मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 16 ☆ बावरे मन ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी)  मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण अभंग  “बावरे मन)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 16 ☆ 

☆ अभंग… बावरे मन ☆

 

बावरे मन हो

भक्तीत गुंतेना

तेढा हा सुटेना, काहि केल्या…०१

 

अवखळ भारी

मनाची तयारी

घेतो हा भरारी, अकल्पित…०२

 

चांगले करेना

सत्य ही बोलेना

गाठ उकलेना, मनाची हो…०३

 

भजन करता

चिंतन करावे

स्मरण साधावे, सदोदित…०४

 

याच्या विपरीत

मनाचा विचार

झाला भूमीभार, सहजची…०५

 

कवी राज म्हणे

मन शुद्ध व्हावे

योग्य तेच द्यावे, इतरांना…०६

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 66 ☆ व्यंग्य – कोरोना-काल में मत उठइयो, प्रभु ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक समसामयिक व्यंग्य ‘कोरोना-काल में मत उठइयो, प्रभु ’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से वर्तमान समय में  यह सिद्ध कर दिया कि  कोरोना काल में रिश्तों का मुलम्मा उतर रहा है। इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 66 ☆

☆ व्यंग्य – कोरोना-काल में मत उठइयो, प्रभु 

कोरोना-काल में मरना भी आसान नहीं रहा। हालत यह हो गयी है कि कोई किसी भी रोग से मरे, कोरोना के शक का कीड़ा दिमाग़ में कुलबुलाने लगता है। लोगों को भरोसा ही नहीं होता कि कोई किसी दूसरे रोग से भी मर सकता है। अब फसली बुख़ार से कोई नहीं मरता,सब को कोरोना के खाते में डाला जाता है।  नाते-रिश्तेदार पास फटकने के लिए तैयार नहीं होते। सोचते हैं, ‘इन्हें अभी मरना था। कोरोना खतम होने तक रुक नहीं सकते थे?अब कैसे पता चले कि इनकी मौत में कोरोना का योगदान था या नहीं।’

कोरोना-काल में मृतक को उठाने के लिए चार आदमियों का इन्तज़ाम भी मुश्किल हो रहा है। परिवार में माताएं पुत्र को शव के पास जाने से बरजती हैं और पत्नियाँ पति को। सबको अपनी अपनी जान की पड़ी है। मध्यप्रदेश के एक कस्बे में  तहसीलदार साहब को ही शव को अग्नि देनी पड़ी क्योंकि मृतक की पत्नी ने पुत्र को शव के पास जाने से रोक दिया। कोरोना सब रिश्तों को छिन्न भिन्न कर रहा है। रिश्तों का मुलम्मा उतर रहा है। जिन लोगों ने पुत्र के हाथों दाह-संस्कार के लोभ में पुत्र पैदा किये वे समझ नहीं पा रहे हैं कि उनकी सद्गति पुत्र के हाथों होगी या नगर निगम के किसी कर्मचारी के हाथों। सब तरफ अफरातफरी का आलम है। अब रिश्तेदारों के बजाय लोग उनकी तरफ देख रहे हैं जो कुछ पैसे लेकर, अपनी जान को दाँव पर लगाकर, मृतक को स्वर्ग या नरक की तरफ ढकेल सकते हैं। यह अच्छा है कि हमारे देश में पैसे वालों का कोई काम रुकता नहीं,अन्यथा बड़ी समस्या खड़ी हो जाती।

दो दिन पहले नन्दू के दादाजी का इन्तकाल हो गया। दोस्त महिपाल को फोन लगाया। कहा कि आ जाए तो कुछ राहत मिलेगी। थोड़ी बात हुई कि फोन उसके डैडी ने झपट लिया।

‘हाँ जी, बोलो बेटा।’

‘अंकल, दादाजी की डेथ हो गयी है। महिपाल आ जाता तो कुछ मदद मिल जाती।’

‘ओहो, बुरा हुआ। क्या हुआ था उनको?’

‘कुछ नहीं। दो तीन दिन से थोड़ा बुखार था। अचानक ही हो गया।’

‘कोरोना टैस्ट कराया था?’

‘नहीं अंकल, कुछ ज़रूरी नहीं लगा।’

‘कराना था बेटा। चलो, कोई बात नहीं। ऐसा है कि महिपाल के घुटने में कल से दर्द है। थोड़ा ठीक हो जाएगा तो आ जाएगा। अभी तो मुश्किल है।’

सबेरे कुछ मित्र-रिश्तेदार झिझकते हुए आते हैं। कुर्सी खींचकर नाक पर ढक्कन लगाये दूर बैठ जाते हैं। बार बार सवाल आता है, ‘टैस्ट कराया क्या? करा लेते तो अच्छा रहता। शंका हो जाती है।’

दादाजी के काम में हाथ लगाने के लिए कोई आगे नहीं आता। उन्हें वाहन में रखते ही आधे लोग फूट लेते हैं। बीस से ज़्यादा लोगों के शामिल न होने के नियम का बहाना है। जो बचते हैं वे वाहन में बैठने को तैयार नहीं होते। कहते हैं, ‘आप लोग चलिए। हम अपने वाहन से आते हैं।’

प्रभुजी, हम पचहत्तर पार वाले हैं और इस नाते संसार से रुख़्सत होने के लिए पूरी तरह ‘क्वालिफाइड’ हैं, लेकिन हालात देखकर आपसे गुज़ारिश है कि हमारी रुख़्सती को कोरोना-काल तक मुल्तवी रखा जाए। हमें फजीहत से बचाने के लिए यह ज़रूरी है।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 22 ☆ सवैया मुक्तिका ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आचार्य जी का एक नव प्रयोग  सवैया मुक्तिका। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 21 ☆ 

☆ सवैया मुक्तिका ☆ 

 अमरेंद्र विचरें मही पर, नर तन धरे मुकुलित मना।

अर्णव अरुण भुज भेंटते, आलोक तम हरता घना।।

श्री धर मुदित श्रीधर हुए, श्रीधर धरें श्री हैं जयी।

नीलाभ नभ इठला रहा, अखिलेश के सिर पर तना।।

मिथिलेश कर संतोष मति रख विनीता; जनहित करें

सँग मंजरी झूमें बसंत सुगीत रच; कर अर्चना

मन्मथ न मन मथ सका; तन्मय हो विजय निज चाहता

मृण्मय न रह निर्जीव हो संजीव कर नित साधना

जब काम ना तब कामना, श्री वास्तव में दे सखे!

कुछ भाव ना पर भावना से ही सफल हो प्रार्थना

कंकर बने शंकर; न प्रलयंकर कभी हो देवता!

कर आरती नित भारती; जग-वाक् हो है वंदना

कलकल बहे; कलरव करे जल-खग; न हो किलकिल सलिल

अभियान करना सफल, मैया नर्मदा अभ्यर्थना

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२४-४-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – भोजपुरी बोली भाषा साहित्य तथा समाज ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  राजभाषा माह के परिपेक्ष्य में स्थानीय / आंचलिक भाषा पर आधारित एक ज्ञानवर्धक लेख   “भोजपुरी बोली भाषा साहित्य तथा समाज”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – भोजपुरी बोली भाषा साहित्य तथा समाज

किसी भी भाषा की  संरचना का मूल आधार व्याकरण है  बिना व्याकरण के ज्ञान के न तो कोई भाषा शुद्ध रूप से लिखी जा सकती है न  बोली जा सकती है न पढ़ी जा सकती  है।  भाषा साहित्य के ज्ञान के लिए व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है। व्याकरण के ज्ञान द्वारा ही  त्रुटिहीन लेखन वाचन संभव होता है। जिस भाषा का प्रसार राष्ट्रीय स्तर पर होता है वह राष्ट्र भाषा का दर्जा प्राप्त करती है। जो भाषा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लिखी पढ़ी बोली जाती है उसे अंतरराष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त होता है। लेकिन राष्ट्र भाषा के साथ आंचलिक भाषा जिसे मातृभाषा कहते हैं भी बोली लिखी पढ़ी जाती है।

मातृभाषा का ज्ञान बच्चा बिना व्याकरण ज्ञान के मात्र माता पिता तथा परिवार से  सुनकर अथवा बोल कर प्राप्त करता है। क्षेत्रीय भाषा के साथ आंचलिक ‌भाषा भी बहुत महत्त्वपूर्ण है, आंचलिक भाषा का प्रभाव शब्दों  के उच्चारण  तथा बोलने के अंदाज में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। जैसे उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से बिहार के भोजपुर तक बोली जाने वाली आंचलिक भाषा को भोजपुरी भाषा कहते हैं जो भोजपुरिया समाज द्वारा लिखी पढ़ी व बोली जाती है ।  जिसका असर राष्ट्र‌भाषा‌ पर   पड़ता है जो क्षेत्रीय अंचल के साथ बदलती चली जाती जैसे ‌पूर्वांचल में भोजपुरी, अवध में अवधी, मथुरा में ब्रज भाषा के रूप में बोली जाती है। या यूं कह लें, वह क्षेत्रीय लोक कलाओं, लोक संस्कृति तथा लोक संस्कारों का मातृभाषा पर गहरा असर दीखता है । जैसे राम-सीता तथा राधा-कृष्ण के कथा चरित्र पर आंचलिक भाषा का प्रभाव दिखता है। भाषा ज्ञान बच्चा बिना पढ़े लिखे मात्र सुनकर समझ कर भी बोल कर भी कर सकता है। आंचलिक भाषा की आत्मा उसकी लोक रीतियां लोक परंपराये तथा उनमें पलने वाली लोक संस्कृति ही आंचलिक भाषा को सुग्राह्य तथा समृद्ध बनाती है ।

तभी तो आंचलिक स्तर पर बोली जाने वाली भाषा भाव से समृद्ध होती है उसकी संस्कृति में रचा बसा माधुर्य लोक विधाओं का माधुर्य बन प्रस्फुटित होता है, जो अंततोगत्वा विधाओं की प्राण चेतना बन लोक साहित्य तथा लोक धुनों के रूप में अपने आकर्षण के मोहपाश में बांध लेता ह तथा श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता है। जो कभी आल्हा, कभी कजरी, कभी चैता के रूप में आम जन के मानस पर गहरी छाप छोड़ता है। कभी‌ बारह‌ मासा, कभी विदेशिया के रूप दृष्टिगोचर होता है। गो ० तुलसी‌ साहित्य  जो मुख्यत: अवधी ब्रज संस्कृति तथा भोजपुरी-मैथिली आदि के सामूहिक रूप का दर्शन कराता है तो वहीं सूर साहित्य पूर्ण रूप से ब्रज  भाषा पर आधारित है। जिसके संम्मोहन से कोई बच नहीं सकता, भर्तृहर-चरित्र, कृष्ण-सुदामा चरित आज भी अपने कारुणिक प्रसंग के चलते श्रोताओं की आंख में पानी भर देता है। भोजपुरी भाषा को उसके भावों को न  समझने वाला भी उसे गुनगुना लेता है, एक छोटा सा उदाहरण देखे—–

गवना कराई पियवा गइले बिदेशवा,
भेजले ना कवनो सनेश।
नेहिया के रस बोरी, पिरीति के डोरि तोरी।
गईले भुलाई आपन देश।
पुरूआ के गरदी से जरदी चनरमा पे,
देहिया के टूटे पोरे पोर।
घरवा में सेजिया पे तरपत तिरियवा,
दुखवा के नाही ओर छोर।

वहीं पर दूसरा उदाहरण देखे——

बगिया में गूजेला कोइलिया के बोलियां,
खेतवा  में बिरहा के तान ।
अंग अंग गोरिया के बंसरी बजावे रामा,
लोगवा के डोलेला ईमान ।
नखरा गोरकी पतरकी अजब करें हो,
जब नियरे बोलाई अब तब करें हो ।

अथवा —-जोगी जी धीरे धीरे ,नदी के तीरे तीरे, का नशा अभी भी लोगों की स्मृतियों में हावी है जिसे सुनते सुनते  आम जनमानस गुनगुना उठता है । इसी तरह तमाम आंचलिक ‌भाषायें अपनी संस्कृति का साहित्य  तमाम क्षेत्रीय घटनाक्रम क्षेत्रीय साहित्य के कथा कोष को समृद्ध करने का काम करती हैं। आत्मसौंदर्य समेटे लोकसंस्कृति तथा लोक विधाओं का ध्वज वाहक बनी दीखती है। तोता मैना, शीत बसंत, सोरठी बृजाभार की कहानियां आज भी उसी चाव से कही सुनी जाती हैं।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 11 ☆ व्यंग्य ☆ विजयादशमी तक कोरोना से बचे रहेंगे दशानन ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  “विजयादशमी तक कोरोना से बचे रहेंगे दशानन।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

(आज शाम 7 बजे उपरोक्त कार्यक्रम में वरिष्ठ व्यंग्यकार आदरणीय श्री शांतिलाल जैन जी की पुस्तक ‘वे रचनाकुमारी को नहीं जानते’ का ऑनलाइन लोकार्पण एवं रचनापाठ आयोजित है जिसे आप zoom meeting के उपरोक्त लिंक पर देख/सुन सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 11 ☆

☆ व्यंग्य – विजयादशमी तक कोरोना से बचे रहेंगे दशानन 

लंकेश खुश हैं. इसलिये नहीं कि इस दशहरे वे मारे नहीं जायेंगे बल्कि इसलिये कि वे इस बार भी प्रभु के तीर से ही मरेंगे, कोरोना से नहीं. मैंने कहा – ‘आप इतने कांफिडेंस से कैसे कह सकते हो ? कोरोना आपको भी हो सकता है.’

‘नहीं होगा. तुमने ही हमें सौ फीट से ऊंचा बनाया है, कोरोना की हिम्मत नहीं कि हमारी नाक तक पहुँच जाये.’

‘नाक कितनी ही ऊपर क्यों न हो महाराज, कोरोना की जद से बाहर नहीं है. आर्यावर्त में कितने हैं ज़िन्दगीभर ऊंची नाक लिये घूमते रहे – कोरोना ने उनकी भी काट दी. पता है जब वे गरीबों की बस्ती से गुजरते थे तो नाक पर रुमाल रख लिया करते थे, अब खुद के घर में नाक पर रुमाल बाँधकर घूमना पड़ता है. इस मामले में कोरोना ने समाजवाद ला दिया है.’

लंकापति थोड़ा रुके, हँसे और बोले – ‘दशहरे तक जिलाये रखने की जिम्मेदारी तो दशहरा कमिटी की है. मैं उस दिन तक क्यों डरूं ?’

‘बात तो सही कह रहे हो महाराज, लेकिन ओवरकांफिडेंस में कहीं पहले ही निपट गये तो त्यौहार का मजा किरकिरा हो जायेगा.’

‘मजा तो वैसे भी नहीं ले पाओगे तुम. मुझे मरता देखने आ नहीं सकोगे.  बीस से ज्यादा की परमिशन है नहीं, इत्ते तो कमिटी के मेम्बरान ही होते हैं.’

‘तब भी, कम से कम मास्क तो लगा लेते दशानन.’

‘आर्यावर्त के नागरिक एक नहीं लगा रहे, तुम हमें दस की सलाह दे रहे हो. बीस रूपये का एक पड़ता है डिस्पोजेबल मास्क, दो सौ रूपये रोज़ का टेंशन है शांतिभैया. जीएसटी कलेक्शन कम होता जा रहा है. कलयुग में कमायें-खायें कि मास्क जैसी आईटम पर खर्चा करें ? और फिर हमारी नियति में तो प्रभु श्रीराम के हाथों नाभि में तीर से मरना लिखा है. सुख बस ये कि मरने के पहले चौदह दिन के क्वारंटीन से गुजरना नहीं पड़ेगा. हाsssहाsssहाsss’

लंकेश इस बात पर बेहद खुश नज़र आये कि उन्हें क्वारंटीन सेंटर में नहीं जाना पड़ेगा. उन्होंने आर्यावर्त में अपने गुप्तचर भेजकर कुछेक ग्रामीण और अर्धशहरी सेंटर्स के बाबत पता लगा लिया था. बोले – ‘शांतिभैया अगर घर से भोजन और पानी की व्यवस्था न हो तो आदमी कोरोना से पहले भूख से मर जाये. बिजली है नहीं, रात होते ही घुप अंधेरा छा जाता है. मच्छर एक मिनट चैन से बैठने नहीं देते. कहीं वक्त दो वक्त का भोजन दिया जा रहा है तो वहां पीने के पानी की समस्या है. शौचालय में गंदगी है. पंखा है नहीं, हैंडपंप भी सूखा है बाल्टी, मग, साबुन की व्यवस्था तो विलासिता समझो. जेल से बदतर हैं कस्बे के क्वारंटीन सेंटर.’

‘क्षमा करें महाराज, आजकल होम क्वारंटीन की सुविधा भी है.’

इस पर वे उदास हो गये. बोले – ‘महारानी मंदोदरी माने तब ना – वाट्सअप में क्या क्या पढ़ रखा है उसने. अभी तो कुछ हुआ ही नहीं है तब भी सुबह सुबह खाली पेट गरम पानी पिओ, फिर उबलता काढ़ा. भोजन नली झार झार हो उठती है. जलन कम हुई नहीं कि कटोरीभर के अदरक का रस ले आती है. फिर शुरू होता है सिलसिला सिकी अजवाइन चबाने का, निपटे तो भुनी अलसी, कुटा जीरा, पिसा धनिया. तेजपान का अर्क, कच्चे करेले का सलाद, लोंग का पानी, हल्दी का जूस, काली-मिर्ची का सत, हरी मिर्ची का शेक, लाल मिर्ची का धुँआ, और नासिकानली में खौलता कड़वा तेल. और वो नाम से ही उल्टी करने का मन करता है – वो क्या कहते हैं गिलोय के पत्ते चबाना. पेनाल्टी में बाबा रामदेव के तीन आसन भी करो. ये सब करने से बेहतर है प्रभु श्रीराम के तीर खाकर मर जाना.’

‘ये सब करते रहें महाराज, विजयादशमी में अभी महीना भर बाकी है, इन्फेक्शन कभी भी लग सकता है.’

इग्नोर मारा उन्होंने. हँसते रहे. कांफिडेंट लगे कि कोरोना भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा. मरने से वे वैसे भी नहीं डरते. हर साल मरते ही हैं, अगले बरस फिर जी उठेंगे. लंकेश हमेशा जीवित रहेंगे.

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर,

उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 9 ☆ कैसा होने लगा अब संसद में व्यवहार? ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की एक  समसामयिककविता कैसा होने लगा अब संसद में व्यवहार? हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 9☆

☆ कैसा होने लगा अब संसद में व्यवहार ?☆

कैसा होने लगा अब संसद में व्यवहार

लगता है संसद नहीं मछली का बाजार

दिन दिन बढ़ता जा रहा गुंडों का अधिकार

नासमझो के सामने समझदार की हार

जहां नियम संयम बिना चलता कारोबार

मारपीट धरपकड़ से होता गलत प्रचार

बल के आगे बुद्धि जब हो जाती लाचार

चल पाएगी किस तरह वहां कोई सरकार

समझ ना आता कुछ  क्यों बदल गया संसार

जहां नेह सद्भाव गुण जो जीवन आधार

खोते जाते मान नित जैसे हो बेकार

तानाशाही जीतती लोकतंत्र की हार

ऐसे में संभव कहां जनता का उद्धार

हरएक सदन में आए दिन मची हुई तकरार

दुख वर्धक होता सदा ही हिंसक व्यवहार

नीति पूर्ण संवाद ही है वास्तविक उपचार

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 20 – महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़-2 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़ पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 20 ☆ 

☆ महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़ 2 ☆

मुग़ल-ए-आज़म अपने ज़माने की सबसे मंहगी और सफल फ़िल्म थी, लेकिन इसके निर्देशक के. आसिफ़ ताउम्र एक किराए के घर में रहे और टैक्सी पर चले.

यासिर अब्बासी बताते हैं, “जब शाहपुरजी बहुत तंग आ गए तो उनसे एक बार नौशाद ने पूछा कि अगर आप को आसिफ़ से इतनी शिकायत है, तो आपने उनके साथ ये फ़िल्म बनाने का फ़ैसला क्यों किया? शाहपुरजी ने एक ठंडी सांस लेकर कहा कि नौशाद साहब एक बात बताऊँ, ये आदमी ईमानदार है.”

“इसने इस फ़िल्म में डेढ़ करोड़ रुपए ख़र्च कर दिए हैं, लेकिन उसने अपनी जेब में एक फूटी कौड़ी भी नहीं डाली है. बाक़ी सभी कलाकारों ने अपना कॉन्ट्रैक्ट कई बार बदलवाया, क्योंकि वक़्त गुज़रता जा रहा था. लेकिन इस शख़्स ने पुराने कॉन्ट्रैक्ट पर काम किया और कोई धोखाधड़ी नहीं की.”

“कोई पैसे का ग़बन नहीं किया. ये आदमी आज भी चटाई पर सोता है, टैक्सी पर छह आना हर मील का किराया देकर सफ़र करता है और सिगरेट भी दूसरों से मांग कर पीता है. ये आदमी बीस घंटे खड़े हो कर लगातार काम करता है और हम लोग हैरान रह जाते हैं.”

ऐतिहासिक फिल्‍म ”मुगल-ए-आजम” बनाने वाले के. आसिफ ने सितारा देवी से शादी की थी। सितारा देवी भरतनाट्यम के लिए देश-विदेश में मशहूर थीं। वह अच्‍छी कलाकार होने के साथ बड़े दिल वाली महिला थीं। उन्‍होंने पति से निगार की सिफारिश की। पत्‍नी को खुश करने के लिए के. आसिफ ने निगार को मुगल-ए-आजम में काम दे दिया, जिन्होंने मधुबालाके विरुद्ध बहार की भूमिका निभाई थी लेकिन सितारा देवी पर यह काफी भारी पड़ा। आसिफ एक दिन निगार को सितारा देवी की सौतन बना कर घर ले आए। यह उनके दिल पर नागवार गुजरा, पर वह खून का घूंट पीकर रह गईं।

एक बार और आसिफ ने दगाबाजी की, इस बार उनकी नजर अपने दोस्‍त की बहन पर ही पड़ गई। उन्‍होंने दिलीप कुमार की बहन अख़्तर आसिफ़ को बेगम बना लिया। तब सितारा देवी के सब्र का बांध टूट गया। उन्‍होंने आसिफ को बद्दुआ देते हुए कहा- ‘तुम बेमौत मरोगे और मैं तुम्‍हारा मरा मुंह भी नहीं देखूंगी।’ हालांकि, यह अलग बात है कि सितारा देवी उतनी बेरहम दिल नहीं रह सकीं। 9 मार्च, 1971 को आसिफ की मौत की खबर जब उन्‍हें मिली तो वह खुद को रोक नहीं पाईं। वह तुरंत आसिफ के घर गईं और उनके अंतिम दर्शन किए।

के.आसिफ़ को मुग़ले आज़म के लिए 1960 का बेस्ट फ़िल्म फिल्मफेअर अवार्ड, बेस्ट निर्देशक अवार्ड, राष्ट्रपति का सिल्वर अवार्ड मिले थे।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 55 – आड पडदा… ☆ सुजित शिवाजी कदम

सुजित शिवाजी कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #55 ☆ 

☆ आड पडदा… ☆ 

 

त्या दिवशी तुला पावसात

भिजताना पाहीलं.. अन्

वाटलं…

माझ जसं

पावसाशी नातं आहे

तसंच तुझ आणि पावसाच

आहे की काय….

पण आज तुला

पावसात छत्री घेऊन

येताना पाहीलं

तेव्हा खात्री झाली…

माझ्यासारख तुझ पावसाशी

काहीच नातं नाही

कारण….

त्याच्यात आणि माझ्यात

कधी

कोणता आड पडदाच

येत नाही…!

 

© सुजित शिवाजी कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 63 ☆ अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 63 ☆

☆ अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़ ☆

अल्फ़ाज़ जो कह दिया/ जो कह न सके जज़्बात/ जो कहते-कहते कह ना पाए अहसास। अहसास वह अनुभूति है, जिसे हम शब्दों में बयान नहीं कर सकते। जिस प्रकार देखती आंखें हैं, सुनते कान हैं और बयान जिह्वा करती है। इसलिए जो हम देखते हैं, सुनते हैं, उसे यथावत् शब्दबद्ध करना मानव के वश की बात नहीं। सो! अहसास हृदय के वे भाव हैं, जिन्हें शब्द रूपी जामा पहनाना मानव के नियंत्रण से बाहर है। अहसासों का साकार रूप हैं अल्फ़ाज़, जिन्हें हम बयान कर देते हैं… वास्तव में ही सार्थक हैं। वे जज़्बात, जो हृदय में दबे रह गए, वे अस्तित्वहीन हैं, नश्वर हैं… उनका कोई मूल्य नहीं। वे किसी की पीड़ा को शांत कर, सुक़ून प्रदान नहीं कर सकते। इसलिए उनकी कोई अहमियत नहीं; वे निष्फल व निष्प्रयोजन हैं। मुझे स्मरण हो रहा है, रहीम जी का वह दोहा…’ऐसी बानी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरन को शीतल करे, खुद भी शीतल होय’ के द्वारा मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया गया है, जिस से दूसरों के हृदय की पीड़ा शांत हो सके। मानव को अपना मुख तभी खोलना चाहिए, जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों। यथासमय सार्थक वाणी का उपयोग सर्वोत्तम है। मानव के शब्दों व अल्फाज़ों में वह सामर्थ्य होनी चाहिए कि सुनने वाला उसका क़ायल हो जाए, मुरीद हो जाए। जैसाकि सर्वविदित है, शब्द-रूपी बाणों के घाव कभी भर नहीं सकते, वे आजीवन सालते रहते हैं। इसलिए मौन को नवनिधि के समान उपयोगी व प्रभावकारी बताया गया है। चेहरा मन का आईना होता है और अल्फ़ाज़ हृदय के भावों व मन:स्थिति को अभिव्यक्त करते हैं। सो! जैसी हमारी मनोदशा होगी, वैसे हमारे अल्फ़ाज़ होंगे। इसीलिए कहा जाता है, यदि आप गेंद को ज़ोर से उछालोगे, तो वह उतनी ऊपर जाएगी। यदि हम जलधारा में विक्षेप उत्पन्न करते हैं, वह उतनी ऊपर की ओर जाएगी। यदि हृदय में क्रोध के भाव होंगे, तो अहंनिष्ठ प्राणी दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करेगा। इसी प्रकार सुख-दु:ख, ख़ुशी-ग़म व राग-द्वेष में हमारी प्रतिक्रिया भिन्न होगी। जैसे शब्द हमारे मुख से प्रस्फुटित होंगे, वैसा उनका प्रभाव होगा। शब्दों में बहुत सामर्थ्य होता है। वे पल-भर में दोस्त को दुश्मन व दुश्मन को दोस्त बनाने की क्षमता रखते हैं। इसलिए मानव को अपने भावों को सोच-समझ कर अभिव्यक्त करना चाहिए।

तूफ़ान में किश्तियां/ अभिमान में हस्तियां/ डूब जाती हैं।ऊंचाई पर वे पहुंचते हैं/ जो प्रतिशोध की बजाय/ परिवर्तन की सोच रखते हैं। मानव को मुसीबत में साहस व धैर्य को बनाए रखना चाहिए; अपना आपा नहीं खोना चाहिए। इसके साथ ही अभिमान को भी स्वयं से कोसों दूर रखना चाहिए। यह अकाट्य सत्य है कि वे ही उस मुक़ाम पर पहुंचते हैं, जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन में विश्वास करते हैं। मुसीबतें तो सब पर आती हैं–कोई निखर जाता है, कोई बिखर जाता है और जो आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखता है, सभी आपदाओं पर मुक्ति प्राप्त कर लेता है। स्वेट मार्टन का यह कथन इस भाव को पुष्ट करता है…’केवल विश्वास ही हमारा संबल है, जो हमें अपनी मंज़िल पर पहुंचा देता है।’ शायद इसीलिए रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘एकला चलो रे’ सिद्धांत पर बल दिया है। यह वाक्य मानव में आत्मविश्वास जाग्रत करता है, क्योंकि एकांत में रह कर विभिन्न रहस्यों का प्रकटीकरण होता है और इंसान उस अलौकिक सत्ता को प्राप्त होता है। इसीलिए मानव को मुसीबत की घड़ी में इधर-उधर न झांकने का संदेश प्रेषित किया गया है।

सुंदर संबंध वादों व शब्दों से जन्मते नहीं, बल्कि दो अद्भुत लोगों द्वारा स्थापित होते हैं…जब एक अंधविश्वास करे और दूसरा उसे बखूबी समझे। जी हां! संबंध वह जीवन-रेखा है, जहां स्नेह, प्रेम, पारस्परिक संबंध, अंधविश्वास और मानव में समर्पण भाव होता है। संबंध विश्वास की स्थिति में ही शाश्वत हो सकते हैं, अन्यथा वे भुने हुए पापड़ के समान पल भर में टूट सकते हैं व ज़रा-सी ठोकर लगने पर कांच की भांति दरक़ सकते हैं। सो! अहं संबंधों में दरार ही उत्पन्न नहीं करता, उन्हें समूल नष्ट कर देता है। इगो (EGO) शब्द तीन शब्दों का मेल है, जो बारह शब्दों के रिलेशनशिप ( RELATIONSHIP) अर्थात् संबंधों को नष्ट कर देता है। दूसरे शब्दों में अहं चिर-परिचित संबंधों में सेंध लगा हर्षित होता है; फूला नहीं समाता और एक बार उनमें दरार पड़ने के पश्चात् उसे पाटना अत्यंत दुष्कर ही नहीं, असंभव होता है। इसीलिए मानव को बोलने से तोलने अर्थात् सोचने-विचारने की सीख दी जाती है। ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ जो व्यक्ति इस नियम का पालन करता है, उसके संबंध सबके साथ सौहार्दपूर्ण बने रहते हैं और वह कभी भी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करता।

मित्रता, दोस्ती व रिश्तेदारी सम्मान की नहीं, भाव की भूखी होती है। लगाव दिल से होना चाहिए; दिमाग से नहीं। यहां सम्मान से तात्पर्य उसकी सुंदर-सार्थक भावाभिव्यक्ति से है। भाव तभी सुंदर होंगे, जब मानव की सोच सकारात्मक होगी और आपके हृदय में किसी के प्रति राग-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं होगा। इसलिए मानव को सदैव सर्वहिताय व अच्छा सोचना चाहिए, क्योंकि मानव दूसरों को वही देता है जो उसके पास होता है। शिवानंद जी के मतानुसार ‘संतोष से बढ़कर कोई धन नहीं। जो मनुष्य इस विशेष गुण से संपन्न है, त्रिलोक में सबसे बड़ा धनी है।’ रहीम जी ने भी कहा है, ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान।’ इसके लिए आवश्यकता है… आत्म-संतोष की, जो आत्मावलोकन का प्रतिफलन होता है। इसी संदर्भ में मानव को इन तीन समर्थ, शक्तिशाली व उपयोगी साधनों को कभी न भूलने की सीख दी गई है…प्रेम, प्रार्थना व क्षमा। मानव को प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव रखना चाहिए और प्रभु से उनके हित प्रार्थना करनी चाहिए। जीवन में क्षमा को सबसे बड़ा गुण स्वीकारा गया है। ‘क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात्’ अर्थात् बड़ों को सदैव छोटों को क्षमा करना चाहिए। बच्चे तो स्वभाव-वश नादानी में ग़लतियां करते हैं। वैसे भी मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। अक्सर मानव को दूसरों में सदैव ख़ामियां-कमियां नज़र आती हैं और वह मंदबुद्धि स्वयं को गुणों की खान समझता है। परंतु वस्तु-स्थिति इसके विपरीत होती है। मानव स्वयं में तो सुधार करना नहीं चाहता; दूसरों से सुधार की अपेक्षा करता है। यह तो चेहरे की धूल को साफ करने के बजाय, आईने को साफ करने के समान है। दुनिया में ऐसे बहुत से लोग मिलते हैं, जो आपको उन्नति करते देख आपके नीचे से सीढ़ी खींचने में विश्वास रखते हैं। मानव को ऐसे लोगों से कभी मित्रता नहीं करनी चाहिए। इसीलिए कहा जाता है कि ‘ढूंढना है तो परवाह करने वालों को ढूंढिए, इस्तेमाल करने वाले तो खुद ही आपको ढूंढ लेंगे।’ परवाह करने वाले लोग आपकी अनुपस्थिति में भी सदैव आपके पक्षधर रहेंगे तथा मुसीबत में आपको पथ-विचलित नहीं होने देंगे, बल्कि आपको थाम लेंगे। परंतु यह तभी संभव होगा, जब आपके भाव व अहसास उनके प्रति सुंदर होंगे और आपके ज़ज़्बात समय-समय पर अल्फ़ाज़ों के रूप में उनकी प्रशंसा करेंगे। जब आपके संबंधों में परिपक्वता आ जाती है, आप के मनोभाव आपके साथी की ज़ुबान बन जाते हैं… तभी यह संभव हो पाता है। सो! अल्फ़ाज़ वे संजीवनी हैं, जो संतप्त हृदय को शांत कर सकते हैं; दु:खी मानव का दु:ख हर सकते हैं और हताश-निराश प्राणी को ऊर्जस्वित कर, उसकी मंज़िल पर पहुंचा देते हैं। अच्छे व मधुर अल्फ़ाज़ रामबाण हैं, जो दैहिक, दैविक, भौतिक अर्थात् त्रिविध ताप से मानव की रक्षा करते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 16 ☆ समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन में घटती रुचि ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन में घटती रुचि)

☆ किसलय की कलम से # 16 ☆

☆ समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन में घटती रुचि 

एक सामाजिक प्राणी होने के कारण ही मनुष्य गाँवों और शहरों में एक साथ निवास करता है। मनुष्य अकेला रहकर सुरक्षित वह सुखमय जीवन यापन नहीं कर सकता। समाज में रहते हुए परस्पर आवश्यकताओं के विनिमय तथा सहयोग से ही मानव आज प्रगति की अकल्पनीय ऊँचाई पर पहुँच चुका है। इन गावों और नगरों से ही बने देश में हम एक प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत जीवन यापन करते हैं। हमारा देश भारत व्यापक भौगोलिक सीमा तथा विश्व का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है। हमारे देश की संस्कृति, आचार-विचार, जीवनशैली, प्राकृतिक-परिवेश एवं वर्ण-व्यवस्था अपनी विशिष्टताओं के कारण अन्य देशों से भिन्न है। रामायण, महाभारत तथा अन्य पौराणिक ग्रंथों में हमारी ऐसी अनेक विशेषताओं का विस्तृत वर्णन मिलता है जहाँ अपने परिवार, परमार्थ, अपने समाज व अपने देश की आन-बान-शान को सर्वोच्च स्थान प्रदत्त है। समाज कल्याण व देशहित के ऐसे हजारों-हजार उदाहरण हैं, जिन्हें आज भी हम ग्रंथों, काव्यों, पुस्तकों, लोकोक्तियों, मुहावरों सुभाषितों, नृत्य-नाटकों और अब रेडियो टी.वी. तथा पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ सकते हैं, देख और सुन भी सकते हैं।

सतयुग, त्रेतायुग व द्वापर युग के राजा-महाराजाओं, ऋषि-मुनियों, विशिष्ट तथा आम लोगों द्वारा अपने समाज व देश के प्रति दायित्व निर्वहन के जो कीर्तिमान स्थापित किए गए वे विश्व में अन्यत्र कहीं दिखाई या सुनाई नहीं देते। तत्पश्चात इस कलयुग में भी देशभक्त व जनहितैषी राजा-महाराजाओं, दिशादर्शकों एवं समाजसुधारकों की एक लंबी श्रृंखला है। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, महारानी लक्ष्मीबाई जैसे पूजनीय और चिरस्मरणीय व्यक्तित्वों का नाम आते ही सीना फूल जाता है। श्रद्धा से मस्तक झुक जाता है। देश और समाज के प्रति निर्वहन किए गए उनके कर्त्तव्य याद आते ही हम बौनेपन का अनुभव करने लगते हैं। उनके सामने तराजू के पासंग के बराबर भी स्वयं को नहीं पाते।

आखिर हममें इतना बदलाव कैसे आ गया? क्या केवल इसलिए कि आज हम एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं? क्या राष्ट्र निर्माण, राष्ट्र प्रगति और सामाजिक व्यवस्था की संपूर्ण जवाबदेही केवल शासन-प्रशासन की है? क्या हमें अपने और अपने परिवार के आगे किसी और के विषय में सोचना ही नहीं चाहिए? क्या समाज और राष्ट्र के प्रति हमारे कोई दायित्व नहीं हैं? सच तो यही है कि अधिकांश लोगों की सोच कुछ ऐसी ही बन चुकी है। उन्हें न तो समाज हित दिखाई देता है और न ही राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य निर्वहन। इन सब के पीछे अनेक तथ्यों को गिनाया जा सकता है। किसी भी तथ्य को जानने के लिए उसके दोनों पहलुओं अथवा पक्षों का जानना अति आवश्यक होता है। सीधी सी बात है कि मिठास, अच्छाई और प्रेम को भलीभाँति तभी समझा जा सकता है जब हमें कड़वाहट, बुराई और घृणा के बारे में भी जानकारी हो। यदि मानव ने ये  स्वयं भोगे हों अथवा अनुभव किया हो तो उन सबके मूल्यों को वह अच्छी तरह से समझ सकता है।

आज स्वतंत्रता पूर्व के उन लोगों का बहुत कम प्रतिशत बचा है जिन्होंने अपनी आँखों से अंग्रेजों के अत्याचार और स्वातंत्र्य वीरों की गतिविधियों एवं बलिदान को देखा या सुना है। यह यकीन के साथ कहा जा सकता है कि ऐसे अधिकांश लोगों को आजादी की कीमत और महत्त्व भलीभाँति स्मृत होगा। आजादी के लम्बे आंदोलन तथा अंग्रेजों के अमानवीय अत्याचारों की पराकाष्ठा ने मानवता की जो धज्जियां उड़ाई थीं, उसकी कल्पना मात्र भी आज की पीढ़ी को असहज कर सकती है।

हर इंसान इस सच्चाई को जानता है कि उसे एक न एक दिन सब कुछ छोड़कर मरना ही है, फिर भी वह निजी हितों के आगे सब कुछ भुला देता है। आज हमारे जीवनचर्या की भी अजीब विडंबना है। पहले हम अपनी सुख-शांति की चाह में उद्योग-धंधे, कोठियाँ और गाड़ियाँ खड़ी करने हेतु दिन-रात पैसे कमाने में जुटे रहते हैं, लेकिन सब कुछ मिल जाने के बाद कभी रात में नींद नहीं आती, तो कभी छप्पन भोग की व्यवस्था होने पर भी कुछ खा नहीं पाते। अनेक लोग कहीं शुगर से, कहीं हृदयाघात से और कहीं रक्तचाप जैसी बीमारियों से जूझते देखे जा सकते हैं। उनकी सारी धन-दौलत तथा सुख-संपन्नता किसी कोने में धरी की धरी रहती है।

आज एक ऐसा शोषक वर्ग बढ़ता जा रहा है जो गरीब, मजदूर व कमजोरों की रोजी-रोटी, लघु उद्योग एवं मजदूरी तक छीन रहा है। पहले ऐसे बहुत कुछ जरूरत के सामान व सामग्री हुआ करती थी, जो यह गरीब तबका बनाकर अपनी रोजी-रोटी चला लेता था, लेकिन आज अधिकतर वही चीजें निर्माणियों में बनने लगी हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि बहुत बड़ी संख्या में मजदूर बेरोजगारी की कगार पर खड़े हो गये हैं। क्या समाज के इस दीन-हीन वर्ग के हितार्थ ये धनाढ्य आगे नहीं आ सकते? आखिर आएँगे भी कैसे। बड़े से और बड़े होने की महत्वाकांक्षा जो इनके आड़े आ जाती है। इन पढ़े-लिखे और संभ्रांत लोगों को समाज के प्रति इनके दायित्वों को भला कौन समझाने की जुर्रत करेगा?

आज की राजनीति बिना पैसों के असंभव है। एक साधारण व्यक्ति सारी जिंदगी छुटभैया नेता बनकर रह जाता है। एक ईमानदार, चरित्रवान, सामाजिक सरोकार में रुचि रखने वाले नेता का वर्तमान में कोई भविष्य नहीं है। धनाढ्यों की संतानें पीढ़ी दर पीढ़ी देशप्रेम और देशहित की दुहाई दे देकर राजनीति करते रहते हैं। देश के प्रति समर्पण की भावना या समाज के प्रति अपने दायित्व निर्वहन का तो इनके पास समय ही नहीं रहता। अरबों-खरबों की धन दौलत वाले भी दिखावे के लिए ही समाज सेवा का ढोंग रचते देखे गए हैं। ऐसे देशहितैषी और समाजहितैषी धनाढ्यों को बहुत कम ही देखा गया है जो निश्छल भाव से अपनी कमाई का कुछ अंश देश और समाज हित में लगाते हैं।

आज की पीढ़ी को व्यवसाय आधारित शिक्षा ग्रहण करने हेतु जोर दिया जाता है। इसमें न रिश्ते होते हैं, न मान-मर्यादा का पाठ, न व्यावहारिक ज्ञान और न ही कर्त्तव्य बोध। जब शिक्षा ही केवल व्यवसाय और नौकरी के लिए होगी तब शेष व्यावहारिक संस्कार और कर्त्तव्यों को कौन सिखाएगा। उद्योग, व्यवसाय अथवा नौकरी पेशा माता-पिता तो सिखाएँगे नहीं, क्योंकि उनके पास अपनी संतानों के लिए भी इतना वक्त नहीं होता कि वे उनको स्नेह, लाड़-प्यार व अच्छी सीख दे सकें। रही सही अच्छी बातें जो आजा-आजी व नाना-नानी सिखाया करते थे तो उन लोगों से इन बच्चों का वर्तमान समय में मिलना-जुलना ही बहुत कम होता है। सही कहा जाए तो इन बच्चों के माँ-बाप स्वयं उनके आजा-आजी या नाना-नानी के पुराने विचारों व संस्कारों को सिखाने उनके पास रहने का अवसर ही नहीं देते। अब आप ही सोचें, जब बच्चों को कोई बड़े बुजुर्ग उन्हें धर्म, संस्कृति और संस्कारों की बात नहीं सिखाएगा, विद्यालयीन और महाविद्यालयीन अध्ययन के पश्चात बच्चे जब सीधे उद्योग-धंधों अथवा नौकरियों में चले जायेंगे तब वे हमारे इतिहास, हमारी समृद्ध संस्कृति, सामाजिक उत्तरदायित्व व देशप्रेम को कैसे समझेंगे।

इसे हम आज की एक बड़ी भूल या कमी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यथार्थता के धरातल पर देखा जाए तो निश्चित रूप से यह हमारे समाज व हमारे देश के लिए एक घातक बीमारी से कम नहीं है। हमारे पास सुखी व शांतिपूर्ण जीवन यापन हेतु साधन उपलब्ध हों। हमारी संताने भविष्य में सुखी-संपन्न जीवन यापन कर सकें, यहाँ तक भी ठीक है, लेकिन इससे भी आगे हम लालसा करें तो क्या यह उचित होगा? हमें परोपकार, समाज सेवा, तथा देशहित में कर्त्तव्य परायणता अन्तस में जगाना होगी। उक्त बातें कड़वी जरूर है लेकिन शांतचित्त और निश्चल भाव से सोचने पर सच ही लगेंगी। हम सबको खासतौर पर आजादी के बाद जन्म लेने वालों को स्वयं तथा अपनी संतानों में ऐसे भाव जाग्रत करने की आवश्यकता है, जिससे हम व हमारी संतानों में समाज एवं राष्ट्र के प्रति दायित्व निर्वहन की रुचि प्रमुखता से दिखाई दे।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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