
दुनियाभर के ज्ञान और जानकारी को मस्तिष्क के गागर में भरे सामान्य सी कदकाठी और व्यक्तित्व वाले अत्यंत सरलता, सहजता, सादगी पूर्ण, आडम्बर रहित जीवन यापन करने वाले महेश महदेल जैसे लोगों के लिए ही शायद “सिंपल लिविंग हाई थिंकिंग” जैसे वाक्य लिखे गए होंगें । अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाले महदेल जी को शायद ही किसी ने प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान देते सुना होगा, लेकिन जानकार लोग बताते हैं की अल्पभाषी, शान्त प्रकृति के महदेल जी से जब भी, जिस भी विषय पर जानकारी चाही जाती थी वे उसे समय, स्थान आंकड़ों, घटनाओं सहित इतना विस्तार से बताते थे कि घण्टों चर्चा में बीत जाने का भान ही नहीं होता था। मानो सब कुछ सिलसिले बार उनके मन मस्तिष्क पर अंकित हो।
परतंत्र देश में स्वतंत्र ख्यालों वाले आदरणीय महेश जी का जन्म 1942 में गांव रामगढ़ जिला डिंडोरी मध्य प्रदेश में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा के पश्चात उन्होंने जबलपुर के तत्कालीन रॉबर्टसन कॉलेज से शिक्षा पूर्ण की। उनके लिए शानदार वेतन वाली शासकीय और अशासकीय नौकरियां बाहें फैलाए खड़ी थीं, किंतु ज्ञान पिपासु प्रबुद्ध महदेल जी ने अर्थ (धन ) को महत्व न देकर जीवन के मानवीय मूल्य के अर्थ को ही महत्व दिया । वे जानते थे कि सुख सुविधा और सिद्धांतों के रास्ते अलग अलग होते हैं। जीवनपर्यंत धन-दौलत, सुख-सुविधा, ताम-झाम से दूर रहे । कहा जाता है कि जिम्मेदारियां के बाजार में ऐसा संभव नहीं है किंतु इन सब के बावजूद उन्होंने अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए भाई-बहनों और परिजनों की मदद की, मार्गदर्शन किया । उन्हें पढ़ाने-लिखाने, स्वावलम्बी बनाने का पूर्ण दायित्व निभाया। आपने अविवाहित रहकर अपना संपूर्ण जीवन पत्रकारिता को समर्पित किया। पत्रकारिता उनके जीवन का हिस्सा बन गई सांध्य दैनिक जबलपुर से पत्रकारिता की प्रारंभ हुई यात्रा हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, देशबंधु आदि अखबारों से होती हुई ‘स्वतंत्र मत’ पर समाप्त हुई। जहां उन्होंने लगभग 20 वर्ष सेवाएं दीं। पत्रकारिता का लंबा और गहरा अनुभव उन्हें रहा। जिस नीर क्षीर परीक्षण विश्लेषण के साथ उन्होंने पत्रकारिता की वह अपने आप में विशिष्ट है। उनकी पत्रकारिता में वस्तुपरकता, तथ्यों की सच्चाई, शुद्धता, नवीनता, अनोखापन होता था। संतुलित,गरिमापूर्ण शब्द, निर्भीकता, निष्पक्षता, उत्कृष्ट अभिव्यक्ति उनकी लेखनी में परिलक्षित होती थी। उनके सहयोगी पत्रकार बताते हैं कि अखबारों का चाहे अंतरराष्ट्रीय पृष्ठ हो, नगर समाचार का हो, व्यापार या कृषि समाचार का हो, विज्ञापन, सराफा बाजार या खेल का पृष्ठ हो सभी पृष्ठों को व्यवस्थित, सुसज्जित करने में उनका पूर्ण दखल था । उनके लेखन का कमाल उनकी संपादकीय में देखने मिलता था । अत्यंत सारगर्भित, धारदार शब्द, स्पष्टवादिता, रोचकता से भरी संपादकीय दिल पर छाप छोड़ने वाली होती थी । उत्कृष्ट साहित्य संपन्न उपयोगी पुस्तकों की समीक्षा और समालोचना भी उन्होंने बहुत लिखीं। ‘बाल विकास की डिक्शनरी’ के नाम से मेरी पुस्तक ‘मां फिट तो बच्चे हिट’ की उनके द्वारा लिखी समीक्षा भी लोगों द्वारा अत्यंत सराही गई। पत्रकारिता के विभिन्न आयामों को गहराई से जानने समझने वाले भले ही कई हों किंतु उसे सिखाने, बताने और समझाने वाले लोग कम ही होते हैं। उन्होंने अपने साथियों- सहयोगियों को बहुत कुछ सिखाया और अनुकरण हेतु सादगी, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, कर्मठता, कार्य के प्रति जुनून का सबक भी कार्यशीलता से देते रहे। पत्रकारिता में जबरदस्त पैठ रखने के कारण सहयोगी उन्हें “लार्ड” के नाम से पुकारते थे वहीं अगली पीढ़ी उन्हें प्रेम आदर और अपनत्व के साथ कक्काजी कह कर आदर देती थी।
स्वभाव में फक्कड़ माननीय महदेल जी ने कभी संग्रह किया ही नहीं न धन का, न वस्तुओं का और तो और अपने लेखन का भी नहीं । उन्होंने अपनी मर्जी से जीवन जिया और मर्जी से ही जाते-जाते शरीर का दान देकर परोपकार की एक इबारत भी लिख गए।अहम, अहंकार से सैकड़ों कोसों दूर निराभिमानी महेश जी के शब्दकोश में आत्मावंचना, आत्म प्रदर्शन जैसे कोई शब्द ही नहीं थे। अपने चिंतन मनन और कार्य में समर्पित साहित्य प्रेमी महदेल जी साहित्यिक सम्मेलनों, संगोष्ठियों में इतने सहजता, सादगी और निर्विकार रूप से सम्मिलित होते थे कि किसी का ध्यान उनकी ओर जा ही नहीं पाता था। नेपथ्य में कार्य करने की प्रवृति के कारण उनकी योग्यताओं, प्रतिभाओं को वैसा प्रचार-प्रसार नहीं मिल पाया जिससे वे प्रत्यक्ष रूप से जनसामान्य तक पहुंच सकें । पत्रकारिता के इस शहंशाह के लिए अब केवल यही कहा जा सकता है..
वह ऊंचे कद का मगर झुक कर चलता था
जमाना उसके कद का अंदाज न लगा सका।
पत्रकारिता में दधीचि की तरह उनके त्याग-समर्पण को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “तू अपना नाम तो लिख दे …”।)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम हृदयस्पर्शी कथा – ‘वजूद‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 276 ☆
☆ कथा-कहानी ☆ वजूद ☆
नाम आर. एस. वर्मा, उम्र अड़सठ साल, डायबिटीज़ और उसके बाद दिल के रोगी। हैसियत —एक मध्यवर्गीय, पेंशनयाफ्ता, सामान्य आदमी। बच्चों में तीन लड़के और दो लड़कियां हैं, लेकिन वह फिलहाल पत्नी के साथ एक पुराने बेमरम्मत मकान में रहते हैं। अकेले क्यों रहते हैं और उनका इतिहास और संबंध-वृत कितना बड़ा है इस सब में जाने से कोई फायदा नहीं है। अब तो बस इतना महत्वपूर्ण है कि वह साढ़े पांच फुट जरबे दो फुट जरबे आठ इंच के चलते-फिरते इंसान हैं।
जिस दिन की बात कर रहा हूं उस दिन वर्मा जी बैंक के लिए निकले थे। बैंक बहुत दूर नहीं था, लेकिन शहर में दूरियां बड़ी होती हैं और कमज़ोर, बीमार आदमी के लिए वे और भी बड़ी हो जाती हैं। आदमी की पैदल चलने की आदत भी अब पहले जैसी नहीं रही। इसलिए वर्मा जी रिक्शे में गये और बैंक का काम निपटाया।
लौटते में रिक्शे वालों से पूछा तो लगा किराया ज़्यादा मांग रहे हैं। बैंक से थोड़ा आगे पुल था। सोचा पुल उतर लें तो किराया कम लगेगा। पैदल चल दिये। अब तक दोपहर हो गयी थी और सूरज ऐन उनके सिर पर चमकने लगा था। पुल चढ़ते-चढ़ते ही सामने के दृश्य अस्पष्ट और अजीब होने लगे। चलने में संतुलन गड़बड़ाने लगा तो उन्होंने पुल की दीवार का सहारा लिया। फुटपाथ को थोड़ा उठा दिया गया था, इसलिए वाहनों से कुचले जाने का भय नहीं था। लेकिन वह ज़्यादा देर तक खड़े नहीं रह सके। उनके पांव धीरे-धीरे खिसकने लगे और जल्दी ही वह दीवार से टिके, बैठने की मुद्रा में आ गये। उनका सिर उनकी छाती पर झुका हुआ था और आंखें बन्द थीं।
आर. एस. वर्मा का इस तरह बीमार होकर बैठ जाना गंभीर और महत्वपूर्ण घटना थी। वह कभी एक सरकारी मुलाज़िम रहे थे और बत्तीस साल तक अपनी कुर्सी पर बैठकर उन्होंने अनेक मामले निपटाये थे। दफ्तर में अनेक लोगों से उनके नज़दीकी रिश्ते रहे थे। वह किसी के पिता, किसी के पति, किसी के भाई, किसी के दादा, किसी के नाना, बहुतों के रिश्तेदार और परिचित थे। लेकिन फिलहाल इन सब बातों का कोई महत्व नहीं था क्योंकि वह भीड़भाड़ वाले उस पुल की दीवार से टिके साढ़े पांच फुट जरबे दो फुट जरबे आठ इंच के बेनाम शख्स थे।
पुल पर लोगों का सैलाब गुज़र रहा था। साइकिल वाले, स्कूटर वाले, मोटर वाले, रिक्शे वाले और पैदल लोग। ज़्यादातर लोगों की नज़रें चाहे अनचाहे इस बैठे हुए लाचार इंसान पर पड़ती थीं, लेकिन सभी उस तरफ से नज़रें फेर कर फिर सामने की तरफ देखने लगते थे। एक तो इस तरह के दृश्य इतने आम हो गये हैं कि आदमी उन्हें देखकर ज़्यादा विचलित नहीं होता, दूसरे सभी को कोई न कोई काम था और उनके पास एक अजनबी बीमार की परिचर्या का समय नहीं था। तीसरे यह कि एक मरणासन्न दिख रहे आदमी के पास जाकर पुलिस के पचड़े में कौन पड़े।
लाचार आर.एस. वर्मा वैसे ही पड़े रहे और वक्त गुज़रता गया। लेकिन यह सीमित दायरे में पड़ा शरीर वस्तुतः उतना सीमित नहीं था जितना आप समझ रहे हैं। उनके शरीर से स्मृति- तरंगें निकलकर सैकड़ो मीलों के दायरे में एक विशाल ताना-बाना बुन रही थीं।
पहले दिमाग़ में एक दृश्य आया जब वे और बड़े भैया आठ दस साल की उम्र के थे और अपने नाना के गांव गये थे। नाना ज़मींदार थे और हर साल रामलीला कराते थे। उन्हीं के भंडार- गृह से धनुष-बाण निकालकर दोनों भाई खेलने लगे। बड़े भैया ने उनकी तरफ तीर साधा और अचानक वह उनकी पकड़ से छूटकर वर्मा जी की आंख में आ लगा। नाना, नानी, मां सब भागे आये और बड़े भैया की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। सौभाग्य से पुतली बच गयी थी, इसलिए इलाज से आंख बच गयी। वे दृश्य आज उनकी आंखों के सामने साफ-साफ घूम रहे थे।
जीजी के ब्याह का दृश्य सामने आ गया। मां और बाबूजी विदा के वक्त कितने दुखी थे। वर्मा जी के लिए विछोह का यह पहला अनुभव था। पहली बार यह महसूस करना कि अब जीजी पहले की तरह इस घर में कभी नहीं रह पाएंगीं। जीजाजी तब कैसे तगड़े, समर्थ दिखते थे।
स्मृति कॉलेज और हॉस्टल के दिनों की तरफ घूम गयी। एकाएक दोस्त सआदत का चेहरा उभर आया। कैसा अजीब इंसान था। उसने भांप लिया था कि वर्मा जी की माली हालत ठीक नहीं है, इसलिए जब अपने लिए कपड़े सिलवाता तो दो जोड़ी सिलवाता और उन्हें ज़बरदस्ती पहनाता। दोनों का नाप एक ही था।
वह दृश्य जब वे अपने जूतों में पॉलिश करने के लिए बैठते थे और उनके कमरे के और बगल के कमरे के सब साथी अपने-अपने जूते उनके सामने पटक जाते। मेस में थालियों के सामने बैठकर कोलाहल करते साथी और उनके बीच पसीना बहाते घूमते ठेकेदार पंडित जी। एक पूरी रील उनकी आंखों के सामने चल रही थी। जैसे कोई उपग्रह था जिसकी तरंगें कई स्थानों को एक साथ छू रही थीं।
फिर मंडप में अपनी शादी का दृश्य सामने आ गया। पहली बार पत्नी का हाथ हाथ में आया तो उनके शरीर में बिजली सी दौड़ गयी थी। किसी लड़की को ‘उस तरह’ से छूने का उनका वह पहला अनुभव था।
फिर पैतृक मकान के बंटवारे पर तमतमाया बड़े भैया का चेहरा उभरा। पास ही बांहों में सिर देकर रोती मां।
फिर बड़े बेटे वीरेन्द्र का चालाक चेहरा सामने आ गया। उनकी ग्रेच्युटी मिलने के बाद उसने दस बहाने लेकर उनके चक्कर काटने शुरू कर दिये थे। उसे अपने लिए अलग मकान बनाना था। उसकी देखादेखी अपनी अपनी मांग रखते महेन्द्र और देवेन्द्र कि यदि बड़े भाई को पैसे दिए जाएं तो उन्हें भी क्यों नहीं? फिर पैसे न मिलने पर क्रोध से विकृत वीरेन्द्र का चेहरा। फिर बेटों के अलग हो जाने से व्यथित पत्नी का उदास चेहरा।
तीन घंटे बाद उधर से गुज़रने वालों ने देखा कि पुल से टिका यह आदमी बायीं तरफ को झुक कर अधलेटा हो गया था। यह कोई भी समझ सकता था कि तीन घंटे तेज़ धूप के नीचे लावारिस हालत में पड़े रहने से इस आदमी की हालत और बिगड़ी थी। शायद अब भी वर्मा जी को बचाया जा सकता था, लेकिन अभी तक उनके पास कोई रुका नहीं था।
वर्मा जी के दिमाग़ के दृश्य अब अस्पष्ट और तेज़ हो गये थे। दृश्यों की रील अनियंत्रित, अव्यवस्थित दौड़ी जा रही थी। मां, बाबूजी, पत्नी, पुत्रों, पुत्रियों, दोस्तों के चेहरे गड्डमड्ड हो रहे थे। अब उन चेहरों से अपना संबंध जोड़ना उनके लिए मुश्किल हो रहा था। चेहरे उभरते थे और हंसते, मुस्कुराते या रोते, उदास विलीन हो जाते थे। कहीं से आवाज़ें उठ रही थीं, कभी मां की, कभी बाबूजी की, कभी पत्नी की। फिर सब कुछ धुंधला होने लगा और आवाज़ें दूर और दूर जाते जाते हल्की होने लगीं।
वर्मा जी का सिर अब ज़मीन पर टिका था और शरीर में जीवन का कोई चिह्न दिखायी नहीं देता था। स्मृति-तरंगों का विशाल जाल सिमट कर उनके शरीर में लुप्त हो गया था। उपग्रह से तरंगों का प्रवाह रुक गया था। अब सचमुच वर्मा जी का वजूद सिर्फ साढ़े पांच फुट जरबे दो फुट जरबे आठ इंच क्षेत्र तक सीमित हो गया था।
दूसरे दिन वर्मा जी का शरीर वहां नहीं था। शायद उनकी पत्नी को खबर मिली हो और वह उन्हें उठवा ले गयी हों, या कोई पड़ोसी उन्हें पहचान कर उन्हें ले गया हो, या फिर कोई भला आदमी उन्हें उस हालत में देखकर किसी डॉक्टर के पास ले गया हो। अन्तिम संभावना यह हो सकती है कि पुलिस उस लावारिस लाश को ले गयी हो और कल के अखबारों में उसके बारे में संबंधियों को सूचित करने के लिए फोटो सहित खबर छपे। जो भी हो, वर्मा जी का वजूद अब उतना ही था जितने वह दिखायी देते थे।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– आत्मकथ्य –” ।)
मैं अपनी इस उम्र तक विद्वानों की अपेक्षा अशिक्षितों के बीच अधिक रहा हूँ। उनसे मिली हुई भाषा मेरे लेखन की आत्मा है। अपनी ओर से मैं ऐसा करता हूँ उसमें कुछ तर्क और व्याकरण का मुलम्मा चढ़ा देता हूँ। बात ऐसी है मेरे ध्यान में विद्वान रहते हैं। मेरे लेखन का वास्तविक परीक्षण यहीं होता है। विद्वानों में मेरा लेखन मान्य हो जाए तो स्वयं विद्वान हो जाऊँ, अन्यथा मेरे अपने परिवेश के अशिक्षित तो मेरे अपने हैं ही।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 277 ☆ बिखराव…
आगे दुकान, पीछे मकान वाली शैली की एक फुटकर दुकान से सामान खरीद रहा हूँ। दुकानदार सामूहिक परिवार में रहते हैं। पीछे उनके मकान से कुछ आवाज़ें आ रही हैं। कोई युवा परिचित या रिश्तेदार परिवार आया हुआ है। आगे के घटनाक्रम से स्पष्ट हुआ कि आगंतुक एकल परिवार है।
आगंतुक परिवार की किसी बच्ची का प्रश्न कानों में पिघले सीसे की तरह पड़ा, ‘दादी मीन्स?’ इस परिवार की बच्ची बता रही है कि दादी मीन्स मेरे पप्पा की मॉम। मेरे पप्पा की मॉम मेरी दादी है।… ‘शी इज वेरी नाइस।’
कानों में अविराम गूँजता रहा प्रश्न ‘दादी मीन्स?’ ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की संस्कृति में कुटुम्ब कितना सिमट गया है! बच्चों के सबसे निकट का दादी- नानी जैसा रिश्ता समझाना पड़ रहा है।
सामूहिक परिवार व्यवस्था के ढहने के कारणों में ‘पर्सनल स्पेस’ की चाहत के साथ-साथ ‘एक्चुअल स्पेस’ का कम होता जाना भी है। ‘वन या टू बीएचके फ्लैट, पति-पत्नी, बड़े होते बच्चे, ऐसे में अपने ही माँ-बाप अप्रासंगिक दिखने लगें तो क्या किया जाए? यूँ देखें तो जगह छोटी-बड़ी नहीं होती, भावना संकीर्ण या उदार होती है। मेरे ससुर जी बताते थे कि उनके गाँव जाते समय दिल्ली होकर जाना पड़ता था। दिल्ली में जो रिश्तेदार थे, रात को उनके घर पर रुकते। घर के नाम पर कमरा भर था पर कमरे में भरा-पूरा घर था। सारे सदस्य रात को उसी कमरे में सोते तो करवट लेने की गुंज़ाइश भी नहीं रहती तथापि आपसी बातचीत और ठहाकों से असीम आनंद उसी कमरे में हिलोरे लेता।
कालांतर में समय ने करवट ली। पैसों की गुंज़ाइश बनी पर मन संकीर्ण हुए। संकीर्णता ने दादा-दादी के लिए घर के बाहर ‘नो एंट्री’ का बोर्ड टांक दिया। दादी-नानी की कहानियों का स्थान वीडियो गेम्स ने ले लिया। हाथ में बंदूक लिए शत्रु को शूट करने के ‘गेम’, कारों के टकराने के गेम, किसी नीति,.नियम के बिना सबसे आगे निकलने की मनोवृत्ति सिखाते गेम। दादी- नानी की लोककथाओं में परिवार था, प्रकृति थी, वन्यजीव थे, पंछी थे, सबका मानवीकरण था। बच्चा तुरंत उनके साथ जुड़ जाता। प्रसिद्ध साहित्यकार निर्मल वर्मा ने कहा था, “बचपन में मैं जब पढ़ता था ‘एक शेर था’, सबकुछ छोड़कर मैं शेर के पीछे चल देता।”
शेर के बहाने जंगल की सैर करने के बजाय हमने इर्द-गिर्द और मन के भीतर काँक्रीट के जंगल उगा लिए हैं। प्राकृतिक जंगल हरियाली फैलाता है, काँक्रीट का जंगल रिश्ते खाता है। बुआ, मौसी, के विस्थापन से शुरू हुआ संकट दादी-नानी को भी निगलने लगा है।
मनुष्य के भविष्य को अतीत से जोड़ने का सेतु हैं दादी, नानी। अतीत अर्थात अपनी जड़। ‘हरा वही रहा जो जड़ से जुड़ा रहा।’ जड़ से कटे समाज के सामने ‘दादी मीन्स’ जैसे प्रश्न आना स्वाभाविक हैं।
अपनी कविता स्मरण आ रही है,
मेरा विस्तार तुम नहीं देख पाए,
अब बिखराव भी हाथ नहीं लगेगा,
मैं बिखरा ज़रूर हूँ, सिमटा अब भी नहीं…!
प्रयास किया जाए कि बिखरे हुए को समय रहते फिर से जोड़ लिया जाए। रक्त संबंध, संजीवनी की प्रतीक्षा में हैं। बजरंग बली को नमन कर क्या हम संजीवनी उपलब्ध कराने का बीड़ा उठा सकेंगे?
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा
इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक कविता – हे नारी!।)
Anonymous Litterateur of social media # 223 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 223)
Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.
Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.
He is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!
English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 223