हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेरू का मकबरा भाग-1 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित कहानी  “शेरू का मकबरा भाग-1”. इस कृति को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता, पुष्पगंधा प्रकाशन,  कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा जनवरी 2020मे स्व0 संतोष गुप्त स्मृति सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है। इसके लिए श्री सूबेदार पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – शेरू का मकबरा भाग-1 

दो शब्द रचना कार के – यों  तो मानव जाति का जब से ‌जन्म हुआ और सभ्यता विकसित होने से पूर्व पाषाण‌काल से ही मानव तथा पशु पक्षियों के संबंधों पर‌ आधारित कथा कहानियां कही सुनी जाती रही‌ हैं। अनेक प्रसंग पौराणिक कथाओं मे कथा  के अंश रुप मे विद्यमान रहे  है तथा यह सिद्ध करने में कामयाब रहे हैं कि कभी मानव अपनी दैनिक आवश्यकताओं  की पूर्ति के लिए पशु पक्षियों पर निर्भर था। जिसके अनेक प्रसंग रामायण महाभारत तथा अन्य काव्यों में वर्णित है चाहे जटायु का अबला नारी की रक्षा का प्रसंग हो अथवा महाभारतकालीन कथा प्रसंग।हर प्रसंग अपनी वफादारी की चीख चीख कर दुहाई देता प्रतीत होता है।

इसी कड़ी में हम अपने पाठकों के लिए लाये हैं एक सत्य घटना पर आधारित पूर्व प्रकाशित रचना जो इंसान  एवम जानवरों के संबंधों के संवेदन शीलता के दर्शन कराती है। आपसे अनुरोध है कि अपनी प्रतिक्रियाओं से अवश्य‌ ही अवगत करायेंगे। आपकी निष्पक्ष समालोचना हमें साहित्य के क्षेत्र में निरंतर कुछ नया करने की प्रेरणा देती हैं।

पूर्वांचल का एक ग्रामीण अंचल, बागों के पीछे झुरमुटों के ‌बीच बने मकबरे को शेरू बाबा के मकबरे के रुप में पहचानां जाता है। उस स्थान के बारे में एक किंवदंती प्रचलित है कि संकट से जूझ रहे ‌हर प्राणी के जीवन की रक्षा शेरू बाबा‌ करते है और वे सबकी मुरादें पूरी करते हैं। हृदय में बैठा यही विश्वास व भरोसा आम जन मानस को प्रतिवर्ष श्रावण पूर्णिमा के दिन शेरू बाबा के मकबरे ‌की ‌ओर खींचे लिए चला जाता है और श्रावण पूर्णिमा को उस मकबरे पर बडा़ भारी मेला लगता है।

आज श्रावणी पर्व का त्योहार है।  गाँव जवार के सारे बूढ़े‌ बच्चे नौजवान क्या हिन्दू क्या मुसलमान, सारे के सारे लोग अपने अपने दिल में अरमानों की माला संजोए मुरादों के ‍लिये‌ झोली फैलाए शेरू‌बाबा‌‌ के मुरीद बन उनके ‌दरबार मे हाजिरी लगाने को तत्पर दीखते रहे हैं। मकबरे की पैंसठवीं वर्षगांठ मनाई जा रही‌ है। मेला अपने पूरे शबाब ‌पर है। कहीं पर नातों कव्वालियों का ज़ोर है, तो कहीं भजनों कीर्तन का शोर। हर तरफ आज बाबा की शान में कसीदे पढ़ें जा रहें हैं।

आज कोई खातून‌ बुर्के के पीछे से झांकती दोनों आंखों में सारे ‌जहान का दर्द लिए दोनों हाथ ऊपर उठाये अपने लाचार एवम् बीमार शौहर के ‌जीवन की भीख‌ मांग रही है। तो वहीं कोई बुढ़िया माई‌ अपने‌ हाथ जोड़े, सिर को झुकाये इकलौते  सैनिक बेटे ‌की सलामती की दुआ मांग रही है। वहीं पर कई प्रेमी जोड़े हाथों में हाथ डाले पूजा की थाली उठाये शेरू बाबा के नाम को साक्षी मान साथ साथ जीने मरने  कसमें ‌खाते दिख रहे हैं।

इन्ही चलने वाले क्रिया कलापों के ‌बीच सहसा अक्स्मात मेरे जेहन में शेरू बाबा की आकृति  सजीव हो उठती है। और उसके साथ बिताए ‌पल चलचित्र की तरह स्मृतियों में घूमने लगते है। मैं खो जाता हूं ‌उन बीते पलों में और तभी वे पल मेरी लेखनी से ‌कहानी‌ बन फूट पड़ते हैं तथा शेरू के त्याग एवम् ‌बलिदान की गाथा उसे अमरत्व प्रदान करती‌ हुई पुराणों में तथा पंच तंत्र में वर्णित पशु पक्षियों की ‌गौरव गाथा बन मानवेत्तर संबंधों का मूल आधार तय करती दिखाई देती है। मैं एक बार फिर लोगों को सत्य घटना पर आधारित ‌शेरू का जीवनवृत्त सुनाने पर विवश हो जाता हूँ।

वो जनवरी का महीना, जाड़े की सर्दरात का नीरव वातावरण,कुहरे की चादर से लिपटी घनी अंधेरी काली रात का प्रथम प्रहर, सन्न सन्न चलती शीतलहर, मेरे पांव गांव से बाहर सिवान में बने खेतों के बीच पाही पर बने कमरे की तरफ बढे़  चले जा रहे थे, कि सहसा मेरे कानों से किसी‌ श्वान शावक के दर्द में ‌डूबी कूं -कूं की‌ आवाज टकराई, जिसनें मेरे आगे बढ़ते क़दमों को‌ थाम‌ लिया। टार्च की पीली रोशनी में उसकी दोनों बिल्लौरी आंखें ‌चमक उठी। मुझे ऐसा लगा जैसे उसे अभी अभी कोई उसे उस स्याह‌ रात में बीच सड़क पर ठंढ़ में मरनें के लिए छोड़ गया हो।

उस घनी काली रात में जब उसे आस-पास किसी मानव छाया के होने का एहसास हुआ तो वह मेरे पास आ गया और मेरे पांवों को चाटते हुए, अपने अगले पंजों को मेरे पांवों पर रख लोटनें पूंछ हिलाने तथा कूं कूं की आवाजें लगाया था ऐसा लगा जैसे वह मुझसे अपने स्नेहिल व्यवहार का प्रति दान मांग रहा हो। अब उसके पर्याय ने मेरे आगे बढ़ते कदमों को थाम लिया था।

मैं उस अबोध छोटे से श्वानशावक का प्रेम निवेदन ठुकरा न सका था। मैंने सारे संकोच त्यागकर उस अबोध बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया तथा उसे कंधे से चिपकाते पुनः घर को लौट पड़ा था। वह भी उस भयानक ठंढ़ में मानव तन की गर्मी एवम् पर्याय का प्रतिदान पा किसी अबोध बच्चे सा कंधे पर सिर चिपकाये टुकुर टुकुर ताक रहा था। यदि सच कहूं तो उस दिन मुझे उस बच्चे से अपने किसी सगे संबंधी जैसा लगाव हो गया था।

उस दिन घर-वापसी में मेरे घर के आगे अलाव तापते मुझे देखा तो उन्होने बिना मेरी भावनाओं को समझे मेरे उस कृत्रिम की हंसी‌ उड़ाई थी। उस समय मेरी दया करूणा तथा ममता उनके उपहास का शिष्य बन गई थी। लेकिन मैं तो मैं ठहरा बिना किसी की बात की परवाह किए सीधे रसोई घर में घुस गया और कटोरा भर दूध रोटी खिला उस शावक का पेट भर दिया।  उसे अपने साथ पाही पर टाट के बोरे में लपेट अपने पास‌ ही सुला दिया। वह तो गर्मी का एहसास होते ही सो गया।

उसके चेहरे का भोलापन तथा अपने पंजों से‌ मेरे पांवों को कुरेद कुरेद रोकना मेरे दिल में उतर चुका था। उस रात को मैं ठीक से पूरी तरह सो नहीं सका था। मैं जब भी उठ कर उसके चेहरे पर टार्च की रोशनी फेंकता तो उस अपनी तरफ ही टुकुर टुकुर तकते पाता। मानों वह मौन होकर मुझे मूक धन्यवाद दे रहा हो।

मैं सारी ‌रात जागता रहा था। भोर में ही सो पाया था। मैं काफी देर से सो कर उठा था।  लेकिन जब उठा तो उसे दांतों से मेरा ओढ़ना खींचते खेलते पाया था।

मैं जैसे ही उठ कर खड़ा हुआ तो वह फिर मेरे पांव से लिपटने खेलने-कूदने लगा था। इस तरह उसका खेलना मुझे बड़ा भला लगा था। जब मैं घर की ओर चला तो वह भी पीछे पीछे दौड़ता हुआ घर आ गया था। मात्र कुछ ही दिनों में वह घर के हर प्राणी का चहेता तथा दुलारा बनाया था ।बाल मंडली का तो वह खिलौना ही बन गया था। वह बड़ा ही आज्ञाकारी तेज दिमाग जीव था। वह लोगों के इशारे खूब समझता और मुझसे तो उसका बड़ा विशिष्ट प्रेम था। घर की बालमंडली ने उसे शेरू नाम दिया था।

—– क्रमशः भाग 2

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 12☆ ‘सांसों के संतूर’ – आचार्य भगवत दुबे – मेरी प्रिय कृति ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  के सहकर्मी प्रतिष्ठित साहित्यकार  आचार्य भगवत दुबे जी द्वारा  लिखित सांसों के संतूर पर उनके विचार ।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  के  काव्य  विमर्श को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 12 ☆

☆ ‘सांसों के संतूर’ – आचार्य भगवत दुबे – मेरी प्रिय कृति ☆

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आचार्य भगवत दुबे

मेरे प्रिय सहकर्मी आचार्य भगवत दुबे जी एक प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं । स्वभाव से सरल स्नेहिल व मृदुभाषी व्यक्ति हैं ।

उनकी 30 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं । वे सभी सुरुचिपूर्ण और आनंद प्रद हैं । दुबे जी समाजसेवी भी हैं अनेकों साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं और निर्धारित तिथियों में कई समारोह भी आयोजित करते रहते हैं ।

Sanso ke Santoor by Acharya Bhagwat Dubey by [Dubey, Acharya Bhagwat]उनका लेखन विभिन्न विषयों पर तथा विभिन्न साहित्यिक विधाओं में हैं। मैंने उनकी कुछ पुस्तकें पढ़ी हैं । सांसों के संतूर दोहा छंद में लिखित उनकी एक सारगर्भित कृति है, जिसमें कवि की दूर दृष्टि तथा सामाजिक दोषों को दूर करने की पावन भावना परिलक्षित होती है । दोहा एक ऐसा छंद है जिसमें थोड़े शब्दों में मन की गहन अभिव्यक्ति व्यक्त करने की क्षमता है ।

पुराने अनेकों कवियों ने इसी में भक्ति और आध्यात्मिक भावनाओं को प्रकट किया है । कवि भगवत दुबे जी ने अपनी इस पुस्तक में सरल सार्थक शब्दों में समाज के विभिन्न क्षेत्रों की बुराइयों को सुधारने की दृष्टि से अपने पवित्र मनोभावना दर्शाई है । यह पुस्तक मुझे बहुत अच्छी लगी । साहित्यिक रचना कैसी हो, उनके मनोभाव सुनें

काव्य वही जिसमें रहे सरस रूप रस गन्ध

अगर नहीं तो व्यर्थ है नीरस काव्य प्रबंध

उन्होंने इसी शर्त का अपनी समस्त रचनाओं में निर्वाह किया है । मेरे कथन की पुष्टि में उनके कुछ भावपूर्ण दोहों का मधुर आनंद लीजिए

जीते जी ना कर सकी जो मां गोरस पान

करते उसकी मृत्यु पर पंचरत्न गोदान

 

माता तेरी गोद में सुख है स्वर्ग समान

फिर से बनना चाहता मैं बच्चा नादान

 

आज की सामाजिक दशा पर वे लिखते हैं

ज्ञान बुद्धि से हो गया बड़ा बाहुबल आज

गुंडों से भयभीत है सारा सभ्य समाज

 

रुग्ण हुई सद्भावना बदल गए आदर्श

बहुत घिनौना हो गया सत्ता का संघर्ष

 

ग्रामीण और शहरी व्यवहार में अंतर पर वे लिखते हैं

भिक्षुक अब भी गांव में पाते आटा दाल
शहरों में तो डांट कर देते उन्हें हकाल

पूरी पुस्तक में ऐसे ही हृदय को छूने वाले दोहे हैं ।

अपनी भावना को भी मैं एक दोहे में प्रकट कर अपने प्रिय कवि का अभिनंदन करता हूँ

भगवत जी की लेखनी तीक्ष्ण कुशल गुणवान

पाठक मन की चाह का रखती पूरा ध्यान

उन से और भी ऐसी रचनाओं की प्राप्ति की कामना सहित

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 66 ☆ शक्तिपर्व नवरात्रि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच –  शक्तिपर्व नवरात्रि ☆

शक्तिपर्व नवरात्रि आज से आरंभ हो रहा है। शास्त्रोक्त एवं परंपरागत पद्धति के साथ-साथ इन नौ संकल्पों के साथ देवी की उपासना करें। निश्चय ही दैवीय आनंद की प्राप्ति होगी।

  1. अपने बेटे में बचपन से ही स्त्री का सम्मान करने का संस्कार डालना देवी की उपासना है।
  2. घर में उपस्थित माँ, बहन, पत्नी, बेटी के प्रति आदरभाव देवी की उपासना है।
  3. दहेज की मांग रखनेवाले घर और वर तथा घरेलू हिंसा के अपराधी का सामाजिक बहिष्कार देवी की उपासना है।
  4. स्त्री-पुरुष, सृष्टि के लिए अनिवार्य पूरक तत्व हैं। पूरक न्यून या अधिक, छोटा या बड़ा नहीं अपितु समान होता है। पूरकता के सनातन तत्व को अंगीकार करना देवी की उपासना है।
  5. स्त्री को केवल देह मानने की मानसिकता वाले मनोरुग्णों की समुचित चिकित्सा करना / कराना भी देवी की उपासना है।
  6. हर बेटी किसीकी बहू और हर बहू किसीकी बेटी है। इस अद्वैत का दर्शन देवी की उपासना है।
  7. किसीके देहांत से कोई जीवित व्यक्ति शुभ या अशुभ नहीं होता। मंगल कामों में विधवा स्त्री को शामिल नहीं करना सबसे बड़ा अमंगल है। इस अमंगल को मंगल करना देवी की उपासना है।
  8. गृहिणी 24×7 अर्थात पूर्णकालिक सेवाकार्य है। इस अखंड सेवा का सम्मान करना तथा घर के कामकाज में स्त्री का बराबरी से या अपेक्षाकृत अधिक हाथ बँटाना, देवी की उपासना है।
  9. स्त्री प्रकृति के विभिन्न रंगों का समुच्चय है। इन रंगों की विविध छटाओं के विकास में स्त्री के सहयोगी की भूमिका का निर्वहन, देवी की उपासना है।

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।

? शारदीय नवरात्रि की हार्दिक मंगलकामनाएँ ?

 

© संजय भारद्वाज

(लेखन-10.10.2018)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 66 ☆ अहं बनाम अहमियत ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख  अहं बनाम अहमियत।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 66 ☆

☆ अहं बनाम अहमियत 

अहं जिनमें कम होता है, अहमियत उनकी ज़्यादा होती है… यह कथन कोटिशः सत्य है। जहां अहं है, वहां स्वीकार्यता नहीं; केवल स्वयं का गुणगान होता है, जिसके वश में होकर इंसान केवल बोलता है, सुनने का प्रयास नहीं करता, क्योंकि उसमें सर्वश्रेष्ठता का भाव हावी होता है। सो! वह अपने सम्मुख किसी के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। इसका मुख्य उदाहरण हैं… भारतीय समाज के पुरुष, जो पति रूप में पत्नी को स्वयं से हेय समझते हैं,  केवल फुंकारना जानते हैं। बात-बात पर टीका-टिप्पणी करना तथा दूसरे को नीचा दिखाने का एक भी अवसर हाथ से न जाने देना… उनके जीवन का मक़सद होता है। चंद रटे-रटाये वाक्य उनकी विद्वता का आधार होते हैं, जिनका वे किसी भी अवसर पर नि:संकोच प्रयोग कर सकते हैं। वैसे अवसरानुकूलता का उनकी दृष्टि में महत्व होता ही नहीं, क्योंकि वे केवल बोलने के लिए बोलते हैं और  निष्प्रयोजन व ऊल-ज़लूल बोलना उनकी फ़ितरत होती है। उनके सम्मुख छोटे-बड़े का कोई पैमाना नहीं होता, क्योंकि वे अपने से बड़ा किसी को समझते ही नहीं।

हां! अपने अहं के कारण वे घर-परिवार व समाज में अपनी अहमियत खो बैठते हैं। वास्तव में वाक्-पटुता जहां कारग़र होती है; व्यक्ति-विशेष का गुण भी होती है, परंतु आवश्यकता से अधिक किसी भी वस्तु का सेवन हानिकारक होता है। अधिक नमक के प्रयोग से उच्च रक्तचाप व  चीनी से मधुमेह का रोग हो जाता है। वैसे दोनों ला-इलाज रोग हैं। एक बार  इनके चंगुल में फंसने के पश्चात् मानव इनसे आजीवन मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। उसे ता-उम्र  दवाओं का सेवन करना पड़ता है और वे अदृश्य शत्रु कभी भी, उस पर किसी भी रूप में घातक प्रहार कर जानलेवा साबित हो सकते हैं। इसलिए मानव को सदैव अपनी जड़ों से जुड़ाव रखना चाहिए और कभी भी बढ़-चढ़ कर नहीं बोलना चाहिए। यदि हममें विनम्रता का भाव होगा, तो हम बे-सिर-पैर की बातों में नहीं उलझेंगे और मौन को अपना साथी बना यथासमय, यथास्थिति कम से कम शब्दों में अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति करेंगे। बाज़ारवाद का भी यही नियम है कि जिस वस्तु का अभाव होता है, उसकी मांग अधिक होती है। लोग उसके पीछे बेतहाशा भागते हैं और उसे प्राप्त करने को मान- सम्मान का प्रतीक स्वीकार लेते हैं। इसलिए उसे प्राप्त करना उनके लिए स्टेट्स सिंबल ही नहीं, उनके जीवन का लक्ष्य बन जाता है।

आइए! मौन का अभ्यास करें, क्योंकि वह नव- निधियों की खान है। सो! मानव को अपना मुंह तभी खोलना चाहिए, जब उसे लगे कि उसके शब्द मौन से बेहतर हैं, सर्व-हितकारी हैं, अन्यथा मौन रहना ही श्रेयस्कर है। मुझे स्मरण हो रहा है, रहीम जी का दोहा ‘ऐसी वाणी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरन को शीतल करे, खुद भी शीतल होय’ में वे शब्दों की महत्ता व सार्थकता पर दृष्टिपात करते हुए, उनके उचित समय पर प्रयोग करने का सुझाव देते हैं। यह कहावत भी प्रसिद्ध है ‘एक चुप, सौ सुख’ अर्थात् जब तक मूर्ख चुप रहता है, उसकी मूर्खता प्रकट नहीं होती और लोग उसे बुद्धिमान समझते हैं। सो! हमारी वाणी व हमारे शब्द हमारे व्यक्तित्व का आईना होते हैं। इसलिए केवल शब्द ही नहीं, उनकी अभिव्यक्ति की शैली भी उतनी ही अहमियत रखती है। हमारे बोलने का अंदाज़ इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। परंतु यदि आप मौन रहते हैं, तो समस्त जंजालों-बंधनों से मुक्त रहते हैं। इसलिए संवाद जहां हमारी जीवन-रेखा है; विवाद संबंधों में विराम। यह शाश्वत संबंधों में सेंध लगाता है तथा विवाद में व्यक्ति को उचित-अनुचित का लेशमात्र भी ध्यान नहीं रहता। अहंनिष्ठ मानव केवल प्रत्युत्तर में विश्वास करता है। इसलिए विवाद उत्पन्न होने की स्थिति में मानव के लिए चुप रहना ही कारग़र होता है। इस विषम परिस्थितियों में जो मौन रह जाता है, उसी की अहमियत बनी रहती है, क्योंकि गुणी व्यक्ति ही मौन रहने में बार-बार गौरवानुभूति अनुभव करता है। अज्ञानी तो वृथा बोलने में अपनी महत्ता स्वीकारता है। परंतु विद्वान व्यक्ति मूर्खों के बीच बोलने का अर्थ समझता है, जो भैंस के सामने बीन बजाने के समान होता है। ऐसे लोगों का अहं उन्हें मौन नहीं रहने देता और वे प्रतिपक्ष को नीचा दिखाने के लिए बढ़-चढ़ कर शेखी बखानते हैं।

सो! जीवन में अहमियत के महत्व को जानना अत्यंत आवश्यक है। अहमियत से तात्पर्य है, दूसरे लोगों द्वारा आपके प्रति स्वीकार्यता भाव अर्थात् जहां आपको अपना परिचय न देना पड़े तथा आप के पहुंचने से पहले लोग आपके व्यक्तित्व व कार्य- व्यवहार से परिचित हो जाएं। कुछ लोग किस्मत में दुआ की तरह होते हैं, जो तक़दीर से मिलते हैं। ऐसे लोगों की संगति से ज़िंदगी बदल जाती है। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो हमें दुआ के रूप में मिलते हैं, और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं, जो किस्मत बदल देते हैं। ऐसे लोगों की संगति मिलने से मानव की तक़दीर बदल जाती है और लोग उनकी संगति पाकर स्वयं को धन्य समझते हैं।

रिश्ते वे होते हैं, जिनमें शब्द कम, समझ ज़्यादा हो/ तक़रार कम, प्यार ज़्यादा हो/आशा कम, विश्वास ज़्यादा हो…यह केवल बुद्धिमान लोगों की संगति से प्राप्त हो सकता है, क्योंकि वहां शब्दों का बाहुल्य नहीं होता है, सार्थकता होती है। तक़रार व उम्मीद नहीं, प्यार व विश्वास होता है। ऐसे लोग जीवन में वरदान की तरह होते हैं, जो सबके लिए शुभ व कल्याणकारी होते हैं। इसी संदर्भ में मैं कहना चाहूंगी कि मित्र, पुस्तक, रास्ता व विचार यदि गलत हों, तो जीवन को गुमराह कर देते हैं और सही हों, तो जीवन बना देते हैं। वैसे सफल जीवन के चार सूत्र हैं… मेहनत करें, तो धन बने/ मीठा बोले, तो पहचान/ इज़्ज़त करें, तो नाम/ सब्र करें, तो काम।’ दूसरे शब्दों में अच्छे मित्र, सत्साहित्य, उचित मार्ग व अच्छी सोच हमें उन्नति के शिखर पर पहुंचा देती है, वहीं इसके विपरीत हमें सदैव पराजय का मुख देखना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है कि परिश्रम, मधुर वाणी, पर-सम्मान, व सब्र अर्थात् धैर्य रखने से व्यक्ति अपनी मंज़िल पर पहुंच जाता है। इसलिए सकारात्मक बने रहिए, अहंनिष्ठता का त्याग कीजिए, मधुर वाणी बोलिए व सबका सम्मान कीजिए। ये वे श्रेष्ठ साधन हैं, जो हमें अपनी मंज़िल तक पहुंचाने में सोपान का कार्य करते हैं। सो! सुख अहं की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की… दोनों स्थितियों में उत्तीर्ण होने वाले का जीवन सफल होता है। इसलिए सुख में अहं को अपने निकट न आने दें और दु:ख में धैर्य बनाए रखें… यही आपके जीवन की पराकाष्ठा है।

परंतु घर-परिवार में यदि पुरूष अर्थात् पति, पिता व पुत्र अहंनिष्ठ हों, अपने-अपने राग अलापते हों और दूसरे के अस्तित्व को नकारना, अपमानित व प्रताड़ित करना, मात्र उनके जीवन का उद्देश्य हो, तो सामंजस्यता स्थापित करना कठिन हो जाता है। जहां पति हर-पल यही राग अलापता रहे कि ‘मैं पति हूं, तुम मेरी इज़्ज़त नहीं करती, अपनी-अपनी हांकती रहती हो। इतना ही नहीं, जहां उसे हर पल उसे नीचा दिखाने का उपक्रम अर्थात् हर संभव प्रयास किया जाए, वहां शांति कैसे निवास कर सकती है? पति-पत्नी का संबंध समानता पर आश्रित है। यदि वे दोनों एक-दूसरे की अहमियत को स्वीकारेंगे, तो ही जीवन रूपी गाड़ी सुचारू रूप से आगे बढ़ सकेगी, अन्यथा तलाक़ व अलगाव की गणना में निरंतर इज़ाफा होता रहेगा। हमें संविधान की मान्यताओं को स्वीकारना होगा, क्योंकि कर्तव्य व अधिकार अन्योन्याश्रित हैं। यदि अहमियत की दरक़ार है, तो अहं का त्याग करना होगा; दूसरे के महत्व को स्वीकारना होगा, अन्यथा प्रतिदिन ज्वालामुखी फूटते रहेंगे और इन असामान्य परिस्थितियों में मानव का सर्वांगीण विकास संभव नहीं होगा। जीवन में जितना आप देते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। सो! देना सीखिए तथा प्रतिदान की अपेक्षा मत रखिए। ‘जो तोको कांटा बुवै, तो बुवै ताहि फूल’ के सिद्धांत को जीवन में धारण करें। यदि आप किसी के लिए फूल बोएंगे, तो तुम्हें फूल मिलेंगे, अन्यथा कांटे ही प्राप्त होंगे। जीवन में यदि ‘अपने लिए जिए, तो क्या जिए/ ऐ दिल तू जी ज़माने में, किसी के लिए’ अर्थात् ‘स्वार्थ को त्याग कर, सबका मंगल हो’ की कामना से जीना प्रारंभ कीजिए। अहं रूपी शत्रु को जीवन में पदार्पण न करने दीजिए, ताकि अहमियत अथवा सर्व-स्वीकार्यता बनी रहे। रिश्ते कभी कमज़ोर नहीं होने चाहिएं। यदि एक खामोश है, तो दूसरे को आवाज़ देनी चाहिए। दूसरे शब्दों में संवाद की स्थिति सदैव बनी रहे, क्योंकि इसके अभाव में रिश्तों की असामयिक मौत हो जाती है। इसलिए हमें अहंनिष्ठ व्यक्ति के साये से भी दूर रहना चाहिए, क्योंकि विनम्रता मानव का सर्वश्रेष्ठ आभूषण है तथा अनमोल पूंजी है। इसे जीवन में धारण कीजिए, ताकि जीवन रूपी गाड़ी निरंतर आगे बढ़ती रहे।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 18 ☆ भारतीय राजनीति में अब होगा चुनावी मुद्दों का टोटा ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “ भारतीय राजनीति में अब होगा चुनावी मुद्दों का टोटा)

☆ किसलय की कलम से # 18 ☆

☆ भारतीय राजनीति में अब होगा चुनावी मुद्दों का टोटा☆

 

मानव जीवन में मुद्दे न हों तो श्रम, बुद्धि और क्रियाशीलता का महत्त्व ही कम हो जाएगा। इंसान इच्छा, उद्देश्य, मतलब या मुद्दे जैसे शब्दों को लेकर जिंदगी भर भागदौड़ करता रहता है, फिर भी उसकी जिजीविषा अधूरी ही रहती है। समाज में मानव अपनी मान-प्रतिष्ठा एवं समृद्धि हेतु अलग-अलग मार्ग चुनता है। नौकरी, उद्योग, धंधे, धर्म, राजनीति, सेवाओं के साथ ही विभिन्न नैतिक अथवा अनैतिक कारोबारों के माध्यम से भी अपनी उद्देश्यों की पूर्ति करता है। वैसे तो मुद्दों का सभी क्षेत्रों में महत्त्व है, लेकिन राजनीति के क्षेत्र में कहा जाता है कि मुद्दों की नींव पर ही राजनीति का अस्तित्व निर्भर करता है। मुद्दों पर ही अक्सर सियासत गर्माती है। मुद्दतों से मुद्दों को लेकर बड़े-बड़े उथल-पुथल होते रहे हैं। धर्म स्थापना के मुद्दे पर ही ऐतिहासिक महाभारत युद्ध हुआ था। बदलते समय व परिवेश में ये मुद्दे भी लगातार बदलते गए। हमारे देखते ही देखते भारतीय राजनीति में अनेकानेक मुद्दे छाए और विलुप्त हुए हैं।

आजादी के पश्चात एक लंबे समय तक आजादी का श्रेय लेने वाली कांग्रेस पार्टी को आजादी के श्रेय का लाभ मिलता रहा। देश के दक्षिण में कुछ समय तक हिंदी थोपने का मुद्दा छाया रहा। नसबंदी, आपातकाल, गरीबी हटाओ, महँगाई जैसे सैकड़ों मुद्दे गिनाए जा सकते हैं, जिनकी आग में राष्ट्रीय, प्रादेशिक अथवा क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपनी रोटियाँ सेंकते आए हैं। बेचारी जनता है कि इनके छलावे, बहकावे और झूठे आश्वासनों के जाल में बार-बार फँसती चली आ रही है। जिस दल पर विश्वास किया जाता है, वही दल सत्ता प्राप्त कर अधिकांशतः अपने वायदे पूर्ण नहीं करता। जनहित के अनेकों कार्य पूरे ही नहीं होते।  हाँ, अब तक इतना जरूर हुआ है कि राजनीति करने वालों की अधिकांश जिजीविषाएँ जरूर पूर्ण होती रही हैं। इसका साक्ष्य यही है कि आज भी देश में अगर सबसे समृद्ध और मान-सम्मान वाला वर्ग बढ़ा है तो वह राजनेताओं का वर्ग है। आजकल तो बाकायदा शिक्षा और व्यावहारिक प्रशिक्षण के उपरांत राजनेता अपनी संतानों को अपने इसी पारंपरिक धंधे अर्थात राजनीति में उतारने लगे हैं। पिछले दो-तीन दशक से विभिन्न राजनीतिक मुद्दे हमारे सामने आए हैं। बेरोजगारी, राष्ट्र विकास, स्वच्छता, कालाबाजारी या नोटबंदी के नाम पर पार्टियाँ हारती और जीतती आ रही हैं, और यह सब इसलिए भी होता आया है कि पार्टियाँ जनता के दिलोदिमाग में स्वयं को सबसे बड़ा जनहितैषी सिद्ध करने में कामयाब हो जाती हैं। नेताओं की लच्छेदार बातों एवं वायदों में यदि 50% भी सत्यता होती तो आज हमारा देश जापान, अमेरिका और चीन के समकक्ष खड़ा होता।

तीन दशक से तो हर चुनावों में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से श्रीराम मंदिर निर्माण का मुद्दा उठते दिखा है। इस मुद्दे के विरोध को भी बहुत हवा दी गई। हर पार्टी के प्रत्याशियों को इसका लाभ भी मिला। मौलिक अधिकारों की स्वतंत्रता की आड़ में देश तक को दाव पर लगाने से कई नेता बाज नहीं आते। आज धारा 370, धारा 35ए, तीन तलाक आदि मुद्दों के चलते भारत कहीं एकजुट तो कहीं बँटा हुआ नजर आया। संसद में स्वीकृति के बाद भले ही कुछ लोगों अथवा कुछ पार्टियों को तिलमिलाहट हुई हो, लेकिन समय की नजाकत को देखते हुए अनेक विरोधी दल अथवा पार्टियाँ इन मुद्दों को फिर से उठाने से बच रही हैं। शायद यही सोच है जो इनको चुनावी अखाड़े में इन मुद्दों को आजमाने की इजाजत नहीं देती। स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा और लंबा चलने वाला मुद्दा अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण का रहा है। यह मुद्दा न ही केवल भारत बल्कि संपूर्ण विश्व में चर्चित हुआ। 6 दिसंबर 1992 से 5 अगस्त 2020  अर्थात श्रीराम मंदिर शिलान्यास तक लगभग 29 वर्ष चले इस मुद्दे ने भारतीय राजनीति में उथल-पुथल मचा दी। कई सरकारें गिरीं या बर्खास्त कर दी गईं। संसद की सत्ता परिवर्तन तक इस मुद्दे का कारण बना। श्रीराम मंदिर मुद्दा से कई लोग शून्य से शिखर पर पहुँच गए, कई सेलिब्रिटी बन गए तो कई खलनायक भी बने। अब जब हिंदुओं के आराध्य श्रीराम मंदिर का निर्माण प्रारंभ हो ही गया है, तब हिंदुओं पर पुनः इस मुद्दे को आजमाने का कोई औचित्य ही नहीं बचा। यदि कृतज्ञता-वोट की भी बात की जाए तो भारतीय जनता पिछले 30 वर्ष से अपने मताधिकार द्वारा कृतज्ञता ज्ञापित कर चुकी है। इसलिए अब इन पार्टियों को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि जनता उन्हें पुनः कृतज्ञता के नाम पर वोट देगी। वैसे भी नोटबंदी के बाद महँगाई व कोविड-19 के चलते जनता पहले से ही परेशान है और सच कहा जाए तो जनता अब प्रायोगिक होती जा रही है। राम मंदिर का चुनावी हिसाब-किताब चुकता होने के बाद अब जनता देश में उद्योग, नौकरियाँ और राष्ट्रीय विकास होते देखना चाहती है, जिन पर स्पष्ट, सुदृढ़ और सकारात्मक क्रियान्वयन की भी आवश्यकता है।

इसीलिए अब इतना तो तय है कि भारतीय राजनीति के लिए आने वाले समय में चुनावी मुद्दों का टोटा होगा। हिन्दु विरोधी दलों की बातें उनके ही मतदाता अब सुनने वाले नहीं हैं और न ही अब कृतज्ञता के नाम पर हिन्दु मतदाता वोट देने वाले हैं। कृतज्ञता या विरोध से क्या भला आम जनता का पेट भरेगा? वर्तमान में अब देश के प्रमुख, छोटे या क्षेत्रीय दल सबको एक पारदर्शी सोच, सद्भावना, जनहित और राष्ट्रीय विकास जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों के साथ ईमानदार, कर्मठ और सक्रिय प्रत्याशियों को लेकर चुनावी अखाड़े में उतरना होगा। पुराने अथवा बूढ़े पहलवानों को जिताने के बजाय ऊर्जावान एवं ईमानदार नव युवकों को अवसर दिया जाना चाहिए।

हमारा देश अब अविकसित अवस्था में नहीं है। शिक्षा, जागरूकता, उद्योग, तकनीकि, सैन्य, अंतरिक्ष जैसे विभिन्न क्षेत्रों में बहुत आगे निकल चुका है। लोगों की सोच भी बदली है। अब लोग चार-पाँच दशक पुरानी मानसिकता वाले नहीं 21वीं सदी के प्रायोगिक बन गए हैं। निश्चित रूप से अब आम मतदाताओं को भी अगले चुनाव में बरगलाना टेढ़ी खीर होगा। आज राष्ट्र की स्थिति और राष्ट्र का माहौल बदलता प्रतीत होने लगा है। इसलिए राजनेताओं की कार्यशैली तथा समर्पण भाव में और सुधार की अपेक्षा जनता कर रही है।

आज की परिस्थितियों और जनता की रुचि का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो विश्लेषक भी पाएँगे कि राजनीतिक दलों हेतु निश्चित रूप से अब चुनावी मुद्दों का टोटा पड़ने वाला है। इन परिस्थितियों में सत्ता की उम्मीद अथवा विश्वास रखने वाले दलों को चाहिए कि वे अब अत्यन्त सावधानी और दूरदर्शिता के साथ ऐसे चुनावी मुद्दों का चयन करें, जो उनकी मान-प्रतिष्ठा तो बढ़ाएँ ही, राष्ट्र तथा जनमानस को भी समृद्धि व विकास के मार्ग पर आगे ले जा सकें।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 64 ☆ रेगिस्तान ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक भावप्रवण कविता “रेगिस्तान। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 64– साहित्य निकुंज ☆

☆ रेगिस्तान ☆

मन के रेगिस्तान में

खिलते हैं जब फूल

मन बावरा हो जाता

उडाता है ख़ुशी से धूल ।

बनने लगा सपनों

का महल ।

करना हैं उसे ख़ुशी

से पहल।

रेगिस्तान बरसों से प्यासा रहा।

अब उसकी तड़प को

जाना है प्रकृति ने

बरसों से सुलगी आग की

अब बुझी है प्यास।

कहीं दूर से आती है

जब

पशु पक्षियों की आवाज

मन मयूरी होता बजने लगते

मन के हर साज।

प्यार की कसक

आ ही जाती है।

चाहे इंसान

हो या रेगिस्तान ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 56 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

(श्री संतोष नेमा “संतोष” के काव्य संग्रह “सपनो के गांव में” का आज 16 अक्टूबर 2020 को ऑनलाइन विमोचन समारोह शाम 7 बजे  साहित्यिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था “पाथेय “ एवं “मंथन”, जबलपुर के सौजन्य से  आयोजित किया गया है।

श्री नेमा जी को ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 56☆

☆ संतोष के दोहे ☆

सहनशीलता से मिलें,खुद अपने अधिकार

रखें शारदा मातु पर ,श्रद्धा अरु विश्वास

 

कर्तव्यों को भूल कर,अधिकारों की बात

यही आजकल हो रहा,देकर खुद को मात

 

एक दूसरे पर नहीं, रहा विमल विश्वास

आज समय कहता यही, रखें न कोई आस

 

जयति जयति माँ शारदा, सादर करहुं प्रणाम

एक आस विस्वास तुम, तुमहिं संवारो काम

 

कर्म वचन मन से सदा, करिये पूजा पाठ

उत्सुकता नवरात्रि की, बढ़ा रही है ठाठ

 

सहनशीलता अब कहाँ, धीरज धरे न कोय

वैभव की यह लालसा, सबके अंदर होय

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 10 – खरंतर जाऊच नये ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे

श्री शेखर किसनराव पालखे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य # 10 ☆

☆ खरंतर जाऊच नये ☆

 

कोणत्याही कवितेच्या वाटेला

पडू नये तिच्या उगमाच्या फंदात

उसवून टाकेल ती तुम्हाला

तिच्या जन्मदात्यासकट

ते जे काही आहे ते रहावं गुपितच

जे असू शकतं अक्षरशः काहीही

अगदी एखादं जन्मानंदाचं

परम निधान किंवा

मरणजाणिवेचा अथांग खोल

असा डोह देखील…

होऊ नये पंचनामा त्याच्या भावनांचा-

भोगू द्यावं तिचं प्रवाहीपण

त्याचं त्याला एकट्यानं…

आपण व्हावं मूक साक्षीदार

किनाऱ्यावरूनच…

हो-उगाच बुडून जायची भीती नको-

अन जळत्या जिवाचा

चटका देखील नको…

सामाजिक विलगीकरण-

चांगली कल्पना आहे ही…

फक्त येऊ नये कोडगेपण सवयीनं-

दुरूनच का होईना ठेवावी

त्याच्या जाणिवांची जाणीव

एवढसंच केलं तरी

जगतील दोघेही आनंदानं

शेवटापर्यन्त–

त्यांच्या आणि आपल्याही.

 

© शेखर किसनराव पालखे 

पुणे

09/06/20

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 48 ☆ लघुकथा – वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए जिए ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक सत्य घटना पर आधारित  उनकी लघुकथा वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए जिए।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 48 ☆

☆  लघुकथा – वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए जिए ☆

फेसबुक पर उसकी पोस्ट देखी – ‘ कोरोना चला जाएगा, दूरियां रह जाएंगी’ यह क्यों लिखा इसने? मन में चिंता हुई, क्या बात हो गई? कोरोना का  दुष्प्रभाव लोगों के मानसिक स्वास्थ्य  पर भी पड़ रहा है। गलत क्या कहा उसने? समझ सब रहे हैं उसने लिख दिया।उसकी लिखी बात मेरे मन में गूँज रही थी कि व्हाटसअप पर उसका पत्र  दिखा –

यह पत्र आप सबके लिए है, कोई फेसबुक पर भी पोस्ट करना चाहे तो जरूर करे।मैं जानता हूँ कि कोरोना महामारी ने हमारा जीने का तरीका बदल दिया है।मास्क पहनना,बार–बार हाथ धोना, और सबसे जरूरी,दो गज की दूरी, जिससे वायरस एक से दूसरे तक नहीं पहुँचे।इन बातों को मैं  ठीक मानता हूँ और पूरी तरह इनका पालन भी करता हूँ।लेकिन इसके बाद भी कोरोना हो जाए तो कोई क्या कर सकता है?

मेरे साथ ऐसा ही हुआ, सारी सावधानियों के बावजूद मैं कोविड पॉजिटिव हो गया। मैं तुरंत अस्पताल में एडमिट हुआ और परिवार के सभी सदस्यों का कोविड  टेस्ट करवाया। भगवान की कृपा कि सभी की रिपोर्ट नेगेटिव आई, मैंने राहत की साँस ली, वरना क्या होता—- कहाँ से लाता इतने पैसे और  कौन करता हमारी मदद? लगभग पंद्रह दिन बाद मैं  अस्पताल  से घर आया। मेरे पूरे परिवार के लिए यह बहुत कठिन समय था। घर आने के बाद मैंने  महसूस किया कि सबके चेहरे पर उदासी  छाई है।ऐसा लगा जैसे कोई बात मुझसे छिपाई जा रही हो।बच्चे कहाँ हैं मैंने पूछा।पत्नी ने बडे उदास स्वर में कहा – बेटी खेल रही है, बेटे को नानी के पास भेज दिया है। उसे इस समय वहाँ क्यों भेजा? मैं पूरी तरह स्वस्थ नहीं था इसलिए वह मुझे सही बात बताना नहीं चाह रही थी, मेरे ज़्यादा पूछने पर वह रो पडी, उसने बताया – ‘ मेरे कोविड पॉजिटिव  होने का पता चलते ही आस –पडोसवालों का मेरे परिवार के सदस्यों के प्रति रवैया ही बदल गया। किसी प्रकार की मदद की बात तो दूर उन्होंने पूरे परिवार को उपेक्षित –सा कर दिया।स्कूल बंद थे, दोनों बच्चे मोहल्ले में अपने दोस्तों  के साथ खेला करते थे, अब सब जैसे थम गया।उनको हर समय घर में  रखना मुश्किल हो गया।बेटी तो छोटी है पर बेटे को यह सब सहन ही नहीं हो रहा था। किसी समय वह चुपचाप थोडी देर के निकला तो पडोसी ने टोक दिया – अरे, तेरे पापा को कोरोना हुआ है ना, जाकर घर में बैठ, घूम मत इधर –उधर, दूसरों को भी लगाएगा बीमारी। वह मुँह लटकाए घर वापस आ गया। घर में पडा, वह अकेले रोता रहता, धीरे- धीरे उसने सबसे बात करना, खाना -पीना छोड दिया।उसकी हालत इतनी बिगड गई  कि उसे मनोचिकित्सक के पास ले जाना पडा। उसका किशोर मन यह स्वीकार  ही नहीं कर पाया कि जिन लोगों के साथ रहकर  बडा हुआ है आज वे सब उसके साथ अजनबी जैसा व्यवहार कर रहे हैं।

जिन आस पडोसवालों को हम सुख – दुख का साथी समझते हैं उनकी बेरुखी से मुझे भी बहुत चोट पहुँची। एक पल के लिए मुझे भी लगा कि फिर समाज में रहने का क्या फायदा? कोरोना महामारी से हम सब जूझ रहे हैं, हमें देह से दो गज की दूरी रखनी है, इंसानियत से नहीं। डॉक्टर्स, नर्स और अस्पताल के कर्मचारी यदि ऐसी ही अमानवीयता कोरोना के रोगी के साथ दिखाएं तो? वे भी तो इंसान हैं, उन्हें भी तो अपनी जान की फिक्र है, उनके भी परिवार हैं?

इतना ही कहना है मुझे कि मेरा बेटा और  मेरा परिवार जिस मानसिक कष्ट से गुजरा है वैसा किसी और के साथ ना होने दें। वैक्सीन बनेगी, दवाएं आएंगी, कोरोना आज नहीं तो कल चला ही जाएगा। इंसानियत बचाकर  रखनी होगी हमें, कहीं भरोसा ही ना रहा एक-दूसरे पर तो?  ना खुशी में साथ मिलकर ठहाके लगा सकें, ना गम बाँट सकें, कितना नीरस होगा जीवन—  ।आज तक कोई ऐसी वैक्सीन बनी है जो मनुष्य को मनुष्य बनाए रखे,  संवेदनशीलता ही मनुष्य की पहचान है, हाँ फिर भी वैक्सीन हो तो बताइयेगा जरूर।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #76 ☆ व्यंग्य – कंफ्यूजन में ग्लैमर का फ्यूजन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय  व्यंग्य कंफ्यूजन में ग्लैमर का फ्यूजन।  इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 76 ☆

☆ व्यंग्य – कंफ्यूजन में ग्लैमर का फ्यूजन ☆

कंफ्यूजन का मजा ही अलग होता है. तभी तो लखनऊ में नबाब साहब ने भूल भुलैया बनवाई थी. आज भी लोग टिकिट लेकर वहां जाते हैं और खुद के गुम होने का लुत्फ उठाते हैं. हुआ यों था कि लखनऊ में भयंकर अकाल पड़ा, पूरा अवध दाने दाने का मोहताज हो गया. लोग मदद मांगने नवाब के पास गये. वजीरो ने सलाह दी कि खजाने में जमा राशि गरीबो में बाँट दी जाये. मगर नवाब साहब का मानना था की खैरात में धन बांटने से लोगो को हराम का खाने की आदत पड़ जाएगी. इसलिए उन्होंने रोजगार देने के लिए एक इमारत का निर्माण करवाया जिसको बाद में बड़ा इमामबाड़ा नाम दिया गया. इमामबाड़े में असफी मस्जिद, बावड़ी और भूलभुलैया है. दिल्ली में भी भूल भुलैया है , जो लोकप्रिय पर्यटन स्थल है. कई बाग बगीचों में भी इसी तर्ज पर ऐसी पौध  वीथिकायें बनाई गई हैं जहां गुम होने के लिये प्रेमी जोडे दूर दूर से वहां घूमने चले आते हैं.

दरअसल कंफ्यूजन में मजे लेने का कौशल हम सब बचपन से ही सीख जाते हैं. कोई भी बाल पत्रिका उठा लें एक सिरे पर बिल्ली और दूसरे सिरे पर चूहे का एक क्विज  मिल ही जायेगा , बीच में खूब लम्बा घुमावदार ऊपर नीचे चक्कर वाला , पूरे पेज पर पसरा हुआ रास्ता होगा. बिना कलम उठाये बच्चे को बिल्ली के लिये चूहे तक पहुंचने का शार्टेस्ट रास्ता ढ़ूंढ़ना होता है. खेलने वाला बच्चा कंफ्यूज हो जाता है, किसी ऐसे दो राहे के चक्रव्यू में उलझ जाता है कि चूहे तक पहुंचने से पहले ही डेड एंड आ जाता  है.

कंफ्यूजन में यदि ग्लैमर का फ्यूजन हो जाये, तो क्या कहने. चिंकी मिन्की, एक से कपड़ो में बिल्कुल एक सी कद काठी ,समान आवाज वाली, एक सी सजी संवरी हू बहू दिखने वाली जुड़वा बहने हैं. यू ट्यूब से लेकर स्टेज शो तक उनके रोचक कंफ्यूजन ने धमाल मचा रखा है. कौन चिंकि और कौन मिंकी यह शायद वे स्वयं भी भूल जाती हों. पर उनकी प्रस्तुतियों में मजा बहुत आता है. कनफ्यूज दर्शक कभी इसको देखता है कभी उसको, उलझ कर रह जाता है , जैसे मिरर इमेज हो. पुरानी फिल्मो में जिन्होने सीता और गीता या राम और श्याम देखी हो वे जानते है कि हमारे डायरेक्टर डबल रोल से जुडवा भाई बहनो के कनफ्यूजन में रोमांच , हास्य और मनोरंजन सब ढ़ूंढ़ निकालते की क्षमता रखते हैं.

कंफ्यूजन सबको होता है , जब साहित्यकार को कंफ्यूजन होता है तो वे  संदेह अलंकार रच डालते हैं. जैसे कि “नारी बिच सारी है कि सारी बिच नारी है”. कवि भूषण को यह कंफ्यूजन तब हुआ था , जब वे भगवान कृष्ण के द्रोपदी की साड़ी अंतहीन कर उनकी लाज बचाने के प्रसंग का वर्णन कर रहे थे.

यूं इस देश में जनता महज कंफ्यूज दर्शक ही तो है. पक्ष विपक्ष चिंकी मिंकी की तरह सत्ता के ग्लेमर से जनता को कनफ्युजियाय हुये हैं. हर चुनावी शो में जनता बस डेड एंड तक ही पहुंच पाती है. इस एंड पर बिल्ली दूध डकार जाती है , उस एंड पर चूहे मजे में देश कुतरते रहते हैं. सत्ता और जनता के बीच का सारा रास्ता बड़ा घुमावदार है. आम आदमी ता उम्र इन भ्रम के गलियारों में भटकता रह जाता है. सत्ता का अंतहीन सुख नेता बिना थके खींचते रहते हैं. जनता साड़ी की तरह खिंचती , लिपटती रह जाती है. अदालतो में न्याय के लिये भटकता आदमी कानून की किताबों के ककहरे ,काले कोट और जज के कटघरे में सालों जीत की आशा में कनफ्यूज्ड बना रहता है.

चिंकी मिंकी सा कनफ्यूजन देश ही नही दुनियां में सर्वव्याप्त है. दुनियां भ्रम में है कि पाकिस्तान में सरकार जनता की है या मिलिट्री की. वहां की मिलिट्री इस भ्रम में है कि सरकार उसकी है या चीन की और जमाना भ्रम में है कि कोरोना वायरस चीन ने जानबूझकर फैलाया या यह प्राकृतिक विपदा के रूप में फैल गया. इस और उस वैक्सीन के समाचारो के कनफ्यूजन में मुंह नाक ढ़ांके हुये लगभग बंद जिंदगी में दिन हफ्ते महीने निकलते जा रहे हैं. अपनी दुआ है कि अब यह आंख मिचौली बंद हो, वैक्सीन आ जाये जिससे कंफ्यूजन में ग्लैमर का फ्यूजन चिंकी मिंकी शो लाइव देखा जा सके.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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