हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 25 – एक उलझी वंचना का… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “एक उलझी वंचना का…। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 25– ।। अभिनव गीत ।।

एक उलझी वंचना का...

 

विजय सा ।

एक चुटकी भर बचा था

दोस्त मुझ में

सहमता, मेरी पड़ोसिन

के हृदय सा ॥

 

एक उलझी वंचना का

था सुखद निक्षेप भर जो ।

लड़ रहा खुद में अपरिचित

द्वंद्व की ही खेप भर जो ।

 

एक बस पच्चीस प्रतिशत

रास्ते के संतुलन में ।

जगमगाती दिया-बाती के

अनौखे चुप समय सा ॥

 

यही हैं जो अंजुरी भर

बचे मौसम के सुनहरे ।

शब्द जिनके बिम्ब पानी में

हुये है  हरे बिखरे ।

 

बस यही बालिश्त भर का

सुख रहा है पास मेरे  ।

जो सदा चलता रहा है

अति नमनशीला विनय सा॥

 

किसी मौलिक वजह का

प्रतिपाद्य है जो सुफलवाला ।

प्रीति कर भी है अनिश्चित

संतुलन की कार्यशाला ।

 

बहुत ऊहापोह में गुजरी

सदी के आचरण को ।

परिस्थितियों से कटा है

सौख्य के अभिनव तनय सा॥

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

17-11-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 70☆ आमने-सामने – 6 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है ।

प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ  के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के  पढ़ सकेंगे।  आज अंतिम में प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध  साहित्यकार श्री रमेश सैनी जी  (जबलपुर), श्री राजशेखर चौबे जी (रायपुर) एवं  श्री आत्माराम भाटी जी के प्रश्नों के उत्तर । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 70

☆ आमने-सामने  – 6 ☆

श्री रमेश सैनी (जबलपुर)

वर्तमान समय में सभी तरफ व्यंग्य पर बहुत गंभीरता से विमर्श हो रहा है, विशेषकर परसाई जी और आज लिखे जा रहे व्यंग्य के संदर्भ में। क्योंकि आज के पाठक और आलोचक इससे संतुष्ट नज़र नहीं हो रहे। एक व्यंग्य विमर्श गोष्ठी में आपके सवाल के उत्तर में यह बात उभर कर आई थी कि व्यंग्य में खतपरवार ऊग आई है, जो फसल को नष्ट कर रही है।

उक्त टिप्पणी को केंद्र में रखकर व्यंग्य में खतपरवार और अराजक परिदृश्य पर आप क्या सोचते हैं ?

इसकी सफाई कैसे संभव हैं?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय सैनी जी  व्यंग्य विधा के उन्नयन और संवर्धन के यज्ञ में आपका योगदान महत्वपूर्ण है, अब व्यंग्य विमर्श के आयोजन के बिना आपका खाना नहीं पचता, हम सब आप से और सबसे ही बहुत कुछ सीख रहे हैं। खरपतवार हमारे अपने ही कुछ लोग पैदा कर रहे हैं इसलिए व्यंग्य की लान में ऊग आयी जंगली घास को आप जैसे पुराने व्यंग्यकारों को निंदाई का कार्य करना पड़ेगा और जो लोग खरपतवार में खाद पानी दे रहे हैं उन्हें चौगड्डे में लाकर खड़ा करना पड़ेगा।

श्री राजशेखर चौबे (रायपुर) 

आज बहुत सारे व्यंग्यकार सत्ता के साथ खड़े होकर विपक्ष को टारगेट  करते नजर आते हैं ऐसा क्यों है ?

आप इसका क्या कारण मानते हैं?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय भाई, शेरदिल धाकड़ व्यंग्यकार यह तो भली-भांति जानता है कि उसका धर्म और दायित्व सत्ता पर अंकुश रखते हुए विपक्ष की भूमिका निभाना है। मीडिया जब कमजोर बना दिया जाता है, या बिक जाता है, विपक्ष भी जब तोड़फोड़ के चक्कर में विपक्ष की भूमिका ठीक से नहीं निभा पाता है तब व्यंंग्यकार ही वह महान हस्ती के रूप में विपक्ष की दमदार भूमिका निभाने में सक्षम माना जाता है। तब व्यंंग्यकार ही घोड़े की लगाम खींच खींच कर घोड़े को नियंत्रण में रख पाता है, तो आज के विकट समय में व्यंंग्यकार की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जो नकली व्यंग्यकार लोभ लालच और पूंछ हिलाने के चक्कर में विपक्ष पर व्यंग्य लिखकर सत्ता पक्ष के सामने इम्प्रैशन जमाकर पुरस्कार लूटना चाहते हैं, वे व्यंंग्यकार नहीं जोकर होते हैं और सियार की खाल पहनकर कूद फांद करने में विश्वास करते हैं।

श्री आत्माराम भाटी

जयप्रकाश जी ! बतौर साहित्यकार स्वयं लिखी रचना को सम्पादित करना आसान है या किसी दूसरे की रचना को सम्पादक की नजर से देखना ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय जी,स्वयं लिखी रचना को सबसे पहले सम्पादित करने और कांट-छांट करने का अधिकार, कायदे से घर की होम मिनिस्ट्री के पास होना चाहिए, फिर उसके बाद आवश्यक सुधार, संशोधन आदि स्वयं लेखक को करना चाहिए।  दूसरे की रचना को सम्पादक की नजर से नहीं बल्कि सुझाव की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। पहले किसी लेखक की रचना जब संपादक के पास प्रकाशनार्थ जाती थी तो संपादक लेखक की अनुमति लेकर छुट-पुट सुधार कर लेता था।  आजकल तो कुछ संपादक ऐसे हैं जो विचारधारा के गुलाम हैं,सत्ता के दलाल बनकर बैठे हैं, रचना मिलते ही सबसे पहले कांट-छांट कर रचना की हत्या करते हैं बिना लेखक की अनुमति लिए। फिर छापकर अच्छी रचना बनाने का श्रेय भी खुद ले लेते हैं।

समाप्त

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 26 ☆ इक्कीसवी सदी का भारत ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  कविता  “इक्कीसवी सदी का भारत”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 26 ☆ 

☆ इक्कीसवी सदी का भारत

 

मैंने सपने में देखा इक्कीसवी सदी का भारत कैसा होगा,

इतिहास में शहीदों के बलिदानों ने सींचा हैं भारत को,

अनेकों लुटेरों ने लूटा हैं भारत को,

अंग्रेजों ने लूटा और अत्याचार से पीड़ित किया था भारत को,

सदियों की पराधीनता को सहना पड़ा हैं भारत को,

मैंने सपने में देखा इक्कीसवी सदी का भारत कैसा होगा,

इतिहास में शहीदों के बलिदानों ने सींचा हैं भारत को।

 

गाँधी और नेहरु के पदचिन्हों में चलना हैं भारत को,

लाल, बाल, पाल की दृढ़ता को भरना होगा भारत को,

नेताजी के सपनों को पूरा करना हैं भारत को,

रानी लक्ष्मीबाई की हिम्मत को भरना हैं भारत को,

मैंने सपने में देखा इक्कीसवी सदी का भारत कैसा होगा,

इतिहास में शहीदों के बलिदानों ने सींचा हैं भारत को।

 

विज्ञान एंव कंप्यूटर क्षेत्र में विश्व में सर्वव्यापी होगा,

शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में भारत विश्व में अद्वितीय होगा,

संस्कारों के क्षेत्र में भारत विश्व में अग्रणी होगा,

हमारी परम्पराएं प्रत्येक भारतवासी के जीवन का मूल्य होगी,

मैंने सपने में देखा इक्कीसवी सदी का भारत कैसा होगा,

इतिहास में शहीदों के बलिदानों ने सींचा हैं भारत को।

 

वो नवजात शिशु की भाँति कोमल और विकासशील होगा,

वो निरंतर विधिगत एंव विकासमान राष्ट्र होगा,

वो ऐसा वटवृक्ष होगा जिसकी जड़े गहरी होंगी,

वो गौरवशाली परम्पराओं का रस ग्रहण करने के योग्य होगा,

मैंने सपने में देखा इक्कीसवी सदी का भारत कैसा होगा,

इतिहास में शहीदों के बलिदानों ने सींचा हैं भारत को।

 

आओ इस सपने को पूरा करें हम,

अपने आप को अपने आप से ऊँचा करें हम,

अनेकता में एकता भरें हम,

आओ इस स्वर्ण इतिहास को रत्नमय करने का प्रयास करें हम,

मैंने सपने में देखा इक्कीसवी सदी का भारत कैसा होगा,

इतिहास में शहीदों के बलिदानों ने सींचा हैं भारत को।

 

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #18 ☆ नशे का जहर ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर, अर्थपूर्ण, विचारणीय  एवं भावप्रवण  कविता “नशे का जहर”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 18 ☆ 

☆ नशे का जहर ☆ 

दीवाली के दिन

जब उसने संयंत्र से

बोनस पाया

बच्चों के लिए

पटाखे, मिठाईयां

और अपने लिए

देशी बोतल लाया

दीप जले, मिठाईयां बंटी

पटाखे फूटे

द्वार द्वार जगमगाये

उसने बोतल खोलकर

जमकर पी

कि

शायद दुखों को

कुछ पल भूल जायें

लेकिन-

कुछ ही क्षणों बाद

वह मृत्यु से जूझ रहा था

दीवाली का दीपक

बुझने से पहले ही

इस घर का

दीपक बुझ रहा था।

 

पता नहीं

यमराज ने कैसा

खेल रचा था?

सारी बस्ती में

कोहराम मचा था

त्योहारों पर अक्सर

ऐसा ही कुछ

होता रहता है

प्रतिवर्ष हम

जलाते हैं रावण को

फिर भी

वह नहीं मरता है

तब-

दावानल सा

लगता है तन में

अंगारे सा प्रश्न

उठता है मन में

क्या खुशी, गम या

तीज त्योंहारों पर

नशा करना

वाकई जरूरी है?

क्या अभावों की कटुता

कुछ पल भुलाने के लिए

यह जहर पीना

मानवीय मजबूरी है?

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 25 ☆ सत्य परिस्थिती… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 25 ☆ 

☆ सत्य परिस्थिती… ☆

अध्याय माझा संपेल

मी रुद्र भूमीत असेल

घरी पेटतील चुली

सडा सारवण होईल

 

जेवायला बसतील सर्व

अश्रू डोळ्यांचे थांबतील

माझ्याच घरातील सर्व

भोजनाचा स्वाद घेतील…

 

स्वाद घेत घेत भोजनाचा

आग्रह एकमेकांना होईल

रुदन संपेल त्या क्षणाला

कामाला हात लागतील…

 

हे जीवन क्षणभंगुर

इथे कुणाचे स्थिर ते काय

आला त्याला जावे लागणार

यात आश्चर्य नाय…

 

© कवी म. मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 74 ☆ किस्सा दुखीराम सुखीराम का ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  ‘किस्सा दुखीराम सुखीराम का’।  इस विशिष्ट रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 74 ☆

☆ किस्सा दुखीराम सुखीराम का

एक गाँव में दो आदमी रहते थे। एक दुखीराम, दूसरा सुखीराम। दुखीराम गरीब था, मेहनत-मजूरी करके अपना पेट भरता था। सुखीराम धन-संपत्ति वाला, बड़ी हवेली में रहता था।

लेकिन दरअसल दुखीराम और सुखीराम दोनों ही दुखी थे। दुखीराम इसलिए कि गरीब होने के बावजूद उसे राक्षसी भूख लगती थी। रोटियों की गड्डी मिनटों में ऐसे ग़ायब होती जैसे किसी जादूगर ने अपनी छड़ी घुमा दी हो। अपना भोजन उदरस्थ कर वह परिवार के दूसरे सदस्यों के भोजन की तरफ टुकुर टुकुर निहारता बैठा रहता। कोई सदस्य नाराज़ होकर हाथ रोक कर अपनी थाली उसकी तरफ सरका देता और दुखीराम झूठा संकोच दिखाता फिर खाने में जुट जाता।

परिवार के लोग दुखीराम की विकराल भूख से परेशान थे। उसकी मजूरी अकेले उसी के लिए काफी न होती। गाँव के लोग भोज में उसे बुलाने से कतराते थे। रिश्तेदार भी उसे अपने यहाँ बुलाने से बचते थे। जिस घर में उसके चरण पड़ते वहाँ मातम छा जाता।

गाँव के दूसरे छोर पर अपनी विशाल हवेली में सुखीराम रहता था। सुखीराम सब तरह से सुखी था। किसी चीज़ की कमी नहीं थी। घर में दूध-दही की नदियाँ बहती थीं। एक ही रोना था कि सुखीराम को भूख नहीं लगती थी। घर में छप्पन भोजन तैयार होते, लेकिन सुखीराम को उनकी तरफ देखने का मन न होता। किसी तरह एकाध रोटी हलक़ से उतरती। इस चक्कर में सुखीराम ने जाने कितने चूर्ण और भस्म फाँक लिये, लेकिन भूख को नहीं जागना था, सो नहीं जागी। हवेली में सभी लोग परेशान थे। भगवान ने सब कुछ दिया, लेकिन तन में कुछ पहुँचता नहीं। ऐसी समृद्धि किस काम की?

दुखीराम और सुखीराम दोनों ही परेशान थे, एक अपनी सर्वग्रासी भूख से तो दूसरा भूख की बेवफाई से। दोनों ही चिन्ताग्रस्त थे। एक भगवान से भूख घटाने की प्रार्थना करता तो दूसरा भूख बढ़ाने की।

आखिर उनकी प्रार्थना सुनी गयी और एक रात भगवान दोनों के सपने में आये। दोनों ने अपनी अपनी व्यथा सुनायी। भगवान पशोपेश में। एक चाहे भूख कम करना, दूसरा चाहे भूख बढ़ाना। एक की भूख गरम तो दूसरे की नरम। अन्ततः उनकी प्रार्थना मंज़ूर हो गयी। दुखीराम की जठराग्नि सुखीराम के शरीर में स्थानांतरित हो गयी और सुखीराम की जठराग्नि दुखीराम के शरीर में।

दूसरे दिन उठे तो दोनों का व्यवहार आश्चर्यजनक। दुखीराम भोजन की तरफ पीठ फेर कर बैठ गया और सुखीराम दौड़ दौड़ कर भोजन पर हाथ साफ करने लगा। बड़ी मुश्किल से यह शुभ दिन आया था। दोनों के परिवार परम प्रसन्न। दोनों के परिवारों ने मन्दिर जाकर भगवान को धन्यवाद दिया और प्रसाद चढ़ाया। इस चमत्कार के बाद दोनों परिवार दीर्घकाल तक सुखी रहे।

जैसे दुखीराम सुखीराम के दिन बहुरे ऐसे ही सब के बहुरें।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 73 ☆ फादर ऑफ मेन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 73 – फादर ऑफ मेन 

‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’ दो शताब्दी पहले विल्यम वर्ड्सवर्थ की कविता में सहजता से आया था यह उद्गार। यह सहज उद्गार कालांतर में मनोविज्ञान का सिद्धांत बन जाएगा, यह विल्यम वर्ड्सवर्थ ने भी कहाँ सोचा होगा।

‘चाइल्ड’ के ‘फादर’ होने की शुरुआत होती है, अभिभावकों द्वारा दिये जाते निर्देशों से। विवाह या अन्य समारोहों में माँ-बाप द्वारा अपने बच्चों को दिये जाते ये निर्देश सार्वजनिक रूप से सुनने को मिलते हैं। कुछ बानगियाँ देखिए, ‘दौड़कर लाइन में लगो अन्यथा जलपान समाप्त हो जायेगा।’…  ‘पहले भोजन करो, बाद में शायद न बचे।’.. ‘गिफ्ट देते समय फोटो ज़रूर खिंचवाना।’… ‘बरात में बैंड-बाजेवालों को पैसे तभी देना जब वीडियो शूटिंग चल रही हो।’ बचपन से येन केन प्रकारेण हासिल करना सिखाते हैं, तजना सिखाते ही नहीं। बटोरने का अभ्यास करवाते हैं, बाँटने की विधि बताते ही नहीं। बच्चे में आशंका, भय, आत्मकेंद्रित रहने का भाव बोते हैं। पहले स्वार्थ देखो बाकी सब बाद में।

‘मैं’ के अभ्यास से तैयार हुआ बच्चा बड़ा होकर रेल स्टेशन या बस अड्डे पर टिकट के लिए लगी लाइन में बीच में घुसने का प्रयास करता है। झुग्गी-झोपड़ियों में सार्वजनिक नल से पानी भरना हो, सरकारी अस्पताल में दवाइयाँ लेनी हों, भंडारे में प्रसाद पाना हो या लक्ज़री गाड़ी  में बैठकर सबसे पहले सिग्नल का उल्लंघन करना हो, ‘मैं’ का हुंकार व्यक्ति को संकीर्णता के पथ पर ढकेलता है। इस पथ के व्यक्ति की मति हरेक से लेने के तरीके ढूँढ़ती है। चरम तब आता है जब जिनसे यह वृत्ति सीखी, उन बूढ़े माँ-बाप से भी लेने की प्रवृत्ति जगती  है। माँ-बाप को अब भान होता है कि बबूल बोकर, आम खाने की आशा रखना व्यर्थ है। कैसे संभव है कि सिखाएँ स्वार्थ और पाएँ परमार्थ!

अपनी कविता ‘प्रतिरूप’ स्मरण हो आई।

मेरा बेटा

सारा कुछ खींच कर ले गया,

लोग उसे कोस रहे हैं,

मैं आत्मविश्लेषण में मग्न हूंँ, बचपन में घोड़ा बनकर,

मैं ही उसे ऊपर बिठाता था, दूसरे को सीढ़ी बनाकर ऊँचाई हासिल करने के

गुर सिखलाता था,

परायों के हिस्से पर

अपना हक जताने की

बाल-सुलभता पर

मुस्कराता था,

सारा कुछ बटोर कर

अपनी जेब में रखने की उसकी अदा पर इठलाता था, जो बोया मेरी राह में अड़ा है, मेरा बीज

अब वृक्ष बनकर खड़ा है, बीज पर नियंत्रण कर लेता, वृक्ष का बल प्रचंड है,

अपने विशाल प्रतिरूप से,

नित लज्जित होना,

मेरा समुचित दंड है!

साहित्य मौन क्रांति करता है। बेहतर व्यक्ति और बेहतर समाज के निर्माण के लिए बच्चे में बचपन से बड़प्पन भरना होगा। आखिर जो भरेगा वही तो झरेगा।

इसीलिए तो कहा गया था, ‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 30 ☆ भारत आरती ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आचार्य जी  द्वारा रचित आरती भारत आरती । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 30 ☆ 

☆ भारत आरती ☆ 

आरती भारत माता की

सनातन जग विख्याता की

*

सूर्य ऊषा वंदन करते

चाँदनी चाँद नमन करते

सितारे गगन कीर्ति गाते

पवन यश दस दिश गुंजाते

देवगण पुलक, कर रहे तिलक

ब्रह्म हरि शिव उद्गाता की

आरती भारत माता की

*

हिमालय मुकुट शीश सोहे

चरण सागर पल पल धोए

नर्मदा कावेरी गंगा

ब्रह्मनद सिंधु करें चंगा

संत-ऋषि विहँस,  कहें यश सरस

असुर सुर मानव त्राता की

आरती भारत माता की

*

करें श्रृंगार सकल मौसम

कहें मैं-तू मिलकर हों हम

ऋचाएँ कहें सनातन सच

सत्य-शिव-सुंदर कह-सुन रच

मातृवत परस, दिव्य है दरस

अगिन जनगण सुखदाता की

आरती भारत माता की

*

द्वीप जंबू छवि मनहारी

छटा आर्यावर्ती न्यारी

गोंडवाना है हिंदुस्तान

इंडिया भारत देश महान

दीप्त ज्यों अगन, शुद्ध ज्यों पवन

जीव संजीव विधाता की

आरती भारत माता की

*

मिल अनल भू नभ पवन सलिल

रचें सब सृष्टि रहें अविचल

अगिन पंछी करते कलरव

कृषक श्रम कर वरते वैभव

अहर्निश मगन, परिश्रम लगन

ज्ञान-सुख-शांति प्रदाता की

आरती भारत माता की

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – नेत्रदान ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  काशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष आलेख  “नेत्रदान। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – नेत्रदान ☆

अंधापन एक अभिशाप – अंधापन मानव जीवन को जटिल बना देता है, तथा‌ जीवन  को अंधेरे से भर देता है।

अंधापन दो तरह का होता है

१ – जन्मांधता –  जो व्यक्ति जन्म से ही अंधे होते हैं।

२- अस्थाई अंधापन – बीमारी अथवा चोट का कारण से।

१ – जंन्मांधता

जन्मांध व्यक्ति सारी जिंदगी अंधेरे का अभिशाप भोगने के लिए विवश होता है। उसकी आंखें देखने योग्य नहीं होती, लेकिन उनकी स्मरण शक्ति विलक्षण ‌होती है। ‌वह मजबूर नहीं, वह अपने सारे दैनिक कार्य कर लेता है।  दृढ़ इच्छाशक्ति, लगन तथा अंदाज के सहारे, ऐसे अनेक व्यक्तियों को देखा गया है,  जो अपनी मेहनत तथा लगन से शीर्ष पर स्थापित ‌हुये है।  उनकी कल्पना शक्ति उच्च स्तर की होती है।  यदि हम इतिहास में झांकें तो पायेंगे  इस कड़ी में सफलतम् व्यक्तित्वों की एक लंबी श्रृंखला है, जिन्होंने अपनी क्षमताओं का सर्वोत्कृष्ट प्रर्दशन कर लोगों को दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर दिया। इस कड़ी में स्मरण करें  तो भक्ति कालीन महाकवि सूरदास रचित सूरसागर में कृष्ण ‌की‌ बाल लीलाओं का  तथा गोपियों का विरह वर्णन, भला कौन संवदेनशील प्राणी‌ होगा जो उन रचनाओं के संम्मोहन में ‌न फंसा‌ हो।

दूसरा उदाहरण ले रविन्द्र जैन की आवाज का। कौन सा व्यक्ति है जो उनकी हृदयस्पर्शी आवाज का दीवाना नहीं है?

तीसरा उदाहरण है मथुरा के सूर बाबा का, जिनकी कथा शैली  अमृत वर्षा करती है। अगर खोजें तो ऐसे तमाम लोगों की लंबी शृंखला दिखाई देगी, लेकिन उनका इलाज अभी तक संभव नहीं है। भविष्य में चिकित्सा विज्ञान कोई भी चमत्कार  कभी भी कर सकता है।

२ – अस्थाई अंधत्व

जब कि दूसरे तरह के अंधत्व का इलाज समाज के सहयोग ‌से संभव है । चिकित्सा बिज्ञान में इस विधि को रेटिना प्रत्यारोपण कहते हैं जिससे व्यक्ति के आंखों की ज्योति वापस लाई जा सकती है, जो किसी मृतक व्यक्ति के  परिजनों द्वारा नेत्रदान  प्रक्रिया में योगदान से ही संभव है । चिकित्सा विज्ञानियों का मानना है कि मृत्यु के आठ घंटे बाद तक नेत्रदान कराया जा सकता है तथा किसी की‌ जिंदगी  को रोशनी का उपहार दिया जा सकता है। यह एक साधारण से छोटे आपरेशन के द्वारा कुछ ही मिनटों में सफलता पूर्वक संपन्न किया जाता है।  मृत्यृ के पश्चात   मृतक को कोई अनुभूति नहीं होती, लेकिन  जागरूकता के अभाव में नेत्रदान   प्राय:  कभी कभी ही  संभव हो पाता है। जिसके पीछे जागरूकता के अभाव तथा अज्ञान को ही कारण  माना जा सकता है।

सामान्यतया हम लोग दान का मतलब धार्मिक कर्मकाण्डो के संपादन, पूजा पाठ तीर्थक्षेत्र की यात्राओं,  थोड़े धन के दान तथा कथा प्रवचन तक ही सीमित समझ लेते है, उसे कभी आचरण में उतार नहीं सके। उसका निहितार्थ नहीं ‌समझ सके। मानव जीवन की रक्षा में अंगदान का बहुत बड़ा महत्व है।  जीवन मे हम अधिकारों के पाने  की बातें करते हैं, लेकिन जहां कर्तव्य निभाने बात आती है‌, तो बगलें झांकने लगते हैं। इस संबंध में तमाम प्रकार की भ्रामक धारणायें  बाधक बन‌ती  है जैसे नेत्रदान आपरेशन के समय पूरी पुतली निकाल ली जाती है और चेहरा विकृत हो जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है। आपरेशन से मात्र नेत्रगोलकों के रेटिना की पतली झिल्ली ही निकाली जाती है । जिससे चेहरे पर कोई विकृति नहीं होती।

हिंदू धर्म में चौरासी लाख योनियों की कल्पना की गयी  है, जो यथार्थ में दिखती भी है, लेकिन यह‌ मान्यता पूरी तरह भ्रामक  निराधार  और असत्य है कि नेत्रदान के पश्चात अगली योनि में नेत्रदाता अंधा पैदा होगा। यह मात्र कुछ अज्ञानी जनों की मिथ्याचारिता है। इसी लिए भय से‌  लोग नेत्रदान से  बचना चाहते‌ है।  जब कि  सच तो यह है कि इस योनि का शरीर मृत्यु के पश्चात जलाने या गाड़ने से नष्ट हो जाता है, अगली योनि के शरीर पर इसका कोई प्रभाव ही नहीं होता। क्यो कि अगली योनि का शरीर योनि गत  अनुवांशिक संरचना पर आधारित होता है। यह एक मिथ्याभ्रामक मान्यताओं पर आधारित गलत अवधारणा है।

नेत्रदान के मार्ग की बाधाएं

नेत्रदान की सबसे बड़ी बाधा जनजागरण का अभाव तथा मानसिक रूप से तैयार न होना है। नेत्रदान के संबंध में जिस ढंग के प्रचार प्रसार की जरूरत महसूस की जा रही है वैसा हो नहीं पा रहा है, इसके लिए तथ्यो की सही जानकारी आम जन तक पहुंचाना, भ्रम का निवारण करने के मिशन को युद्ध स्तर पर चलाना। मृत्यु के पश्चात परिजन नेत्रदान के लिए  इस लिए सहमत नहीं होते, क्यो कि दुखी परिजन मानसिक विक्षिप्तता की स्थिति में लोक कल्याण के बारे में सोच ही नहीं पाते। सामंजस्य स्थापित नही कर पाते। इसके लिए अभियान चला कर लोगों को मानसिक रूप से अपनी विचारधारा से सहमत कर नेत्रदान हेतु मृतक के परिजनों को मृत्यु पूर्व ही प्रेरित करना तथा दान के महत्व को समझाना चाहिए, ताकि मृत्यु के बाद अंगदान की अवधारणा पर  उनकी सहमति बन सके। इसके लिए जनजागरण अभियान, समाज सेवकों की टीम गठित करना, लोगों को मीडिया प्रचार, स्थिर चित्र, तथा चलचित्र एवं टेलीविजन से प्रचार प्रसार कर जन जागरण करना तथा अंगदान रक्तदान के महत्व को लोगों को समझाना कि किस प्रकार मृत्यु शैय्या पर पडे़ व्यक्ति की रक्त देकर जीवन रक्षा की जा सकती है, तथा नेत्र दान से जीवन में छाया अंधेरा दूर कर व्यक्ति को देखने में सक्षम बनाया जा सकता है इसका मुकाबला कोई भी धार्मिक कर्मकांड नहीं कर सकता। लोगों को अपने मिशन के साथ जोड़कर वैचारिक ‌क्रांति पैदा करनी‌ होगी, बल्कि यूं कह लें कि हमें ‌खुद अगुआई करते हुए अपना उदाहरण प्रस्तुत करना होगा।

इस बारे में पौराणिक उदाहरण भरे पड़े हैं, जैसे शिबि, दधिचि, हरिश्चंद, कर्ण, कामदेव, रतिदेव, आदि ना जाने अनेकों कितने नाम।

इस संदर्भ में अपनी कविता ” दान  की  महिमा” की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत हैं –

जीते  जी रक्तदान मरने पर अंगदान,
सबसे बड़ा धर्म है पुराण ये बताता है।
शीबि दधिची हरिश्चंद्र हमें ‌ये बता गये,
सत्कर्मो का धर्म से बड़ा गहरा नाता है।

पर हित सरिस धर्म नहिं,
पर पीडा सम अधर्म नहीं।
रामचरितमानस हमें ये सिखाता है।
जीवों की रक्षा में जिसने विषपान किया,
देवों का देव महादेव ‌वो बन जाता है।।

(दान की महिमा रचना के अंश से) 

इस प्रकार हमारी ‌भारतीय संस्कृति में ‌दान का महत्व ‌लोक‌कल्याण हेतु एक  परंपरा का रूप ले चुका था, लेकिन आज का मानव  समाज अपनी परंपरा भूल चुका है। उसे एक बार फिर याद दिलाना होगा। इस क्रम में देश के उन जांबाज सेना के जवानों का संकल्प ‌याद आता है जिन्होंने अपना‌ जीवन‌ देश सीमा को तो सौंपा ही है अपने मृत शरीर  का हर अंग समाज सेवा में लोक कल्याण हेतु दान कर अमरत्व की महागाथा लिख दिया ऐसे लोगो का संकल्प, पूजनीय, वंदनीय तथा अभिनंदनीय है हमारे नवयुवाओं को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगत (भाग – ५) – सप्तक कथा ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

☆ सूर संगत (भाग – ५) – सप्तक कथा ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆   

सप्तक हे नावच त्याची ‘सात’ ह्या संख्येशी बांधिलकी सांगते! संगीतातही ‘सात’ स्वर आहेत, त्या सात स्वरांचा समूह म्हणजे ‘सप्तक’! आपल्याला माहीत असलेले ‘सा, रे, ग, म, प, ध, नि’ हे सुरांच्या नावाचे ‘शॉर्ट फॉर्म्स’ म्हणायला हरकत नाही आणि गाताना अर्थाचच तेच सोयीचे पडतात. ह्या सात स्वरांची पूर्ण नावं आहेत, सा – षड्ज, रे – रिषभ, ग – गंधार, म – मध्यम, प – पंचम, ध – धैवत, नि – निषाद!

गंमत अशी कि हे सात स्वर कसे अस्तित्वात आले ह्याविषयी अनेक सुरम्य कहाण्या वेगवेगळ्या जुन्या ग्रंथांमधे सापडतात. ‘संगीत दर्पण’ ह्या प्राचीन ग्रंथाचे लेखक दामोदर पंडित ह्यांच्यामते काही प्राणी व पक्ष्यांचा आवाजातून ह्या स्वरांची निर्मिती झाली आहे. मोराची केका ‘षड्ज’ जननी, चातकाचा आवाज ‘रिषभ’ जनक, बकऱ्याच्या आवाजात ‘गंधार’ सापडला, ज्ञानोबारायांना शकुन सांगणाऱ्या काऊ(कावळा) ची कावकाव ही ‘मध्यम’निर्माती ठरली, कोकिळ पक्ष्याचं मधुर कुहूकुहू ‘पंचमाचं’ उत्पत्तीस्थान ठरलं, बेडकाच्या ‘डरावडराव’मधून ‘धैवत’ जन्मला आणि हत्तीच्या चित्कारातून ‘निषाद’ उत्पन्न झाला.

ह्याचा सोपा अर्थ लावायचा झाला तर असं म्हणता येईल कि, पूर्वी सगळ्याच अर्थाने ‘प्रदूषण’ विरहित अशा निसर्गाच्या सान्निध्यातच जगणाऱ्या माणसाच्या जाणिवा अत्यंत तरल असाव्या. त्यामुळं निसर्गातून ऐकू येणाऱ्या वेगवेगळ्या आवाजांतल्या ‘फ़्रिक्वेन्सी’ मधला सूक्ष्म फरकही त्याच्या कानांना सहजी जाणवत असावा. हळूहळू कोणत्या सुरापेक्षा कोणता सूर चढा आहे हे जाणवलं तसे हे सात सूर अस्तित्वात आले असतील. अर्थातच नंतर शास्त्रीय दृष्टिकोनातून ह्या सर्वच गोष्टींवर काळानुसार अनेक प्रयोग, बदल होत राहिले.

एका फारसी संगीतज्ञाच्या नोंदणीनुसार, प्राचीन मुस्लीम संत हजरत मूसा हे पहाडी भागांतून फिरत असताना आकाशवाणी झाली कि, ‘हे मूसा हकीकी, तू तुझ्या हातातल्या दंडाने तुझ्या समोरच्या दगडावर प्रहार कर!’ त्याबरहुकूम हजरत मूसांनी हातातल्या दंडाचा(छोटी काठी) समोरच्या दगडावर जोरात प्रहार केला तेव्हां त्या दगडाचे सात तुकडे झाले आणि त्या प्रत्येक तुकड्यातून पाण्याची धार/झरा/निर्झर वाहू लागली. मात्र पाण्याच्या त्या प्रत्येक धारेचा ‘आवाज’ वेगवेगळा होता, म्हणजे त्यातून ऐकू येणारा ‘सूर’ वेगळा होता. हजरत मूसांच्या तरल जाणिवांना तो ‘आवाजां’ मधला फरक उमजला आणि  कानाला जाणवणाऱ्या त्या प्रत्येक ‘फ्रिक्वेन्सीनुसार’ त्यांनी एकेक सूर निर्माण केला आणि ते सूर चढत्या पट्टीत योजत ‘सप्तक’ निर्मिले असेल.

आणखी एका फारसीच संगीतज्ञांच्या मतानुसार पहाडी भागांत ‘मूसीकार’ नावाचा जो पक्षी सापडतो, त्याची चोच खूप लांब असते. बासरीला जशी सात भोकं असतात तशी त्याच्या चोचीलाही सात भोकं असतात. हा पक्षी आवाज करतो तेव्हां त्या सात भोकांमधून वेगवेगळा ‘आवाज’ येतो. त्या वेगवेगळ्या सात आवाजांतूनच सात सुरांची निर्मिती झाली आहे.

ह्या सगळ्या प्रचलित कथांचा विचार केला असता वाटते कि, तेव्हां भले तंत्रज्ञान अस्तित्वात नसेल, पण तरीही कानांवर पडणाऱ्या आवाजाशी सूर जुळवून पाहाणे वगैरे बाबींमधे नकळत का होईना, प्रयोगात्मक, संशोधनात्मक दृष्टिकोन सामावलेला आहे. मात्र मुळात माणसाचं संगीताशी नातं कसं जोडलं गेलं असावं? तर फ्राईड ह्या एका पाश्चात्य विचारवंताच्या मते, संगीत ही माणसाकडून झालेली सहजनिर्मिती आहे! ते म्हणतात कि, माणूस आधी बोलायला शिकला, मग चालणं-फिरणं शिकला आणि हळूहळू तो जास्त क्रियाशील झाला तशी त्याच्याकडून आपोआप संगीताची निर्मिती झाली.

फ्राईड ह्यांच्या विधानावर विचार करत असताना मनात आलं कि, ‘खरंच आहे, आपण स्वत:कडे आणि आपल्या आजूबाजूलाही जाणीवपूर्वक पाहिलं तरी लक्षात येतं कि एखादवेळी आपसूक ‘गुणगुणावंसं’ वाटणं हीच संगीतनिर्मितीची पहिली पायरी असावी. असं ‘गुणगुणणं’ ही सहजप्रक्रियाच आहे, त्यासाठी संगीताचं शास्त्रशुद्ध शिक्षण घेतलेलं असणं हे आवश्यक नाहीच. माणसाच्या मनात कोणताही एखादा भाव प्रचंड प्रमाणात निर्माण झाला कि त्याच्या व्यक्ततेपायी ‘गुणगुणण्यातून’ त्याच्याकडून सूरनिर्मिती, संगीतनिर्मिती होत राहिली असेल आणि हळूहळू त्याला एक छान आकार प्राप्त होत ‘संगीतशास्त्र’ निर्माण होण्याएवढी मानवाने प्रगती केली.

खरंतर संपूर्ण सात सूर एकाचवेळी अस्तित्वात आले असं नाही. आपल्याकडचे मंत्र म्हणून पाहिले कि लक्षात येते कि, ते दोन किंवा तीन स्वरांतच बांधलेले आहेत. काही स्त्रोत्रांमधे मग चार सूर दिसून येतात. ह्याचा अर्थ हळूहळू सूरसंख्या वाढत गेली. सप्तकाची एक जन्मकथा अशी वाचल्याची स्मरते कि, वैदिक काळात जे सामगायन होत असे ते सुरुवातीला तीन अणि नंतर चार सुरांत होऊ लागले. सार्वजनिक ठिकाणी सामुदायिक पद्धतीने हे गायन होत असताना गाणाऱ्यांचे पुरुषगायक व स्त्रीगायक असे दोन गट असायचे. पुरुषगायकांनी गायलेली वेदऋचांची चाल(स्वररचना) पाठोपाठ स्त्रीगायक गात असत. मात्र नैसर्गिकरीत्या सर्वसाधारणपणे स्त्रियांचा आवाज उंच पट्टीचा असतो, त्यामुळे त्यांना पुरुषांच्या पट्टीत गाणे कठीण जायचे. मग तीच स्वरसंगती स्त्रिया त्यांच्या पट्टीत गात असत तेव्हां ते सूर अस्तित्वात असणाऱ्या सुरांपेक्षा भिन्न स्थानांवर असल्याचे लक्षात येत गेले आणि अणखी सूर अस्तित्वात आले. दुसऱ्या भागात आपण गणितीय पद्धतीने स्वरांमधील अंतरे पाहिली आहेत. तर, ‘सा ते म’ आणि ‘प ते वरचा सा’ ह्या स्वरांमधील अंतरे पाहिली तर ती अगदी समान असल्याचे दिसून येते. ती कदाचित ह्या सामगायनाची देणगी असावी, अशी सप्तकाच्या जन्माची ‘वन ऑफ द थिअरी’ म्हणता येईल.

 

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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