हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 202 ☆ सॉनेट – प्रणामांजलि… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है सॉनेट – प्रणामांजलि…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 202 ☆

सॉनेट – प्रणामांजलि ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आराम-विराम न साध्य जिन्हें

कर सकीं न बाधा बाध्य जिन्हें,

था सत्य-धर्म आराध्य जिन्हें

शत नित्य प्रणाम, प्रणाम उन्हें।

था अधिक इष्ट से भक्त जिन्हें

था शत्रु स्वार्थ-अनुरक्त जिन्हें

थी सत्ता पर में त्याज्य जिन्हें

शत नित्य प्रणाम प्रणाम उन्हें।

 *

था जनगण-मन आवास जिन्हें

था जंगल में मधुमास जिन्हें

अरि कहते थे खग्रास जिन्हें

शत नित्य प्रणाम प्रणाम उन्हें।

 *

जो कल को कल की थाती हैं,

शत नित्य प्रणाम प्रणाम उन्हें।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१६.४.२०२४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ “आंदोलनों और विमर्शों से कुछ लोग चर्चित जरूर हुए” – श्रीमति नासिरा शर्मा ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4। यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार। हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष। दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ परिचर्चा ☆ “आंदोलनों और विमर्शों से कुछ लोग चर्चित जरूर हुए” – श्रीमति नासिरा शर्मा ☆ श्री कमलेश भारतीय  

-कमलेश भारतीय

आंदोलनों और विमर्शों से कुछ लोग चर्चित जरूर हुए

हरियाणा में साहित्य की बात बहुत ध्यान से सुनते हैं : नासिरा शर्मा

प्रसिद्ध लेखिका नासिरा शर्मा का कहना है कि चाहे कहानी आंदोलन रहे या फिर स्त्री या दलित जैसे विमर्श इनसे हिंदी साहित्य को तो फायदा नहीं हुआ लेकिन कुछ लोग इनके सहारे चर्चित जरूर हो गये। नासिरा शर्मा ने उपन्यास, कथा, रिपोर्ताज, बाल लेखन, संस्मरण और अनुवाद अनेक क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। हाल ही में राजकमल प्रकाशन से इनका उपन्यास ‘अल्फा बीटा गामा’ आया है और चर्चित हो रहा है।

मूल रूप से नासिरा शर्मा जिला रायबरेली के मुस्तफ़ाबाद से हैं और उन्हें गर्व है कि ऊंचाहार रेल का नाम उनके गांव के कारण ही रखा गया। इनकी स्नातक की शिक्षा इलाहबाद में हुई। फिर शादी हो जाने पर वे अपने पति प्रो रामचंद्र शर्मा के साथ इंग्लैड चली गयीं और तीन वर्ष तक एडनबरा में बिताने के बाद वापिस आने पर जेएनयू में पाच वर्ष की पर्शियन में एमए की। इसके बाद स्वतंत्र लेखन शुरू किया और पत्रकारिता भी।

– साहित्य में रूचि कैसे?

– पूरा परिवार साहित्यिक रूचि रखता है और इसी के चलते मेरी रूचि भी साहित्य में होना स्वाभाविक था।

– शुरूआत किस विधा से की?

– कथा लेखन से। फिर अन्य विधाओं में रूचि बढ़ती गयी।

– कितनी पुस्तकें आ गयीं अब तक?

– पचास के आसपास। इनमें चौदह उपन्यास, दस कथा संग्रह, लेख, संस्मरण, रिपोर्ताज, बाल लेखन आदि भी हैं तो अनुवादित साहित्य भी है।

– जो प्रमुख सम्मान मिले उनके बारे में बताइए।

– सन् 2016 का साहित्य अकादमी सम्मान, सन् 2019 का व्यास सम्मान और महात्मा गांधी हिंदी संस्थान से सन् 2012 में सम्मान सहित अनेक सम्मान/पुरस्कार।

– आपने अनेक विधाओं में लिखा तो कौन सी विधा में सबसे ज्यादा सुकून मिलता है?

– सभी विधाओं में सुकून मिलता है क्योंकि मैं एक लेखक हूं और लेखक के अपने कई रंग होते हैं।

– कोई फिल्म या नाटक बना आपकी रचनाओं पर?

– हरियाणा के राजीव रंजन ने मेरी कहानी पर ‘अपनी कोख’ नाटक तैयार करवाया जिसे दिनेश खन्ना ने निर्देशित किया और बहुत बार खेला गया। अनेक टीवी फिल्में भी बनी मेरी रचनाओं पर। ‘अपनी कोख’ नाटक के हरियाणा में तीन सौ से ऊपर शोज हुए जो एक प्रकार से कीर्तिमान कहा जा सकता है। यह नाटक भ्रूण हत्या पर है और लोग इसे देखते रोये बिना न रहते थे।

– कथा आंदोलनों और स्त्री/दलित जैसे विमर्शों से क्या हुआ?

–  दलित व स्त्री हमेशा साहित्य के फोकस में रहे हैं लेकिन बाद में इन्हें विमर्शों का हिस्सा बना दिया गया जो दुखद है। कुछ लोगों को फोकस मिला। नारे की तरह रहे ये विमर्श। यह हमेशा होता है। कुछ लोगों का भला हुआ। आंदोलन से जुड़ने से चर्चा मिली।

– क्या महिला लेखन /पुरूष लेखन की बात सही है?

– नही। मैं हमेशा से इस तरह की खानाबंदी के खिलाफ रही हूं।

– हरियाणा के बारे में आपके क्या अनुभव हैं?

– मै हरियाणा बहुत घूमी और अनेक स्कूल कालेजों में जाने का अवसर मिला। मेवात में मेरे पति रामचंद्र शर्मा ने गांव गोद ले रखा था तो मेवात जाने का अवसर भी बहुत बार मिला। भगवान् दास मोरवाल व पारूथी जी सहित अनेक रचनाकारों से परिचय भी है। भगवान् दास मोरवाल ने न केवल उर्दू सीखी बल्कि बहुत मेहनत से उपन्यास लिखे। आपसे भी दिल्ली में रेणु हुसैन के कथा संग्रह के विमोचन पर परिचय हुआ। हरियाणा के लोग साहित्य के प्रति बहुत उत्सुकता रखते हैं और बहुत ध्यान से सुनते हैं। ‘हरिभूमि’ में मेरी अनेक रचनाओं को प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता रहा।

– नयी पीढ़ी को क्या गुरुमंत्र देना चाहेंगीं?

– बस। लिखते रहो। अच्छे से अच्छा लिखने की कोशिश करते रहो।

– आगे क्या योजना है?

– अभी तो उपन्यास आया है – अल्फा बीटा गामा। आगे देखते हैं नया।

हमारी शुभकामनाएं नासिरा शर्मा को। आप इस नम्बर पर प्रतिक्रिया दे सकते हैं : 9811119489

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #251 – 136 – “ज़िन्दादिली से जीता हैं ज़िंदगी को…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल ज़िन्दादिली से जीता हैं ज़िंदगी को…” ।)

? ग़ज़ल # 136 – “ज़िन्दादिली से जीता हैं ज़िंदगी को…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

जिसके माथे पर चोट का निशान है,

यह आदमी एक मुकम्मल बयान है।

*

यायावरी उसकी गुल खिलाएगी ज़रूर,

उसके कदम बिजली नज़र में जहान है।

*

यह  दूसरों जैसा शख़्स दिखता तो है,

यारों पे मगर यह दिल से मेहरबान है।

*

ज़िन्दादिली से जीता हैं ज़िंदगी को,

ज़िंदगी जी लेना उसका अरमान है।

*

पुट्ठी इकलंगा धोबीपछाड़ मारता है,

वो मिट्टी से जुड़ा देशी पहलवान है।

*

उसके पास दिमाग़ तो दूसरों जैसा है,

परंतु ज़माने के हिसाब से शैतान है।

*

वो भी फिसला कठिन डगर पर कई दफ़ा,

मगर उसकी कामयाबी अजीमुश्शान  है।

*

दिखता भले ही आतिश होशियार चतुर,

ख़ुद को  जन्म से  समझता नादान है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 128 ☆ ।। मां शारदे की वंदना ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 128 ☆

।। मां शारदे की वंदना ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।

हे वीणा वादिनी जीवन में क्या अच्छा बुरा संज्ञान दे।।

*****

विद्या की देवी  हर समस्या   के लिए ज्ञान विज्ञान दे।

हे मां सरस्वती कैसे हो यह भवसागर पार वो भान दे।।

कैसे बने सरल जीवन की कठिन राह वो अनुमान दे।

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।

***

हे मां बागेश्वरी रहें विद्या विद्यार्थी मत हमें अभिमान दे।

कैसे करें हम सदा   रक्षा राष्ट्र की  वह स्वाभिमान   दे।।

कैसे रहें तन मन से शुद्ध मां वीणापाणी हमें वह ध्यान दे।

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।।

*****

हे हंसवाहिनी विद्यादायनी भीतर मानवता का संचार कर।

श्वेत कमल विराजनी धैर्य बुद्धि विवेक का उपचार कर।।

मां भारती महाश्वेता देवी  उत्तम वर्तमान का वरदान दे।

हे मां शारदे है प्रार्थना विनम्र हम सब को ज्ञान दे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 192 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत – आदमी भगवान है… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण गीत  – “आदमी भगवान है…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 192 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत आदमी भगवान है ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

जानता तो है कि वह दो दिनों का मेहमान है

पर सँजो रक्खा है कई सौ साल का सामान है।

जरूरत से ज्यादा रखता और कोई दिखता नहीं

आदमी सा भी कहीं दुनियाँ में कोई नादान है !।। १ ।।

*

आदमी को अपने उपर जो बड़ा अभिमान है

व्यर्थ उसका दम्भ झूठा ज्ञान औ’ विज्ञान है ।

खुद तो डरता, दूसरों की मौत से पर खेलता ।

आने वाले पल का तक उसको नहीं अनुमान है ।। २ ।।

*

हर घड़ी जिसके कि मन में स्वार्थ का तूफान है

नष्ट करने औरों को जिसने रचा सामान है

प्रेम से अपनों के पर जो साथ रह सकता नहीं

वह ज्ञान का धनवान है इंसान या शैतान है ? ।। ३ ।।

*

काम करना कठिन है कहना बहुत आसान है

प्रेम से उंचा न कोई धर्म है न ज्ञान है।

आदमी को इससे हिलमिल सबसे रहना चाहिये

सबको खुश रख खुश रहे तो आदमी भगवान है ।। ४ ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी जडणघडण… भाग – ८ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ माझी जडणघडण… भाग – ८ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टूडे – संपर्क क्र. ९८६९४८४८०० )

(काही तांत्रिक कारणामुळे ” माझी जडणघडण ” या लेखमालिकेचा भाग आठवा दि. २७/८/२४ रोजी प्रकाशित होऊ शकला नाही, तो आजच्या अंकात प्रकाशित करत आहोत. वाचकांनी कृपया नोंद घ्यावी.)

 आनंद
आमच्या घरासमोर “गजाची चाळ” होती. वास्तविक चाळ म्हटल्यावर जे चित्र डोळ्यासमोर येते तशी ती चाळ नव्हती. एक मजली इमारत होती आणि वरच्या मजल्यावर गजा आणि दोन कुटुंबे आणि खालच्या मजल्यावर तीन कुटुंबे राहत होती. पण तरीही गल्लीत ती “गजाची चाळ” म्हणूनच संबोधल्या जात असे. गजा मालक म्हणून तो राहत असलेला घराचा भाग जरा ऐसपैस होता. वास्तविक गल्लीतल्या कुठल्याच घराला (आमच्याही) वास्तू कलेचे नियमबद्ध आराखडे नव्हतेच त्यावेळी. कुठेही कशाही लांब अरुंद खोल्या एकमेकांना जोडल्या की झाले घर. पण अशा घरातही अनेकांची जीवने फुलली हे महत्त्वाचे.

गजाच्या घरात त्याची आई आणि त्याच्या लांबच्या नात्यातील बहिण “शकू” राहायचे आणि येऊन जाऊन बरीच माणसं असायची तिथे. कधी कधी गजाचे वडीलही दिसायचे मात्र गजा आणि शकू या बहीण भावांच्या नात्याबद्दल मात्र बऱ्याच गूढात्मक चर्चा घडायच्या.

गजाकडे आम्हा मुलांचं फारसं जाणं-येणं नव्हतं, पण गजाच्या शेजारी राहणाऱ्या दिघ्यांच्या कुटुंबातला आनंद आमच्यात खेळायला यायचा. आनंद, दिवाकर, अरुणा आणि त्याचे आई वडील असा त्यांचा परिवार होता.

आनंदची आई भयंकर तापट होती आणि सदैव कातावलेली असायची. त्यामुळे आम्ही आनंदच्या घरी खेळायला कधीच जात नसू पण आनंद मात्र आमच्यात यायचा. आम्ही त्याला आंद्या म्हणायचो. पुढे तोच “आंद्या” “आनंद दिघे” नाव घेऊन शिवसेनेचा एक प्रमुख नेता म्हणून नावारूपास आला ते वेगळं. पण माझ्या मनातला “आनंद” मात्र त्यापूर्वीचा आहे.

बालवयात आम्हा साऱ्या मुलांना फक्त खेळणं माहीत होतं. भविष्याची चिंताच नव्हती. पुढे जाऊन कोण काय करेल, कसे नाव गाजवेल याचा विचारही मनात नव्हता आणि “आनंद” अशा रीतीने लोकनेता वगैरे होण्याइतपत मजल गाठेल असे तर स्वप्नातही वाटले नाही कारण साध्या साध्या खेळात सुद्धा तोच प्रथम आऊट व्हायचा आणि आऊट झाल्यावर कोणाच्यातरी घराच्या पायरीवर गालावर हात ठेवून, पाय जुळवून पुढचा खेळ पहात बसायचा तेव्हा तो अगदी “गरीब बिच्चारा” भासायचा.

आज हे लेखन करत असताना खूप आठवणी उचंबळत आहेत. “आनंदची” खूप आठवण येत आहे. पुन्हा लहान होऊन त्याच्याशी संवाद साधावासा वाटतोय. तो आता या जगातही नाही. मनात दाटलेल्या भावना पत्रातूनच व्यक्त कराव्यात का ? कदाचित पत्र लिहिताना क्षणभर तरी त्याच्याशी बोलल्यासारखे वाटेल म्हणून.

प्रिय आनंद,
स. न. वि. वि.
खरं म्हणजे मला, तुला पत्र लिहिताना “सनविवि” वगैरे ठरलेले मायने नव्हते घालायचे. कारण त्यामुळे आपल्या मैत्रीच्या नात्यात उगीचच औपचारिकपणा जाणवतो. आपल्या मैत्रीत आपलं निरागस, आनंदी, खेळकर बाल्य अशा पारंपरिक शब्दांनी उगीचच बेचव होतं. आणि मला ते नको आहे.
मी तुझा बायोपिक पाहिला. आवडला. तुझ्या भूमिकेतल्या त्या नटाने सुरेख अभिनयही केलाय. संहिता लेखन छान. तुझ्या राजकीय आणि सामाजिक जीवनावर वास्तववादी प्रकाश पाडलाय. पण चित्रपट बघताना मला मात्र, ’टेंभी नाका, धोबी गल्ली ठाणे’ इथला अर्ध्या, खाकी चड्डीतला, मळकट पांढर्‍या शर्टातला मितभाषी, काहीसा शेमळट, भित्रा, गरीब स्वभावाचा पण एक चांगल्या मनाचा आनंद नव्हे आंद्या आठवत होता. जो माझा बालमित्र होता. तो मात्र मला या चित्रपटात सापडला नाही. आणि मग माझं मलाच हंसू आलं अन् वाटलं तो कसा सापडेल ? इथे आहे तो एक जनमानसातला प्रमुख राजकीय नेता आणि माझ्या मनातला आनंद होता तो माझ्याबरोबर, विटीदांडु खेळणारा, गोट्या, डबा ऐसपैस, थप्पा, लगोरी खेळणारा आनंद.. आईची रागाने मारलेली हाक ऐकली की खेळ अर्धवट सोडून पटकन घाबरत, धावत घरी जाणारा आनंद. लहान भाऊ, बहिणीला सांभाळणारा आनंद.
एकदा मी तुला विचारलं होतं “तू आईला इतका कां घाबरतोस ?”
तू एव्हढंच म्हणाला होतास, “मला तिला आनंदी ठेवायचे आहे.. ”
आनंद, तुझ्या नावात आनंद होता पण तू कुठेतरी अस्वस्थ, खिन्न होतास का ? लहानपणी कळत नव्हते रे या भावनांचे खेळ.
एक साधं गणित मी तुला सोडवून दिलं होतं आणि तुझी खिल्लीही उडवली होती.
“काय रे ! इतकं साधं गणित तुला जमलं नाही ? इतका कसा ढब्बु ?” तू वह्या पुस्तकं घेऊन फक्त निघून गेलास.
पण नंतर तू किती मोठी राजकीय गणितं सोडविलीस रे..
पुढच्या काळात तुझ्याविषयीच्या पेपरात येणार्‍या बातम्या, फोटो. लोकप्रियता वाचून मी थक्क व्हायची. अरे ! हाच का तो आनंद ? मी कधी विश्वासच ठेऊ शकले नाही.
मी माहेरी ठाण्याला असताना एक दोनदा तुला भेटलेही होते. पण तू घोळक्यात होता. माझा बालमित्र आनंद, तो हा नव्हता. वाईट वाटले मला.
पेपरात जेव्हां तुझ्या निधनाची बातमी वाचली, उलट सुलट चर्चाही वाचल्या. एका राजकीय नेत्याचे ते निधन होते. पण माझ्यासाठी फक्त माझ्या बालमित्राचे या जगात नसणे होते हे तुला कसे कळावे आणि त्यासाठी माझ्या डोळ्यात अश्रू होते.
चित्रपट बघून मी घरी आले. मैत्रीणीचा फोन आला.
“कसा वाटला मुव्ही ?”
“छानच”
अग ! आनंद आमच्या धोबी गल्लीत आमच्या घरासमोर रहायचा…
पण हे काही मी नाही सांगितले तिला.
कारण आपलं वेगळं नातं मी मनात जपलंय. उगीच एका राजकीय नेत्याशी असलेल्या नात्याचं मला मुळीच भांडवल करायचं नव्हतं आणि नाही. माझ्यासाठी फक्त ढब्बु आंद्या. कसं असतं ना लहानपण ? मुक्तपणे एकमेकांशी भांडणे, वाट्टेल ती नावे ठेवणे, टिंगलटवाळी करणे आणि तरीही मैत्रीच्या नात्यात कधीही न येणारी बाधा.. म्हणून का ते रम्य बालपण ?
पण आनंद मला मनापासून तुझा अभिमान आहे. तुझ्या बालवयातल्या प्रतिमेसकट.

तुझी
बालमैत्रीण.

माझं पत्र वाचून तुला नक्की काय वाटेल याचा विचार करत असताना मला आताही “गजाची चाळ” आठवते.
काही वर्षांपूर्वी बदललेल्या धोबी गल्लीत गेले होते तेव्हा “गजाच्या चाळीचा” चेहराच बदलला होता. त्या संपूर्ण इमारतीचं शिवसेनेच्या कार्यालयात रुपांतर झालं होतं. त्या कपाळावर गंध, दाढीधारी प्रतिमेत लपलेला आनंदचा चेहरा मी शोधत राहिले…

क्रमश: भाग आठवा.

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #247 ☆ शिकायतें नहीं वाज़िब… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख शिकायतें नहीं वाज़िब… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 247 ☆

☆ शिकायतें नहीं वाज़िब… ☆

न जाने कौन सी शिकायतों का हम शिकार हो गये/ जितना दिल साफ रखा, उतने हम गुनहग़ार हो गये–गुलज़ार जी की यह पंक्तियाँ हमें जीवन के कटु सत्य से अवगत कराती हैं। मानव जितना छल-कपट, राग-द्वेष व स्व-पर से दूर रहेगा, लोग उसे मूर्ख समझेंगे; अकारण दोषारोपण करेंगे और उसका उपहास करेंगे–जिसका मूल कारण है आत्मकेंद्रिता का भाव अर्थात् स्व में स्थित रहना और बाह्याडंबरों में लीन न होना तथा अपने से इतर व्यर्थ की बातों का चिंतन-मनन न करना। ऐसा इंसान दुनियादारी से दूर रहता है, मानव निर्मित कायदे-कानूनों की परवाह नहीं करता तथा प्रचलित परंपराओं, मान्यताओं व अंधविश्वासों में लिप्त नहीं होता। ऐसे व्यक्ति से लोगों को बहुत-सी शिकायतें रहती हैं, जिससे उसका दूर का नाता भी नहीं होता।

वैसे भी आजकल लोग शुक्रिया कम, शिकायतें अधिक करते हैं। वैसे तो यही दुनिया का दस्तूर है। शिकायत करने से अहम् का पोषण होता है और शुक्रिया करते हुए अहम् का विगलन व विसर्जन होता है और दूसरे को महत्ता देने का भाव रहता है, जो उन्हें स्वीकार्य नहीं होता। शिकायतें न करने से दोनों पक्षों का हित होता है।

शिकायत व निंदा का निकट का संबंध है। शिकायतें आप व्यक्ति के मुख पर करते हैं और निंदा उसके पीछे करते हैं। यदि हम दोनों में भेद करना चाहें, तो शिकायतें निंदा से बेहतर हैं और उनका समाधान भी लभ्य होता है। शायद! इसलिए ही कबीर ने निंदक को अपने समीप  रखने का संदेश दिया है, क्योंकि वह आपको आपकी कमियों, दोषों व सीमाओं से अवगत कराता है तथा स्वयं से अधिक अहमियत देता है; अपना अमूल्य समय आपके हित नष्ट करता है। है ना वह आपका सबसे बड़ा हितैषी? चलिए, उसके द्वारा निर्दिष्ट सुझावों पर ध्यान दें।

शिकायतें यदि स्वार्थ हित की जाती है तो उन पर ध्यान ना देना उचित है। यदि वे वाज़िब हैं, तो उसे दूर करने का प्रयास करें। इससे आत्मविश्वास ही नहीं, परहित भी होगा। परंतु यह तभी संभव है, जब आपके हृदय में किसी के प्रति मलिनता का भाव ना हो। उसके लिए आवश्यक है, अपने हृदय को गंगा जल की भांति पावन व निर्मल रखने की। जैसे गंगाजल बरसों तक पवित्र रहता है, उसमें कोई दोष उत्पन्न नहीं होता, हमें भी स्वयं को माया-मोह के बंधनों से मुक्त रखना चाहिए। ‘ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या’ को स्वीकारते हुए मानव शरीर को पानी के बुलबुले की भांति नश्वर, क्षणिक व अस्तित्वहीन स्वीकारना चाहिए और संसार को दो दिन का मेला, जहां मानव को दिव्य खुशी पाने के लिए एकांत में रहना अपेक्षित है, क्योंकि मौन हमें ऊर्जस्वित करता है।

समय नदी की भांति निरंतर गतिशील है तथा प्रकृति पल-पल रंग बदलती है। मौसम भी आते- जाते रहते हैं। इस संसार में जो भी मिला है, प्रभु का कृपा प्रसाद समझ कर स्वीकारें, क्योंकि सब यहीं छूट जाना है। ‘यह किराए का मकाँ है/  कौन तब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे! खाली हाथ तू जायेगा।’  वैसे शिकायत अपनों से होती है, गैरों से नहीं, क्योंकि शिकायत का सीधा संबंध निजी स्वार्थ से होता है; दूसरों के हृदय में आपके प्रति ईर्ष्या भाव नहीं होता– क्योंकि उनका आपके साथ गहन संबंध नहीं होता। अपनों की भीड़ में अपनों को तलाशना दुनिया का सबसे कठिनतम कार्य है। अक्सर अपने ही आप पर पीछे से वार करते हैं। इसलिए मानव को यह सीख दी गई है कि ‘पीठ हमेशा पीछे से मज़बूत रखें, क्योंकि शाबाशी और धोखा दोनों पीछे से मिलते हैं।’ जो इंसान दूसरों पर अधिक विश्वास करता है, सबसे अधिक धोखे खाता है।

बहुत कमियाँ निकालते हैं हम, दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाकात हम उस आईने से भी कर लें’ अर्थात् दूसरों से शिकायतें व दोषारोपण करने से पूर्व आत्मावलोकन करना अत्यंत आवश्यक है। आईना हमें हक़ीक़त से परिचित कराता है, अपने पराये का भेद बताता है/  ज़िंदगी कहाँ रुलाती है हमें/ रुलाते तो वे लोग हैं/  जिन्हें हम अपनी/ ज़िंदगी समझ बैठते हैं। वैसे भी सुक़ून बाहर से नहीं मिलता, इंसान के अंतर्मन में बसता है। बाहर ढूंढने पर तो उलझनें ही मिलेंगी। सो! ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/  बेवजह न किसी से ग़िला कीजिए।’ जी हाँ! मेरे गीत की पंक्तियाँ इसी कटु यथार्थ से परिचित कराती हैं कि जीवन में उलझनें बहुत है। परंतु हमें उनका समाधान अपने अंतर्मन में ढूँढना चाहिए, क्योंकि जब समस्या हमारे मन में है तो समाधान दूसरों के पास कैसे संभव है?

हम अपने मन के मालिक हैं और उस पर अंकुश लगा दिशा परिवर्तन कर सकते हैं। परंतु है तो यह अत्यंत कठिन, क्योंकि वह तो पल भर में तीन लोगों की यात्रा कर लौट आता है। ‘मन को मंदिर हो जाने दो/ देह को चंदन हो जाने दो/ मन में उठ रहे संशय को/ उमड़-घुमड़ कर बरस जाने दो’ स्वरचित गीत की पंक्तियाँ इसी भाव को प्रकट करती हैं। यदि मन मंदिर होगा, तो देह चंदन की भांति पावन रहेगी और मन प्रभु चरणों में समर्पित होगा। ऐसी स्थिति में संदेह, संशय व शंका के बादल बरस जाएंगे और मन उस दिशा  की ओर चल निकलेगा। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ यदि आपका हृदय पवित्र है, तो आपको गंगा स्नान की आवश्यकता नहीं है। इसलिए इसमें दुष्भावनाओं का वास नहीं होना चाहिए। परंतु 21वीं सदी इसका अपवाद है। आजकल वही व्यक्ति दोषी ठहराया जाता है, जिसका हृदय निर्मल, निश्छल व पवित्र होता है तथा उसमें कलुषता नहीं होती। ‘शक्तिशाली विजय भव’ आज का नारा है। निर्बल पर प्रहार किए जाते हैं। वैसे तो यह युगों-युगों की परंपरा है। आइए! स्वयं को इस जंजाल से मुक्त रखें। सरल, सहज व सामान्य जीवन जीएँ। अपेक्षा व उपेक्षा से दूर रहें, क्योंकि यह संसार दु:खालय है। जीवन अनमोल है और हर पल को अंतिम जानकर जीएँ। पता नहीं, यह हंसा तब उड़ जाएगा। खाली हाथ तू आया है/ खाली हाथ तू जाएगा। ‘जितना दिल साफ रखा/ उतना हम गुनहगार हो गए।’ परंतु हमें यही सोचना है कि जीवन यात्रा बहुत छोटी है। हमें तेरी-मेरी अर्थात् निंदा-स्तुति के जाल में नहीं फँसना है ।भले ही हम पर कितने ही इल्ज़ाम लगाए जाएं। झूठ के पाँव नहीं होते और सत्य सात परर्दों के पीछे से भी उजागर हो जाता है। संघर्ष अखरता ज़रूर है, लेकिन बाहर से सुंदर व भीतर से मज़बूत बनाता है।

समय और समझ दोनों को दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलते हैं, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल चुका होता है। सो! दस्तूर-ए- दुनिया को समझिए, पर अपने मन को मालिन मत होने दें। ‘ज़िंदगी में समझ में आ गई तो अकेले में मेला/ समझ में नहीं आई तो मेले में अकेला।’ सो! चिंतन-मनन कीजिए और प्रसन्नता के भाव से ज़िंदगी बसर कीजिए। शिकायतें तज, शुक्रिया करें और जो मिला है, उसी में संतोष से रहें। यह जीवन व समय बहुत अनमोल है, लौट कर आने वाला नहीं। हर लम्हे को अंतिम साँस तक खुशी से जी लें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – कविता के आर-पार : शोधकर्ता- डॉ. रजनी रणपिसे ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 11 ?

?कविता के आर-पार : शोधकर्ता- डॉ. रजनी रणपिसे ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक- कविता के आर-पार : कवि दुष्यंतकुमार

विधा- लघु शोध

शोधकर्ता- डॉ. रजनी रणपिसे

? तुम्हारी कहन-मेरी कहन  श्री संजय भारद्वाज ?

शाश्वत प्रश्न है, ‘मनुष्य लिखता क्यों है?’ स्थूल रूप से माना जाता है कि लेखक या कवि अपनी पीड़ा से मुक्त होने के लिए लिखता है। कभी-कभार वह अपनी प्रसन्नता को विस्तार देने के लिए भी लिखता है। लेखन, भावनात्मक विरेचन है। अगला प्रश्न है कि पाठक किस प्रकार की रचना को श्रेष्ठ मानता है? जिस रचना के भावों, पात्रों, स्थितियों को पाठक अपने भावविश्व के निकट पाता है, उसे बेहतर मानता है। जब रचनाकार के सृजन की व्यक्तिगत लघुता, पाठक की अनुभूति के साथ तादात्म्य स्थापित करती है, अनगिनत पाठकों की सह-अनुभूति पाती है तो प्रभुता में परिवर्तित हो जाती है। समय साक्षी है कि वहीं शब्दकार सफल हुआ जिसने लघुता से प्रभुता की यात्रा की।

दुष्यंतकुमार उन रचनाकारों में से हैं जिन्होंने जीवन की अल्पावधि में ही यह उपलब्धि हासिल की। इस अपूर्व प्रतिभावान कवि ने छोटे-से जीवन में विशेषकर हिंदी ग़ज़ल को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। वे उन कवियों में रहे जिनकी पारंपरिक विषयों से मुक्त कराके ग़ज़ल का विस्तार करने में महत्वपूर्ण भूमिका रही। यही कारण था कि दुष्यंतकुमार की ग़ज़ल में आम आदमी अपनी समस्याओं की झलक देखने लगा।

देखना, प्रकृति द्वारा सामान्यतया सबको एक समान मिला वरदान है। देखना एक होते हुए भी, विधाता ने प्रत्येक को दृष्टि अलग-अलग दी। लेखक/ कवि अपनी स्थितियों, अपने परिवेश, अपने भाव विश्व और अपनी वैचारिकता से उपजी दृष्टि से किसी विषय को शब्द देता है। पाठक / अनुसंधानकर्ता अपनी दृष्टि से उस रचना को अपनी तरह से समझने का प्रयास करता है। भिन्न-भिन्न पाठकों / अनुसंधानकर्ताओं यह प्रयास किसी रचनाकार की रचनाओं के अनुशीलन को जन्म देता है।

‘कविता के आर-पार : कवि दुष्यंतकुमार’ डॉ. रजनी रणपिसे द्वारा दुष्यंतकुमार की कविताओं का अनुशीलन है। डॉ. रणपिसे स्वयं कवयित्री हैं। उन्हें हिंदी साहित्य के अध्यापन का लम्बा अनुभव है। आशा की जानी चाहिए कि उनका व्यापक दृष्टिकोण दुष्यंतकुमार की कविता के चेतन तत्वों और समष्टि भाव की तार्किक मीमांसा करने में सफल रहेगा। बकौल स्वयं दुष्यंतकुमार-

अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ,

तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ।

डॉ. रजनी रणपिसे को हार्दिक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 19 – ग़ज़ल – अब मुख़्तसर करेगें… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम ग़ज़ल – अब मुख़्तसर करेगें… 

? रचना संसार # 19 – ग़ज़ल – अब मुख़्तसर करेगें … ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

ख़ुद की नज़र लगी है अपनी ही ज़िन्दगी को

ज़िंदा तो हैं मगर हम तरसा किये ख़ुशी को

महफूज़ ज़िन्दगानी घर में भी अब नहीं है

पायेगा भूल कैसे इंसान इस सदी को

 *

कैसी वबा जहाँ में आयी है दोस्तों अब

हालात-ए-हाजरा में भूले हैं हम सभी को

 *

हमदर्द है न कोई ये कैसी बेबसी है

ले आसरा ख़ुदा का बैठे हैं बंदगी को

 *

गर्दिश की तीरगी है आँखों में भी नमी है

उल्फ़त को ढूँढते थे पाया है दिल्लगी को

 *

अब मुख़्तसर करेगें हम ज़ीस्त का ये किस्सा

पैग़ाम-ए-इश्क़ देगें हम रोज आदमी को

 *

वहदानियत को उस की मीना न दो चुनौती

रहमत ख़ुदा की देखो मिलती है हर किसी को

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #247 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 247 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

पीहर की  सुधियाँ बढ़ी, आया जब त्यौहार ।

माँ बाबुल अब हैं नहीं, भीग  रहा है प्यार।।

*

भादों की है भावना, बरसे सावन  प्यार।

कहना तुम सबसे यही, आए हैं त्योहार।।

*

सावन ने मुझसे कहा, गाओ कजरी गीत।

मिलने साजन आ रहे, यही प्यार की रीत।।

*

बदरी काली छा गई, खूब हुई बरसात।

बरस रहा है प्यार तो, समझो ऐसी बात।।

*

कंठ पपीहे का हरा, रटे  हमेशा प्यास।

स्वाति बूँद की चाह में, बस पानी की आस।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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