(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “मज़हब न जाँत पाँत का हो ज़िक्र भी जरा…“)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 72 ☆
मज़हब न जाँत पाँत का हो ज़िक्र भी जरा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “दहीहांडी“ की अगली कड़ी।)
सावन तो जा चुका है और रक्षाबंधन भी. इसके फिर कृष्णजन्माष्टमी और गणेशोत्सव के पर्व आने वाले हैं. सावन के आने का इंतजार बेटियां करती हैं, बहनें करती हैं, सावन में पत्नियां और मातायें भी अपने रोल को विस्मृत कर बहनों और बेटियों में सुकून और बचपन ढूंढती हैं. सावन के जाने की प्रतीक्षा करने वाले भी महापुरुष होते हैं जो धार्मिकता और रसरंग में संतुलन बनाने की कोशिश करते हुये अपने सुराप्रेम और सामिष भोज्यप्रेम की चाहत को दबाकर रखते हैं.
आज हम इन महापुरुषों को उनके हाल पर छोड़ते हुये याद करते हैं दहीहांडी के खेल रूपी उत्सव को जो मुख्यतः महाराष्ट्र के सांस्कृतिक उत्सवों की प्राणवायु है. हम मध्यप्रदेश वासी भी अपने बचपन से इस क्रीड़ा के उत्साही दर्शक और कभी कभी इस टोली के कुशल खिलाड़ी रह चुके होंगे.
अब तो मामला पेट से लेकर दिल तक पहुंच चुका है पर फिर भी हमें दिल को चुराने वाले इस खेल के हसरती दर्शक बनने से नहीं रोक पाया है. इस खेल में भाग लेने वालों के समूह की संख्या निर्धारित करने वाला कोई नियम बना नहीं है. इस खेल में टीम नहीं बल्कि टोलियाँ भाग लेती हैं और लक्ष्य बहुत ऊपर लटकी हुई मिट्टी की हांडी होती है जिसके अंदर दही के अलावा कुछ इनामी राशि भी होती है. प्रयास करने के मौके तब तक मिलते रहते हैं जब तक की दहीहांडी सहीसलामत लटकी रहती है.
ये हमारी सांस्कृतिक आदतों से मेल करता है कि ऊपर पहुंचे हुये और अधर में लटके हुओं को फोड़कर नीचे गिराना जो हम बखूबी करते रहते हैं. पिट्टू जमाना, फिर बॉल से फोड़ना और फिर जमाने की कोशिश करते हुये खिलाड़ियों को टंगड़ी मारना नामक क्रिया, क्रीडागत कुशलता की मान्यता कई सालों से लिये हुये है. जो चुस्त और चपल होते हैं वो इन बाधाओं को पारकर विजेता बनते हैं. यही खेल हम सारी जिंदगी खेलते रहते रहते हैं, खेलते रहते हैं. हमारी जीवनयात्रा इन खेलों के बीच से गुज़रते हुये और क्रमशः तीर्थयात्रा को संपन्न करते हुये अंतिमयात्रा की ओर समाप्त होती है जो जय पराजय, यशअपयश, लाभ हानि सब विधि के हाथों में फिर से सौंपकर, इस अंतिम यात्रा के नायक के मुख पर निश्चिंतता की छवि को उकेर देती है. इस तरह के नायकों को भी हम पंचतत्वों के हवाले कर फिर से दहीहांडी के उत्सव में जीवन पाने का प्रयास करते हैं.
दहीहांडी एक टीम या समूह का खेल है. सबसे पहले या सबसे नीचे कुछ बलिष्ठ खिलाड़ी एक दूसरे को मजबूती से पकड़कर ऊपर लक्ष्य की ओर जाने का आधार बनाते हैं. यह आधार कितना मजबूत रहेगा यह इन खिलाड़ियों के तालमेल, मजबूती और आघातों को सहकर भी स्थिर रहने की क्षमता पर निर्भर होता है. ये पहला वृत्त या सर्किल होता है जो जमीन से जुड़ा और जमीन पर खड़ा होता है. बाद में इसकी स्थिरता stability के बल पर ऊपर क्रमशः छोटे सर्किल बनाये जाते हैं. ये जमीन पर तो नहीं खड़े होते पर अपनी संतुलन कला के बल पर ऊंचाई की ओर जाने में महत्त्वपूर्ण सहायक का रोल निभाते हैं. ऊपर की ओर बना हर सर्किल अपनी स्थिरता को उसी अनुपात में खोकर संतुलन कला के दम पर मंजिल पाने का मार्ग प्रशस्त करता है. अंत में वह खिलाड़ी जो सामान्यतः बालअवस्था में होता है, अर्थात “भार कम और चपलता अधिक” के अनुपात से संपन्न होता है, इन्हीं सर्किलों के सहारे ऊपर चढ़ते हुये अंतिम लक्ष्य याने दहीहांडी को फोड़कर विजय प्राप्त करता है. विजय पाने के बाद, यह टोली अपने सारा स्थायित्व, संतुलन और टीमवर्क को दरकिनार कर जीतने के जश्न में डूब कर नाचने लगती है.
सारे खिलाड़ी जीतने की खुशी में नीचे आने की प्रक्रिया भूल जाते हैं. जो गिरता है वह भी कभी कभी इन्हीं हमजोलियों के हाथों संभाल लिया जाता है और यह टोली फिर अगले चौक पर लटकी दहीहांडी को पाने के लिये आगे बढ़ जाती है. यह जीत गिरने से आई चोटों पर पेनकिलर का काम करती है.
इस विजय में, जिसे उसकी भारहीनता और चपलता, मटकी फोड़ने का अवसर देती है, वह बालक ही दर्शकों की निगाहों में नायक बन जाता है पर उसकी यह विजय सिर्फ उसकी भारहीनता याने मानवीय दुर्बलताओं की हीनता और चपलता के कारण ही नहीं बल्कि जमीन से जुड़े और संतुलन कला में निपुण साथी खिलाड़ियों के कारण भी मिलती है.
यही हमारी जीवनयात्रा में मिली सफलताओं का भी सारांश है जिसमें माता-पिता, भाई-बहन, शिक्षकगण, गुरुजन, कोच, संगी-साथी, मित्रगण, पत्नी, संताने, ऑफिस के सीनियर और जूनियर भी अपनी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इन्हें कभी भी भी कमतर समझना या गैर जिम्मेदार समझना, कामचोर समझना, बहुत बड़ी भूल ही कही जायेगी क्योंकि दहीहांडी फोड़ने के बाद नीचे गिरने पर, संभालने वाले हाथों की जरूरत हर विजेता को पड़ती है.
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – ग्लानि।)
अवंतिका आंटी मेरे पड़ोस में एक बुजुर्ग दंपत्ति रहा करते हैं, वह लोग सारा दिन पूजा-पाठ, धर्म-कर्म, पहली रोटी गाय को कुत्ते की रोटी आदि बातों का बहुत ध्यान रखते हैं। मोहल्ले के सारे बच्चे उन्हें दादा-दादी कहते हैं, एक दिन अचानक अवंतिका आंटी के रोने की आवाज आ रही थी। मुझे लगा क्या हो गया है मेरे पतिदेव अभिनव ऑफिस चले गए घर पर बच्चे और मैं अकेली थे। बाहर महामारी चल रही है मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं बाहर निकलना ठीक है या नहीं परंतु मुझसे रहा नहीं गया। अपने गेट से बाहर निकली और मुंह पर दुपट्टा बांधकर। दिखी तो क्या गाय के मुंह पर कांच लगा था। मुंह से खून निकल रहा है, और आंटी रो रही थी। थोड़ी थोड़ी दूर पर सभी पड़ोसी लोग भी खड़े थे। मेरे पड़ोसी राम भैया गाय के मुंह से कांच निकाले और उसके मुंह पर भाभी हल्दी लगा रही थी। सभी पूछ रहे थे। यह कैसे हो गया।
आंटी रो रही थी। अंकल बोले कचरे वाली गाड़ी की आवाज सुनकर ये भागी भागी कचरा और गाय की रोटी भी ली थी । गाय को रोटी दी, गाय ने कचरे की थैली पर सींग मारी तुम्हारी आंटी कचरा छोड़कर भागी।
आज सुबह-सुबह बर्तन धोते समय कांच का गिलास टूट गया था, कचरे में डाल दिया और गाय सब्जियों के छिलकों के साथ और उसके मुंह पर चुभ गया, और घायल हो गई। अंकल ने कहा राम बेटा तुम भगवान बन के आए।
गाय के मुंह से खून निकल रहा था। और अंकल कहे जा रहे थे, परोपकार करो, गाय के अलावा भी सब जानवरों को खाना दिया करो। आंटी की आंख के आंसू थम ही नहीं रहे थे।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – पता मुझे है जन्नत का…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 69 – पता मुझे है जन्नत का… ☆ आचार्य भगवत दुबे
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 500 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी दो विचारणीय लघुकथाएँ – (1) पानी कठौता भर लेई आवा (2) पत्नी के गुजर जाने के बाद .)
☆ लघुकथाएँ – (1) पानी कठौता भर लेई आवा(2) पत्नी के गुजर जाने के बाद☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
(डॉ कुँवर प्रेमिल जी द्वारा उनकी स्वर्गीय धर्मपत्नी जी को समर्पित लघुकथाएं। ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि🙏)
☆ पानी कठौता भर लेई आवा ☆
एक थे राम।
एक था केवट।
रामजी को अपनी भार्या सीता एवं अनुज लक्ष्मण के साथ सरिता पार करनी थी। वह केवट को बुला रहे थे परंतु केवट संज्ञान नहीं ले रहा था।
उसे भय था कहीं लकड़ी की नाव पत्थर की शिला बन गई तो!
‘तो उसकी रोजी रोटी पर संकट गहरा जाएगा’ – वह मन ही मन गुन्तारा बैठा रहा था।
उधर रामजी को नदी पार करने की जल्दी थी। कुछ वजह उन्हें समझ में नहीं आ रही थी।
एकाएक केवट में स्फूर्ति जागी। वह जैसे नींद से जागा – यह तो अच्छा ही होगा कि श्री राम उसकी नौका को सुंदर स्त्री बना देंगे। सुंदर स्त्री समाज परिवार में सम्मान पाती है। साथ ही साथ उसका पति भी सम्मान पाता है।
घर परिवार के लोग भी सम्मान पाते हैं। ऐसा मौका उसे कतई नहीं छोड़ना चाहिए।
नौका तो वह फिर भी बना लेगा। वह इस मधुर कल्पना लेकर कठौता में पानी भरकर ले आया।
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अद्भुत दृश्य था। वह श्रीराम जी के श्री चरणों को धोता हुआ मंद मंद मुस्कुरा रहा था। राम जी भी मुस्कुरा रहे थे। सीता मैया मुस्कुरा रही थी। लक्ष्मण भैया मुस्कुरा रहे थे।
कठौता में प्रभु राम की मुस्कुराती छवि केवट को आश्वस्त कर रही थी।
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☆ पत्नी के गुजर जाने के बाद☆
उसकी पत्नी क्या गुजर गयी, उसका सब कुछ छीन ले गयी। उसकी कलम की स्याही सूख गयी। उसके विचार भोंथरे हो गये।
उसके सगे संबंधी मुंह चुराने लगे। वह भूखा-प्यासा पड़ा रहता। नहाना धोना सब भूल गया वह।
जिनकी पत्नियां जीवित थीं, वे सोच रहे थे, क्या पत्नी इतनी जरूरी होती है? उसके वगैर क्या दुनिया रुक जाती है? वह घर की हीरोइन है क्या?
यह क्या, क्या है,जो पत्नियों के वश में रहता है और उनकी हर आज्ञा का पालन करता है।
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – गुजरात की सुखद यात्रा।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 24 – गुजरात की सुखद यात्रा – भाग – 1
(13 फरवरी 2020)
भ्रमण मेरा शौक़ है। इस बार हमने सोचा कि अपने देश के उन क्षेत्रों का दौरा किया जाए जो हमारे इतिहास और पुराणों में वर्णित हैं।
इस वर्ष हमने चुना गुजरात।
हम पुणे से सोमनाथ के लिए रवाना हुए। पुणे से सोमनाथ जाने के लिए सोमनाथ नामक कोई स्टेशन नहीं है। इसके लिए आपको वेरावल नामक स्टेशन पर उतरना होगा। पुणे से वेरावल तक रेलगाड़ी की सुविधाजनक व्यवस्था उपलब्ध है। विरावल से सोमनाथ का मंदिर सात किलोमीटर की दूरी पर है। हम पुणे से शाम को रवाना हुए और दूसरे दिन देर दोपहर को हम वेरावल पहुँचे।
गुजरात जानेवाली रेलगाड़ियों में केटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं होती है। यह मेरा अनुभव रहा इसलिए हम पर्याप्त भोजन सामग्री साथ लेकर ही चले थे।
होटल पहुँचकर नहा धोकर हम मंदिर का दर्शन करना चाहते थे।
हमने शाम को ही सोमनाथ मंदिर का दर्शन किया। इसे प्रथम ज्योर्तिलिंग मंदिर माना जाता है। सुंदर, साफ़ – सुथरा विशाल परिसर जो समुद्र के तट पर ही स्थापित है। हमें संध्या के समय आरती में शामिल होने का अवसर मिला। मंदिर में स्त्री पुरुषों की कतारें अलग कर दी जाती है। मंदिर के गर्भ गृह का सौंदर्य देखते ही बनता है। आज अधिकांश हिस्सा चाँदी का बनाया हुआ है, पहले यही सब सोने से मढ़ा रहता था। आरती में उपस्थित रहकर मन प्रसन्न हुआ।
यह फरवरी का महीना था। डूबते सूरज की किरणों से मंदिर का कलश स्वर्णिम सा चमक रहा था। धीरे धीरे अस्ताचल भानु के साथ कलश का रंग मानो बदलने लगा। कुछ समय बाद केवल कलश पर ही सूर्य की किरणें पड़ने लगीं। उस दृश्य को देखकर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई भक्त प्रभु की वंदना करके बिना पीछे मुड़े धीरे -धीरे प्रभु की ओर ताकते हुए मंदिर से विदा ले रहा हो। समुद्र जल में सूर्य विलीन हो गया। आसमान अचानक लाल-सुनहरी छटाओं से पट गया मानो शिवजी के सुंदर विस्तृत तन पर पारदर्शी सुनहरी ओढ़नी डाल दी गई हो। आकाश को देख मन मुग्ध हो उठा।
समुद्र की लहरें दौड़ -दौड़ कर मंदिर की दीवारों को ऐसे छूने आतीं मानो छोटा बच्चा माँ की गोद में चढ़ने के लिए मचल रहा हो और जब माँ उसे पकड़ना चाह रही हो तो नटखट फिर भाग रहा हो। साथ ही ठंडी हवा तन -मन को शीतल कर रही थी। समस्त परिसर में सुगंध प्रसरित थी।
शाम को सूर्यास्त के बाद लाइट एंड साउंड कार्यक्रम का हमने आनंद लिया। उसके विशाल इतिहास की जानकारी फिर एक बार ताज़ी हो गई। इस विशाल और आकर्षक मंदिर की रचना सबसे पहले किसने की थी इसके बारे में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है परंतु ऋग्वेद में इसके तब भी होने का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है आज से कुछ 3500 वर्ष पूर्व चंद्रदेव सोमराज ने इस मंदिर की संरचना की थी।
जिस मंदिर की संपदा को एक ही विदेशी ताक़त ने सत्रह बार लूटा, वहाँ कितनी संपदा रही होगी जिसे वे लूटने बार -बार आए होंगे?
मेरे मन में सवाल उठता है कि इतना वैभवशाली राज्य ने एक-दो आक्रमण के बाद भी सुरक्षा बल तैनात रखने की आवश्यकता महसूस न की ? हमने क्या तब भी अपनी सुरक्षा की बात न सोची? क्या हम भारतीयों में सच में एकता का अभाव था जो विदेशी आ – आकर हमें लूटते रहे? हम देश के नागरिक इतने बेपरवाह से बर्ताव क्यों करते रहे !!
मंदिर कई बार ध्वस्त किया गया, हिंदुओं की मूर्त्ति पूजा का विरोध यहाँ राज करनेवाले हर मुगल ने किया। आखरी बार औरंगजेब ने इसे बुरी तरह से ध्वस्त किया। हिंदू राजाओं ने बार – बार मंदिर का निर्माण भी किया। आज मंदिर पहले की तरह स्वर्ण से भले ही मढ़ा न हो पर उसकी भव्यता और सौंदर्य को बनाए रखने का भरसक प्रयास किया गया है।
आज हम जिस मंदिर का दर्शन करते हैं उसे सन 1950 में भारत के गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने दोबारा बनवाया था। पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित कर दिया।
आज यहाँ भारी सुरक्षा की व्यवस्था है जो गुजरात सरकार के मातहत है। फोटो खींचने तक की सख्त मनाही है। मोबाइल, कैमरा आदि जमा कर देने पड़ते हैं। काफी दूर तक चलने के बाद मंदिर का परिसर प्रारंभ होता है। मंदिर के बाहर मेन रोड है आज, शायद कभी वहाँ बाज़ार हुआ करता था।
यह वेरावल शहर समुद्रतट पर बसा होने के कारण शहर में घुसते ही हवा में मछली की तीव्र बू आती है। यहाँ भारी मात्रा में मछली पकड़ने का व्यापार किया जाता है। पचास प्रतिशत लोग मुसलमान हैं जो मछली पकड़ने का ही व्यापार करते हैं। यहाँ नाव बनाने और उनकी मरम्मत करने के कई कारखाने हैं। मूल रूप से लोग समुद्र से जुड़े हुए हैं।
यहाँ के लोग मृदुभाषी हैं। सभी गुजराती और हिंदी बोलते हैं। सभी एक दूसरे की मदद के लिए तत्पर रहते हैं। दो धर्मों के बीच मतभेद कहीं न दिखाई दिया जो आमतौर पर टीवी पर टीआरपी बढ़ाने के लिए दिखाए जाते हैं। लोग मिलनसार हैं और सहायता के लिए तत्पर भी। आनंद आया सोमनाथ का दर्शन कर और वेरावल के निवासियों का स्नेहपूर्ण व्यवहार पाकर।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री चंद्रभान राही जी द्वारा लिखित पुस्तक “मानसी…” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 168 ☆
☆ “मानसी” – लेखक … श्री चंद्रभान राही☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक – मानसी
उपन्यासकार – चन्द्रभान राही, भोपाल
प्रकाशक – सर्वत्र, भोपाल
पृष्ठ – २७८, मूल्य – ३९९ रु
पाश्चात्य समाज में स्त्रियों की भागीदारी को उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में रेखांकित किया जाने लगा था। इसी से विदेशी साहित्य में स्त्री विमर्श की शुरुआत हुई। इसे फ़ेमिनिज़्म कहा गया। स्त्री अस्मिता, लिंग भेद, नारी-जागरण, स्त्री जीवन की सामाजिक, मानसिक, शारीरिक समस्याओं का चित्रण साहित्यिक रचनाओ में प्रमुखता से किया जाने लगा। यह विमर्श एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ है। आज भी स्त्री विमर्श के विषय, साहित्य के माध्यम से स्त्री पुरुष समानता, स्त्री दासता से मुक्ति के प्रश्नों के उत्तर खोजने की वैचारिक कविताओ, कहानियों, उपन्यास और प्रेरक लेखों के जरिये उठाए जाते हैं। स्त्री विमर्श पर शोध कार्य हो रहे हैं।
मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष के विकास में स्त्रियों की अहम भूमिका को स्वीकार किया था। उन्होंने स्त्रियों को शोषित वर्ग का प्रतिनिधि माना था। महिला विमर्श को पश्चिम और भारतीय परिवेश मे अलग नजरियों से देखा गया। पश्चिम ने स्त्री पुरुष को समानता का अधिकार स्वीकार किया। दूसरी ओर भारतीय महाद्वीप में स्त्री पुरुष को सांस्कृतिक रूप से परस्पर अनुपूरक माना जाता रहा है। नार्याः यत्र पूज्यंते। । के वेद वाक्य का सहारा लेकर स्त्री को पुरुष से अधिक महत्व का सैद्धांतिक घोष किया जाता रहा, किन्तु व्यवहारिक पक्ष में आज भी विभिन्न सामाजिक कारणो से समाज के बड़े हिस्से में स्त्री भोग्या स्वरूप में ही दिखती है। कानून, नारी आंदोलन, स्त्री विमर्श यथार्थ के सम्मुख बौने रह गये हैं, और स्त्री विमर्श के साहित्य की प्रासंगिकता सुस्थापित है।
विज्ञापन तथा फिल्मों ने स्त्री देह का ऐसा व्यापार स्थापित किया है कि पुरुष के कंधे से कंधा मिलाने की होड़ में स्त्रियां स्वेच्छा से अनावृत हो रही हैं। इंटरनेट ने स्त्रियों के संग खुला वैश्विक खिलवाड़ किया है। स्त्री मन को पढ़ने की, उसे मानसिक बराबरी देने के संदर्भ में, स्त्री को भी मनुष्य समझने में जो भी किंचित आशा दिखती है वह रचनाकारों से ही है। मुझे प्रसन्नता है कि चन्द्रभान राही जैसे लेखकों में इतना नैतिक साहस है कि वे इसी समाज में रहते हुये, समाज का नंगा सच भीतर से देख समझ कर मानसी जैसा बोल्ड उपन्यास लिखते हैं। मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी सम्मान सहित, तुलसी सम्मान, शब्द शिखर सम्मान, पवैया सम्मान, देवकीनंदन महेश्वरी स्मृति सम्मान, श्रम श्री सम्मान, स्वर्गीय नर्मदा प्रसाद खरे सम्मान, पंडित बालकृष्ण शर्मा नवीन सम्मान, आदि आदि अनेक सम्मानो से समादृत बहुविध लेखक श्री चंद्रभान राही का साहित्यिक कृतित्व बहुत लंबा है। मैंने उनसे अनौपचारिक बातचीत में उनकी रचना प्रक्रिया को किंचित समझा है। वे टेबल कुर्सी लगाकर बंद कमरे में लिखने वाले फेंटेसी लेखक नहीं हैं। एक प्रोजेक्ट बनाकर वे सोद्देश्य रचना कर्म करते हैं। अध्ययन, अनुभव और सामाजिक वास्तविकताओ को अपनी जीवंत अभिव्यक्ति शैली में वे कुशलता से पाठकों के लिये पृष्ठ दर पृष्ठ हर सुबह संजोते हैं, पुनर्पाठ कर स्वयं संपादित करते हैं और तब कहीं उनका उपन्यास साहित्य जगत में दस्तक देता है। अपनी नौकरी के साथ साथ वे अपना रचना कर्म निरपेक्ष भाव से करते दिखते हैं। स्वाभाविक रूप से इतनी गंभीरता से किये गये लेखन को उनके पाठक हाथों हाथ लेते हैं। वे उन लेखकों में से हैं जो अपठनीयता के इस युग में भी किताबों से रायल्टी अर्जित कर रहे हैं।
“मर्द, एक स्त्री से दर्द लेकर आता है, दूसरी स्त्री के पास दर्द कम करने के लिए। ” स्त्री, स्त्री है तो एक घरवाली और एक बाहरवाली, दो भागों में कैसे बँट गई ? दोनों स्त्रियों के द्वारा मर्द को संतुष्ट किया जाता है लेकिन बदनाम कुछ ही स्त्रियाँ होती हैं। अनूठे शाब्दिक प्रयोग के साथ लिखे गये बोल्ड उपन्यास ‘मानसी’ के लेखक चन्द्रभान ‘राही’ ने स्त्री मन की पीड़ा को लिखा है। स्त्री प्रेम के लिए मर्द को स्वीकारती है और मर्द, स्त्री के लिए प्रेम को स्वीकारता है। स्त्री प्रेम के वशीभूत होकर अपने सपनों को पूरा करने के लिए पहले दूसरे के सपनों को पूरा करती है। पुरुष प्रधान समाज के बीच स्त्री स्वयं उलझती चली जाती है। इच्छित पुरुष को पाने का असफल प्रयास करती स्त्री की आत्मकथा के माध्यम से प्रेम का मनोविज्ञान ही मानसी का कथानक है।
स्त्री विमर्श आंदोलन ने स्त्री को कुछ स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और शक्तिशाली बनाया है। फिल्म, मॉडलिंग, मीडिया के साथ बिजनेस और नौकरी में महिलाओ की भागीदारी बढ़ रही है। किंतु, इसका दूसरा पक्ष बड़ा त्रासद है। उपभोक्तावाद ने कुछ युवतियों को कालगर्ल, स्कार्ट रैकेट का हिस्सा बना दिया है। ‘मी-टू’ अभियान की सच्चाईयां समाज को नंगा करती हैं। आये दिन रेप की वीभत्स्व घटनायें क्या कह रही हैं ? सफल-परिश्रमी युवतियों के चरित्र को संदिग्ध मान लिया जाता है। महिला को संरक्षण देने वाले और समाज की दृष्टि में स्त्री इंसान नहीं ‘रखैल’ घोषित कर दी जाती है। सफल स्त्रियों की आत्मकथाएं कटु जीवनानुभवों का सच हैं। पुरुषों का अहं साथी की योग्यता और सफलता को स्वीकार नहीं कर पाता है। पितृसत्ता स्त्री की आजादी और मुक्ति में बाधक है। आरक्षण महिलाओ की योग्यता और क्षमता को मुखरता देने के लिये वांछित है।
इस उपन्यास के चरित्रों मुंडी, मुंडा, मुंडी का रूपांतरित स्वरूप मानसी, चकाचौंध की दुनियां वाली नैना, गिरधारीलाल, दिवाकर, रवि को लेखक ने बहुत अच्छी तरह कथानक में पिरोया है। उन्होंने संभवतः आंचलिकता को रेखांकित करने के लिये उपन्यास की नायिका मुंडी उर्फ मानसी को आदिवासी अंचल से चुना है। यद्यपि चमत्कारिक रूप से मुंडी के व्यक्तित्व का यू टर्न पाठक को थोड़ा अस्वाभाविक लग सकता है। किन्तु ज्यों ज्यों कहानी बढ़ती है नायिका की मनोदशा में संवेदनशील पाठक खो जाता है। पाठक को अपने परिवेश में ऐसे ही दृश्य समझ आते हैं, भले ही उसने वह सब अखबारी खबरों से देखे हों, स्वअनुभूत हों या दुनियांदारी ने सिखाये हों, पर स्त्री की विवशता पाठक के हृदय में करुणा उत्पन्न करती है। यह लेखकीय सफलता है।
मुझे स्मरण है पहले जब मैं किताबें पढ़ा करता था तो शाश्वत मूल्य के पैराग्राफ लिख लिया करता था, अब तो माध्यम बदल रहे हैं, कई किताबें सुना करता हूं तो कई किंडल पर पढ़ने मिलती हैं। उपन्यास मानसी के वे पैराग्राफ जो रेखांकित किये जाने चाहिये, अपनी प्रारंभिक लेखकीय अभिव्यक्ति ” कुछ तो देखा है ” में चंद्रभान जी ने स्वयं संजो कर प्रस्तुत किये हैं। केवल इतना ही पढ़ने से सजग पाठक अपना कौतुहल रोक नहीं पायेंगे और विचारोत्तेजना उन्हें यह उपन्यास पूरा पढ़ने को प्रेरित करेगी, अतः कुछ अंश उधृत हैं। । ।
‘स्त्री’, जब बड़ी हो जाती है तो लोगों की निगाहों में आती है। लोग स्त्री को सराहते नहीं है। सहलाने लगते हैं। यहीं से मर्द की विकृत मानसिकता और औरत की समझदारी का जन्म होता है।
‘स्त्री’ जब प्रेम के वशीभूत किसी मर्द के साथ होती है तो वह उस समय उसकी पसर्नल होती है। उसके पश्चात वही मर्द उसको ‘वेश्या’ का नाम धर देता है।
‘स्त्री’ को दो घण्टे के लिए होटल का कमरा कोई भी मर्द उपलब्ध करा देता है लेकिन जीवन भर के लिए छत उपलब्ध करना मर्द के लिए आसान नहीं।
‘स्त्री’ जब अपने देह के बदले रोटी को पाने की मशक्कत करे तब मर्द का वज़न उतना नहीं लगता जितना रोटी का लगता है। पेट की भूख मिटाने के खातिर स्त्री कब देह की भूख मिटाने लगती है उसे भी पता नहीं चलता।
“स्त्री प्रतिदिन अपने ऊपर से न जाने कितने वज़नदार मर्दों को उतर जाने देती है। वो उतने वज़नदार नहीं लगते जितनी की रोटी लगती है। “
“मैं जब किसी कमरे में वस्त्र उतारती हूँ तो मेरे साथ एक मर्द भी होता है। सच कहती हूँ तब मैं उसकी पसर्नल होती हूँ। “
“मर्द घर की स्त्री से कहीं ज्यादा आनन्द, संतुष्टि और प्रेम बाहर की स्त्री से पाता है लेकिन बाहर की स्त्री को वो मान-सम्मान और प्रतिष्ठा नहीं देता जो घर की स्त्री को देता है। “
“उन स्त्रियों का जीवन मर्द की प्रतीक्षा में कट जाता है, लेकिन उनकी ये प्रतीक्षा भी अलग अंदाज में होती है। घर की स्त्री भी मर्द की प्रतीक्षा करती है, उसका अपना अलग तरीका होता है। “
” दो घण्टे के साथ में उन स्त्री को सब कुछ मर्द से मिल जाता है। जिन्हें वो खुशी-खुशी स्वीकार कर लेती है। वहीं जीवन भर साथ रहने के पश्चात भी घर की स्त्री, मर्द से कहने से नहीं चूकती ‘तुमने किया ही क्या है, मेरे तो नसीब फूट गए, तम्हारे साथ रहते-रहते। ज़िन्दगी बरबाद हो गई। ‘
‘स्त्री’, ग्लेमर की दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के खातिर खड़ी होती है। समाज कब उसकी अलग पहचान बना देता है स्वयं स्त्री को भी पता नहीं चल पाता। “
‘स्त्री’ कल भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही थी, आज भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही है। स्त्री समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए उन रास्तों पर कब चली जाती है जो जीवन को अंधकार की और मोड़ देता है। ‘स्त्री’ कभी स्वेच्छा से तो कभी विवश होकर, मजबूरी के कारण मर्द का साथ चाहती है। मर्द का साथ होना ही स्त्री को आत्मबल, सम्बल देता है। स्त्री जब मर्द के पीछे होती है तो स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है। स्त्री जब मर्द के आगे होती है तो वह किसी कवच से कम नहीं होती। मर्द की संकीर्ण मानसिकता के कारण मर्द आज भी स्त्री को नग्न अवस्था में देखना पसंद करता है। स्त्री देह का आकर्षण, मर्द के लिए स्वर्णीय कल्पना लोक में जाने से कम प्रसन्नता का अवसर नहीं होता। “
मानसी’ एक ऐसी स्त्री की आत्मकथा है जो आई तो थी दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के लिए लेकिन दुनियाँ ने उसकी अलग ही पहचान बना दी और नाम धर दिया ‘वेश्या’ है। ‘स्त्री’ वेश्या की पहचान लेकर समाज में स्वच्छन्द नहीं घूम सकती। आज भी स्त्री को देवी स्वरूप की दृष्टी से देखने का चलन है। देखना और दिखाना दोनों में अंतर है। वही अंतर घर की स्त्री और बाहर की स्त्री में भी है।
घर की स्त्री और बाहर की स्त्री के साथ काम एक सा ही होता है। पर अलग-अलग नाम, अलग-अलग पहचान क्यों? “स्त्री, मर्द की भावना को समझ नहीं पाती या मर्द स्त्री को समझ नहीं पाता। स्त्री और मर्द के बीच प्रेम की खाईं को मिटा पाना किसी मर्द के बस की बात नहीं दिखती। यदि कहीं, कोई मर्द है, जो स्त्री की संतुष्टि का दावा करता है, तो वह मर्द वास्तव में समाज के लिए प्रणाम के योग्य है। “
लेखक बेबाकी से उन स्त्रियों का हृदय से आभार प्रकट करते हैं जिनके कारण उन्होंने स्त्री मन की भावनाओं तक पहुँच कर उन्हें समझने का प्रयास किया। और यह उपन्यास रचा। वे यह पुस्तक भी मैं उन स्त्रियों को समर्पित करते हैं जिन्होंने ऐसा जीवन जिया है। वे लिखते हैं उन स्त्रियों के साथ होते है, तो दूसरी दुनियाँ की अनुभूति होती है। उनकी दुनियाँ के आगे वास्तविक दुनिया मिथ्या लगती है। सच तो यही है कि उनको पता है कि हम ज़िन्दा क्यों हैं। मरने के लिए ज़िन्दा रहना कोई बड़ी बात नहीं है। बात तो तब है कि कुछ करने के लिए ज़िन्दा रहा जाए।
मुझे विश्वास है कि इस उपन्यास से चंद्रभान राही जी गंभीर स्त्रीविमर्श लेखक के रूप में साहित्य जगत में स्वीकार किये जायेंगे। उपन्यास अमेजन पर सुलभ है, पढ़कर मेरे साथ सहमति तय करिये।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 98 ☆ देश-परदेश – राजनीति निषेध ☆ श्री राकेश कुमार ☆
मीडिया और सोशल ने राजनीति को इस कदर हवा दी है, कि अब वो काबू में नहीं हो पा रहा हैं। सोते जागते, खाते पीते और ये चोबीस घंटे समाचारों को सुनाने वाले चैनल, हमारे जीवन में राजनीति का विष घोल चुके हैं।
बाप बेटा, पति पत्नी सभी संबंधों की दूरियां बढ़ाने के लिए अब और कुछ भी नहीं चाहिए। यादि आप अपने किसी के रिश्तों में दरार डालना चाहते है, तो उस व्यक्ति की राजनैतिक सोच के विरुद्ध चले जाएं। संबंधों में वैमनस्यता स्वाभाविक रूप से आ जायेगी।
राजनीति, अब क्या, हमेशा से ही घृणित और नीच प्रवृत्ति की होती है। आज के इस दौर में जब सामाजिक सोच और मानवीय मूल्य पातललोक से भी नीचे जा चुके है, तब राजनीति की स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
समाचार पत्र में उपरोक्त पंक्तियां पढ़ कर बहुत सुकून मिला, चलो अमेरिका जैसे देश में भी हमारे जैसी मानसिकता वाले लोग ही रहते हैं, और घटिया राजनीति में ही जीवन यापन करते हैं।
हम भी जब तीन चार मित्र मिलते हैं, तो ना चाहते हुए भी कब राजनीति वाली लाइन पकड़ लेते है, ज्ञात ही नहीं होता है। वो तो जब आवाज़ में गति और बुलंदी आ जाती है, तो समझ आता है कि राजनीति की तलवारें म्यान से बाहर आ चुकी हैं। ये ही हाल परिवार मिलन के समय होता है।
व्हाट्स ऐप के समूहों पर ये ही लागू होता हैं। एडमिन के समझाने पर भी सदस्य राजनीति के घिसे पिटे मैसेज साझा करने से बाज़ नहीं आते हैं। कुछ सदस्य तो नाराजगी में समूह तक त्याग देते हैं। तैयार (बने बनाए) राजनीति और धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाले मैसेज प्रेषित कर अपने आप को धर्म और राष्ट्र के प्रति बहुत बड़ा और महान समझने लगते हैं।
हमें भी इंतजार है, हमारे देश में भी कब विवाह, भंडारे, जन्मदिन आदि में राजनीति करने वालों को ‘भोजन निषेध है’, कह कर रवाना कर दिया जायेगा।