हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #93 ☆ कविता – किशोरी बेटियां ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक  विचारणीय कविता  ‘किशोरी बेटियां इस सार्थकअतिसुन्दर कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 93 ☆

☆ कविता – किशोरी बेटियां ☆

मन में ऊँची ले उड़ाने, बढ़ रही हैं ये किशोरी बेटियां

स्कूल में जो वृक्ष पर, संग खड़ी हैं ये किशोरी बेटियां

 

कोई भी परिणाम देखो, अव्वल हैं हर फेहरिस्त में

हर हुनर में लड़कों पे भारी पड़ रही हैं ये किशोरी बेटियां

 

अब्बा अम्मी और टीचर, हौसले ही सब बढ़ा सकते हैं बस

अपना फ्यूचर खुद बखुद ही गढ़ रही हैं ये किशोरी बेटियां

 

तालीम का गहना पहनकर, बुरके को तारम्तार कर

औरतों के हक की खातिर लड़ रही हैं ये किशोरी बेटियां

 

“कल्पना” हो या “सुनीता” गगन में, “सोनिया” या “सुष्मिता”

रच रही वे पाठ खुद जो, पढ़ रही हैं ये किशोरी बेटियां

 

इनको चाहिये प्यार थोड़ा परवरिश में, और केवल एक मौका

करेंगी नाम, बेटों से बढ़कर होंगी साबित ये किशोरी बेटियां

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 76 – हाइबन- नक्शे का मंदिर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- नक्शे का मंदिर। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 76☆

☆ हाइबन- नक्शे का मंदिर ☆

नक्शे पर बना मंदिर! जी हां, आपने ठीक पढ़ा। धरातल की नीव से 45 डिग्री के कोण पर बना भारत के नक्शे पर बनाया गया मंदिर है। इसे भारत माता का मंदिर कह सकते हैं। इस मंदिर की छत का पूरा नक्शा भारत के नक्शे जैसा हुबहू बना हुआ है। इसके पल में शेष मंदिर का भाग है।

इस मंदिर की एक अनोखी विशेषता है । भारत के नक्शे के उसी भाग पर लिंग स्थापित किए गए हैं जहां वे वास्तव में स्थापित हैं । सभी बारह ज्योतिर्लिंग के दर्शन इसी नक्शे पर हो जाते हैं।

कांटियों वाले बालाजी का स्थान कांटे वालों पेड़ की अधिकता के बीच स्थित था। इसी कारण इस स्थान का नाम कांटियों वाले बालाजी पड़ा।  रतनगढ़ के गुंजालिया गांव, रतनगढ़, जिला- नीमच मध्यप्रदेश में स्थित भारत माता के इस मंदिर में बच्चों के लिए बगीचे, झूले, चकरी आदि लगे हुए हैं । इस कारण यह बच्चों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

कटीले पेड़~

नक्शे पर सेल्फी ले

फिसले युवा।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-09-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 61 ☆ बाल साहित्य – दाँतों की आत्मकथा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक विचारणीय आलेख  “दाँतों की आत्मकथा.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 61 ☆

☆ बाल साहित्य – दाँतों की आत्मकथा ☆ 

मित्रो मैं दाँत हूँ, बल्कि आज मैं अपनी ही नहीं, बल्कि सभी बत्तीस साथियों की आत्मकथा इसलिए लिख रहा हूँ कि बच्चों से लेकर बड़े तक हमारे प्रति सचेत नहीं रहते। मुँह में साफ सुथरे सुंदर – सुंदर खिलखिलाते हम दाँत सभी को अच्छे लगते हैं। हम दाँतों की सुंदरता से ही चेहरे की आभा और कांति बढ़ जाती है। लोग बात करना और मिलना – जुलना भी पसंद करते हैं। प्रायः हम मनुष्य के मुख में बत्तीस होते हैं। सोलह ऊपर और सोलह नीचे के जबड़े में। हम दाँतों की सरंचना कैल्शियम के द्वारा ही हुई है, इसलिए जो बच्चे बचपन से ही साफ – सफाई और बिना नाक मुँह बनाएअर्थात मन से दूध , पनीर, दही आदि कैल्शियम वाली खाने- पीने की चीजें अपने भोजन में सम्मिलित करते हैं तथा खूब चबा- चबा कर भोजन आदि करते हैं तो हम जीवन भर उनका साथ निभाते हैं। क्योंकि ईश्वर ने बत्तीस दाँत इसलिए दिए हैं ताकि हम दाँतों से एक कौर को बत्तीस बार चबा चबा कर ही खाएँ, ऐसा करने से जीभ से निकलनेवाला अमृत तत्व लार भोजन में सुचारू से रूप से मिल जाता है और भोजन पचाने की प्रक्रिया आसान हो जाती है। हड्डियां मजबूत रहती हैं। हम दाँत भी हड्डी ही हैं।

हम  जब बच्चा एक वर्ष का लगभग हो जाता है तो हम आना शुरू हो जाते हैं। फिर धीरे-धीरे हम निकलते रहते हैं। बचपन में हमको दूध के दाँत कहते हैं। जब बच्चा छह वर्ष का लगभग हो जाता है तब हम दूध के दाँत धीरे – धीरे उखड़ने लगते हैं और हम नए रूप रँग में आने लग जाते हैं।

हम दाँत कई प्रकार के होते हैं। हमें अग्रचवर्णक, छेदक, भेदक, चवर्णक कहते हैं। अर्थात इनमें हमारे कुछ साथी काटकर खाने वाले खाद्य पदार्थ को काटने का काम करते हैं, कुछ चबाने का, कुछ पीसने आदि का काम करते हैं।

मुझे अपनी और साथियों की आत्मकथा इसलिए लिखनी पड़ रही है कि मनुष्य जाति बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक हमारे प्रति घोर लापरवाही बरतती है। और हमें बहुत सारी बीमारियाँ मुफ्त में दे देती है या हमारी असमय मृत्यु तक करा देती है। हमारे बीमार रहने या हमारी असमय मृत्यु होने से  बच्चा या बड़ा भी बहुत दुख और कष्ट उठाता है, डॉक्टर के पास भागता है। अपना कीमती समय और धन बर्बाद करता है। असहनीय दर्द से चिल्लाता है, दवाएँ खाता है।

एक हमारे जाननेवाले दादाजी हैं, जो बालकपन और किशोरावस्था में हम दाँतों के प्रति बहुत लापरवाह थे। जब उनकी युवावस्था आई तो वे कुछ सचेत हुए, लेकिन तब तक बहुत देर हो गई थी, वे इस बीच हम दाँतों के कारण बहुत पीड़ाएँ झेलते रहे। और इस बीच हमारे चार साथियों में असहनीय दर्द होने के कारण मुँह से ही निकलवाना पड़ा अर्थात हमारे चार साथियों की मृत्यु हो गई। फिर तो वे कष्ट पर कष्ट उठाते रहे। चार साथी खोने से हम भी असंतुलित हो गए और हमारे घिसने की रफ्तार भी बढ़ती गई। जब दादा जी की उम्र पचास रही होगी, तब तक हम बहुत घिस गए थे, उन्हें भोजन चबाने में बहुत दिक्कत होती गई और दादाजी को हमारे कुछ साथियों में आरसीटी करवाकर अर्थात हम दाँतों की नसों का इलाज कराकर कई कैप लगवाईं। फिर भी आए दिन ही दादाजी को बहुत कष्ट झेलना पड़ा। क्योंकि यह सब तो कामचलाऊ दिखावटी ही था। प्राकृतिक दाँतों अर्थात ईश्वर के दिए हुए हम दाँतों की बात कुछ और ही होती है। अर्थात मजबूत होते हैं। दादाजी ने कहा कि मनुष्य जाति को बताओ कि उसे बचपन से बड़े होने तक किस तरह हम दाँतों की देखभाल और साफ सफाई रखनी चाहिए।

दादाजी अब हमारी बहुत देखभाल करते हैं। दादाजी ने हमारे जीवन के ऊपर बहुत सुंदर कविता भी लिखी है। जो भी पढ़ेगा वह खुश हो जाएगा———– क्योंकि उनके मन की शुभ इच्छा है कि जो दाँतों की पीड़ा उन्हें हुई है, साथ ही समय और जो धन नष्ट हुआ है, वह उनकी आनेवाली पीढ़ी को बिल्कुल न हो।

बाल कविता – ” मोती जैसे दाँत चमकते “

हमको पाठ पढ़ाया करते

प्यारे अपने टीचर जी

दाँतों की नित रखें सफाई

कहते हमसे टीचर जी।।

 

दाँत हमारे यदि ना होते

हो जाता मुश्किल भी खाना

स्वाद दाँत के कारण लेते

इनको बच्चो सभी बचाना।।

 

जब- जब खाओ कुल्ला करना

नहीं भूल प्रिय बच्चो जाना

रात को सोना मंजन करके

भोर जगे भी यह अपनाना।।

 

चार तरह के दाँत हमारे

प्यारे बच्चो हैं होते

कुछ को हम छेदक हैं कहते

कुछ अपने भेदक होते।।

 

कुछ होते हैं अग्र चवर्णक

कुछ अपने भोजन को पीसें

खूब चबाकर भोजन खाएँ

कभी नहीं उस पर हम खीजें।।

 

सोलह ऊपर, सोलह नीचे

दाँत हमारे बच्चो होते

करें सफाई, दाँत- जीभ की

दर्द के कारण हम न रोते।।

 

मोती जैसे दाँत चमकते

जो उनकी रक्षा करते हैं

प्यारे वे सबके बन जाते

जीवन भर ही वे हँसते हैं।।

 

तन को स्वस्थ बनाना है तो

साफ – सफाई नित ही रखना,

योग, सैर भी अपनाना तुम

अपनी मंजिल चढ़ते रहना।।

दादाजी ने अपनी कविता में बहुत सुंदर ढंग से समझाने का प्रयास किया है, लेकिन हम दाँत आपको पुनः सचेत कर रहे हैं तथा हमारी बातों को सभी बच्चे और बड़े ध्यान से सुन लेना कि जो कष्ट और पीड़ा दादाजी ने उठाई है वह आपको न उठानी पड़े। समय और धन की बचत हो, डॉक्टर के की क्लिनिक के चक्कर न लगाने पड़ें, इसलिए हमें स्वस्थ रखने के लिए नित्य ही वह कर लेना जो मैं दाँत आपसे कह रहा हूँ —-

बच्चे और बड़े सभी लोग अधिक ठंडा और अधिक गर्म कभी नहीं खाना। न ही अधिक ठंडे के ऊपर अधिक गर्म खाना और न ही गर्म के बाद ठंडा। ऐसा करने से हम दाँत बहुत जल्दी कमजोर पड़ जाते हैं। साथ ही पाचनतंत्र भी बिगड़ जाता है। भोजन के बाद ठंडा पानी कभी न पीना । अगर पीना ही पड़ जाए तो थोड़ा निबाया अर्थात हल्का गर्म ही पीना। जो लोग भोजन के तुरंत बाद ठंडा पानी पीते हैं उनका भी पाचनतंत्र बिगड़ जाता है। पान, तम्बाकू, गुटका खाने वाले तथा रात्रि के समय टॉफी, चॉकलेट या चीनी से बनी मिठाई खानेवाले भी सावधान हो जाना। अर्थात खाते हो तो जल्दी छोड़ देना, नहीं तो हम दाँतों की बीमारियों के साथ ही अन्य भयंकर बीमारियों को भी जीवन में झेलना पड़ेगा।

भोजन के बाद और कुछ भी खाने के बाद कुल्ला अवश्य करना। रात्रि को सोने से पहले मंजन या टूथपेस्ट से ब्रश करके अवश्य सोना। अच्छा तो यह रहेगा कि साथ में गर्म पानी में सेंधा नमक डालकर कुल्ला और गरारे भी कर लेना। ऐसा करने से हम भी जीवन भर  स्वस्थ और मस्त रहेंगे और हमारे स्वस्थ रहने से आप भी। साथ में हमारी जीवनसंगिनी जीभ की भी जिव्ही से धीरे-धीरे सफाई अवश्य कर लेना। क्योंकि बहुत सारा मैल भोजन करने के बाद जीभ पर भी लगा रह जाता है। जब ब्रश करना तो आराम से ही करना, जल्दबाजी कभी न करना। दोस्तो जल्दबाजी करना शैतान काम होता है। सुबह जगकर दो तीन गिलास हल्का गर्म पानी बिना ब्रश किए ही पी लेना। ऐसा करने से आपको जीवन में कभी कब्ज नहीं होगा। शौचक्रिया ठीक से सम्पन्न हो जाएगी। बाद में ब्रश या मंजन कर लेना या गर्म पानी में सेंधा नमक डालकर कुल्ला और गरारे कर लेना। थोड़ा मसूड़ों की मालिश भी कर लेना। ये सब करने हम हमेशा स्वस्थ और सुंदर बने रहेंगे तथा जीवनपर्यन्त आपका साथ निभाते रहेंगे। नींद भी अच्छी आएगी । जो लोग हमारा ठीक से ध्यान और सफाई आदि नहीं करते हैं उनके दाँतों में कीड़े लग जाते हैं, अर्थात कैविटी बन जाती है या पायरिया आदि भयंकर बीमारियाँ हो जाती हैं।

दोस्तो आपने अर्थात सभी बच्चे और बड़ों ने हम दाँतों का कहना मान लिया तो जान लीजिए कि आप हमेशा तरोताजा और मुस्कारते रहेंगे। हर कार्य में मन लगेगा। पूरा जीवन मस्ती से व्यतीत होता जाएगा।

मैं दाँत आत्मकथा समाप्त करते- करते एक संदेश और दे रहा हूँ कि अपने डॉक्टर खुद ही बनना और ये भी सदा याद रखना—-

 “जो भी करते अपने प्रति आलस, लापरवाही।

उनको जीवन में आतीं दुश्वारी और बीमारीं।।”

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १०) – राग~मारवा, पूरिया, सोहोनी ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

☆ सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १०) – राग~मारवा, पूरिया, सोहोनी ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

मारवा,पूरिया,सोहोनी मारवा थाटोत्पन्न हे तीन राग! गोत्र एकच परंतु प्रत्येकाची कुंडली भिन्न, साम्य असूनही वेगळी दिसणारी! स्वभाव वेगळा, चाल वेगळी, स्वतंत्र अस्तित्व असणारी अशी ही तीन सख्खी भावंडेच!

मारवा थाट म्हणजे कोमल रिषभ आणि तीव्र मध्यम घेऊन येणारा. अर्थातच या तीनही रागांत रे कोमल आणि म तीव्र, पंचम वर्ज्य, बाकीचे स्वर शुद्ध. अर्थातच यांची जाति षाडव~षाडव.

सगळे स्वर तेच असतांना प्रत्येक राग आपले स्वतंत्र अस्तित्व कसे काय टिकवितो हा एक मोठा प्रश्नच आहे नाही का?  याचे ऊत्तर असे की प्रत्येकाचे चलन संपूर्णपणे वेगळे आहे. दुरून येणार्‍या किंवा पाठमोर्‍या एखाद्या माणसाला आपण जसे त्याच्या चालण्यावरून अचूक ओळखतो तसेच ह्या रागांचे आहे.

ह्या लेखांत आपण मारवा या रागाचे विवेचन करूया.

मारव्याचे सर्व सौंदर्य शुद्ध धैवतात एकवटलेले आहे. या स्वराबद्धल जाणकारांत बरीच मतभिन्नता आहे. कोणी शुद्ध धैवत तर कोणी कोमल आणि शुद्ध या दोन धैवतामधील श्रुतींवर लागणारा धैवत मारव्यात असला पाहीजे असे मानतात. असा कलात्मक धैवत मारव्याचे सौंदर्य खुलवितो, अधिक मोहक रूप व्यक्त करतो. याच्या चलनांत पुर्वांगांत कोमल रिषभ व उत्तरांगांत शुद्ध धैवत प्रबळ आहे. राग विस्तार करतांना षड्जाचा कमीत कमी वापर असल्यामुळे कलाकाराची हा राग सादर करतांना कसोटीच असते. नी(रे)—ग(म)ध— (म)ध(म)ग(रे)—सा। ध आणि रे वर न्यास असे याचे स्वरूप आहे. कोमल रिषभांतून आर्त भाव उमटतात. दिवस व रात्र यांची संधि होण्याची, संधिकालीन वेळ मनाला एकप्रकारची हुरहुर लावणारी, उदास! अशावेळी मारव्याचे सूर त्यातील तीव्र मध्यमामुळे अधिकच कातर वाटतात.”पैया परत छांड दे मोरी गगरी।जाने दे पनिया भरनको शामसुंदर।।ह्या पंक्ती ऐकल्या की गोपींची आर्त विनवणी मारव्याच्या सुरांतून नेमकी समजते.

मारव्यात अनेक मराठी/हिंदी गीते संगीतबद्ध करण्यांत आली आहेत. अरूण दाते यांनी गायिलेले व र्‍हुदयनाथ मंगेशकरांनी संगीत दिलेले स्वरगंगेच्या काठावरती वचन दिले तू मला हे भावगीत मारव्याचे स्पष्ट रूप रसिकांस दाखविते. भक्तीतील करूणा आपल्याला धन्य ते गायनी कळा या नाटकांतील हे करूणाकरा ईश्वरा ह्या भजनांतून

अनुभवास येते.शब्द शब्द जपून ठेव बकुळीच्या फुलापरी हे सुमन कल्याणपूरचे भावगीत मारवा मधलेच!सांझ ढले गगनतले हम कितने है एकाकी ह्या शब्दांतूनच मारव्यातली ऊदासीनता दिसून येते.

अथांग सागराला भरती आली आहे,पौर्णिमेच्या चंद्रप्रकाशांत उसळणार्‍या लाटांची गाज कानावर पडते आहे,अशा निसर्गाच्या रूपाचे दर्शन म्हणजे मारवा!

भैरवकालिंगडा,भूपदेसकार,तोडीमुलतानीप्रमाणेच मारवापूरिया ही जोडी प्रसिद्ध आहे.

पुढील लेखांत आपण पूरिया रागाविषयी बोलूया.

 

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 82 – गौरैया आती है…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना गौरैया आती है….। )

☆  तन्मय साहित्य  #  82 ☆ गौरैया आती है….  

रोज सबेरे खिड़की पर

गौरैया आती है

और चोंच से टिक-टिक कर

वह मुझे जगाती है।

 

उठते ही मैं उसे देख

पुलकित हो जाता हूँ

पूर्व जन्म का रिश्ता

कोई अपना पाता हूँ,

चीं चीं चीं चीं करते

जाने क्या कह जाती है……..

 

आँगन में कुछ दाने

चावल के बिखेरता हूँ

बाहर टंगे सकोरे में

पानी भर देता हूँ

रोज सुबह इस पानी से

वह खूब नहाती है………..

 

चहचहाहटें घर में

मेरे सुबह शाम रहती

इन पंखेरुओं की किलौल

सब चिंताएं हरती

साँझ, ईश वंदन, कलरव

के मन्त्र सुनाती है…………

 

मिलकर गले लगाएं

इस भोली गौरैया को

और सुरक्षा – संरक्षण

इस सोन चिरैया को

घर आँगन में जो सदैव

खुशियाँ बरसाती है…

रोज सबेरे खिड़की पर

गौरैया आती है।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -5 – जागेश्वर धाम या मंदिर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -5 – जागेश्वर धाम या मंदिर”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -5 – जागेश्वर धाम या मंदिर ☆

उत्तराखंड के प्रमुख देवस्थलो में “जागेश्वर धाम या मंदिर” प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है । उत्तराखंड का यह  सबसे बड़ा मंदिर समूह ,कुमाउं मंडल के अल्मोड़ा जिले से 38 किलोमीटर की दूरी पर देवदार के जंगलो के बीच में स्थित है । जागेश्वर को उत्तराखंड का “पाँचवा धाम” भी कहा जाता है | जागेश्वर मंदिर में 125 मंदिरों का समूह है, इसमें से 108 मंदिर शिव के विभिन्न स्वरूपों, अवतारों को समर्पित हैं व शेष मंदिर अन्य देवी-देवताओं के हैं ।  अधिकाँश मंदिरों में पूजा अर्चना नहीं होती है केवल  4-5 मंदिर ही  प्रमुख है और इनमे  विधि के अनुसार पूजन-अर्चन होता है । जागेश्वर धाम मे सारे मंदिर समूह नागर   शैली से निर्मित हैं | जागेश्वर अपनी वास्तुकला के लिए काफी विख्यात है। बड़े-बड़े पत्थरों से निर्मित ये विशाल मंदिर बहुत ही सुन्दर हैं।

प्राचीन मान्यता के अनुसार जागेश्वर धाम भगवान शिव की तपस्थली है। यहाँ नव दुर्गा ,सूर्य, हमुमान जी, कालिका, कालेश्वर प्रमुख हैं। हर वर्ष श्रावण मास में पूरे महीने जागेश्वर धाम में पर्व चलता है । पूरे देश से श्रद्धालु इस धाम के दर्शन के लिए आते है। यहाँ देश विदेश से पर्यटक भी खूब आते हैं पर कोरोना संक्रमण की वजह से अभी भीड़ कम थी  । जागेश्वर धाम में तीन मंदिरों ने हमें आकर्षित किया,  पहला “शिव” के ज्योतिर्लिंग स्वरुप का जागेश्वर मंदिर, जिसके  प्रवेशद्वार के दोनों तरफ द्वारपाल, नंदी व स्कंदी की आदमकद मूर्तियाँ  स्थापित है। मंदिर के भीतर, एक मंडप से होते हुए गर्भगृह पहुंचा जाता है। मंडप परिसर में ही शिव परिवार गणेश, पार्वती की कई मूर्तियाँ स्थापित हैं। गर्भगृह में  शिवलिंग के आकर्षक स्वरुप के दर्शन होते हैं। दूसरा  विशाल मंदिर परिसर के बीचोबीच स्थित शिव के “महामृत्युंजय रूप” का है ।  मंदिर परिसर के दाहिनी ओर अंतिम छोर पर, महामृत्युंजय महादेव मंदिर के पीछे की ओर,अपेक्षाकृत छोटे से मंदिर में  पुष्टि भगवती माँ की मूर्ति स्थापित है।

मंदिर परिसर के समीप ही एक छोटा परन्तु बेहतर रखरखावयुक्त संग्रहालय है। यहाँ संग्रहित शिल्प जागेश्वर अथवा आसपास के क्षेत्रों से प्राप्त हुए है। यहाँ शिलाओं पर तराशे अनेक  भित्तिचित्रों में  नृत्य करते गणेश, इंद्र या विष्णु के रक्षक देव अष्ट वसु, खड़ी मुद्रा में सूर्य, विभिन्न मुद्राओं में उमा महेश्वर और विष्णु , शक्ति के भित्तिचित्र चामुंडा, कनकदुर्गा, महिषासुरमर्दिनी, लक्ष्मी, दुर्गा इत्यादि के रूप दर्शनीय  हैं। इस संग्रहालय की सर्वोत्तम कलाकृति है पौन राजा की आदमकद प्रतिकृति जो अष्टधातु में बनायी गयी है। यह कुमांऊ क्षेत्र की एक दुर्लभ प्रतिमा है।

जागेश्वर भगवान सदाशिव के बारह ज्योतिर्लिगो में से एक है । यह ज्योर्तिलिंग “आठवा” ज्योर्तिलिंग माना जाता है | इसे “योगेश्वर” के नाम से भी जाना जाता है। ऋगवेद में ‘नागेशं दारुकावने” के नाम से इसका उल्लेख मिलता है। महाभारत में भी इसका वर्णन है ।  द्वादश ज्योर्तिलिंगों   की उपासना हेतु निम्न वैदिक मंत्र का जाप किया जाता है । इसके अनुसार  दारुका वन के नागेशं को आठवे क्रम में  ज्योर्तिलिंग माना गया है ।

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।

उज्जयिन्यां महाकालमोंकारममलेश्वरम्॥1॥

परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम्।

सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।

हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥

एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रात: पठेन्नर:।

सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥

एक अन्य मान्यता के अनुसार द्वारका गुजरात से लगभग 20-25 किलोमीटर दूर, भगवान शिव को समर्पित नागेश्वर मंदिर, शिव जी के बारह ज्योर्तिलिंग में से एक है एवं इसे भी आठवां ज्योर्तिलिंग कहा गया है । धार्मिक मान्यताओं के अनुसार  नागेश्वर का अर्थ है नागों का ईश्वर । यह विष आदि से बचाव का सांकेतिक भी है। रूद्र संहिता  में यहाँ विराजे शिव को दारुकावने नागेशं कहा गया है। मैंने अपने इसी ज्ञान के आधार पर पुजारी से तर्क किया । पुजारी ने सहमति दर्शाते हुए अपना तर्क प्रस्तुत किया कि दारुका वन का अर्थ है देवदार का वन और देवदार के घने जंगल तो सामने जटागंगा नदी के उस पार स्थित हैं । फिर पुराणों में द्वारका का उल्लेख नहीं है अत: यही आठवां ज्योतिर्लिंग है । यह भी आश्चर्य की बात है कि अल्मोड़ा शहर से  इस स्थल तक  पहुंचने के पूर्व चीड़ के जंगल हैं पर मंदिर समूह के पास केवल देवदार के वृक्ष हैं और इसके कारण सम्पूर्ण घाटी गहरे हरे रंग से आच्छादित है ।  जागेश्वर को पुराणों में “हाटकेश्वर”  के नाम से भी जाना जाता है |

यद्दपि जनश्रुतियों के अनुसार जागेश्वर नाथ के मंदिर को पांडवों ने बनवाया था तथापि इतिहासकारों ने इस समूह को 8 वी से 10 वी शताब्दी  के दौरान कत्यूरी राजाओ और चंद शासकों  द्वारा निर्मित बताया है ।

जागेश्वर के इतिहास के अनुसार उत्तरभारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाडियों के कुमाउं क्षेत्र में कत्युरीराजा था | जागेश्वर मंदिर का निर्माण भी उसी काल में हुआ | इसी वजह से मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक दिखाई देती है | मंदिर के निर्माण की अवधि को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा तीन कालो में बाटा गया है “कत्युरीकाल , उत्तर कत्युरिकाल एवम् चंद्रकाल” | अपनी अनोखी कलाकृति से इन साहसी राजाओं ने देवदार के घने जंगल के मध्य बने जागेश्वर मंदिर का ही नहीं बल्कि अल्मोड़ा जिले में 400 सौ से अधिक मंदिरों का निर्माण किया था |जिसमे से जागेश्वर के आसपास  ही लगभग 150 छोटे-बड़े मंदिर है | मंदिरों के  निर्माण में  लकड़ी तथा चूने की जगह पर पत्थरो के स्लैब का प्रयोग किया गया है | दरवाज़े की चौखटे देवी-देवताओ की प्रतिमाओं से सुसज्जित हैं । इन प्रतिमाओं में शिव के द्वारपाल, नाग कन्याएं आदि प्रमुख हैं । कुछ मंदिरों में शिव के रूप भी उकेरे गए हैं । हमने शिव का तांडव नृत्य करते हुए एक प्रतिमा देखी । बीच में शिव नृत्य मुद्रा में एक हाथ में त्रिशूल तो दूसरे हाथ में सर्प लिए थिरक रहें हैं, उनके शेष दो हाथ नृत्य मुद्रा में हैं तो मुखमंडल में प्रसन्नता व्याप्त  है व नृत्य में लीं शिव के नेत्र बंद हैं । ऊपर की ओर शिव के दोनों पुत्र कार्तिकेय व गणेश विराजे हैं तो नीचे वाद्य यंत्रों के साथ गायन-वादन करती स्त्रियाँ हैं । एक अन्य प्रतिमा में शिव योग मुद्रा में बैठे हैं । उनके दो हाथों में से एक में दंड है तो दूसरा हाथ आशीर्वाद मुद्रा में है । ऊपर की ओर अप्सराएँ दृष्टिगोचर हो रहीं हैं तो नीचे पृथ्वी पर संतादी शिव का आराधना कर रहे  हैं । इन दोनों शिल्पों के ऊपर शिव की  त्रिमुखी प्रतिमाएं हैं ।

इस स्थान में कर्मकांड, संबंधी  जप, पार्थिव पूजन, महामृत्युंजय जाप, नवगृह जाप, काल सर्पयोग पूजन, रुद्राभिषेक आदि होते रहते है । इन आयोजनों के लिए जागेश्वर मंदिर प्रबंधन समिति के कार्यालय में संपर्क कर निर्धारित शुल्क जमा करना होता है । कोरोना संक्रमण काल में ऐसे आयोजन कम हो रहे थे और एक दिन पूर्व इसकी बुकिंग हो रही थी । लेकिन इस डिजिटल युग में विज्ञान अब आध्यात्म से मिल गया है और काउंटर पर बैठे सज्जन ने मुझे आनलाइन रुद्राभिषेक कराने की सलाह दी । मैंने तत्काल तो नहीं पर कुछ समय पश्चात विचार कर शुल्क जमा कर दिया व रसीद प्राप्त करली । आचार्य ललित भट्ट ने अपने व्हाट्स एप मोबाइल नंबर का आदान प्रदान किया और फिर मेरे भोपाल वापस आने पर संपर्क स्थापित कर आनलाइन रुद्राभिषेक का विधिवत पूजन दिनांक 04.12.2020 को करवाया । भोपाल में हम दोनों भाई, अमेरिका से भतीजा व कनाडा से पुत्र सपरिवार इस धार्मिक आयोजन में शामिल हुए । गणेश पूजन, गौरी पूजन, नवगृह पूजन के बाद आचार्य जी ने शिव का विधिवत पूजन अर्चन किया फिर जल से अभिषेक कर शिव का सुन्दर श्रृंगार किया । साथ ही हमें आनलाइन जागेश्वर नाथ के सम्पूर्ण मंदिर समूह के दर्शन कराए ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 33 ☆ जिंदगी चलती रही☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता जिंदगी चलती रही। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 33 ☆

☆ जिंदगी चलती रही ☆

जिंदगी दोजख जीती रही,

मैं जन्नत समझ जिंदगी जीता रहा,

जिंदगी आगे दौड़ती रही,

मैं जिंदगी के पीछे चलता रहा,

जिंदगी हर पल साँस देती रही,

मैं  साँसे यूँ ही उड़ाता रहा,

जिंदगी बिना रुके चलती रही,

मैं रुक-रुक कर उसे झांसा देता रहा,

जिंदगी अच्छा बुरा सब देती रही,

मैं अच्छाई नजरअंदाज कर उसे बुरा कहता रहा,

जिंदगी सम्भलने का मौका देती रही,

मैं ठोकरें खा कर जिंदगी को भला बुरा कहता रहा,

जिंदगी उतार-चढ़ाव दिखाती रही,

मैं जिंदगी की सच्चाई से मुंह मोड़ता रहा,

यह क्या जिंदगी तो मुझे ही छोड़ कर जाने लगी,

मैं रो-रोकर जिंदगी से जिंदगी की भीख मांगता रहा ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 85 – सत्यमेव ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 85 ☆

☆ सत्यमेव ☆

तू आहेस  माझ्या काळजाचा

एक हिस्सा!

जळी,स्थळी, काष्टी, पाषाणी

दिसावास सदासर्वदा

इतका प्रिय !

धुवाधाँर पावसात

भिजावे तुझ्यासमवेत,

एखादी चांदणरात्र

जागून काढावी

तुझ्या सहवासात,

हातात हात गुंफून

पादाक्रांत करावा

सागरी किनारा,

असे भाग्य नसेलही

लिहिले माझ्या भाळी,

पण माझ्या वर्तमानावर

लिहिलेले तुझे नाव–

ज्याने पुसून टाकला आहे,

माझा ठळक इतिहास,

त्याच तुझ्या नावाचा ध्यास

आता मंत्रचळासारखा!

भविष्याच्या रूपेरी वाटेवर

नसेलही तुझी संगत

पण माझ्या कहाणीतले

तुझे नाव

मध्यान्हीच्या सूर्यप्रकाशाइतके

प्रखर आणि

सत्यमेव!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ बालपणीच्या आठवणी…भाग-4 – खजिना ☆ सौ. अमृता देशपांडे

सौ. अमृता देशपांडे

☆  मनमंजुषेतून ☆ बालपणीच्या आठवणी…भाग-4 – खजिना ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆ 

बाबांची बदली “कद्रा ” येथे झाली. कारवारच्या पुढे काळी नदीच्या पलीकडे कद्रा हे छोटेसे खेडेगाव. गाव म्हणजे आदिवासी जमात आणि जंगल. तिथले सगळे वर्णन बाबा आम्हाला अगदी रंगवून सांगत असत. बाबांनी सांगितलेल्या त्या आठवणी  बाबांच्या शब्दात मांडल्या आहेत.

“मेडिकल ऑफिसर म्हणून माझं पोस्टिंग कद्रा येथे झालं. कद्रा म्हणजे जवळजवळ जंगलच. तेथील एक छोटीशी वस्ती असलेलं गाव. मनुष्यवस्ती अतिशय विरळ. लांब लांब वसलेल्या छोट्या छोट्या घरांची वसाहत. मी व सौ दोघे 2-3 गाड्या बदलून कद्र्याला पोचलो. गावातील लोकांना हे आलेले जोडपे डाॅक्टर आहेत, हे सहज लक्षात आले. जाॅन कपौंडरने दवाखाना दाखवला. एका ब्रिटिशकालीन बंगल्यामध्ये आमच्या रहाण्याचा इंतजाम केला होता. तो बंगला पाहिल्यावर मधुमती सिनेमातील महालाची आठवण झाली. भले मोठे दरवाजे, काचेची तावदाने असलेल्या चौकोनी मोठमोठ्या खिडक्या,  त्यावर अर्धगोलाकार रंगीत काचा, उंच छतावरून लोंबणारे दिवे, हंड्या, मोठाली दालने, अशा भव्य बंगल्यात रहाणार आम्ही दोघे.

पक्ष्यांच्या किलबिलाटाने सकाळी जाग येई. खिडकीतून येणा-या सूर्यकिरणांनी दिवसाची सुरुवात होत असे. सूर्य मावळला की दिवस संपला. घर ते दवाखाना,  दवाखाना ते घर. दुसरे काहीच नाही. इतरही वेळ घालवण्याचे साधन नाही.

आसपास चार घरे सोडली तर इतर सर्व परिसर जंगलच होतं. संध्याकाळ झाली की घराचे दरवाजे,  खिडक्या बंद ठेवा अशा सूचना वस्तीवरच्या लोकांनी दिल्याने दिवसाही खिडक्या  उघडण्याची भीती वाटत होती.

एकदा रविवारी सकाळी जाग आली तेव्हा जरा बाहेर जाऊन चक्कर मारून येऊ या असा विचार मनात आला.  दरवाजा उघडण्यापूर्वीच घाण वास  यायला लागला.  घरात शोधलं, उंदीर मरून पडलाय की काय? काहीच सापडलं नाही.. तेवढ्यात बाहेर घुर्र घुर्र आवाज आला. हळूच खिडकी  किंचितशी उघडून बघतो तर काय? ? बाप रे!

असा मोठ्ठा पिवळा जर्द पट्टेरी ढाण्या वाघाचं धूड व्हरांड्यात पसरलं होतं.  माझी तर बोबडीच वळली. खिडकी आवाज न करता बंद केली  आत जाऊन बसलो. दर दहा पंधरा मिनिटांनी कानोसा घेत होतो.  सगळा दिवस तो तिथेच होता. संध्याकाळ झाली तसा तो निघून गेला. दुस-या दिवशी जाॅनला सांगितलं तेव्हा तो हसायला लागला.  सायेब, अशेच आसता हंय….

एक दिवस कोवळी उन्हे अंगावर घेत व्हरांड्यात बसलो होतो. अचानक एक. कुत्र्याचं छोटुलं , गुबुगुबु पिल्लू शेपूट हलवत आमच्या जवळ आलं. बराच वेळ ते घोटाळत होतं. त्याला बहुतेक भूक लागली असावी असं समजून सौ ने चतकोर भाकरी दिली त्याला. ती खाऊन पिल्लू तिथेच रेंगाळलं. दुस-या दिवशी दार उघडलं तर पिल्लू हजर! दोनच दिवसात पिल्लू आपलंसं वाटू लागलं. आता रोज दोन्ही वेळी त्याची भाकरीची ताटली तयार असे. सौ ने त्याचं नाव ठेवलं “रघुनाथ”.

आता रोजचा वेळ रघुनाथ बरोबर छान जाऊ लागला. जवळपास फिरायला गेलो तरी रघुनाथ सोबत असेच. आम्हाला एक छान सोबती मिळाला.

एक दिवस अचानक रघुनाथ दिसेनासा झाला. दोन दिवस झाले, याचा पत्ताच नाही. मन अस्वस्थ झाले. जाॅनला विचारले,  तेव्हा तो सहजपणे म्हणाला, कुत्रे दिसत नाही,  तर नक्कीच वाघरानं खाऊन टाकलं असणार.

एवढंसं गोड पिल्लू वाघानं खाल्लं असं ऐकून खूप वाईट वाटलं. खूप चुकल्या चुकल्या सारखं वाटलं.  मुक्या प्राण्यांची सवय होते. पुढे नित्य व्यवहारात आठवण कमी होत गेली. कालाय तस्मै नमः II

क्रमशः…

© सौ अमृता देशपांडे

पर्वरी- गोवा

9822176170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 70 ☆ मस्तानी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “मस्तानी”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 70 ☆

☆ मस्तानी

हुई थी एक मस्तानी कभी!

मैं भी हूँ एक मस्तानी ही!

रंगी थी वो बाजीराव प्रेम में-

मौला के रंग रंगी हूँ मैं भी!

 

जब झील के पानी में झाँका,

उसमें मैंने अक्स अपना देखा;

किसी पर मर-मिट जाने वाला

जाने कहाँ से मैंने अंश देखा!

 

कई बहाने थे ज़िंदगी में लुत्फ़ के,

इश्क में मस्तानी ने किस्मत बोई!

शहर के चौराहों में क्या रखा था?

पहाड़ पर खड़े दरख्तों में मैं खोई!

`

मुहब्बत मस्तानी ने भी की थी,

मुहब्बत तो में भी करती हूँ;

समाज से उसने जंग थी लड़ी,

किसी से कहाँ मैं भी डरती हूँ!

 

जाने उसने हिम्मत कहाँ से पाई?

उसके पास भला कैसे ताकत थी?

ने’मत है मेरे पास तो मौला की,

इश्क शायद उसकी इबादत थी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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