हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 53 ☆ अमरबेल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “अमरबेल”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 52 – अमरबेल ☆

एक – एक कर सीढ़ियों को मिटाते जाना और आगे बढ़ना बहुत अच्छा होता है। पर कभी नीचे आना पड़े तो कैसे आयेंगे पता नहीं। खैर जो होता है उसमें अच्छाई छुपी होती है, ऊपर बैठा व्यक्ति ये सोचता ही नहीं कि वो जमीन से उठकर ही ऊपर गया है।

वक्त के घाव तो समय के साथ -साथ भर जाते हैं किंतु निशान समय की कीमत को समझाने के लिए समय- समय पर प्रश्न करते ही रहते हैं। अक्सर भूल – चूक की उदासीनता में झूलता हुआ मनुष्य ऐसे- ऐसे निर्णय कर बैठता है, जो उसके नीचे से आधार ही खींच सकते हैं। जिम्मेदारी के बोझ के तले दबा हुआ व्यक्ति क्या कुछ करना नहीं चाहता पर होता वही है जो ईश्वर की इच्छा होती है।

जब दिमाग़ बिल्कुल शून्य हो जाए तो क्या करना चाहिए? कुछ न कुछ करते रहना ही सफलता की ओर पहला कदम होता है। जब बाधाएँ आती हैं, तभी तो चट्टानों को काट कर प्रपात बनते हैं; जिससे न केवल जल की राह व स्वरूप बदलता है वरन गतिविधि भी परिवर्तित होकर नया इतिहास रच देती है। कुछ रचने की बात हो तो सत्य का दामन थामकर ही चलना चाहिए क्योंकि कहते हैं कि झूठ के पैर नहीं होते हैं। खैर झूठ के सहारे ही तो व्यक्ति अमरबेल की तरह फैलता जाता है ये बात अलग है कि शुरुआत सच से होती है जो धीरे- धीरे झूठ तक पहुँच जाती है। लोग इसे अच्छी निगाहों से नहीं देखते हैं। ये एक परजीवी बेल है जो जिस वृक्ष पर फैल जाती है उसे सुखा देती है। किंतु इसके अनगिनत लाभ भी होते हैं जो मानव के लिए लगातार फायदेमंद सिद्ध हो रहे हैं।

शरीर की इम्युनिटी बढ़ाने, गठिया रोग, कैन्सर, किडनी, लिवर, दिल, खुजली, डायबिटीज, आँखों में सूजन, मानसिक विकार आदि रोगों को मिटाकर इससे लाभान्वित हो सकते हैं। ये खुद भी अमर है साथ ही इसका उपयोग करने वाले भी इससे लाभ उठाते हैं ये बात अलग है कि जो इसे सहारा दे उसे सुखा कर निर्जीव करती जाती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 75 – हाइबन- जैसे का तैसा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- जैसे का तैसा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 75☆

☆ हाइबन- जैसे का तैसा ☆

प्रकृति की हर चीज बदलती है । मगर कुछ चीजें आज भी ज्यों के त्यों बनी हुई है। जी हां, आपने सही सुना । हम कछुए की ही बात कर रहे हैं ।

इस प्रकृति में कछुआ ही ऐसा प्राणी है जो करोड़ों वर्ष से जैसा का तैसा बना हुआ है। इसका जन्म तब हुआ था जब छिपकली, सांप, डायनासोर भी नहीं थे । यानी आज से 20 करोड़ों वर्ष पहले भी कछुआ इसी तरह दिखता था।

प्राकृतिक रूप से बिल्कुल शांत रहने वाले कछुए का खून उसी की तरह बिल्कुल ठंडा होता है। इसके शरीर में कहीं बाल नहीं होते हैं। आमतौर पर कछुए की उम्र 50 से 100 साल तक होती है । मगर 300 प्रजातियों वाले कछुए की उम्र 200 से 400 साल तक पाई गई है ।

इसका कवच बहुत ही कठोर होता है। इसी कारण इसकी पुराने समय में ढाल भी बनाई जाती थी। कठोर कवच वाले कछुए का शेर भी शिकार नहीं कर पाता है।

नदी किनारा~

कछुए पर झपटा

नन्हासा शेर।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

01-02-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 60 ☆ कूड़े की आत्मकथा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक विचारणीय आलेख  “कूड़े की आत्मकथा.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 60 ☆

☆ कूड़े की आत्मकथा ☆ 

दोस्तो मैं कूड़ा हूँ । मुझे आज अपनी आत्मकथा इसलिए लिखनी पड़ रही है कि लोग मुझे यथास्थान न डालकर नाले – नालियों , रेलवे लाइनों के किनारे या ऐसी जगह फेंकते हैं, जहाँ कोई भी अपने को मनुष्य कहनेवाला मानव नहीं फेंकेगा। लेकिन लोग हैं कि मानते ही नहीं हैं , ऐसा लग रहा है कि वे बिल्कुल चिकने घड़े हो गए हैं। अपना चेहरा भी सबको ऐसे दिखाते हैं कि हमसे ज्यादा तो कोई काबिल है ही नहीं। बल्कि जो भी समझदार मनुष्य ऐसा करने के लिए मना भी करे या समझाए तो उसे पागल, मसखरा कहकर अपने ही जैसे लोगों के बीच मख़ौल उड़ाते हैं, कमाल के लोग हैं साहब इस प्रजातंत्र के। छुट्टे सांड की तरह मनमानी करना चाहते हैं। लज्जा शर्म तो उन्होंने उतार कर ही रख दी है। अज्ञान और अहंकार में गले तक डूबे हैं। क्योंकि उनको बाहुबल और माया का गुरूर है। वैसे मैं मानता हूँ कि सुविधाभोगी लोगों ने मुझ कूड़े से धरती और जल को पाटकर पर्यावरण को विनाशकारी बनाया है और निरंतर बना रहे हैं। अब मैं धरती पर प्लास्टिक अर्थात मोमजामे से बनी पन्नियों के रूप में धरती और जल पर अपना घर स्थापित कर रहा हूँ। लोग मुझे एक बार के अलावा दुबारा भी प्रयोग नहीं करना चाहते हैं। मुझसे तो खिलवाड़ गरीब और अमीर सब ही कर रहे हैं। सबको हर सामान प्लास्टिक की पन्नी में चाहिए। मजे की बात है कि सरकार ने मुझे बन्द करने के लिए कुछ आदेश भी कर रखे हैं लेकिन मैं तो कूड़े के रूप में वैध अवैध रूप से खूब उत्पादित हो रहा हूँ। सब कुछ भ्रष्टाचार के रूप में सब कुछ फल फूल रहा है। सब भाग रहे हैं मैराथन दौड़ में।

लोग हैं कि प्लास्टिक की पन्नियों में पशुओं के खाने का कूड़ा आदि भरकर सड़क, राह व मौहल्ले में फेंक देते हैं, उसे ही खाकर कितनी ही गाय आदि अकाल ही मौत के मुँह में समाए जा रही हैं। कमाल के लोग हैं साहब इस देश के, अति के लापरवाह और गैरजिम्मेदार।

दोस्तो हर घर में ही मेरा रहन सहन होता रहता है और हर घर से ही मुझे नाक मुँह सिकोड़ते और बेकार समझकर रोज – रोज तो कभी होली और दीवाली पर बाहर फेंक दिया जाता है। मुझ कूड़े के हजारों रूप हैं।

कुछ लोग मुझसे ही रोजगार पाते हैं, मुझे गले लगाते हैं, मेरे साथ सोते जागते भी हैं। बल्कि मेरी उपस्थिती में ही पीते-खाते हैं। मैं उनके लिए बड़े काम की चीज हूँ साहब।

नित्य ही वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे हैं। नई निराली वस्तुएँ सुविधाभोगिता की बढ़ती ही जा रही हैं। उतना ही मैं भी भी खूब फल फूल रहा हूँ। मुझसे ही कबाड़ का व्यापार करने वाले अनेकानेक बड़े और छोटे कबाड़ी रोजगार पा रहे हैं। कितने ही  मुझ कूड़ा में से उपयोगी चीजें एकत्रित करनेवाले परिवार मेरी सँग ही जीते और मरते हैं, हजारों बड़े और बच्चे।

हर वस्तु की अपनी उम्र भी होती है। लेकिन मैं अमर हूँ। मैं किसी न किसी रूप में हर युग में उपस्थित रहा हूँ। जब प्लास्टिक की उत्पाद का जन्म नहीं हुआ था, तब लोग सामान क्रय करने के लिए घर से कपड़े के थैले लेकर आते थे। घर के सब्जी व फलों के आदि के छिलकों आदि को गाय और पशुओं को खिला दिया जाता था। या उसका खाद ही बना लिया जाता था। अर्थात उसका सही उपयोग हो जाता था। साथ ही लोग सामान खरीदने के लिए अपने साथ कपड़े से बना थैला आदि रखते थे, लेकिन जब से नए नए आविष्कार और सुविधाभोगिता ने पाँव पसारे हैं, तब से तो मेरी बहार ही आ गई है। हर जगह मेरा साम्राज्य फैल गया है। धरती और नदियों से लेकर समुंदर तक।

हजारों टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल आदि जब पूरी तरह खराब और अनुपयोगी हो जाते हैं तब वे कूड़ा बनकर कबाड़ की दुकानों तक पहुंचते हैं, फिर बड़े व्यापारियों तक और फिर  उन तक जो मुझे जलाकर उसमें से तांबा आदि वस्तुओं को निकालते हैं। यह सब काम व्यापारी और पुलिस की सांठगांठ से सम्पन्न होता रहता है और मैं कूड़ा वायु में मिलकर तुम सबकी साँसों में समा जाता हूँ तथा तुम्हें बीमारियां परोसकर अपना साम्राज्य बढ़ाता रहता हूँ।

मैं कूड़ा हूँ मैं सुचारू रूप से अपना निदान और समाधान आपके द्वारा चाहता हूँ। एक हमारे दादाजी हैं वे तो सब्जी फल आदि के छिलकों का पौधों के लिए घर में ही खाद बना लेते हैं। तोते, बन्दर और गिलहरी आदि भी उसमें से चुन कर कुछ खा जाते हैं और जो बचता है उसकी खाद बना लेते हैं। पौधे मस्त और स्वस्थ हो जाते हैं। अर्थात एक पंथ दो काज।

मैं कूड़ा चाहता हूँ कि मुझे यथास्थान डालो, मेरा उपयोग करो। नाले और नालियों में नहीं डालो। न ही नदियों में मुझे डालो, जैसा कि धर्मभीरू लोग पूजा का अवशेष प्लास्टिक की पन्नियों में भरकर डाल रहे हैं। वे सब पाप के भागी ही बन रहे हैं। हरा और सूखा कूड़ा अलग डालो। उसका उपयोग हो। सरकारी मशीनरी उसका सही निदान खोजे।अनुपयोगी सामान जैसे टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल या अन्य ऐसे ही सामानों का सरकार और वैज्ञानिक समाधान और निदान खोजें। नहीं तो ये धरती एक दिन कूड़े के ढेर के रूप में सिमट जाएगी। वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण से आज सभी ही त्रस्त हैं। अधिकांश लोग अर्थात सरकारी मशीनरी से लेकर सभी सुविधाभोगिता और निजी स्वार्थ के मायाजाल में फँसे हुए हैं। बहुत कम लोग पंच तत्वों को बचाने की सोच रहे हैं। प्लास्टिक की फैक्टरियों पर प्रतिबंध भी लगने चाहिए। विशेष तौर अवैधों पर। तब कहाँ दिखेंगी ये धरा और जल पर फैली प्लास्टिक की पन्नियाँ। और कौन इन्हें जलाकर करेगा वायु प्रदूषण।

मैं कूड़ा हूँ मेरा उचित निदान और समाधान खोजिए, यदि युद्धस्तर पर नहीं सोचा गया या किया गया तो न पीने का पानी शुद्ध मिलेगा और न वायु। सारे के सारे भौतिक संसाधन और नए नए उत्पाद धरे के धरे रह जाएंगे। लोग कोरोना महामारी की तरह बेमौत दम तोड़ेंगे। मंथन और चिंतन करिए। शुरुआत अपने से करिए। मुझ कूड़े का यथासंभव निदान करिए।नदियों और नाले नालियों को मुझ कूड़े से मत पाटिए।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 64 – एक कविता तिची माझी..! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #64 ☆ 

☆ एक कविता तिची माझी..! ☆ 

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती .

भिजलेल्या पानांची ..

कोसळत्या सरींची ..

निथळत्या थेंबाची ..

तर कधी.. हळूवार पावसाची…!

 

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती.

गुलाबांच्या फुलांची ..

पाकळ्यांवरच्या दवांची ..

गार गार वा-याची ..

तर कधी.. गुणगुणां-या गाण्यांची…!

 

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती .

वाहणा-या पाण्याची..

सुंदर सुंदर शिंपल्याची ..

अनोळखी वाटेवरची ..

तर कधी ..फुलपाखरांच्या पंखावरची…!

 

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती.

उगवत्या सुर्याची ..

धावणा-या ढगांची..

कोवळ्या ऊन्हाची ..

तर कधी पुर्ण.. अपूर्ण सायंकाळची…!

 

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती .

काळ्या कुट्ट काळोखाची..

चंद्र आणि चांदण्यांची ..

जपलेल्या आठवणींची ..

तर कधी.. ओलावलेल्या पापण्यांची…!

 

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती .

पहील्या वहील्या भेटीची ..

गोड गुलाबी प्रेमाची ..

त्याच्या तिच्या विरहाची ..

तर कधी.. शांत निवांत क्षणांची ..!

 

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती .

कधी तिच्या मनातली ..

कधी माझ्या मनातली..

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती..!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बोध कथा – धन्य सेवक ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी

☆ जीवनरंग ☆ बोध कथा – धन्य सेवक ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी ☆ 

||कथासरिता||

(मूळ –‘कथाशतकम्’  संस्कृत कथासंग्रह)

? लघु बोध कथा?

कथा १८. धन्य सेवक

अनंतपुर नावाच्या नगरात कुंतिभोज नावाचा राजा राज्य करत होता. एकदा तो आपले मंत्री, पुरोहित व इतर सभाजनांसह सभेत  सिंहासनावर बसला होता. त्यावेळी कोणी एक हातात शस्त्रास्त्रे असलेला क्षत्रिय सभेत येऊन राजाला प्रणाम करून म्हणाला, “महाराज, मी धनुर्विद्येचा खूप अभ्यास केलेला आहे. पण मला कोठेही काम न  मिळाल्याने  दुःखी आहे म्हणून आपणा जवळ आलो आहे.”  राजाने त्याला रोज शंभर रुपये वेतन देण्याचे कबूल  करून स्वतःजवळ ठेवून घेतले.  तेव्हापासून तो रात्रंदिवस राजभवनाजवळ वास्तव्य करत होता.

एकदा राजा रात्रीच्या समयी राजवाड्यात झोपला असताना कोण्या एका स्त्रीचा आक्रोश त्याला ऐकू आला. तेव्हा त्याने त्या क्षत्रिय सेवकाला  बोलावून त्याबद्दल चौकशी करण्यास सांगितले.  त्यावर सेवक म्हणाला, “ महाराज,  गेले दहा दिवस मी हा आक्रोश ऐकतोय. पण काही कळत नाही. जर आपण आदेश दिला तर मी याविषयी माहिती काढून येतो.”  राजाने त्याला त्वरित परवानगी दिली. हा सेवक कुठे जातो हे बघण्याच्या विचाराने राजा वेषांतर करून त्याच्या पाठोपाठ जाऊ लागला.

एका देवीच्या देवळाजवळ जवळ बसून रडणारी एक स्त्री पाहून सेवकाने विचारले, “तू कोण आहेस? का रडतेस?”  तेव्हा ती स्त्री म्हणाली, “मी कुंतिभोज राजाची राजलक्ष्मी आहे. तीन दिवसांनंतर राजा मृत्यू पावणार आहे. त्याच्या निधनानंतर मी कुठे जाऊ?  कोण माझे रक्षण करील?  या विचाराने मी रडत आहे.” “राजाच्या रक्षणार्थ  काही उपाय आहे का?”  तसे सेवकाने पुन्हा पुन्हा विचारल्यावर ती स्त्री सेवकाला म्हणाली, “जर स्वतःचा पुत्र या दुर्गादेवीला बळी दिलास तर राजा चिरकाळ जगेल.” “ठीक आहे.  मी आत्ताच पुत्राला आणून देवीला बळी देतो” असे म्हणून सेवकाने घरी येऊन मुलाला सगळा वृत्तांत सांगितला. पुत्र म्हणाला, “तात, या क्षणीच  मला तिकडे घेऊन चला. माझा बळी देऊन राजाचे रक्षण करा. राजाला जीवदान मिळाले तर त्याच्या आश्रयाला असणारे अनेक लोक सुद्धा जगतील.”

सेवकाने मुलाला देवळात नेऊन त्याचा बळी देण्यासाठी तलवार काढली. तेवढ्यात स्वतः देवी तिथे प्रकट झाली व सेवकाला म्हणाली, “तुझ्या साहसाने मी प्रसन्न झाले आहे. मुलाचा वध करू नकोस.  इच्छित वर माग.”  सेवक म्हणाला, “ हे देवी, कुंतिभोज राजाचा अपमृत्यू  टळून त्याने चिरकाळ प्रजेचे पालन करीत सुखाने जगावे असा मला वर दे.” “ तथास्तु!”  असे म्हणून देवी अंतर्धान पावली.  त्यामुळे खूप आनंदित झालेला सेवक मुलाला घरी ठेवून राजभवनाकडे निघाला. इकडे वेषांतरित राजा घडलेला प्रसंग पाहून सेवकाच्या दृष्टीस न पडता राजभवनात उपस्थित झाला. सेवक राजभवनात येऊन राजाला म्हणाला, “महाराज, कोणी एक स्त्री पतीशी भांडण झाल्याने रडत होती. तिची समजूत काढून तिला घरी सोडून आलो”. राजा त्याच्या ह्या उपकारामुळे खूप खुश झाला व त्याने सेवकाला सेनापतीपद बहाल केले.

तात्पर्य – खरोखरच श्रेष्ठ सेवक आपल्या स्वामीवर ओढवलेल्या संकटाचे निवारण करताना प्राणांची सुद्धा पर्वा करीत नाहीत.

अनुवाद – © अरुंधती अजित कुळकर्णी

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग ९) – राग~ रागसारंग ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

 ☆ सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग ९) – राग~ रागसारंग ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

मागील आठवड्यांत सूर्योदय कालीन राग ललत संबंधी विचार मांडल्यानंतर आज मध्यान्ह काळचा अतिशय लोकप्रिय राग सारंग विषयी या लेखांत विवरण करावे असा विचार मनांत आला.

काफी थाटांतील हा राग! गंधार व धैवत वर्ज्य, म्हणजेच याची जाति ओडव. शुद्ध व कोमल असे दोन्ही निषाद यांत वावरत असतात, आरोही रचनेत शुद्ध आणि अवरोही रचनेत कोमल याप्रकारे दोन निषादांचा उपयोग. नि सा  रे म  प नि सां/सां (नि)प म रे सा असे याचे आरोह/ अवरोह. निसारे, मरे, पमरेसा या सुरावटीने सारंगचे स्वरूप स्पष्ट होते.वादी/संवादी अर्थातच अनुक्रमे रिषभ व पंचम.

स्वरांमध्ये थोडा फेरफार करून आणि रागाची वैषिठ्ये कायम ठेवून गानपंडितांनी सारंगचे विविध प्रकार निर्मिले आहेत.

उपरिनार्दिष्ट माहीती प्रचलित ब्रिन्दावनी सारंगची आहे.हिराबाई बडोदेकर यांची “मधुमदन मदन करो”ही ब्रिन्दावनी सारंगमधील खूप गाजलेली बंदीश. तसेच “बन बन ढूंढन जाओ”ही पारंपारीक बंदीश प्रसिद्ध आहे.”भातुकलीच्या खेळामधले राजा आणिक राणी”,”बाळा जोजो रे”,”साद देती हिमशिखरे” हे नाट्यपद,”संथ वाहते कृृष्णामाई” ही सर्व  गाणी म्हणजे ब्रिन्दावनी सारंगचे सूर.

शुद्ध सारंगः हा राग ओडव/षाडव जातीचा कारण ह्यात  शुद्ध धैवत घेतला जातो.दोन्ही मध्यम घेणे हे शुद्ध सारंगचे स्वतंत्र अस्तित्व. तीव्र मध्यमामुळे हा सारंग थोडा केदार गटांतील रागांजवळचा वाटतो. अवरोहांत तीव्र मध्यम घेऊन लगेच शुद्ध मध्यम घेतला जातो. जसे~ सां (नि )ध प (म)प रे म रे, निसा~~ अशी स्वर रचना फार कर्णमधूर भासते.सुरांच्या ह्या प्रयोगामुळे त्यांत एकप्रकारचा भारदस्तपणा जाणवतो.

“निर्गुणाचे भेटी आलो सगूणासंगे” हा रामदास कामतांनी प्रसिद्ध केलेला अभंग, “शूरा मी वंदिले” हे मानापमानांतील नाट्यगीत, “दिले नादा तुझे हुआ क्या है” ही मेहेंदी हसनची सुप्रसिद्ध गझल ही शुद्ध सारंगची उदाहरणे देता येतील.

मधमाद सारंगः  सारंगचेच सर्व स्वर ठेवून मध्यमाला महत्व दिले की झाला मधमाद सारंग. “आ लौटके आजा मेरे मीत हे रानी रूपमतीतील गीत हे या रागाचे उदाहरण.

सामंत सारंगः हा राग म्हणजे सारंग आणि मल्हार यांचे मिश्रण. सारंगप्रमाणे यांत धैवत वर्ज्य नसतो.सारंगचाच प्रकार असल्यामुळे मरे, रेप ही स्वर संगति दाखवून रिषभावर न्यास करून म रे म नि सा हे सारंगचे अंग दाखविणे अनिवार्य आहे. पूर्वार्धात प्रामुख्याने सारंग अंग व ऊत्तरार्धांत (नि )ध नी सा (नी) प असे मल्हार अंग म्हणजे  सामंत सारंग.

बडहंस सारंगः ब्रिन्दावनी सारंगमधेच शुद्ध गंधार वापरून बडहंस तयार होतो.

लंकादहन सारंगः कोमल गंधार घेऊन ब्रिंदावनी गायला की झाला लंकादहन.

गौड सारंगः सारंगच्या प्रकारातील हा अतिशय प्रचलित राग.जरी सारंग असला तरी ह्याची जवळीक अधिक केदार कामोदशी आहे. कारण शुद्ध व तीव्र दोन्ही मध्यमांची यांत प्रधानता आहे.पध(म)प किंवा ध (म)प हे स्वर समूह वारंवार या रागाचे स्वरूप दाखवितात.केदार प्रमाणेच प प सां  असा अंतर्‍याचा उठाव असतो. प्रामुख्याने स्वरांची वक्रता हा या रागाचा गुणधर्म!सारंग जरी काफी थाटोत्पन्न असला तरी हा गौडसारंग कल्याण थाटांतील मानला जातो.

“काल पाहीले मी स्वप्न गडे” हे गीत श्रीनिवास खळ्यांनी गौड सारंगमध्ये बांधले आहे. या रागाचे उत्तम उदाहरण म्हणजे हम दोनो या चित्रतपटांतील “अल्ला तेरो नाम”  हे भजन.

भर दुपारी गायला/वाजविला जाणारा सारंग हा शास्त्रीय राग! सूर्य डोइवर आला आहे,रणरणती दुपार,कुठेतरी एखाद्या पक्षाचे झाडावर गूंजन चालू आहे,कष्टकरी वर्गांतील काही मंडळी झाडाच्या पारावर बसून शीतल छायेत भोजनाचा आस्वाद घेत आहेत, अशावेळी हवेची एखादी झुळूक येऊन वातावरणांत गारवा निर्माण व्हावा तसा हा शीतल सारंग म्हणता येईल.या रागांचे स्वर कानावर पडतांच सगळ्या चिंता, काळज्या दूर होवून मन प्रसन्नतेने व्यापून राहिल्याचा प्रत्यय येतो.ह्या रागासंबंधी असे म्हटले जाते की हा राग ऐकत ऐकत भोजन केले तर ते अधिक रुचकर लागते. स्वर्गीय आनंद देणार्‍या या रागाने दुपारच्या भगभगीत समयाचे सोने केले आहे.

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 81 – होकर खुद से अनजाने…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना होकर खुद से अनजाने…..)

☆  तन्मय साहित्य  #  81 ☆ होकर खुद से अनजाने….. ☆ 

पल-पल बुनता रहता है, ताने-बाने

भटके यह आवारा मन चौसर खाने।

 

बीत रहा जीवन, शह-मात तमाशे में

सांसें  तुली  जा  रही, तोले – मासे में

अनगिन इच्छाओं के होकर दीवाने

भटके यह आवारा मन …………..।

 

कुछ मिल जाए यहाँ, वहाँ से कुछ ले लें

रैन-दिवस  मन में, चलते  रहते मेले

रहे विचरते होकर, खुद से अनजाने

भटके यह आवारा मन ……………।

 

ज्ञानी बने स्वयं,  बाकी सब अज्ञानी

करता  रहे  सदा यह, अपनी मनमानी

किया न कभी प्रयास स्वयं को पहचाने

भटके यह आवारा मन …………….।

 

अक्षर-अक्षर से कुछ शब्द गढ़े इसने

भाषाविद बन, अपने अर्थ मढ़े इसने

जांच-परख के, नहीं कोई है पैमाने

भटके यह आवारा मन……………।

 

रहे अतृप्त संशकित,सदा भ्रमित भय में

बीते  समूचा जीवन, यूं ही संशय में

समय-दूत कर रहा प्रतीक्षा सिरहाने

भटके यह आवारा मन चौसर-खाने।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -4 – पाताल भुवनेश्वर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -4 – पाताल भुवनेश्वर ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -4 – पाताल भुवनेश्वर ☆

पाताल भुवनेश्वर चूना पत्थर की एक प्राकृतिक गुफा है, जो अल्मोड़ा जिले के बिनसर ग्राम, जहां क्लब महिंद्रा के वैली रिसार्ट में हम रुके हैं, से 115 किमी दूरी पर स्थित है। हमें आने जाने में लगभग आठ घंटे लगे और गुफा व आसपास दर्शन में दो घंटे। रास्ता कह सकते हैं कि मोटरेबिल है। लेकिन चीढ और देवदार से आच्छादित कुमांयु पर्वतमाला मन मोह लेती है और बीच बीच में हिमालय पर्वत की नंदादेवी चोटी के दर्शन भी होते हैं। हिमाच्छादित त्रिशूल चोटी को देखना तो बहुत नयनाभिराम दृश्य है। यह चोटी बिनसर वैली रिसार्ट से भी दिखती है। इस गुफा में धार्मिक तथा पौराणिक  दृष्टि से महत्वपूर्ण कई प्राकृतिक कलाकृतियां हैं, जो कैल्शियम के रिसाव से बनी हुई हैं। यह गुफा भूमि से काफी नीचे है, तथा सामान्य क्षेत्र में फ़ैली हुई है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस गुफा की खोज अयोध्या के सूर्यवंशी राजा ऋतुपर्णा ने त्रेता युग में की थी । एक अन्य पौराणिक कथा, जिसका वर्णन स्कंदपुराण में है, के अनुसार स्वयं महादेव शिव पाताल भुवनेश्वर में विराजमान रहते हैं और अन्य देवी देवता उनकी स्तुति करने यहां आते हैं। यह भी जनश्रुति  है कि राजा ऋतुपर्ण जब एक जंगली हिरण का पीछा करते हुए इस गुफा में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने इस गुफा के भीतर महादेव शिव सहित 33 कोटि देवताओं के साक्षात दर्शन किये थे। द्वापर युग में पाण्डवों ने यहां चौपड़ खेला और कलयुग में जगदगुरु आदि शंकराचार्य का इस गुफा से साक्षात्कार हुआ तो उन्होंने यहां तांबे का एक शिवलिंग स्थापित किया नाम दिया नर्मदेश्वर शिवलिंग।

गुफा के अंदर जाने के लिए बेहद चिकनी  सीढ़ियों व  लोहे की जंजीरों का सहारा लेना पड़ता है । संकरे रास्ते से होते हुए इस गुफा में प्रवेश किया जा सकता है। गुफा की दीवारों से पानी रिसता  रहता है जिसके कारण यहां के जाने का  हलके कीचड व फिसलन से भरा  है। गुफा में शेष नाग के आकर का पत्थर है उन्हें देखकर ऐसा  लगता है जैसे उन्होंने पृथ्वी को पकड़ रखा है। इस गुफा की सबसे खास बात तो यह है कि यहां एक शिवलिंग है जो जिस धरातल पर स्थापित है उसे पृथ्वी कहा गया है, इस शिवलिंग के विषय में मान्यता है कि यह लगातार बढ़ रहा है और जब यह शिवलिंग गुफा की छत, जिसे आकाश का स्वरुप माना गया है, को छू लेगा, तब दुनिया खत्म हो जाएगी।

कुछ मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव ने क्रोध के आवेश में गजानन का जो मस्तक शरीर से अलग किया था, वह उन्होंने इस गुफा में रखा था। दीवारों पर हंस बने हुए हैं जिसके बारे में ये माना जाता है कि यह ब्रह्मा जी का हंस है। इस स्थल के नजदीक ही पिंडदान का स्थान है जहां कुमायूं क्षेत्र के लोग पितृ तर्पण करते हैं। एवं इस हेतु जल भी इसी स्थान पर से रिसती हुई धारा से लेते हैं।गुफा के अंदर एक हवन कुंड भी है। इस कुंड के बारे में कहा जाता है कि इसमें जनमेजय ने नाग यज्ञ किया था जिसमें सभी सांप जलकर भस्म हो गए थे। एक अन्य स्थल पर पंच केदार की आकृति उभरी हुई है।‌कैलशियम के रिसाव ने ऐसा सुंदर रुप धरा है कि वह साक्षात शिव की जटाओं का आभास देता है।इस गुफा में एक हजार पैर वाला हाथी भी बना हुआ है। और भी अनेक देवताओं की तथा ऋषियों की साधना स्थली इस गुफा में है। अनेक गुफाओं में जाना संभव भी नही है । गुफा में मोबाइल आदि भी नहीं ले जा सकते थे, इसलिए छायाचित्र लेना भी सम्भव नहीं हो सका।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 32 ☆ सब राह में खो गए ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता सब राह में खो गए। ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 32 ☆

☆ सब राह में खो गए

जिंदगी गुजर गयी एक अच्छे कल की तलाश में,

एक दूसरे से सब कोसों दूर हो गए,

जीवन में सब आगे बढ़ते रहे मगर एक दूसरों को भूलते गए,

पीछे मुड़कर देखा तो पाया अपने सब ना जाने कहाँ बिछड़ गए ||

जिंदगी इतनी जल्दी बीत जाएगी अहसास ना था,

जिंदगी के उतार चढ़ाव में कितने मंजर देखे,

मुड़ कर जो देखा तो जिंदगी धुंधली नजर आई,

दादा-दादी नाना-नानी माता-पिता सब राह में कहीं खो गए ||

जीवन बहती नदियों सा बहता रहा,

पैसा शोहरत सब कुछ हासिल हुआ जिंदगी में,

मगर बहुत कुछ खो दिया इस जिंदगानी में,

जिंदगी में कुछ ना बचा बस आँखों में आंसू रह गए ||

अब कौन आंसू पोंछे, कौन मेरी तकलीफ समझे,

खुशनुमा था बचपन जहां पड़ौसी भी अपने थे,

माँ, दादी-नानी की ममता में जादु का अहसास था,

जादुई स्पर्श का अहसास करा सब ना जाने कहाँ चले गए ||

अब तो हम खुद जिंदगी की शाम में पहुंच गए,

दिल भर आया जब देखा सब अपने रिश्तेदारों में तब्दील हो गए,

खुद का शरीर भी समय देख कर बदल गया,

ढलती उम्र देख आँख-दांत गुर्दे-दिल सब साथ छोड़ते चले गए ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 69 ☆ ख़लिश☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “ख़लिश”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 69 ☆

☆ ख़लिश

ज़िंदगी ख़लिश का ही तो दूसरा नाम है, है ना?

 

कभी बेवजह बहते आंसुओं की खलिश,

कभी दिल-भेदती दर्द की ख़लिश,

कभी रातों को तनहाई की ख़लिश,

कभी सुबह किसी की नामौजूदगी की खलिश,

कभी आफताब के तेज़ से जलने की खलिश,

कभी मुकम्मल मुहब्बत की ख़लिश…

 

खलिश भी होती कुछ ऐसी चीज़ है

जो मिटाए नहीं मिटती,

कोई इरेज़र काम नहीं आता,

कोई वाइपर इसे नहीं हटा पाता,

किसी नेट में यह नहीं पकड़ आती,

बस यह घर बसाए रहती है

दिल में, जिगर में, आँखों में…

 

बस यह कभी-कभी निकल जाती अब्र बनकर;

कुछ पल को ज़हन शांत हो जाता है,

पर फिर जोर से थरथराता है,

एक बार फिर आकर वहाँ

खलिश घर बना ही लेती है-

और ज़िंदगी है कि

चलती ही जाती है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

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