English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 42 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 42 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 42) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 42☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

आँधियाँ  हसरत भरी, कोशिश कर

सर पटक कर रह गईं…

मगर बच गए वो पेड़ जिनमें

हुनर था झुकने का…

 

Storms kept trying fiercely,

Only to fail repeatedly; but…

The trees  having skills  of

Bowing low survived merrily!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

सुना है आज समंदर को

बड़ा  गुमान  आया  है

उधर ही ले चलो कश्ती

जहां तूफान आया है…

 

Heard  that  the  sea  is

feeling too boisterous today

Take the boat there only

where the storm is raging…!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

नींद चुराने वाले पूछते हैं

आप सोते क्यों नहीं,

गर इतनी ही फिक्र है तो फिर

वो हमारे होते क्यों नहीं…

 

Sleep-stealer asks me

Why  don’t  you  sleep…

If  he is  so much concerned,

Why doesn’t he become mine

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

हवाएँ  आज  शायद…

हड़ताल  पर  हैं

आज  तुम्हारी

खुशबू नहीं  आई…

 

Probably, breeze is on

strike today since, your

fragrance  didn’t  envelop

the  environs  today…

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 43 ☆ द्विपदियाँ (अश’आर) ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘द्विपदियाँ (अश’आर).’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 43 ☆ 

☆ द्विपदियाँ (अश’आर) ☆ 

*

आँख आँख से मिलाकर, आँख आँख में डूबती।

पानी पानी है मुई, आँख रह गई देखती।।

*

एड्स पीड़ित को मिलें एड्स, वो हारे न कभी।

मेरे मौला! मुझे सामर्थ्य, तनिक सी दे दे।।

*

बहा है पर्वतों से सागरों तक आप ‘सलिल’।

समय दे रोक बहावों को, ये गवारा ही नहीं।।

*

आ काश! कि  आकाश साथ-साथ देखकर।

संजीव तनिक हो सके, ‘सलिल’ के साथ तू।।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 74 – प्रेम तेरे कितने रूप – कितने रंग ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष शोधपूर्णआलेख  “प्रेम तेरे कितने रूप  -कितने रंग। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य#74 ☆ प्रेम तेरे कितने रूप – कितने रंग ☆

यदि प्रेम शब्द की व्याकरणीय संरचना पर ध्यान दें, तो यह ढाई आखर (अक्षरों) का मेल दीखता है। जो साधारण सा होते हुए भी असाधारण अर्थ तथा मानवीय गुणों का भंडार सहेजे हुए हैं। इसके इसी गुण के चलते कर्मयोगी आत्मज्ञानी कबीर साहब ने जन समुदाय को चुनौती देते हुए ढाई आखर में समाये विस्तार को पढ़ने तथा समझने की बात कही है।

उनका साफ साफ मानना है कि पोथी पढ़ने से कोई पंडित (ज्ञानी) नहीं होता, जिसने प्रेम का रूप रंग ढंग समझ लिया वही ज्ञानी हो गया।

पोथी पढि पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।

लेकिन अध्ययन के दौरान हमने प्रेम के अनेक रूप रंग तथा गुण अवगुण भी देखे। भक्ति कालीन अनेक संतों महात्माओं ने प्रेम विषयक अपनी-अपनी अनुभूतियों से लोगों को समय समय पर अवगत कराया है जैसे

किसी अज्ञात रचनाकार अपने शब्दों  में प्रेम कि उत्पति तथा पाने का रास्ता बताने हुए पूर्ण समर्पण की बात करते हुए कहते हैं कि –

प्रेम माटी उपजै प्रेम न हाट बिकाय।

जाको जाको चाहिए, शीष देय लइ जाय।।

कबीर साहब भी कहते हैं कि-

 कबिरा हरि घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।

सीस उतारै हाथ लै, सो पइठै छिन माहि।।

तो वहीं पर कबीर साहब के समकालीन कवि कृष्ण भक्त रहीमदास जी प्रेम में दिखावे की मनाही करते हुए कहते हैं कि –

ऐसी प्रीति न कीजिए, जस खीरा ने कीन।

उपर से तो दिल मिला, भीतर फांकें तीन।।

लेकिन, कृष्ण भक्त मीरा के अनुभव में प्रेम की अनुभूति उलट दिखाई देती है तथा  कृष्ण से किये प्रेम की अंतिम परिणति अपने समाज द्वारा मिली घृणा नफरत तथा हिंसा के चलते दुखद स्मृतियों की कहानी बन कर रह जाती है। उनके अंतर्मन की वेदना उनकी रचनाओं में दिख ही जाती है और प्रेम करने से ही लोगों को मना करते हुए कह देती है।

जौ मैं इतना जानती, प्रीत किए दुख होय।

नगर ढिंढोरा पीटती, प्रीत न करियो कोय।।

प्रेम में मिलन जहां सुख की चरम अनुभूति कराता है वहीं बिछोह का दुखद अनुभव भी देता है। तभी कविवर सूरदास जी प्रेम के भावों की दुखद अनुभूति का वर्णन करते हुए ऊधव  गोपी संवाद मैं उलाहना भरे अंदाज में मधुवन को वियोगाग्नि में जलने की बात कहते हुए अपने मन की अंतर्व्यथा प्रकट करते हुए गोपियां कहती हैं कि –

मधुबन तुम क्यौं रहत हरे ।

बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौ न जरे ।

वहीं कबीर मिलन के पलों को यादगार बनाने के लिए अपनी रचना में पिउ के मिलन के अवसर पर पड़ोसी स्त्रियो से मंगलगान करने का अनुरोध करते हुए कहते हैं कि-

दुलहनी गावहु मंगलचार, हम घरि आए हो राजा राम भरतार।

तो वहीं पर बाबा फरीद (हजरत ख्वाजा फरीद्दुद्दीन) अंत समय में शारीरिक गति को देखते हुए कह उठते है कि हे काग तुम मृत्यु के पश्चात सारा शरीर नोच कर खा जाना लेकिन इन आंखों को छोड़ देना कि प्राण निकल जाने के बाद भी इन आंखों में मिलन की आस बाक़ी है।

कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस।

दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।

प्रेम में उम्मीद पालने का ऐसा उत्कृष्ट उदाहरण और कहां मिलेगा। आज भी प्रेम प्रसंगों के चलते हत्या, आत्महत्या, नफ़रत की विद्रूपताओं के रूप के  दीखता है वहीं प्रेम का दूसरा सकारात्मक पहलू भी दीखता है जिसमें दया करूणा प्रेम सहानुभूति जैसे भाव भी दृष्टि गोचर होते हैं तथा किसी कवि ने यहां तक कह दिया कि  ईश्वर भी प्रेम में विवस हो जाता है-

प्रबल प्रेम के पाले पडकर, हरि को नियम बदलते देखा।

खुद का मान भले टल जाये, पर भक्त का मान न टलते देखा।

वहीं प्रेम की गहन अनुभूति पशु पंछियों तथा अन्य सामाजिक प्राणियों को भी सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए विवश करती है। तभी तो इस आलेख के लेखक अपने प्रेम विषयक अनुभव को गौरैया के जीवन दर्शन में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि—-

नहीं प्रेम की कीमत कोई, और नही कुछ पाना।

अपना सब कुछ लुटा लुटा कर, इस जग से है जाना।

प्रेम में जीना प्रेम में मरना, प्रेम में ही मिट जाना।

ढाई आखर प्रेम का मतलब, गौरैया से जाना।।

अर्थात्- प्रेम  अनमोल है इसे दाम देकर खरीदा नहीं जा सकता। इसमें कुछ पाने की चाहत  नहीं होती। अपना सबकुछ लुटा लुटा करके प्रसंन्नता पूर्वक जीवन बिताना ही प्रेम की  अंतिम परिणति है।

प्रेम के साथ जीवन, प्रेम के साथ मृत्यु तथा प्रेम के साथ अपना अस्तित्व मिटाना ही तो ढाई आखर प्रेम का अर्थ है सही मायनों में सार्थक सृजन संदेश भी।

तभी तो किसी गीतकार ने लिखा- “मैं दुनियां भुला दूंगा तेरी चाहत में ” यह ईश्वरीय भी हो सकता है और सांसारिक भी।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग-१८) – ‘मान अन्‌  भान’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

 ☆ सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग-१८) – ‘मान अन्‌  भान’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆ 

मागच्या लेखात आपण तामिळनाडू प्रांतात प्रचलित असलेल्या अंत्ययात्रेतील जोशपूर्ण तालवाद्यवादनाच्या प्रथेची कारणमीमांसा केली. अर्थातच आज सुशिक्षित समाज ही प्रथा पाळताना दिसत नाही, त्याचं कारणही संयुक्तिक आहेच. आज वैद्यकशात्र प्रचंड विकसित पावलेलं आहे. ईसीजी मशीनमुळं ह्या प्रथेमागचा उद्देशच सफल होत असताना ह्या प्रथेची गरज नाही हे त्यांना समजलं असावं. मात्र तळागाळातले लोक ही प्रथा धर्मिक समजून श्रद्धेनं/अंधश्रद्धेनं अजूनही पाळत असावेत… पण त्यामुळे हा नेमका काय प्रकार आहे हे तरी समजलं. ज्याला आपण परंपरा म्हणतो त्या गोष्टी का आणि कशा अस्तित्वात येत असाव्यात हे तरी माहीत होऊन आपला ह्या गोष्टींकडे बघण्याचा दृष्टिकोन व्यापक व्हायलाही नक्कीच मदत होते. शिवाय ही गोष्ट त्यातल्या उपयुक्ततेसोबत त्याकाळच्या समाजव्यवस्थेचाही भाग असावी असंही वाटून गेलं. वाद्यवादनात पारंगत असणाऱ्या कलाकारांना पोटापाण्यासाठीची ही एक व्यावसायिक संधी म्हणायला हरकत नाही. इतर सांस्कृतिक समारंभांमधे मांगल्यदायी वातावरणनिर्मिती करणे आणि अशा दु:खद क्षणी त्या कलेची ताकद मृत्यूच्या खात्रीसाठी वापरणे ह्या उपयुक्तता झाल्या आणि दोन्ही प्रसंगी कलाकाराला आपलं कसब पणाला लावून अर्थार्जनाची संधी ही झाली समाजव्यवस्था!

मला दक्षिणेकडच्याच केरळ राज्यातील चेंडामेलम्‌  हा प्रकार आठवला.  चेंडामेलम्‌  म्हणजे चेंडा ह्या वाद्याचे अनेक वादकांनी एकत्र येऊन केलेलं समूहवादन म्हणता येईल. आज ही गोष्ट केरळची भावाभिव्यक्ती आणि संस्कृतीचं प्रतीक मानलं जात असलं आणि केरळमधील सर्व सांस्कृतिक उत्सवांमधे चेंडावादन अपरिहार्य असल्याचं सांगितलं जात असलं तरी अचानक वाटून गेलं कि जंगली भाग असलेल्या केरळमधे पूर्वीच्या काळी माणूसप्राणी समूहानं एकत्र येऊन काही धार्मिक उत्सव किंवा काही सणसमारंभ साजरा करत असताना जंगली श्वापदांना दूर ठेवण्याचा हा उत्तम मार्ग असावा. इतक्या धडामधुड आवाजाकडे कोणतंही जंगली श्वापद फिरकण्याची शक्यताच नसल्याने निश्चिंत मनानं माणसाला उत्सव पार पाडता येत असेल ही उपयुक्तता आणि कलाकारासाठी रोजगारनिर्मिती हा समाजव्यवस्थेचा एक भाग! मनात आलं कि अशा उपयुक्ततेच्या कसोटीवर पारखून घेतलेल्या, समाजव्यवस्था भक्कम ठेवणाऱ्या, मात्र सर्वसामान्य माणसासाठी धार्मिक, सांस्कृतिक परंपरेच्या आवरणात सजवून ठेवलेल्या कित्येक गोष्टी आपल्या सर्वार्थाने वैविध्यपूर्ण देशात असतील. आपल्या देशाचा सर्वांगीण विकास होताना प्रत्येक नागरिक सुशिक्षित, सुजाण व्हावा, जातीपातींचे निकष संपावेत, मात्र परंपरा जाणीवपूर्वक जपल्या जाव्यात… कला-संस्कृतीचं जतन, मान आणि समाजव्यवस्थेचं भान म्हणून म्हणूनही!

आपल्या मूळ विषयाकडं वळताना आणखी एक प्रथा आठवते. आपल्याकडं बहुधा लिंगायत समाजात (कदाचित इतरही काही समाजात असू शकेल) टाळ-मृदंगाच्या साथीत लोक अंत्ययात्रेत भक्तीपदं म्हणतात… अशी एक अंत्ययात्रा थोडी अंधुकशी माझ्या लहानपणच्या आठवणींच्या कुपीत आहे… आम्ही घरातले कोणत्यातरी कार्यक्रमाहून घरी परतत होतो. अचानक समोरून एक अंत्ययात्रा येऊ लागली. मला आठवतंय अगदी पालखी नव्हे पण साधारण त्याप्रकारचा आकार असलेल्य़ा एका डोलाऱ्यात शव ठेवलं होतं. अर्थातच काही लोकांनी त्या डोलाऱ्याला खांदा दिला होता. अंत्ययात्रेच्या पुढच्या भागात एखाददुसरा आणि मागच्या बाजूला काही लोकांनी दोन तीन छोटे कंदील धरले होते आणि लक्षात राहिलेली मुख्य गोष्ट म्हणजे अगदी नाजूक अशा टाळ आणि मृदंगाच्याही हलक्या आवाजात काहीजण भक्तीपद गात होते. साहजिकच त्या गायन-वादन दोन्हींतही खूप जोश नव्हता. म्हणजे इकडं दक्षिण प्रांतात पाहिलेल्या प्रकाराचा उद्देश काही तिथं लागू होत नाही.

आज ह्या गोष्टीचा विचार करताना वाटतं कि ह्या सर्वोच्च गंभीर क्षणी जीवनाचं सार, सत्य सांगणाऱ्या भक्तिरचना मनाला आधार देत असाव्या. केवळ जगन्नियंत्याच्या हाती असणारी आपल्या आयुष्याची सूत्रं, आपलं फक्त निमित्तमात्र असणं, आयुष्याचं क्षणभंगुरत्व ह्या गोष्टींची मनाला जाणीव करून ह्या क्षणापेक्षा योग्य क्षण कोणता असेल!? ते मंद सूर दु:खी मनावर थोडीशी फुंकर घालत असतील, त्या रचनेच्या शब्दांतून होणारी ‘सगळं ‘त्याच्या’ हाती, आपल्या हाती काही नाही’ ही जाणीव ते दु:ख सहन करायची ताकद देत असेल, शिवाय आपल्या जगण्यात षड्रिपूंमधे आपण किती गुंतून पडायचं ह्या विचाराला चालना देत असेल! विचार करता एकूण सुदृढ समाजमन घडवण्यासाठी अशा गोष्टी केवढी मोलाची भूमिका बजावत असतील!!

‘श्रीराम जयराम जय जय राम’ किंवा ‘राम नाम सत्य है’ चा गंभीर सुरांतला लयबद्ध जप तर अंत्ययात्रेत बहुतेक ठिकाणी केलेला दिसून येतो. अशाक्षणीच्या अतीव दु:खानं गेलेल्यांच्या आप्तेष्टांचं पिळवटणारं काळीज त्या लयबद्धतेत नकळत गुंगून जात असेल आणि मन शांतावायला त्याची मदत होत असेल. मन आणि मेंदूवर होणारा संगीताचा परिणाम प्रत्येकवेळी प्रत्येकाला जाणवतोच असं नाही, मात्र तो होतो नक्कीच! म्हणून अशा छोट्याछोट्या प्रथांमधला तर्कशुद्ध आणि सूक्ष्म विचार पाहिला कि आपल्या पूर्वजांच्या बुद्धिमत्तेपुढं नतमस्तक व्हावसं वाटतं!!

मध्यंतरी एक इंग्रजी लेख वाचनात आला ज्यात चीनमधील ‘कुसांग्रेन’ म्हणवल्या जाणाऱ्या स्त्रियांविषयी माहिती होती. ह्या स्त्रिया म्हणजे ज्यांना अंत्येष्टीच्या आधी साग्रसंगीत वाद्यवृंदासह गायन-नर्तन करायला बोलावलं जातं. अर्थातच अशावेळची गीतंही विशिष्ट प्रकारचीच असणार जी ऐकताना गेलेल्या व्यक्तीच्या आप्तेष्टांच्या भावना उफाळून येत त्यांना भरपूर रडू येऊन त्यांच्या दु:खी भावनांचा निचरा व्हायला मदत होईल. काहीवेळा अशा अघटिताच्या धक्क्यानं एखादी कुणी व्यक्ती स्तब्ध होऊन जाते आणि तिला रडायलाही येत नाही. मात्र संगीताच्या प्रभावच असा असतो कि अशी व्यक्तीही धक्क्यातून बाहेर पडून तिच्या भावना प्रवाही होत रडू लागते!

ह्या प्रथेविषयी वाचताना मला आपल्या देशातल्या राजस्थान प्रांतातली रुदाली आठवली! प्राचीन रोम, ग्रीस, युरोप, अफ्रिका, एशियामधे अनेक ठिकाणी अशा प्रथा आहेत. प्र्त्येक ठिकाणच्या प्रथेत काही ना काही फरक असणार, मात्र उद्देश एकच असावा कि संगीतासारख्या अत्यंत प्रभावी गोष्टीचा वापर करून दु:खी भावनांचा निचरा व्हायला मदत करणं! आणि… अर्थातच पुन्हा समाजव्यवस्था हा भागही आलाच!

प्रथांचा गैरफायदा घेतला जाऊन काही व्यक्तींचं होणारं शोषण हा वेगळा मुद्दा आहे! मात्र मला असं प्रामाणिकपणे वाटतं कि कोणत्याही प्रथेमागचा मूळ उद्देश हा वाईट नसावा. शेवटी काही ना काही काम मिळून प्रत्येकाच्या पोटपाण्याची व्यवस्था होणं हा उदात्त विचारच त्या ठिकाणी असावा! मात्र हे करत असताना ‘संगीत’ हे ‘अत्यंत प्रभावी’ माध्यम प्रत्येक ठिकाणी वापरण्याची चतुराई मात्र फारच कौतुकास्पद वाटते! संगीतकलेचा, तिच्या आपल्या जाणिवांशी असलेल्या नात्याचा वापर मानवी आयुष्यातल्या जन्मापासून अंतिम क्षणापर्यंत प्रत्येकक्षणी केला गेलेला पाहाताना अक्षरश: थक्क व्हायला होतं.

क्रमश:….

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 30 ☆ गीत – शांति दे माँ नर्मदे !☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  माँ नर्मदा जयंती पर्व पर रचित “गीत – शांति दे माँ नर्मदे !“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

यूट्यूब लिंक >> गीत – शांति दे माँ नर्मदे!

गीत – प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव “विदग्ध”

स्वर-संगीत – सोहन सलिल & दिव्या सेठ

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 30 ☆

☆ गीत – शांति दे माँ नर्मदे! ☆

सदा नीरा मधुर तोया पुण्य सलिले सुखप्रदे

सतत वाहिनी तीव्र धाविनि मनो हारिणि हर्षदे

सुरम्या वनवासिनी सन्यासिनी मेकलसुते

कलकलनिनादिनि दुखनिवारिणि शांति दे माँ नर्मदे ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

हुआ रेवाखण्ड पावन माँ तुम्हारी धार से

जहाँ की महिमा अमित अनुपम सकल संसार से

सीचतीं इसको तुम्ही माँ स्नेहमय रसधार से

जी रहे हैं लोग लाखों बस तुम्हारे प्यार से ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

पर्वतो की घाटियो से सघन वन स्थान से

काले कड़े पाषाण की अधिकांशतः चट्टान से

तुम बनाती मार्ग अपना सुगम विविध प्रकार से

संकीर्ण या विस्तीर्ण या कि प्रपात या बहुधार से ! शांति दे माँ नर्मदे !

तट तुम्हारे वन सघन सागौन के या साल के

जो कि हैं भण्डार वन सम्पत्ति विविध विशाल के

वन्य कोल किरात पशु पक्षी तपस्वी संयमी

सभी रहते साथ हिलमिल ऋषि मुनि व परिश्रमी  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

हरे खेत कछार वन माँ तुम्हारे वरदान से

यह तपस्या भूमि चर्चित फलद गुणप्रद ज्ञान से

पूज्य शिव सा तट तुम्हारे पड़ा हर पाषाण है

माँ तुम्हारी तरंगो में तरंगित कल्याण है  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

सतपुड़ा की शक्ति तुम माँ विन्ध्य की तुम स्वामिनी

प्राण इस भूभाग की अन्नपूर्णा सन्मानिनी

पापहर दर्शन तुम्हारे पुण्य तव जलपान से

पावनी गंगा भी पावन माँ तेरे स्नान से  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

हर व्रती जो करे मन से माँ तुम्हारी आरती

संरक्षिका उसकी तुम्ही तुम उसे पार उतारती

तुम हो एक वरदान रेवाखण्ड को हे शर्मदे

शुभदायिनी पथदर्शिके युग वंदिते माँ नर्मदे  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

तुम हो सनातन माँ पुरातन तुम्हारी पावन कथा

जिसने दिया युगबोध जीवन को नया एक सर्वथा

सतत पूज्या हरितसलिले मकरवाहिनी नर्मदे

कल्याणदायिनि वत्सले ! माँ नर्मदे ! माँ नर्मदे !  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#3 – पराये धन की तृष्णा सब स्वाहा कर जाती है ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#3 – पराये धन की तृष्णा सब स्वाहा कर जाती है ☆ श्री आशीष कुमार☆

एक नाई जंगल में होकर जा रहा था अचानक उसे आवाज सुनाई दी “सात घड़ा धन लोगे?” उसने चारों तरफ देखा किन्तु कुछ भी दिखाई नहीं दिया। उसे लालच हो गया और कहा “लूँगा”। तुरन्त आवाज आई “सातों घड़ा धन तुम्हारे घर पहुँच जायेगा जाकर सम्हाल लो”। नाई ने घर आकर देखा तो सात घड़े धन रखा था। उनमें 6 घड़े तो भरे थे किन्तु सातवाँ थोड़ा खाली था। लोभ, लालच बढ़ा। नाई ने सोचा सातवाँ घड़ा भरने पर मैं सात घड़ा धन का मालिक बन जाऊँगा। यह सोचकर उसने घर का सारा धन जेवर उसमें डाल दिया किन्तु वह भरा नहीं। वह दिन रात मेहनत मजदूरी करने लगा, घर का खर्चा कम करके धन बचाता और उसमें भरता किन्तु घड़ा नहीं भरा। वह राजा की नौकरी करता था तो राजा से कहा “महाराज मेरी तनख्वाह बढ़ाओ खर्च नहीं चलता।” तनख्वाह दूनी कर दी गई फिर भी नाई कंगाल की तरह रहता। भीख माँगकर घर का काम चलाने लगा और धन कमाकर उस घड़े में भरने लगा। एक दिन राजा ने उसे देखकर पूछा “क्यों भाई तू जब कम तनख्वाह पाता था तो मजे में रहता था अब तो तेरी तनख्वाह भी दूनी हो गई, और भी आमदनी होती है फिर भी इस तरह दरिद्री क्यों? क्या तुझे सात घड़ा धन तो नहीं मिला।” नाई ने आश्चर्य से राजा की बात सुनकर उनको सारा हाल कहा। तब राजा ने कहा “वह यक्ष का धन है। उसने एक रात मुझसे भी कहा था किन्तु मैंने इन्कार कर दिया। अब तू उसे लौटा दे।” नाई उसी स्थान पर गया और कहा “अपना सात घड़ा धन ले जाओ।” तो घर से सातों घड़ा धन गायब। नाई का जो कुछ कमाया हुआ था वह भी चला गया।

पराये धन के प्रति लोभ तृष्णा पैदा करना अपनी हानि करना है। पराया धन मिल तो जाता है किन्तु उसके साथ जो लोभ, तृष्णा रूपी सातवाँ घड़ा और आ जाता है तो वह जीवन के लक्ष्य, जीवन के आनन्द शान्ति प्रसन्नता सब को काफूर कर देता है। मनुष्य दरिद्री की तरह जीवन बिताने लगता है और अन्त में वह मुफ्त में आया धन घर के कमाये गए धन के साथ यक्ष के सातों घड़ों की तरह कुछ ही दिनों में नष्ट हो जाता है, चला जाता है। भूलकर भी पराये धन में तृष्णा, लोभ, पैदा नहीं करना चाहिए। अपने श्रम से जो रूखा−सूखा मिले उसे खाकर प्रसन्न रहते हुए भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -10 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 10 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

अंदमान के उस रमणीय सफर से मेरी नृत्य के क्षेत्र में और मेरे जिंदगी में भी मैंने बहुत बड़ी सफलता पाई थी| अंदमान से आने के बाद मुझे बहुत जगह से नृत्य के कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया गया| मैंने बहुत छोटे-बड़े जगह पर, गलियों में भी मेरे नृत्य के कार्यक्रम पेश किए और मेरी तरफ से सावरकर जी के विचार सब लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया| मेरा यह प्रयास बहुत छोटा था फिर भी मेरे और मेरे चाहने वाले दर्शकों के मन में आनंद पैदा करने वाला था| मेरा प्रयास, मेरी धैर्यता मिरज के लोगों ने देखी और २०११ दिसंबर माह में मिरज महोत्सव में मिरज भूषण पुरस्कार’ देकर मुझे सम्मानित किया गया|

‘अपंग सेवा केंद्र’ संस्थाने मुझे जीवन गौरव पुरस्कार’ देखकर सन्मानित किया| मैं जहा पढ रही थी उस कन्या महाविद्यालय ने मातोश्री पुरस्कार’ देकर मेरा विशेष सन्मान किया|

मेरे नृत्य का यह सुनहरा पल शुरू था तब मेरी गुरु धनश्री दीदी के मन में कुछ अलग ही खयाल शुरू था| उनको मुझे सिर्फ इतने पर ही संतुष्ट नहीं रखना था| उनकी बात सुनकर मुझे केशवसुतजी की कविता की पंक्तियां याद आ गई,

खादाड असे माझी भूक, चकोराने मला न सुख

कूपातील मी नच मंडूक, मनास माझ्या कुंपण पडणे अगदी न मला हे सहे .”

और दीदी ने मुझे भरतनाट्यम लेकर एम.ए. करने का खयाल मेरे सामने रखा, जिसको मैंने बड़ी आसानी से हा कह दिया| क्योंकि दीदी को प्राथमिक तौर पर और शौक के लिए नृत्य करने वाली लड़की नहीं चाहिए थी, बल्कि उनको मुझसे एक परिपक्व और विकसित हुई नर्तकी चाहिए थी जिसके माध्यम से भारतीय शास्त्रीय नृत्य ‘भरतनाट्यम’ इस प्रकार का प्रसार सही तरह से सब जगह किया जाए|

दीदी ने केवल दर्शकों की प्रतिक्रिया और खुद पर निर्भर न रहते हुए उन्होंने मेरा नृत्य उनकी गुरु सुचेता चाफेकर और नृत्य में उनके सहयोगियों के सामने पेश करके उनसे सकारात्मक प्रतिक्रिया हासिल की और मुझे एम.ए. के लिए हरी झंडी मिली|

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 60 – देव गणपती ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 60 – देव गणपती  ☆

(षडाक्षरी)

पार्वती तनया

देव गणाधीश।

विघ्ननाशक तू

प्रथमेश ईश।

 

चौंसष्ट कलांचा

तूच अधिपती।

सकल विद्यांचा

देव गणपती ।

 

कार्यारंभी तुझे

करिता पूजन।

कार्यसिद्धी सवे

घडते सृजन।

 

मातृभक्त पुत्र

तत्पर सेवेसी।

शिव प्रकोपाला

झेलले वेगेसी।

 

शिरच्छेद होता

माता आक्रंदन।

शोभे गजानन

पार्वती नंदन।

 

दुंदील तनु ही

मुषकी स्वार।

भाळी चंद्रकोर

दुर्वांकुर हार।

 

मस्तकी शोभती

रक्तवर्णी फुले।

मोदक पाहुनी

मनोमनी खुले।

 

भक्तहिता लागी

घेई अवतार।

अष्ट विनायक

महिमा अपार।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 83 ☆ अहंकार व संस्कार ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  स्त्री विमर्श अहंकार व संस्कार।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 83 ☆

☆ अहंकार व संस्कार ☆

अहंकार दूसरों को झुका कर खुश होता है और संस्कार स्वयं झुक कर खुश होता है। वैसे यह दोनोंं विपरीत दिशाओं में चलने वाले हैं, विरोधाभासी हैं। प्रथम मानव को एकांगी व स्वार्थी बनाता है; मन में आत्मकेंद्रितता का भाव जाग्रत कर, अपने से अलग कुछ भी सोचने नहीं देता। उसकी दुनिया खुद से प्रारंभ होकर, खुद पर ही समाप्त हो जाती है। परंतु संस्कार सबको सुसंस्कृत करने में विश्वास रखता है और जितना अधिक उसका विस्तार होता है; उसकी प्रसन्नता का दायरा भी बढ़ता चला जाता है। संस्कार हमें पहचान प्रदान करते हैं; दूसरों से अलग करते हैं, परंतु अहंनिष्ठ प्राणी अपने दायरे में ही रहना पसंद करता है। वह दूसरों को हेय दृष्टि से देखता है और धीरे-धीरे वह भाव घृणा का रूप धारण कर लेता है। वह दूसरों को अपने सम्मुख झुकाने में विश्वास करता है, क्योंकि वह सब करने में उसे केवल सुक़ून ही प्राप्त नहीं होता; उसका दबदबा भी कायम होता है। दूसरी ओर संस्कार झुकने में विश्वास रखता है और विनम्रता उसका आभूषण होता है। इसलिए स्नेह, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता, त्याग व उसके अंतर्मन में निहित गुण…उसे दूसरों के निकट लाते है; सबका सहारा बनते हैं। वास्तव में संस्कार सबका साहचर्य पाकर फूला नहीं समाता। यह सत्य है कि संस्कार की आभा दूर तक फैली दिखाई पड़ती है और सुक़ून देती है। सो! संस्कार हृदय की वह प्रवृत्ति है; जो अपना परिचय स्वयं देती है, क्योंकि वह किसी परिचय की मोहताज नहीं होती।

भारतीय संस्कृति पूरे विश्व में सबसे महान् है; श्रद्धेय है, पूजनीय है, वंदनीय है और हमारी पहचान है। हम अपनी संस्कृति से जाने-पहचाने जाते हैं और सम्पूर्ण विश्व के लोग हमें श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं; हमारा गुणगान करते हैं। प्रेम, करुणा, त्याग व अहिंसा भारतीय संस्कृति का मूल हैं, जो समस्त मानव जाति के लोगों को एक-दूसरे के निकट लाते हैं। इसी का परिणाम हैं…हमारे होली व दीवाली जैसे पर्व व त्यौहार, जिन्हें हम मिल-जुल कर मनाते हैं और उस स्थिति में हमारे अंतर्मन की दुष्प्रवृत्तियों का शमन हो जाता है; शत्रुता का भाव तिरोहित व लुप्त-प्रायः हो जाता है। लोग इन्हें अपने मित्र व परिवारजनों के संग मना कर सुक़ून पाते हैं। धर्म, वेशभूषा, रीति-रिवाज़ आदि भारतीय संस्कृति के परिचायक हैं, परंतु इससे भी प्रधान है– जीवन के प्रति सकारात्मक सोच, आस्था,  आस्तिकता, जीओ और जीने का भाव…यदि हम दूसरों के सुख व खुशी के लिए निजी स्वार्थ को तिलांजलि दे देते हैं, तो उस स्थिति में हमारे अंतर्मन में परोपकार का भाव आमादा रहता है।

परंतु आधुनिक युग में पारस्परिक सौहार्द न रहने के कारण मानव आत्मकेंद्रित हो गया है। वह अपने व अपने परिवार के अतिरिक्त किसी अन्य के बारे में सोचता ही नहीं और प्रतिस्पर्द्धा के कारण कम से कम समय में अधिकाधिक धन-संपत्ति अर्जित करना चाहता है। इतना ही नहीं, वह अपनी राह में आने वाले हर व्यक्ति व बाधा को समूल नष्ट कर देता है; यहां तक कि वह अपने परिवारजनों की अस्मिता को भी दाँव पर लगा देता है और उनके हित के बारे में लेशमात्र भी सोचता नहीं। उसकी दृष्टि में संबंधों की अहमियत नहीं रहती और वह अपने परिवार की खुशियों को तिलांजलि देकर उनसे दूर… बहुत दूर चला जाता है। संबंध-सरोकारों से उसका नाता टूट जाता है, क्योंकि वह अपने अहं को सर्वोपरि स्वीकारता है। अहंनिष्ठता का यह भाव मानव को सबसे अलग-थलग कर देता है और वे सब नदी के द्वीप की भांति अपने-अपने दायरे में सिमट कर रह जाते हैं। पति-पत्नी में स्नेह-सौहार्द की कल्पना करना बेमानी हो जाता है और एक-दूसरे को नीचा दिखाना उनके जीवन का मूल लक्ष्य बन जाता है। मानव हर पल अपनी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है। इन विषम परिस्थितियों में संयुक्त परिवार में सबके हितों को महत्व देना–उसे कपोल-कल्पना -सम भासता है, जिसका परिणाम एकल परिवार-व्यवस्था के रूप में परिलक्षित है। पहले एक कमाता था, दस खाते थे, परंतु आजकल सभी कमाते हैं; फिर भी वे अभाव-ग्रस्त रहते हैं और संतोष उनके जीवन से नदारद रहता है। वे एक-दूसरे को कोंचने, कचोटने व नीचा दिखाने में विश्वास रखते हैं। पति-पत्नी के मध्य बढ़ते अवसाद के परिणाम-स्वरूप तलाक़ की संख्या में निरंतर इज़ाफ़ा हो रहा है।

पाश्चात्य सभ्यता की क्षणवादी प्रवृत्ति ने ‘लिव- इन’ व ‘तू नहीं और सही’ के पनपने में अहम् भूमिका अदा की है…शेष रही-सही कसर ‘मी टू व विवाहेतर संबंधों’ की मान्यता ने पूरी कर दी है। मदिरापान, ड्रग्स व रेव पार्टियों के प्रचलन के कारण विवाह-संस्था पर प्रश्नचिन्ह लग गया है। परिवार टूट रहे हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ रहा है। वे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। ‘हेलो- हाय’ की संस्कृति ने उन्हें उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां वे अपना खुद का जनाज़ा देख रहे हैं। बच्चों में बढ़ती अपराध- वृत्ति, यौन-संबंध, ड्रग्स व शराब का प्रचलन उन्हें उस दलदल में धकेल देता है; जहां से लौटना असंभव होता है। परिणामत: बड़े-बड़े परिवारों के बच्चों का चोरी-डकैती, लूटपाट, फ़िरौती, हत्या आदि में संलग्न होने के रूप में हमारे समक्ष है। वे समाज के लिए नासूर बन आजीवन सालते रहते हैं और उनके कारण परिवारजनों  को बहुत नीचा देखना पड़ता है

आइए! इस लाइलाज समस्या के समाधान पर दृष्टिपात करें। इसके कारणों से तो हम अवगत हो गए हैं कि हम बच्चों को सुसंस्कारित नहीं कर पा रहे, क्योंकि हम स्वयं अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं। हम हैलो-हाय व जीन्स कल्चर की संस्कृति से प्रेम करते हैं और अपने बच्चों को कॉन्वेंट स्कूलों में शिक्षित करना चाहते हैं। जन्म से उन्हें नैनी व आया के संरक्षण में छोड़, अपने दायित्वों की इतिश्री कर लेते हैं और एक अंतराल के पश्चात् बच्चे माता-पिता से घृणा करने लग जाते हैं। रिश्तों की गरिमा को वे समझते ही नहीं, क्योंकि पति-पत्नी के अतिरिक्त घर में केवल कामवाली बाईयों का आना-जाना होता है। बच्चों का टी•वी• व मीडिया से जुड़ाव, ड्रग्स व मदिरा-सेवन, बात-बात पर खीझना, अपनी बात मनवाने के लिए गलत हथकंडों का प्रयोग करना… उनकी दिनचर्या व आदत में शुमार हो जाता है। माता-पिता उन्हें खिलौने व सुख-सुविधाएं प्रदान कर बहुत प्रसन्न व संतुष्ट रहते हैं। परंतु वे भूल जाते हैं कि बच्चों को प्यार-दुलार व उनके स्नेह-सान्निध्य की दरक़ार होती है; खिलौनों व सुख-सुविधाओं की नहीं।

सो! इन असामान्य परिस्थितियों में बच्चों में अहंनिष्ठता का भाव इस क़दर पल्लवित-पोषित हो जाता है कि वे बड़े होकर उनसे केवल प्रतिशोध लेने पर आमादा ही नहीं हो जाते, बल्कि वे माता-पिता व दादा-दादी आदि की हत्या तक करने में भी गुरेज़ नहीं करते। उस समय उनके माता-पिता के पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य विकल्प शेष नहीं रह जाता। वे सोचते हैं– काश! हमने अपने आत्मजों को सुसंस्कृत किया होता; जीवन-मूल्यों का महत्व समझाया होता; रिश्तों की गरिमा का पाठ पढ़ाया होता और संबंध-सरोकारों की महत्ता से अवगत कराया होता, तो उनके जीवन का यह हश्र न होता। वे सहज जीवन जीते, उनके हृदय में करुणा भाव व्याप्त होता तथा वे त्याग करने में प्रसन्नता व हर्षोल्लास का अनुभव करते; एक-दूसरे की अहमियत को स्वीकार विश्वास जताते; विनम्रता का भाव उनकी नस-नस में व्याप्त होता और सहयोग, सेवा, समर्पण उनके जीवन का मक़सद होता।

सो! यह हमारा दायित्व हो जाता है कि हम आगामी पीढ़ी को समता व समरसता का पाठ पढ़ाएं; संस्कृति का अर्थ समझाएं; स्नेह, सिमरन, त्याग का महत्व बताएं ताकि हमारा जीवन दूसरों के लिए अनुकरणीय बन सके। यही होगी हमारे जीवन की मुख्य उपादेयता… जिससे न केवल हम अपने परिवार में खुशियां लाने में समर्थ हो सकेंगे; देश व समाज को समृद्ध करने में भी भरपूर योगदान दे पाएंगे। परिणामत: स्वर्णिम युग का सूत्रपात अवश्य होगा और जीवन उत्सव बन जायेगा।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 35 ☆ वक्त फिर करवट बदलेगा ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “वक्त फिर करवट बदलेगा ”.)

☆ किसलय की कलम से # 35 ☆

☆ वक्त फिर करवट बदलेगा ☆

वर्तमान में मानवीय मूल्यों के होते क्षरण से आम आदमी की चिंता एवम् खिन्नता स्वाभाविक है। हम पौराणिक कथाओं पर दृष्टिपात करें तो धरा-गगन का अन्तर देख अन्तर्द्वन्द्व चीत्कार में बदलने लगता है। हमने तो पढ़ा है कि पिता का वचन मान प्रभु राम चौदह वर्ष के लिए वनवास को चले गए थे। अनुज भरत ने राजपाट त्याग अपने भाई का इन्तजार महलों की जगह कुटिया में रह कर किया था। पिता की खुशी के लिए देवव्रत ने भीष्म प्रतिज्ञा ली थी। सीता, राधा, सुदामा, यशोदा, हरिश्चन्द्र से अब के महाराणा प्रताप, लक्ष्मी, दुर्गा और तो और विवेकानन्द से गांधी तक देखने के पश्चात लगता है कि हम कितने बदल गए हैं। हम वे रिश्ते, वे आदर्श, वह त्याग और प्रेम क्यों नहीं कर पाते? हम स्वार्थ को छोड़कर परोपकारोन्मुखी क्यों नहीं होते?

हम आज के भौतिक सुख को मानव जीवन का उद्देश्य मान बैठे हैं। आज सबसे ज्यादा बदलाव हमारे चरित्र एवं राजनीति में दिखाई देता है। महाभारत में हमने पढ़ा है- युद्ध समाप्ति के पश्चात लोग एक दूसरे के सैन्य शिविरों में जाकर कुशल – क्षेम भी पूछा करते थे। वार्तालाप भी किया करते थे।

जुबान की कीमत किसी गिरवी रखी जाने वाली वस्तु से कहीं अधिक होती थी, लेकिन आज पीछे से छुरा घोंपना, झूठ-फरेब करना, स्वार्थ की चाह में निकटस्थों को भी ताक में रखना आम बातें हो गई हैं। उन सब में एक बड़ा कारण हमारी सोच में बदलाव का भी है। हमने अपनी सोच के अनुरूप एक नई दुनिया गढ़ ली है। जैसे ए.सी., कार, कोठी, ओहदे और पैसे आज श्रेष्टता के मानक बन गए हैं। सच्चाई, ईमानदारी, परोपकार, भाईचारा और न्याय-धर्म गौण होते जा रहे हैं। इन्हें अपनाने वाला आज बेवकूफों की श्रेणी में गिना जाने लगा है।

यदि हम उपरोक्त बातों पर गौर करें तो ये क्रियाकलाप हमें अविवेकी प्राणियों के नजदीक ले जाते हैं, जिन्हें वर्तमान के अतिरिक्त अगला व पिछला कुछ भी नहीं दिखता। आज हम न भविष्य के लिए कुछ करना चाहते हैं और न ही हमने अब तक कुछ नि:स्वार्थ भाव से किया। क्या मरणोपरान्त समाज हमें स्मृत रखेगा, ऐसे भाव अब हमारे मस्तिष्क में कम ही आते हैं। आज आप ए.सी. और पंखों के बिना हरे-भरे वृक्षों और हवादार मकानों में क्यों नहीं रहते। आप प्राकृतिक प्रकाश और ताजे जल का उपयोग क्यों नहीं करते? आप साइकिल और पैदल चलने को महत्त्व क्यों नहीं देते? तो हम जानते हैं कि आप यही कहेंगे कि समय की बचत और व्यक्तिगत सुविधाओं हेतु यह सब करना पड़ता है। ये बातें हम साठ साल की उम्र के पहले करते हैं। साठ पार होते ही आपको सभी प्रकृति से जुड़ी बातें और अनुकरणीय उपदेश याद आने लगते हैं। आप फिर प्रातः भ्रमण शुरू करते हैं, तेल-घी-मीठा से परहेज करते हैं। धीरज, संतुष्टि और पछतावा करते हैं। जिनकी उपेक्षा की थी उन्हीं के लिए तरसते हैं। धन-दौलत, प्रतिष्ठा और अपनी शक्ति पर अकड़ने वाले यही लोग दो मीठी बातों और जरा-जरा से मान-सम्मान की आशा करते हैं। अथवा हम यूँ कह सकते हैं कि उन्हें तब जाकर आभास होता है कि जिसे श्रेष्ठ जीवन जीना समझना था वह तो सब उनकी झूठी शान थी। असली जीना तो प्रकृति के साथ जीना होता है, सादगी और ईमानदारी के साथ जीना होता है। भौतिक सुखों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण स्वस्थ जीवन होता है, यह बात समझते-समझते देर हो चुकी होती है।

आखिर ये बदलाव आया कैसे? क्या गुरुकुल की जगह वर्तमान शिक्षा इसका कारण है? क्या भारतीय संस्कृति से परे होते जाना इसका कारण है? क्या पश्चिमीकरण ने हमारे भौगोलिक वातावरण में असंतुलन बढ़ाया है? क्या कुछ आवश्यक उपलब्धियों ने हमें पंगु बनाना शुरू कर दिया है?

हम कभी भी यह नहीं कहना चाहेंगे कि ज्ञान और विकास की आलोचना हो। नई तकनीकि का उपयोग न हो। हम तो बस यह कहना चाहते हैं कि सुख, शांति और स्वास्थ्य की कीमत पर कोई गलत कार्य, कोई विकास और कोई भी उच्च तकनीकि मानव जीवन के लिए घातक है। जब मानव ही नहीं रहेगा तो सारी कवायद के क्या मायने होंगे? हम फिर वहीं पहुँच जाते हैं, सोच के समीकरण पर। हमें फिर से सच्ची मानवता की ओर बढ़ना होगा।

हमारी शुरुआत ही दूसरों की प्रेरणा बनेगी। आज भागमभाग और उहापोह भरी जिन्दगी से लोग तंग आने लगे हैं। बदलते परिवेश और परिस्थितियों के कुप्रभाव आज देश-विदेश में पुनः जीवनशैली बदलने हेतु बाध्य करने लगे हैं। सामाजिक और मानसिक चेतना की रफ्तार धीमी होती है लेकिन आगे चलकर यह हमारे जीवन जगत में बदलाव अवश्य लाएगी। इसके लिए हमें सर्वप्रथम भौतिक सम्पन्नता से कुछ तो दूरी बनाना ही होगी। हमें सादगी, ईमानदारी, परोपकार, प्रेम-भाईचारा और सौजन्यता को अपनाना होगा। ये बातें आज जरूर सबको असामयिक और गैर जरूरी लग रही हैं, लेकिन यह भी सच है कि आने वाला वक्त पुनः करवट बदलेगा, क्योंकि बदलाव प्रकृति का नियम है।

इसलिए आईए, क्यों न इस बदलाव की शुरुआत हम किसी दूसरे का इन्तजार किए बगैर आज स्वयं से ही करें।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares