हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 43 – बापू के संस्मरण-23 – छात्रों में बड़ी ऊर्जा है ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “छात्रों में बड़ी ऊर्जा है ”)

☆ गांधी चर्चा # 43 – बापू के संस्मरण – 23 ☆

☆ छात्रों में बड़ी ऊर्जा है  ☆ 

1927 की बात है। मैसूर  मे  स्टूडेंट  वर्ल्ड  फ़ेड़रेशन  का  अधिवेशन  था। उसके  अंतेर्राष्ट्रीय  अध्यक्ष  रेवेरेंट  मार्ट    गांधी  जी  से  मिलने  अहमदाबाद  आए।

जब  उनकी  मुलाक़ात  गांधीजी से  हुई  तब  उन्होने  गांधीजी से  छात्र  समस्यायों  पर  बातें  की।गांधीजी ने  स्पष्ट  कहा  कि वे  छात्रो  को  अपने  छात्र  जीवन  मे  राजनीति  मे  प्रवेश  के  पक्षधर  नहीं  हैं। उन्हे  पहले  अपनी  पढ़ाई  पूरी  करनी  चाहिए। अगर  वे  चाहें  तो ग्रामो  मे  जाकर  उनके  बीच  सेवा   कार्य  कर  सकते  हैं। छात्रो  मे  बड़ी  ऊर्जा  है  लेकिन  उन्हे  अपनी ऊर्जा  का  दुरुपयोग  नहीं  करना  चाहिए।

मार्ट  ने  गांधीजी से पूछा  कि  “आपके  जीवन  मे  आशा  निराशा  के  कई  प्रसंग  आते  होंगे ,उनमे  आपको  किस  चीज़  से ज्यादा  आश्वासन  मिलता  है?”

गांधी  जी ने  उत्तर  दिया  कि  “हमारे  देश  की जनता  शांतिप्रिय  है। उससे  लाख छेडछाड़ की  जाये, वह  अहिंसा  का मार्ग  नहीं  छोड़ेगी।”

उनका  दूसरा  प्रश्न  था  कि – “आपको  कौन  सी  चीज़  ज्यादा  चिंतित  करती  है।”

तब गांधी जी  ने कहा  कि – “शिक्षित  लोगो  मे  दया  भाव सूख  रहा  है  और, वह मुझे  ज्यादा  चिंतित  कर  रही  है।”

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 20 ☆ खुशियों का झरना ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता खुशियों का झरना) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 20 ☆ खुशियों का झरना 

 

कभी खुशियों के झरनों की चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस एक शीतल ओस की बूंद की दरकार थी ||

 

कभी खुशियों के खजाने की चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस मोतियों सी रिश्तों की माला की दरकार थी ||

 

कभी खुशियों के समुन्द्र की चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस मीठे पानी की झील सी जिंदगी की दरकार थी ||

 

कभी फूलों की बगिया की चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस कांटों भरी जिंदगी में एक गुलाब की दरकार थी ||

 

जिंदगी हर हाल खुशनुमा हो ऐसी चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस ग़मों भरी जिंदगी में एक ख़ुशी की दरकार थी ||

 

कभी आकाश छू लेने की जीवन में चाहत नहीं थी मुझे,

मुझे तो बस अपने पैर जमीं पर रहे बस यही दरकार थी ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 71 – माणुसकी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 71 ☆

☆ माणुसकी ☆

“माणुसकी हरवत चालली आहे”

हे वाक्य मी वाचते जेव्हा सर्वत्र,

तेव्हा मला ती सापडते,

माझा नातू सोसायटीतल्या भटक्या कुत्र्यांना लावतो लळा,

प्रेमाने खाऊ घालतो,बिस्किटे, अंडी, ताजी चपाती, चिकन, मटण!

त्याच्या भूतदयेत माणुसकी  दिसते मला!

माझ्या घरातल्या प्रत्येकातच सापडते ती कुठल्या कुठल्या प्रसंगात!

मी लहानपणी पेशवे पार्कात हरवले होते तेव्हा मला आईपर्यंत आणून सोडणा-या….

त्या कॅथलिक मुलीची आठवण काढायची आई नेहमीच…

मला तो प्रसंग आठवत नाही,

पण आईने केलेल्या पारायणातून

आठवते त्या मुलीतली माणुसकीच !

 

“मला काय त्याचे?”

या वृत्तीचे फारसे कोणी भेटलेच नाही

अशी माणसे दिसतात फक्त बातम्यात,सिनेमात, वर्तमानपत्रात, कथा कादंबरीत!

माझ्या अंतःवर्तुळातली सारीच माणसे माणुसकी जपणारी,

ती दिसते अवतीभवती,

नर्सेस डाॅक्टर्स, पोलीस कर्मचारी,

सेवाभावी संस्था, आणि विविध सेवा पुरविणा-या सर्वांमध्ये ,

देवालयात, पंडित-पुज-यामध्येही !

शिक्षक-प्राध्यापकांत,कवीकुळात,रसिकवर्गात अनुभवाला आली ती

उदंड माणुसकीच!

मी म्हणू शकत नाही, माझ्यापुरतं,

माणुसकी हरवत चालली आहे,

पण माझ्या विश्वा बाहेरच्या विश्वातूनही माणुसकी हरवू नये कदापिही—–यासाठी करते नित्य नियंत्याची  प्रार्थना…..

हिच असावी माझ्यातली ही माणुसकी!

 

सा-याच प्रवृत्ती मानवी मनात कमी जास्त प्रमाणात निर्माण करणा-या विश्वनिर्मात्याला हे पक्के ठाऊक आहे, माणुसकीला काळीमा फासणा-या घटना घडत आहेत युगानुयुगे…………

पण माणुसकी टिकून राहणार आहे विश्वाच्या अंतापर्यंत !!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 56 ☆ ए मैना! ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साbharatiinझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “ए मैना!”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 56 ☆

☆  ए मैना! ☆

आज जब देखा मैंने तुम्हें

शाख पर मस्ती में बैठे हुए

तो तुम्हें देखती ही रह गयी!

 

बताओ न मैना!

क्या करती हो तुम दिन ढले

जब तुमने जी भर कर मेहनत कर ली होती है

और दाने चुग लिए होते हैं?

क्या सोच रही थीं तुम यूँ शाख पर बैठ हुए?

 

न ही तुम्हारे पास कोई मोबाइल है

कि किसी दोस्त से बातें कर लो,

न ही तुम टेलीविज़न पर

नेटफ्लिक्स की कोई फिल्म देखती हो,

न ही चाय पीने के लिए

कोई पड़ोसी ही आते हैं!

 

तुमको ध्यान से देख रही थी

कि तुमको कुछ भी नहीं चाहिए था

खुश रहने के लिए –

तुम्हारी तो फितरत ही है खुश रहने की!

कितनी आज़ाद हो तुम ए मैना!

लॉक डाउन तो अब हुआ है,

पर शायद हम इंसान तो बरसों से क़ैद ही हैं!

 

यह भी सच है

कि आज़ादी के साथ-साथ

तुम्हारे ऊपर ज़िम्मेदारी भी बहुत है!

किसी दिन तुम्हें बुखार आ जाए

फिर भी तुम्हें दाना लेने तो ख़ुद ही जाना होता है, है ना?

 

वैसे शायद यह ज़िम्मेदारी

अच्छी ही होती है,

आखिर तुम किसी पर बोझ तो नहीं बनतीं-

सीख लेती हो कि कैसे लड़ते हैं, जूझते हैं और आगे बढ़ते हैं!

और कैसे जगाते हैं आत्मविश्वास!

 

सच में, ए मैना!

आज बहुत कुछ सिखा गयीं तुम मुझे

जाने-अनजाने में!

 

अब जब भी मैं किसी मन की उथल-पुथल से

गुज़र रही होऊँगी तो देख लूंगी एक बार फिर से तुमको,

हो सकता है मुझे मिल जाए वो परम ख़ुशी

जिसकी चाहत तो हर कोई करता है

पर वो हाथ से फिसलती ही जाती है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 70 ☆ छोटे छोटे वऱ्हाडी.. ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 70 ☆

☆ छोटे छोटे वऱ्हाडी .. ☆

 

घरी चार बाहुल्या करी टिवल्याबावल्या

भातुकलीच्या खेळात खोटं खोटं जेवल्या

 

छोटी होती चूल त्यावर शिजवला भात

छोट्याशा बाहुल्यानं मारला आडवा हात

 

भात खाऊन बाहुला देतो मोठी ढेकर

घरी नव्हतं पीठ केली मातीची भाकर

 

साखर देऊन थोडीशी आई म्हणे खेळा

निरोप नव्हता मुंग्यांना तरी झाल्या गोळा

 

नकट्या ह्या बाहुलीचं ठरलं होतं लग्न

काय सांगू लग्नातमध्ये सतराशे विघ्न

 

बाहुला हा शिकलेला नव्हता काही शाळा

तरीसुद्धा मागत होता सोनं एक तोळा

 

नकटीच्या लग्नामध्ये कमी पडले लाडू

छोटे छोटे वऱ्हाडी हे लागले होते रडू

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

विकल रहूँ या मैं विवश, कौन करे परवाह ।

सब सुनते हैं शोर को, सब जाती है आह।।

 

सोच रहा हूँ आज मैं, करता हूँ अनुमान ।

अधिक अपेक्षा ही करें, सपने लहूलुहान।।

 

शब्द ब्रह्म आराधना, प्राणों का   संगीत।

भाव प्रवाहित ज्यों सरित, उर्मि उर्मि है गीत।।

 

कहनी अन कहनी सुनी, भरते रहे हुँकार ।

क्रोध जताया आपने, हम समझे हैं प्यार ।।

 

कितनी दृढ़ता मैं रखूँ, हो जाता कमजोर ।

मुश्किल लगता खींच कर, रखना मन की डोर।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 22 – फिर समेटे दिन कहीं…. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “फिर समेटे दिन कहीं ….। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 22– ।। अभिनव गीत ।।

☆ फिर समेटे दिन कहीं…. ☆

 

शाम घिरते  होगया धुँधला

वह कनक गुम्बद हवेली का

आँख को ज्यों खूब भाया,

प्रीतकर सुरमा बरेली  का

 

स्याह हो उट्ठे दिशाओं के

बनैले चुप पखेरू

थरथराहट लाँघती

दिनमान के अनगिन सुमेरू

 

फिर समेटे दिन कहीं

गायब हुआ है

खुशनुमा वह सूर्य

पीली इस पहेली का

 

चिपचिपी होने लगी है

ओसारे की ,वाट गीली

थाम हाथों में पहाड़ों को

गरम  होती पतीली

 

घूमती, आँखों अधूरापन

सम्हाले

अँधेरे में चीन्हती

जो गुड़ करेली   का

 

फिर किसी सौभाग्य से

जा पूछती उन्नत शिखरणी

क्यों उदासी ओढ़ती  मृगदाब

की  अनजान हिरणी

 

देखती जो राह

सारे दिन रही है

चैन भी जिसको मिला

न एक धेली  का

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

24-01-2019

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #15 ☆ बहुत मुश्किल है ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर , अर्थपूर्ण एवं भावप्रवण  कविता “ बहुत मुश्किल है ”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 15 ☆ 

☆ बहुत मुश्किल है ☆ 

घटनाएं अच्छी-बुरी

घट रही थी

जिंदगी खुशी खुशी

कट रही थी

यह कैसा प्रलय आया

जिसने तूफान लाया

इससे बच पाना

बहुत मुश्किल है

 

हमने तो जीवन भर

फूलों के पौधे लगाए

फूलों के संग संग

कांटे भी उग आए

फूलों पर कब्जा

जमाने ने कर लिया

कांटों से दामन

हमारा भर दिया

फूलों से बेहतर

हमने कांटों को बनाया

तराशा,

खुशबू से महकाया

फिर भी इनको कांटों की

क्षमता पर शक है

क्या वाकई इनको

ये कहने का हक है

इन तंगदिल वालों से

जीत पाना

बहुत मुश्किल है

 

घर उनका जला है तो

खुश हो रहे हो

बेफिक्र, खूब

तानकर सो रहे हो

कल घर तूम्हारा जलेगा

तो तुम्हें पता चलेगा

इस आग की कोई

धर्म या जाति नहीं होती

आग लगती है तो वो

सबकुछ है जलाती

यह इन दिग्भ्रमित

लोगों को समझाना

बहुत मुश्किल है

 

कसौटी पर परखो

फिर उसे चाहों

इन्सान ही रहने दो

खुदा ना बनाओं

खुदा जो बन गया तो

तूम्हारी नहीं सुनेगा

अपनी प्रशंसा के ही

सपने बुनेगा

उसके डर से

या उसके कहर से

इन नशे में गाफिल

लोगों को बचा पाना

बहुत मुश्किल है।

© श्याम खापर्डे 

18/10/2020

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 22 ☆ माझा जोडीदार.…. ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 22 ☆ 

☆ माझा जोडीदार.…. ☆

आहे तो सावळा

सदैव कोवळा

ऐसा माझा जोडीदार… १

 

जीवाचा कैवारी

वाजवी बासरी

ऐसा माझा जोडीदार… २

 

कर्ता करविता

सृष्टीचा निर्माता

ऐसा माझा जोडीदार… ३

 

द्वापारी प्रगटला

कारागृही अवतरला

ऐसा माझा जोडीदार… ४

 

पांडवांचा कैवारी

प्रगटला भूवरी

ऐसा माझा जोडीदार… ५

 

गीता उपदेश करी

शस्त्र न हाती धरी

ऐसा माझा जोडीदार… ६

 

सतत माझ्या पाठी

कर्म त्याच साठी

ऐसा माझा जोडीदार… ७

 

तयासी मी नमितो

स्मरण सदैव करितो

ऐसा माझा जोडीदार… ८

 

कृष्ण तयाचे नाम

मनस्वी प्रणाम

ऐसा माझा जोडीदार…९

 

© कवी म. मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 71 ☆ लघुकथा – कचरे वाला ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक  अतिसुन्दर लघुकथा   ‘कचरे वाला’।  इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 71 ☆

☆ लघुकथा – कचरे वाला

शरीफों का मुहल्ला है। रोज़ तड़के कचरा इकट्ठा करने वाला,अपनी गाड़ी खींचता, सीटी बजाता हुआ आता है। सब अपने अपने घर से प्रकट होकर कचरा-दान करते हैं और राहत की साँस लेते हैं।

नन्दी जी तुनुक मिजाज़ हैं। घर में थोड़ी थोड़ी बात पर भड़कते हैं। सफाई-पसन्द हैं। कचरे वाले को देखकर उनका माथा चढ़ता है। कचरे के डिब्बे में दूर से कचरा टपकाते हैं। मास्क के ऊपर से सिकुड़ी नाक नज़र आती है। देखकर कचरे वाले  का मुँह बिगड़ता है। कई बार कह देता है, ‘आप ही का कचरा है। हमारे घर का नहीं है।’

एक दिन नन्दी जी उससे उलझ गये। उसने गीला और सूखा कचरा अलग अलग डिब्बों में डालने को कहा तो वे उखड़ गये—-‘हम यही करते रहेंगे क्या? दूसरा काम नहीं है? पहले क्यों नहीं बताया?’

थोड़ी बहस हो गयी। अन्त में नन्दी जी उँगली उठाकर बोले, ‘ऑल राइट, आप कल से हमारे घर से कचरा नहीं लेंगे। आई विल मैनेज इट। ‘ कचरे वाला ‘ठीक है’ कह कर आगे बढ़ गया।

भीतर आकर बोले, ‘मैं कर लूँगा। जब वह कर सकता है तो हम क्यों नहीं कर सकते?’

मिसेज़ नन्दी अपने पति को जानती थीं, इसलिए कुछ नहीं बोलीं।

दूसरी सुबह कचरे वाला घर के सामने से निकल गया। रुका नहीं। नन्दी जी घर में बैठे रहे। बुदबुदाये, ‘मिजाज़ दिखाता है!आई विल डू इट।’

घर में तीन दिन का कचरा इकट्ठा हो गया। अब सबकी नाक सिकुड़ने लगी। सबकी नज़रें नन्दी जी पर टिकने लगीं। नन्दी जी सबसे नज़र बचाते फिर रहे थे।

चौथे दिन वे तैयार हुए। स्कूटर पर कचरे की दो बकेट रखीं और आगे बढ़े। तिरछी नज़रों से देखते जा रहे थे कि कोई परिचित देख तो नहीं रहा है। भीतर से सिकुड़ रहे थे।

लंबे निकल गये, लेकिन कोई कचरे का कंटेनर नहीं दिखा। परेशान हो गये। सड़क के किनारे फेंकने पर कोई भी चार बातें सुना सकता था। आगे कुछ खेत थे। वहीं स्कूटर रोक कर चारों तरफ देखा, फिर पौधों के बीच में बकेट खाली करके भाग खड़े हुए।

घर पहुँचकर लंबी साँस लेते हुए पत्नी से बोले, ‘आई कान्ट डू इट। इट इज़़ वेरी डिफ़ीकल्ट।’

अगली सुबह जब कचरे वाला आया तब मिसेज़ नन्दी गेट पर थीं। उसे रोककर बोलीं, ‘कचरा लेना क्यों बन्द कर दिया, भैया?’ कचरे वाला कैफ़ियत देने लगा तो थोड़ी देर सुनकर बोलीं, ‘वे थोड़ा गुस्सैल हैं। क्या करें। आप खयाल मत करो। आगे से कचरा हमीं दिया करेंगे। यह थोड़ा सा प्रसाद है, बच्चों को दे देना।’

भीतर नन्दी जी मुँह पर दही जमाये बैठे थे। मिसेज़ नन्दी कचरा देकर लौटीं तो सबके चेहरे पर राहत का भाव आ गया। मुसीबत टल गयी थी। सुबह सुहावनी हो गयी थी।

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डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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