हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #86 ☆ व्यंग्य – अतिथि देवो भव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक  व्यंग्य  ‘अतिथि देवो भव . इस सार्थक एवं अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 86 ☆

☆ व्यंग्य – अतिथि देवो भव ☆

मुझे बचपन से मेहमानों की बड़ी प्रतीक्षा रहती थी कारण यह था कि जब मेहमान आते हैं  तो कुछ ना कुछ गिफ्ट, फल,  मिठाई  लेकर आते हैं और मेहमानों के जाते वक्त भी मुझे उनसे    कुछ नगद रुपये भी मिलते थे। मिडिल स्कूल में संस्कृत पढ़ने का अवसर मिला।  संस्कृत में मेहमानों को अतिथि देवो भव के रूप में वर्णित किया गया है।

सारी टूरिज्म इंडस्ट्री, होटल इंडस्ट्री, और हवाई यात्रा इंडस्ट्री मेहमान नवाजी के आधारभूत सिद्धांत पर टिकी हुई है।  बड़े-बड़े विज्ञापन देकर मेहमान बुलाए जाते हैं उनकी खूब खातिरदारी की जाती है, और उनसे भरपूर वसूली की जाती है। मजे की बात है कि इस अपनेपन से मेहमान खुशी खुशी लुट कर भी और खुश होता है। ठीक वैसे ही जैसे साधु संतों के आश्रम में या मंदिर में दान कर के भी भक्त खुश होते हैं।

बड़े राजनीतिक स्तर पर मेहमान नवाजी को डिनर पॉलिटिक्स कहा जाता है। डिनर की भव्य टेबल पर पहुंचने तक रेड कार्पेट से होकर मेहमान को गुजारा जाता है। उसके स्वागत में कसीदे पढ़े जाते हैं। डिनर के साथ संगीत और संस्कृति का प्रदर्शन होता है।मेहमान भले ही दो निवाले ही खाता है किंतु उस भोज की व्यवस्था में बड़े-बड़े अधिकारी जी जान से लगे होते हैं। क्योंकि मेहमान की खुशमिजाजी पर ही उससे मिलने वाली गिफ्ट निर्भर होती है। कई बार तो सीधे तौर पर भले ही कोई लेन-देन ना हो किंतु कितना बड़ा मेहमान किसके साथ बैठकर कितनी आत्मीयता से बातें करता है,  यही बात राष्ट्रीय सम्मान की या  व्यक्ति के सम्मान की  द्योतक बन जाती  है। मेहमान के कद से रुतबा बढ़ता है।

बारात खूब मेहमान नवाजी करती है और लौटते हुए दुल्हन साथ ले आती है। गावों में या मोहल्ले में किसके घर किसकी उठक बैठक है, इससे उस व्यक्ति की हैसियत का अंदाजा लगाया जाता है, शादी ब्याह तय करने में, खेत खलिहान की खरीदी बिक्री में यह रूतबा बडा महत्वपूर्ण होता है।शायद  इसलिए ही मेहमान को देवता तुल्य कहा गया होगा।

मेहमान भी भांति भांति के होते हैं कुछ लोग बड़े ठसियल किस्म के मेहमान होते हैं जो तू मान ना मान मैं तेरा मेहमान वाले सिद्धांत पर ही निर्वाह करते हैं। मेरे एक मित्र तो अपने परिचय का दायरा ही इसिलिये इतना बड़ा रखते हैं कि जब भी वह किसी दूसरे शहर में जाएं तो उन्हें होटल में रुकने की आवश्यकता ना पड़े। कोई न कोई मित्र उनके मोबाईल में ढूंढ़ कर वे निकाल ही लेते हैं, जो उन्हें स्टेशन से ले लेता है और मजे से दो एक दिनों की मेहमानी करवा कर स्टेशन तक वापस छोड़ भी देता है।

तो परिचय का प्रेम व्यवहार का दायरा बढ़ाते रहिये, मेहमान नवाजी कीजिये, करवाइये।

अतिथि देवो भव।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 71 – चतुराई धरी रह गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक लघुकथा  “चतुराई धरी रह गई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 71☆

☆ चतुराई धरी रह गई ☆

चतुरसिंह के पिता का देहांत हो चुका था. उस ने अपने छोटे भाई कोमलसिंह को बंटवारा करने के लिए बुलाया, “बंटवारे के पहले खाना खा लेते है.” खाने परोसते हुए चतुरसिंह ने कोमलसिंह से कहा.

कोमलसिंह ने जवाब दिया, “ भैया ! बंटवारा आप ही कर लेते. मुझे अपना हिस्सा दे देते. बाकि आप रख लेते. मुझे बुलाने की क्या जरुरत थी ?”

“नहीं भाई. मै यह सुनना बरदाश्त नहीं कर सकता हूँ कि बड़े भाई ने छोटे भाई का हिस्सा मार लिया,” कहते हुए चतुरसिंह ने भोजन की दो थाली परोस कर सामने रख दी.

एक थाली में मिठाई ज्यादा थी. इस वजह से वह थाली खालीखाली नजर आ रही थी. दूसरी थाली में पापड़, चावल, भुजिए ज्यादा थे. वह ज्यादा भरी हुई नज़र आ रही थी. मिठाई वाली थाली में दूधपाक, मलाईबरफी व अन्य कीमती मिठाइयाँ रखी थी.

“जैसा भी खाना चाहो, वैसी थाली उठा लो,” चतुरसिंह ने कहा, वह यह जानना चाहता था कि बंटवारे के समय कोमलसिंह किस बात को तवज्जो देता है. ज्यादा मॉल लेना पसंद करता है या कम.

चूँकि कोमलसिंह को मीठा कम पसंद था. इसलिए उस ने पापड़भुजिए वाली थाली उठा ली, “भैया मुझे यह खाना पसंद है,” कहते हुए कोमलसिंह खाना खाने लगा.

चतुरसिंह समझ गया कि कोमलसिंह को ज्यादा माल चाहिए. वह लालची है. इस कारण  उस ने ज्यादा खाना भरी हुई थाली ली है. इसे इस का मज़ा चखाना चाहिए. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने बंटवारे के लिए नई तरकीब सोच ली.

खाना खा कर दोनों भाई कमरे में पहुंचे. चतुरसिंह ने घर के सामान के दो हिस्से कर रखे थे.

“इन सामान में से कौनसा सामान चाहिए ?” चतुरसिंह ने सामने रखे हुए सामान की ओर इशारा किया.

एक ओर फ्रीज़, पंखें, वाशिंग मशीन रखी थी. दूसरी ओर ढेर सारे बरतन रखे थे. चुंकि कोमलसिंह के पास फ्रीज़, पंखे,वाशिंग मशीन थी. उस ने सोचा कि भाई साहब के पास यह चीज़ नहीं है. इसलिए ये चीज़ भाई साहब के पास रहना चाहिए.

यह सोचते हुए कोमलसिंह ने बड़े ढेर की ओर इशारा कर के कहा, “मुझे यह बड़ा वाला ढेर चाहिए.”

चतुरसिंह मुस्कराया, “ जैसी तेरी मरजी. यूँ मत कहना कि बड़े भाई ने बंटवारा ठीक से नहीं किया,” चतुरसिंह अपनी चतुराई पर मंदमंद मुस्कराता हुआ बोला. जब कि वह जानता था कि उसे ज्यादा कीमती सामान प्राप्त हुआ है.

कोमलसिंह खुश था. वह अपने बड़े भाई की मदद कर रहा था.

“अब इन दोनों ढेर में से कौनसा ढेर लेना पसंद करोगे ?” चतुरसिंह ने अपने माता की जेवरात की दो पोटली दिखाते हुए कहा.

कोमलसिंह ने बारीबारी दोनों पोटली का निरिक्षण किया, एक पोटली भारी थी, दूसरी हल्की व छोटी. उस ने सोचा कि चतुरसिंह बड़े भाई है. इसलिए उन्हें ज्यादा हिस्सा चाहिए.

“भैया ! आप  बड़े है. आप का परिवार बड़ा है, इसलिए आप बड़ी पोटली रखिए,” कोमलसिंह ने छोटी पोटली उठा ली, “यह छोटी पोटली मेरी है.”

“नहीं नहीं भाई, तुम बड़ी पोटली लो, “ चतुरसिंह ने बड़ी पोटली कोमलसिंह के सामने रखते हुए कहा.

“नहीं भैया, आप बड़े है, बड़ी चीज़ पर आप का हक बनता है,” कहते हुए कोमलसिंह ने छोटी पोटली रख ली.

चतुरसिंह चकित रह गया. उस ने बड़ी पोटली में चांदी के जेवरात रखे थे. छोटी पोटली में सोने के जेवरात थे. वह जानता था कि कोमलसिंह लालच में आ कर बड़ी पोटली लेगा. जिस में उस के पास चांदी के जेवरात चले जाएँगे और वह सोने के जेवरात ले लेगा.

मगर, यहाँ उल्टा हो गया था.

अब की बार चतुरसिंह ने चतुराई की, “ कोमलसिंह इस बार तू बंटवारा करना.  नहीं तो लोग कहेंगे कि बड़े भाई ने बंटवारा कर के छोटे भाई को ठग लिया, “ चतुरसिंह ने कोमलसिंह को ठगने के लिए योजना बनाई .

कोमलसिंह कोमल ह्रदय था. वह बड़े भाई साहब का हित चाहता था. बड़े भाई के ज्यादा बच्चे थे. इसलिए वह चाहता था कि जमीन का ज्यादा हिस्सा बड़े भाई साहब को मिले. इसलिए वह चतुरसिंह को अपने पैतृक घर पर ले गया.

“भाई साहब ! यह अपने पैतृक मकान है. पिताजी ने आप के जाने के बाद इसे बनाया था,” कोमलसिंह ने कहा.

चतुरसिंह ने देखा कि एक ओर दो मकान और तीन मंजिल भवन खड़ा है, दूसरी ओर एक दुकान के पास से अन्दर जाने का गेट है. यानि एक ओर बहुमंज़िल भवन के साथ दो दुकान बनी हुई थी. दूसरी ओर एक दुकान और पीछे जाने का गेट था.

चतुरसिंह नहीं चाहता था कि जेवरात की तरह ठगा जाए इसलिए उस ने कहा, “ कोमलसिंह तुम ही बताओ. मुझे कौनसा हिस्सा लेना चाहिए ?”

“ भाई साहब, मेरी रॉय में तो आप दूसरा हिस्सा ले लेना चाहिए,” कोमलसिंह ने कहा तो चतुरसिंह चकित रह गया.

छोटा भाई हो कर बड़े भाई को ठगना चाहता है. खुद बहुमंजिल मकान और दो दुकान हडप करना चाहता है. मुझे एक दुकान और छोटा सा बाड़ा देना चाहता है. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमलसिंह, मेरा परिवार बड़ा है, इसलिए मै चाहता हूँ कि यह बहुमंजिल मकान वाला हिस्सा में ले लूँ.”

इस पर कोमलसिंह ने कहा, “ भैया ! आप हिस्सा लेने से पहले यह दूसरा हिस्सा देख ले.” कोमलसिंह ने चतुरसिंह से कहा. वह चाहता था कि बड़े भाई को ज्यादा हिस्सा मिलें. क्यों कि दूसरे हिस्से के अंदर १० मकान और लंबाचौडा खेत था, साथ ही बहुत सारे मवेशी भी थे.

मगर, चतुरसिंह ने सोचा कि छोटा भाई उसे ठगना चाहता है. इसलिए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमल, मुझे कुछ नहीं देखना है, यह दूसरा हिस्सा तेरे रहा, पहला हिस्सा मेरे पास रहेगा.”

“भैया ! एक बार और सोच लो,” कोमलसिंह ने कहा , “ आप को ज्यादा हिस्सा चाहिए, इसलिए आप यह दूसरा हिस्सा ले लें.”

चतुरसिंह जानता था कि खाली जमीन के ज्यादा हिस्से से उस का यह बहुमंजिल मकान अच्छा है. इसलिए उस ने छोटे भाई की बात नहीं मानी. सभी पंचो के सामने अपनेअपने हिस्से का बंटवारा लिख लिया.

“भैया. एक बार मेरा हिस्सा भी देख लेते,” कहते हुए कोमलसिंह चतुरसिंह को अपना हिस्सा दिखने के लिए दुकान के पास वाले गेट से अंदर गया.

आगेआगे कोमलसिंह था, पीछेपीछे चतुरसिंह चल रह था. जैसे ही वे गेट के अंदर गए, उन्हें गेट के पीछे लम्बाचौड़ा खेत नजर आया. सामने की तरफ १० भवन बने हुए था. कई मवेशी चर रहे थे.

यह देख कर चतुरसिंह दंग रह गया, “कोमल यह हिस्सा पापाजी ने कब खरीदा था ?”

“ भैया ! आप के जाने के बाद,” कोमलसिंह ने बताया, “ इसीलिए मै आप से कहा रहा था कि आप बड़े है, आप को बड़ा हिस्सा चाहिए, मगर, आप माने नहीं,”

मगर, अब चतुरसिंह क्या करता ? उस की चतुराई की वजह से वह स्वयम ठगा जा चुका था. वह चुप हो गया.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-09-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 46 ☆ जुगाड़ की जननी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “जुगाड़ की जननी”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 46 – जुगाड़ की जननी ☆

इसी जद्दोजहद में जीवन बीता जा रहा है कि सम्मान कैसे मिले। सड़क पर लगे हुए बैनर मुँह चिढ़ाते हैं। कि देखो जिनके साथ तुम उठना – बैठना पसंद नहीं करते थे वो कैसे यहाँ बैठकर  तुम्हें घूर रहे हैं। शहर के सारे नेता अपना कार्य छोड़ कर इस बैनर में बैठकर आने – जाने वालों की निगरानी कर रहे हैं।

विज्ञापनों की भरमार के बहुत से होर्डिंग चौराहों की शोभा बढ़ाते हैं। हीरो – हीरोइन वाले पोस्टर अब कोई नहीं देखता।

कुछ पोस्टर, बैनर, प्रेरणादायक होते हैं, जिन्हें देखकर कार्य करने की इच्छा जाग्रत होती है। जब आपकी फ़ोटो और नाम उसमें अंकित हो तो आपमें अहंकार का भाव अनायस ही उत्पन्न हो जाता है। परंतु यदि आप बैनर से नदारत हैं तब तो मानो ऐसा लगता है कि किसी ने सोए हुए शेर को जगा दिया हो। आप दहाड़ते हुए अपनी माँद से निकल कर पूरे परिवेश को अशांत कर देते हैं।

आखिर नए छोकरों की इतनी हिम्मत कि मुझे नजरअंदाज करे, तभी छठी इन्द्रिय कह उठती है, जरूर ये साजिश किसी ऊँचे स्तर पर हुई है। आखिर मेरे व्यक्तित्व की चकाचौंध को कौन नहीं जानता। मेरे प्रभाव को कम करने की हिम्मत करने वाले को राह से बेराह करना ही होगा। कैसे प्रभाव बढ़ाया जाए ये चिंतन ही नए कार्यों की रूप रेखा तैयार कर देता है। आवश्यकता ही अविष्कार जी जननी है, लगता है ये कथन ऐसे ही मौकों के लिए बनाया गया है। बस अब शुरुआत होती है अपनी अवश्यकता को सोचने और समझने की। यदि व्यक्ति बुद्धिमान है तो जोड़- तोड़ के सैकड़ों उपाय ढूढ़ते हुई आखिर में, सम्मान पाने का अविष्कार कर ही लेता है।

मन ही मुस्कुराते हुए वो भगवान धन्यवाद कहता है। और सोचता है अच्छा ही हुआ जो पोस्टर के कोने तक में जगह नहीं मिली। अब मैं अपना व्यक्तिगत पोस्टर बनवाउंगा और इन सारे लोगों से प्रचार – प्रसार करवाऊंगा, बड़े आए मुझे रास्ते से हटाने वाले।

अब तो जुगाड़ूराम का डंका चहुँओर बजने लगा, हर बार कोई नई स्कीम लॉंच करते और पोस्टर पर चिपके हुए मुस्कान बिखरते।  उन्हें वही फीलिंग होती मानो वे सरकार बदलने का माद्दा रखते हों, जैसे छोटे क्षेत्रीय दल या निर्दलीय विधायक ही, गठबंधन सरकार को अपने काबू में रखते हैं। सरकार बदलने की शुरुआत छोटे स्तर से ही शुरू होती है। कहते हैं अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता पर ये क्या? यहाँ तो थोथा चना बजे घना भी घनघना उठता है,और अपने लिए एक कुर्सी का जुगाड़ करके ही मानता है। इस चक्कर में देशवासियों का भले ही घनचक्कर बन जाए पर वे तो सत्ता की बागडोर अकेले ही लेकर चलेंगे। और टुकड़े- टुकड़े के लिए जनता के हितों का भी टुकड़ा करने से नहीं हिचकेंगे।

तभी अंतरात्मा से आवाज आती है कि हर युग में कर्म ही प्रमुख रहा है, आप की पूछ – परख यदि कम हो रही है तो इसका अर्थ है आपकी उपयोगिता नहीं बची है। आप कार्य पर ध्यान दीजिए, स्वयं को समय के अनुसार अपडेट करते चलें, कोई नयी योजना पर कार्य करते हुए पुनः सफलता का परचम फहराएँ।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 53 ☆ पाँच दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं    “पाँच दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 53 ☆

☆ पाँच दोहे ☆ 

जीवन हो सुख सुरभि- सा, बाँटें सबको प्यार।

दान, यज्ञ ,तप नित करें,ये ही जीवन सार।।

 

नए कलेवर योग में, छिपे अनत भंडार।

जो जितना अंतः घुसे, मिलती शक्ति अपार।।

 

सविता अपने देव हैं, करते हैं कल्याण।

देव दिवाकर, भास्कर,  सबके ही हैं प्राण।।

 

अंतरिक्ष में हैं छिपे , ज्ञान और विज्ञान।

सृष्टि का आधार यह , मानव मन पहचान।।

 

देता मैं शुभकामना, सब ही रहें निरोग।

अहम स्वार्थ को त्यागकर, करें प्रेम औ योग।।

 

डॉ राकेश चक्र ,90 बी,शिवपुरी

मुरादाबाद 244001,उ.प्र .

9456201857

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ दो लघुकथाएं – स्त्रियाँ ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी “दो लघुकथाएं – स्त्रियाँ।)

☆ लघुकथा – दो लघुकथाएं – स्त्रियाँ ☆

[1] नयी माँ

कचरा बीनने वाली ने कचरे के ढेर में नवजात कन्या को बिलखते देखा तो हक्का बक्का रह गयी.

कैसी होगी इसकी निष्ठुर मां… राम-राम इसके बदन पर तो कीड़े रेंग रहे हैं…खून रिस रहा है.. मुंह झोंसी… किसका पाप यहां डाल गयी है रे. उसके मुंह से धाराप्रवाह निकल रहा था.

न जाने कबसे भूखी होगी रे… कहते – कहते उसने अपना स्तन बच्ची के मुँह में डाल दिया.

बच्ची अब टुकुर टुकुर इस नई मां को देख रही थी. उमंग से हुलसती बच्ची के चेहरे पर वात्सल्य पसारता जा रहा था.

 

[2]  वर्चस्व

न जाने कितने कितने वर्षों बाद एक महिला सुप्रीम कोर्ट की जज बनी है.

अब तक मात्र छः महिलाएं ही तो बनी हैं,  इसकी गिनती सातवीं है. हद कर दी इन पुरुषों ने, महिलाओं को आगे बढ़ने ही नहीं देते.

महिला मंडल में एक विचार विमर्श चल रहा था. तब एक समझौता वाली महिला चुप न रह सकी.

बहिनों, जरा विराम लो, हम जो कुछ भी हैं पुरुषों के बल पर ही तो हैं. वर्चस्ववादी पुरुष ही हमें ऊंचाईयां प्रदान करते हैं. इसे नकारना मिथ्या है. भाई-पिता-पति के बिना हम एक कदम भी बढ़ सकने में समर्थ हो सकेंगे?

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विभिन्नता में समरसता – 2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “विभिन्नता में समरसता -2”)

☆ आलेख ☆ विभिन्नता में समरसता -2 ☆

हमारी सामासिक संस्कृति का एक और स्तम्भ है मुस्लिम व हिन्दू धर्म के बीच मेलमिलाप से विकसित हुई गंगा जमुनी तहजीब। इस्लाम भारत में दो रास्तों से आया एक तो सुदूर दक्षिण में अरब व्यापारियों के शांतिपूर्ण माध्यम से सातवीं सदी में  और दूसरा ग्यारहवीं शताब्दी में, अफगान , तुर्क आदि मुस्लिम आक्रान्ताओं की, तलवार से । हिन्दू और मुस्लिम घुल मिलकर एक तो नहीं हो सके पर दोनों सम्प्रदायों की अनेक बातें एक दूसरे में ऐसे समाहित हुई जैसे दूध में चीनी। हिन्दुओं में व्याप्त अनेक अन्धविश्वासों व रुढियों को मुसलामानों ने अपनाया तो मुसलामानों के खान पान व पहनावे हिन्दुओं ने पसंद किये। इन दो संस्कृतियों के मेलमिलाप ने जहाँ एक ओर गंडा ताबीज, पीर, ख्वाजा, पर्दा प्रथा , सगुन-अपसगुन आदि  को बढ़ावा दिया तो दूसरी ओर इस्लाम ने भारतीय राजा महराजाओं की रेशम, मलमल और कीमती जेवरों से सजी पोशाकों को अंगीकृत कर लिया। चीरा और पाग हिन्दुस्तानियों के पहनावे का अंग थे तो बदले में इस्लाम ने कसे चुस्त पायजामे हमें दिए।

सौभाग्यवती मुस्लिम महिलाओं ने अपनी हिन्दू सखियों की भाँति मांग में सिंदूर भरना, हाथ में चूड़ियाँ व नाक में नथ पहनना शुरू कर दिया। दोनों संस्कृतियों के मिलन से इस्लाम धर्म के मानने वालों को फलों से अचार बनाने की विधि पता चली तो दूसरी ओर उनके द्वारा खाया जाने वाला लजीज पुलाव और कोरमा वैसा नहीं रह गया जो इरान और खुरासान में खाया जाता था। आज भी हमारे देश में लजीज जायकेदार  मुगलई व अवधी खान पान इसी मुस्लिम संस्कृति की देन है। कला संगीत और साहित्य के क्षेत्र में इन दो विपरीत ध्रुवों वाली संस्कृतियों के मिलन ने अच्छा  खासा प्रभाव डाला। यदपि संगीत इस्लाम में वर्जित था तथापि मुस्लिम सूफी संतों ने हिन्दू भक्ति के तरीके को अपनाया और संगीत साधना की और उनकी यह साधना कव्वाली के रूप में हमारे देश में दोनों सम्प्रदायों के अनुयायियों आज भी आकर्षित करती है।

भारतीय व ईरानी संगीत तथा वाद्य यंत्रों के मिलन से अनेक नवीन रागों व संगीत के यंत्रों की उत्पति हुई। ऐसा माना जाता है कि अमीर खुसरो ने भारतीय वीणा को देखकर ही सितार की खोज करी। संगीत के माध्यम से हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के बहुत करीब आये। हमारे देश के बहुसंख्य वर्ग द्वारा बोली जाने वाली खड़ी बोली  हिन्दी एवं अल्पसंख्यक मुस्लिमों के मध्य लोकप्रिय उर्दू इसी गंगा जमुनी तहजीब में फली फूली व विकसित हुईं। हिन्दू व मुस्लिम सभ्यता के मिलन ने शिल्प कला, चित्र कला आदि को नया आयाम दिया. इस मिलन ने चित्रकला के क्षेत्र में अनेक नई  शैलियों यथा मुग़ल शैली, राजस्थानी शैली, पहाड़ी शैली को  जन्म दिया तो बेमिसाल महलो, किलों, मस्जिदों,मकबरों का निर्माण भी इंडो इस्लामिक शैली में हुआ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 25 ☆ देश का गौरव हो तुम अभिनंदन ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता देश का गौरव हो तुम अभिनंदन। ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 25 ☆ देश का गौरव हो तुम अभिनंदन

देश का गौरव हो तुम अभिनंदन,

छूट कर पँजे से दुश्मन के घर को वापिस आ गए,

अभिनंदन, अभिनंदन है तुम्हारा ।।

 

चेहरे पर शिकन तक ना थी तुम्हारे ,

मातृभूमि के लिए अपनी जान पर तुम खेल गए,

अभिनंदन, अभिनंदन है तुम्हारा ।।

 

चेहरा आत्मविश्वास से भरा था तुम्हारा,

ख़ौफ़ तो पाक सैनिकों के चेहरे पर दिख रहा था,

अभिनंदन, अभिनंदन है तुम्हारा ।।

 

झुके नहीं, बिल्कुल टूटे नहीं तुम दुश्मन के सामने,

गजब का जज्बा दुनिया को तुमने दिखा दिया,

अभिनंदन, अभिनंदन है तुम्हारा ।।

 

चेहरे पर तुम्हारे लालिमा चमक रही थी,

आत्मविश्वास दिखा सबका दिल तुमने जीत लिया,

अभिनंदन, अभिनंदन है तुम्हारा ।।

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 77 – आलेख – सहजीवन ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 77 ☆

☆ आलेख –  सहजीवन  ☆

आमचं लग्न झालं तेव्हा मी वीस वर्षांची आणि हे बावीस वर्षाचे होते. वडिलोपार्जित दुग्ध व्यवसाय-म्हशींचे गोठे आणि गावाला शेती होती.ह्यांचा जन्म पुण्यातला,पदवीधर असूनही विचारसरणी सनातन- “न स्त्री स्वातंत्र्यम् अर्हति” अशी मनुवादी!  खुप जुन्या वळणाचं सासर, एकत्र कुटुंब, सणवार, कुळधर्म, कुळाचार, रांधा,वाढा उष्टी काढा हेच आयुष्य असायला हवं होतं, पण मी त्यात रमले नाही.

बाहेर जायला विरोध होता, कविता करणं, ते सादर करायला बाहेर जाणं एकूणच उंबरठा ओलांडून बाहेर काही करणं निषिध्द !

प्रतिकुल परिस्थितीत बाहेर पडले,कुणीही प्रोत्साहन दिलं नाही तरी लग्नानंतर चौदा वर्षांनी एम.ए.ला अॅडमिशन घेतलं ….पुढे पीएचडी चं रजिस्ट्रेशन केलं…पूर्ण करू शकले नाही. स्वतःच्या अपयशाचं खापर मी इतर कोणावर फोडत नाही. नवरा डाॅमिनेटिंग नेचरचा आहे पण माझी जिद्द ही कमी पडली.

पण आज या वयात माझा नवरा आजारपणात माझी जी काळजी घेतो त्याला तोड नाही…..

चाकोरीबाहेरचे अनुभव घेतले, चारभिंती बाहेर पडले खुप प्रतिकुल परिस्थितीत थोडं मुक्त होता आलं याचं आज समाधान आहे.

आणि पतंगासारखं काही काळ आकाशात उंच उडता आलं हा आनंद, पतंगांचा मांजा कुणी पुरूष बाप, भाऊ, नवरा नसताना नियतीने ती दोर कवितेच्या रूपाने पाठवली. जो मिल गया उसीको मुकद्दर समझ लिया ।

ते पदवीधर मी पदव्युत्तर शिक्षण घेतलं पण तो प्रश्न कधी आला नाही आमच्यात! प्रोत्साहन दिले नाही तरी शिक्षणाला विरोधही झाला नाही फारसा!

एका विशिष्ट वयानंतर “अभिमान” ची संकल्पना नाहीशी होते, कधीच पतंगाची दोर न बनलेल्या जोडीदाराविषयीही कृतज्ञताच वाटू लागते!

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 62 ☆ आतिश ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “आतिश”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 62 ☆

☆ आतिश

जब जुस्तजू का गला

सूख सा जाए

और कहीं पानी की बूंद नज़र न आये,

जब जोश के स्क्रू ढीले पड़ जाएँ

और किसी भी

पेंचकस से टाइट न हो पायें,

जब उम्मीद की चिंगारी

बुझती सी दिखे

और कोई अलाव नज़र न आये-

तुम्हें घुटने के बल बैठकर

और अपनी ठुड्डी घुटनों पर रखकर

हार थोड़े ही माननी है!

और रोना –

आंसू तो बिलकुल नहीं बहाना है!

 

ऐसे वक़्त तुम

चुरा लो तारों से रौशनी,

हासिल कर लो चाँद से चांदनी,

चूस लो आफताब का तेज,

बस याद रखना होगा तुम्हें सिर्फ एक बात

कि तुम्हारे ज़हन के भीतर

आतिश जलती ही रहनी है!

 

उसी आतिश के सहारे

खुल जायेंगे तुम्हारे पर

और तुम उड़ने लगोगे

नीले आसमान को चूमते हुए!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 71 – लघुकथा – परिचय ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  लघुकथा  “परिचय।  हम जानते हैं कि शक का कोई इलाज़ नहीं फिर भी उसके शिकार होकर अक्सर हम अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। जब ऑंखें खुलती हैं तब बहुत देर हो जाती है और पश्चाताप होता है। किन्तु, दुर्लभ मानव जीवन और समय लौट कर नहीं आता। सकारात्मक सन्देश देती स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 71 ☆

☆ लघुकथा – परिचय ☆

माया ने आज फिर तकिए से वही पुराना कागज निकाला। जिसमें सुबोध ने लिखा था…. निकल जाओ मेरी जिंदगी से फिर लौट कर कभी नहीं आना.. तंग आ गया हूँ मैं तुम्हारी वजह से। दोनों आँखों से अश्रुओं की धार बह चली। उस का क्या कसूर था, बस इसी सवाल को लेकर फिर वह रोते रोते तकिए पर सर रखकर लेट गई।

जाने कब तरुण ने आकर लाइट जलाया और बाल सँवार कर प्यार से पूछने लगा…. फिर पुरानी बातों में खो गई। बेटा आता होगा, तैयार हो जाओ अच्छा नहीं लगेगा।

माया झटपट मुँह धोकर चेहरे को साफ कर अपने आप को संभालती हुई बाहर आई।

दरवाजे पर बेटे की गाड़ी आकर रुक गई। तरुण और माया बेटे के साथ आज एक अजनबी को  देख रहे थे। जिस की बढ़ी हुई दाढी और फटेहाल दशा बता रही थी कि वह बहुत ही तंग हालत पर है।

पास आने पर माया ने ठिठक कर कुर्सी पकड़ ली। तरुण समझ गया यह वही सुबोध है।

उसी समय बेटे ने कहा मम्मी यह व्यक्ति आप के बारे में पूछ रहा था ऑफिस में। आपसे मिलना है कह रहा था। पुरानी पहचान बता रहा था।

मैं इन्हें घर ले लाया। माया ने तुरंत अपने बेटे को कहा बेटे इन्हें हमारे बैठक में बिठा  दो। यह हमारे दूर के परिचय वाले है। मैं चाय नाश्ता का इंतजाम करती हूं।

सुबोध को इसकी उम्मीद नहीं थी वह देखता रहा अपने को दूर का परिचय वाला।

अंदर तक हिल गया वह। बेटा अपने कमरे में चला गया। माया के अंदर जाने के बाद तरुण ने हाथ जोड सुबोध से बाहर जाने को कहा।

सुबोध समझ चुका उसे उसकी कर्मों की सजा मिली चुकी है। सुबोध और माया पति-पत्नी दोनों ही ऑफिस में काम करते थे। परन्तु, माया को बस से आने में थोड़ी देरी हो जाती थी। बस इसी बात से हमेशा दोनों में लड़ाई हो जाती थी और बसी बसाई गृहस्थी को आग लगाकर अलग हो गया था।

यह भी नहीं देखा कि माया माँ बनने वाली है। बेटे ने बाहर आकर देखा।

मम्मी पापा दोनों एक दूसरे से लिपटे थे और मम्मी की आँसू की धार रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी।  बेटे ने सोचा यह कैसा परिचित है, इसका क्या परिचय है। मम्मी-पापा क्यों परेशान होकर रो रहे हैं?

 

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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