हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 15 ☆ मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट)

☆ किसलय की कलम से # 15 ☆

☆ मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट 

दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति संपन्न नहीं हो सकता। समय एवं परिस्थितियाँ नौकर-मालिक या राजा-रंक की दशा बदल देती हैं। भले हम कहें कि श्रम व समर्पण सुपरिणाम देते हैं लेकिन कभी-कभी विपरीत परिस्थितियाँ सब उलट-पुलट कर देती हैं। इसीलिए युगों-युगों से मजदूरों का अस्तित्व रहा है और आगे भी निरंतर रहेगा। प्रत्येक मालिक व उद्योगपतियों का उद्देश्य बड़े से और बड़ा होना होता है। मजदूरों का शोषण जानबूझकर तो किया ही जाता है, अनजाने में भी होता है। दुनिया में शोषित व शोषक वर्ग सदैव से रहे हैं। समय साक्षी है कि श्रम का मूल्यांकन तथा आदर हमेशा कम ही हुआ है। हम सभी जानते हैं कि एक मजदूर का हमारा समाज कितना आदर करता है। अपनी गृहस्थी व अपने परिवार हेतु एक मजदूर अपना घर, अपने परिवार के सभी सदस्यों को छोड़कर रोजी-रोटी के लिए दर-ब-दर भटकता है। ये हजारों-हजार किलोमीटर की दूरी केवल इसलिए नाप लेते हैं ताकि उनके परिवार को दो जून की रोटी नसीब हो सके। उनके बच्चे पढ़-लिख सकें, लेकिन ऐसा होता नहीं है। मजदूर जीवन भर अपना शरीर खपाता रहता है और अंत तक मजदूर का मजदूर ही रहता है। उनकी कमजोर आर्थिक परिस्थितियाँ न ही उन्हें संपन्न बना पातीं और न ही उनकी संतानें उच्च शिक्षा ग्रहण कर पातीं।

बदलती तकनीकि व इक्कीसवीं सदी के अंधाधुंध व्यवसायीकरण की प्रक्रिया ने आज जीवन के एक-एक क्षण की आरामदेही हेतु नवीनतम यांत्रिक सुविधायें उपलब्ध करा दी हैं। श्रम, दूरी, यातायात, मनोरंजन, दूरसंचार के साधनों सहित स्वच्छता, जल, हवा, ऊर्जा, ईंधन आदि हरेक जरूरतों की पूर्ति आज चुटकी बजाते ही पूर्ण हो जाती है। पहले सिर पर मटकी से पानी लाना, पैदल या बैलगाड़ी से आवागमन, चूल्हे जलाना, संदेश वाहको से संदेश भेजना, हल और हाथों से कृषि करना आदि सभी में मानवशक्ति का ही अधिक उपयोग होता था। इस तरह सभी के पास रोजगार, उद्योग-धंधे व मजदूरी हुआ करती थी, लेकिन धीरे-धीरे हर कार्य मशीनों द्वारा अच्छा व जल्दी होने लगा। उत्पादों, साधनों एवं सेवाओं में लागत भी कम पड़ने लगी। एक तरह से धीरे-धीरे मजदूरों का कार्य मशीनें करने लगीं। यहाँ तक भी ठीक था लेकिन जब मानवशक्ति का उपयोग आधे से भी कम हुआ, तब इस मजदूर वर्ग की मुसीबतें और बढ़ना शुरू हो गईं। अब मजदूर अपने परम्परागत हुनर को विवशता में त्यागकर अन्य कार्य करने हेतु बाध्य होने लगा। घर से हजारों किलोमीटर दूर जाने हेतु भी तैयार हो गया। कुछ बचे हुए लोगों ने अपने परम्परागत रोजगार-धंधे जैसे हैंडलूम, मिट्टी एवं धातुओं के बर्तन व विभिन्न सामग्री, हस्त निर्मित फर्नीचर आदि बनाकर आगे बढ़ना चाहा लेकिन इन सब में समय व परिश्रम अधिक लगने और लागत बढ़ने के कारण लोगों की अभिरुचि मशीन निर्मित वस्तुओं की ओर ज्यादा बढ़ती गई। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि कभी किसी ने यह नहीं सोचा कि इन कारोबारियों, हस्तशिल्पियों व कुशल कारीगरों की अनदेखी एक दिन इन लोगों का अस्तित्व ही समाप्त कर सकती है। सर्वविदित है कि मानवशक्ति का अधिक से अधिक उपयोग हो, इसीलिए हमारे राष्ट्रपिता गांधी जी ने हथकरघा निर्मित खादी के वस्त्रों पर जोर दिया था।

आज हमें बस थोड़ी सी उदारता व संतोष रखकर सहृदयतापूर्वक कुछ ही अधिक मूल्य देकर इनसे सामग्री खरीदना होगी। आपके द्वारा किये गए प्रयास न जाने कितने लोगों को मजदूरी का अवसर दे सकते हैं और इस बहाने हम मजदूरों और कारीगरों की कला का सम्मान भी कर पाएँगे। यही इन लोगों के श्रम का मूल्यांकन भी होगा। आज हम देख रहे हैं कि बड़ी-पापड़ और दोना-पत्तल से लेकर कपड़ों की धुलाई, सिलाई, अनाजों की पिसाई सब कुछ मशीनों से होने लगा है। अब तक इन धंधों में लगे मजदूरों को आखिर अन्य काम तो करने ही होंगे। काम न मिलने पर ये पलायन भी करेंगे। आज ऐसी ही परिस्थितियों के चलते हर शहरों में कुछ स्थान नियत हो गए हैं जहाँ सुबह-सुबह मजदूरों का हुजूम दिखाई देता है। एक अदद मजदूर की तलाश में आए व्यक्ति के चारों ओर काम मिलने की आस में मजदूर झुण्ड के रूप में उस व्यक्ति को घेर लेते हैं। आशय यह है कि अब यह भी निश्चित नहीं है कि यहाँ एकत्र सभी मजदूरों को उस दिन काम मिल ही जाए। सीधी और स्पष्ट बात यह है कि अब मजदूरी के लिए भी पापड़ बेलने पड़ते हैं। बावजूद इसके कभी-कभी बिना मजदूरी और पैसों के खाली हाथ घर वापस भी आना पड़ता है। घर में या तो फाके की स्थिति होती है अथवा बची खुची सामग्री से घरवाली पेट भरने लायक कुछ बना देती है और यदि ऐसा ही कुछ दिन और चला तो भूखे मरने की नौबत भी आ जाती है। आज भी यह सब होता है। हो रहा है। सरकारें चाहे जितने वायदे करें, प्रमाण दें, लेकिन सच्चाई तो यही है कि कल का मजदूर आज भी उतना ही मजबूर और भूखा है।

क्या कभी ऐसे आंकड़े जुटाए गए हैं कि सरकारी सहायता प्राप्त मजदूर की पाँच-दस साल बाद क्या स्थिति है। निःशुल्क आंगनवाड़ी एवं निःशुल्क शिक्षा के बावजूद मजदूरों के कितने प्रतिशत बच्चे स्नातक अथवा उच्च शिक्षित हो पाए हैं। आखिर हमारी योजनाएँ ऐसी अधूरी क्यों है? आखिर इतना सब करने के पश्चात भी हम गरीब या मजदूरों को वे सारी सुख-सुविधाएँ व शिक्षा देने में असफल क्यों हैं। सत्यता व कागजी बातों के अंतर को पाटने हेतु ठोस कदम क्यों नहीं उठाए गए? वैसे भी हमारे देश में इस मजदूर वर्ग की हालत एक बड़ी समस्या से कम नहीं है। अधिकांश मजदूर व उनके परिवार आज भी नारकीय जीवन जीने हेतु बाध्य हैं। अभावग्रस्त मजदूर बस्तियों में आज भी बिजली-सड़क-पानी की संतोषजनक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। बस्तियाँ बजबजाती नालियों से भरी पड़ी रहती हैं। सारे वायदे व घोषणाएँ केवल चुनावी दौर में सुनाई देते हैं। फिर अगले पाँच साल तक सब कुछ वैसे का वैसा ही रहता है।

कुछ समय पूर्व तक ठीक नहीं पर काम चलाऊ तो था परंतु कोविड-19 के बढ़ते कहर ने सारे विश्व को स्तब्ध कर दिया है। किसी को भी कुछ समझ में नहीं आ रहा। यह ऐसी विभीषिका है जो इसके पूर्व कभी देखी नहीं गई। विश्व के द्वितीय सबसे अधिक जनसंख्या वाले हमारे देश में अभी भी कोविड-19 महामारी लगातार बढ़ती ही जा रही है। खौफ इतना बढ़ा कि प्रायः सभी मजदूर अपने परिवार और अपने घर में ही पहुँच कर एक साथ जीना-मरना चाहते हैं। मजदूरों की घर वापसी न मालिक रोक पाए न सरकार। बिना पैसे के, बिना रुके, भूखे-प्यासे मजदूर सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूरी तय कर एनकेन प्रकारेण अपने घरों तक पहुँच गए। घर की जमापूँजी घर चलाने में खर्च होने लगी। अब मजदूरी न के बराबर ही है। वापस आए मजदूर आखिर अपने गाँव अथवा समीप के शहरों में क्या और कितना करेंगे। लोगों के काम-धन्धों पर मंदी की मार पड़ रही है। निर्माण और अन्य ऐसे अन्य काम जिनमें मजदूरों की आवश्यकता होती है, लॉकडाउन के पश्चात रफ्तार नहीं पकड़ पा रहे हैं। हम उपभोग की वस्तुओं की बात करें तो जब माँग ही नहीं होगी तो उत्पादन क्यों किया जाएगा? उत्पादन अथवा काम न होने का तात्पर्य यह है कि मजदूरों के काम की छुट्टी। बिना काम किए जब मजदूरी ही नहीं मिलेगी तो क्या होगा इन बेचारों का। उद्योग, कारखाने एवं धंधे-व्यवसाय वालों ने मंदी के चलते अपने मजदूरों की छटनी शुरू कर दी है।

हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या पहले से ही है और अब कोरोना के कहर से बेरोजगारी का संकट और गहराने लगा है। यदि यही हाल रहा तो आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि बिना जमापूँजी वाले मजदूरों और उनके परिवार की क्या दशा होगी? आज मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट इसी कोविड-19 जैसे हालात निर्मित न कर दे, इस पर दीर्घकालीन शासकीय योजनाएँ व नीतियों की अविलम्ब आवश्यकता है। आज मजदूर वर्ग में आक्रोश दिखाई नहीं दे रहा, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इनमें असंतोष व्याप्त नहीं है। आप मानें या न मानें कल की चिंता हर मजदूर व गरीब तबके को सता रही है। इन्हें शीघ्र अतिशीघ्र रोजगार, व्यवसाय अथवा धंधों में लगाने की महती आवश्यकता है, ताकि ये भविष्य की रोजी-रोटी के प्रति निश्चिंत हो सकें। वर्तमान में यह मजदूर वर्ग इतना टूट चुका है कि वह अपने व अपने परिवार के उदर-पोषण हेतु कुछ भी करने को आमादा हो सकता है। अनैतिक कार्यों व धंधों में संलिप्त हो सकता है। लूटमार, चोरी-डकैती जैसी वारदातें भी बढ़ सकती हैं। ऐसी कठिन व अराजक परिस्थितियाँ आने के पूर्व भविष्य की नजाकत को देखते हुए शासन का आगे आना बहुत जरूरी हो गया है, वहीं समाज के सभी सक्षम व्यक्तियों, धनाढ्य, उद्योगपतियों से भी अपेक्षा है कि वे अपने कर्मचारियों को इस विपदा की घड़ी में जितना बन पड़े अपनापन और आर्थिक सहयोग देने से पीछे न हटें। मजदूर व गरीबों के लिए जन सामान्य, संस्थाएँ व प्रशासन यथोचित मदद हेतु आगे आएँ, ताकि मानवता कलंकित होने से बच सके।

इस कठिन समय में स्वार्थ, कालाबाजारी, जमाखोरी, धर्म एवं संप्रदाय से ऊपर उठकर इन मजदूरों को रोजगार देने का प्रयास करें। इनकी यथायोग्य सहायता करें। इनके रोजगार, व्यवसाय आदि में मदद करें। आपका एक छोटा सा प्रयास, आपकी सलाह, आपका परोपकार एक मजदूर ही नहीं उसके पूरे परिवार की खुशहाली के द्वार खोल सकता है। इस तरह हम सब आज मजदूरों पर बढ़ती बेरोजगारी के संकट का समाधान कुछ हद तक तो कर ही सकते हैं।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 61 ☆ तुम यहीं हो ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं परम आदरणीया माँ स्व डॉ गायत्री तिवारी जी  (27 दिसंबर 1947 – 8 सितम्बर 2015)को सस्नेह समर्पित एक भावप्रवण कविता  “तुम यहीं हो। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 61 – साहित्य निकुंज ☆

☆ तुम यहीं हो ☆

तुम मेरी यादों के

झरोखे में झाँकती

मुझे तुम निहारती

मै अतीत के उन पलों

में पहुंच जाती हूँ ।

 

तुम्हारा रोज मुझसे

बात करना,अपना

मन हल्का करना।

मैं खो जाती हूँ तुम्हारे

आँचल की छाँव में

जहां मिलता था

मुझे सुकून, मुझे चैन।

 

तुम्हारा प्यार, तुम्हारा

ममत्व अक्सर

ख्वाबों में भी आराम

देता है।

नींद में भी तुम्हारे

हाथों का स्पर्श

यकीन दिला जाता है कि

तुम हो मेरे ही आस पास।

 

मन में आज भी एक

प्रश्न चिन्ह उठता है

जिंदगी पूरी जिये

बिना तुम क्यों चली गई

और जाने कितने सवाल

छोड़ गई हम सब के लिए।

जो आज भी अनसुलझे है।

 

तुम गई नहीं हो

तुम हो

तिलिस्म के साए में

ऐसी माया है जिससे वशीभूत

होकर व्यक्ति उसके मोह जाल में

फँस जाता है।

माँ

हो मेरे आसपास

मेरे अस्तित्व को मिलता है अर्थ

नहीं है कुछ भी व्यर्थ।।

तुम मेरी यादों में ……

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 52 ☆ कभी खुद से भी सवाल कर लेना ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  एक भावप्रवण रचना “कभी खुद से भी सवाल कर लेना। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 52☆

☆ कभी खुद से भी सवाल कर लेना  ☆

 

कभी खुद से भी सवाल कर लेना

जरा उसका भी ख्याल कर लेना

 

गैरों पै उँगलियाँ उठाई बहुत

चार तुम्हारी तरफ,मलाल कर लेना

 

हैं दुनिया में परेशानियाँ बहुत

मुश्किलों में दिल खुशहाल कर लेना

 

खुदा के बाद है माँ-बाप का रुतवा

दिल से उनकी संभाल कर लेना

 

माफ कर देना सभी अज़ीज़ों को

फ़राख दिली से कमाल कर लेना

 

बनाया है इंसान वा दुनिया को

कर इबादत उसे निहाल कर लेना

 

लाख दुश्वारियाँ राहों में मगर

“संतोष” का इस्तेमाल कर लेना

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य – मी….! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  “मी….!” )

☆ विजय साहित्य – मी….! ☆

मी….!

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..

परीचितांना अपरीचित आणि

अपरिचितांना परीचित वाटतोय मी.

अविश्वासात विश्वास आणि

निस्वार्थात स्वार्थ गोवतोय मी

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

पुस्तकातले कुटुंब, समाज

त्यांच्यातच रमतोय मी.

माणूस माणूस जोडलेला

पुन्हा पुन्हा वाचतोय मी

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

गणिताची आकडेमोड

आकडेवारीत विस्तारतोय मी

माझ्याच गरजा, नी जबाबदा-या

कार्य कारण भाव निस्तरतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

चालतोय मी , थांबतोय मी

माझ्यातल्या मीला शोधतोय मी

लिहितोय मी, वाचतोय मी

विस्तारीत जगणे , आवरतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

कुणाच्या जमेत , कुणाच्या खर्चात

क्षणा क्षणाला साचतोय मी

ऊन्हातला मी, सावलीतला मी

चक्रवाढ व्याजात नाचतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

चुकतोय मी , मुकतोय मी

संसार नावेत, डुलतोय मी

कधी काट्यात , कधी वाट्यात

जीवन बाजारात , भुलतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

कधी भूतकाळात तर कधी

वर्तमानात जगतोय मी

अनुभूती वेचताना थकलो तर

तुझ्याच अंतरात वसतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 6 – कविता ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे

श्री शेखर किसनराव पालखे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य # 6 ☆

☆ कविता ☆

 

आपण समजतो तेवढी सोपी नसते कविता

भावनांचा उद्रेक होतो तेव्हा जन्म घेते कविता

तुम्ही नाहीयेत तिचे जन्मदाते बाबांनो

उलट तिच्यामुळे तुमचा होतो जन्म  कवी म्हणून मित्रांनो

कविता म्हणजे असतं एखाद्याचं जिवंतपणे जळणं

कविता म्हणजे काळजातला खंजीर स्वतः ओढून मरणं

कविता असते बाणासारखी रुतणारी

छातीत घुसून पाठीतून आरपार निघणारी

कविता म्हणजे पायातला न दिसणारा काटा

कविता म्हणजे भावनांना हजार लाख वाटा

कविता म्हणजे असतो काळजावरचा घाव

कविता म्हणजे असतो एक मोडुन पडलेला डाव

 

© शेखर किसनराव पालखे 

पुणे

17/05/20

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 44 ☆ लघुकथा – मैडम ! कुछ करो ना ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा मैडम ! कुछ करो ना।  भ्रूण /कन्या हत्या और  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद भावुकता से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 44 ☆

☆  लघुकथा – मैडम ! कुछ करो ना  

अस्पताल में विक्षिप्त अवस्था में पड़ी वह बार-बार चिल्ला उठती थी- मत फेंकों, मत फेंकों मेरी बच्चियों को नदी में। मैं….. मैं पाल लूँगी किसी तरह उन्हें। मजूरी करुँगी, भीख माँगूगी पर तुमसे पैसे नहीं माँगूगी। कहीं चली जाउँगी इन्हें लेकर, तुन्हें अपनी शक्ल भी नहीं दिखाउँगी| छोड़ दो इन्हें, तुम्हारे पैर पड़ती हूँ। इन बेचारी बच्चियों का क्या दोष? ………. और फिर मानों उसकी आवाज दूर होती चली गयी।

बेहोशी की हालत में वह बीच-बीच में कभी चिल्लाती, कभी गिड़गिड़ाती और कभी फूट-फूटकर रोने लगती। नर्स ने आकर नींद का इंजेक्शन दिया और वह औरत निढ़ाल होकर बिस्तर पर गिर गयी। दर्द उसके चेहरे पर अब भी पसरा था।

नर्स ने पास खड़ी समाज सेविका को बताया कि पिछले एक महीने से इस औरत का यही हाल है। नदी के पुल पर बेहोश पड़ी मिली थी| कोई अनजान आदमी अस्पताल में भर्ती करा गया था। पता चला है कि इसके पति ने इसकी पाँच, तीन और एक वर्ष की तीनों बच्चियों को इसके सामने पुल से नदी में फेंक दिया। जब इसने देखा कि पति ने दो बेटियों को नदी में फेंक दिया तो एक वर्ष की बच्ची जो इसकी गोद में थी उसे लेकर यह भागने लगी। उस हैवान ने उसे भी इसके हाथों से छीनकर नदी में फेंक दिया। तब से ही इसका यह हाल है। बहुत गहरा सदमा लगा है इसे।

मैडम ! क्यों करते हैं लोग ऐसा? फूल-सी बच्चियों को मौत की नींद सुलाते इनका दिल नहीं काँपता? नर्स गिड़गिड़ाती हुई बोली- मैडम ! कुछ करिए ना। आप तो समाज सेविका हैं, बहुत कुछ कर सकती हैं। समाज सेविका पथरायी आँखों से बिस्तर पर बेसुध पड़ी औरत को एकटक देख रही थी। पत्थर दिल समाज से टकरा-टकराकर उसके आँसू भी सूख गए थे।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 63 – हाइबन – बादल महल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “बादल महल। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 63 ☆

☆ बादल महल ☆

बादल महल कुंभलगढ़ किले के शीर्ष पर स्थित एक खूबसूरत महल है । यह संपूर्ण महल दो खंडों में विभाजित हैं । किन्तु आपस में जुड़ा हुआ है। इस महल के एक और मर्दाना महल है।  दूसरी ओर जनाना महल निर्मित है। इसी माहौल में वातानुकूलित लाल पत्थर की जालिया लगी है। लाल पत्थर की जालियों की विशिष्ट बनावट के कारण गर्म हवा ठंडी होकर अंदर की ओर बहती है।

बादल महल बहुत ही ऊँचाई पर बना हुआ महल है । इस महल से जमीन बहुत गहराई में नजर आती है । ऐसा दिखता है मानो आप बादलों के बीच उड़ते हुए उड़न खटोले से जमीन को देख रहे हैं । इसी ऊंचाई और दृश्यता की वजह से इसका नाम बादल महल पड़ा है।

लाल झरोखा~

फर्श पर देखते

सूर्य के बिंब।

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© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 71 ☆ व्यंग्य – चरित्र प्रमाण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय  व्यंग्य  चरित्र प्रमाण।  अब तो चरित्र प्रमाण की भी जांच के लिए बाजार में बैकग्राउंड वेरिफाइंग एजेंसीस आ गईं हैं। ऐसे विषय पर बेबाक  राय रखने के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 71 ☆

☆ व्यंग्य – चरित्र प्रमाण ☆

चरित्र प्रमाण पत्र का अपना महत्व होता है, स्कूल से निकलते समय हमारे  मास्टर साहब ने हमसे केवल 10 रुपये स्कूल के विकास के लिए लेकर हमारी सद्चरित्रता का प्रमाण पत्र दिया था. फिर हमारी नौकरी लगी गोपनीय तरीके से हमारे चरित्र की जांच हुई.  मुंशी जी हमारे घर आकर हमारे चरित्र की जांच कर गए. वे पिताजी से इकलौते बेटे के गजटेड पोस्ट पर पोस्टिंग का नजराना लेना नहीं भूले. इस तरह हम प्रमाणित चरित्रवान हैं. बिना चरित्र के मनुष्य कुछ नहीं होता, हमें एक सूत्र वाक्य याद आता है “यदि धन गया तो कुछ नहीं गया यदि स्वास्थ्य गया तो कुछ गया और यदि चरित्र गया तो सब कुछ गया”. गणित के विलोम साध्य के अनुसार सहज ही प्रमाणित होता है कि यदि किसी के पास चरित्र है तो सब कुछ है.अर्थात मेरे पास और देश के हर नागरिक के पास जिसके पास चरित्र प्रमाण पत्र है सब कुछ है. हमारे स्कूलों और कॉलेजों से निकले हर विद्यार्थी के पास सब कुछ है, इसीलिये सरकारो को उनकी नौकरी की ज्यादा फिकर नही.

पिछले दिनों मैने कॉलेज के चरित्र प्रमाण पत्र जारी करने वाले रजिस्टर की सूची देखी, मैंने पाया कि  जब से कॉलेज चल रहा है ऐसा कोई भी छात्र नहीं है जिसे अच्छे चरित्र प्रमाण पत्र नही दिया गया. मतलब चरित्र प्रमाण पत्र खोया पाया वाला अखबारी कालम हो गया. जिसमें आज तक मैंने सिर्फ और सिर्फ खोया वाली  सूचनाएं ही पढ़ी है,  पाया कि नहीं. यदि आपको कहीं कोई सूचना पाया कि  मिले तो मुझे जरूर सूचित करें जिससे मुझे अपने देश के चरित्रवान लोगों के चरित्र का एक और प्रमाण पत्र मिल सके. टीवी पर गुमशुदा लोगों के चेहरे आपने जरूर देखें होंगे. मैं अपने बच्चों के साथ यह कार्यक्रम जरूर देखता हूं और चित्र दिखाए जाने के बाद उद्घोषक के गुमशुदा की आयु बताने से पहले खोए हुए व्यक्ति की अनुमानित आयु चित्र में चेहरा देखकर बता देता हूं. धीरे-धीरे बच्चों को भी अनुमान लगाने वाले इस खेल में मजा आने लगा है और हमें महारत हासिल होती जा रही है. यहां यह सब बताने का मेरा उद्देश्य यही है कि इन चित्रों के प्रसारण से अब तक कितने लोग ढूंढ निकाले गए हैं यह शोध का विषय  है.

चरित्र का महत्व निर्विवाद है. रामचरित्र पर गोस्वामी जी की पूरी रामायण ही लिख गये हैं.  महापुरुषों के जीवन चरित्र बाल भारती के पाठ में कैद कर दिए गए हैं. जिस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर देकर बच्चे बहुत अच्छे नंबरों से पास होते रहते हैं. यह बात और है कि उन पाठों को पढ़ने के लिए मास्टर ट्यूशन के लिए प्रेरित करते हैं और ट्यूशन वाले छात्रों को विशेष गेसिंग भी उपलब्ध करवाते हैं, खैर यह मास्टर साहब का चरित्र है. बच्चे उन पाठो को जीवन में कितना उतार पाते हैं यह बच्चों का चरित्र है.

जैसा राजा वैसी प्रजा बहुत पुरानी कहावत है. इसलिए राजाओं का चरित्रवान होना मेरे जैसे आम नागरिक के लिए बड़ा महत्वपूर्ण है. मुझे संतोष है कि हमारे नेता लगातार चरित्रवान सिद्ध हो रहे हैं पिछले कई घोटालों में अनेक विदेशी ताकतों या विपक्ष ने हमारे नेताओं के चरित्र पर कीचड़ उछालने के प्रयत्न किए पर गर्व का विषय है कि हमारी अदालतों से हमारे नेता बेदाग बरी होकर, फिर से चुनाव लड़कर नये चरित्र प्रमाण पत्र अर्जित कर चुके हैं. यह बात काबिले गौर नहीं है कि अदालत संदेह के आधार पर किसी को सजा देने के पक्ष में नहीं होती, और साक्ष्य के बिना सजा नही देती. और होशियार घोटालेबाज  कभी साक्ष्य नही छोड़ते, या गलती से छूट भी जायें तो केस चलने से पहले नष्ट कर देते हैं, भले ही इसके लिये उन्हें हत्या ही क्यो न करनी पड़ी. चरित्र की रक्षा के लिये हर खतरा उठाना ही पड़ता है.  नेता ही नहीं अभिनेता भी चरित्र प्रमाण पत्र एकत्रित करने में पीछे नहीं हैं.

एक बार एक ग्वाला भैंस खरीदने गया विक्रेता ने उसे 3 भैंसें दिखलाईं पहली भैंस 15 लीटर दूध देती थी और उसका मूल्य 15000 रुपये था, दूसरी भैंस 10 लीटर दूध देती थी और उसका मूल्य 10000 रुपये था, तीसरी भैंस बिल्कुल दूध नहीं देती थी उसका मूल्य 30000 रुपये बताया गया. जब इसका कारण पूछा गया तो उसने कहा कि आखिर चरित्र की भी तो कोई कीमत होती है. तो भैंस के चरित्र के 30,000 होते हैं. क्रिकेट में खिलाड़ी नीलामी में बिकते हैं, उनका अपना अपना मोल है. एक बड़े वकील साहब ने सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना की, उन्हें एक रुपये की सजा हुई, मैं नही समझ पाया कि  यह मूल्य न्यायालय की अवमानना का था या वकील साहब का. दल बदल कानून की नाक के नीचे, आम आदमी की फिकर करते विधायको सांसदो की हार्स ट्रेडिंग प्रायः अखबारों की सुर्खी बनती है, पर हर बार जब भी सरकार नही गिरती मुझे अपने चुने हुये नेताओ के चरित्र पर बड़ा गर्व होता है, कैसे निकालते होंगे वे बेचारे रिसार्ट्स में वे प्रलोभन भरे दिन सोचना चाहिये.   नेताओं के चरित्र का मूल्य सिर्फ एक मंत्री पद तो नहीं है. तो हमारे, आपके चरित्र का मूल्य हमें स्वयं निर्धारित करना है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 33 ☆ ख़ास चर्चा ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “ ख़ास चर्चा ”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 33 – ख़ास चर्चा ☆

पत्र सदैव से ही आकर्षण का विषय बने रहे हैं। कोई भी इनकी उपयोगिता को, नकार नहीं सकता है। प्रमाण पत्र, परिपत्र, प्रशस्ति पत्र, सम्मान पत्र, अभिनंदन पत्र, परिचय पत्र, प्रेमपत्र, अधिपत्र, इन सबमें प्रशस्ति पत्र, वो भी डिजिटल ; बाजी मारता हुआ नजर आ रहा है। किसी भी कार्य के लिए, जब तक दो तीन सम्मान पत्र न मिल जाएँ, चैन ही नहीं आता। इसके लिए हर डिजिटल ग्रुप में दौड़ -भाग करते हुए, लोग इसे एकत्र करने के लिए जुनून की हद से गुजर रहे हैं। विजेता बनने की भूख सुरसा के मुख की तरह बढ़ती ही जा रही है।

लगभग रोज ही कोई न कोई उत्सव और एक दूसरे को सम्मानित करने की होड़ में, कोरोना काल सहायक सिद्ध हो रहा है। आजकल अधिकांश लोग घर,परिवार व मोबाइल इनमें ही अपनी दुनिया देख रहे हैं। कर्मयोगी लोग बुद्धियोग का प्रयोग कर धड़ाधड़ कोई न कोई कविता,कहानी, उपन्यास, व्यंग्य, आलेख या कुछ नहीं तो संस्मरण ही लिखे जा रहे हैं।  वो कहते हैं न, कि एक कदम पूरी ताकत से बढ़ाओ तो सही,  बहुत से मददगार हाजिर हो जायेंगे। वैसा ही इस समय देखने को मिल रहा है। गूगल मीट, वेब मीट, जूम और ऐसे ही न जाने कितने एप हैं, जो मीटिंग को सहज व सरल बना कर; वैचारिक दूरी को कम कर रहे हैं।

अरे भई चर्चा तो सम्मान पत्र को लेकर चल रही है, तो ये मीटिंग कहा से आ धमकी। खैर कोई बात नहीं, इस सबके बाद भी तो  सम्मान पत्र मिलता ही है। वैसे समय पास करने का अच्छा साधन है, ये मीडिया और डिजिटल दोनों का मिला जुला रूप।

जब भी मन इस सब से विरक्त होने लगता है, फेसबुक  प्रायोजित पोस्ट पुनः जुड़ने के लिए बाध्य कर देती है। और व्यक्ति फिर से इसे लाइक कर चल पड़ता है, इसी राह पर। यहाँ पर सबसे अधिक रास्ता, मोटिवेशनल वीडियो रोकते हैं। इन्हें देखते ही खोया हुआ आत्मविश्वास जाग्रत हो जाता है। और पुनः और सम्मान पत्र पाने की चाहत बलवती हो जाती है। अपने चित्त को एकाग्र कर, गूगल बाबा की मदद से, सीखते-सिखाते हुए हम लोग पुनः अभिनंदन करने व कराने की जुगत, बैठाने लगते हैं।

खैर कुछ न करने से, तो बेहतर है, कुछ करना, जिससे अच्छे कार्यों में मन लगा रहता है। इस पत्र की लालसा में ही सही, हम सम्मान करना और करवाना दोनों ही नहीं भूलते हैं। जिससे वातावरण व पारस्परिक आचार- व्यवहार में सौहार्दयता बनी रहती है।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 40 ☆ राजभाषा विशेष – मैं हिंदी हूँ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक नवगीत  “मैं हिंदी हूँ.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 40 ☆

☆ राजभाषा विशेष – मैं हिंदी हूँ  ☆ 

 

मैं भारत की प्यारी हिंदी।

जन-जन की उजियारी हिंदी।।

 

मैं तुलसी की सृष्टि बनी।

मैं सूरदास की दृष्टि बनी।।

 

मैं हूँ मीरा की  पथगामी।

मैं हूँ कबीर की सतगामी।।

 

मैं रत्नाकर के छंद बनी।

मैं खुसरो की हूँ बन्द बनी।।

 

मैं घनानंद की प्रवाहिका।

मैं निराला की अनामिका।।

 

मैं बसंत का गीत बनी।

फिल्मों का संगीत बनी।।

 

मैं मोक्षदायिनी गंग बनी।

मैं सप्तरंग का रंग बनी।।

 

मैं ही जीवन का सत्य अटल।

मैं ही भारत का भाग्य पटल।।

 

मैं हूँ तुलसी का रामचरित।

सुरसरिता-सी महिमामंडित।।

 

मैं जयशंकर की कामायनी।

मैं शस्य धरा की प्राणदायिनी।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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