हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ ख्वाहिश ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक सार्थक लघुकथा  ख्वाहिश।  

☆ लघुकथा – ख्वाहिश ☆

हम दोनों पक्की सहेलियां थीं। मेरे कपड़े और खिलौने उसके कपड़े और खिलौनों से ज्यादा महंगे होते थे क्योंकि उसके पिता मेरे पिता के यहाँ काम करते थे।

नीलू को पढ़ने के साथ-साथ कॉपी किताबें और अपना सामान करीने से रखने का बहुत शौक था पिताजी से उसने एक छोटी सी पेटी की ख्वाहिश भी रखी थी।

उसके जन्मदिन के दिन उसके घर में पेटी आई भी पर उसके पिता ने कहा… “कि नहीं यह तो तुम्हारी पक्की सहेली याने मेरे साहब की बेटी के लिए है, क्योंकि कल उसका  जन्मदिन  है। तुम्हें अगले जन्मदिन पर खरीद देंगे।”

पूरे साल भर नीलू पेटी में कॉपी किताबें सजाने के सपने देखती रही जन्मदिन आया लेकिन पेटी नहीं आई। पिताजी 2 दिन के दौरे के लिए शहर से बाहर चले गए उसने राह देखी शायद लौटकर पेटी लेकर आएं लेकिन पेटी फिर भी नहीं आई। नीलू जब भी मेरे घर आती मेरी पेटी को हसरत भरी निगाहों से देखती। उसे हाथों में उठाती है पर उसका इंतजार प्रेमचंद के गबन उपन्यास की नायिका को चंद्रहार मिलने की आतुरता जैसा  कट रहा था।

साल पे साल बीतते गए पर पेटी फिर भी नहीं आई। आखिरकार उसकी शादी के दिन जब दहेज के सामानों में एक पेटी रखी थी उसे देखकर उसने सभी कीमती जेवरात और सामानों को छोड़कर उस पेटी को गोद में उठा लिया और उसकी आँखों में खुशी के आँसू छलक पड़े।

 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – एक आत्मकथा – वतन की मिटटी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी का एक भावप्रवण आलेख “ एक आत्मकथा – वतन की मिटटी। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  एक आत्मकथा – वतन की मिटटी

मैं घर से परदेश चला था, रोजी-रोटी की तलाश में। रेलवे स्टेशन पर‌ पहुँच कर मैंने एक सुराही तथा एक मिटृटी का गिलास लिया, रास्ते में शीतल जल  पीने के लिए और सफ़र कटता गया। उस सुराही के जल से साथ चल रहे सहयात्रियों की प्यास बुझाई। मुझे अपने सत्कर्मो पर गर्वानुभूति हो चली थी।  मुझे भी जोर की प्यास लगी थी। जैसे ही मैंने पानी से भरे  मिट्टी के गिलास को हाथ में उठा होंठों लगाना चाहा तभी वह सिसकती हुई मिट्टी बोल पड़ी “मै भारत देश की महान धरती के एक अंश  से बनी हूं। मैं तुम्हारे वतन की मिट्टी हूँ। मेरे संपूर्ण अस्तित्व को अनेकों नामों से संबोधित किया जाता है। मुझे लोग धरती, धरणी, वसुंधरा, रत्नगर्भा, महि‌, भूमि आदि न जाने कितने नामों से पुकारते हैं। मैं बार बार  राजाओं महाराजाओं  की लोलुपता का शिकार हुई हूँ। मुझे प्राप्त करने की‌ इक्षा‌ रखने वाले राजाओ की गृहयुद्ध ‌की साक्षी भी मैं ही हूँ।

यह उस जमाने की बात है, जब प्लास्टिक का चलन शुरू ही  हुआ था लेकिन मिट्टी ने  भविष्य में आने वाले खतरे को भाँप लिया था।

वह मुझसे संवाद कर उठी –“उसने कहा ओ परदेशी  पहचाना मुझे, मैं तेरे वतन की मिट्टी हूँ। जब तू परदेश के लिए चला था, तभी से मैं तेरा साथ छूटने पर दुखी थी। मैं तुझे इसलिए बुला रही थी कि तुझे अपनी राम कहानी सुना सकूँ। लेकिन तूने मेरी सुनी कहाँ, तू मेरी वफ़ा को देख। मैंने फिर भी तेरा साथ नहीं छोड़ा और सुराही के रूप में चल पड़ी हूँ तेरे साथ तेरी प्यास बुझाने तथा तेरे साथ चल रहे इंसान की प्यास बुझाने के लिए। मुझे धरती खोद कर निकाल कर कुंभार अपने घर लाया। फिर मुझे रौंदा गया, मुझे रौंदे जाते देख मेरे एक पुत्र कबीर से मेरी दुर्दशा देखी न गई, उन्होंने मुझे माध्यम बना कुंभार को चेतावनी भी दे डाली और यथार्थ समझाते हुए कहा कि-

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोहे ।
इक दिन ऐसा आयेगा, मैं रुन्दूगी तोहे।।

लेकिन कुम्हार ने जिद नहीं छोड़ी। उसने मुझे आग में तपा दिया और गढ़ दी अनेकों आकृतियां अपनी आवश्यकता के अनुरूप। मैने एक दिन उसे भी अपनी गोद में जगह दे दिया वह सदा के लिए मुझमें समा गया। लेकिन मेरी कहानी यहीं खत्म नहीं हुई और मैं दुकान से होती जीवन यात्रा तय करती तुमसे आ टकराई।  मैं आशंकित हूँ अपने भविष्य के प्रति। एक दिन तेरा स्वार्थ पूरा होते ही तू मुझे तोड़ कर फेंक देगा। काश मैं सुराही न होकर प्लास्टिक कुल में पैदा थर्मस होती तो यात्रा पूरी करने के बाद भी तेरे घर के कोने में शान से रहती।

याद रख मैं कृत्रिम नहीं हूँ।  मैं तेरी सभ्यता संस्कृति का वाहक तो हूँ ही, मुझसे ही तेरी पहचान भी है। मैं युगों-युगों से देवता और दानव कुल के बीच चल रहे संघर्षों की भी साक्षी रही हूँ। मैंने पारिवारिक पृष्ठभूमि के  युध्द देखे। आततायियों को धराशाई होते देखा। वीरों को वीरगति को प्राप्त होते देखा। मैं भी नारी कुल से पैदा हुई धरती माँ का अंश हूँ। मैंने सीता जैसी कन्या को अपनी कोख से पैदा किया तो उसकी व्यथा सुनकर अपने आँचल में समेटा भी। मैंने ही जीवन यापन करने के लिए लोगों को फल-फूल, लकड़ी-चारा, जडी़ बूटियां, खनिज दिया।

मैं न रही तो प्लास्टिक का ढेर तेरी पीढ़ियों को खा जायेगा। फिर तुझे किसी को पिंडदान करने के लिए भी नहीं छोड़ेगा। हर तरफ करूण क्रंदन ही क्रंदन होगा।

मुझे अपने भविष्य का तो कुछ भी पता नहीं है। लेकिन तेरा भविष्य मैं जानती हूँ। तू पैदा हुआ है, मेरे सीने पर खेला भी, मेरी गोद में तू मरेगा भी। मेरी आँचल की छांव में और  चिरनिंद्रा में  सोने पर तुझे अपनी गोद में  जगह  भी मैं ही दूंगी। क्योंकि, मैं तेरे वतन की पावन मिट्टी हूँ। तुम्हारे ही भाईयों ने अपनी लिप्सा पूरी करने के लिए विभाजन की अनेक सीमा रेखायें खींच दी। मुझे दुख और क्षोभ भी हुआ। लेकिन, दूसरे बेटे के कर्म पर गर्व भी है, जिसने मुझे अपने माथे से  लगा कर मेरी आन-बान-शान की रक्षा में अपनी जान देने की कसम खा रखी है। आज भी देश भक्त मेरी ‌मिट्टी से  अपने माथे का  तिलक लगाकर अपनी जान दे देते । उनका जीना भी मेरी खातिर और मरना भी मेरी खातिर। लेकिन, उनका क्या, जो मेरे नाम पर देश का भाग्य विधाता बन अपने अपने सत्ता सुख के लिए ‌मुद्दो की तलाश में हर बार विभाजन की एक और लकीर मेरे सीने पर और खींच देते हैं जातिवाद क्षेत्रवाद, भाषावाद, और अब तो संप्रदायवाद के दंश से‌ मै दुखी महसूस कर रही हूँ। उन भाग्यविधाताओं से मेरे वे सपूत अच्छे है जहां जाति, धर्म/का कोई भेद नहीं। सच्ची देशभक्ति, प्रजातंत्र के मंदिर में नहीं दिखती। वहाँ अब अपने अपने मतलब के लिए एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का काम होता है। मैंने प्रजातंत्र के मंदिर में अवांछित शब्दों के प्रयोग से लेकर मार पीट भी‌ होते देखा है। काश कि वहां पर हितचिंतन की बातें करते जनहित के मुद्दों पर स्वार्थ रहित बहस करते। संसद चलने देते तो मेरी आत्मा निहाल हो जाती। काश, कोई सरहद पे जाता और देखता जहां बिना जाति, धर्म मजहब की परवाह किए  मेरा जवान लाल मेरे लिए ही जीता है मेरे लिए ही मरता है  तभी तो उनकी जहां चिता जलती है वहां की माटी भी आज पूजी जाती है। तभी तो किसी शायर ने कहा कि—–

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशां होंगा।।

तभी तो किसी रचना कार ने  फूल की इच्छा का चित्रण करते हुए लिखा जो यथार्थ के दर्शन ‌कराता है–

मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक,

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक

तभी कोई भोजपुरी रचना कार कह उठता है–

जवने माटी जनम लिहेस उ, उ ,माटी भी धन्य हो गइल।
जेहि जगह पे ओकर जरल चिता, काबा काशी उ जगह हो गईल।

भला मेरे सम्मान करने वालों का इससे‌ बढ़िया उदाहरण और कहाँ ?  … और तुम भी उनमें से ही एक हो। तुम्हारी यात्रा और ज़रूरतें पूरी हो जायेगी और तुम मुझे कहीं भी उपेक्षित फेंक दोगे। काश कि अपनी जरूरत पूरी कर किसी गरीब जरूरतमंद को दे देते तो मेरा जन्म सुफल हो जाता। इस तरह संवाद करते करते उसकी आँखें भर आईं थी और मेरा दिल भी भर आया था। मैं मिट्टी का गिलास ओंठो से लगाना भूल गया था। आज मुझे अपने वतन की माटी की पीड़ा कचोट रही थी और अपने वतन की माटी से प्यार हो आया था।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 20 ☆ किसके कैसे कर्म हैं देख रहे भगवान ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  संस्कारधानी जबलपुर शहर पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “किसके कैसे कर्म हैं देख रहे भगवान।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 20 ☆

☆  किसके कैसे कर्म हैं देख रहे भगवान 

जन्म मरण के मध्य है जीवन एक प्रवाह

जिसे नहीं मालूम कहां उसकी जग में राह

 

मौसम और परिवेश का जिस पर प्रबल प्रभाव

अनजाने नये क्षेत्र में जिसका सतत बहाव

 

आने वाले कल का नित जिसको है ज्ञान

कई झंझट झंझाओं में उलझे रहते प्राण

 

कोई नहीं अनुमान कब मिले नया आदेश

जाना होगा कब कहां और कौन से देश

 

केवल उसके साथ है खुद अपना विश्वास

मन की दृढ़ता बांधती रहती नित नई आश

 

साहस संयम नियम ही जीवन के आधार

दिशा मार्ग शुभ दिखलाते खुद के सोच विचार

 

पाने अपने लक्ष्य को जिसको नित परवाह

जहां पहुंचना है वहां की पा जाता है राह

 

निश्चल निर्मल भावना ही पाती वरदान

किसके कैसे कर्म हैं देख रहे भगवान

 

साहस रख विश्वास से लड़ जीवन संग्राम

सतत साधना श्रम से सब पूरे होते काम

 

कर सकते जो निडर हो निर्णय युग अनुसार

वह ही पाते विजय नित कभी ना होती हार

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 75 ☆ मैं, मैं और सिर्फ़ मैं ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं, मैं और सिर्फ़ मैं यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 75 ☆

☆ मैं, मैं और सिर्फ़ मैं ☆

‘कोई भी इंसान खुश रह सकता है, बशर्ते वह ‘मैं, मैं और सिर्फ़ मैं’ कहना छोड़ दे और स्वार्थी न बने’ मैथ्यू आर्नल्ड का यह कथन इंगित करता है कि मानव को कभी फ़ुरसत में अपनी कमियों पर अवश्य ग़ौर करना चाहिए… दूसरों को आईना भी दिखाने की आदत स्वत: छूट जाएगी।

मानव स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझ, आजीवन दूसरों के दोष-अवगुण खोजने में व्यस्त रहता है। उसे अपने अंतर्मन में झांकने का समय ही कहां मिलता है? वह स्वयं को ही नहीं, अपने परिवारजनों को भी सबसे अधिक विद्वान, बुद्धिमान अर्थात् ख़ुदा से कम नहीं आंकता। सो! उसके परिवारजन सदैव दोषारोपण करना ही अपने जीवन का लक्ष्य स्वीकारते हैं। इसलिए न परिवार में सामंजस्यता की स्थिति आ सकती है, न ही समाज में समरसता। चारों ओर विश्रंखलता व विषमता का दबदबा रहता है, क्योंकि मानव स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने में लिप्त रहता है और अपनी अहंनिष्ठता के कारण वह सबकी नज़रों से गिर जाता है। आपाधापी भरे युग में मानव एक- दूसरे को पीछे धकेल आगे बढ़ जाना चाहता है, भले ही उसे दूसरों की भावनाओं को रौंद कर ही आगे क्यों न बढ़ना पड़े। सो! उसे दूसरों के अधिकारों के हनन से कोई सरोकार नहीं होता। वह निपट स्वार्थांध मानव केवल अपने हित के बारे में सोचता है और अपने अधिकारों के प्रति सजग व अपने कर्त्तव्यों से अनभिज्ञ, दूसरों को उपेक्षा भाव से देखता है, जबकि अन्य के अधिकार तभी आरक्षित-सुरक्षित रह सकते हैं, जब वह अपने कर्त्तव्य व दायित्वों का सहर्ष निर्वहन करे। मैं, मैं और सिर्फ़ मैं की भावना से आप्लावित मानव आत्मकेंद्रित होता है…केवल अपनी अहंतुष्टि करना चाहता है तथा उसके लिए वह अपने संबंधों व पारिवारिक दायित्वों को तिलांजलि देकर निरंतर आगे बढ़ता चला जाता है, जहां उसकी काम-वासनाओं का अंत नहीं होता… और संबंधों व सामाजिक सरोकारों से निस्पृह मानव एक दिन स्वयं को नितांत अकेला अनुभव करता है और ‘मैं’ ‘मैं’ के दायरे व व्यूह से बाहर आना चाहता है, स्वयं में स्थित होना चाहता है और प्रायश्चित करना चाहता है…परंतु अब किसी को उसकी व उसकी करुणा-कृपा की दरक़ार नहीं होती।

इस दौर में वह अपनी कमियों पर ग़ौर कर अपने अंतर्मन मेंं झांकना चाहता है…आत्मावलोकन करना चाहता है। परंतु उसे अपने भीतर अवगुणों, दोषों व बुराइयों का पिटारा दिखाई पड़ता है और वह स्वयं को काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार में लिप्त पाता है। इन विषम परिस्थितियों में वह उस स्वनिर्मित जाल से बाहर निकल, संबंधों व सरोकारों का महत्व समझ कर लौट जाना चाहता है; उन अपनों में … अपने आत्मजों में, परिजनों में… जो अब उसकी अहमियत नहीं स्वीकारते, क्योंकि उन्हें उससे कोई अपेक्षा नहीं रहती। वैसे भी ज़िंदगी मांग व पूर्ति के सिद्धांत पर निर्भर है। हमें भूख लगने पर भोजन तथा प्यास लगने पर पानी की आवश्यकता होती है…और यथासमय स्नेह, प्रेम, सहयोग व सौहार्द की। सो! बचपन में उसे माता के स्नेह व पिता के सुरक्षा-दायरे की ज़रूरत व उनके सानिध्य की अपेक्षा रहती है। युवावस्था में उसे अपने जीवन- साथी, दोस्तों व केवल अपने परिवारजनों से अपेक्षा रहती है, माता-पिता के संरक्षण की नहीं। सो! अपेक्षा व उपेक्षा भाव दोनों सुख-दु:ख की भांति एक स्थान पर नहीं रह सकते, क्योंकि प्रथम भाव है, तो द्वितीय अभाव और इनमें सामंजस्य ही जीवन की मांग है।

जीवन जहां संघर्ष का पर्याय है, वहीं समझौता भी है, क्योंकि संघर्ष से हम वह सब नहीं प्राप्त कर पाते, जो प्रेम द्वारा पल-भर में प्राप्त कर सकते हैं। आपका मधुर व्यवहार ही आपकी सफलता की कसौटी है, जिसके बल पर आप लाखों लोगों के प्रिय बन, उन के हृदय पर आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं। विनम्रता हमें नमन सिखलाती है, शालीनता का पाठ पढ़ाती है, और विनम्र व्यक्ति विपदा-आपदा के समय पर अपना मानसिक संतुलन नहीं खोता… सदैव धैर्य बनाए रखता है। अहं उसके निकट जाकर भी उसे छूने का साहस नहीं जुटा पाता अर्थात् वह ‘मैं, मैं और सिर्फ़ मैं’ के शिकंजे से सदैव मुक्त रहता है और आत्मावलोकन कर ख़ुद में सुधार लाने की डगर पर चल पड़ता है। वह अपनी कमियों को दूर करने का भरसक प्रयास करता है और कबीरदास जी की भांति ‘बुरा जो देखन मैं चला, मोसों बुरा न कोय’ अर्थात्  पूरे संसार में उसे ख़ुद से बुरा व कुटिल कोई अन्य दिखाई नहीं पड़ता। इसी प्रकार सूर, तुलसी आदि को भी स्वयं से बड़ा पातकी-पापी ढूंढने पर भी दिखायी नहीं पड़ता, क्योंकि ऐसे लोग स्वयं को बदलते हैं, संसार को बदलने की अपेक्षा नहीं रखते।

कंटकों से आच्छादित मार्ग से सभी कांटो को चुनना अत्यंत दुष्कर कार्य है। हां! आत्मरक्षा के लिए पांवों में चप्पल पहन कर चलना अधिक सुविधाजनक व कारग़र है। सो! समस्या का समाधान खोजिए; ख़ुद मेंं बदलाव लाइए और दूसरों को बदलने में अपनी ऊर्जा नष्ट मत कीजिए। जब आपकी सोच व दुनिया को देखने का नज़रिया बदल जाएगा, आपको किसी में कोई भी दोष नज़र नहीं आयेगा और आप उस स्थिति में पहुंच जाएंगे… जहां आपको अनुभव होगा कि जब परमात्मा की कृपा के बिना एक पत्ता तक भी नहीं हिल सकता, तो व्यक्ति किसी का बुरा करने की बात सोच भी कैसे सकता है? सृष्टि-नियंता ही मानव से सब कुछ कराता है… इसलिए वह दोषी कैसे हुआ? इस स्थिति में आपको दूसरों को आईना दिखाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।

मानव ग़लतियों का पुतला है। यदि हम अपने जैसा दूसरा ढूंढने को निकलेंगे, तो अकेले रह जाएंगे। इस लिए दूसरों को उनकी कमियों के साथ स्वीकारना सीखिये … यही जीवन जीने का सही अंदाज़ है। वैसे भी आपको जीवन में जो भी अच्छा लगे, उसे सहेज व संजोकर रखिए और शेष को छोड़ दीजिए। इस संदर्भ में आपकी ज़रूरत ही महत्वपूर्ण है और ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ तथा ‘जहां चाह, वहां राह… यह है जीने का सही राह।’ यदि मानव दृढ़-प्रतिज्ञ व आत्मविश्वासी है, तो वह नवीन राह  ढूंढ ही लेता है और इस स्थिति में उसका मंज़िल पर पहुंचना अवश्यंभावी हो जाता है। सो! साहस व धैर्य का दामन थामे रखिए, मंज़िल अवश्य प्राप्त हो जायेगी।

हां! अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, आपको सत्य की राह पर चलना होगा, क्योंकि सत्य ही शिव है, कल्याणकारी है…और जो मंगलकारी है, वह सुंदर तो अवश्य ही होगा। इसलिए सत्य की राह सर्वोत्तम है। सुख-दु:ख तो मेहमान की भांति आते- जाते रहते हैं। एक की अनुपस्थिति में ही दूसरा दस्तक देता है। सो! इनसे घबराना व डरना कैसा? इसलिए जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं और ‘जो ज़िंदगी में होता है, हमें भाता नहीं’… वही हमारे दु:खों का मूल कारण है। जिस दिन हम दूसरों को बदलने की भावना को त्याग कर, ख़ुद में सुधार लाने का मन बना लेंगे, दु:ख,पीड़ा,अवमानना, आलोचना, तिरस्कार आदि अवगुण सदैव के लिए जीवन से नदारद हो जाएंगे। इसलिए ‘परखिए नहीं, समझिए’ … यही जीने का सर्वोत्कृष्ट मार्ग है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि ‘जब चुभने लगें, ज़माने की नज़रों मेंं/ तो समझ लेना तुम्हारी चमक बढ़ रही है’ अर्थात् महान् व बुद्धिमान मनुष्य की सदैव आलोचना व निंदा होती है और वे सामान्य लोगों की नज़रों में कांटा बन कर खटकने लगते हैं। इस स्थिति में मानव को कभी भी निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रसन्नता से स्वयं को ग़ौरवान्वित अनुभव करना चाहिए कि ‘आपकी बढ़ती चमक व प्रसिद्धि देख, लोग आपसे ईर्ष्या करने लगे हैं।’ सो! आपको निरंतर उसी राह पर अग्रसर होते रहना चाहिए।

ज़िंदगी जहां हर पल नया इम्तहान लेती है, वहीं वह  एक सुहाना सफ़र है। कौन जानता है, अगले पल क्या होने वाला है? इसलिए चिंता, तनाव व अवसाद में स्वयं को झोंक कर, अपना जीवन नष्ट नहीं करने का संदेश प्रेषित है। स्वामी विवेकानंद जी के शब्दों में–’उठो! आगे बढ़ो और तब तक न रुको, जब तक आप मंज़िल को नहीं पा लेते तथा उस स्थिति में मन में केवल वही विचार रखो, जो तुम जो पाना चाहते हो और केवल उसे ही हर दिन दोहराओ…आपको उस लक्ष्य के प्राप्ति आपको अवश्य हो जाएगी।’

अंत में मैं कहना चाहूंगी कि ‘सिर्फ़ मैं’ के भाव का दंभ मत भरो। आत्मावलोकन कर अपने अंतर्मन में झांको, दोष-दर्शन कर अपनी कमियों को सुधारने में प्रयास-रत रहो… आप स्वयं को अवगुणों की खान अनुभव करोगे। दूसरों से अपेक्षा मत करो और जब आपके हृदय में दैवीय गुण विकसित हो जाएं और आप लोगों की नज़रों में खटकने लगें, तो सोचो… आपका जीवन, आपका स्वभाव आपके कर्म उत्तम हैं, श्रेष्ठ हैं, अनुकरणीय हैं। सो! आप जीवन में अपेक्षा-उपेक्षा के जंजाल से मुक्त रहो…कोई बाधा आपकी राह नहीं रोक पायेगी। यही मार्ग है खुश रहने का… परंतु यह तभी संभव होगा, जब आप स्व-पर से ऊपर उठ कर, नि:स्वार्थ भाव से परहित के कार्यों में स्वयं को लिप्त कर, उन्हें दु:खों से मुक्ति दिला कर सुक़ून अनुभव करने लगेंगे। सो! दूसरों से उम्मीद रखने की अपेक्षा ख़ुद से उम्मीद रखना श्रेयस्कर है, क्योंकि इससे निराशा नहीं, आनंद की उपलब्धि होगी और मानव-मात्र के मनोरथ पूरे होंगे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 27 ☆ सम्मान एवं पुरस्कारों का औचित्य ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “सम्मान एवं पुरस्कारों का औचित्य)

☆ किसलय की कलम से # 27 ☆

☆ सम्मान एवं पुरस्कारों का औचित्य ☆

पिछले तीन-चार दशक से सम्मान एवं पुरस्कारों की बाढ़ सी आ गई है। समाचार पत्रों, टी.वी. चैनलों और मीडिया की खबरें हम तक पहुँच रही हैं। आमंत्रण पत्र भी उबाऊ लगने लगे हैं। हर चौराहे सभागारों या मैदानों में आए दिन समारोह देखे जा सकते हैं। यहाँ पहुँचने वालों में स्वजन, स्वार्थी एवं सम्मान पिपासुओं के अलावा मात्र आयोजकों की उपस्थिति दिखाई देती है। यदि किसी बड़े नेता या धनाढ्य द्वारा कार्यक्रम आयोजित किया गया हो तो निजी वाहनों से ढोकर श्रोता जुटाए जाते हैं और यदि सभोज समारोह हुआ तो बिना बुलाए ही श्रोताओं की भीड़ जुट जाती है। कभी आपने सोचा है कि ये कार्यक्रम क्यों और कैसे आयोजित होते हैं? इतने सम्मान कैसे लिए और दिए जाते हैं? वर्तमान समय में इन सम्मानों और पुरस्कारों का औचित्य क्या है?

आदिकाल से ही संसार में किसी श्रेष्ठ कार्य अथवा उपलब्धि पर लोगों को प्रोत्साहित करने की परम्परा चली आ रही है। पहले लोग इसे अपने सौभाग्य और शुभकर्मों का प्रतिफल मानते थे। उत्तरदायित्व की विराटता समझते थे। समाज में इन लोगों की प्रतिष्ठा और पूछ-परख होती थी। लोग उनके कृतित्व एवं चरित्र का अनुकरण करते थे। पूर्व की तुलना में आज सम्मान और पुरस्कारों का बाहुल्य होते हुए भी लोगों का किसी से कोई लेना-देना नहीं होता। आज के अधिकांश सम्मान एवं पुरस्कार श्रम, सेवा और समर्पण से नहीं अर्थ, स्वार्थ और पहुँच से प्राप्त किए जाते हैं। परस्पर आदान-प्रदान की एक नई परिपाटी जन्म ले चुकी है। देखा गया है कि छोटे सम्मान की बदौलत बड़ा सम्मान मिलता है। पैसों से सम्मान और पुरस्कार प्राप्त करना आज आम बात हो गई है, लेकिन योग्यता, ईमानदारी और समर्पण से सम्मान या पुरस्कार वर्तमान में टेढ़ी खीर हो गए हैं। आज हम पहुँच और पैसों से खरीदे सम्मानों की सूची अपने बायोडाटा में देने लगे हैं। राष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कारों के लिए गणमान्य लोगों से अनुशंसायें लिखवाते हैं। ऐसी उपलब्धि क्या हमारी दशा और दिशा बदल पायेगी? क्या हम अपेक्षित सामाजिक उत्तरदायित्व का ईमानदारी से निर्वहन कर पायेंगे? शायद नहीं, क्योंकि हम मात्र समाज के सामने श्रेष्ठ बनने और अपना उल्लू सीधा करने के लिए इतना ताना-बाना बुनते हैं। अधिकतर लोगों का सामाजिक सरोकारों से कोई लेना नहीं होता। अपने धन, वैभव और पहचान का अनुचित प्रयोग कर ऊँची से ऊँची आसंदी पर स्वयं को देखना चाहते हैं, लेकिन आज भी ऐसे बहुतेरे योग्य, ईमानदार और समर्पित लोग समाज में दिखाई देते हैं जो समाज सेवा और राष्ट्र के उत्थान हेतु अपना सर्वस्व खपाने का संकल्प लिए नि:स्वार्थ भाव से निरन्तर सक्रिय हैं, उन्हें किसी सम्मान, पुरस्कार या अभिनन्दन की लालसा नहीं होती। ऐसा माना जाता है कि समाज के इन्हीं 10-20 प्रतिशत लोगों के कारण ही समाज में ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा जीवित है। क्या हम और हमारी सरकार इन ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठों की उपेक्षा कर इनके संकल्पित हृदय को आहत नहीं कर रही है। क्या झूठे प्रमाण-पत्र, अनुशंसाएँ एवं प्रशस्ति-पत्र आज प्रतिष्ठित सम्मानों, पुरस्कारों के साक्ष्य तथा मानक बनते रहेंगे? क्या हम बिना आदर्श-सत्यापन के, बिना काबिलियत के इसी तरह सम्मान और पुरस्कार देते रहेंगे, क्या ऐसा सम्भव नहीं है कि आम आदमी की बगैर मध्यस्थता वाली अनुशंसायें एवं प्रस्ताव आमंत्रित कर पारदर्शिता के साथ सम्मान एवं पुरस्कार सुयोग्य व्यक्तित्व को दिया जाये।

सम्मान, अलंकरण पुरस्कार अथवा अभिनन्दन समारोह मानवीय मूल्यों की पूजा के समतुल्य होता है। अत: समाज को ऐसे सम्मानों एव पुरस्कारों के विकृत अस्तित्व को नकारने का उत्तरदायित्व लेना चाहिए, क्योंकि यह छद्म उपलब्धि व  वाहवाही समाज के लिए घातक परम्परा का रूप ले सकती है।

बिना परिश्रम, बिना दृढ निश्चय एवं बिना योग्यता के किसी भी कार्य, सेवा या चलाये जा रहे अभियान की वास्तविक पूर्णता सम्भव ही नहीं है। खोखली बातों से समाज और देश नहीं चलता। इसलिए हमें अपनी अन्तरात्मा और सच्चाई की आवाज सुनना होगी। योग्यता, कर्त्तव्यनिष्ठा और परमार्थभाव को ही पूजना होगा। यही सच्ची मानवसेवा है, जो हमें और हमारे समाज को आदर्श बनाने में सहायक होगी। हमें उम्मीद है कि आज के शिक्षित तथा सुसंस्कृति को जानने वाले मानव द्वारा अब तथाकथित झूठी और प्रदर्शित की जा रही योग्यता को नकार दिया जायेगा।इसके पश्चात ही सम्मान एवं पुरस्कारों का औचित्य सही साबित होगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 73 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 73 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

देखो अब तुम जिधर भी,

पनप रहा उद्योग।

यंत्रों के निर्माण कर,

लगे कमाने लोग।

 

तरह तरह के बिक रहे,

कितने ही परिधान।

साड़ी में ही हो रहा,

नारी का सम्मान।

 

हिंसा नफरत बैर नहीं,

करो सभी से प्यार।

रिश्तों को समझो अगर,

मिले तभी अधिकार।।

 

पाना है यदि लक्ष्य तो,

खूब करो संधान ।

मिलती है मंजिल अगर,

करो  नहीं अभिमान।।

 

कोरोना के काल में,

कितने हुए अनाथ।

मुश्किल की इस घड़ी में,

रहते कितने  साथ।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 63 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 63 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

राजनीति अब आज की, बनी एक उद्योग

मुश्किल से ही छूटता, सत्ता सुख का भोग

 

काम जाल फैला रहे, नव युग के परिधान

विज्ञापन की दौड़ में, नारी  से पहिचान

 

कलियुग में होने लगी, हिंसा की भरमार

सदाचार खोने लगा, हिंसक हुए विचार

 

नव पीढ़ी गर तय करे, अपना जीवन लक्ष्य

बढ़कर पा ले लक्ष्य तब, ऐसा सबका कथ्य

 

सेवा करें अनाथ की, यही नेक है काम

पर हित जो करते सदा, उनका है श्रीधाम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #86 ☆ व्यंग्य – अतिथि देवो भव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक  व्यंग्य  ‘अतिथि देवो भव . इस सार्थक एवं अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 86 ☆

☆ व्यंग्य – अतिथि देवो भव ☆

मुझे बचपन से मेहमानों की बड़ी प्रतीक्षा रहती थी कारण यह था कि जब मेहमान आते हैं  तो कुछ ना कुछ गिफ्ट, फल,  मिठाई  लेकर आते हैं और मेहमानों के जाते वक्त भी मुझे उनसे    कुछ नगद रुपये भी मिलते थे। मिडिल स्कूल में संस्कृत पढ़ने का अवसर मिला।  संस्कृत में मेहमानों को अतिथि देवो भव के रूप में वर्णित किया गया है।

सारी टूरिज्म इंडस्ट्री, होटल इंडस्ट्री, और हवाई यात्रा इंडस्ट्री मेहमान नवाजी के आधारभूत सिद्धांत पर टिकी हुई है।  बड़े-बड़े विज्ञापन देकर मेहमान बुलाए जाते हैं उनकी खूब खातिरदारी की जाती है, और उनसे भरपूर वसूली की जाती है। मजे की बात है कि इस अपनेपन से मेहमान खुशी खुशी लुट कर भी और खुश होता है। ठीक वैसे ही जैसे साधु संतों के आश्रम में या मंदिर में दान कर के भी भक्त खुश होते हैं।

बड़े राजनीतिक स्तर पर मेहमान नवाजी को डिनर पॉलिटिक्स कहा जाता है। डिनर की भव्य टेबल पर पहुंचने तक रेड कार्पेट से होकर मेहमान को गुजारा जाता है। उसके स्वागत में कसीदे पढ़े जाते हैं। डिनर के साथ संगीत और संस्कृति का प्रदर्शन होता है।मेहमान भले ही दो निवाले ही खाता है किंतु उस भोज की व्यवस्था में बड़े-बड़े अधिकारी जी जान से लगे होते हैं। क्योंकि मेहमान की खुशमिजाजी पर ही उससे मिलने वाली गिफ्ट निर्भर होती है। कई बार तो सीधे तौर पर भले ही कोई लेन-देन ना हो किंतु कितना बड़ा मेहमान किसके साथ बैठकर कितनी आत्मीयता से बातें करता है,  यही बात राष्ट्रीय सम्मान की या  व्यक्ति के सम्मान की  द्योतक बन जाती  है। मेहमान के कद से रुतबा बढ़ता है।

बारात खूब मेहमान नवाजी करती है और लौटते हुए दुल्हन साथ ले आती है। गावों में या मोहल्ले में किसके घर किसकी उठक बैठक है, इससे उस व्यक्ति की हैसियत का अंदाजा लगाया जाता है, शादी ब्याह तय करने में, खेत खलिहान की खरीदी बिक्री में यह रूतबा बडा महत्वपूर्ण होता है।शायद  इसलिए ही मेहमान को देवता तुल्य कहा गया होगा।

मेहमान भी भांति भांति के होते हैं कुछ लोग बड़े ठसियल किस्म के मेहमान होते हैं जो तू मान ना मान मैं तेरा मेहमान वाले सिद्धांत पर ही निर्वाह करते हैं। मेरे एक मित्र तो अपने परिचय का दायरा ही इसिलिये इतना बड़ा रखते हैं कि जब भी वह किसी दूसरे शहर में जाएं तो उन्हें होटल में रुकने की आवश्यकता ना पड़े। कोई न कोई मित्र उनके मोबाईल में ढूंढ़ कर वे निकाल ही लेते हैं, जो उन्हें स्टेशन से ले लेता है और मजे से दो एक दिनों की मेहमानी करवा कर स्टेशन तक वापस छोड़ भी देता है।

तो परिचय का प्रेम व्यवहार का दायरा बढ़ाते रहिये, मेहमान नवाजी कीजिये, करवाइये।

अतिथि देवो भव।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 71 – चतुराई धरी रह गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक लघुकथा  “चतुराई धरी रह गई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 71☆

☆ चतुराई धरी रह गई ☆

चतुरसिंह के पिता का देहांत हो चुका था. उस ने अपने छोटे भाई कोमलसिंह को बंटवारा करने के लिए बुलाया, “बंटवारे के पहले खाना खा लेते है.” खाने परोसते हुए चतुरसिंह ने कोमलसिंह से कहा.

कोमलसिंह ने जवाब दिया, “ भैया ! बंटवारा आप ही कर लेते. मुझे अपना हिस्सा दे देते. बाकि आप रख लेते. मुझे बुलाने की क्या जरुरत थी ?”

“नहीं भाई. मै यह सुनना बरदाश्त नहीं कर सकता हूँ कि बड़े भाई ने छोटे भाई का हिस्सा मार लिया,” कहते हुए चतुरसिंह ने भोजन की दो थाली परोस कर सामने रख दी.

एक थाली में मिठाई ज्यादा थी. इस वजह से वह थाली खालीखाली नजर आ रही थी. दूसरी थाली में पापड़, चावल, भुजिए ज्यादा थे. वह ज्यादा भरी हुई नज़र आ रही थी. मिठाई वाली थाली में दूधपाक, मलाईबरफी व अन्य कीमती मिठाइयाँ रखी थी.

“जैसा भी खाना चाहो, वैसी थाली उठा लो,” चतुरसिंह ने कहा, वह यह जानना चाहता था कि बंटवारे के समय कोमलसिंह किस बात को तवज्जो देता है. ज्यादा मॉल लेना पसंद करता है या कम.

चूँकि कोमलसिंह को मीठा कम पसंद था. इसलिए उस ने पापड़भुजिए वाली थाली उठा ली, “भैया मुझे यह खाना पसंद है,” कहते हुए कोमलसिंह खाना खाने लगा.

चतुरसिंह समझ गया कि कोमलसिंह को ज्यादा माल चाहिए. वह लालची है. इस कारण  उस ने ज्यादा खाना भरी हुई थाली ली है. इसे इस का मज़ा चखाना चाहिए. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने बंटवारे के लिए नई तरकीब सोच ली.

खाना खा कर दोनों भाई कमरे में पहुंचे. चतुरसिंह ने घर के सामान के दो हिस्से कर रखे थे.

“इन सामान में से कौनसा सामान चाहिए ?” चतुरसिंह ने सामने रखे हुए सामान की ओर इशारा किया.

एक ओर फ्रीज़, पंखें, वाशिंग मशीन रखी थी. दूसरी ओर ढेर सारे बरतन रखे थे. चुंकि कोमलसिंह के पास फ्रीज़, पंखे,वाशिंग मशीन थी. उस ने सोचा कि भाई साहब के पास यह चीज़ नहीं है. इसलिए ये चीज़ भाई साहब के पास रहना चाहिए.

यह सोचते हुए कोमलसिंह ने बड़े ढेर की ओर इशारा कर के कहा, “मुझे यह बड़ा वाला ढेर चाहिए.”

चतुरसिंह मुस्कराया, “ जैसी तेरी मरजी. यूँ मत कहना कि बड़े भाई ने बंटवारा ठीक से नहीं किया,” चतुरसिंह अपनी चतुराई पर मंदमंद मुस्कराता हुआ बोला. जब कि वह जानता था कि उसे ज्यादा कीमती सामान प्राप्त हुआ है.

कोमलसिंह खुश था. वह अपने बड़े भाई की मदद कर रहा था.

“अब इन दोनों ढेर में से कौनसा ढेर लेना पसंद करोगे ?” चतुरसिंह ने अपने माता की जेवरात की दो पोटली दिखाते हुए कहा.

कोमलसिंह ने बारीबारी दोनों पोटली का निरिक्षण किया, एक पोटली भारी थी, दूसरी हल्की व छोटी. उस ने सोचा कि चतुरसिंह बड़े भाई है. इसलिए उन्हें ज्यादा हिस्सा चाहिए.

“भैया ! आप  बड़े है. आप का परिवार बड़ा है, इसलिए आप बड़ी पोटली रखिए,” कोमलसिंह ने छोटी पोटली उठा ली, “यह छोटी पोटली मेरी है.”

“नहीं नहीं भाई, तुम बड़ी पोटली लो, “ चतुरसिंह ने बड़ी पोटली कोमलसिंह के सामने रखते हुए कहा.

“नहीं भैया, आप बड़े है, बड़ी चीज़ पर आप का हक बनता है,” कहते हुए कोमलसिंह ने छोटी पोटली रख ली.

चतुरसिंह चकित रह गया. उस ने बड़ी पोटली में चांदी के जेवरात रखे थे. छोटी पोटली में सोने के जेवरात थे. वह जानता था कि कोमलसिंह लालच में आ कर बड़ी पोटली लेगा. जिस में उस के पास चांदी के जेवरात चले जाएँगे और वह सोने के जेवरात ले लेगा.

मगर, यहाँ उल्टा हो गया था.

अब की बार चतुरसिंह ने चतुराई की, “ कोमलसिंह इस बार तू बंटवारा करना.  नहीं तो लोग कहेंगे कि बड़े भाई ने बंटवारा कर के छोटे भाई को ठग लिया, “ चतुरसिंह ने कोमलसिंह को ठगने के लिए योजना बनाई .

कोमलसिंह कोमल ह्रदय था. वह बड़े भाई साहब का हित चाहता था. बड़े भाई के ज्यादा बच्चे थे. इसलिए वह चाहता था कि जमीन का ज्यादा हिस्सा बड़े भाई साहब को मिले. इसलिए वह चतुरसिंह को अपने पैतृक घर पर ले गया.

“भाई साहब ! यह अपने पैतृक मकान है. पिताजी ने आप के जाने के बाद इसे बनाया था,” कोमलसिंह ने कहा.

चतुरसिंह ने देखा कि एक ओर दो मकान और तीन मंजिल भवन खड़ा है, दूसरी ओर एक दुकान के पास से अन्दर जाने का गेट है. यानि एक ओर बहुमंज़िल भवन के साथ दो दुकान बनी हुई थी. दूसरी ओर एक दुकान और पीछे जाने का गेट था.

चतुरसिंह नहीं चाहता था कि जेवरात की तरह ठगा जाए इसलिए उस ने कहा, “ कोमलसिंह तुम ही बताओ. मुझे कौनसा हिस्सा लेना चाहिए ?”

“ भाई साहब, मेरी रॉय में तो आप दूसरा हिस्सा ले लेना चाहिए,” कोमलसिंह ने कहा तो चतुरसिंह चकित रह गया.

छोटा भाई हो कर बड़े भाई को ठगना चाहता है. खुद बहुमंजिल मकान और दो दुकान हडप करना चाहता है. मुझे एक दुकान और छोटा सा बाड़ा देना चाहता है. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमलसिंह, मेरा परिवार बड़ा है, इसलिए मै चाहता हूँ कि यह बहुमंजिल मकान वाला हिस्सा में ले लूँ.”

इस पर कोमलसिंह ने कहा, “ भैया ! आप हिस्सा लेने से पहले यह दूसरा हिस्सा देख ले.” कोमलसिंह ने चतुरसिंह से कहा. वह चाहता था कि बड़े भाई को ज्यादा हिस्सा मिलें. क्यों कि दूसरे हिस्से के अंदर १० मकान और लंबाचौडा खेत था, साथ ही बहुत सारे मवेशी भी थे.

मगर, चतुरसिंह ने सोचा कि छोटा भाई उसे ठगना चाहता है. इसलिए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमल, मुझे कुछ नहीं देखना है, यह दूसरा हिस्सा तेरे रहा, पहला हिस्सा मेरे पास रहेगा.”

“भैया ! एक बार और सोच लो,” कोमलसिंह ने कहा , “ आप को ज्यादा हिस्सा चाहिए, इसलिए आप यह दूसरा हिस्सा ले लें.”

चतुरसिंह जानता था कि खाली जमीन के ज्यादा हिस्से से उस का यह बहुमंजिल मकान अच्छा है. इसलिए उस ने छोटे भाई की बात नहीं मानी. सभी पंचो के सामने अपनेअपने हिस्से का बंटवारा लिख लिया.

“भैया. एक बार मेरा हिस्सा भी देख लेते,” कहते हुए कोमलसिंह चतुरसिंह को अपना हिस्सा दिखने के लिए दुकान के पास वाले गेट से अंदर गया.

आगेआगे कोमलसिंह था, पीछेपीछे चतुरसिंह चल रह था. जैसे ही वे गेट के अंदर गए, उन्हें गेट के पीछे लम्बाचौड़ा खेत नजर आया. सामने की तरफ १० भवन बने हुए था. कई मवेशी चर रहे थे.

यह देख कर चतुरसिंह दंग रह गया, “कोमल यह हिस्सा पापाजी ने कब खरीदा था ?”

“ भैया ! आप के जाने के बाद,” कोमलसिंह ने बताया, “ इसीलिए मै आप से कहा रहा था कि आप बड़े है, आप को बड़ा हिस्सा चाहिए, मगर, आप माने नहीं,”

मगर, अब चतुरसिंह क्या करता ? उस की चतुराई की वजह से वह स्वयम ठगा जा चुका था. वह चुप हो गया.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-09-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 46 ☆ जुगाड़ की जननी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “जुगाड़ की जननी”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 46 – जुगाड़ की जननी ☆

इसी जद्दोजहद में जीवन बीता जा रहा है कि सम्मान कैसे मिले। सड़क पर लगे हुए बैनर मुँह चिढ़ाते हैं। कि देखो जिनके साथ तुम उठना – बैठना पसंद नहीं करते थे वो कैसे यहाँ बैठकर  तुम्हें घूर रहे हैं। शहर के सारे नेता अपना कार्य छोड़ कर इस बैनर में बैठकर आने – जाने वालों की निगरानी कर रहे हैं।

विज्ञापनों की भरमार के बहुत से होर्डिंग चौराहों की शोभा बढ़ाते हैं। हीरो – हीरोइन वाले पोस्टर अब कोई नहीं देखता।

कुछ पोस्टर, बैनर, प्रेरणादायक होते हैं, जिन्हें देखकर कार्य करने की इच्छा जाग्रत होती है। जब आपकी फ़ोटो और नाम उसमें अंकित हो तो आपमें अहंकार का भाव अनायस ही उत्पन्न हो जाता है। परंतु यदि आप बैनर से नदारत हैं तब तो मानो ऐसा लगता है कि किसी ने सोए हुए शेर को जगा दिया हो। आप दहाड़ते हुए अपनी माँद से निकल कर पूरे परिवेश को अशांत कर देते हैं।

आखिर नए छोकरों की इतनी हिम्मत कि मुझे नजरअंदाज करे, तभी छठी इन्द्रिय कह उठती है, जरूर ये साजिश किसी ऊँचे स्तर पर हुई है। आखिर मेरे व्यक्तित्व की चकाचौंध को कौन नहीं जानता। मेरे प्रभाव को कम करने की हिम्मत करने वाले को राह से बेराह करना ही होगा। कैसे प्रभाव बढ़ाया जाए ये चिंतन ही नए कार्यों की रूप रेखा तैयार कर देता है। आवश्यकता ही अविष्कार जी जननी है, लगता है ये कथन ऐसे ही मौकों के लिए बनाया गया है। बस अब शुरुआत होती है अपनी अवश्यकता को सोचने और समझने की। यदि व्यक्ति बुद्धिमान है तो जोड़- तोड़ के सैकड़ों उपाय ढूढ़ते हुई आखिर में, सम्मान पाने का अविष्कार कर ही लेता है।

मन ही मुस्कुराते हुए वो भगवान धन्यवाद कहता है। और सोचता है अच्छा ही हुआ जो पोस्टर के कोने तक में जगह नहीं मिली। अब मैं अपना व्यक्तिगत पोस्टर बनवाउंगा और इन सारे लोगों से प्रचार – प्रसार करवाऊंगा, बड़े आए मुझे रास्ते से हटाने वाले।

अब तो जुगाड़ूराम का डंका चहुँओर बजने लगा, हर बार कोई नई स्कीम लॉंच करते और पोस्टर पर चिपके हुए मुस्कान बिखरते।  उन्हें वही फीलिंग होती मानो वे सरकार बदलने का माद्दा रखते हों, जैसे छोटे क्षेत्रीय दल या निर्दलीय विधायक ही, गठबंधन सरकार को अपने काबू में रखते हैं। सरकार बदलने की शुरुआत छोटे स्तर से ही शुरू होती है। कहते हैं अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता पर ये क्या? यहाँ तो थोथा चना बजे घना भी घनघना उठता है,और अपने लिए एक कुर्सी का जुगाड़ करके ही मानता है। इस चक्कर में देशवासियों का भले ही घनचक्कर बन जाए पर वे तो सत्ता की बागडोर अकेले ही लेकर चलेंगे। और टुकड़े- टुकड़े के लिए जनता के हितों का भी टुकड़ा करने से नहीं हिचकेंगे।

तभी अंतरात्मा से आवाज आती है कि हर युग में कर्म ही प्रमुख रहा है, आप की पूछ – परख यदि कम हो रही है तो इसका अर्थ है आपकी उपयोगिता नहीं बची है। आप कार्य पर ध्यान दीजिए, स्वयं को समय के अनुसार अपडेट करते चलें, कोई नयी योजना पर कार्य करते हुए पुनः सफलता का परचम फहराएँ।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares