मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 78 – हायकू ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 78 ☆

☆ हायकू ☆

वेल्हाळ पक्षी

स्वप्नातल्या गावात

मन मोहात

********

फुलपाखरू

अंगावर बसलं

फूल हसलं

******

एक साळुंकी

खुपच आवडते

का रडवते ?

******

नार शेलाटी

बाजिंदी मनमुक्त

होईल व्यक्त

****

हिर्वी बाभळ

डोहाच्या काठावर

त्या वाटेवर

****

पिवळी फुले

झुलतात फांदीत

मन गंधीत

****

वाकडी वाट

चिमुकले ते खेडे

फुलांचे सडे

****

काळी कपिला

सुन्दर तिचे डोळे

दूध  कोवळे

****

तो निवडुंग

गावाच्या वाटेवर

काटेसावर

****

मस्त साकुरा

फुलतो जपानला

गंध मनाला

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 63 ☆ छुपाना और बताना ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “छुपाना और बताना”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 63 ☆

☆ छुपाना और बताना

उसने पूछा, “आजकल बहुत वाक करती हो?”

मैंने हँसते हुए कहा, “वजन जो बढे जा रहा है!”

उसने भी मुस्कुराते हुए कहा,

“तुम्हारा वजन तो बिलकुल नज़र नहीं आता!”

 

मैं तब तो खिलखिलाकर हँस दी

पर फिर आँगन में झूले पर बैठ सोचने लगी,

कितना कुछ है जो नज़र नहीं आता, है ना?

 

कितनी अनूठी पहेली है यह इंसान भी, है ना?

कितनी बार मन में कुछ और होता है

और बाहर कुछ और दिखाता है!

कई दफा तो इतनी खूबसूरती से छुपा देता है

अपने ज़हन में उग रहे एहसास

कि सालों तक उसके करीबी लोगों को भी

ज़रा भी भनक नहीं होती!

 

कोई ख़ुशी को ख़ामोशी में छुपाता है

तो कोई ग़म को मुस्कान से ढक देता है|

कोई नाराज होते हुए भी मीठी बात करता है

और फिर काट देता है गला मीठी छुरी से

तो कोई मीठी बात कर ही नहीं पाता

और बात-बात पर नाराज़ हो जाता है|

किसी की आज़ादी की परिभाषा

बेटी के लिए कुछ अलग होती है

और बहु या पत्नी के लिए अलग|

 

जितने लोग, उतनी ही बातें…

ऐसे लोगों पर भरोसा न करना ही अच्छा है-

इनसे अच्छी तो क़ुदरत है-

खुश होती है तो बारिश बरसाती है,

दर्द होता है तो झुलसा देती है,

और अगर पीड़ा बढ़ ही जाए तो

बाढ़, सूखा या भूकंप के रूप में

प्रलय भी लाती है –

पर जो भी कहती है

सच ही कहती है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 47 ☆ व्यंग्य संग्रह – बता दूं क्या… – संपादन – डा प्रमोद पाण्डेय ☆ सह संपादन – श्री राम कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है व्यंग्य  संग्रह   “बता दूं क्या…” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – बता दूं क्या… # 47 ☆ 
पुस्तक चर्चा

पुस्तक – व्यंग्य संग्रह – बता दूं क्या…

संपादन – डा प्रमोद पाण्डेय

सह संपादन – श्री राम कुमार 

प्रकाशक – आर के पब्लिकेशन, मुम्बई

पृष्ठ – १४४

मूल्य – २९९ रु हार्ड कापी

ISBN 9788194815273

वर्ष २०२०

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – बता दूं क्या… – संपादन – डा प्रमोद पाण्डेय ☆ सह संपादन – श्री राम कुमार ☆ समीक्षा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

महाराष्ट्र के राजभवन में, राज्यपाल कोशियारी जी ने विगत दिनो आर के पब्लिकेशन, मुम्बई से सद्यः प्रकाशित व्यंग्य संग्रह बता दूं क्या… का विमोचन किया. संग्रह में देश के चोटी के पंद्रह व्यंग्यकारो के महत्वपूर्ण पचास सदाबहार व्यंग्य लेख संकलित हैं. एक मराठी भाषी प्रदेश से प्रकाशन और फिर बड़े गरिमामय तरीके से राज्यपाल जी द्वारा विमोचन यह रेखांकित करने को पर्याप्त है कि हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की स्वीकार्यता लगातार बढ़ रही है. लगभग सभी समाचार माध्यमो से इस किताब के विमोचन की व्यापक चर्चा देश भर में हो रही है.

पाठक व्यंग्य पढ़ना पसंद कर रहे हैं. लगभग प्रत्येक समकालीन घटना पर व्यंग्य लेखन, त्वरित प्रतिक्रिया व आक्रोश की अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में पहचान स्थापित कर चुका है. यह समय सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक विसंगतियो का समय है. जहां कहीं विडम्बना परिलक्षित होती है, वहां व्यंग्य का प्रस्फुटन स्वाभाविक है. हर अखबार संपादकीय पन्नो पर प्रमुखता से रोज ही स्तंभ के रूप में व्यंग्य प्रकाशन करते हैं. ये और बात है कि तब व्यंग्य बड़ा असमर्थ नजर आता है जब उस विसंगति के संपोषक जिस पर व्यंग्यकार प्रहार करता है, व्यंग्य से परिष्कार करने की अपेक्षा, उसकी उपेक्षा करते हुये, व्यंग्य को परिहास में उड़ा देते हैं. ऐसी स्थितियों में सतही व्यंग्यकार भी व्यंग्य को छपास का एक माध्यम मात्र समझकर रचना करते दिखते हैं. पर इन सारी परिस्थितियो के बीच चिरकालिक विषयो पर भी क्लासिक व्यंग्य लेखन हो रहा है. यह तथ्य बता दूं क्या… में संकलन हेतु चुने गये व्यंग्य लेख स्वयमेव उद्घोषित करते हैं. जिसके लिये युवा संपादक द्वय बधाई के सुपात्र है.

बता दूं क्या… पर टीप लिखते हुये प्रख्यात रचनाकार सूर्यबाला जी आश्वस्ति व्यक्त करती है कि अपनी कलम की नोंक तराशते वरिष्ठ व युवा व्यंग्यकारो का यह संग्रह व्यंग्य की उर्वरा भूमि बनाती है. निश्चित ही इस कृति में पाठको को व्यंग्य के कटाक्ष का आनंद मिलेगा, विडम्बनाओ पर शब्दो का अकाट्य प्रहार मिलेगा, व्यंग्य के प्रति रुचि जागृत करने और व्यंग्य के शिल्प सौष्ठव को समझने में भी यह कृति सहायक होगी. हय संग्रह किसी भी महाविद्यालयीन पाठ्य क्रम का हिस्सा बनने की क्षमता रखती है क्योंकि इसमें में पद्मश्री डा ज्ञान चतुर्वेदी, डा हरीश नवल, डा सुधीर पचौरी, श्री संजीव निगम, श्री सुभाष काबरा, श्री सुधीर ओखदे, श्री शशांक दुबे, श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव, डा वागीश सारस्वत, सुश्री मीना अरोड़ा, डा पूजा कौशिक, श्री धर्मपाल महेंद्र जैन, श्री देवेंद्रकुमार भारद्वाज, डा प्रमोद पाण्डेय व श्री रामकुमार जैसे मूर्धन्य, बहु प्रकाशित व्यंग्य के महारथियो सहित युवा व्यंग्य शिल्पियो के स्थाई महत्व के दीर्घ कालिक व्यंग्य प्रकाशित किये गये हैं. व्यंग्यकारो में व्यवसाय से चिकित्सक, इंजीनियर, बैंककर्मी, शिक्षाविद, राजनेता, लेखक, संपादक, महिलायें, मीडीयाकर्मी, विदेश में हिन्दी व्यंग्य की ध्वजा लहराते व्यंग्यकार सभी हैं, स्वाभाविक रूप से इसके चलते रचनाओ में शैलीगत भाषाई विविधता है, जो पाठक को एकरसता से विमुक्त करती है.

किताब का शीर्षक व्यंग्य युवा समीक्षक डा प्रमोद पाण्डेय व कृति के संपादक का है, जिसमें उन्होने एक प्रश्न वाचक भाव बता दूं क्या.. को लेकर मजेदार व्यंग्य रचा है.आज जब सूचना के अधिकार से सरकार पारदर्शिता का स्वांग रच रही है,एक क्लिक पर सब कुछ स्वयं अनावृत होने को उद्यत है, तब भी  सस्पेंस, ब्लैकमेल से भरा हुआ यह वाक्य बता दूं क्या किसी की भी धड़कने बढ़ाने को पर्याप्त है, क्योकि विसंगति यह है कि हम भीतर बाहर वैसे हैं नही जैसा स्वयं को दिखाते हैं. डा प्रमोद पाण्डेय के ही अन्य व्यंग्य भावना मर गई तथा गाली भी किताब का हिस्सा हैं. केनेडा के धर्मपाल महेंद्र जैन की तीन रचनायें साहब के दस्तखत, कलमकार नारे रचो व महालक्षमी जी की दिल्ली यात्रा प्रस्तुत की गई हैं. श्री देवेनद्र कुमार भारद्वाज की रचनायें काला धन, कलम किताब और स्त्री नरक में परसू, इश्तिहारी शव यात्रा व किट का कमाल, और रिटेलर चीफ गेस्ट का जमाना हैं.विवेक रंजन श्रीवास्तव देश के एक सशक्त व्यंग्यकार के रूप में स्थापित हैं  उनकी कई किताबें छप चुकी हैं कुछ व्यंग्य संकलनो का संपादन भी किया है उनकी पकड़ व संबंध वैश्विक हैं,दृष्टि गंभीर है ” आत्मनिर्भरता की उद्घोषणा करती सेल्फी”, “आभार की प्रतीक्षा”, और “श्रेष्ठ रचनाकारो वाली किताब के लिये व्यंग्य ” उनकी प्रस्तुत रचनायें हैं. जिन अति वरिष्ठ व्यंग्य कारो से संग्रह स्थाई महत्व का बन गया है उनमें सबसे बड़ी उपलब्धि पद्मश्री डा ज्ञान चतुर्वेदी जी के व्यंग्य ” मार दिये जाओगे भाई साब ” एवं “सुअर के बच्चे और आदमी के” हैं ये व्यंग्य इंटरनेट या अन्य स्थानो पर पूर्व सुलभ स्थाई महत्व की उल्लेखनीय रचनायें हैं . डा हरीश नवल जी की छोटी हाफ लाइनर,बड़े प्रभाव वाली रचनायें हैं ” गांधी जी का चश्मा”, लाल किला और खाई, चलती ट्रेन से बरसती शुचिता, वर्तमान समय और हम, अमेरिकी प्याले में भारतीय चाय. ये रचनायें वैचारिक द्वंद छेड़ते हुये गुदगुदाती भी हैं. डा सुधीश पचौरी साहित्यकार बनने के नुस्खे बताते हैं, हवा बांधने की कला सिखाते और हिन्दी हेटर को प्रणाम करते दिखते हें.  गहरे कटाक्ष करते हुये संजीव निगम ने “ताजा फोटो ताजी खबर” लिखा है, उनकी “अन्न भगवान हैं हम पक्के पुजारी” तथा तारीफ की तलवार, स्पीड लेखन की पैंतरेबाजी, एवं तकनीकी युग के श्रवण कुमार पढ़कर समझ आता है कि वे बदलते समय के सूक्ष्म साक्षी ही नही बने हुये हैं अभिव्यक्ति की उनकी क्षमतायें भी उन्हें लिख्खाड़ सिद्ध करती हैं. सुभाष काबरा जी वरिष्ठ बहु प्रकाशित व्यंग्यकार हैं, उनके तीन व्यंग्य संकलन में शामिल हैं, बोरियत के बहाने, अपना अपना बसंत एवं विक्रम बेताल का फाइनल किस्सा. सुधीर ओखदे जी बेहद परिपक्व व्यंग्यकार हैं, उनकी रचना सिगरेट और मध्यमवर्गीय, ईनामी प्रतियोगिता, व आगमन नये साहब का  पठनीय रचनायें हैं. शशांक दुबे व्यंग्य के क्षेत्र में जाना पहचाना स्थापित नाम हैं. दाल रोटी खाओ, आपरेशन कवर, रद्दी तो रद्दी है उनकी महत्वपूर्ण रचनाये ली गई हैं. डा वागीश सारस्वत परिपक्व संपादक संयोजक व स्वतंत्र रचनाकार हैं, उन्होंने अपने व्यंग्य दीपक जलाना होगा, होली उर्फ इंडियन्स लवर्स डे, चमचई की जय हो, बेचारे हम के माध्यम से स्थितियों का रोचक वर्णन कर पठनीय व्यंग्य प्रस्तुत किये हैं.

महिला रचनाकारो की भागीदारी भी उल्लेखनीय है. मीना अरोड़ा के व्यंग्य जिन चाटा तिन पाईयां, भविष्य की योजना, योजना में भविष्य अलबेला सजन आयो रे, हेकर्स, टैगर्स, हैंगर्स उल्लेखनीय है. डा पूजा कौशिक बेचारे चिंटुकेश्वर दत्त, बुरे फंसे महाराज, पर्स की आत्मकथा लिखकर सहभागी हैं.

पुस्तक में व्यंग्य लेखों के एवं लेखको के चयन हेतु संपादक डा प्रमोद पाणडेय  व प्रकाशक तथा सह संपादक श्री रामकुमार बधाई के पात्र हैं.  सार्थक, दीर्घकालिक चुनिंदा व्यंग्य पाठको को सुलभ करवाने की दृष्टि से सामूहिक  संग्रह का अपना अलग महत्व होता है, जिसे दशको पहले तारसप्तक ने हिन्दी जगत में स्थापित कर दिखाया था, उम्मीद जागती है कि यह व्यंग्य संग्रह, व्यंग्य जगत में चौदहवी का चांद साबित होगा और ऐसे और भी संग्रह संपादक मण्डल के माध्यम से हिन्दी पाठको को मिलेंगे . शुभेस्तु.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 72 – कविता – बाबुल के घर जन्म ले बेटियां …. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं बेटियों पर आधारित कविता  “बाबुल के घर जन्म ले बेटियां …. ।    सकारात्मक सुसंस्कृत सन्देश देती स्त्री विमर्श पर आधारित कविता के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 72 ☆

☆ कविता – बाबुल के घर जन्म ले बेटियां …. ☆

?‍?

गूंध गूंध जब गीली मिट्टी

कहीं खिलौना कहीं बिछौना बनती कहीं दिए

बाबुल के घर जन्म ले बेटियां

संवरती कई आकार लिए

 

हृदय धीर का पावन झरना

दया ममता प्रेम साकार

अपने तन पर आंचल लेकर

कष्ट सहे चलती अंगार

बुनती रहती स्वप्न सुनहरे

जीवन का आधार लिए

 

बाबुल के घर जन्म ले बेटियां

संवरती कई आकार लिए

 

सृष्टि की अनुपम देन नारी

घर आंगन संवारती वह

जीवन को जीवित रखती है

दो वंशों का भार सह

लुक्का चुप्पी खेला कूदी

हुई सयानी श्रंगार किए

 

बाबुल के घर जन्म ले बेटियां

संवरती कई आकार लिए

 

जैसे कच्ची मिट्टी का घड़ा

बाबुल ने है खड़ा किया

ब्याह रचाऊगां इसका

जोड़ी बनेगी राम सिया

लाल चुनरिया ओढ़ सिर

बनेगी वह साजन की प्रिये

 

बाबुल के घर जन्म ले बेटियां

संवरती कई आकार लिए

 

नारी ही चढ़े चाक पर

ले सपनों की सुंदर दुनिया

ममता के आंचल में समेटे

कई रूपों में ढलती मुनिया

बंध जाती कई रिश्तो में वह

लेकर खुशियों के दिए

 

बाबुल के घर जन्म ले बेटियां

संवरती कई आकार लिए

 

गूंध गूंध जब गीली मिट्टी

कहीं खिलौना कहीं बिछौना बनती कहीं दिए

बाबुल के घर जन्म ले बेटियां

संवरती कई आकार लिए

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 29 – उम्मीदों की आँखो में …☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “उम्मीदों की आँखो में … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 29– ।। अभिनव गीत ।।

☆ उम्मीदों की आँखो में … ☆

सूटकेस में कुछ चमकीले

कपड़ों को लेकर

बढ़ने लगी धूप दुपहर की

दिखा रही तेवर

 

कंघी करती रही खोल

रेशम से बालों को

कजरौटी के लिये छान

मारा सब आलों को

 

रही सम्हाल स्वयम् का

पल्लू तिरछी आँखों से

बादल का जब देखा

उसने फटा हुआ ने कर

 

नई बहू से भाभी बन कर

अभी ओसारे पर

फैल गई है छिछली छिछली

फिर चौबारे पर

 

क्यों औंधे मौसम के रुख

को समझ नहीं पाया

बेचारा लहलहा उठा

इस बार नीम देवर

 

खपरैलों से छन छन

कर छारके दिखे सम्हले

आखिर कब तक सहें

सूर्य के आतप के हमले

 

उम्मीदों की आँखो में

बस नई चमक लेकर

लगा अटारी पहन रही है

सम्हल सम्हल जेवर

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

27-11-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 16 ☆ व्यंग्य ☆ अभिजात्य को आम से ऊपर रखने का तिलिस्म ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  “अभिजात्य को आम से ऊपर रखने का तिलिस्म । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 16 ☆

☆ व्यंग्य – अभिजात्य को आम से ऊपर रखने का तिलिस्म ☆

एस्केप बटन दबा दिया उसने, ज़िंदगी का.

जब की-बोर्ड की सभी ‘फंक्शन कीज’ काम करना बंद कर दे, या करे तो माल-फंक्शनिंग करे, तो रास्ता सिर्फ एस्केप बटन दबाने का ही बचता है. वही चुना हैदराबाद की ऐश्वर्या ने. ऑनलाईन पढ़ाई करने के लिये उसके पास लैपटॉप था नहीं, गुरबत में गुजर कर रहे माँ-बाप खरीद कर दे पाने की स्थिति में नहीं थे.  कई बार एफ-वन दबाया मगर हेल्प न ऑनलाईन मिली न ऑफलाईन. एजुकेशन  का सिस्टम हैंग हो गया तो उसने खुद को ही हैंग कर लिया. उसके पास न रि-स्टार्ट का ऑप्शन था न रि-बूट का. स्क्रीन ब्लैंक था, क्या करती सिवाय एस्केप के.

दिल्ली के उस कॉलेज में एडमिशन हुआ था उसका जहां कट-ऑफ निनानवे प्रतिशत से नीचे नहीं जा पाता. ‘एस्केप-की’ दबाने से पहले उसने एफ-थ्री बटन दबाया ही होगा, सर्च फंक्शन, कि मिल जाये किसी तरह रास्ता एक अदद लैपटॉप पाने का. न फॉरवर्ड सर्च काम कर सका न शिफ्ट+एफ-थ्री के साथ बैकवर्ड से खोज पूरी हो सकी. ‘नॉट-फाउंड’ ने मनोबल तोड़ कर रख दिया. जो गुरबत में जीते हैं उनकी ‘एफ़-फ़ाईव-की’ काम नहीं करती, वे न चैप्टर रि-लोड कर पाते हैं न लेसन्स रिफ्रेश. ‘इन्सपायर स्कॉलरशिप’ उसके ‘कशे’ में ‘स्टोर्ड’ थी, ‘रिट्रीव’ हो नहीं सकी. मोटीवेशन का डिवाईस ड्राईवर करप्ट हो गया था. वंचितों की लाईफ में न ऑटो-सेव न ऑटो-रिकवरी की संभावनाएँ. स्टूडेंट्स से ऑनलाइन जुड़ने को कहा जा रहा है, घरों में खाने के लाले पड़े हैं – कमाल का सिस्टम है.

शिक्षा अब एक प्रॉडक्ट है श्रीमान. ‘एड-टेक’ – एजुकेशन में नया फंडा. माँ सरस्वती ने भी इसके बारे में शायद ही सुना हो. बायजूस, वेदान्तु, मेरिटनेशन – शाहरूख जैसा ब्रांड अम्बेसेडर अफोर्ड कर पाना ऐरों-गैरों-नत्थूखैरों के बस का नहीं है. एजुकेशन की लक्झरी ओनली ऑनलाइन अवेलेबल. एजुकेशन के मॉल में फटेहालों का घुसना मना है. इंटरेंस ही लाखों में, मुफ़लिसों के ‘पासवर्ड’ इनवेलिड. दो जून की रोटी का जुगाड़ डिजिटल एजुकेशन पर भारी. न एंड्रायड न डाटा, न कनेक्टिविटी न गैजेट. जिनके लिये एजुकेशन का सिस्टम बूट ही नहीं हो पा रहा वे एफ-एलेवन से फुल-स्क्रीन तो क्या कर पायेंगे. जिंदगी का मदरबोर्ड ही जब बेमकसद हो गया हो तब शिक्षा बाय डिफ़ाल्ट बेमकसद साबित हो ही जाती है. लालच के वाइरस ने एजुकेशन का ऑपरेटिंग सिस्टम करप्ट कर दिया है. जो एंटी-वाइरस लेकर उतरेंगे सड़कों पर उनकी निष्ठा पर सवाल उठाये जाएँगे – वामपंथी, देशद्रोही, टुकड़े-टुकड़े और क्या क्या. पॉवर्टी में लर्निंग से लर्निंग-पॉवर्टी तक का सफर है श्रीमान. आवारा बाज़ार में पूअर ‘ई-वेस्ट’ हैं, जंक अपने ही देश में. दीवारों पर मुँह चिढ़ाता ‘सर्व शिक्षा अभियान’ का विज्ञापन. कभी कृष्ण और सुदामा एक ही क्लास में पढ़ा करते थे, अब अभिजात्य को आम से ऊपर रखने का तिलिस्म है.

लॉक-डाउन ने पढ़ाई का ‘की-पैड’ गरीबों की जिंदगी में डिसेबल कर दिया है. प्राईमरी स्कूल से कॉलेज-यूनिवर्सिटी तक बायो-मेट्रिक्स डिवाईसेस लगीं हैं खाये-पिये अघाये यूजर्स की उँगलियों की छाप का मिलान हो जाये तो लॉगिन कर सकेंगे आप. शेष के लिये है ना आंगनवाड़ी, खैराती स्कूल, सरकारी कॉलेज या फिर वोई एस्केप बटन. ये सेवेन्थ जनरेशन के प्रशासन के की-बोर्ड हैं इन पर से शर्म और गैरत के बटन्स गायब कर दिये गये हैं.

बहरहाल, अब तो ‘रि-सायकल बिन’ से भी डिलीट कर दी गई है ऐश्वर्या की स्टोरी. कौन बताये कि वो परिवार पर बोझ बनाना नहीं चाहती थी इसीलिये शिफ्ट+एफ-एट प्रेस करके सेफ मोड में जाने की बजाये उसने आल्ट+एफ-फोर से सारे एप्लिकेशन क्लोज़ किये और एस्केप कर गई. जब जिंदगी का एफ-टेन ही नॉन-फंक्शनल हो तो मेनुबार का कोई ऑप्शन कैसे एक्टिवेट कर पाती. उसने दुपट्टे का एक सिरा गले के इर्द-गिर्द कसते हुवे दूसरा पंखे से बांधा और लाईफ से एस्केप का बटन दबा दिया. अफसोस कि उसका यह एक्शन ‘अन-डू’ किया भी नहीं जा सकेगा.

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 75 ☆ व्यंग्य – पागुर करती गाय का चिंतन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक समसामयिक व्यंग्य  “पागुर करती गाय का चिंतन“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 75

☆ व्यंग्य – पागुर करती गाय का चिंतन ☆

जाड़े का मौसम है। दांत किटकिटा रहे हैं। गंगू के घर वाले चिंतित हैं। गंगू अपने हक के लिए बीस दिन से दिल्ली के बार्डर की सड़क में कांप रहा है। दो डिग्री वाली कंपकंपाती लहर से हाथ पैर सुन्न हो गए हैं। सत्ता के लोग कह रहे हैं कि हम किसान के लिए लड़ रहे हैं पर विपक्ष इनको बरगला रहा है। सत्ता के लोग कह रहे हैं कि किसान गरीब है खेती करने के काबिल नहीं है, इसीलिए अब इनकी जमीनों में हमारे लोग खेती करेंगे। सरकार कह रही है, हम गंगू की आमदनी दोगुनी कर देंगे,पर गंगू जैसे करोड़ों किसानों को विश्वास नहीं हो रहा है क्योंकि वे कई सालों से हाथ मटका कर झूठ को सच की तरह से बोलने वाले और झटका मारकर वोट ठगने वालों से परेशान है।घर में पागुर करती गाय चिंतित हैं कि उसका मालिक अपने हक की मांग के लिए दर दर ठोकरें खा रहा है, वह घर से बीस दिन पहले गया था और अभी तक नहीं लौटा। कूं कूं करता मोती गंगू की याद में रात को रोने लगता है, गांव में कुत्ते के रोने को अपकुशन मानते हैं। बेचारी गाय अपने बछड़े को दूध नहीं पिला पा रही है, मालिक की याद में आंसू बहा रही है। इतने दिन में गाय अच्छी तरह समझ गयी है कि गाय और किसान राजनीति के लिए बनाए गए हैं। पिछली बार मंदसौर में गंगू का भाई गोली खाकर मरा था तब भी गाय रोयी थी, इस बात पर भी रोयी थी कि कुर्सी पकड़ नेता ने मरने वाले को एक करोड़ देने का फरमान मीडिया में सुनाया था,पर कलेक्टर ने कहा था कि किस मद से पैसा देंगे, घोषणा करना तो इनका जन्मजात अधिकार है।  गाय सोच रही है कि लोग भाषण में देश को कृषि प्रधान देश कहते हैं पर विपक्ष कुर्सी प्रधान देश कहता है, आखिर लफड़ा क्या है ? ये किसान फंदे पर क्यों लटकते हैं। पटवारी,आर आई, तहसीलदार का पेट किसानों से पलता है, नये नये कानून से इनके खर्चा पानी के भाव बढ़ते हैं।

जो नए कानून आए हैं, पागुर करती गाय सोच रही है ये किसानों के हक में नहीं है। नया कानून यह  भी कहता है कि यदि कोई कारपोरेट किसी किसान को धोखा देता है या उसे नुकसान पहुंचाता है तो वह किसान उस कारपोरेट के खिलाफ किसी कोर्ट में कोई केस नहीं कर सकता। यदि किसी देश के लोगों से कोर्ट में जाने का अधिकार ही छीन लिया जाए तो इसका मतलब है आपने पूरी कानून व्यवस्था और न्याय पाने का जो संवैधानिक अधिकार है उसे कुचल दिया है । इस नए कानून में लिखा है कि किसान कारपोरेट की शिकायत लेकर एसडीएम के पास जाएगा। एसडीएम साहब उस विशालकाय कारपोरेट चाहे वह कोई भी हो उसके खिलाफ मुकदमा सुनेंगे और फैसला देंगे।

गाय हंस रही है बेचारे एसडीएम पर। एक एसडीएम ऐसे कारपोरेट जिनके कहने से भारत सरकार नीतियां बनाती हो, कानून बदलती हो, वह उनके खिलाफ फैसला दे पाएगा? एसडीएम छोटा अफसर होता है, उसके आसपास के नेता उससे वसूली करते हैं,उसकी बीबी उससे हीरे-जवाहरात जड़े हार की मांग करती है,वह कारपोरेट से थर-थर कांपता रहता है क्योंकि कारपोरेट वाले को उसकी भी चिंता है। किसान का क्या है 14 करोड़ से ज्यादा किसान हैं इस देश में। सब ऐन वक्त पर नेतागिरी पर उतारू हो जाते हैं। आन्दोलन करने की इनकी आदत बन गई है……

अचानक इस खबर को सुनकर गाय की पागुर रुक गई, खबर आयी है कि उसका मालिक गंगू ठंड खाकर मर गया है………

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
(टीप- रचना में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।)
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #22 ☆ अन्नदाता किसान ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है एक  समसामयिक कविता “अन्नदाता किसान”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 22 ☆ 

☆ अन्नदाता किसान ☆ 

वो मेहनतकश

जीवन भर

श्रम करता है बस

हाथ में कुदाली लिए

बंजर जमीन को खोदता है

पत्थरों को तोड़ता है

अपने हल से

जमीन को खेती योग्य

बनाता है

मिट्टी में

श्रम बिन्दुओं को मिलाता है

कुआँ खोदकर

निकालता है पानी

प्यासी धरती होती है

उसकी दिवानी

वो बंजर जमीन को

बनाता है उपजाऊ

वो धान,  गेंहू, गन्ना

सब्जी-भाजी बोता है

कि कुछ धन कमाऊं

वो हर ऋतु में

जी-तोड़ मेहनत करता है

उगाता है सभी फसलें

तभी हमारा पेट भरता है

जब मंडी में नहीं मिलते

उसको दाम

रूक जाते हैं

उसके सारे गृहस्थी के काम

बिटिया की शादी

साहूकार का कर्ज

बूढ़ी मां का

नाईलाज मर्ज

बच्चों की आगे की पढ़ाई

घर में रूठी है लुगाई

वो सबको कैसे मनायेगा

सबके चेहरे पर

खुशियाँ कैसे लायेगा

वो इन समस्याओं से ग्रस्त हैं

अपनी गरिबी से त्रस्त है

तब वो हिम्मत जुटाता है

फसलों की उचित कीमत की

माँग उठाता है

 

तब सरमायेदार

उसको रोकते हैं

अश्रू गैस, पानी की बौछारें

बेरिकेड्स, राह में गड्ढे,

आरोप-प्रत्यारोप

सभी कुछ उसकी

राह में झोंकते है

 

पर वो आज

मुखिया के सामने खड़ा है

अपनी मांगें मनवाने

जिद्द पर अड़ा है

क्या कोई

उसके साथ न्यायकर

नया इतिहास गढ़ेगा ?

या सदा की तरह-

हमारा भोला इन्सान

हमेशा से बेजुबान

अन्नदाता किसान

झूठें वादों, जुमलों की

भेंट चढ़ेगा ?

© श्याम खापर्डे 

भिलाई  05/12/20

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 29 ☆ नाही मन ते निर्मळ ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 29 ☆ 

☆ नाही मन ते निर्मळ… ☆

 

मन शुद्ध नसता, देतो आणिका दूषण

नाही मन ते निर्मळ, काय करील साबण…धृ

 

पाहतो उणे अनेकांचे, स्वतः आचरतो हा दोष

अंधार असता स्व-घर, दिवा दाखवी दुसऱ्यास

नाही मन ते निर्मळ, काय करील साबण…१

 

नाही स्व-घरावर छत, कौल मोजतो दुसऱ्याचे

घरी गळते छप्पर, आणि पाणी पडते चौफेर

नाही मन ते निर्मळ, काय करील साबण…२

 

जडला की जणू याला, महा-भयंकर रोग

दुसऱ्याच्या कार्यात, करतो कूट-कारस्थान

नाही मन ते निर्मळ, काय करील साबण…३

 

घरातील कचरा, हम रस्त्यावर टाकी

नागरिक देशाचा, नाही त्यास अवधान

नाही मन ते निर्मळ, काय करील साबण…४

 

ढोंग विवेक दाखवी, आत काळिमा ती याच्या

भोंदूगिरी करितो नित, मूळ असून सैतान

नाही मन ते निर्मळ, काय करील साबण…५

 

© कवी म. मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 78 ☆ व्यंग्य – समाज-सुधार की क्रान्तिकारी योजना ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘समाज-सुधार की क्रान्तिकारी योजना’।  बचपन से पढ़ा था कि- जहाँ न पहुंचे ‘रवि’, वहां पहुँचे ‘कवि’। अब तक किसी ने लिखा नहीं, इसलिए लिख रहा हूँ कि – जहाँ न पहुँचे ‘सरकार’,वहाँ पहुँचे ‘व्यंग्यकार’। आशा है इस शीर्षक से कोई न  कोई, कुछ तो लिखेगा। अब इसके आगे लिखने नहीं डॉ  परिहार जी  के व्यंग्य को पढ़ने की जरुरत है। इस सार्थक व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 78 ☆

☆ व्यंग्य – समाज-सुधार की क्रान्तिकारी योजना

अभी हाल में राजधानी में एक बड़ी हृदयविदारक घटना घट गयी। तीन चार पिता अपने होनहार पुत्रों को नौकरी में लगवाने के इरादे से संबंधित डिपार्टमेंट में चालू रिश्वत के रेट का पता लगाने गये और रेट की घोषणा होने पर उनमें से दो ‘कोमा’ में चले गये और बाद में उनमें से एक की ज़िन्दगी मेंं ‘फुल स्टॉप’ लग गया।

इस दुर्घटना पर भारी हंगामा मच गया और विरोधी पार्टियों ने बात संसद में उठा दी कि सरकार रिश्वत के धक्के से मरने वालों की समस्या की तरफ पूरी तरह उदासीन है। इस तोहमत को धोने के लिए सरकार ने फटाफट एक कमेटी बना दी कि समस्या का गहराई से अध्ययन करे और तीन महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करे।

कमेटी ने तीन महीने के बजाय छः महीने में अपनी 848 पेज की रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें समस्या के हर पहलू का बारीकी से अध्ययन किया गया। रिपोर्ट में कहा गया कि भारत के संविधान में नागरिकों को जो मौलिक अधिकार दिये गये हैं उनमें नौकरी में बराबरी का अधिकार और जिन्दा रहने का अधिकार शामिल हैं, लेकिन रिश्वतखोरी इन दोनों को चाँप कर बैठ गयी है। कमेटी ने माना कि हमारे महान मुल्क में रिश्वतखोरी एक संस्था का रूप ले चुकी है और हमारे राष्ट्रीय वजूद में कुछ ऐसे पैवस्त हो गयी है जैसे मजनूँ के वजूद में लैला पैवस्त हो गयी थी। हालत ये है कि अगर इस ज़हरीले काँटे को निकालने की कोशिश की गयी तो काँटे के साथ मरीज़ की जान निकलने का ख़तरा पैदा हो सकता है।

कमेटी ने बड़ी चिन्ता के साथ लिखा कि रिश्वतखोरी ने हमारे मुल्क में बड़े पैमाने पर गैरबराबरी और अन्याय पैदा कर दिया है। जिनके पास रिश्वत देने के लिए पैसा है वे अच्छी अच्छी नौकरियाँ हथया लेते हैं और इस मुल्क के जो सपूत प्रतिभाशाली लेकिन गरीब हैं वे नौकरी के कारवाँ को गुज़रते हुए देखते रह जाते हैं। नौकरियों के सिकुड़ने के साथ उन्हें हासिल करने के रेट इतने ऊँचे हो गये हैं कि काला पैसा कमाने वाले पुरुषार्थी ही उन्हें क्रय कर पाते हैं।

कमेटी ने लिखा कि समस्या का दूसरा पहलू यह है कि जिनके पास रिश्वत का पैसा पहुँचता है वे अपनी औलादों के लिए अच्छी नौकरियाँ खरीद लेते हैं और इस तरह उनकी आगे आने वाली पीढ़ियों का भविष्य सुनहरा और सुरक्षित हो जाता है। जिन बापों के पास नौकरियाँ खरीदने के लिए पैसा नहीं होता या जिन्होंने अपनी नौकरी में मौकों का फायदा नहीं उठाया, उनकीऔलादें कुछ दिनों के लिहाज के बाद उन्हें खुल्लमखुल्ला नाकारा और नालायक कहने लगती हैं, जिससे परिवार और समाज में अशान्ति का वातावरण पैदा होता है।

समस्या पर पूरा विचार करने के बाद कमेटी इस नतीजे पर पहुँची कि आम आदमी को रिश्वतखोरी से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए कुछ ऐसे कदम उठाये जाएं कि साँप भी मर जाए और लाठी भी सलामत रहे, यानी रिश्वतखोरी की संस्था भी बची रहे और आम आदमी में उसके धक्के को झेलने की ताकत पैदा हो सके। इस लिहाज से कमेटी ने कई बहुमूल्य सुझाव दिये, जिनमें से ख़ास ख़ास नीचे दिये गये हैं—–

रिश्वत-ऋण की व्यवस्था करना:-

कमेटी ने यह क्रांतिकारी सुझाव दिया कि जिस तरह मँहगी शिक्षा को झेलने के लिए छात्रों को शिक्षा-ऋण की व्यवस्था की गयी है, उसी तरह रिश्वत देने के लिए ऋण की व्यवस्था की जाए ताकि कोई नागरिक ज़िन्दगी के अच्छे मौकों से महरूम न रहे। शिक्षा-ऋण की व्यवस्था इसलिए की गयी है कि ऊँची फीस की वसूली मेंं बाधा न पड़े और छात्रों का दिमाग विरोध की दिशा में न भटके। इसी तरह रिश्वत-ऋण की व्यवस्था सब राष्ट्रीयकृत बैंकों में हो।

इसके लिए प्रक्रिया ऐसी होगी कि व्यक्ति ऋण-आवेदन मेंं रिश्वत देने के उद्देश्य, रिश्वत लेने वाले कर्मचारी/अधिकारी का नाम और विभाग, तथा माँगी गयी रकम का ब्यौरा देगा। साथ ही फार्म पर रिश्वतखोर कर्मचारी/अधिकारी इस बात की तस्दीक करेगा कि उल्लिखित रकम सही है। वह यह वचन भी देगा कि जिस काम के लिए रिश्वत ली जा रही है वह एक समय-सीमा के भीतर पूरा होगा। यह इसलिए ज़रूरी है कि रिश्वत की रकम ज़ाया न हो। यदि रिश्वतखोर अफसर समय-सीमा में काम नहीं करता तो फिर उस पर आई.पी.सी. के तहत रिश्वतखोरी और चारसौबीसी की कार्यवाही की जा सकेगी। वादा पूरा करने पर उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होगी।

कुछ वर्गों के लिए ऋण मेंं सब्सिडी:-

कमेटी ने यह सुझाव दिया कि कुछ वर्गों को रिश्वत-ऋणों मेंं सब्सिडी की सुविधा दी जाए। ये वर्ग विद्यार्थी, महिलाएं, वरिष्ठ नागरिक, और गरीबी-रेखा से नीचे वाले हो सकते हैं। इनके द्वारा लिये जाने वाले रिश्वत-ऋणों का पचास प्रतिशत भार सरकार के द्वारा वहन किया जाए।

अन्य क्षेत्रों में विस्तार:-

कमेटी ने यह सुझाव दिया कि कालान्तर मेंं इस ऋण सुविधा का विस्तार दहेज आदि के क्षेत्रों में भी किया जाए, अर्थात दहेज देने के लिए भी बैंक ऋण प्राप्त हो।
वजह यह है कि सारी वीर-घोषणाओं और कानूनों के बावजूद हमारे धर्म-प्रधान देश में दहेज-प्रथा दिन-दूनी रात-चौगुनी फल-फूल रही है और दहेज की रकम हजारों से बढ़कर करोड़ों में पहुँच गयी है। बैंकों से दहेज-ऋण प्राप्त होने लगे तो जो लोग अपनी कन्या की ‘स्तरीय’ शादी करना चाहते हैं उनकी मुराद पूरी होगी और शादी के बाद लड़कियों को होने वाले कष्ट कम होंगे। तब शादी के दरमियान कन्या के पिता को अपनी पगड़ी वर के पिता के चरणों में रखने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, और इस तरह के दृश्य भारतीय फिल्मों से गायब हो जाएंगे।

सावधानियाँ:-

कमेटी ने यह भी टिप्पणी की कि रिश्वत-ऋणों के क्रियान्वयन में पर्याप्त सावधानियाँ बरती जाएं। ऐसा न हो कि रिश्वत देने वाले और लेने वाले आपस में गुप्त समझौता करके बैंकों और सरकार का मुंडन करने लग जाएं। इस लिए हर बैंक में छानबीन समिति बनायी जाए जो रिश्वत-ऋणों पर कड़ी नज़र रखे और उनका सही उपयोग सुनिश्चित करे।

कमेटी ने अन्त में लिखा कि उसे पूरा भरोसा है कि इन क्रान्तिकारी कदमों से भारतीय समाज की बहुत सी बुराइयों का अन्त हो सकेगा और आम आदमी सुकून की ज़िन्दगी जी सकेगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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