हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 29 ☆ ग़ज़ल – – अगर हो भावना मन की…☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की “ग़ज़ल – अगर हो भावना मन की…।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 29 ☆

☆ ग़ज़ल – अगर हो भावना मन की…  ☆

सदा परिवेश से सबको स्वाभाविक प्यार होता है

मनोहर कल्पना मे सुख भरा संसार होता है

पडोसी से हुआ करती सुखद सदभाव की आशा

अगर बिलभाव होता तो सतत दुखभार होता है

 

हरेक की शांति सुख के हित भला लगता सहारा है

अगर विश्वास उठ जाता तो सब सुखचैन खोता है

हमारे साथ भी ऐसा ही कुछ घटता है बरसो से

पडोसी की नियत खोटी है निश्चित भास होता है

 

सदाचाहा रहे हिलमिल के सब साथ खुशियो से

मगर सब चाह कर भी अब नही विश्वास होता है

 

मिलाकर हाथ जब भी साथ बढने की की गई कोशिश

तो देख उस तरफ से पीठ पर फिर वार होता है

समझ गई अब तो दुनिया भी कि उसका क्या इरादा है

पडोसी से हमे धोखा ही बारम्बार होता है

 

हमारी हर भलाई का मिला बदला बुराई से

सुहानी सरहदो पर नित ही अत्याचार होता है

जहाॅ होता है मन मे मैल कटुता बढती जाती है

निरंतर द्वेष से किसका कही उद्धार होता है

 

अगर हो भावना मन की मिलन उत्सव मनाने की

तो अपने आप ही सबसे सदय व्यवहार होता है

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ कथा संग्रह – प्रेमार्थ  –  श्री सुरेश पटवा ☆ प्रस्तावना – श्री युगेश शर्मा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। इस सन्दर्भ में आज प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध कहानीकार, नाटककार एवं समीक्षक श्री युगेश शर्मा जी की प्रेमार्थ पुस्तक की प्रस्तावना। अगले सप्ताह से प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे ।  )

☆ कथा संग्रह – प्रेमार्थ  –  श्री सुरेश पटवा ☆ प्रस्तावना   – श्री युगेश शर्मा

मैंने साहित्य की विभिन्न विधाओं की लगभग सवा सौ पुस्तकों की प्रस्तावना, टिप्पणी, समीक्षा लिखी है। इनमें बहुसंख्यक पुस्तकें वे हैं, जो कल्पना के धरातल पर साकार हुई हैं। साहित्यिक लेखन के क्षेत्र में सतत अध्ययन से अर्जित ज्ञान की बुनियाद पर अनुभवों का पुट देते हुए लिखने वाले लेखक कम ही हुए हैं, जिनके लेखन को कल्पना तो संपूरित मात्र करती है। इस श्रेणी के लेखकों का सृजन एकदम अल्हदा रंग और तेवर लिए हुए होता है। इन लेखकों की रचनाओं को पढ़ते समय पाठक रचना से सीधे जुड़कर लेखक के साथ-साथ चलता है और लेखक एवं पाठक के बीच कोई दूरी नहीं रह जाती। नर्मदा अंचल की ऐतिहासिक बस्ती शोणितपुर वर्तमान सोहागपुर में जन्मे श्री सुरेश पटवा की अब तक प्रकाशित छह: पुस्तकों के आधार पर नि:संकोच भाव से कहा जा सकता है कि वे साहित्य जगत में अपनी पृथक साहित्यिक पहचान रखने वाले साहित्यकार हैं। सुरेश पटवा लेखन ने ज़ाहिर कर दिया है कि उनका लेखन अल्हदा क़िस्म का है।

किसी भी विषय पर लेखक की पकड़ उसके स्पष्ट नज़रिए से अंजाम पाती  है। सुरेश पटवा की अब तक प्रकाशित पाँच किताबों 1757 से 1857 तक का रोचक सच “ग़ुलामी की कहानी”, जेम्स फ़ारसायथ का रोमांचक अभियान “पचमढ़ी की खोज”, रिश्तों के दैहिक भावनात्मक मनोवैज्ञानिक रहस्य “स्त्री-पुरुष”, सौंदर्य, समृद्धि, वैराग्य की नदी “नर्मदा” और सैद्धांतिक प्रबंधन की साहसिक दास्तान “तलवार की धार” से यह पता चलता है कि सम्बंधित विषय की गम्भीरता पूर्ण गहराई से जानकारी  के उपरांत ही उनकी कलम चलती है जो पाठक को बाँधने में सक्षम है। सुरेश पटवा भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत सहायक-महाप्रबंधक हैं। पर्यटन और कालजयी पुस्तकों का अध्ययन उनके रुचिकर विषय व शौक़ रहे हैं।

प्रेमार्थ” कहानी संग्रह उनकी सातवीं कृति है। इसमें आपकी पंद्रह कहानियाँ शामिल हैं। कुछेक रचनाएँ बुनावट, तथ्यों और शैली के आधार पर संस्मरण और रिपोर्टाज के निकट परिलक्षित होती हैं परंतु साथ ही यह बात भी स्वीकार करना होगी कि इसमें कहन का पर्याप्त पुट है जो पाठक को पूरी कहानी पढ़ने को प्रेरित करता है।

श्री पटवा के लेखन में यह अल्हदापन अनायास नहीं अपितु सायास आया है। उन्होंने पुराणों और धार्मिक ग्रंथों के साथ-साथ व्यापक स्तर पर साहित्य और वांग्यमय का अध्ययन भी किया है। नया से नया ज्ञान अर्जित करने के लिए वे सदैव तत्पर, लालायित और उत्साहित बने रहते हैं। आपके अध्ययन के विषय विविध आयामी और गम्भीर होते हैं। इतिहास से सम्बंधित पुस्तकों और दस्तावेज़ों के अध्ययन में आपकी विशेष दिलचस्पी है। आपकी दिलचस्पी देशी और विदेशी दोनों प्रकार की पुस्तकों को स्पर्श करती है। आपने “स्त्री-पुरुष” पुस्तक में देशी-विदेशी विद्वानों के काफ़ी उद्धरण दिए हैं जो उनके मंतव्यों एवं निष्कर्षों को सिद्दत के साथ प्रस्तुत करने में समर्थ हैं। श्री पटवा के साथ एक ख़ास बात यह भी जुड़ी हुई है कि वे अध्ययन के साथ पर्यटन के भी बहुत शौक़ीन हैं। उन्होंने बैंक से मिली पर्यटन सुविधा का उपयोग प्रमुख रूप से ज्ञानार्जन में किया। पर्यटन वृत्ति ने उनको ज्ञान सम्पदा के विभिन्न रूपों से परिचित कराने के साथ-साथ विस्तार से मानव प्रवृत्तियों को समझने का अवसर भी दिया है। ज्ञानार्जन की इस लम्बी प्रक्रिया ने उनके भीतर इतिहास दृष्टि पैदा की है। यह इतिहास दृष्टि उनके शोध परक लेखन को परिपुष्ट और सम्बंधित करने का साधन बनी है। इस कहानी संग्रह की कहानियों में पटवा जी के गहन गम्भीर इतिहास बोध के दर्शन होते हैं।

शोणितपूर, जो कि सौभाग्यपूर, सुहागपुर होता हुआ सोहागपुर  हो गया, के संदर्भ में आपने जो इतिहास सम्मत सटीक ब्योरे दिए हैं, वे प्रमाणित करते हैं कि इतिहास की दुनिया में श्री पटवा की गहरी पैठ है। सोहागपुर से जुड़ी कहानियों में आपने विभिन्न काल खंडों के ऐसे तथ्यों को शामिल किया है, जो आश्चर्यचकित करते हैं। मैं तो यह कह सकता हूँ कि शायद ही कोई दूसरा लेखक होगा जिसने अपनी जन्मभूमि के इतिहास और महात्म्य के बारे में इतनी व्यापक और सूक्ष्म खोज कर काफ़ी विश्वसनीय तथ्य जुटाए हों।

आजकल  कहानी जीवन की प्रतिच्छाया के रूप में लिखी जा रही है। यह सब कुछ होते हुए भी सामान्य पाठक कहानी में मनोरंजन के तत्त्वों को भी ढूँढता है। लेखक की सभी कहानियाँ भारतीय सामाजिक मूल्यों के आसपास मनोरंजक कौतूहल जागती प्रेरक संदेश देती हैं इसलिए यह पुस्तक एक उच्च कोटि का संग्रहणीय कहानी संग्रह है।

इस कहानी संग्रह की कहानियों से गुज़रते हुए कहानीकार श्री सुरेश पटवा के लेखन की दो और विशेषताओं से साक्षात्कार हुआ है। पहली, उनकी अनुभूतियों में गहराई है। उन्होंने अपनी अनुभूतियों को लेखन में उतारने में अच्छी महारत हासिल की है। “गेंदा-गुलाबो” कहानी को लें  अथवा “शब्बो-राजा” कहानी को या फिर “एक थी कमला” या “ग़ालिब का दोस्त” को लें, उनकी अनुभूतियों में गहराई के साथ प्रचुर संवेदनशीलता भी विद्यमान है। दूसरी विशेषता मुझे उनकी प्रखर स्मृति के रूप में दिखाई दी। सोहागपुर की पृष्ठभूमि पर लिखी गई कहानियों में उनके स्मृति सामर्थ्य का आल्हादकारी चमत्कार देखने को मिलता है। वे अपने बचपन के मित्रों, सोहागपुर के बुजुर्गों, ख़ास व्यक्तियों और स्थानों के नामों का यथार्थ उल्लेख करते हैं। अचरज तो यह पढ़कर होता है कि वे छोटी जातियों के संगी साथियों का संदर्भ एवं नामोल्लेख करने में भी उदारता का भरपूर परिचय देते हैं। इन्ही वास्तविक ब्योरों के कारण कहानियाँ अधिक पठनीय और रोचक बन पड़ी हैं। वे स्वयं के शुरुआती जीवन की सच्चाइयों को भी यथाप्रसंग प्रस्तुत करने में चूकते नहीं है।  वे इस सच को भी नहीं छुपाते कि बचपन में रेल्वे स्टेशन पर मेहनत मज़दूरी करते और चाय बेचा करते थे। उन्होंने अपने खून के रिश्तों के खुरदरेपन को भी प्रस्तुत करने में गुरेज़ नहीं किया है। “एक थी कमला” कहानी इसका प्रमाण है।

मुझे यह कहने में क़तई संकोच नहीं है कि संग्रह की दो-तीन कहानियाँ कथाशिल्प की कसौटी पर चाहे शत-प्रतिशत खरी न उतर रही हों, लेकिन उनमें रोचकता और कहन की कोई कमी नहीं प्रतीत होती। इन कहानियों की कथावस्तु की नव्यता और नैसर्गिकता निस्संदेह आकर्षित करती है। इन कहानियों के पठनोपरांत पाठक निश्चित ही अनुभव करेंगे कि उन्होंने ऐसा कुछ पढ़ा है, जो उनको कुछ ख़ास दे रहा है। एक बड़ी बात तो यह है कि संग्रह की कोई भी कहानी पाठक को शिल्पगत चमत्कार पैदा करने के लिए न तो यहाँ-वहाँ भटकाती है और न ही किसी प्रकार की उपदेशबाज़ी के फेर में पड़ती है। यह बात उल्लेखनीय है कि प्रत्येक कहानी में ऐसा कुछ ख़ास अवश्य है, जो पढ़ते-पढ़ते नए ज्ञान के साथ-साथ जीवनोपयोगी मंत्र भी सौंप जाती है। इन कहानियों को पढ़ते-पढ़ते पाठक के मन में यह अहसास अवश्य जागेगा कि उसने जीवन के एक यथार्थ से साक्षात्कार किया है।

संग्रह की कहानियों की मौलिकता और जीवंतता भी बरबस आकर्षित करती है। कुछ कहानियों में आंचलिकता उनकी प्रमुख विशेषता के रूप में उभर कर आई है। विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी श्री आर. के. तलवार की महानता को संग्रह की प्रथम कहानी “अहंकार” में रेखांकित किया गया है। लेखक सुरेश  पटवा अस्सी वर्षीय यशस्वी जीवन यात्रा पूर्ण करने वाले श्री तलवार की दिव्य चेतना से अभिभूत है। पुदुच्चेरी में श्री अरविंद आश्रम में लेखक की उस महामानव से भेंट हुई थी। कहानी में अहंकार को बहुत ही अच्छी तरह समझाया गया है। “ग़ालिब का दोस्त” कहानी में महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब और धनपति बंशीधर की आदर्श दोस्ती को बड़ी कुशलता के साथ कहानी में ढाला गया है। सच्ची मित्रता न तो जाँत-पाँत देखती है और न अमीर गरीब। दिनों मित्रों का वार्तालाप मन में आत्मीयता का रस घोल देता है। “अनिरुद्ध ऊषा” कहानी में भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध और शोणितपुर की राजकुमारी ऊषा की प्रेम कहानी को ऐतिहासिकता के पुट के साथ प्रस्तुत किया गया है। यह कहानी इतनी विकट है कि श्रीकृष्ण और शिवजी को युद्ध में आमने सामने खड़ा कर दिया है। “कच-देवयानी” भी शोणितपुर की ही प्रेम कहानी है। कहानी में बहुत अंतर्द्वंद है। यह कहानी महाभारत में भी वर्णित है। कच बृहस्पति के पुत्र थे और देवयानी शुक्राचार्य की पुत्री। जब कच ने देवयानी का प्रेम प्रस्ताव ठुकरा दिया तो उसने कच को श्राप दे दिया था। कच भी शांत नहीं रहा उसने भी देवयानी को श्राप दिया कि कोई भी ऋषि पुत्र उससे विवाह नहीं करेगा और वह पति प्रेम को तरसेगी। “गेंदा और गुलाबो” कहानी भी कम रसभरी नहीं है। इस कहानी के साथ प्रख्यात सोहागपुरी सुराही की अंतर्कथा भी चलती है। सतपुड़ा अंचल में परवान चढ़ी एक और प्रेम कहानी “शब्बो-राजा” शीर्षक से संग्रह में शामिल है। कहानी में प्रेम, षड्यंत्र और हत्या का त्रिकोण है। उसमें प्रतिशोध की आग भी है। “सोहिनी और मोहिनी” कहानी में राजाओं की रंगीन ज़िंदगी का चित्रण है। कहानी के केंद्र में सोहिनी और मोहिनी नाम की दो युवा नर्तकियाँ हैं। हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि रीवा के राजा मोहिनी से और शोभापुर के राजा सोहिनी से विवाह रचाते हैं।

एक थी कमला” एक दर्द भरी कहानी है। कमला के जीवन की त्रासदी उद्वेलित करती है। वह जी जान से सबकी सेवा करती है, किंतु उसको जीवन में वांछित सुख नहीं मिलता। “अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा” कहानी अन्य कहानियों से भिन्न पृष्ठभूमि की कहानी है। यह कहानी प्रख्यात समाज सेवी मुरली धर आमटे द्वारा की गई अद्वितीय कुष्ठ सेवा का इतिहास बयान करती है। उन्होंने सम्पन्न परिवार एवं अंग्रेज सरकार के महत्वपूर्ण सुख सुविधाओं की छोड़कर खुद को कुष्ठ मुक्ति आंदोलन के लिए समर्पित कर दिया था। बड़ी प्रेरक कहानी है यह। “गढ़चिरोली की रूपा” एक ऐसी हथिनी की कहानी है, जिसको अनेकों कोशिशों के बाद भी मातृत्व सुख नहीं मिला। वह बसंती नामक दूसरी हथिनी की सौतिया डाह की शिकार बनी। कहानी बताती है कि सौतिया डाह मनुष्यों की तरह जानवरों में भी व्याप्त है। “बीमार-ए-दिल” एक रोचक कहानी बन पड़ी है। कहानीकार सुरेश पटवा को दिल के आपरेशन से गुजरना पड़ा। जिसकी अनुभूति तटस्थ मौज मस्ती में लिखी है। आपरेशन के भय का चित्रण तो पढ़ते ही बनता है। “साहब का भेड़ाघाट दौरा” शरद ऋतु की चाँदनी रात में अतीव सौंदर्य प्रकटन के वर्णन समेटे है। “सभ्य जंगल की सैर” वनीय सौंदर्य को समेटे उत्कृष्ट व्यंगात्मक कहानी है। “भर्तृहरि वैराग्य” कहानी में उज्जैन के राजा भर्तृहरि के वैराग्य-पथ पर अग्रसर होने का चित्रण है। राजा की पत्नी की बेवफ़ाई उसका कारण बनी। यह कहानी मित्रों की उज्जैन से भोपाल की यात्रा के दौरान संवाद शैली में आकार लेती है। चार दोस्तों में एक स्वयं लेखक भी है। “ठगों का काल कैप्टन स्लीमैन” बहुत रोचक अन्दाज़ में लिखी गई एतिहासिक कहानी है।

इन कहानियों की रचना में श्री सुरेश पटवा का श्रम प्रणम्य और कहानियों के लिए शोध कार्य अभिनंदनीय है। संग्रह की कहानियाँ पठन आनंद और प्रेरणा दोनों से पाठकों को आनंदित करेंगी, ऐसा विश्वास है।

© श्री युगेश शर्मा

कहानीकार, नाटककार एवं समीक्षक

‘व्यंकटेश कीर्ति’, 11 सौम्या एनक्लेव एक्सटेंशन, चूना भट्टी, भोपाल-462016 मो 9407278965

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -9 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 9 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

अंडमान जाने को मिलना मेरे लिए बहुत ही सौभाग्य की बात थी। यह सब यादें मैंने  अपने मन में अभी भी संभाल कर रखी है।

अंडमान जाने के लिए मैंने पूरी तरह से तैयारी की थी। मेरे पापा की मदद़ से सावरकर जी की ‘जन्मठेप’ किताब का प्र.के. अत्रेजी द्वारा किया हुआ संक्षिप्त रूप मैने सुना। इसलिये मेरी मन की तैयारी हो गई। हम सिर्फ सफर पर नहीं जा रहे हैं बल्कि एक महान क्रांतिकारक के स्पर्श से पावन हुई भूमि को प्रणाम करने जा रहे हैं, यह मैंने मन में ठान लिया और वैसा अनुभव भी किया। लगभग १२८ सावरकर प्रेमी, सावरकर जीं के लिए आदर रखने वाले वहां गए थे। महाराष्ट्र, कर्नाटक, दिल्ली ऐसे प्रांतों से प्रेमी इकट्ठे हुए थे। ऐसा लग रहा था कि सब लोगों की एकता जागृत हो गई है। हम सब लोग हरिप्रिया एक्सप्रेस से पहली बार तिरुपति गए। बेलगाम स्टेशन पर सब का भव्य स्वागत हुआ। सावरकर जी के तस्वीर को फूलों की माला चढ़ाई। छोटा सा भाषण भी हुआ। नारेबाजी से बेलगाम स्टेशन हिल गया, आवाज गूंजने लगी। वह अनुभव बहुत रोमांचक था। हम चेन्नई पहुंच गए। चेन्नई से अंडमान हमारा ‘किंगफिशर’ का हवाई जहाज था। मेरे साथ मेरी बहन तो थी ही लेकिन बाकी लोगों ने भी मुझे संभाल लिया।

एयर होस्टेस ने भी बहुत मदद की। वह मेरे साथ हिंदी में बोल रहे थे। उन्होंने हवाई जहाज का बेल्ट कसने के लिए मेरी मदद की। इस सफर के कारण मैंने अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी ऊंचाई को छू लिया। हवाई जहाज का सफर अच्छी तरह से हो गया और सावरकर जी जिस कमरे में कैद थे वहां उनको प्रणाम करने का अवसर मिला।

अंडमान में उतरने के बाद हम सब सावरकर प्रेमियों को फिर एक बार सावरकर युग का अवतार हुआ है ऐसा लगा। हम सब सावरकर प्रेमियों ने तीन दिन के कार्यक्रम की तैयारी की थी। अंडमान में ‘चिन्मय मिशन’ का एक बहुत बड़ा सभागार है।वहाँ बाकी सब लोगों के कार्यक्रम हो गए। पहले दिन बेलगाम का विवेक नाम का लड़का था। उसका कद सावरकरजी की तरह ही था, वैसा ही दुबला पतला। उसके हाथ पैर में फूलों की माला डालकर जेल तक हमने जुलूस निकाला। सावरकर जी को जैसा ध्वज अपेक्षित था, वैसा ही केसरी ध्वज और उस पर कुंडलिनी शक्ति लेकर गए थे। वही ध्वज लेकर सब लोगों ने बड़े आदर के साथ प्यार से सावरकर जी के उस कमरे तक जाकर उनको प्रणाम किया। वह जेल बहुत ही भयावह लग रही था। वह बड़ी जेल, बड़ी जगह, फांसी का फंदा, जहां कैदियों को मारते थे वह जगह, सब सुनकर मैं हैरान हो गई। सावरकर जी जो पहनते थे उस कोल्हू को मैंने हाथ लगा कर देखा तो मैं हैरान हो गई। कोल्हू याने कि जिसे बैल को बांधकर जिससे तेल निकाला जाता है, उसी कोल्हू को बैल की जगह सावरकर जी को बांधकर ३० पौंड तेल निकाला जाता था। अपनी भारत माता के लिए उन्होंने कितने कष्ट उठाए, अत्याचार सहे, कितनी चोटें खाई उसकी याद आयी तो मेरे शरीर पर रोमांच उठ गए। आंखों से आंसू आते थे। उनके त्याग की कीमत हम लोगों ने क्या की? ऐसा ही लगता था, अफसोस होता है।

हमारे साथ दिल्ली के श्रीवास्तव जी थे। वे ७५ साल के थे। आश्चर्य की बात यह है कि उनके ५२ साल तक उनको सावरकर जी कौन थे यह मालूम ही नहीं था। उनका कार्य क्या है यह भी मालूम नहीं था। लेकिन एक बार उनके कार्य की महानता, उनका बड़प्पन मालूम पड़ा तो वह इतने प्रभावित हो गए कि उन्होंने सावरकर जी के कार्यों पर पी.एच.डी. हासिल की।

श्रीवास्तव दादाजी नें हमें जेल के उस जगह पर सावरकर जी की खूब यादें बताई। उस में से एक बताती हूं, अपने एक युवा क्रांतिकारी को दूसरे दिन फांसी देना था, तो जल्लाद ने उनको पूछा “तुम्हारी आखिरी इच्छा क्या है?”, उस पर वह बोले, “मुझे उगता हुआ सूरज दिखाओ”। तो जल्लाद ने हँसकर कहा, “तुम लोगों के लिए मैं ही सूरज हूँ।”  उस पर वह क्रांतिकारक ने तुरंत उत्तर दिया “तुम डूबता हुआ सूरज हो,  मुझे उगता हुआ सूरज दिखाओ, मुझे सावरकर जी को देखना है”, धन्य है वह क्रांतिकारी ।

वहाँ के हॉल में कोल्हापुर के पूजा जोशी ने, ‘सागरा प्राण तळमळला’ यह गीत पेश किया। रत्नागिरी के लोगों ने सावरकर और येसु भाभी में जो वार्तालाप था वह पेश किया। इसलिए मैंने कहा कि उधर सावरकर युग छा गया था।

अपनी मातृभूमि को परतंत्रता के जंजीरों से मुक्त करने के लिए सावरकर जी ने कितने कष्ट उठाए, अत्याचार सहे; यह सब आज की युवा पीढ़ी को समझना ही चाहिए। इसीलिए हमारे सांगली के ‘सावरकर प्रतिष्ठान’ के लोग आज भी नए-नए कार्यक्रमों का आयोजन कर रहे हैं।

सब लोगों ने सावरकर जी की ‘माझी जन्मठेप’ यह किताब पढ़नी चाहिए, ऐसी मैं सबसे विनम्र प्रार्थना करती हूँ।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 59 – सारे सुखाचे सोबती ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 59 – सारे सुखाचे सोबती ☆

काठी सवे देते राया

हात तुज सावराया।

बेइमान दुनियेत

आज नको बावराया।

 

थकलेले गात्र सारे

भरे कापरे देहाला।

अनवाणी पावलांस

नसे अंत चटक्याला।

 

तनासवे मन लाही

आटलेली जगी ओल।

आर्त घायाळ मनाची

जखमही किती खोल।

 

मारा ऊन वाऱ्याचा रे।

जीर्ण वस्त्राला सोसेना।

थैलीतल्या संसाराला

जागा हक्काची दिसेना।

 

कृशकाय क्षीण दृष्टी

वणवाच भासे सृष्टी।

निराधार जीवनात

भंगलेली स्वप्नवृष्टी।

 

वेड्या मनास कळेना

धावे मृगजळा पाठी।

सारे सुखाचे सोबती

दुर्लभ त्या भेटीगाठी।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 82 ☆ साधन नहीं साधना ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  स्त्री विमर्श साधन नहीं साधना।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 82 ☆

☆ साधन नहीं साधना ☆

‘आदमी साधन नहीं, साधना से श्रेष्ठ बनता है। आदमी उच्चारण से नहीं, उच्च-आचरण से अपनी पहचान बनाता है’… जिससे तात्पर्य है, मानव धन-दौलत व पद-प्रतिष्ठा से श्रेष्ठ नहीं बनता, क्योंकि साधन तो सुख-सुविधाएं प्रदान कर सकते हैं, श्रेष्ठता नहीं। सुख, शांति व संतोष तो मानव को साधना से प्राप्त होती है और तपस्या व आत्म-नियंत्रण इसके प्रमुख साधन हैं। संसार में वही व्यक्ति श्रेष्ठ कहलाता है, अथवा अमर हो जाता है, जिसने अपने मन की इच्छाओं पर अंकुश लगा लिया है। वास्तव में इच्छाएं ही हमारे दु:खों का कारण हैं। इसके साथ ही हमारी वाणी भी हमें सबकी नज़रों में गिरा कर तमाशा देखती है। इसलिए केवल बोल नहीं, उनके कहने का अंदाज़ भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। वास्तव में उच्चारण अर्थात् हमारे कहने का ढंग ही, हमारे व्यक्तित्व का आईना होता है, जो हमारे आचरण को पल-भर में सबके सम्मुख उजागर कर देता है। सो! व्यक्ति अपने आचरण व व्यवहार से पहचाना जाता है। इसलिए ही उसे विनम्र बनने की सलाह दी गई है, क्योंकि फूलों-फलों से लदा वृक्ष सदैव झुक कर रहता है; सबके आकर्षण का केंद्र बनता है और लोग उसका हृदय से सम्मान करते हैं।

‘इसलिए सिर्फ़ उतना विनम्र बनो; जितना ज़रूरी हो, क्योंकि बेवजह की विनम्रता दूसरों के अहं को बढ़ावा देती है।’ दूसरे शब्दों में उस स्थिति में लोग आपको अयोग्य व कायर समझ, आपका उपयोग करना प्रारंभ कर देते हैं। आपको दूसरों को हीन दर्शाने हेतु निंदा करना, उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है अथवा आदत में शुमार हो जाता है। यह तो सर्वविदित है कि आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का सेवन मानव को सदैव हानि पहुंचाता है। इसलिए उतना झुको; जितना आवश्यक हो ताकि आपका अस्तित्व कायम रह सके। ‘हां! सलाह हारे हुए की, तज़ुर्बा जीते हुए का और दिमाग़ खुद का… इंसान को ज़िंदगी में कभी हारने नहीं देता।’ सो! दूसरों की सलाह तो मानिए,परंतु अपने मनोमस्तिष्क का प्रयोग अवश्य कीजिए और परिस्थितियों का बखूबी अवलोकन कीजिए। सो! ‘सुनिए सबकी, कीजिए मन की’ अर्थात् समय व अवसरानुकूलता का ध्यान रखते हुए निर्णय लीजिए। ग़लत समय पर लिया गया निर्णय, आपको कटघरे में खड़ा कर सकता है… अर्श से फ़र्श पर लाकर पटक सकता है। वास्तव में सुलझा हुआ व्यक्ति अपने निर्णय खुद लेता है तथा उसके परिणाम के लिए दूसरों को कभी भी दोषी नहीं ठहराता। इसलिए जो भी करें, आत्म- विश्वास से करें…पूरे जोशो-ख़रोश से करें। बीच राह से लौटें नहीं और अपनी मंज़िल पर पहुंचने के पश्चात् ही पीछे मुड़कर देखें, अन्यथा आप अपने लक्ष्य की प्राप्ति कभी भी नहीं कर पाएंगे।

‘इंतज़ार करने वालों को बस उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं।’ अब्दुल कलाम जी का यह संदेश मानव को निरंतर कर्मशील बने रहने का संदेश देता है। परंतु जो मनुष्य हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता है, परिश्रम करना छोड़ देता है और प्रतीक्षा करने लग जाता है कि जो भाग्य में लिखा है अवश्य मिल कर रहेगा। सो! उन लोगों के हिस्से में वही आता है, जो कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं। दूसरे शब्दों में आप इसे जूठन की संज्ञा भी दे सकते हैं। ‘इसलिए जहां भी रहो, लोगों की ज़रूरत बन कर रहो, बोझ बन कर नहीं’ और ज़रूरत वही बन सकता है, जो सत्यवादी हो, शक्तिशाली हो, परोपकारी हो, क्योंकि स्वार्थी इंसान तो मात्र बोझ है, जो केवल अपने बारे में सोचता है। वह उचित- अनुचित को नकार, दूसरों की भावनाओं को रौंद, उनके प्राण तक लेने में भी संकोच नहीं करता और सबसे अलग-थलग रहना पसंद करता है।

‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते और कभी हम समझा नहीं पाते।’ इसलिए सदैव उस सलाह पर काम कीजिए, जो आप दूसरों को देते हैं अर्थात् दूसरों से ऐसा व्यवहार कीजिए, जिसकी आप दूसरों से अपेक्षा करते हैं। सो! अपनी सोच सदैव सकारात्मक रखिए, क्योंकि जैसी आपकी सोच होगी, वैसा ही आपका व्यवहार होगा। अनुभूति और अभिव्यक्ति एक सिक्के के दो पहलू हैं। सो! जैसा आप सोचेंगे अथवा चिंतन-मनन करेंगे, वैसी आपकी अभिव्यक्ति होगी, क्योंकि शब्द व सोच मन में संदेह व शंका को जन्म देकर दूरियों को बढ़ा देते हैं। ग़लतफ़हमी मानव मन में एक-दूसरे के प्रति कटुता को बढ़ाती है और संदेह व भ्रम हमेशा रिश्तों को बिखेरते हैं। प्रेम से तो अजनबी भी अपने बन जाते हैं। इसलिए तुलना के खेल में न उलझने की सीख दी गई है, क्योंकि यह कदापि उपयोगी व लाभकारी नहीं होती। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहीं आनंद व अपनत्व अपना प्रभाव खो देते हैं। इसलिए स्पर्द्धा भाव रखना अधिक कारग़र है,क्योंकि छोटी लाइन को मिटाने से बेहतर है, लंबी लाइन को खींच देना… यह भाव मन में तनाव को नहीं पनपने देता; न ही यह फ़ासलों को बढ़ाता है।

परमात्मा ने सब को पूर्ण बनाया है तथा उसकी हर कृति अर्थात् जीव दूसरे से अलग है। सो! समानता व तुलना का प्रश्न ही कहां उठता है? तुलना भाव प्राणी-मात्र में ईर्ष्या जाग्रत कर, द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न करता है, जो स्नेह, सौहार्द व अपनत्व को लील जाता है। प्रेम से तो अजनबी भी परस्पर बंधन में बंध जाते हैं। सो! जहां त्याग, समर्पण व एक- दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव होता है, वहां आनंद का साम्राज्य होता है। संदेह व भ्रम अलगाव की स्थिति का जनक है। इसलिए शक़ को दोस्ती का दुश्मन स्वीकारा गया है। भ्रम की स्थिति में रिश्तों में बिखराव आ जाता है और उनकी असामयिक मृत्यु हो जाती है। इसलिए समय रहते चेत जाना मानव के लिए उपयोगी है, हितकारी है, क्योंकि अवसर व सूर्य में एक ही समानता है। देर करने वाले इन्हें हमेशा के लिए खो देते हैं। इसलिए गलतफ़हमियों को शीघ्रता से संवाद द्वारा मिटा देना चाहिए ताकि ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ वाली भयावह स्थिति उत्पन्न न हो जाए।

‘ज़िंदगी में कुछ लोग दुआओं के रूप में आते हैं और कुछ आपको सीख देकर अथवा पाठ पढ़ा कर चले जाते हैं।’ मदर टेरेसा की यह उक्ति अत्यंत सार्थक व अनुकरणीय है। इसलिए अच्छे लोगों की संगति प्राप्त कर, स्वयं को सौभाग्यशाली समझो व उन्हें जीवन में दुआ के रूप में स्वीकार करो। दुष्ट लोगों से घृणा मत करो, क्योंकि वे अपना अमूल्य समय नष्ट कर, आपको सचेत कर अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं, ताकि आपका जीवन सुचारु रुप से चल सके। यदि कोई आप से उम्मीद करता है, तो यह उसकी मजबूरी नहीं…आप के साथ लगाव व विश्वास है। अच्छे लोग स्नेह-वश आप से संबंध बनाने में विश्वास रखते हैं … इसमें उनका स्वार्थ व विवशता नहीं होती। इसलिए अहं रूपी चश्मे को उतार कर जहान को देखिए…सब अच्छा ही अच्छा नज़र आएगा, जो आपके लिए शुभ व मंगलमय होगा, क्योंकि दुआओं में दवाओं से अधिक प्रभाव- क्षमता होती है। सो! ‘किसी पर विश्वास इतना करो, कि वह तुमसे छल करते हुए भी खुद को दोषी समझे और प्रेम इतना करो कि उसके मन में तुम्हें खोने का डर हमेशा बना रहे।’ यह है, प्रेम की पराकाष्ठा व समर्पण का सर्वोत्तम रूप, जिसमें विश्वास की महत्ता को दर्शाते हुए, उसे मुख्य उपादान स्वीकारा गया है।

अच्छे लोगों की पहचान बुरे वक्त में होती है, क्योंकि वक्त हमें आईना दिखलाता है और हक़ीक़त बयान करता हैं। हम सदैव अपनों पर विश्वास करते हैं तथा उनके साथ रहना पसंद करते हैं। परंतु जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो बड़ी तकलीफ़ होती है। परंतु उससे भी अधिक पीड़ा तब होती है, जब कोई अपना पास रहकर भी दूरियां बना लेता है… यही है आधुनिक मानव की त्रासदी। इस स्थिति में वह भीड़ में भी स्वयं को अकेला अनुभव करता है और एक छत के नीचे रहते हुए भी उसे अजनबीपन का अहसास होता है। पति-पत्नी और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं और नितांत अकेलापन अनुभव करते-करते टूट जाते हैं। परंतु आजकल हर इंसान इस असामान्य स्थिति में रहने को विवश है, जिसका परिणाम हम वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या के रूप में स्पष्ट देख रहे हैं। पति-पत्नी में अलगाव की परिणति तलाक़ के रूप में पनप रही है, जो बच्चों के जीवन को नरक बना देती है। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में क़ैद है। परंतु फिर भी वह धन-संपदा व पद-प्रतिष्ठा के उन्माद में पागल अथवा अत्यंत प्रसन्न है, क्योंकि वह उसके अहं की पुष्टि करता है।

अतिव्यस्तता के कारण वह सोच भी नहीं पाता कि उसके कदम गलत दिशा की ओर अग्रसर हैं। उसे भौतिक सुख-सुविधाओं से असीम आनंद की प्राप्ति होती है। इन परिस्थितियों ने उसे जीवन क्षणभंगुर नहीं लगता, बल्कि माया के कारण सत्य भासता है और वह मृगतृष्णा में उलझा रहता है। और… और …और अर्थात् अधिक पाने के लोभ में वह अपना हीरे-सा अनमोल जीवन नष्ट कर देता है, परंतु वह सृष्टि-नियंता को आजीवन स्मरण नहीं करता, जिसने उसे जन्म दिया है। वह जप-तप व साधना में विश्वास नहीं करता… दूसरे शब्दों में वह ईश्वर की सत्ता को नकार, स्वयं को भाग्य-विधाता समझने लग जाता है।

वास्तव में जो मस्त है, उसके पास सर्वस्व है अर्थात् जो व्यक्ति अपने ‘अहं’ अथवा ‘मैं ‘ को मार लेता है और स्वयं को परम-सत्ता के सम्मुख समर्पित कर देता है…वह जीते-जी मुक्ति प्राप्त कर लेता है। दूसरे शब्दों में ‘सबके प्रति सम भाव रखना व सर्वस्व समर्पण कर देना साधना है; सच्ची तपस्या है…यही मानव जीवन का लक्ष्य है।’ इस स्थिति में उसे केवल ‘तू ही तू’ नज़र आता है और मैं का अस्तित्व शेष नहीं रहता। यही है तादात्मय व निरहंकार की मन:स्थिति …जिसमें स्व-पर व राग- द्वेष की भावना का लोप हो जाता है। इसके साथ ही धन को हाथ का मैल कहा गया है, जिसका त्याग कर देना ही श्रेयस्कर है।

जहां साधन के प्रति आकर्षण रहता है, वहां साधना  दस्तक देने का साहस नहीं जुटा पाती। वास्तव में धन-संपदा हमें गलत दिशा की ओर ले जाती है…जो सभी बुराइयों की जड़ है और साधना हमें कैवल्य की स्थिति तक पहुंचाने का सहज मार्ग है, जहां मैं और तुम का भाव शेष नहीं रहता। अलौकिक आनंद की मनोदशा में, कानों में अनहद-नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं, जिसे सुन कर मानव अपनी सुध-बुध खो बैठता है और इस क़दर तल्लीन हो जाता है कि उसे सृष्टि के कण-कण में परमात्मा की सूरत नज़र आने लगती है। ऐसी स्थिति में लोग आप को अहंनिष्ठ समझ, आपसे खफ़ा रहने लगते हैं और व्यर्थ के इल्ज़ाम लगाने लगते हैं। परंतु इससे आपको हताश-निराश नहीं, बल्कि आश्वस्त होना चाहिए कि आप ठीक दिशा की ओर अग्रसर हैं; सही कार्यों को अंजाम दे रहे हैं। इसलिए साधना को जीवन में उत्कृष्ट स्थान देना चाहिए, क्योंकि यही वह सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम मार्ग है, जो आपको मोक्ष के द्वार तक ले जाता है।

सो! साधनों का त्याग कर, साधना को अपनाइए। जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है… ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए और दूसरों को संतुष्ट करने के लिए जीवन में समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चलते रहिए’ विवेकानंद जी की यह उक्ति बहुत कारग़र है। समय, सत्ता, धन व शरीर  जीवन में हर समय काम नहीं आते, सहयोग नहीं देते… परंतु अच्छा स्वभाव, समझ, अध्यात्म व सच्ची भावना जीवन में सदा सहयोग देते हैं। सो! जीवन में तीन सूत्रों को जीवन में धारण कीजिए… शुक़्राना, मुस्कुराना व किसी का दिल न दु:खाना। हर वक्त ग़िले-शिक़वे करना ठीक नहीं… ‘कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्तियों को लहरों के सहारे/’ अर्थात् सहज भाव से जीवन जिएं, क्योंकि इज़्ज़त व तारीफ़ खरीदी नहीं जाती, कमाई जाती है। इसलिए प्रशंसा व निंदा में सम-भाव से रहने का संदेश दिया गया है। सो! प्रशंसा में गर्व मत करें व आलोचना में तनाव-ग्रस्त मत रहें… सदैव अच्छे कर्म करते रहें, क्योंकि ईश्वर की लाठी कभी आवाज़ नहीं करती। समय जब निर्णय करता है; ग़वाहों की दरक़ार नहीं होती। तुम्हारे कर्म ही तुम्हारा आईना होते हैं; जो तुम्हें हक़ीक़त से रू-ब-रू कराते हैं। इसलिए कभी भी किसी के प्रति ग़लत सोच मत रखिए, क्योंकि सकारात्मक सोच का परिणाम सदैव अच्छा ही होगा और प्राणी-मात्र के लिए मंगलमय होगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 34 ☆ महिला-पुरुष समानता का आलोक ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “महिला-पुरुष समानता का आलोक”.)

☆ किसलय की कलम से # 34 ☆

☆ महिला-पुरुष समानता का आलोक ☆

भारतीय जनमानस में परपराएँ एवं रीति-रिवाज अव्यवस्थाओं के नियंत्रण हेतु ही बनाई गई हैं। समाज में इनकी अनदेखी करना असामाजिक कृत्य समझा जाता है। प्राचीन काल से वर्तमान तक देखने में आया है कि तात्कालिक सामाजिक व्यवस्थाओं को ध्यान में रखकर ही परम्पराएँ बनाई गई हैं और समय-समय पर उनमें बदलाव भी होते आए हैं। इसका कारण बदलता सामाजिक ढाँचा तथा बदलती परिस्थितियाँ ही रही हैं।

आवश्यकतानुसार जिस तरह महिलाएँ घर और घूँघट से बाहर आई हैं । जातिबंधन शिथिल हुए हैं, बढ़ती शैक्षिक योग्यता से छोटे और बड़े की खाई पटती जा रही है। धर्म-कर्म की मान्यताएँ बदल रही हैं। लोक-परलोक का भय कम होता जा रहा है । इन सब को देखते हुए एवं पौराणिक खोजबीन के पश्चात ऐसे अनेक कारणों एवं प्रतिबंधों के मूल तक पहुँचने में हमने सफलता पाई है।

यही कारण है कि अब वर्तमान में अनेक अवांछित बंदिशें कमजोर पड़ती जा रही हैं। हम रिश्ते-नातों की बात करें, पति-पत्नी की बात करें, परिवार और समाज की बात करें। अब वह पुराना माहौल कम ही दिखता है। अब कमजोर पक्ष सुदृढ़ हो चुका है। समाज में स्त्री पुरुष के समान अधिकारों से वाकई क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। आज ढोंग, दकियानूसी एवं अंधविश्वास जैसी बातों पर विराम लगता जा रहा है। आज केवल उन्हीं परम्पराओं का निर्वहन किया जा रहा है, जो यथार्थ में समाज के लिए उपयोगी हैं।

आज हम देखते हैं कि महिलाएँ वे सारे कार्य सम्पन्न कर रही हैं जिन्हें पहले पुरुष वर्ग किया करता था। यह बताने की कोई आवश्यकता नहीं है कि चूल्हा-चौका से लेकर अंतरिक्ष तक महिलाएँ कहीं पीछे नहीं हैं। तकनीकि, विज्ञान, राजनीति, उद्योग, समाजसेवा एवं खेलकूद में भी महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व देखा जा सकता है।

अब यह स्थिति है कि प्राचीन अनुपयुक्त परपराओं एवं रीति रिवाजों के अनुगामी स्वयं पिछड़ों की श्रेणी में गिने जाने लगे हैं। यह बात इंसानों को काफी देर से समझ में आई कि जब भगवान ने स्त्री-पुरुष में अंतर नहीं किया तो हम अंतर क्यों करें? जब हमने इस अंतर को पाटना प्रारंभ कर ही दिया है तो कुछेक विरोधी स्वर उठेंगे ही। यह भी एक सामाजिक प्रवृत्ति है कि प्रत्येक अच्छे कार्य का विरोध लोग अपनी अपनी तरह से शुरू कर ही देते हैं, लेकिन समय का बहाव विरोध को आखिर बहाकर ले ही जाता है, यह बात भी सच है।

समाज में तानाशाही भला कैसे चल सकती है। यहाँ एक अकेला नहीं पूरा का पूरा इन्सानी समूह है जिसमें सर्वसम्मति या बहुमत की मान्यता है। झुके हुए पलड़े का वजन भारी होता है और भारी का वर्चस्व ही होता है। इसलिए आज नहीं तो कल हमें इस बहाव के साथ बहना ही होता है। पहले महिलाओं पर प्रतिबंध कुछ ज्यादा ही हुआ करते थे और वे इन प्रतिबंधों के चलते घर तक ही सीमित रहती थीं, लेकिन आज आप हम बदलते परिवेश के स्वयं साक्षी हैं। आज जब एक लड़की अपने पिता की अर्थी को कंधा दे सकती है। अंतिम संस्कार कर सकती है। सैनिक, पायलट, ड्राइवर, उद्योग-धंधे एवं व्यवसाय कर सकती है। राजनीति के शिखर पर पहुँच सकती है, तब ऐसा कौन सा कार्य है जिसकी जिम्मेदारी से महिला कताराये या संकोच करे।

जब हमारे इसी समाज ने उसे उपरोक्त अनुमति दी है तब कुछ कुतार्किक परपराओं, रीति-रिवाजों से दूर रखकर क्या हम उन्हें इन सारी सहूलियतों और लाभों से वंचित तो नहीं कर रहे हैं, जो पुरुष वर्ग को प्राप्त हैं। पुरुष वर्ग को जिन कर्मों से पुण्य मिलता है, उसी कर्म से महिला वर्ग पाप की भागीदार कैसे हो सकता है? आप हम स्वयं सोचें एवं अपनी आत्मा से पूछें तब आपकी आत्मा स्वमेव महिलाओं का पक्ष लेगी।

वैसे तो भारतीय समाज में महिलाओं को लेकर अनेक मतभेद एवं विवाद होते रहे हैं। वर्षों पूर्व शनि शिंगणापुर में एक महिला द्वारा शनिदेव की पूजा करने और मूर्ति पर तेल चढ़ाने के मामले पर भी विवाद खड़ा हो गया था। तब वहाँ एक साथ दोनों पक्ष अपनी अपनी बात को उचित बतला रहे थे । एक ओर पुजारी, स्थानीय लोग एवं परम्परावादी प्राचीन प्रथा को आगे बढ़ाना चाहते थे, वहीं अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति सहित दूसरे पक्ष ने शनिदेव की पूजा में महिलाओं को शामिल करना गलत नहीं माना था। तब उस विवाद का क्या परिणाम हुआ? भारतीय मानस पटल पर इसका क्या प्रभाव पड़ा या जीत किसकी हुई ? परपराओं की या बदलती परिस्थितियों की, इन बातों पर प्रबुद्धों द्वारा विशेष चिंतन किया जाना चाहिए।

मेरी मान्यता है कि आस्थावादी मानव चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष दोनों ही अपनी पूजा-भक्ति एवं किए गए कर्मों से पुण्य कमाकर तथाकथित बैकुंठ या स्वर्ग जाना चाहता है, फिर पूजन-अर्चन में प्रतिबंध या बंदिशें क्यों?

हमारे वेदों में कहा गया है कि जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवताओं का वास होता है। अतः वर्तमान में भी जब महिलाएँ अंतरिक्ष तक जा रही हैं, तब इनको प्रात्साहित करना एक तरह से पुरुषवर्ग का दायित्व ही है। समाज बदल रहा है, यह सबको समझना होगा। आईये, हम महिला-पुरुष समानता का आलोक फैलाएँ और ईश्वर की प्रत्येक सन्तान हेतु पवित्र वातावरण बनाएँ।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 81 ☆ गीत – दिल के दरवाजे …. ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  किशोर मनोविज्ञान पर आधारित एक  भावप्रवण  “गीत – दिल के दरवाजे ….। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 81 – साहित्य निकुंज ☆

गीत – दिल के दरवाजे …. 

दिल के दरवाजे पर कौन आ गया।

आके हौले हौले मन पे छा गया।

 

छा गई अधरों  पर फूल सी मुस्कान।

हो गया  जीवन में अब मेरा निर्माण।

तिमिर में अब अंधेरा हटता ही गया।

आके हौले हौले मन पे छा गया।

दिल के दरवाजे पर कौन आ गया।

 

आज इस कठिन दौर में क्या हो गया

नहीं पता किस ओर क्या क्या खो गया

कैसे  जीना जीवन तु  सिखला गया।

आके हौले हौले मन पे छा गया।

दिल के दरवाजे पर कौन आ गया।

 

जिंदगी का हर सफर लगता कठिन

साथ तेरा हो तो  सब है मुमकिन।

तेरा साथ ही मुझको तो भा गया।

आके हौले हौले मन पे छा गया।

दिल के दरवाजे पर कौन आ गया।

 

तुम ही मेरे जीवन का संधान हो

मैं नयन नीर तुम गंगा का उत्थान हो

प्रणय  की सरस गाथा वो रचता गया।

आके हौले हौले मन पे छा गया।

दिल के दरवाजे पर कौन आ गया।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 71 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 71 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

आतीं जब भी मुश्किलें, यही कुचक्र का खेल

अब अपराधी बढ़ रहे, पहुँच रहे हैं जेल

 

छल-कपट से बचें सदा, यही पाप का द्वार

सदा काम आता हमें, अपना सच आचार

 

शीतल सौरभ सी पवन, तन से कर तकरार

पहनाती हो कंठ पर, ज्यूँ फूलों का हार

 

अंदर फूलों के बसे, प्रगति परक संदेश

संवर्धन के श्रोत वह, ऐसा है परिवेश

 

सूरज सबको पालता, देकर अपनी ओज

रोशन करता है जहाँ, यही सबेरे रोज

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 74 – विजय साहित्य – संस्कारांचे ताट ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 74 – विजय साहित्य – संस्कारांचे ताट ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

साहित्य सेवक।

दावितसे वाट।

संस्कारांचे  ताट।

व्यासंगात ।।

 

साहित्य सेवक ।

अक्षरांचे घट ।

अनुभूती  पट ।

साकारीती ।।

 

सुखदुःख  झळ ।

शब्दांकित केली ।

अंतरात नेली।

भावसृष्टी ।।

 

साहित्य सेवक ।

सुख दाखवितो।

दुःख  अव्हेरितो ।

साहित्यात ।।

 

साहित्य सेवक  ।

लेखणीची वाणी  ।

सृजन  कहाणी  ।

नवनीत  ।।

 

साहित्य सेवक ।

सोडी राग लोभ  ।

दुःख, द्वेष क्षोभ ।

भारवाही   ।।

 

कविराजा हाती

शब्दपुष्प माला

केली जीवनाला

समर्पित. . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 54 ☆ हाशिए पर…☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “हाशिए पर…”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 54 – हाशिए पर…

एक दिन पहले मैंने सुझाव देते हुए सहयोग की अपील की  और अगले ही दिन मुस्कुराते हुए कहा आप से बेहतर इसे कोई नहीं कर सकता अब इसे आप संभालें। जब डिब्बे में घुन का ही राज्य हो तो अनाज अपने आप ही पिस जायेगा। गेंहू के साथ घुन भी पिसता है,ये तो तब होगा जब गेंहू चक्की में पिसने हेतु जाए। पर यदि अनाजों में घुन लगा हो तो क्या होगा ?

आकर्षक रंग रोगन से युक्त डिब्बा है ही इतना सुंदर कि कोई ये देखता भी नहीं कि इसमें कीड़े तो नहीं पड़े हैं। बस सुंदरता पर मोहित हो भर दिया सारा अनाज, अब न तो रोते बन रहा है न हँसते। धीरे – धीरे बिना चक्की के सारा अनाज बुरादे में बदलता जा रहा है। वो कहते हैं न कि जो होता है, अच्छे के लिए होता है। सो सकारात्मक सोच लेकर बढ़ते रहो। जो लोग सचेत नहीं होंगे उनका नुकसान तो बनता ही है। जब कुछ मिटेगा तभी तो नए का सृजन होगा। नए का दौर चलते ही रहना चाहिए वैसे भी रुका हुआ जल, पुरानी सोच व एक ही व्यक्ति इन सबको समय के साथ बदलना तो चाहिए। बदलाव तो उन्नति का चिन्ह है।

सबको बदलते हुए व्यक्ति ये भूल जाता है कि आज नहीं तो कल वो भी समय के तराजू में तौला जाने वाला है। क्या करें समय और बाँट किसी के सगे नहीं होते। ये तो वही दिखाते हैं जितना असली वज़न होता है।अब व्यवहार का क्या है ? ये तो कभी असली  कभी नकली मुखौटा पहन कर सबको धोखा देने में माहिर होता है। कई बार देखकर सब कुछ अनदेखा करना ही पड़ता है। शांति और सामंजस्य की कीमत चुकाना कोई आसान कार्य नहीं होता है इसके लिए तिल – तिल कर जलना होगा।

जलना और जलाना इन्हीं दो शास्त्रों पर तो पूरी दुनिया टिकी हुई है। बस कुछ न कुछ करते रहिए, क्योंकि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। जब कर्म करेंगे तो कभी न कभी फल मिलेगा ही। हो सकता है सूद सहित मिले। वैसे भी गीता का गान तो यही कहता है कि फल की इच्छा न रखें। महँगाई और कीटनाशकों का प्रभाव फलों भी पड़ रहा है सो  फलों को खाकर ताकत आयेगी ये कहना भी आसान नहीं है।

चक्कर पर चक्कर चलाते हुए वे सबको घनचक्कर बना रहे हैं और एक हम हैं जो पृथ्वी गोल है ये मानकर ही हर बार अपनी धुरी पर घूमते हुए जहाँ से चले थे वहीं पहुँच कर अपना पुनर्मूल्यांकन करते नजर आते हैं। और हर बार स्वयं से प्रण करते हैं कि इस बार चौगुनी तेजी से कुछ नया कर गुजरेंगे। बस इसी जद्दोजहद में उम्र तमाम हुई जा रही है। जब कदम बढ़ते हैं, तभी न जाने कहाँ से हाशिया आ जाता है और हम स्वयं को हाशिए पर खड़ा पाते हैं। पर क्या करें, हम तो ठहरे भगवतगीता के अनुयायी सो कृष्ण मार्ग पर चलते हुए आज नहीं तो कल चक्रव्यूह भेद कर ही दम लेंगे और विजयी भव के साथ अपना परचम फहराते हुए कुछ नया कर गुजरेंगे।

जैसे ही कोई नया कार्य शुरू हुआ कि झट से कोई न कोई शिकारी बाज की तरह टपक पड़ता है, अब कार्य पर ध्यान दें या शिकारियों पर। खैर वही घिसा पिटा राग अलापते हुए उसी दौड़ में फिर से शामिल हो गए। जोड़- तोड़ में तो उनकी मास्टरी है। जहाँ उनको स्नेह से बुलाया नहीं कि  सारी योजना चौपट, फिर वही अपना रंग फैलाते हुए हर समय सबको अपने रंग में रंगने की अचूक कोशिश करने लगते हैं। यहाँ भी वही पृथ्वी गोल है का किस्सा, जिन नीतियों को कोई पसंद नहीं करता है, उसे फिर से चलाने लगे। अब क्या किया जाए चुपचाप देखते रहो क्योंकि जैसे ही सक्रियता बढ़ाई, सबके चहेते बनने की कोशिशें की, तभी पुनः हाशिए पर धकेलने हेतु कोई न कोई नयी योजना द्वार पर दस्तक देते हुए कह उठेगी आप लोग जागरूक बन कर चिंतन करें। स्वयं के साथ- साथ सबको जगाएँ।

कितना भी प्रयास करो हाशिए पर आना ही होगा,ये बात अलग है कि यदि पूरी ताकत से कोशिश की जाए तो हाशिए पर आप की जगह आपको हाशिए पर पहुँचाने वाला हो सकता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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