(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित – “कविता – मां गंगा…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।)
☆ काव्य धारा # 208 ☆ कविता – मां गंगा… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
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हे भारत की जीवन धारा कलकल निनादिनी माँ गंगे
हिमगिरी से चलकर सागर तक निर्बाध वाहिनी माँ गंगे
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देती अमृत सम जल अपना वन उपवन जन जन कण कण को
मिलती है अनुपम शांति तुम्हारे तीर दुखी आहत मन को
भारत जन मन की परम पूज्य प्रिय पतित पावनी माँ गंगे
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उत्तर दक्षिण प्रांतो पंथो का भेद मिटाने वाली तुम
भावुक भक्तों पर माँ सी ममता प्यार लुटाने वाली तुम
भारत वसुन्धरा को वैभव कल्याण दायिनी माँ गंगे
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तव निर्मल उज्जवल धारा ने कवि कण्ठों को कलगान दिये
कृषि को नित वरदान दिये सन्तो को गरिमा ज्ञान दिये
भारत की आध्यात्मिक संस्कृति की प्राण दायिनी माँ गंगे
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तुम भारत की पहचान तुम्हारे दर्शन को हर मन प्यासा
जीते हैं लाखों लोग लिये तुममे डुबकी की एक आशा
भारत के जनजीवन के मन में नित निवासिनी माँ गंगे
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जग से विक्षुब्ध असांत हृदय को शान्ति प्राप्ति की अभिलाषा
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख भीड़ में हम अकेले। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 262 ☆
☆ भीड़ में हम अकेले… ☆
‘बड़े अजीब दुनिया के मेले हैं/ दिखती तो भीड़ है/ पर चलते हम अकेले हैं’ गुलज़ार की यह पंक्तियाँ आज के कटु सत्य को उजागर करती हैं। आधुनिक युग में मानव सबके बीच अर्थात् भीड़ में स्वयं को अकेला अनुभव करता है– से तात्पर्य है कि मानव में पनपता आत्मकेंद्रिता का भाव। इसका कारण है उसकी दिन-प्रतिदिन सुरसा के मुख की भांति बढ़ती इच्छाएं, लालसाएं, आकांक्षाएं व तमन्नाएं– जो उसे सुक़ून से जीने नहीं देती। एक इच्छा के पूरी होते दूसरी सिर उठा लेती है। सीमित साधनों से असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। सो! मानव आजीवन इनका गुलाम बनकर रह जाता है और उस चक्रव्यूह से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। उसकी महत्वाकांक्षाएं ही उसकी शत्रु बन जाती हैं। अक्सर मानव आकाश को छूने की तमन्ना में अपने कदम धरा से ऊपर उठा तो लेता है, परंतु उसकी दशा कटी पतंग जैसी हो जाती है जो चंद क्षणों के पश्चात् ही धरा पर औंधे मुँह गिर जाती है।
यह शाश्वत् सत्य है कि जब तक हम ज़मीन से जुड़े रहते हैं, हमारी पहचान बनी रहती है और जब तक हम परिवार का हिस्सा बनकर रहते हैं, हमारा अस्तित्व रहता है। जैसे डाली से टूटा हुआ फूल शीघ्र ही धूल में मिल जाता है और उसकी महक व सौंदर्य नष्ट हो जाता है। इसीलिए ‘एकता में बल है’ और ‘शक्तिशाली विजयी भव’ का संदेश आज भी सार्थक, उपयोगी, प्रासंगिक व अनुकरणीय है
आधुनिक युग में बढ़ती प्रतिस्पर्द्धात्मकता के कारण मानव एक-दूसरे को पछाड़ आगे बढ़ जाना चाहता है। इसके लिए वह किसी की हत्या तक करने में भी गुरेज़ नहीं करता। आजकल पैसा प्रधान है और यह हवस उसे दुष्कर्म तक करने तक को विवश तक कर देती है। पैसा मानव में सर्वश्रेष्ठता के भाव का जनक है। वह स्वयं के सम्मुख दूसरे के अस्तित्व को नगण्य समझता है। ‘पैसे से दिलों में पनपती हैं दरारें/ यह दूरियाँ भी बहुत बढ़ाता है/ रिश्तों में यह सहसा सेंध लगाता/ दीमक सम समूल चाट जाता है।’ जी हाँ! पैसा आज के युग का प्रधान है। इसके बल पर मानव किसी पर भी अकारण इल्ज़ाम लगा कटघरे में खड़ा कर सकता है, उसकी अहमियत को नकार ज़ुल्म कर सकता है और उसे अपने कदमों में झुका सकता है। यह एक ऐसी अंधी दौड़ है, जिसमें सब एकदूसरे से आगे निकल जाना चाहते हैं।
जब तक मानव की गाँठ में पैसा रहता है, वह सबको एक लाठी से हाँकता है। भावनाओं, चाहतों, संवेदनाओं का उसके सामने कोई मूल्य नहीं होता। रिश्तों की गरिमा को नकार वह आगे बढ़ जाता है। परंतु एक अंतराल के पश्चात् वह नितांत अकेला रह जाता है और लौट जाना चाहता है उन अपनों में, जिन्हें वह बहुत पीछे छोड़ आया था। परंतु अब सब कुछ बदल चुका होता है। उसके परिवारजन, मित्र, संबंधी आदि उसके अस्तित्व को नकार देते हैं और दुनिया के मेले में वह नितांत अकेला रह जाता है। इस विषम परिस्थिति में उसे अपने कृत-कर्मों पर पश्चाताप होता है। परंतु गुज़रा समय कभी लौटकर नहीं आता। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख्स यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा’ यह है प्रभु-प्राप्ति का सहज मार्ग। मानव ध्यान, भक्ति, साधना करके प्रभु को प्राप्त कर सकता है। जब तक मानव दुनिया की रंगीनियों में खोया रहता है, वह अलौकिक खुशी प्राप्त नहीं कर सकता है और इच्छाओं का गुलाम बनकर रह जाता है। पंचविकारों से घिरा मानव सदैव किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में अपना जीवन बसर करता है, क्योंकि उसका हृदय सदैव कुहासे से लबरेज़ रहता है। वह आकुल व हैरान-परेशान रहता है।
उसकी दिशा व दशा अजीब-सी हो जाती है– ‘अजनबी हर इंसान/ अजनबी है यह जहान/ अपनों को तलाशना नहीं संभव/ कैसी यह अजब ज़िंदगी है।’ और ‘फ़ासले जब ज़िंदगी में बढ़ जाते हैं/ अपने सब अपनों से दूर हो जाते हैं/ छा जाता है अजब-सा धुँधलका जीवन में/ हम ख़ुद से ही अजनबी हो जाते हैं।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियाँ आज के मानव की मन:स्थिति व नियति को उजागर करती हैं कि जब इंसान अकेला हो जाता है तो उसे समस्त जगत् मिथ्या नज़र आता है।
‘आजकल यूज़ एंड थ्रो का ज़माना आ गया/ दिलों की अहमियत नकारने का ज़माना आ गया/ आजकल दरारें दीवारों का रूप ग्रहण करने लगी/ और अपने सब ख़ुद से अजनबी होने लगे।’ जीवन क्षणभंगुर है। संसार मिथ्या है और वह माया के कारण सत्य भासता है। ‘हंसा एक दिन उड़ जाएगा। इस धरा का सब, धरा पर ही धरा रह जाएगा। एक तिनका भी तेरे साथ नहीं जाएगा। मत ग़ुरूर कर बंदे!’
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जो पीछे छूट गया, उसका शोक मनाने की जगह जो आपके पास है, उसका आनंद लीजिए। ‘क्योंकि ढल जाती है हर चीज़ अपने वक्त पर/ बस व्यवहार व लगाव ही ऐसा है जो कभी बूढ़ा नहीं होता।’ ’किसी को समझने के लिए भाषा की आवश्यकता नहीं होती। कभी-कभी उसका व्यवहार सब कुछ कह देता है। मनुष्य जैसे ही अपने व्यवहार में प्रेम व उदारता का परिचय देता है अर्थात् समावेश करता है तो उसके आसपास का जगत् सुंदर हो जाता है।’ मानव अपने व्यवहार से आसपास के वातावरण व जगत् को सुंदर बन सकता है। सो! सबके प्रति हृदय में प्रेम, सौहार्द, स्नेह, सहानुभूति व जाग्रत संवेदनाएं रखिए। उस स्थिति में आप कभी अकेले नहीं होंगे। सब आपके सान्निध्य में सुख का अनुभव करेंगे। जब हृदय में राग-द्वेष की कलुषित भावनाएं नहीं होंगी तो सुंदर व स्वस्थ समाज की संरचना होगी। चहुँओर उजाला होगा और सबके हृदय में समन्वय, सामंजस्य व समरसता का साम्राज्य होगा। इंसान भीड़ में स्वयं को अकेला अनुभव नहीं करेगा। रिश्तों की सुगंध से जीवन महकेगा और सब अनहद नाद की मस्ती व दिव्य आनंद से अपना जीवन बसर कर सकेंगे।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – आलेख – शब्दों से उभरती ‘हस्ती’ की हस्ती – स्व. हस्तीमल जी ‘हस्ती‘
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना
किसी भी व्यक्ति को जानने, समझने के लिए उससे बार-बार मिलना-जुलना पड़ता है। उसके साथ समय बिताना पड़ता है। निदा फ़ाज़ली का उपरोक्त शेर इसी जीवन दर्शन की पुष्टि करता है।
वस्तुतः मनुष्य का स्वभाव सामान्यतया धीरे-धीरे खुलने का है और तदुपरांत ही उस पर कोई राय बनाई जा सकती है। अलबत्ता किसी साहित्यकार से परिचित होने के लिए आवश्यक नहीं कि उससे मिला ही जाए। कवि, लेखक के शब्दों को बाँचा जाए, भावों को समझा जाए तो उन शब्दों से कलमकार का प्रतिबिम्ब उभरता है। प्रस्तुत आलेख बहुचर्चित ग़ज़लकार हस्तीमल ‘हस्ती’ जी के व्यक्तित्व को उन्हीं के सृजन के माध्यम से समझने का प्रयास है।
जब कभी कविता/ नज़्म / ग़ज़ल की बात चलती है तो वर्तमान स्थितियों में उसकी प्रयोजनीयता पर प्रश्न उठाया जाता है। इस सार्वकालिक प्रश्न का उत्तर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इस कथन में अंतर्निहित है कि ” कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो पर कविता अवश्य ही होगी। इसका क्या कारण है। बात यह है कि संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में फँसे रहने से मनुष्य की मनुष्यता के जाते रहने का डर रहता है। अतएव मानुषी प्रकृति को जाग्रत रखने के लिए ईश्वर ने कविता रूपी औषधि बनाई है। कविता यही प्रयत्न करती है कि प्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पाए।”
कविता की यह दृष्टि विधाता, हर मनुष्य को प्रदान नहीं करता। इसी अद्वितीय दृष्टि का वरदान हस्ती जी को मिला है। दृष्टि कलम में उतरती है और कविता की महत्ता को कुछ यों बयान करती है-
शायरी है सरमाया ख़ुशनसीब लोगों का
बाँस की हर इक टहनी बाँसुरी नहीं होती
कविता ऐसी औषधि है जो हर विषाद के बाद मानसिक विरेचन कर आदमी को शक्ति और उत्साह प्रदान करती है। कविता ऐसा हथियार है जो मनुष्य को नई लड़ाई के लिए खड़ा करता है। कवि का कवित्व, जीव को मनुष्य कर देता है। मनुष्य, ईश्वर से अकाट्य प्रश्न करता है-
जब तूने ही दुनिया का ये दीवान लिखा है
हर आदमी प्यारी सी ग़ज़ल क्यों नहीं होता
कवि की दृष्टि प्रचलित शब्दों को ऊपरी तौर पर ग्रहण नहीं करती बल्कि उनमें गहरे उतरती है। शब्द अपने अर्थ के विस्तार से झंकृत और चमत्कृत हो उठते हैं। स्थूल का सूक्ष्म दर्शन, साधारण-सी बात को अद्भुत कर देता है –
रहा फिर देर तक वो साथ मेरे
भले वो देर तक ठहरा न था
रहने और ठहरने का अंतर अनुभव से समझ में आता है। माना जाता है कि हर मनुष्य का जीवन एक उपन्यास है। भोगे हुए उपन्यास को पढ़कर, बुज़ुर्ग शायर अगली पीढ़ी को पढ़ाना चाहता है। उनकी चाहत, मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाने की है। ‘मैं’ के शिकार आत्ममुग्ध मनुष्य को वे एक शेर के माध्यम से ज़मीन पर उतार देते हैं-
तेरी बीनाई किसी दिन छीन लेगा देखना
देर तक रहना तेरा ये आईनों के दरमियां
दुनियावी आइनों के दरमियां रहने को तजकर मनुष्य जब मन के दर्पण में खुद को निहारने लगता है तो सत्य की राह दिखने लगती है। अलबत्ता सच और आफ़त का चोली-दामन का साथ भी है-
लड़ने की जब से ठान ली सच बात के लिए
सौ आफ़तों का साथ है दिन-रात के लिए
मराठी में कहावत है, ‘कळतं पण वळत नाही’ अर्थात ‘जानता है पर मानता नहीं। सच के वरक्स झूठ के पाँव न होने के त्रिकाल सत्य को हस्ती जी जैसा शायर ही इतनी सरलता से कह सकता है-
झूठ की शाख़ फल-फूल देती नहीं
सोचना चाहिए, सोचता कौन है
आदमी की आँख में इनबिल्ट जन्नत के सपने को शायर झिंझोड़ता है। सपने या अरमान बैठे-बैठे पूरे नहीं होते-
जन्नत का अरमान अगर है मौत से यारी कर जीते जी मिल जाए जन्नत ये कैसे हो सकता है
जन्नत का उदाहरण देनेवाला मूर्धन्य रचनाकार उसके रहस्य भी जानता है। इस रहस्य से वह सरलता और सादगी से पर्दा उठाता है-
जन्नत किसने देखी है
जीवन जन्नत जैसा कर
‘यू गेट लाइक वन्स, लिव इट राइट, वन्स इज इनफ़’ अर्थात जीवन एक बार ही मिलता है। पूर्णता से जिएँ तो एक बार पाया जीवन भी पर्याप्त है। आदमी की सोच उसे संकीर्ण या विस्तृत करती है। आदमी की दृष्टि में ही सृष्टि है। दृष्टि से उपजी सृष्टि की यह ख़ूबसूरत सीख देखिए-
अपने घर के आँगन को मत क़ैद करो दीवारों में दीवारें ज़िंदा रहती हैं लेकिन घर मर जाते हैं
घर को ज़िंदा रखना याने घर के हर घटक को उड़ने का, पंख फैलाने का अवसर देना। पक्षियों के टोले में जो पक्षी उड़ते समय आगे होता है, थक जाने पर वह पीछे आ जाता है। युवा पक्षी अपने डैने फैलाकर नेतृत्व का दायित्व ग्रहण करता है। पंछी हो या मनुष्य, जीवन का चक्र सबके लिए समान रूप से घूमता है। यह चक्र हस्तीमल ‘हस्ती’ की कलम से अपनी अनंत परिधि कुछ यों खींचता है-
कतना, बुनना, रंगना, सिलना, फटना, फिर कतना-बुनना
जीवन का यह चुक्र पुराना पहले भी था, आज भी है
जीवन का आरंभ होता है माँ की कोख से। विधाता को भी पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए माँ की आवश्यकता पड़ती है। हस्ती जी के शब्द दीपक को माँ की उपमा देकर, माँ की भूमिका का ग़ज़ब का चित्र खींचते हैं-
आग पीकर भी रोशनी देना
माँ के जैसा है ये दिया कुछ-कुछ
कहते हैं कि मूर्तिकार को हर पत्थर में एक मूर्ति दिखाई देती है। वह मूर्ति के अतिरिक्त शेष पत्थर को अलग कर अपने काम को अंजाम तक पहुँचाता है। कुछ इसी तरह शब्दकार को हर बीहड़ में रास्ते की संभावना दिखती है-
रास्ता किस जगह नहीं होता
सिर्फ़ हमको पता नहीं होता
यह संभावना आज के विसंगत जीवन में अवसाद के शिकार युवाओं के लिए जीने का स्वर्णद्वार खोलती है। इस द्वार को देखने के लिए दृष्टि चाहिए तो खोलने के लिए कृति।
सूरज की मानिंद सफ़र पे रोज़ निकलना पड़ता है
बैठे-बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना
पौधा शनैः- शनैः वृक्ष बनता है। धूप में पली-बढ़ी पत्तियाँ छाया देने लगती हैं, पर छायादार होने के लिए जड़ें गहरी रखनी पड़ती हैं-
उसका साया घना नहीं होता
जिसकी गहरी जड़ें नहीं होती
जड़ों को हरा रखने, धरती से जोड़े रखने के लिए विद्या के साथ विनय का पाठ पढ़ना भी आवश्यक है। कहा भी गया है ‘विद्या विनयेन शोभते।’ ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का भारतीय दर्शन आत्मसात किये बिना आदमी अधूरा है-
सादगी का सबक नहीं सीखा
मेरी तालीम में कमी है अभी
जड़ों से जुड़ना अर्थात मूल्यों से जुड़ना। मूल्यों से जुड़ना आस्तित्व को सार्थक करता है। मूल्यधर्मिता, जीवन को सुगंधित करती है-
मेरी ख़ुशबू ही मर जाए कहीं
मेरी जड़ से न कर जुदा मुझे
स्थितियाँ प्रतिकूल हों, पानी सिर के ऊपर से जा रहा हो, तब भी आँख का पानी बचाकर रखना चाहिए। अपनी आँख में अपना मान बना रहता है तो आदमी का कद भी टिका रहता है-
मिला दिया है पसीना भले ही मिट्टी में
हम अपनी आँख का पानी बचाके रखते हैं
अपने समय की विसंगतियों से शायर आहत है। धर्म का चेला ओढ़े सफेदपोशों के चंगुल में फँसे साधारण आदमी की स्थिति शब्दों में व्यक्त होती है-
अस्ल में मुज़रिम जो थे घर में खुदा के जा छुपे अब मसीहा रह गए हैं सूलियों के वास्ते
प्रार्थना के नाम पर पूजा पद्धति और तौर- तरीकों में उलझा आदमी कवि की दृष्टि से छूटता नहीं। उसके मन में प्रार्थना की परिभाषा को लेकर उमड़-घुमड़ है। यह उमड़-घुमड़ एक शेर के ज़रिए असीम आकार का प्रश्न खड़ा करती है-
‘हस्ती’ मंदिर मस्ज़िद में हम जो कुछ करके आते हैं
रब की नज़र में हो न इबादत ऐसा भी हो सकता है
संवेदना, मनुष्यता के लिए अनिवार्य तत्व है। इस तत्व के अतीत होने का चित्र सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है-
ग़ैर के दर्द से भी लोग तड़प जाते थे
वो ज़माना ही रहा ना वो ज़माने वाले
संवेदना के अभाव ने भले आदमियों को आउटडेटेड कर दिया है। भलमनसाहत विपन्नता का पर्यायवाची हो चुकी है।
जर्जर झुग्गी, टूटी खटिया, रूठी फसलें, रूठे हाल
भलमनसाहत का इस जग में मिलता है ये फल साईं
देश के लिए शहीद होना हर युग का धर्म है। विडंबना है कि अंतर्राज्यीय संघर्षों, पानी पर विवाद, धर्म और जाति पर दंगे, आतंकियों को बचाने के लिए अपने ही सैनिकों पर पत्थर फेंकते लोगों के चलते अपने ही घर में शहीद होने का क्रूर और वीभत्स चित्र आज का यथार्य है।
सरहद पे जो कटते तो कोई ग़म नहीं होता
है ग़म तो ये सर घर की लड़ाई में कटे थे
कोई कितना ही लिख-पढ़ ले, दुनिया भर की क़िताबें पढ़ ले, आदमी को बाँचने का सूत्र समझ नहीं पाता। आदमी है ही ऐसी जटिल रचना जिसमें कमरे में केवल कमरा ही नहीं तहखाना भी छिपा होता है-
आसानी से पहुँच न पाओगे इंसानी फ़ितरत तक कमरे में कमरा होता है कमरे में तहखाना भी
कोई आदमी यदि दृष्टि रखता है, परिश्रमी है, स्वाभिमानी है, हौसलामंद है, सादगी से जीता है, बाँचता है, गुनता है तो उसे उड़ने से, ऊँचाई तक पहुँचने से कोई त़ाक़त रोक लेगी, यह सोचना भी झूठ है। इस झूठ की पोल हस्तीमल ‘हस्ती’ की सच्ची शायरी इस सादगी से खोलती है कि खुद-ब-खुद ‘वाह’ निकल आती है-
परवाज़ जिसके ख़ूँ में है भरता रहा है वो
पिंजरे में भी उड़ान, अगर झूठ है तो बोल
एक और बानगी देखिए-
धरती का मोह छोड़ दिया जिसने उसका ही
हो पाया आसमान अगर झूठ है तो बोल
इस आलेख के आरंभ में ही कहा गया है कि सर्जक का शब्द उसका प्रतिबिम्ब होता है। सर्जक को जानना है, उसकी अ-लिखी आत्मकथा पढ़नी है तो उसका साहित्य पढ़ा जाना चाहिए। इस आलेख के इस अदना-सा लेखक की एक रचना कहती है- “आपने अब तक/ अपनी आत्मकथा / क्यों नहीं लिखी ?/ संभवतः आपने/ अब तक मेरी रचनाएँ / ग़ौर से नहीं पढ़ीं..!
सत्य के पक्षधर, सादगी के हिमायती, धरती में गहराई तक जड़ें रोपकर छायादार दरख़्त-से व्यक्तित्व के धनी हस्तीमल’ हस्ती’ की हस्ती उनकी विभिन्न ग़ज़लों के शेरों के माध्यम से उभरती है। शब्दों से उभरता शायर का यह अक्स शब्दों के परे भी जाता है। यही कारण है कि, “तुम बुलंदी कहते जिसको मियाँ / ऊबकर हम छोड़ आए हैं उसे” कहने वाले हस्तीमल ‘हस्ती’ सरल शब्दों में गहन सत्य को अभिव्यक्त करने वाले जादूगर शायर के रूप में समय के ललाट पर अमिट अंकित हो जाते हैं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा
इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीत – निगल रहे हैं देख धरा को…।
रचना संसार # 35 – गीत – निगल रहे हैं देख धरा को… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “जबलपुर का उपनगर रांझी: 1960 का दशक“।)
☆ दस्तावेज़ # 7 – जबलपुर का उपनगर रांझी: 1960 का दशक ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
जबलपुर का उपनगर रांझी। उन्नीस सौ साठ का दशक। तब लगता था, शहर से बहुत दूर, लगभग बाहर है रांझी। देर रात को स्टेशन से घर आने के लिए दो बार सोचना पड़ता था। सतपुला पार करने के बाद, पूरा रास्ता सूना था।
इंजीनियरिंग कॉलेज से आगे चलकर, रांझी बाज़ार पहुंचते थे। उन दिनों बाज़ार में इतनी रौनक कहां थी! दुकानों को उंगलियों पर गिना जा सकता था – दर्शनसिंह आटा चक्की, ईश्वरसिंह किराना, खन्ना जनरल स्टोर, दोआबा साइकिल स्टोर, नानाभाई मैगज़ीन सेंटर, जनता टेलर, साहनी शूज़, नीलम स्वीट्स, चड्ढा क्लॉथ स्टोर, शायद कुछ और। डॉक्टर तारा सिंह एकमात्र एम.बी.बी.एस डॉक्टर थे। डॉक्टर ओझा बाद में आए।
बाज़ार से अन्दर की ओर जाकर, रांझी बस्ती में हमारा अपना छोटा-सा घर था। अंदर वाले कमरे में ऊपर रेडियो रखा हुआ था। स्टूल पर चढ़कर, चालू करना पड़ता था। सुबह रेडियो सीलोन (अब रेडियो श्रीलंका) से प्रसारित पुरानी फिल्मों के गीत सुनते थे। आखिरी गाना कुंदनलाल सहगल का होता था। गाने के ख़त्म होते ही, ठीक आठ बजे, हम स्कूल के लिए पैदल निकल पड़ते थे। रात में, रेडियो पर बीबीसी से प्रसारित समाचार, पिताजी नियमित रूप से सुनते थे। वो मकान अब मेरे स्कूल के एक सहपाठी चंद्रा बाबू का घर है। बहुत मन है, कभी वहां जाने का! उसके अंदर समूचे बचपन, माता-पिता और भाई-बहनों की यादें समाई हुई हैं। पुरानी स्मृतियां कई बार मन को आनंद विभोर कर जाती हैं।
हमारा घर सड़क की पिछली ओर था, सामने की ओर खोखोन (संतोष मुखर्जी) का घर था। दोनों की छत जुड़ी हुई थी, बीच में एक छोटी-सी दीवार थी। जब भी कोई इंटरनेशनल क्रिकेट मैच चल रहा होता तो हम मैच में लंच या चायकाल के दौरान छत पर पहुंच जाते। बीच की दीवार पर बैठकर चर्चा शुरू हो जाती। तब कमेंट्री रेडियो पर आती थी, टीवी पर नहीं। हम खेल की आपस में समीक्षा करते और एक-एक कर अपने प्रिय खिलाड़ियों पर चर्चा करते – सोबर्स, हॉल, ग्रिफिथ, कॉलिन काऊड्री, लिल्ली, थाम्पसन, पटौदी, इंजीनियर, सरदेसाई, वीनू मांकड… इत्यादि। मैच पुनः शुरू होते ही नीचे जाकर रेडियो पर कमेंट्री सुनने लगते।
बाजू में सरदार निरंजन सिंह का घर था। उन्हें हम भी पापाजी कहते थे। उस घर में दो बेबे (मां) थीं, बड़ी बेबे और छोटी बेबे। उनके अनेक पुत्र-पुत्रियां – मिंदी, सिंदर, हरमेल, सारदुल, पूछी, नीमा, केशी और बब्बी। उन्होंने दो भैंसें पाली थीं। सुबह से ही बड़ी बेबे उनके लिए खली-चूनी तैयार कर, दूध दोहती थीं। उसके बाद ही हमारे घर चाय बनती थी। छोटी बेबे दिनभर बुनाई का काम करती रहती। सर्दियों में, जब उनके घर मक्की की रोटी और सरसों का साग बन रहा होता, तो वो मुझे आवाज़ लगाकर बोलतीं, “ओए, चार अँक्खां वाले, साग बन रया है, शामी आ जाइं।” मेरे चश्मे की वजह से वो मुझे “चार अँक्खां वाले” कहती थीं। दोनों घर के बीच हमारा सांझा कुआं था।
घर से कुछ दूर, देशी शराब की एक कलारी थी। अगर कोई शराबी ज़्यादा पीकर उत्पात करता, तो पापाजी उसे रस्सी से, बिजली के खंभे के साथ बांध देते थे। उनके पास एक कड़क हंटर (कोड़ा) हुआ करता था। उस हंटर से वे शराबी की पिटाई करते थे। हर महीने, ऑर्डनेंस फैक्टरी के लेबर पेमेंट वाले दिन, यह दृश्य देखने को मिलता था। पापाजी का बहुत दबदबा था। लंबे-चौड़े, भरे-पूरे सरदार थे। उनके नाप के जूते और चौड़ी कलाई के लिए नाप का घड़ी का पट्टा नहीं मिलता था। पापाजी एक कुशल एवं उत्कृष्ट राजमिस्त्री थे। भवन निर्माण का काम उत्तम ढंग से करते थे।
हमारे सामने वाला विशालकाय मकान नैनजी का था। उसमें अनेकों किरायेदार रहते थे। हफ्ते में, एक-दो बार वो खुले मे तंदूर लगाती थीं। आस-पड़ोस के सभी घर के लोग अपना आटा लेकर पहुंच जाते थे। नैनजी सबको धैर्यपूर्वक, बारी-बारी से, तंदूरी रोटी सेंककर देती थीं, चाहे सर्दी का मौसम हो या गर्मी की तेज धूप।
हम तब नन्हे-मुन्ने बच्चे थे। गुल्ली-डंडा, चीटीधप्प, पिट्टुक, मार-गेंद और लंगड़ी हमारे प्रिय खेल थे। बरसातों में, हम पतंग उड़ाते और गपन्नी से खेलते थे। गपन्नी लोहे की लगभग डेढ़ फीट की छड़ होती थी, जिसके आगे नोक होती थी। उसे पटक कर, ज़मीन में मारकर, गड़ाते हुए, आगे बढ़ना होता था। अगर गपन्नी की नोक नहीं गपी और गपन्नी गिर गई, तो आपकी पारी खतम। पतंग उड़ाने का मांझा भी हम खुद तैयार करते थे। थोड़े बड़े हुए तो फुटबॉल, वॉलीबॉल और क्रिकेट खेलने लगे। दौड़, लॉन्ग जंप, हाई जंप और शॉटपुट थ्रो में भी भाग लेते थे। गर्मी की छुट्टियों में शतरंज, सांप-सीढ़ी, लूडो, गुट्टे और कैरम भी हम खूब खेलते थे।
कभी मम्मी ने आना-दो आना दे दिया तो बेर, खट्टा-मीठा चूरण, चना, मूंगफली या चूसने वाली संतरा गोली ले लेते। दिवाली पर हमें पटाखे मिलते और होली पर रंग। दिवाली की अगली सुबह पड़ोसियों को थाली में, रुमाल से ढंक कर, मिठाई और खिल-बताशे देने जाते। आजकल अब वो रिवाज कम हो गया है।
घर के नज़दीक राधाकृष्ण मंदिर था। अंदर राधा और कृष्ण की मनोरम मूर्तियां थीं। शाम के समय हम वहां दर्शन के लिए जाते थे। मंदिर के पुजारी, नित्यानंद जी, अत्यंत मधुर कंठ से, आकर्षक अंदाज़ में आरती करते थे। तत्पश्चात, तांबे के पात्र से चरणामृत और प्रसाद स्वरूप चिरौंजी दाना देते थे। उनके सभी पुत्र हमारे मित्र हो गए। आगे चलकर, उनका छोटा बेटा गोपाल हमारी क्रिकेट टीम का स्टार स्पिनर बना।
हमारे बहुत सारे दोस्त सिक्ख थे। उनके साथ हम यदाकदा गुरुद्वारे जाते थे। शबद-कीर्तन सुनते और कडाह परसाद ग्रहण करते। गुरुपरब पर लंगर के लिए भी जाते थे। स्कूल के पास सेंट थॉमस चर्च था। वहां के पादरी, हॉलैंड से आए फादर बॉक्स थे। बच्चे आते-जाते उन्हें “गुड मॉर्निंग फादर”, “गुड इवनिंग फादर” बोलते। उनके चोंगे की जेब में टॉफी होती थी। जब वो खुश होते थे तो बच्चों को टॉफी बांटते थे।
दशहरे के कुछ दिन पहले, रामलीला शुरू हो जाती थी। हम शाम को ही जाकर अपनी बोरी बिछा आते थे। इस तरह, आगे, मंच के पास हमारी सीट रिज़र्व हो जाती थी। रात को, खाना खाने के बाद, हम रामलीला देखने पहुंचते थे। रामलीला देर रात तक चलती थी। फिर, दशहरे पर रावण दहन का कार्यक्रम देखने जाते थे।
उन दिनों, पूरे जबलपुर में, दुर्गा पूजा बहुत धूमधाम से होती थी। बड़े-बड़े पंडाल लगते और दुर्गा मां की भव्य मूर्तियां स्थापित होतीं। शाम को विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते, जिनमें हमारी विशेष रुचि नायिकर की कॉमेडी और मिमिक्री में होती। हम लोग, पूरे शहर में घूमकर, दुर्गापूजा देखने जाते। इसी तरह, गणेश चतुर्थी का पर्व भी मनाया जाता।
हम शहर से काफी दूर थे। फिर भी, फिल्में देखने, साइकिल चलाकर, जाते थे। दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद हमारे प्रिय कलाकार थे। उन्हीं दिनों, कुछ मित्रों की साहित्यिक रुचि भी विकसित हो रही थी और वे उपलब्ध, उत्कृष्ट लेखकों को पढ़ रहे थे, जिनमें प्रमुख थे इब्ने सफी, वेद प्रकाश कंबोज, ओम प्रकाश शर्मा, गुलशन नंदा, प्रेम वाजपेई और मस्तराम कपूर।
हम कुएं के मेंढक थे। लगता था, पढ़ाई के उपरांत ऑर्डनेंस फैक्टरी या शहर के किसी रक्षा संस्थान में सुपरवाइजर की नौकरी मिल जाए, तो जीवन सफल हो जाए। साइकिल और रेडियो ही स्टेटस सिंबल थे। एक साइकिल परिवार में दादा से लेकर पोते तक काम आती थी। कभी-कभी अनेकों पीढ़ी तक वही साइकिल चलती थी। घरों में सोफा सेट और डाइनिंग टेबल नहीं होते थे। जब भी मन किया, किसी मित्र या रिश्तेदार के घर पहुंच जाते थे। पूर्व सूचना की कोई जरूरत नहीं होती थी।
उस दौरान जो मित्र बने, अब तक उनसे दोस्ती बरकरार है। पढ़ाई में की गई तपस्या, स्कूल और कॉलेज में प्राप्त मार्गदर्शन, और ईश्वर की असीम अनुकम्पा से ज़्यादातर सहपाठी, प्रतिष्ठित संस्थानों से उच्च पद पर सेवानिवृत हुए हैं और एक सुकून भरा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। फिर भी, जब कभी उन दिनों को याद करते हैं तो वो सुनहरा समय बहुत याद आता है। तब हमारे पास कुछ नहीं था लेकिन हमारे भीतर असीम संभावनाएं छिपी हुई थीं। हम भविष्य के प्रति आशावान थे, किसी तरह की शंका या भय हमारे मन में नहीं था, और हम आस्थावान थे।
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे ।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपके – मन पर दोहे… । आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)