मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 75 – बालमैत्रीण ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 75 ☆

☆ बालमैत्रीण ☆

मला याद येते जुन्या त्या दिनांची

तिच्या  भोवती नित्य झेपावण्याची

सखी दूर गेली कशी काय आता

तिथे एक होता जिवाला विसावा

 

घराचे घराशी असे काय नाते

तिचे मैत्र वाटे जिवीच्या जिवाचे

तिथे त्या घराशी उभी एक जाई

तशी  माय वाटे मला पूर्ण आई

 

किती  स्वच्छ होती घरे अंगणेही

कुणी ना कुणाला उगा मात देती

मनाला मुभा नित्य संचारण्याची

स्वतःला स्वतःशी तिथे भेटण्याची

 

सखे मैत्रिणी मी तुला काय देवू

जुन्या  आठवांना नको हात लावू

मनीमानसी मी तुला पांघरावे

युगान्ती  वसावे तसेही जगावे

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 60 ☆ शून्य ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साbharatiinझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “शून्य”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 60 ☆

☆ शून्य ☆

मैं शून्य हूँ-

हाँ, शून्य ही तो हूँ मैं!

 

न मेरा कोई रूप,

न ही मेरा कोई स्वरूप,

न मैं अधूरा,

न ही मैं पूरा,

न सोच के दायरे में बंधा हुआ,

न पानी में काई सा रुका हुआ,

न किसी सहर का इंतज़ार,

न कोई साहिल, न कहीं मझदार,

न मेरा सीना दरख़्त सा बड़ा,

न मैं किसी तमन्ना की आस में खड़ा,

न ख्वाहिशों के घेरे में क़ैद,

न चौकन्ना, न मुस्तैद…

 

आखिर मुझे कोई डर नहीं-

मैं तो शून्य हूँ,

मेरी कोई आरज़ू ही नहीं!

 

अब तो पसंद हो चला है मुझे

मुझे मेरा यूँ ही शून्य रहना,

न कुछ सुनना, न कुछ कहना;

पानी की एक बूंद सा

गिरकर आसमान से

कहीं भी बह लेता हूँ,

जो मुझे प्यार से बुलाता

उसी का हो लेता हूँ….

 

मैं शून्य हूँ!

 

कभी-कभी

कितना अच्छा होता है

शून्य हो जाना

और खो जाना

बहती सी हवाओं में…

तुम भी कभी

शून्य होकर देखो!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 74 ☆ अंधाराचे चित्र ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 74 ☆  अंधाराचे चित्र

अंधाराचे चित्र काढणे अवघड नाही

रंग एकला दुजा कुणाची लुडबुड नाही

 

मिसळुन गेले काळ्या रंगा तुझ्यात पाणी

ओठी त्याच्या फक्त तुझी रे दंगल गाणी

झुळझुळ टपटप अशी करत ते बडबड नाही

अंधाराचे चित्र काढणे अवघड नाही

 

केस रेशमी छान ब्रशाचे आहे काळे

काळ्या रंगा तुझेच त्यावर आहे जाळे

शांत पहुडला कोरा कागद फडफड नाही

अंधाराचे चित्र काढणे अवघड नाही

 

सूर्यावरती मात करोनी जमले ढग हे

शेतावरती तुटून पडले काळे ठग हे

कुणास येथे ऐकू आली गडगड नाही

अंधाराचे चित्र काढणे अवघड नाही

 

प्रवास आहे अखेरचा हा अंधारातुन

मार्ग शोधने अवघड नसते बिलकुल त्यातुन

ओझे नाही खांद्यावरती कावड नाही

अंधाराचे चित्र काढणे अवघड नाही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

आंसू सूखे आंख के, सूख रही है देह।

इन यादों का क्या करूं, होती नहीं सदेह।।

 

याद तुम्हारी कुसुम -सी, खिली बिछी तत्काल ।

या समुद्र के गर्भ में, बिखरी मुक्ता माल।।

 

घन विद्युत सी याद है, देती कौंध उजास।

कभी-कभी ऐसा लगे, करती है परिहास।

 

सूना सूना घर मगर, दिखे नहीं अवसाद।

इसमें क्या अचरज भला, महक रही है याद।।

 

मास दिवस या वर्ष सब, होते गई व्यतीत।

किंतु याद की कोख में, है जीवन अतीत।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 26 – आखिर में मेरा कुसूर भी… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “आखिर में मेरा कुसूर भी…। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 26– ।। अभिनव गीत ।।

☆ आखिर में मेरा कुसूर भी... ☆

चिड़ियों को क्यों बाँट दिये

पंख मछली को पाँव न दिये

बँटवारे में, सुनो न  आप

खींचते रहे हैं हाशिये

 

आँखों को दे दी बरसात

साँसों को ग्रीष्म दे दिया

चाँदनी को दे दी उजास

धूपको दिया पीलिया

 

व्यथाकथा क्या कहें नदी की हम, भीगती रही वहाँ

लिये उदासी को किनारों पर

दे सके न आप तौलिये

 

चेहरे को दे दिया चुनाव

कानों को कण्ठ परीक्षा

पाँवो को गति का हिसाब

राहों को दूरियाँ प्रतीक्षा

 

ऐसा किंतु, हार गये, पूछते हुये

हम भी खोजते

निकल गये, न मिल पाये

आपका जवाब लिये डाकिये

 

ऊँचाई  बाँट दी पहाड़ों को

और छोटी सरिता को उथला पन

झीलों को देकर के गहराई

बगुलों की पाँतों को उजला-पन

 

आखिर में मेरा कुसूर भी

बता दें तो, जो भी, लेकिन

क्या यह है बेहतर इंसाफ

आप बन्द गिरह खोलिये

 

(©राघवेन्द्र तिवारी)

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 15 ☆ व्यंग्य ☆ अपना तो नहीं है, अपना मानने वालों की कमी भी नहीं है ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  “अपना तो नहीं है, अपना मानने वालों की कमी भी नहीं है” । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 15 ☆

☆ व्यंग्य – अपना तो नहीं है, अपना मानने वालों की कमी भी नहीं है ☆

“ओ बारीक, एक सुतली बम दे सांतिभिया को, ओके.” – उन्होने आवाज लगाई और मुझसे बोले – “आओ सांतिभिया, आप भी जलाओ, ओके.” भियाजी और भियाजी के फैंस जमकर आतिशबाज़ी कर रहे थे. मामला दीपावली का नहीं था. धमाके की आवाजों के बीच बोले – “कमला आंटी चुनाव जीत गईं हैं अमेरिका में. बस अभी नारियल चढ़ा केई आ रिये हैं और अब बम फोड़ रिये हैं. ओके”

“तो जश्न इस कदर भिया! क्या बात है!!”

“उनके नाम का पहला हिज्जा हिन्दू नाम का जो है. ओके.” – भियाजी ने एक तरह से अंडरलाईन किया.

“क्या मार्के की बात पकड़ी है आपने भिया!! बारीक नज़र चईये कसम से. चौपन साल पहले जो बात उनके माता-पिता ने भी नहीं सोची होगी वो आपने पकड़ ली. फटाके फोड़ने का हक तो है भिया आपको.”

“सांतिभिया, केंडीडेट की जात, धरम, गोत्र, आगा-पीछा सब देखना पड़ता है. ओके. आपको पता है उनकी माँ ब्राह्मण थीं.”

पोजीशन थोड़ी और क्लीयर हुई. दरअसल, भियाजी सर्व ब्राह्मण महापंचायत की लोकल यूनिट के प्रेसिडेंट भी हैं, सो उनकी खुशी दुगुनी है. जो कमला आंटी की मम्मी सनाढ्य ब्राह्मण होतीं तो भियाजी आज सातवें आसमान पे होते. उनका मानना है कि ब्राह्मणों में भी सनाढ्य ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ होते हैं. बहरहाल, वे उनके तमिल ब्राह्मण होने पर ही खुश हैं और इस कदर हैं कि खुशी थम ही नहीं रही. जब वे खुश होते हैं तो किसी की नहीं सुनते, उनकी भी नहीं जिनकी वजह से खुश हैं. कमला आंटी कह रहीं हैं वे अमेरिकी हैं और भियाजी हैं कि उन्हें भारतीय साबित करने पर उतारू हैं. भियाजी को उनके ब्राह्मण होने पर नाज़ है और वे अपने को ब्लैक बेपटिस्ट मानती हैं. आंटी अमेरिकी जनता को अपना मानती हैं, भियाजी हैं कि उन्हें भारत की होने की याद दिला दिला कर हलाकान हुये जा रहे हैं. पिता की ओर से वे अफ्रीकन हैं, भियाजी हैं कि उन्हें इंडियन मान कर लट्टू हुवे जा रहे हैं. हालांकि, खुश तो जमैकन्स भी हैं मगर वे इस कदर इतराये इतराये फूल कर कुप्पा नहीं हुवे जा रहे. वे न भारत में पैदा हुईं, न पली न बड़ी हुई मगर फैंस उनकी पसंद में भारतीयता ढूंढकर बल्लियों उछल रहे हैं. बोले – “पेले मालूम रेता तो चौराहे के बीच में स्टेचू बिठा के माला पिना देते. ओके. पन ठीक है अभी फटाके फोड़ के मना ले रिये हैं जीत का जश्न. ओके.”

“मगर वे अब तो इंडियन नहीं हैं”.

“डबल हैं. मदर से साउथ इंडियन, फादर से वेस्ट इंडियन. ओके. सांतिभिया भगवान नी करे कि ऐसा हो मगर होनी को कौन टाल सकता है, खुदा-न-ख्वास्ता आने वाले चार साल में कोई ऊंच-नीच हो गई और बिडेन दादा ऑफ हो गिये तो व्हाईट हाउस ‘कमला निवास’ में बदलते देर नी लगेगी. ओके”.

“नाम क्यों बदलेंगे व्हाईट हाउस का ?”

“गाँव-शहर, बिल्डिंगों, सड़कों के नाम नहीं बदले तो चुनाव जीतने का फायदा क्या? आपको पता नी होयगा पन सईसाट बता रिया हूँ के वाशिंगटन का पुराना नाम वशिष्ठपुरम ही था. ओके.”

“आप कह रहे हो तो सही होगा भिया. अब आगे क्या प्लान है ?”

“समाज की तरफ से सम्मान करने की सोच रिये हैं. ओके.”

“आ पायेंगी वे ?”

“उनके रिश्तेदारों को बुला लेंगे चेन्नई से. ओके. उनका कर देंगे.” कहकर ओके भिया जीत के जश्न में फिर बिजी हो गये. वे आगे भी बिजी होते रहेंगे. वे आये दिन ऐसे विदेशी नायकों को ढूंढ ही लेते हैं जो खुद को भारतीय माने-न-माने मगर उसमें डीएनए भारत के हों, भले ही बहुत थोड़े से हों मगर भारत के हों. मिल जाये तो मारे खुशी के – शादी बेगानी, दीवाना अब्दुल्ला (हालाँकि अब्दुल्ला कहाना उन्हें सुहायेगा नहीं मगर कहावत का क्या कीजियेगा, ज्यों की त्यों लिखना पड़ती है श्रीमान). उन्होने एक बम और फोड़ा, इस भरोसे के साथ कि उसके फूटने की गूंज सात समंदर पार कमला आंटी ने जरूर सुनी होगी. ओके.

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 71 ☆ व्यंग्य – नमस्ते-नमस्ते ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर व्यंग्य – “नमस्ते-नमस्ते “। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 71

☆ व्यंग्य – नमस्ते-नमस्ते ☆

सुबह-सुबह टहलने निकलो तो बहुत से लोग परस्पर अभिवादन करते हैं। कोई नमस्ते, नमस्ते करता है, कोई गुड मॉर्निंग, कोई राधे राधे, कोई जय श्रीकृष्ण, तो कोई जय श्रीराम…. अपनी बचपन से आदत है कि सबको नमस्ते नमस्ते करते हैं। कुछ लोग इसमें भी बुरा मान जाते हैं, और कहते हैं तुम बड़े ‘वो’ हो, राधे राधे का जबाव राधे राधे से नहीं देते हो, तब हमें कहना पड़ता है कि राधे राधे कहने पर हमारी खासमखास प्यारी राधा याद आ जाती है जिसे हमने दिल से चाहा था, राधा इतनी प्यारी थी कि उसे नमस्ते करो तो वो तुरंत कह देती थी कि तुम भले नमस्ते करो, पर ‘हम कुछ नहीं समझते’ । बचपन में राधा के साथ ये नमस्ते-नमस्ते का खेल हम खूब खेला करते थे, नमस्ते-नमस्ते खेलते एक दिन राधा डोली में बैठकर सबको नमस्ते करके ससुराल चली गई थी, तब से मन में सूनापन सवार हो गया था।

अब जमाना बदल गया है आजकल जब कोई आपको नमस्ते कहता है तो पलटकर ‘हम कुछ नहीं समझते’ टाइप की बात करने पर बबाल मच  जाता है, ऐसे समय बचपन रह रहके याद आता है । बचपन में खेल खेल में एक दूसरे का मजाक उड़ाने में बड़ा मजा आता था। अब बचपन में किसी को नमस्ते कहने वाला कहां मिलता है, अब तो मोबाइल और सोशल मीडिया में ये सब झूठ मूठ का लेन-देन चलता है। बचपन में नमस्ते कितने प्रकार के होते हैं नहीं पता था,जब बड़े हुए और नौकरी करने लगे तब समझ में आया कि ये नमस्ते में भी बड़े लफड़े हैं।

हमें समझ में ये आया कि हर किसी को खुश नहीं कर सकते तो कोशिश करें कि हमारी वजह से किसी को दुख न पहुंचे,  इसीलिए हमने हर किसी को नमस्ते करने की आदत डाल ली, हालांकि नमस्ते करने में कहीं फायदा हो जाता है तो कभी किसी को गलतफहमी हो जाती है। कुछ लोग नमस्ते करने से बुरा भी मान जाते हैं और कभी कभी कोई गले भी पड़ जाता है। कई लोग तो उधारी मांगने पहुंच जाते हैं, कहते हैं- आपने बाजार में एक बार नमस्ते किया था तो इस बुरे वक्त पर आप आप हमारे काम भी आ सकते हैं। नौकरी करते हुए यह बात समझ में आयी कि कुछ लोगों को आप यदि आदरपूर्वक नमस्ते कहोगे तो वे आपको सचमुच कुछ भी नहीं समझेंगे। मेरे विभाग के दो आला अफसर इस बात के लिए कुख्यात थे, वे किसी के भी नमस्ते को कुछ नहीं समझते थे। अक्सर लोग बड़े आदमियों को इसलिए नहीं नमस्ते कर लेते हैं कि इस पता नहीं, कब किस नमस्ते के प्रताप से कौन सा काम बन जाए। मेरे विभाग के आला अफसर इस बात को समझते थे इसलिए वे केवल अपने से बड़े अफसरों को देखकर ही नमस्ते करते थे। अपने से नीचे वालों को वे हेय दृष्टि से देखते और कभी गुड मॉर्निंग जैसा बिना मन के कर लेते थे। एक अफसर हमारे बाजू की टेबल पर बैठने वाली सुनीता को अपने केबिन में बुलाकर नमस्ते की विधि और उसके पीछे का विज्ञान समझाया करते थे, बाद में हंसते हुए सुनीता बताती थी कि सबसे पहले साहब अपने दोनों हाथ जोड़कर सीने में रख देते थे,उनका कहना था कि सीने में हाथ रखने से हृदय चक्र और सूर्य चक्र एक्टिव हो जाते हैं, फिर आंखों को बंद करके सिर झुका लेते थे। वे कहते थे कि वैदिक शास्त्रों का मानना है कि हाथों को जोड़कर जब हृदय चक्र और सूर्य चक्र पर लाते हैं तो आपस में दैवीय प्रेम का संचरण होता है और मुंह से बार बार नमस्ते- नमस्ते निकलने लगता है, सुनीता बताती थी कि ऐसा नमस्ते करने का तरीका उसने पहली बार देखा था। जब उसने साहब से नमस्ते करने के इस तरीके के बारे में पूछा था तो साहब ने बताया था कि नमस्ते की क्रिया के दौरान जोड़े गए हाथों से शरीर के कुछ ऐसे दबाव बिंदु सक्रिय हो जाते हैं जिनसे प्रसन्नता महसूस होती है। साहब ऐसा नमस्ते क्यूं करते थे आज तक समझ नहीं आया।

आफिस खुलते ही साहब की घंटी बजती और सुनीता जुल्फें और साड़ी का पल्लू संभालने लगती थी, जब केबिन के बाहर निकलती तो आंख नीचे किए रहती थी। साहब हमारे गुड मॉर्निंग से चिढ़ते थे और सुनीता के सामने हमारी हंसी उड़ाते थे। अजीब बात थी नमस्ते कहने में सुनीता खुश होती और साहब गुड मॉर्निंग में नाराज होते थे, तब हम डरे डरे रहते थे।

नमस्ते के नाम से बड़े बड़े खेल हो जाते हैं, नमस्ते के नाम से बड़ी राजनीति हो जाती है, चुनाव जीतने के चक्कर में “नमस्ते ट्रंप” के आयोजन के बाद देश में ‘नमस्ते’ का बड़ा शोर मचा था, ट्रंप को देखने जो भीड़ जुटाई गई थी उनको पुलिस ने नमस्ते-नमस्ते कहकर दौड़ा-दौड़ा के मारा था, जब अमेरिका के चुनाव के रिजल्ट आये तो हमने क्रेडिट ले ली कि हम लोगों ने चुनाव के पहले नमस्ते ट्रंप कर लिया था। भारत होशियार हो गया है, नमस्ते ट्रंप के पीछे की भावना को ट्रंप ने भी नहीं समझा था।

आजकल दुनिया में जितना कोरोना का डर है उतना ही पूरी दुनिया में नमस्ते का असर है। कोरोना काल में हैरानी होती है ये सब देखकर कि दुनिया की बड़ी बड़ी हस्तियों ने हाथ मिलाना, गले लगाना, हेलो-हाय को त्यागकर नमस्ते-नमस्ते को अपनाया है, और नमस्ते नमस्ते को कोरोना का उपाय बताया है।

बार बार नमस्ते नमस्ते करने लगो तो कई लोग शक की निगाह से देखने लगते हैं, फिर ऐसे लोगों से जय श्रीराम-जय श्रीराम करना पड़ता है। नमस्ते की गजब माया है, एक विशेष प्रकार से नमस्ते करो तो ये नमस्ते सामने वाले को डरा देता है, कोई कोई नमस्ते किसी का भला भी कर देता है, कुछ कहा नहीं जा सकता कि कौन सा नमस्ते किस वक्त क्या कला दिखा दे। हमारे पड़ोसी बल्लू भैया को उनका मकान मालिक बहुत सालों से तंग कर रहा था, बल्लू भैया पुराने किरायेदार हैं, ईमानदार हैं, समय पर किराया भी देते हैं, मकान मालकिन को सुबह-शाम नमस्ते करते हैं। बल्लू भैया में कोई अवगुण नहीं है फिर भी मकान मालिक खाली कराने हेतु तंग करता रहता है, कभी नल बंद कर देता है, कभी नाली बंद कर देता है, कभी रात में दरवाजे के सामने गंदगी फिकवा देता है। बल्लू भैया सीधे सादे इंसान हैं, सहनशील इतने कि कुछ बोलते भी नहीं, लड़का डाक्टर है, दस्यु प्रभावित जिले में पदस्थ है। अच्छा इलाज करता है गोली और छर्रे दो मिनट में आपरेशन करके निकाल देता है इसलिए डाकू लोग उसको पूजते हैं।

जब मकान मालिक की हरकतें बहुत बढ़ गईं तो बल्लू भैया ने लड़के को सूचना दी कि मकान मालिक बहुत तंग कर रहा है। लड़के ने दो तीन खूंखार डाकू मकान मालिक के पास भेज दिए। मकान मालिक घबरा गया बोला- मुझसे कुछ गलती हो गई क्या ?

तब डाकूओं ने कहा कि आपके शहर तक आये थे तो सोचा आपको नमस्ते ठोंक दें, और एक डाकू ने उसके सीने में बंदूक अड़ा दी। मकान मालिक थर थर कांपने लगा, डाकूओं ने कहा कि आपके किरायेदार हमारे पूज्यनीय हैं, उनका ध्यान रखा कीजिए, मकान मालिक बल्लू भैया के चरणों में गिर गया, माफी मांगी और तभी से मकान मालिक सुबह शाम बल्लू भैया को नमस्ते करने लगा। तो नमस्ते में इतना दम है कि नमस्ते से काम भी बन जाते हैं और नमस्ते करने से मुक्ति भी मिल जाती है।

आज सुबह टहलने निकले तो रास्ते में राधा के पापा ने दुखी मन से नमस्ते किया और बताया कि राधा की रिपोर्ट कोरोना पाज़िटिव आयी थी, सांस लेने में बहुत तकलीफ थी। अस्पताल से अभी अभी खबर आयी है कि राधा ने इस दुनिया को हमेशा-हमेशा के लिए नमस्ते कह दिया… प्रोटोकॉल के नियमानुसार उसका अंतिमसंस्कार होगा, खबर सुनकर मन उदास हो गया, बचपन में राधा के साथ नमस्ते नमस्ते खेलने की यादें चलचित्र की तरह चलने लगीं। पालीथीन से सील की गई डेड बॉडी को शव वाहन में रख दिया गया, हमें बीस फुट दूर रहने को कहा गया, गाड़ी छूटने लगी, नम आंखों से नमस्ते करने हाथ उठे ही थे कि मुंह से ‘राधे राधे’ निकल गया…….

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #19 ☆ यह कैसा छल है? ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर, अर्थपूर्ण, विचारणीय  एवं भावप्रवण  कविता “यह कैसा छल है”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 19 ☆ 

☆ यह कैसा छल है ☆ 

यह कैसा छल है?

रिश्ते भी क्या कमाल है

सर्वत्र रिश्तों का मायाजाल है

कुछ लोग रिश्ते जोड़ते हैं

कुछ लोग रिश्ते तोड़ते हैं

निभाता है कोई कोई

आत्मा जिसकी नहीं है सोई

यहाँ टूटते रिश्ते हर पल है

यह कैसा छल है

जिसने अपने सीने से भींचा

जिसने अपने दूध से सींचा

जिसने सर पर छांव बनाई

जीवन की दौड़ सिखाई

जिन्होंने चुभने दिया ना कांटा

भूख, प्यास दोनों ने बांटा

अन्तिम प्रहर में

वो कितने निर्बल है

यह कैसा छल है

प्रेम तो है फूलों की गंध

प्रेम भरता है जीवन में सुगंध

प्रेम के लिए जीते हैं लोग

प्रेम के लिए मरते हैं लोग

प्रेम तों है नवजीवन की आशा

प्रेम पर पहरे, घोर निराशा

प्रेम पर प्रतिबंध,

नहीं! यह तो दंगल है

यह कैसा छल है

आज झूठ सर चढ़कर

बोल रहा है

अहंकार के नशें में

डोल रहा है

आंखें रहकर भी

हम सब अंधे है

गूंगे, बहरे डरपोक

बंदे हैं

कब हम इसका प्रतिकार करेंगे

सत्य का मिलकर जयकार करेंगे

सत्य एक दिन जीतेगा

चाहें झूठ कितना भी प्रबल है

यह कैसा छल है?

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 26 ☆ गर्व नसावा… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 26 ☆ 

☆ गर्व नसावा… ☆

गर्व नसावा, मानहानी होईल

गर्व नसावा, विनाकारण कलह होईल

 

गर्व नसावा, आपलेच घराचे वासे मोजतील

गर्व नसावा, स्व:कीय ते परके होतील

 

गर्व नसावा, अधोगती होईल

गर्व नसावा, जवळचे सर्व जाईल

 

गर्व नसावा, जगणे मुश्कील होईल

गर्व नसावा, पाणी पाजण्या कोणीच नसेल

 

गर्व नसावा, गर्वाचे घर खाली पडेल

गर्व नसावा, मृत्यू एक दिवस हमखास येईल

 

© कवी म. मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 7 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

☆ मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 7 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ 

(पूर्ण अंध असूनही अतिशय उत्साही. साहित्य लेखन तिच्या सांगण्यावरून लिखीत स्वरूपात सौ.अंजली गोखले यांनी ई-अभिव्यक्ती साठी सादर केले आहे.)

 

पहाटेच्या वेळी एकदा एक कळी हळूच आली

आपले मनोगत हळुवार सांगून गेली.

रात्र कधीची संपली,पहाट झाली.

ही कळी म्हणजे माझ्या मनात नृत्य शिकण्या विषयी विचारांनी घेतलेला जन्म. या कळीला हळूवार फुंकर घातली धनश्री ताई रुपी वाऱ्या ने हळूवार फुंकर घालत असताना त्या कळीच्या आणि वाऱ्याच्या झालेल्या एकत्र प्रवासाविषयी थोडेसे.

खरेतर सुरुवातीला भरतनाट्यम हा नृत्यप्रकार शिकणे केवळ आणि केवळ डोळ्यांनी पाहून शिकणे हीच कला आहे. त्यामुळे सुरुवातीला मोठा अडसर ताईंच्या आणि माझ्या वाटेत उभा होता.

पण ताईंनी माझं मन नावाचं organजा गं करायला सुरुवात केली. आणि आमच्या दोघांच्याही असं लक्षात आलं की शरीर हे केवळ माध्यम आहे, साधन आहे आणि शरीरा पलीकडे म्हणजे अतिंद्रीय शक्तीच्या आधाराने आपण बऱ्याच गोष्टी साध्य करू शकतो. ताईनी मग स्पर्श, बुद्धीआणि मनातील अंतरिक प्रेमभाव यांच्या माध्यमातून नृत्य शिकवायला सुरुवात केली. अशाप्रकारे नृत्यातील अडवू, हस्त मुद्रा शिकत असताना कधी आमचे सूर जुळून गेले हे कळलेच नाही.

नृत्यामध्ये बरीच अवघड वेगवेगळी कॉम्बिनेशन्स असतात. जसे की डावा हात डोक्यावर असताना उजवा पाय लांब करणे, उजवा हात कडेला असताना डाव्या पायाचे मंडल करणे, भ्रमरी घेताना उजवा हात डोक्यावर ठेवूनडावा हात फिरवत उजवीकडून वळणे आणि त्याच वेळी गाण्या नुरूप चेहऱ्यावरचे हावभाव दाखवणे. अशा खूप अवघड अवघड गोष्टी ताईंनी अगदी कौशल्यपूर्ण रीतीने शिकविल्या. खरंतर दृष्टिहीन व्यक्ती ला समोर असलेले पाण्याचे भांडे घे हे सांगताना दुसऱ्याची खूप तारांबळ होते. पण इथे तर अच्छे मृत्य शिकवायचे होते.

नृत्याचे शिक्षण प्रशिक्षण जसजसे पुढे जात होते तसच या नवीन अडचणी समोर येत होत्या.  ८-९ वर्षे शिकल्यानंतर अभिनयाचा भाग आल्यानंतर प्रश्न निर्माण झाला तो अभिनय  शिकविण्या विषयी. पण पण तिथेही ताईंनी आपल्या बुद्धी कौशल्याचा वापर करून घेतला आणि लहान मुलांना गोष्टी सांगून जसे मनात भाव निर्माण केले जातात त्याचा उपयोग त्यांनी करून घेतला.

माझ्या अनेक अडचणी मध्ये मला येणारी अडचण म्हणजे आवाजाची .नृत्यात गिरकी घेतल्यानंतर माझे तोंड प्रेक्षकांच्या कडे आहे की बाजूला हे मला कळत नसे. पण या अडचणीवरही ही ताईंनी मात केली आणि आवाजाची दिशा ही नेहमी माझ्यासमोरच ठेवली की ज्याच्या आधाराने माझे दोन फिरून समोरच येत असे.

ताईंचे अथक परिश्रम, योग्य मार्गदर्शन, त्यांनी घेतलेले कष्ट, माझी मेहनत, रियाज आणि साधना याचा परिपाक असा झाला की मी नृत्यामध्ये गांधर्व महाविद्यालयाची  नृत्य विशारद ही पदवी, कला वर्धिनी चा ५ वर्षा चा कोर्स, टिळक महाराष्ट्र विद्यापीठा ची नृत्यातली एम. ए. ही पदवी,यशस्वी रित्या संपादन केली.ज्यामुळे आज मी अनेक ठिकाणी,माझ्या एकटीचा स्टेज प्रोग्राम करू शकत आहे.

या माझ्या यशाचे कौतुक अनेक वर्तमान पत्रांनी आणि दूरदर्शन वरील अनेक वाहिन्यांनी, प्रसार माध्यमांनी भरभरून केले.

…. क्रमशः

© सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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