हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #81 ☆ आलेख – भजनं नाम रसनं ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक विचारणीय एवं सार्थक आलेख  ‘भजनं नाम रसनं’. इस सार्थक व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 81 ☆

☆ आलेख भजनं नाम रसनं ☆

प्रमुखतः शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत और लोक संगीत के रूपों में भारतीय संगीत की व्यापक विवेचना की जाती है.  सुगम संगीत की एक शैली भजन है जिसका आधार शास्त्रीय संगीत या लोक संगीत ही होता है. उपासना की प्रायः भारतीय पद्धतियों में भजन को साधन के रूप में  प्रयोग किया जाता है. तय है कि भजन के स्वरो के जादू से कई मंदिरो में युगो युगो तक कई साधको को परमात्मा प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता रहेगा.

भजनं नाम रसनं, भजन का अर्थ होता है स्वाद लेना.  ‘भजनं नाम आस्वादनम’ मतलब स्मरण करके आनंद लेना, यह भी भजन का ही एक प्रकार है. दरअसल भजन का गूढ़ अर्थ होता है,  प्रीति पूर्वक सेवा.  प्रीति मन से होती है. यह और बात है कि कौन कहां मन लगा पाता है.

चाहे हाथ से पूजा करें, चाहे पाँव से प्रदक्षिणा करें, चाहे जीभ से स्तुति करें, चाहे साष्टांग दण्डवत करें और चाहे मन में ध्यान करें,  भजन दरअसल प्रीति है.  प्रीति का व्यापक अर्थ होता है तृप्ति. मंदिर मंदिर, तीरथ तीरथ भ्रमण, भगवान् के नाम, धाम, रूप, भगवान की लीला, भगवान की सेवा, भगवान के दर्शन से जो आत्मिक शांति और तृप्ति मिलती है वही वास्तविक भजन है. नेता जी तीर्थ करवा कर वोट लेने को  ही भजन मानते हैं. चमचे नेता जी को दण्डवत कर उन्हें ही अपना इष्ट मानते हैं. सबके अपने अपने देवता होते हैं.

“संभोग से समाधि तक” लिखकर दार्शनिक चिंतक रजनीश ने इसी तृप्ति से भगवान को अनुभव करने की विशद व्याख्या की है.  वे सारी दुनियां में चर्चित रहे. रजनीश ने भी कोई नई विवेचना नहीं की थी. खजुराहो के मंदिरों की दार्शनिक विवेचना की जाये तो यही समझ आता है कि परमात्मा तो भीतर है, बाहर महज वासना है. काम, क्रोध, को बाहर छोड़कर मंदिर के छोटे दरवाजो से जब,  आत्म सम्मान को त्याग कर, सर झुकाकर हम मंदिर के अंदर प्रवेश कर पाते हैं तभी हमें भीतर भगवान की प्राप्ति हो पाती है. जिसने ऐसा कर लिया वह ज्ञानी, वरना सब अहंकारी तो हैं ही.

गजल भी मूलतः खुदा की इबादत में कही जाती थी, शायर खुदा के प्रेम में ऐसा तल्लीन हो जाता है कि न भिन्नं.  माशूका से  एकाकार होने जैसा एटर्नल  लव  गजल को जन्म देता है.  कालान्तर में परमात्मा से यह एकात्म किंचित वैभिन्य का स्वरूप लेता गया और अब गजल बिल्कुल नये प्रयोगो से गुजर रही है. रब से शराब की गजल यात्रा अब शबाब के सैलाब से गुजर रही है.

कृष्ण और राधा के एटर्नल लव के कांसेप्ट से हम ही नहीं पाश्चात्य जगत भी असीम सीमा तक प्रभावित है, इस्कान के मंदिरो में भारतीय पोशाक में विदेशियो की भीड़ वही आत्मिक प्रेम ढ़ूंढ़ती नजर आती है. किसी को प्रेम मिलता है किसी को भगवान, किसी को जीवंत तो किसी को आभासी प्रेम मिलता है. कोई राधा के चक्कर में रुक्मणी से ही उलझ जाता है.

यू दीवाने हमेशा से उलटी ही राह चलते हैं. वे सनम के दीदार के लिये आंखो को बंद करते हैं. जरा नजरो को झुकाते हैं और हृदय में देख लेते हैं अपने आशिक को. जिसने राधा भाव से इस आशिकी में कृष्ण के दर्शन कर लिये वह संत हो जाता है, वरना मेरे आप की तरह लौकिक प्रेम के भौतिक प्रेमी हाड़ मांस में ही परम सुख ढ़ूढ़ते जीवन बिता देते हैं. और यही कहते रह जाते हैं कि “मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो.” वास्तव में “मेरे मन में राम मेरे तन में राम, रोम रोम में राम रे” होते तो हैं पर उन्हें ढ़ूढ़कर मन मंदिर में बसा सकना ही भजन का वजन है.

कोई सफेद चोंगे में चर्च में भगवान की जगह नन ढूंढ लेता है कोई भगवा में भक्तिनो को धोखा देता है, कोई बुर्के को तार तार कर रहा है. जन्नत की हूरों की तलाश में जमीन पर आतंक फैला रहा है.

भगवान करे सबको उनके लक्ष्य ही मिले. जैसे बच्चा माँ के बिना, प्यासा पानी के बिना रह नहीं सकता, ऐसे ही जब हम भगवान के बिना रह न सकें तो इस प्रक्रिया का ही नाम भजन होता है. करोड़पति पिता से कुछ हजार रूपये लेकर अलग होकर बेटा, पिता की सारी सत्ता से जैसे वंचित रह जाता है ठीक उसी तरह परम पिता भगवान से कुछ माँगना उनसे अलग होना है, उनसे एकात्म बनाये रहने में ही हम भगवान की सारी सत्ता के हिस्से बने रह सकते हैं. परमात्मा में विलीन होना ही जीवन मरण के बंधन से मुक्ति पाना है. बच्चा  माँ पर अधिकार अपनेपन से करता है, तपस्या, सामर्थ्य या योग्यता से नहीं.  तपस्या से सिद्धि और शक्ति भले ही प्राप्त हो जावे प्रेम नहीं मिल सकता. निष्काम होने से मनुष्य मुक्त, भक्त सब हो जाता है. भगवान के साथ सम्बन्ध रखें तो सांसारिक कामनायें स्वतः ही शांत हो जाती हैं. यह भजन का वजन है. संसार में आसक्ति का अर्थ है, भगवान में वास्तविक प्रेम की अनुभूति का अभाव. किंतु यह सत्य जानकर भी हममें से ज्यादातर इसे समझ नही पाते.

जो भी हो पर हम आप जो रोटी, कपड़ा और मकान के चक्कर में ही आजीवन उलझे रह जाते हैं,  वे बेचारे आम आदमी भगवान को पाने के चक्कर में कईयो को सिद्ध बाबा बना देते है. जनता के लिए “भूखे भजन न होंहि गोपाला ” का सिद्धांत और सवाल ही सबसे बड़ा बना रह जाता है लेकिन जिस दिन लगन लग जायेगी मीरा  मगन हो जायेगी यही भजन का वास्तविक वजन है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 41 ☆ बदलापुर की गाथा ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “बदलापुर की गाथा”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 41 – बदलापुर की गाथा ☆

बड़े घमंड के साथ, प्रचार – प्रसार द्वारा लगभग लाखों सब्सक्राइबर बना लिए,  पर जब भी कोई पोस्ट करते तो बस दस पन्द्रह लाइक ही झोली में आते हैं, अब तो बदलू जी परेशान रहने लगे। हद तो तब हो गयी जब वे बदलापुर के लिए निकल पड़े तो उनके दो अनुयाई भी उनका साथ न देकर,  नए नेता की ओर चल दिये। लोटा और पेंदी का साथ बहुत अच्छी बात है,  पर जब दोनों अलग हो जाएँ तो बिन पेंदी का लोटा लुढ़कता ही है।

इसी सब में क्षमा के गुणों की चर्चा भी चल निकली। ‘क्षमा वीर आभूषण’ होता कहना और सुनना तो सरल होता है पर जब किसी को क्षमा करना हो तो अहंकार आड़े आ ही जाता है। वो तो भला हो वीरचंद्र का जो सबको संमार्ग  ही दिखाते हैं। उन्होंने ने न जाने कितने लोगों को माफ किया और आगे बढ़ चले। सच ही कहा गया है। सिर पर ज्यादा बोझ हो तो चलना मुश्किल होता है ।

मजे की बात ये है कि अधिकांश लोग पूर्वाग्रही होते हैं। वे एक ही रंग का चश्मा पहन कर दुनिया को बदलने चल पड़ते हैं। अरे भई जब तक स्वयं को नहीं बदलोगे तब तक कुछ भी बदलने से रहा। कब तक कुएँ के मेढ़क की तरह उछल कूद करते रहोगे। कभी नदी का सफर भी करो। कैसे वो प्रपात बनाती हुई चलती है। तट का पहरा अवश्य ही उसके ऊपर रहता है। पर अपने लक्ष्य को साधकर आगे बढ़ने में उसे महारत हासिल होती है। सागर में समाहित होकर भी अपना अस्तिव व पहचान बनाए रखती है। उद्गम से चलते हुए न जाने कितनी बाधाओं को पार करना पड़ता है। कई छोटी – बड़ी नदियों के साथ संगम बनाती हुई,  रास्ते के कूड़े- करकट, नालियों का पानी सबको आत्मसात कर निरंतर चरैवेति – चरैवेति के सिद्धांत पर अड़िग होकर बढ़ती जाती है ।

सिक्के के एक पहलू से दूसरे पहलू की मित्रता कभी हो ही नहीं सकती ये तो दिन- रात की भांति दिखते हैं। कभी हेड तो कभी टेल बस जिस नज़र से दिखेंगे वही दिखेगा। यहाँ फिर से बात नजरिए पर आ टिकी,  सोच बदलो जीवन बदल जायेगा। ये बदलाव भी आखिर क्या चीज है। बदलू जिसे अपनाकर इतिहास रच रहा है। बदला लेने के लिए लोग क्या- क्या नहीं कर बैठते। औरंगजेब को देखिए उसने तो बदले की सभी हदें पार कर दी थीं । अपने पिता शाहजहां को बूंद- बूंद पानी के लिए तरसा दिया था। जरा सोचिए हमारी परंपरा तो प्याऊ लगवाने की रही है वहाँ ऐसा घोर अनाचार,  आखिर ये भी तो बदलापुर की बदलागिरी ही लगती है ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 48 ☆ गीत – चन्दनवन वीरान हो गए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक गीत “चन्दनवन वीरान हो गए.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 48 ☆

☆ गीत – चन्दनवन वीरान हो गए ☆ 

 

नीरवता ऐसी है फैली

चन्दनवन वीरान हो गए।

जो उपयोगी था उर-मन से

लुटे-पिटे सामान हो गए।।

 

झाड़ उगे, अँधियारा फैला

सूनी हैं दीवारें सब

अर्पण और समर्पणता की

खोई कहाँ बहारें अब

कौन किसी के साथ गया है

किसको कहाँ पुकारें कब

 

गठरी खोई श्वांसों की सच

सब ही अंतर्ध्यान हो गए।।

 

कितने सपने, कितने अपने

खोई है तरुणाई भी

भोग-विलासों के आडम्बर

लगते गहरी खाई – सी

बचपन के सब गुड्डी- गुड्डन

छूटे धेला पाई भी

 

वक्त, वक्त के साथ गया है

मरकर सभी महान हो गए।।

 

अर्थतन्त्र के चौके, छक्के

गिल्ली से उड़ गए चौबारे

साथ और संघातों के भी

आग उगलते हैं अंगारे

प्यार-प्रीति भी राख हो गई

दिन में भी कब रहे उजारे

 

जोड़ा कोई काम न आया

सारे ही शमशान हो गए।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य – वेध दिवाळीचे ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ विजय साहित्य – वेध दिवाळीचे ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

( मुक्तछंद )

मांदियाळीचे

वेध दिवाळीचे

भाव काव्य मनीचे.. . . !

प्रकाश सण

दिवाळीचे क्षण

ठेवी जपोनी मन….!

आकाश दिवा

आठवांचा थवा

उत्साही रंग नवा ….!

दिवा पहिला

त्या एकादशीला

प्रारंभ दिवाळीला. . . . !

धेनू मातेचा

दिन बारसेचा

प्रेमळ गोमातेचा…!

धन तेरस

तिसरा दिवस

यश कीर्ती कलश….!

नरकासूर

विघ्ने सर्वदूर

निर्मळ अंतःपूर . . . . !

लक्ष्मी पूजन

समृद्धी सृजन

सुख, शांती, चिंतन.. . !

येई पाडवा

आनंद केव्हढा ?

मनोमनी गोडवा ….!

दिस बीजेचा

भाऊ बहिणीचा

मांगल्य वर्धनाचा.. . !

दिवाळी रंग

परंपरा बंध

भावमयी सुगंध …..!

दीप ज्योतीचा

सण दिवाळीचा .

ओलावा अंतरीचा.. . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 70 – अखबार में….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  “अखबार में…….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 70 ☆

☆ अखबार में…….☆  

आज, कोई भी खबर

ऐसी नहीं, अखबार में

अब कहाँ सच मिल रहा है

शहर के बाजार में।

मुँह चिढ़ाते शब्द

बौने से लगे अक्षर

चित्र, मृतकों के,

वहीं, विज्ञापनों के स्वर,

चल रही है, दावतें

स्वर्गस्थ के परिवार में। आज…….

एक पर, दो मुफ्त

मनमाफिक उठा लें ऋण

लोक सेवक बन,

बजाने में, लगे हैं बीन,

चहकते फरमान, प्रतिदिन

मौसमी दरबार में।………

योजनाएं, छ्द्म

कॉलम हैं बने न्यारे

और अंतिम आदमी के

चित्र, रतनारे,

है इधर आरोप, तो कुछ व्यस्त

जय जयकार में। आज………

सफेदी ओढ़े तमस

मुखपृष्ठ पर बैठा

पैरवी, गैरों की

अपनों से रहा ऐंठा,

हो गया ये अब सयाना

फरेबी व्यवहार में।।आज……

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 21 ☆ रिश्तों में जमी बर्फ ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रिश्तों में जमी बर्फ। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 21 ☆ रिश्तों में जमी बर्फ

 

जिंदगी के हसीन पल यूँ ही जाया हो गए,

जीवन तो बस फालतू की बातों में ही बीत गया ||

 

जिन बातों की जिंदगी में अहमियत नही थी,

जीवन तो बस उन्हीं बातों में उलझ कर रह गया ||

 

जीवन में हर कोई मेरे दिल के करीब था,

बिना वजह तेरी-मेरी करने में रिश्ता रीत गया ||

 

जिंदगी में जो सबसे प्यारे और अजीज थे,

बेमतलब की बातों ने उन्हें ही पराया कर दिया ||

 

छोटी-छोटी फिजूल बातें हम समझ नही सके,

इन फिजूल बातों का पंच दिल में गहरा घाव कर गया ||

 

रिश्तों में जमी बर्फ पिघल जाती तो अच्छा था,

बर्फ तो पिघली नहीं मोम सा दिल पिघल कर बह गया ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 72 – उत्सव पर्व ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 72 ☆

☆ उत्सव पर्व ☆

एका केशरी पहाटे

तू भेटलास-

एकाकी सुनसान रस्त्यावर

युगानुयुगे भ्रमंती केल्यावर

जसा भेटावा

कुणी मुसाफिर

जन्मजन्मांतरीचं नातं सांगणारा  !

तुझ्या डोळ्यात जादूगरी

आणि ओठांवर

ओळखीचं हसू!

ते इवलंसं हसू

मी मुठीत गच्च धरून ठेवलं-

तेव्हा पासून सुरू झालं

एक उत्सव पर्व-

तुझ्या माझ्या प्रीतीचं!

आता माझी प्रत्येक पहाट

असतेच रे केशरी

अन् प्राजक्त फुलासारखी

सुगंधीही !

दरवळतात मनात

रातराणी चे सुवासिक सोहळे!

तुझ्या क्षात्रतेजाने

गात्रागात्रात

उजळतात लक्ष लक्ष दीप

अन् काजळरात्र ही बनते

लखलखती दीपावली!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 57 ☆ फासले ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साbharatiinझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “फासले”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 57 ☆

☆  फासले ☆

 

नज़दीक हमारे हाय वो आ न सके

दर्द-ए-जिगर हम उन्हें बता ना सके

 

परिंदे ख्वाब के उड़ते आसमान में

मुक़द्दर उन सा हम पा ना सके

 

तिनके के जैसी होती है हैसियत

किस्मत अपनी हम आजमा ना सके

 

दरख़्त खड़े थे वहाँ सीना ताने हुए

झुके रहे हरदम, हम महका ना सके

 

क्या किस्मत पायी है गुलाब ने भी

काटों में फंसे रहे, आगे जा ना सके

 

जब भी झांका शीशा तो टूट ही गया

अपने अक्स से हाथ मिला ना सके

 

हाताश आये थे, चले जायेंगे उदास से

फासला जो दरमियाँ था मिटा ना सके

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 44 ☆ व्यंग्य संग्रह – अपनी ढपली अपना राग – श्री मुकेश राठौर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  श्री मुकेश राठौर  जी  के  व्यंग्य  संग्रह   “अपनी ढ़पली अपना राग” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 44 ☆ 

व्यंग्य संग्रह – अपनी ढ़पली अपना राग 

व्यंग्यकार – श्री मुकेश राठौर 

प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर 

पृष्ठ १००

मूल्य १२० रु

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह  – अपनी ढ़पली अपना राग – व्यंग्यकार – श्री मुकेश राठौर ☆ पुस्तक चर्चाकार -श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

यूं तो मुझे किताब पढ़ने का सही आनंद लेटकर हार्ड कापी पढ़ने में ही मिलता है, पर ई बुक्स भी पढ़ लेता हूं. मुकेश राठौर जी का व्यंग्य संग्रह अपनी ढ़पली अपना राग चर्चा में है.  इसकी ई बुक पढ़ी.

मुकेश जी जुझारू व्यंग्यकार हैं. नियमित ही यहां वहां पढ़ने मिल रहे हैं व अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करवाते हैं.

उन्हें स्वयं के लेखन पर भरोसा है. संग्रह के कुछ व्यंग्य पूर्व पठित लगे संभवतः किसी पत्र पत्रिका या समूह में नजरो से गुजरे हैं. राजनीति, सोशल मीडीया,मोबाईल, बजट, प्याज, और ग्राम्य परिवेश के गिर्द घूमते विषयो पर उन्होने सार्थक कलम चलाई है. भेडियो की दया याचना संवाद शैली में व्यंग्य का अच्छा प्रयोग है. प्रतीको के माध्यम से न्याय व्यवस्था पर गहरी चोट समझी जा सकती है. बाजा, गाजा और खाजा से शुरू किताब का शीर्षक व्यंग्य अपनी ढ़पली अपना राग  छोटा है, वर्णात्मक ज्यादा है  इसको अधिक मुखर, संदेश दायक व प्रतीकात्मक लिखने की संभावनायें थीं. सच है जीवन में संगीत का महत्व निर्विवाद है. हर कोई अपने तरीके से अपनी सुविधा से अपनी जीवन ढ़पली पर अपने राग ठेल ही रहा है.

ठगबंधन का कामन मिनिमम प्रोग्राम वर्तमान राजनैतिक स्थितियो कर गहरा कटाक्ष है. घर में ” जितनी बहुयें उतने ही बहुमत “, हम वो नही जो चुनाव जीतने के बाद बदल जायें हमने आपकी सेवा के लिये ही पार्टी बदली है, या बाबुओ की थकती कलम के कारण विलम्बित वेतन जैसे अनेक शैली गत व्यंग्य प्रयोग बताते है कि मुकेश जी में व्यंग्य रचा बसा है वे जिस भी विषय पर लिखेंगे उम्दा लिख जायेंगे. बस विषय के चयन का केनवास बड़ा बना रहे तो उनसे हमें धड़ाधड़ धाकड़ व्यंग्य मिले रहेंगे. यही आकांक्षा भी है मेरी.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 68 – कर्मवीर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा  “कर्मवीर।  कई बार हम जल्दबाजी और आवेश में कुछ  ऐसे निर्णय ले लेते हैं जिसके लिए जीवनपर्यन्त पछताते हैं और वह समय लौट कर नहीं आता।  / शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है। इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 68 ☆

☆ लघुकथा – कर्मवीर ☆

कर्मवीर का बोर्ड लगा देख प्रकाश ठिठक सा गया। अंदर जाने की हिम्मत नहीं हुई। क्योंकि वह तो लगभग 21 साल बाद शहर लौट रहा था। दरवाजे पर आवाज दिया, एक हट्टा कट्टा नौजवान  बाहर आया और पूछा… कौन है और क्या चाहिए?? प्रकाश ने सोचा शायद में गलत जगह पर आ गया। यह शायद स्नेहा  का घर तो नहीं है। लौट कर वह चला गया।

स्नेहा और प्रकाश दोनो एक बिजली विभाग में काम करती थें। दोनों में आपसी तालमेल के कारण दोनों परिवारों की विरोध के बावजूद विवाह कर लिया था।

दोनों  की हमेशा कर्म और संस्कारों को लेकर एक जैसी राय बनती थी और दोनों की बातें भी एक जैसी थी। दोनों में बहुत प्यार था परंतु न जाने किसकी नजर लगी दोनों का आपस में मतभेद हो गया।

एक साल के अंदर ही दोनो अलग अलग हो गए दोनों को एक शब्द बहुत पसंद था वो था कर्मवीर अपने  बच्चे का नाम रखना चाहते थे।

अलग होने के बाद प्रकाश तबादला करा  दूसरे शहर चला गया और लौटकर जब आया बहुत देर हो चुकी थी।

ऑफिस पहुंचा तो  बिजली ऑफिस वालों ने बताया साहब आपके ट्रांसफर के बाद लगभग दो साल बाद तक स्नेहा  मैडम ऑफिस नहीं आई।

और फिर आने लगी शायद उन्होंने दूसरी शादी कर ली है। क्योंकि एक सारांश नाम का नौजवान गाड़ी में छोड़ने और लेने आता है।

प्रकाश को याद है थोड़ी सी बात और मतभेद के कारण दोनों ने अलग होने का फैसला बहुत जल्दी में ले लिया था।

और दोनों अलग हो चुके थे प्रकाश के जाते जाते स्नेहा बता भी नहीं सकी थी कि वह पापा बनने वाले हैं।

करवा चौथ का सामान लेकर स्नेहा शाम को घर जा रही थी।इक्कीस मिट्टी के करवा खरीद रही थीं। बेटे को आश्चर्य तो हुआ पर बोला कुछ नहीं।

शाम को खुद श्रंगार कर, करवो को  भरकर, दीपक सजा पूरे घर को सजाकर स्वयं तैयार हो गई। सारांश,अपने बेटे को कहा…. आज करवा चौथ का पूजन करना है।  बेटे ने सिर्फ हा में सिर हिला दिया।

मां के दिन रात मेहनत और उनके व्यवहार के कारण  कभी कोई बात नहीं पूछना चाहता था।

शाम ढले सब समान लेकर मां और सारांश दोनो छत पर पहुंच गए। पूजन का थाल  लिए मां बेटा दोनो छत पर खड़े  चांद का इंतजार कर रहे थे। बेटे ने आवाज लगाई… मां चांद निकल आया पूजन कर लो परंतु स्नेहा बोली… मैं थोड़ा और इंतजार कर लूं। फिर पूजन करती हूं।

इक्कीस करवो का दीपक लहरा रहा था। जो ही उसने आरती की थाली उठाई सामने की सीढ़ियों से प्रकाश को आते देख चूनर से सिर ढकते बोल उठी…. बेटा आ जा चांद निकल आया। सारांश की समझ में कुछ नहीं आ रहा था परन्तु उसने देखा  ये तो वही व्यक्ति हैं जो सुबह आए थे और बिना कुछ बोले चले गये थे। वह सीधी छलनी के सामने जाकर खड़े हो गए और मां खुशी से रोए जा रही थी।

सारांश तो बस इन लम्हों को अपने मोबाइल में कैद करते जा रहा था कि आज मां  पहला करवा चौथ मना रही है। वह भी पहली बार शायद पापा के साथ। त्यौहार मना रही है बहुत खुश था सारांश। स्नेहा और प्रकाश बस एक दूसरे को निहार रहे थे।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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