हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 19 ☆ व्यंग्य ☆ जम्बूद्वीप के सीधे हाथ की ओर घूम जाने की कथा ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  विचारणीय व्यंग्य  “जम्बूद्वीप के सीधे हाथ की ओर घूम जाने की कथा । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 19 ☆

☆ व्यंग्य – जम्बूद्वीप के सीधे हाथ की ओर घूम जाने की कथा ☆

यह जम्बूद्वीपे भारतखंडे आर्यावर्ते देशांतर्गते कल्याणकारी राज्य के ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ वाली व्यवस्था में बदल जाने की वृहद कथा का अंश है. वैसे तो जंबूद्वीप हजारों वर्ष पुराना राष्ट्र हुआ करता था, परंतु ताज़ा चेतना ईसा के उन्नीस सौ पचास वर्ष बाद आई थी. तब से चार दशक तक व्यवस्था अर्थनीति की बीचवाली राह पर चलती रही, न ज्यादा दांये न ज्यादा बांये. फिर राष्ट्र दांयी ओर मोड़ दिया गया, लगे हाथों प्रजाजन को हिन्दी में समझा दिया गया कि जन-उपयोगी सेवाएँ व्यापार का हिस्सा है और व्यापार करना सरकार का काम नहीं है. प्रजाजनों को अब आत्मनिर्भर हो जाना चाहिये, आगे से उन्हें आधारभूत सुविधाओं के लिए भी शासन के भरोसे नहीं रहना चाहिये.

इसका असर हुआ. बिजली पानी जैसी जरूरतों के लिये भी प्रजाजन शासक वर्ग पर निर्भर नहीं रहे. वे अपने लिये बोरवेल खुदवा लेते, वाटर प्यूरिफायर लगवा लेते, शासन के लिये परेशानी खड़ी नहीं करते थे. बिजली के लिये उन्होने इनवर्टर खरीद रखे थे, बहुतेरों ने डीजल जेनसेट भी लगवा लिये थे. निर्धन प्रजा पानी के टैंकर पर टूट पड़ती, ग्रामीण प्रजा चार किलोमीटर दूर से भर लाती. ढिबरी जलाकर रह लेती मगर शासन के इस निर्णय का सहर्ष अनुपालन करती कि एक सुखी और सम्पन्न राष्ट्र की तमाम जन-सुविधायें निजी हाथों में होनी चाहिये. इसकी कीमतें निजी बाज़ार तय करेगा, शासक इसके लिये दायी नहीं होगा. गाय एक पूजनीय चौपाया हुआ करती थी, प्रजाजन उसी की मानिंद सिर हिला देते. उनके रंभाने को शासन अपनी नीतियों का समर्थन मान लेता.

जंबूद्वीप की सड़कें ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ का परफेक्ट एक्जाम्पल थीं. बलशाली लोग महंगी तेज गति की कार से एक नगर से दूसरे नगर जाते. उससे कम हैसियत के लोग आरामदेह वातानुकूलित कोचों से यात्रा करते. शेष हारून मियां की टंडिरा हो चुकी बसों से आते-जाते. ग्रामीण प्रजा भेड़बकरियों सी लदकर टाटा-मैजिक या टेम्पो में भर कर जाती. राज्य परिवहन निगम की व्यवस्था समाप्त कर गई दी थी. यह कथा कहे जाने तक रेल भी निजी हाथों में देने की तैयारी कर ली जा रही थी. किराये से ज्यादा का टोल चुकाना पड़ता. प्रजाजनों को समझा दिया गया था देखो भैया सड़क बनाना शासन का काम नहीं है, पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप मॉडल में बनेगी तो लागत का आठ-दस गुना टोल तो चुकाना पड़ेगा. इस कालखंड के शासकों का मानना था कि रेल-मोटर चलाना राजकाज के काम का हिस्सा नहीं है. जनसंचार के सारे माध्यम भी प्रजाजनों को यही यकीन दिलाते. तो क्या करती गायें, उन्होने इसमें भी सिर हिलाकर सहमति दे दी.

सरकारी स्कूलों में न छत होती, न पंखे, न ब्लैक बोर्ड न चाक, और तो और शिक्षक भी पक्के नहीं होते. अतिथि शिक्षक होते जो अतिथियों की तरह आते. आते आते नहीं भी आते. तो क्या करते प्रजाजन? वे शिक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गये,  श्रेष्ठीजन लक़दक़ पाँच सितारा स्कूलों में एजुकेशन दिलवाते, ट्यूशन लगवाते, कोटा भिजवाते, टैबलेट पर बायजूस खरीद लेते. शेष प्रजा बच्चों को मोहल्ले के सेंट भंवरलाल कान्वेंट स्कूल में भर्ती कर देती. जो वहाँ तक भी नहीं जा पाते वे चाय की दुकान पर गिलास धोने की नौकरी कर लेते.

प्रजाजन को इलाज के लिये बीमा करवाना पड़ता. वे शासकीय अस्पताल से विमुख हो चुके थे. कारपोरेट अस्पताल में केशलेस कार्ड लेकर घुसते और बीमित राशि के शून्य हो जाने तक भर्ती रहते. जो अफोर्ड नहीं कर पाते वे नीमहकीमों से या बंगाली बाबाओं से शर्तिया इलाज़ कराते. नीति नियंताओं ने स्वयं को हेल्थ सेक्टर के दायित्व से भी मुक्त कर लिया था.

जम्बूद्वीपवासी पत्र भेजने के लिये डाकघर जैसी चीज को विस्मृत कर चुके थे. वे कोरियर सेवा का उपयोग करते जो महंगी होने के साथ साथ बहुत जवाबदेह भी नहीं होती. लाल डिब्बे शहर में ढूँढे से नहीं मिलते. हर कोरियर कंपनी का अपना रेट होता. सो आप जानों और कंपनी जाने. शासन आपकी चिट्ठी सही जगह पर मामूली कीमत में क्यों पहुंचाये ?

शासन ने जन सुरक्षा क्षेत्र में भी अपने को सिकोड़ लिया था और प्रजाजन को आत्मनिर्भर होने का संदेश दे दिया था जिसका अनुपालन करते हुवे जिम्मेदार नागरिक प्राईवेट सिक्यूरिटी गार्ड रख लेते. पुलिस होती थी मगर जिनका डर दूर करने के लिये उसे बनाया गया वे ही उससे सबसे ज्यादा डरते. सामान्य श्रेणी के नागरिकों को ए स्तर की सुरक्षा नहीं मिल पाती, रसूखदार लोग ज़ेड केटेगरी की सुरक्षा ले उड़ते.

पूर्व चक्रवर्ती सम्राट अशोक के शासन पर जम्बूद्वीप के वर्तमान शासक जितना गर्व करते उसके कल्याणकारी मॉडल से उतनी ही दूरी बनाकर चलते. आवारा शब्द पूंजी के पहले जुड़ा हो तो उसे सम्मान के साथ बरता जाता था. आर्थिक समानता और सामाजिक समरसता बीते युग की अवधारणा हो चली थी. जिस नागरिक की जितनी हैसियत रही वो उतना आत्मनिर्भर होता रहा. जो आत्मनिर्भर हो पाने में असमर्थ रहता वो आत्महत्या  कर लेता. शासक को दांयी ओर चलना हो तो तो पीठ पर से बिजली, पानी, लोक परिवहन, संचार, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा जैसे बैगेजेस झटककर फेंकने ही पड़ते. कथासार ये कि जम्बूद्वीपे भारतखंडे आर्यावर्ते देशांतर्गते राजाधिराज अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठानों उपक्रमों को निजी क्षेत्र को सौंप कर कल्याणकारी राज्य होने के दायित्व से मुक्त होने की दिशा में द्रुत गति से चलने लगे. निर्बल निर्धन असहाय विवश नागरिक पीछे छूटते रहे, उनकी शेषकथा फिर कभी.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 41 – फूल ये अपराजिता के… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “फूल ये अपराजिता के … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 41 ।। अभिनव गीत ।।

☆ फूल ये अपराजिता के…  ☆

फूल ये अपराजिता के

आ गिरें ज्यों अश्रु

टूटी खाट पर,बूढ़े पिता के

 

बहुत गहरे और

नीले प्रश्न गोया

शाम के कुहरिल

प्रहर मैं कृष्ण हों, या

 

अडिग निष्ठावान

जैसे प्रेम में हों

दिल्ली -पति

संयोगिता के

 

समय की ताजा

इन्हीं पगडंडियों के

आढ़ती बैठे हुये

मंडियों के

 

मोल-भावों में पड़ा

सौन्दर्य सोचे

हो गये सामान हम

प्रतियोगिता के

 

नील से उतरी

लगी सम्भाविता के

आँख की कोरों

हृदय से गर्विता के

 

हाथ में सूखे हुये

रख कर निवाले,

लगा दिन भर की

खुशी, हों वंचिता के

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

02-12-2-20

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 87 ☆ व्यंग्य – टूटी टांग और चुनाव ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। आज प्रस्तुत है आपका एक समसामयिक विषय पर आधारित व्यंग्य टूटी टांग और चुनाव। )  

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 87

☆ व्यंग्य – टूटी टांग और चुनाव ☆

इधर टांग क्या टूटी, सियासत गरमा गई। चुनावी चालें पलटी मार गईं। इतने दिन की मेहनत धरी रह गई। टांग ने सहानुभूति लहर पैदा कर परिवर्तन यात्राओं का बंटाधार कर दिया। चुनाव के समय एक हजार पुराने शिव मंदिर के नंदी महाराज नाराज हो गए। नाराजगी स्वाभाविक है, जय श्रीराम को जय सियाराम क्यों बोला। जय श्रीराम और जय सियाराम के नारे का झगड़ा है। चुनाव के समय नारों का बड़ा महत्व है, चुनाव के समय जितना घातक नारा लगेगा,वोटर पर उतना ज्यादा असर करेगा। राम का नाम चुनाव में बड़े काम का है, सामने वाले का काम तमाम कर ‘राम राम सत्य’ कर देता है। वैसे तो चुनाव के समय हर चीज का बड़ा महत्व है, बिकने वाले नेता तैयार बैठे रहते हैं, धजी का सांप बताने वाले खूब पैदा हो जाते हैं। पुराने देवी देवता जाग जाते हैं,परचा दाखिल करने के पहले पुराने देवी देवताओं की खूब पूछ परख होने लगती है, हनुमान जी को बड़ा माला पहनने का सुख मिल जाता है, फोटो-ओटो भी खिंच जाती है। चुनाव के समय दाढ़ी वालों की बाढ़ आ जाती है, कुछ लोग चुनाव में व्यस्तता दिखाने दाढ़ी बढ़ा लेते हैं, कुछ दाढ़ी कटा लेते हैं। चुनाव के समय पुलिस वालों के डण्डे ज्यादा तेल पीने लगते हैं, भीड़ बढ़ाने के हथकंडे अपनाए जाते हैं,बस और ट्रेन से लोगों को लोभ देकर लाया जाता है। शक्ति परीक्षण के लिए भीड़ सबसे अच्छा पेरामीटर होता है,पर बीच में अचानक ये टांग दिक्कत दे देगी, किसी ने भी सोचा न था।

चुनाव के समय सभी बड़े चैनल वाले चिल्लाने और मुंह चलाने वाली एंकरों को ज्यादा पसंद करते हैं। चुनाव के समय कुछ सेलीब्रिटी मुंह उठाए बैठे रहते हैं कि पार्टी में अचानक घुसने मिल जाएगा और मुफ्त में गृहमंत्रालय उन्हें वाई प्लस,जेड प्लस केटेगरी की सुरक्षा मुहैया करा देगा। टांग टूटने से व्हील चेयर चर्चा में आ जाती है,चेयर ढकेलने वाले और गोदी उठाने वालों के रुतबे बढ़ जाते हैं। हर नेता घायल होने के सपने देखने लगता है।आरोप-प्रत्यारोप, विरोध प्रदर्शन और टकराव के ठेके देने का काम पीक पर रहता है। समर्थकों को जगाने के लिए जानबूझकर शान्ति बनाए रखने की अपील जारी कर दी जाती है जिससे तैयारी अच्छी हो जाती है। शान्ति रखने की बयानबाजी से शान्ति और हिंसा के बीच कबड्डी मैदान बनाने का संकेत हो जाता है। माहौल में टूटी टांग की कीमत बढ़ जाती है,वोट प्रतिशत बढ़ने की खुशफहमी का प्लास्टर मीडिया की टीआरपी बढ़ाने के काम आता है, चैनलों में विज्ञापनों की बौछार लग जाती है। टूटी टांग और चुनाव की चर्चा से बाजार गुलजार हो जाता है, चर्चा में टूटी टांग और जनतंत्र का भावी रूप प्रगट होने लगता है, खबर पूरी दुनिया में फैल जाती है, आह और वाह के बीच नाज और नखरे वाले बयान आग में घी डालने का काम करने लगते हैं। अचानक काले कपड़े की बिक्री बढ़ जाती है, काले कपड़े से मुंह ढककर काले झंडे लिए सड़कें भर जातीं हैं। कुल मिलाकर चुनाव के समय सब कुछ जायज है, कोई भरोसा नहीं कौन सा नारा या शब्द चुनाव में कितना मार कर जाए , पिछले बार के चुनाव में ‘चौकीदार’ शब्द विपक्ष को दिक्कत देकर  खूब वोट बटोर लाया था, इस बार टूटी टांग का जलवा देखने लायक रहेगा क्योंकि चुनाव के समय टूटी टांग और व्हील चेयर जनता के मन में ‘ममता’ पैदा कर सकते हैं।

चुनाव के समय टांग टूटने से चुनाव लड़ने वाले का अलग व्यक्तित्व हो जाता है, लोगों का ध्यान बंट जाता है, सब टूटी टांग और प्लास्टर देखकर द्रवित हो जाते हैं, ऐसे समय टूटी टांग राष्ट्रीय महत्व की चीज हो जाती है, टूटी टांग चुनाव प्रचार में राष्ट्रीय मुद्दा बनकर उछल  पड़ती है। मीडिया चैनलों और सोशल मीडिया में टूटी टांग का कब्जा हो जाता है। टूटी टांग चुनाव के समय असली देशभक्ति जगाने में काम आती है, दर्द सहते हुए जनता के दुख दर्द की चिंता करने से चुनाव और वोटर के प्रति समर्पण दिखता है, बुद्धजीवी और शरीफ लोग इसे ‘परफेक्ट कमिटमेंट’ मानते हैं। ऐन वक्त कुछ लोग टांग टूटने को मजाक बना लेते हैं, कोई कहता है टांग नहीं टूटी, लिगामेंट टूटे हैं, कुछ लोग कहने लगते हैं कि यदि लिगामेंट टूटे हैं और दर्द भी है प्लास्टर लगा है तो बिस्तर में आराम क्यूं नहीं करते, व्हील चेयर में चुनाव प्रचार की धमकी क्यों देते हैं।

व्हील चेयर पर चुनाव प्रचार की धमकी से एक पार्टी घबरा गई है, उसने आरोप लगा दिया है कि टांग के बहाने फायदा उठाने की राजनीति की जा रही है,  राजनैतिक उथल-पुथल में टूटी टांग का अलग इतिहास रहा है, एक बार लालू की राजनीति सफाचट्ट होने के बाद लालू जी की अपनी टांग टूट गई थी, प्लास्टर लगा सिम्पेथी बटोरने की कोशिश की थी,पर शरद और नितीश ने बिल्कुल लिफ्ट नहीं दी थी तो लालू ने नयी पार्टी बना ली थी, चुनाव प्रचार में घोषणाएं होती हैं, भविष्यवाणी होती है, टांग टूटने के दो दिन पहले यदि किसी ने अपने भाषण में चोट लगने की भविष्यवाणी कर दी थी तो उनको अपनी टांग संभाल के रखनी थी, जो अपनी टांग नहीं संभाल सकता वो देश और प्रदेश की जनता की टांग की रखवाली कैसे कर सकता है। चुनाव के समय टांग पर राजनीति करना ठीक नहीं है, जनता परिवर्तन चाहती है, टूटी टांग विकास के रास्ते में बाधा उत्पन्न कर सकती है। बड़े लोगों की टांग यदि टूट भी जाती है तो अपनी टूटी टांग का प्रचार नहीं करते, परसाई जी अपनी टूटी टांग छुपा कर रखते थे, पर चुनाव के समय उनकी टूटी टांग पर पार्टी वाले राजनीति करने पर उतारू हो गए थे, चुनाव के समय उनकी टूटी टांग की बोली लगाने में नेता लोग चूके नहीं थे। चुनाव के समय एक दो पार्टी वाले उनकी टूटी टांग का जायजा लेने पहुंच जाते थे। एक पार्टी के लोगों ने प्रार्थना करते हुए उनसे कहा था कि ये एक ऐतिहासिक चुनाव है, और आपकी टूटी टांग इस चुनाव में बड़ा बदलाव ला सकती है, तानाशाही और जनतंत्र में संघर्ष है, सरकार ने नागरिक अधिकार छीन लिए हैं, वाणी की स्वतंत्रता छीन ली है, हजारों नागरिकों को बेकसूर जेल में डाल दिया गया है, न्यायपालिका के अधिकार नष्ट किए जा रहे हैं, हमारी पार्टी इस तानाशाही को ख़त्म करके जनतंत्र की पुनः स्थापना करने के लिए चुनाव लड़ रही है, इस पवित्र कार्य में आपकी टूटी टांग हमारी मदद कर सकती है, परसाई जी ने स्वार्थी, मौकापरस्त नेताओं को अपनी टांग नहीं दी, साफ मना कर दिया था। इस बार जिनकी टांग टूटी है उनकी टांग मीडिया में छा गई है, सहानुभूति की लहर दिनों दिन आंधी में तब्दील हो रही है ऐसे समय यदि उत्साह में टूटी टांग लंगड़ाते हुए मंच में चलती दिख गई तो सामने वाली पार्टी का बंटाधार होना तय है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #34 ☆ डर ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है महिला दिवस पर सार्थक एवं अतिसुन्दर भावप्रवण कविता “डर ”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 34 ☆

☆ डर ☆ 

वो कुछ कहना चाहता है

उसके अंदर का

काव्य का सागर

बहना चाहता है

उसके पास शब्दों कीं

कमी नहीं है

उसकी सृजन क्षमता

थमी नहीं है

उसके सीने में

अंगारों की तपिश है

उसके चेहरे पर

अनोखी कशिश है

उसकी आंखों में

दर्द भरा तूफान है

उसकी कांपती पलकों में

भयभीत इन्सान है

उसकी जिव्हा पर

नये तराने है

उसके होंठों पर

मुक्ति के फसाने है

वो जानता है-

वो बोलेगा तो

कहीं ना कहीं

ज्वालामुखी फूट पड़ेगा

उबलता हुआ लावा

शायद

नया इतिहास गढ़ेगा

फिर- सामंतवादी लोग

उसकी रचनाओं को जलायेंगे

उसके उपर निराधार

आरोप लगायेंगे

इसलिए-

वो कुछ लिखने से

वो कुछ कहने से

डरता है

सच्चा कलमकार

होकर भी

एकांतवास में

गुमसुम रहता है

वो आजकल डरकर

बस

चुप है,

चुप है

और

चुप है.

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ ‘जाणिवा’.. मनाच्या मार्गदर्शिका! ☆ श्री अरविंद लिमये

श्री अरविंद लिमये

☆ विविधा ☆ ‘जाणिवा’.. मनाच्या मार्गदर्शिका! ☆ श्री अरविंद लिमये ☆ 

विविध अनुभवांनी मनाला केलेल्या स्पर्शातूनच निर्माण होत असतात जाणिवा. विचार म्हणजे जाणिवा नव्हेत.विचारांची ये जा सुरुच असते अखंड, अव्याहत मनात. विचार कधीकधी आले तसे निघून जाणारे नसतातही. कांही रेंगाळतही रहातात. कांही ठाण मांडून बसणारे असतात. कांही रुतणारे, सलणारेही असतात काट्यांसारखे. अशा विचारांना अलगद काढून दूर भिरकावत असतात त्या जाणिवाच. त्या विचारांना शिस्त लावतात. योग्य दिशा देतात आणि अयोग्य विचारांना अटकावही करतात. मनाला योग्य विचारांचा मार्ग दाखविणाऱ्या मार्गदर्शिकाच असतात त्या मनाच्या..!

जाणिवा म्हणजे भावना नव्हेत. भावनांना लगडलेली भावफुले असतात जाणिवा आणि त्या फुलांमधले मधुघट परागकणही..!

जाणिवा अनेकरंगी असतात. त्या ‘जबाबदारीच्या’ असतात.’कर्तव्याच्या’असतात. कृतज्ञतेने भारलेल्या जशा, तशाच जगणं कृतार्थ करणाऱ्या असतात जाणिवाच!

नेणिवेतल्या गूढ अंधारकणांना प्रकाशाचा स्पर्श करतात जाणिवा. योग्य अयोग्याचा सद् असत् विवेक जागवतात जाणिवाच.

त्या तीव्र असतात तेव्हाच आपण जबाबदारीने वागतो, कर्तव्याचे महत्त्वही जाणतो. समाजाकडून या ना रुपात कांहीतरी घेत असणाऱ्या आपल्याला समाजाला आपण लागत असलेल्या देण्याची आठवण करुन देत असतात त्या या जाणिवाच.जाणिवा अलगद जागत्या ठेवणाऱ्यांचं आयुष्य कृतार्थ तर होतंच आणि तेच आनंददायीही होत रहातात इतरांसाठीही. ज्यांच्या जाणिवा अशा प्रगल्भ नसतात ते मात्र जगत रहातात स्वत:पुरतंच फक्त स्वतःसाठी. प्रकाशाचा स्पर्शच न झालेलं त्यांचं एकेरी जगणं ओझंच बनून रहातं त्यांच्या स्वतःच्याच शिरावरचं. जाणिवा अलगद जाणिवपूर्वक जपायला हव्यात ते यासाठीच. कारण क्षणभर थांबून स्वतःचा मार्ग योग्य दिशेचा आहे ना हे पहायला प्रवृत्त करीत असतात त्या निगुतीने जपलेल्या या मनाच्या मार्गदर्शिकाच..!!

 

© श्री अरविंद लिमये 

सांगली

९७२३७३८२८८

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 18 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

☆ मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 18 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆

सौ.अंजली गोखले 

(पूर्ण अंध असूनही अतिशय उत्साही. साहित्य लेखन तिच्या सांगण्यावरून लिखीत स्वरूपात सौ.अंजली गोखले यांनी ई-अभिव्यक्ती साठी सादर केले आहे.)

नवरत्न परिवारामध्ये माझा प्रवेश झाल्यापासून नृत्याबरोबर माझी साहित्याची आवड दिवसेंदिवस वाढत गेली. फोफावत गेली. आम्हा मैत्रिणींचा काव्य कट्टा अधून मधून रंगतदार होत असल्यामुळे, मला ही आपोआप काव्य स्फुरायला लागले.

असं म्हंटल जात – संगती संगे दोषा. माझ्याबाबतीत मात्र” संगती संगे काव्य”असे घडत गेले. आणि नकळत छान छान कविता मला सुचत गेल्या. त्यामध्ये विशेष करून आमच्यातील सौ जेरे मावशी (वय वर्षे ७७) यांनी मला खूप मार्गदर्शन केले.

माझी पहिली कविता”मानसपूजा”,मी विठ्ठलाची संपूर्ण षोडशोपचार पूजा काव्यामध्ये गुंफली. कोजागिरी पौर्णिमा ते कार्तिकी पौर्णिमा मी आईबरोबर घराजवळील विठोबा देवळामध्ये पहाटे पाच वाजता काकड आरती ला जात होते.तिथले अभंग,आरत्या दिवसभर माझ्या मनामध्ये रेंगाळत रहात आणि त्यातूनच मला हे काव्य स्फुरत गेले.

एकामागून एक प्रसंगानुरूप अनेक कविता लिहिल्या गेल्या.मी मनामध्ये कविता रचून लक्षात ठेवत असे आणि सवडीनुसार फोनवरून गोखले काकूंना सांगत असे.आमची फोनची दुपारी तीनची वेळ ठरलेली होती.मी माझ्या घरा मधून फोन वरून कविता सांगत असे आणि त्या कागदावर उतरवून घेत असत.माझी फोनची घंटा वाजायचा अवकाश,पेन आणि कागद घेऊन त्या तयारच असत. अशा अनेक कविता झरझर कागदावर उतरत गेल्या. माझ्या मनाला आणि मेंदूला एक खाद्य मिळत गेलं आणि मन आणि मेंदू सतत कार्यरत राहिले.

माझा विजय मामा हिमालय दर्शन करून आला होता.त्याने मला आणि आईला प्रवासाचे संपूर्ण रसभरीत वर्णन ऐकवले.ते मला इतके भावले की माझ्या मनामध्ये ठसले आणि मेंदूमधून काव्य रचना अशी ओघवती होत गेली की साक्षात हिमालय माझ्या नसलेल्या डोळ्यापुढे उभा राहिला आणि ती कविता तयार झाली.जी सगळ्यांना खूपच आवडली.

अशा प्रसंगानुरुप आणि कविता बनत गेल्या इथून पुढे मी तुमच्यासमोर सादर करणार आहे.

…. क्रमशः

© सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 90 ☆ व्यंग्य – संपादक के नाम चन्द ख़ुतूत ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘संपादक के नाम चन्द ख़ुतूत‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 90 ☆

☆ व्यंग्य – संपादक के नाम चन्द ख़ुतूत

[1]

श्रद्धेय संपादक जी,

सप्रेम नमस्कार।

आज आपकी पत्रिका का नया अंक देखा। देख कर चित्त प्रसन्न हो गया। मुझे पता नहीं था कि हमारे देश में इतनी बढ़िया पत्रिका निकल रही है। कवर बहुत सुन्दर बन पड़ा है। भीतर की सामग्री की जितनी तारीफ की जाए, कम है। कविताएं, कहानियाँ,निबंध, सब एक से बढ़कर एक हैं। पत्रिका आपकी योग्यता और सूझबूझ का जीता-जागता प्रमाण है। आपकी देख-रेख में पत्रिका दिन-दूनी रात-चौगुनी उन्नति करेगी इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं। आपकी विद्वत्ता के बारे में बहुत सुना था, अब प्रत्यक्ष देख लिया।
एक परिचर्चा ‘साली, आधी घरवाली’ सेवा में भेज रहा हूँ। इसे पत्रिका में स्थान देकर अनुगृहीत करें। इसमें भाग लेने वाले सभी लोग मेरे नगर के बुद्धिजीवी हैं। आप पायेंगे कि परिचर्चा अत्यन्त मनोरंजक और समसामयिक है। इससे पहले ‘ससुराल की पहली होली’ पर मेरी एक परिचर्चा एक स्थानीय पत्र में छपी थी जो अत्यधिक सराही गयी थी और जिसकी नगर के कोने कोने में चर्चा हुई।

परिचर्चा में भाग लेने वालों के फोटो और मेरा फोटो जरूर छापें। फोटो संलग्न हैं।

आपका

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[2]

श्रद्धेय संपादक जी,

सप्रेम नमस्कार।

आपके पत्र के साथ मेरी परिचर्चा वापस मिली। आपने लिखा है कि परिचर्चा घटिया है। पुनर्विचार और आत्ममंथन के बाद मुझे भी लगा कि परिचर्चा का विषय पर्याप्त स्तरीय नहीं है। मैं आपके विचार से सहमत हूँ।

एक दूसरी परिचर्चा भेज रहा हूँ जिसका विषय है ‘पिया बसे परदेस, कैसे मिटे कलेस’। यह परिचर्चा बिलकुल मौलिक और अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें अपने पतियों से विलग रहने वाली पत्नियों की व्यथा को खोल कर रख दिया गया है। अभी तक किसी परिचर्चाकार ने इस विषय को नहीं उठाया। इस परिचर्चा के आयोजन में मुझे जो श्रम और समय देना पड़ा है वह कहने की बात नहीं है। मुझे विश्वास है कि यह परिचर्चा आपकी पत्रिका के स्तर में चार चाँद लगा देगी।

भाग लेने वालों के फोटो और मेरा फोटो जरूर छापें। फोटो संलग्न हैं।

आपका।

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[3]

संपादक जी.

सप्रेम नमस्कार।

दूसरी परिचर्चा भी वापस मिली। आपको यह परिचर्चा भी घटिया लगी, यह पढ़कर दुख हुआ, लेकिन आपका निर्णय सिर-आँखों पर। आपने ठीक लिखा है कि इस परिचर्चा में भाग लेने वाले भी वही लोग हैं जो पहली परिचर्चा में थे। दरअसल मैंने इन बुद्धिजीवियों को दूसरी परिचर्चा के लिए भी पूर्णतया उपयुक्त पाया। इसमें किसी तरह का जोड़-तोड़ नहीं है।

आपका यह अनुमान सही है कि परिचर्चा में भाग लेने वाली कोकिला देवी मेरी धर्मपत्नी हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं एक विदुषी का पति हूँ जो साहित्य और कला की मर्मज्ञ हैं। कोकिला देवी सिर्फ मेरी पत्नी नहीं, मेरी सचिव और सहायक भी हैं। उनके सहयोग से ही मेरी साहित्य-साधना सुचारु रूप से चल रही है।

मुझे लगता है आपकी रुचि परिचर्चाओं में नहीं है, इसलिए इस बार एक मौलिक और मार्मिक कहानी ‘जिगर का धुआँ’ भेज रहा हूँ। आप पायेंगे कि इस कहानी में प्रेम का एक बिलकुल नया कोण खोजा गया है जो आपको संसार की किसी प्रेम-कथा में नहीं मिलेगा। मेरा एक दोस्त इस कहानी को सुनकर दो दिन तक रोता रहा। मेरी पत्नी का विचार है कि इस कहानी की गणना संसार की श्रेष्ठतम प्रेम-कहानियों में होगी, लेकिन मैं एक अत्यन्त विनम्र व्यक्ति हूँ। मैं इस कहानी के संबंध में निर्णय आपके ऊपर छोड़ता हूँ।

फोटो संलग्न है।

आपका

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[4]

संपादक जी,

आज की डाक से कहानी वापस मिल गयी। हृदय अत्यन्त दुखी हुआ। अब मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए विवश हूँ कि आपकी पत्रिका भाई-भतीजावाद और ठकुरसुहाती के आधार पर चलती है। जमाना ही ऐसा है, तो भला आप कैसे इन प्रवृत्तियों से मुक्त रहेंगे?

मैं इस दुखद निष्कर्ष पर भी पहुँचा हूँ कि आप में रचना के गुणों को परखने की पर्याप्त क्षमता नहीं है। आखिर हीरे को जौहरी ही परख सकता है, और हर आदमी जौहरी नहीं हो सकता। मैंने आपके पास अत्यन्त महत्वपूर्ण परिचर्चाएं और बढ़िया कहानी भेजी, लेकिन आप उनके गुणों को ग्रहण करने में असमर्थ रहे।
मुझे यह भी शक है कि मेरे कुछ साहित्यिक शत्रुओं ने भितरघात करके आपको मेरे विरुद्ध बरगलाया है और मेरी उज्ज्वल छवि को धूमिल करने का प्रयास किया है। नगर में मुझसे ईर्ष्या करने वालों की कमी नहीं है।

बहरहाल, अब मेरा आपकी पत्रिका को सहयोग देने का कोई इरादा नहीं है। आपकी पत्रिका से ज्यादा अच्छी पत्रिकाएं हैं और आपसे ज्यादा समझदार संपादक भी, जहाँ मेरी रचनाओं की सही कद्र होगी।

नमस्कार।

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[5]

श्रद्धेय संपादक जी,

सप्रेम नमस्कार।

लगभग तीन माह पूर्व मेरा पत्र आपको मिला होगा। उस वक्त कुछ घरेलू परिस्थितियों के कारण विचलित होकर कुछ ऊटपटाँग लिख गया था। उसे अन्यथा न लें। बाद में मुझे दुख हुआ कि मैं असावधानी में कुछ अप्रिय बातें लिख गया था। आशा है आप मेरी परिस्थिति को समझ कर मेरी बातों का बुरा न मानेंगे और पहले की तरह स्नेह-संबंध बनाये रखेंगे। मैं जानता हूँ कि आप सुयोग्य संपादक हैं और आपकी पत्रिका निष्पक्ष और उच्च स्तर की है।

एक कहानी ‘दिल की दरार’ सेवा में भेज रहा हूँ। मेरे हिसाब से कहानी प्रथम श्रेणी की है। यह पहली कहानी होगी जिसमें नायक हवाई जहाज से कूद कर आत्महत्या करता है। इस दृष्टि से कहानी बिलकुल मौलिक और आधुनिक है। लेकिन आप खुद समझदार हैं, इसलिए ज्यादा कुछ कहना उचित नहीं समझता।

फोटो संलग्न है।

आपका

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 89 ☆ शून्योत्सव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 89 ☆ शून्योत्सव ☆ 

शून्य उत्सव है। वस्तुतः महोत्सव है। शून्य में आशंका देखते हो, सो आतंकित होते हो। शून्य में संभावना देखोगे तो प्रफुल्लित होगे। शून्य एक पड़ाव है आत्मनिरीक्षण के लिए। शून्य अंतिम नहीं है। वैसे प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं होता। जीवन, पृथ्वी सब चक्राकार हैं। प्रकृति भी वृत्ताकार है। हर बिंदु परिधि की इकाई है और हर बिंदु में नई परिधि के प्रसव की क्षमता के चलते केंद्र बनने की संभावना है।

यों गणित में भी शून्य अंतिम नहीं होता। वह संख्याशास्त्र का संतुलन है। शून्य से पहले माइनस है। माइनस में भी उतना ही अनंत विद्यमान है, जितना प्लस में। शून्य पर जल हिम हो जाता है। हिम होने का अर्थ है, अपनी सारी ऊर्जा को संचित कर काल,पात्र,परिस्थिति अनुरूप दिशा की आवश्यकतानुसार प्रवहमान होना। शून्य से दाईं ओर चलने पर हिम का विगलन होकर जल हो जाता है। पारा बढ़ता जाता है। सौ डिग्री पारा होते- होते पानी खौलने लगता है। बाईं ओर की यात्रा में पारा जमने लगता है। एक हद तक के बाद हिमखंड या ग्लेशियर बनने लगते हैं। हमें दोनों चाहिएँ-खौलता पानी और ग्लेशियर भी। इसके लिए शून्य होना अनिवार्य है।

अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी। शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाएँ।….शून्य आदि है, शून्य इति है। मैं अपने अपने शून्य का रसपान कर रहा हूँ। शून्य में शून्य उँड़ेल रहा हूँ , शून्य से शून्य उलीच रहा हूँ,। ..शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य में विलाप सुननेवाले नादान हैं। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए अपने कानों को ट्यून करना होगा। करो ट्यून, बनो शून्य।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 45 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 45 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 45) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 45☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

सच को तमीज ही

नहीं बात करने की,

झूठ  को  तो  देखो

कितना मीठा बोलता है…

 

Truth  doesn’t  even

have the manner to talk

Just look at the  lie,

how sweetly it talks…

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

हम तो फूलों की तरह,

अपनी आदत से बेबस हैं

तोड़ने वाले को भी,

खुशबू की सजा देते हैं…

 

Helpless with the habit,

Like the flowers, I even

penalise the pluckers

With the fragrance only…!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

अगर दर्द ने मज़बूत, तो

डर ने बहादुर बना दिया

बार-बार  दिल  टूटने से

अड़चनें सारी जाती रहीं…

 

If the pains made me strong

Then  fear  turned me brave,

Repeated  heartbreaks  just

removed all the impediments

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

शुक्र कर ये दिल तेरे

लिए सिर्फ धड़कता है

गर बोलने लगता तो

क़यामत ही आ जाती…

 

Thankfully, this heart

Just only beats for you

If only it could speak,

Doomsday would come

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 46 ☆ मुक्तिका ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘मुक्तिका’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 46 ☆ 

☆ मुक्तिका ☆ 

 

अर्णव-अरुण का सम्मिलन

जिस पल हुआ वह खास है

 

श्री वास्तव में है वहीं

जहँ हर हृदय में हुलास है

 

श्रद्धा जगत जननी उमा

शंकारि शिव विश्वास है

 

सद्भाव सलिला है सुखद

मालिन्य बस संत्रास है

 

मिल गैर से गंभीर रह

अपनत्व में परिहास है

 

मिथिलेश तन नृप हो भले

मन जनक तो वनवास है

 

मीरा मनन राधा जतन

कान्हा सुकर्म प्रयास है

***

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२६-३-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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