हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #29 ☆ इन्सान बनिये ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है जिंदगी की हकीकत बयां करती एक भावप्रवण कविता “इन्सान बनिये”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 29 ☆ इन्सान बनिये ☆ 

हजारों वर्षों पहले

एक महात्मा ने कहा है

जब उसने देखा और सहा है

सबकी होती है

दो आंखें, दो हाथ

दो पांव, दो कान

एक नाक, एक सर है

वही जन्म की खुशी

और मृत्यु का डर है

हर व्यक्ति समान है

हम सब इंसान हैं

कुछ लोगों ने

पैदा किया है

लिंग, जाति, धर्म, देव

का भेद

विचारों में वैमनस्यता

और मतभेद

इसमें उन लोगों का

स्वार्थ है

इससे नहीं मिलनेवाला

परमार्थ है

अनेक महापुरुषों ने यह जाना

कठोर तपस्या से पहचाना

तब, जनमानस को समझाया

बार बार बतलाया

हम सब एक ही

ईश्वर की संतान हैं

हम सब का एक ही

भगवान है

बस-

उसको पाने के रास्ते

अलग अलग है

लक्ष्य एक है

पंथ अलग-अलग हैं

दीन दुखियों की पीड़ा

व्यथा, कष्ट दूर

कीजिये

निर्बल, पीड़ितों, शोषितों का

उत्कर्ष कर दुआएँ

लीजिये

इनकी आँखों में वो

झिलमिलाता है

इनके होंठों पें

वो मुस्कुराता है

गर, चुनना ही है तो

सत्य का मार्ग चुनिए

पाखंड को छोड़िये

बस, सच्चे इंसान बनिए।

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 34 ☆ तरुणाईच्या वळणावरती… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 35 ☆ 

☆ तरुणाईच्या वळणावरती… ☆

तरुणाईच्या वळणावरती

संकटे विपुल असतात

चांगले सुविचार कमी

वाईटच अनुभव जास्त येतात…१

 

तरुणाईच्या वळणावरती

सल्लेदार खूप मिळतात

फुकट सल्ले देतील तरी

सु-संस्कारित सल्ले न्यून असतात…२

 

तरुणाईच्या वळणावरती

ऐकावे जणाचे,करावे मनाचे

स्व-अनुभूती येऊन मग पहा

कामी काम,येईल अनुभवाचे…३

 

तरुणाईच्या वळणावरती

आदर ठेवावा मोठ्यांचा

सेवा करावी, मातृ-पितृची

आधार व्हा त्यांच्या उत्तरार्धाचा…४

 

तरुणाईच्या वळणावरती

फालतू कुठला गर्व नसावा

श्रम करुनि धन मिळवावे

उगाचच रिक्त वेळ न दवडावा…५

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 15 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

☆ मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 15 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆

सौ.अंजली गोखले 

(पूर्ण अंध असूनही अतिशय उत्साही. साहित्य लेखन तिच्या सांगण्यावरून लिखीत स्वरूपात सौ.अंजली गोखले यांनी ई-अभिव्यक्ती साठी सादर केले आहे.)

हा माझा नृत्याचा प्रवास सुरू असताना आणि अडचणी मला अजगरा सारख्या तोंड पसरून गिळंकृत करायला बघत असताना माझ्या बाबतीत काही चांगल्या घटनाही घडत होत्या. त्या गोड आणि रमणीय आठवणी मध्ये मला आपल्या वाचकांनाही सहभागी करून घ्यायचे आहे. त्या माझ्या आठवणींचे बंध जुळले आहे ते त्या माझ्या ताई,गोखले काकू,श्रद्धा, आई बाबा, टि म वीअनघा जोशी, माझे भाऊ बहिणी, इतर कामात मदत करणाऱ्या माझ्या मैत्रिणी, रिक्षावाले काका आणि प्रेक्षक सुद्धा.

ताईंच्या विषयीचे खास गोड आठवण मला इथे नमूद करावीशी वाटते. मी नृत्याच्या अगदी सुरुवातीच्या काळात शिकत असताना, बऱ्याच वर्षांनी काय चित्र दिसणार हे मला माहीतही नव्हते. समाजा ची प्रतीक्रीया काय असेल हेसुद्धा माहिती नव्हते. नृत्य सुरू राहील की नाही, आपल्याला जमेल की नाही अशा साशंक मनस्थितीत असताना त्यांनी मला अचानक सांगितले की दिवाळीनंतर असणाऱ्या सुचिता चाफेकर निर्मित कला वर्धिनी तर्फे होणाऱ्या”

नृत्यांकूर “कार्यक्रमात तुला तिश्र अलारपू म्हणजे नृत्यातला पहिला धडा सादर करायचा आहे. पुण्यामध्ये मुक्तांगण या हॉलमध्ये. हे ऐकून मी कावरीबावरी अन गोंधळून गेले. कारण स्वतः ताईंनी माझी पुण्यातल्या कार्यक्रमासाठी निवड केली होती. तिथे माझे कोणी नातेवाईक नसल्याने ताई मला त्यांच्या माहेरी घेऊन गेल्या. तिथे विश्रांती जेवण करून आम्ही लगेच हॉलवर गेलो. मी नटून-थटून मेकअप रूममध्ये तयार होऊन बसले होते आणि  बाहेरच्या गर्दीतून ताई आल्या. त्यांनी मला टेबल वर बसवलं आणि स्वतः खाली जमिनीवर बसून माझ्या पायांना आणि हातांना सुद्धा अलता लावला आणि तो माझ्या आयुष्यासाठी मोठा सन्मानच होता.

माझा नृत्याचा कार्यक्रम खूप रंगला आणि स्वतः सुचेता चाफेकर आणि सर्व पुणेकरांनी माझ्या पाठीवर कौतुकाची थाप दिली. तो दिवस माझ्यासाठी संस्मरणीय ठरला.

त्याच बरोबर भर दुपारी आपले सगळे व्याप बाजूला ठेवून,संसारातील कामे बाजूला ठेवून तीनच्या उन्हामध्ये माझ्या एम ए चा अभ्यास वाचून दाखवणाऱ्या गोखले काकूंना मी कधीच विसरू शकत नाही.

तिच्या कॉलेजचा अभ्यास करता करता माझ्यासाठी एम. ए. च्या लेखनिकाचं काम मनापासून करणारी, मला हसत खेळत साथ देणारी, मला हसवत ठेवणारी, इतर कार्यक्रमांनाही मेकप साठी मदत करणा री श्रद्धा म्हस्कर माझ्यासाठी अपूर्वाई ची मैत्रीण बनली.

टि म वी. मधल्या अनघा जोशी मॅडम त्यांनी मला लागेल ती मदत केली. त्याच बरोबर माझी दुसरी मैत्रीण सविता शिंदे माझी जीवाभावाची मैत्रीण जी मला  फिरायला फिरताना गप्पा मारायला अशी उपयोगी पडली. घरी सुद्धा आम्ही तासनतास गप्पा मारत असू. त्यातून एकमेकींच्या अडचणी समजून आम्ही एकमेकींना मदत ही करत असू.

ज्यावेळी मला घरातून क्लासमध्ये सोडायला कोणी नसेल त्यावेळी आमच्या चौकात ले रिक्षावाले काका बाबांना सांगत असतकी आम्ही शिल्पाला क्लास मध्ये सोडून आणि परत आणून सोडू. बाबा माणसांची पारख करून मला त्यांच्याबरोबर जाऊदेत.

म्हणून माझ्या मनात येतं की माझे खरे दोन डोळे नसले तरी अशा कितीतरी डोळ्यांनी मला मदत केली आहे आणि अशा असंख्य डोळ्यांनी मी जग पाहते आहे.

…. क्रमशः

© सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 85 ☆ व्यंग्य – सुख का बँटवारा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘सुख का बँटवारा ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 85 ☆

☆ व्यंग्य – सुख का बँटवारा 

समझदार लोग कह गये हैं कि सुख बाँटने से बढ़ता है और दुख बाँटने से हल्का होता है। लेकिन आज के ज़माने में अक्सर होता यह है कि दुख बाँटने से बढ़ जाता है और सुख इतने लोगों को दुखी कर देता है कि उसकी लज्जत जाती रहती है।

उस दिन मैं अपने जैसे चार पांच ठलुओं के साथ बैठा निन्दा-रस में स्नान कर रहा था। हमारा निन्दा का स्तर हमेशा राष्ट्रीय होता है। मुहल्ला स्तर की निन्दा से हम कभी संतुष्ट नहीं हुए जैसे कि कुछ निम्नस्तरीय लोग हो जाते हैं। दो तीन घंटे की भरपूर परनिन्दा के बाद हम लोग नयी स्फूर्ति और जीवन के प्रति नयी आस्था लेकर उठते थे। उसके बाद पूरा दिन उत्साह और उमंग में कट जाता था।

उस दिन हम सुख के सागर में गोते लगा रहे थे कि अचानक त्यागी जी आ गये। वे भी हमारी मंडली के सदस्य थे, लेकिन उस दिन लेट हो गये थे। यह आश्चर्य की बात थी क्योंकि आम तौर से परनिन्दा की संजीवनी की एक बूँद भी ज़ाया करना हमें बर्दाश्त नहीं होता।

त्यागी जी आकर निर्विकार और उदासीन भाव से बैठ गये। देखकर हमारा माथा ठनका। उनके निर्विकार दिखने का मतलब था कि कुछ था जो हमें बताने के लिए वे लालायित थे, और लालायित होने का मतलब था कि बात खुशी की थी। इसीलिए उनका भाव देखकर हमारा दिल बैठने लगा। निन्दा-रस बेमज़ा हो गया और, ज़बरदस्ती कुछ बोलते, हम तिरछी नज़रों से त्यागी जी को और सीधी नज़रों से एक दूसरे को देखने लगे।

उधर त्यागी जी हमारे पास से उठकर गुलाब की क्यारियों के पास खड़े होकर फूलों को देखने लगे थे। सालों से वे मेरे घर आते रहे थे, लेकिन उन्होंने कभी गुलाब और गोभी में फर्क नहीं किया था। आज वे जहांगीर की तरह गुलाब सूँघ रहे थे और काँटे हमारे दिल में चुभ रहे थे।

अन्त में वे हमारे पास आकर बैठ गये। उनकी मुद्रा देखकर हमें विश्वास हो गया कि वे कोई खुशी का हृदयविदारक समाचार सुनायेंगे।  थोड़ी देर बाद वे लम्बी साँस छोड़कर बोले, ‘गाड़ी उठा ही ली।’

हमें धक्का लगा, लेकिन हम पूरे दुखी नहीं हुए क्योंकि ‘गाड़ी’ शब्द में बैलगाड़ी से लेकर रेलगाड़ी तक समाहित होती है।

हमने धड़कते दिल से पूछा, ‘कौन सी गाड़ी?’

वे हमारी बात को अनसुना करके बोले, ‘लड़के बहुत दिन से पीछे पड़े थे। अब तक हम टालते रहे। आखिरकार कल उठा ही लाये।’

हमें लगा यह आदमी हमारी जान लेने पर तुला है। हमने फिर पूछा, ‘कौन सी गाड़ी?’

वे उदासीन भाव से बोले, ‘मारुती वैन।’

सुनकर हम सभी हृदयाघात की स्थिति में आ गये। सबके चेहरे का खून निचुड़ गया। शरीर में जान न रही।

हमारी मंडली के भाई रामजलन बची खुची उम्मीद से मिनमिना कर बोले, ‘सेकंड हैंड ली होगी।’

त्यागी जी हिकारत के भाव से बोले, ‘अपन सेकंड फेकंड हैंड में बिस्वास नहीं करते। आज गाड़ी खरीदी, कल मिस्त्री के दरवाजे खड़े हैं। अपन तो ब्रांड न्यू खरीदते हैं। लाख पचास हजार ज्यादा लग जाएं, लेकिन साल दो साल निस्चिंत भाव से गाड़ी तो चलायें।’

सुनकर रामजलन बेहोश हो गये। मैंने जल्दी से पानी के छींटे मारे तब वे दुबारा ज़िन्दा हुए। लेकिन वहाँ से उठकर भीतर पलंग पर लेट गये। बोले, ‘तबियत गड़बड़ है।’

बाहर हमारी निन्दा-मंडली के शनीचर भाई और मनहूस भाई फर्श में नज़रें गड़ाये ऐसे खामोश बैठे थे जैसे घर में गमी हो गयी हो। बड़ी देर बाद शनीचर भाई नज़रें उठाकर त्यागी जी से बोले, ‘बैंक से लोन लिया होगा।’

त्यागी जी हाथ उठाकर बोले, ‘अरे नहीं भइया! अपन लोन-फोन के चक्कर में नहीं पड़ते। अपन ने तो पूरे पैसे डीलर के मुँह पर मारे और गाड़ी उठा लाये।’

सुनकर शनीचर भाई चित्त हो गये और हम उन्हें भी लाद-फाँदकर पलंग पर लिटा आये। चिन्ता की बात नहीं थी क्योंकि ऐसा अक्सर होता रहता था।

मनहूस भाई ज़मीन में नज़र गड़ाये गड़ाये मुझसे धीरे से बोले, ‘हम कुछ नहीं पूछेंगे। हम दूसरे के घर में बेहोश नहीं होना चाहते।’

त्यागी जी उमंग में बोले, ‘भाई, हमने सोचा कि अपने घर में खुसी आयी है तो दोस्तों को बताना चाहिए। खुसी बाँटने से बढ़ती है। हम खुस हैं तो दोस्तों को भी खुस होना चाहिए।’

मुनमुन भाई खुशी की खबर सुनकर अखबार के पीछे मुँह छिपाये बैठे थे। त्यागी जी की बात सुनकर अखबार थोड़ा नीचे करके मरी आवाज़ में बोले, ‘ठीक कहा आपने। हम सबको बड़ी खुशी हुई।’

त्यागी जी बोले, ‘हम यह सोच कर आये थे कि कल नयी गाड़ी में कहीं पिकनिक पर चलेंगे। पिकनिक भी हो जाएगी और गाड़ी का उदघाटन भी हो जाएगा।’

मनहूस भाई भारी आँखें उठाकर बोले, ‘अभी एकाध हफ्ता तो रहने दीजिए, त्यागी जी। रामजलन भाई और शनीचर भाई की हालत तो आप देख ही रहे हैं। अपनी तबियत भी सबेरे से गिरी गिरी है। एकाध हफ्ते में सब धूल झाड़कर खड़े हो जाएंगे। फिर तो पिकनिक होना ही है।’

त्यागी जी प्रसन्न भाव से बोले, ‘जैसी पंचों की मर्जी।’

उस दिन का सत्यानाश हो चुका था। थोड़ी देर में त्यागी जी चले गये और उनके जाने के बाद सभी दोस्त भारी कदमों से विदा हुए। दुनिया अचानक बदसूरत हो गयी थी और हर चेहरे से चिढ़ लग रही थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 84 ☆ गाली के विरुद्ध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 84 ☆ गाली के विरुद्ध ☆

रात चढ़ रही है। एक मकान में घनघोर कलह जारी है। सास-बहू के ऊँचे कर्कश स्वर गूँज रहे हैं, साथ ही किसी जंगली पशु की तरह पुरुष स्वर की गुर्राहट कान के पर्दे से बार-बार टकरा रही है। अनुमान लगाता हूँ कि घर के बच्चे किसी कोने में सुन्न खड़े होंगे। संभव है कि डर से रो रहे हों जिनकी आवाज़ कर्कश स्वरों का मुकाबला नहीं कर पा रही हो। बच्चों की मनोदशा और उनके मन पर अंकित होते प्रभाव को नज़रअंदाज़ कर असभ्यता का तांडव जारी है।

‘थिअरी ऑफ इवोल्युशन’ या क्रमिक विकास का सिद्धांत आदमी के सभ्य और सुसंस्कृत होने की यात्रा को परिभाषित करता है। यह केवल एक कोशिकीय से बहु कोशिकीय होने की यात्रा भर नहीं है। संरचना के संदर्भ में विज्ञान की दृष्टि से यह सरल से जटिल की यात्रा भी है। ज्ञान या अनुभूति की दृष्टि से देखें तो संवेदना के स्तर पर यह नादानी से परिपक्वता की यात्रा है। विकास गलत सिद्ध हुआ है या उसे पुनर्परिभाषित करना है, इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।

लेकिन यहाँ चीखने-चिल्लाने के अस्पष्ट शब्दों में सबसे ज़्यादा स्पष्ट हैं पुरुष द्वारा बेतहाशा दी जा रही वीभत्स गालियाँ। माँ, पत्नी, बेटी की उपस्थिति में गालियों की बरसात। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह बरसात निम्न से लेकर उच्चवर्ग तक अधिकांश घरों में परंपरा बन चुकी है।

क्रोध के पारावार में दी जा रही गाली के अर्थ पर गाली देनेवाले के स्तर पर विचार न किया जाए, यह तो समझा जा सकता है। उससे अधिक यह समझने की आवश्यकता है कि घट चुकने के बाद भी उसी घटना की बार-बार, अनेक बार पुनरावृत्ति करनेवाले का बौद्धिक स्तर इतना होता ही नहीं कि वह विचार के उस स्तर तक पहुँचे।

वस्तुतः क्रोध में पगलाते, बौराते लोग मुझे कभी क्रोध नहीं दिलाते। ये सब मुझे मनोरोगी लगते हैं, दया के पात्र। बीमार, जिनका खुद पर नियंत्रण नहीं होता।

अलबत्ता गाली को परंपरा बनानेवालों के खिलाफ ‘मी टू’ की तरह एक अभियान चलाने की आवश्यकता है। स्त्रियाँ (और पुरुष भी) सामने आएँ और कहें कि फलां रिश्तेदार ने, पति ने, अपवादस्वरूप बेटे ने भी गाली दी थी। अपने सार्वजनिक अपमान से इन गालीबाज पुरुषों को वही तिलमिलाहट हो सकती है जो अकेले में ही सही गाली की शिकार किसी महिला की होती होगी।

गाली शाब्दिक अश्लीलता है, गाली वाचा द्वारा किया गया यौन अत्याचार और लैंगिक अपमान है। सरकार ने जैसे ‘नो स्मोकिंग जोन’ कर दिये हैं, उसी तरह गालियों को घरों से बाहर करने, बाहर से भी सीमापार करने के लिए एक मुहिम की आवश्यकता है।

आइए, ‘नो एब्यूसिंग’ की शपथ लें। गाली न दें, गाली न सुनें। गाली का सम्पूर्ण निषेध करें। व्यक्तिगत स्तर पर # No Abusing आरंभ कर रहा हूँ। आप भी साथ दें, इस अभियान से जुड़ें।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 40 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 40 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 40) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 40☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

यूँ इंतज़ार करना

तो हमे आता नहीं,

पर  जब  बात  हो

किसी  अपने  की

तो इंतज़ार लफ्ज़ ही कुछ

मदहोश सा लगता है…

 

As such, I do not

know how to wait,

But when it comes

to  someone own,

The word waiting

appears  to  be  a

bit too inebriated…!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

अपनी  पीठ  से  निकले…..

खंजरो को जब गिना मैंने

तो ठीक उतने ही निकले,

जितनों को गले लगाया था मैंने..!

 

When I counted the daggers

that came out of my back,

They  came  out  as many

people as I had embraced..!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

हजार गम भी मेरी

फितरत नहीं बदल सकते

क्या करूँ मुझे…

आदत है मुस्कुराने की…

 

Even a thousand sorrows

cannot change my nature

What  to  do,  I  have

the  habit  of  smiling…

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कोशिश  तो  कर  तू

इन  आँखों को पढ़ने की

हर सवाल का जवाब मिलेगा

जो तूने मुझसे किये हैं…

 

Atleast, give it a try

To read these eyes, every

Question will be answered

That you’ve posed to me!

 

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 41 ☆ दूरी से करो प्रणाम …. ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘दूरी से करो प्रणाम ….’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 41 ☆ 

☆ दूरी से करो प्रणाम …. ☆ 

*

आपन मूं

आपन तारीफें

करते सीताराम

*

जो औरों ने लिखा न भाया

जिसमें-तिसमें खोट बताया

खुद के खुदी प्रशंसक भारी

जब भी मौका मिला भुनाया

फोड़-फाड़

फिर जोड़-तोड़ कर

जपते हरि का नाम

*

खुद की खुद ही करें प्रशंसा

कहे और ने की अनुशंसा

गलत करें पर सही बतायें

निज किताब का तान तमंचा

नट-करतब

दिखलाते जब-तब

कहें सुबह को शाम

*

जिन्दा को स्वर्गीय बता दें

जिसका चाहें नाम हटा दें

काम न देखें किसका-कितना

सच को सचमुच धूल चटा  दें

दूर रहो

मत बाँह गहो

दूरी से करो प्रणाम

*

आपन मूं

आपन तारीफें

करते सीताराम

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – मैं नारी नहीं पहेली हूँ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी के जन्मदिवस पर एक भावप्रवण कविता “मैं नारी नहीं पहेली हूँ। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  मैं नारी नहीं पहेली हूँ ☆

(नारी अर्धांगिनी है, वह बेटी,  बहन,  बहू,‌ पत्नी तथा मां के रूप में अपनी सामाजिक जिम्मेदारी ‌का‌ निर्वहन ‌करती‌ है। आज बेटियां डाक्टर, इंजीनियर,  वैज्ञानिक बन कर अंतरिक्ष की ऊंचाईयां नाप रही हैं, लेकिन सच्चाई तो यह भी है कि आज भी प्राचीन रूढ़ियों के चलते उसका जीवन एक पहेली ‌बन कर उलझ गया‌ है। वह समझ नहीं पा रही‌है कि आखिर क्यों यह समाज उसका दुश्मन ‌बन गया है।आज उसका‌ जन्म लेना क्यों समाज के माथे पर कलंक का प्रश्नचिन्ह बन टंकित है।)

मैं बेहद बेबस लाचार हूँ , हाँ  मैं इस जग की नारी हूँ ।

सब लोगों ने मुझ पे जुल्म किये मैं क़िस्मत की मारी हूँ ।

हमने जन्माया इस जग को‌, लोगों ने अत्याचार किया।

जब जी‌ चाहा‌ दिल से खेला, जब चाहा दुत्कार दिया।

क्यों प्यार की खातिर मानव, ताज महल बनवाता है।

जब भी नारी प्यार करे तो जग क्यों बैरी हो जाता है।

जिसने अग्नि‌ परीक्षा ली  वे गंभीर ‌पुरूष ही थे।

जो जो मुझे जुएं में हारे, वे सब महावीर ही थे।

अग्नि परीक्षा दी हमने‌, संतुष्ट उन्हें ना कर पाई।

चीर हरण का दृश्य देख, किसी को शर्म नहीं आई।

अपनी लिप्सा की खातिर ही बार बार मुझे त्रास दिया।

जब जी चाहा जुएं में हारा जब चाहा वनवास दिया।

क्यों कर्त्तव्यों की बलिवेदी पर, नारी ही चढ़ाई जाती है।

कभी जहर पिलाई जाती है कभी वन में भेजी  ‌जाती है।

मेरा अपराध बताओ लोगों, क्यों घर से ‌मुझे निकाला था?

क्याअपराध किया था मैंने, क्यो हिस्से में विष प्याला था?

इस मानव का दोहरा चरित्र, कुछ समझ न आता है।

मैं नारी नहीं पहेली हूँ ,जीवन में गमों से नाता है ।

अब भी दहेज की बलिवेदी पर ,मुझे चढ़ाया जाता है।

अग्नि में जलाया जाता है, फाँसी पे झुलाया जाता है।

दुर्गा काली का रूप समझ, मेरा पाँव पखारा जाता है।

फिर क्यो दहेज के डर से, मुझे कोख में मारा जाता है

जब मैं दुर्गा मैं ही काली, मुझमें ही शक्ति बसती है।

फिर क्यो अबला कह कर, ये दुनिया हम पे  हँसती है?

अब तक तो नर ही दुश्मन था, नारी‌भी उसी की राह चली।

ये बैरी हुआ जमाना अपना,ना ममता की छाँव मिली।

सदियों से शोषित पीड़ित थी, पर आज समस्या बदतर है।

अब तो जीवन ही खतरे में, क्या ‌बुरा कहें क्या बेहतर है?

मेरा अस्तित्व मिटा जग से, नर का जीवन नीरस होगा।

फिर कैसे वंश वृद्धि होगी, किस‌ कोख में तू पैदा होगा।

मैं हाथ जोड़ विनती करती हूँ,मुझको इस जग में आने दो।

मेरा वजूद मत खत्म करो, कुछ करके मुझे दिखाने दो।

यदि मैं  आई इस दुनिया में तो कुलों का मान बढ़ाऊंगी।

अपनी मेहनत प्रतिभा के बल पे, ऊंचा पद मैं पाऊंगी।

बेटी, पत्नी, माता बन कर,  जीवन भर साथ निभाउंगी।

करूंगी सेवा रात दिवस,    बेटे का फर्ज निभाउंगी।

सबका जीवन सुखमय होगा, खुशियों के फूल खिलाऊंगी

सारे समाज की सेवा कर, मैं नाम अमर कर जाऊंगी।

मैं इस जग की बेटी हूँ, मेरी बस यही कहानी है।

ये दिल  है भावों से भरा हुआ, आंखों में पानी है।

जब कर्मों के पथ चलती हूं, लिप्सा की आग से जलती हूं।

अपने ‌जीवन की आहुति दे, मैं कुंदन बन के निखरती हूं।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगत (भाग – १६) – ‘क्षणसंगीत’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

☆ सूर संगत (भाग – १६) – ‘क्षणसंगीत’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆

जन्मापासून मृत्यूपर्यंतच्या प्रवासात मानवी आयुष्यातील प्रत्येक महत्वाचा क्षण साजरा करताना माणसानं संगीताची मदत घेऊन ते क्षण आणखी देखणे कसे केले हा विचार केला कि विविध गीतप्रकार आठवून थक्क व्हायला होतं… मुळात एका जिवाच्या जन्माची चाहूल लागल्याचा एखाद्या भावी मातेच्याआयुष्यातील आनंदी क्षण सर्वांसोबत वाटून घेताना गायली जाणारी डोहाळतुलीचं कोडकौतुक करणारी, येत्या जिवाच्या आगमनाचं सहर्ष स्वागत आणि त्याच्यासाठी शुभचिंतन करणारी डोहाळगीतं, मग मूल जन्मल्यावर त्याला जोजवताना वेळोवेळी गायली जाणारी अंगाईगीतं आणि बारशाच्यावेळी त्याच्या आगमनाचा आनंद व्यक्त करणारी, त्या जिवासाठी परमात्म्याचे आशीष मागणारी, त्या निरागस जिवाचं गुणागान करणारी, त्या जिवानं पुरुषार्थ गाजवावा म्हणून सहजी दोन महत्वाच्या कानगोष्टी सांगणारी पाळणागीतं, पुढं त्या बालजिवाचं छोट्या-छोट्या बडबडगीतांतून केलेलं मनोरंजन आणि कधी अशा गीतांतूनच नकळत त्याला दिलेलं जगण्यासाठी आवश्यक तत्वांचं बाळकडूही संगीतामुळं सहज सोप्या पद्धतीनं मनात रुजायला मदत होते.

पुढं त्या जिवाच्या आयुष्यातील प्रत्येक शुभप्रसंगी गायल्या गेलेल्या मंगलाक्षतांचा विचार केला कि लक्षात येतं त्या मंगलगीतांमुळं त्या क्षणांतला आनंद द्विगुणित होतोच, शिवाय आयुष्यात येणारं ते बदलाचं वळण सहज पार करण्यासाठी कोणत्या जबाबदाऱ्यांची जाणीव मनात असावी हेही नकळत सुचवलं जातं.

मुलांच्या मौंजीबंधनाला सध्या एका संस्कारापेक्षा ‘इव्हेंट’चं जास्त रुपडं आलं आहे. पूर्वीसारखे हे बटू आता मातेला सोडून गुरुगृही राहायला जात नाहीत, स्वत:ची कामं स्वत: करून काबाडकष्ट काढून त्यांना शिक्षण घ्यावं लागत नाही हे जरी खरं असलं तरीही आता बाल्यावस्थेतला पहिला टप्पा पार झाला आहे आणि विद्याभ्यासासाठी आपल्याला एका निर्धारानं सज्ज व्हायचं आहे ही जाणीव त्या जिवात रुजणं आवश्यक आहेच. आत्ताच्या काळानुसार विद्याभ्यासासाठीच्या त्यांच्या काबाडकष्टांचं स्वरूप बदललं आहे इतकंच! पण कष्ट हे घ्यावे लागणार असतातच आणि त्यासाठी सातत्यानं मनोबल राखून ठेवण्याची गरज आणि त्यासाठी काय करावं लागेल हे सगळं ह्या मंगलगीतांतूनच सूचित केलं जातं.

मातृभोजनावेळच्या गीतांतले संकेत म्हणजे आता आईचं बोट सोडून आपल्याला जास्त वेळ शाळेत राहून शिक्षण घ्यायचं आहे, त्यावेळी आई सोबत नसणार तरीही मन लावून आपल्याला अभ्यास करायचा आहे. मंगलाष्टकांमधे बटूच्या विद्याभ्यासासाठी देवदेवतांचे आशीर्वाद मागितले जातात, त्या बटूनं आता खंबीरपणे, दृढनिश्चयानं, नियमांचं पालन करत संयम राखून विद्यार्जनासाठी परिश्रम करणं त्याचा भविष्यकाळ उज्वल करण्यासाठी किती आवश्यक आहे हे सूचित केलं जातं, त्यासाठी मौंजीबंधनाच्या रुपानं त्याच्यावर काय संस्कार केले जात आहेत त्याचा अर्थ सांगितला जातो.

मंगलाष्टकाचे ते सूर जमलेल्या इतरेजनांचं मनोरंजन करतात, त्याच्या आप्तेष्टांचा आनंद द्विगुणित करतात, त्या सोहळ्याची रंगत वाढवतात आणि त्याचवेळी त्या बटूच्या मनात निश्चितच काही अनमोल भावतरंग उमटवतात. संगीताची ही केवढी मोठी किमया आहे. त्या क्षणापर्यंत ‘बाळ’ असणारा तो जीव थोडा का होईना वेगळा भासायला लागतोच. मंगलगीतं आणि मंत्रसंस्कार दोन्हीच्या सुरांमुळं सोहळा देखणा होतोच परंतू आयुष्यात महत्वाचं वळण येतंय आणि त्याला जबाबदारीनं सामोरं जायला हवं, हा विचार त्या बालजिवाच्या मनात त्याच्या त्यावेळच्या जाणिवेच्या कुवतीनुसार, त्याच्या बालबुद्धीनं केलेल्या आकलनानुसार का होईना अधोरेखित व्हायला मदत नक्की होत असणार.

त्यापुढचा मोठा संस्कार म्हणजे लग्नसंस्कार! दोन जिवांचं, दोन घराण्यांचं, दोन विचारप्रवाहांचंही मीलन होताना त्यातून नवीन सुंदरसं काही अंकुरावं, उत्पन्न व्हावं हा विश्वनियमही राखला जावा असा हा संस्कार! ह्या सोहळ्यातील पूर्वसंस्कार, प्रत्यक्ष विवाहसोहळा आणि त्यानंतरचेही सर्व विधी, धार्मिक प्रथा, चालीरिती सगळं अत्यंत संगीतमय आहे. सोहळ्याची मुहूर्तमेढ रोवून जात्याची पूजा करताना कर्त्याधर्त्या गणेशाचं केलेलं स्तवन, घाणा भरताना गायल्या जाणाऱ्या ओव्या, उत्सवमूर्तींना हळद लावताना गायली जाणारी गीतं, लेकीची पाठवणी करताना विहीणबाईंना तिला सांभाळून घेण्याची विनवणी करणारी गीतं, कारल्याच्या वेलाखालून विहीणबाई जाताना गायली जाणारी मांडवगीतं असे किती प्रकार सांगावे. ह्यावेळी जे उखाणे घेतले जातात ती भले गीतं नसतील, मात्र त्यातही एक लय सांभाळली गेली असेल तरच ते उखाणे रंगतदार होतात. सगळ्यात महत्वाचं म्हणजे ह्या संपूर्ण सोहळ्यात सुरू असणारं सनई, चौघडे अशा मंगलवाद्यांचं पार्श्वसंगीत जी वातावरणनिर्मिती करतं तिचं वर्णन शब्दांत करताच येणार नाही.

प्रत्यक्ष दोन जिवांच्या डोक्यावर अक्षत पडते त्यावेळी गायल्या गेलेल्या मंगलक्षतांतून तर किती वैविध्यपूर्ण संकेत त्या दोन्ही जिवांना दिले जातात. सामोऱ्या येत असलेल्या वळणातली असीम सुंदरता सांगितली जाते, त्याबरोबरच ती सुंदरता राखण्यासाठी आपापला अहंभाव सोडून एकमेकांत विरघळून जाण्याची आवश्यकता, आता आपण एकटे नाही तर आपल्या दोघांचं मिळून एकच आयुष्य आहे हा अत्यावश्यक विचार आणि ह्यासोबत दोघांच्या आजवरच्या वैयक्तिक आयुष्याशी जोडली गेलेली नातीगोती, भावसंबंध आदरभावानं जपणं, वृद्धिंगत करणं ह्या नव्या जबाबदारीविषयीही संकेत दिला जातो.

लग्नसमारंभानंतर वरगृही पूजेसोबतच प्रथा म्हणून काही ठिकाणी गोंधळ घालण्याची प्रथा आहे. खास गोंधळी लोकांना बोलावून ह्या कार्यक्रमाचं आयोजन केलं जातं. अर्थातच अठरापगड जाती असलेल्या आपल्या देशात गोंधळाप्रमाणेच इतरही अनेक प्रथा विविध समाजांमधे अस्तित्वात आहेत आणि त्या-त्या गोष्टींत पारंगत असणाऱ्या कलाकारांना मुद्दाम आमंत्रित करून ह्या प्रथा साजऱ्या केल्या जातात.

त्यानंतर वर्षभरातल्या सणसमारंभांपैकी मंगळागौरीसारखे सण म्हणजे तर संगीतानेच सजलेले म्हणायला हवेत. त्यातले विविध खेळ आणि त्यावेळी गायली जाणारी गीतं म्हणजे ‘स्त्रीगीते’ ह्या लोकसंगीतप्रकारातला सुंदर भाग आहे. त्यात गीत आणि नृत्य ह्याचं सुंदर मिश्रण आहे. जगणं जास्तीत जास्त सुंदर करण्यासाठी क्षणांचा उत्सव करण्याची मानवी मनाची उर्मी संगीताच्या मदतीनं कशी नेमकेपणानं भागवली जाते ह्याची ही सगळी उदाहरणं म्हणता येतील. माणसाच्या जगण्यातली, संस्कृतीतली संगीताची प्रचंड व्याप्ती ह्या सगळ्या उदाहरणांतून आपल्याला दिसून येते.

अर्थातच मी जे-जे उल्लेख केले ते एकतर जगण्यातल्या व्यक्तिगत क्षणांमध्ये सामावल्या गेलेल्या संगीताविषयी आणि मला माहिती असलेल्या गोष्टींतून… मात्र ह्यापेक्षा कितीतरी जास्त प्रकार निश्चितच अस्तित्वात आहेत. प्रांत व त्याचे भौगोलिक वैशिष्ट्य आणि त्यानुसार जन्मलेली तिथली संस्कृती, भाषा, समाजव्यवस्थेनुसार विशिष्ट जनसमुदाय अशा अनेक गोष्टींनुसार अक्षरश: अनेकविध गीतप्रकार अस्तित्वात आलेले आहेत.

राहाता राहिला मानवी आयुष्यातील सर्वात गंभीर क्षण… अंतिम क्षण… मृत्यू! ह्या क्षणातही मानवानं किती विविध दृष्टीकोनांतून संगीताला सामावून घेतलं आहे… भावनांचा निचरा होण्यासाठी, मनाला अंतिम सत्याची जाणीव करून देण्यासाठी इ. गोष्टींपासून ते अगदी मृत्यूची खात्री करून घेण्यासाठीही, ह्याविषयी माहिती पुढच्या लेखात पाहूया!

क्रमशः….

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 28 ☆ मुक्तक ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  के “मुक्तक “।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 28 ☆

☆ मुक्तक ☆

 

जनहितकारी करम बहुत से होने से रह जाते है

क्योंकि अनेको संबंधित जन लालच में बह जाते है

रामराज्य के सपने अब तक पूरे नहीं होने पाये

आदर्शो की कसमें खा भी नहीं अपनाये जाते है

 

होगा जब तक नेताओ मे प्रबल देश अनुराग नहीं

नई पीढी के मन में जब तक उपजेगा तप त्याग नहीं

तब तक प्रगति राह पर प्रायः कदम फिसलते जायेगें

संकल्पो के बिन शुभ कर्मो की मन मे जगती आग नहीं

 

मन को उलझा माया में जो खोज रहा भगवान को

कहा जाय क्या उस सज्जन के बढ़े हुये अज्ञान को

खोज सकेगा कैसे कोई जिसका परिचय प्राप्त नहीं

पायेगा कोई भी निश्चित उसकी यदि पहचान हो

 

बांटता अध्यात्म आया अमृत जनहित के लिये

पर समझ पायी न दुनिया किस तरह जीवन जिये

बंटा है संसार सारा धर्म और भूगोल से

क्षोभ की आंधी बुझा जाती सदा जलते दिये

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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