हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 49 ☆ लघुकथा – चिट्ठी लिखना बेटी ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक सत्य घटना पर आधारित  उनकी लघुकथा चिट्ठी लिखना बेटी ! डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 49 ☆

☆  लघुकथा – चिट्ठी लिखना बेटी ! ☆

बहुत दिन हो गए तुम्हारी चिट्ठी  नहीं आई बेटी ! हाँ,जानती हूँ गृहस्थी में उलझ गई हो,समय नहीं मिलता होगा। गृहस्थी के छोटे –मोटे हजारों काम, बच्चे और तुम्हारी नौकरी भी,सब समझती हूँ, फोन पर तुमसे बात तो हो जाती है, पर  मन नहीं भरता। चिट्ठी आती है तो जब चाहो खोलकर इत्मीनान से पढ लो, जितनी बार पढो,  अच्छा ही लगता है। पुरानी चिट्ठियों की तो बात ही क्या, पढते समय बीता कल मानों फिर से जी उठता है। मैंने तुम्हारी सब चिट्ठियां संभालकर रखी हैं अभी तक।

तुम कह रहीं थी कि चिट्ठी  भेजे बहुत दिन हो गये? किस तारीख को भेजी थी? अच्छा दिन तो याद होगा? आठ –दस दिन हो गए?  तब तो आती ही होगी। डाक विभाग का भी कोई ठिकाना नहीं, देर – सबेर आ ही जाती हैं चिट्ठियां। बच्चों की फोटो भेजी है ना साथ में? बहुत दिन हो गए तुम्हारे बच्चे को देखे हुए। हमारे पास कब आ पाओगी – स्वर मानों उदास होता चला गया।

और ना जाने कितनी बातें, कितनी नसीहतें, माँ की चिट्ठी में हुआ करती थीं। धीरे- धीरे चिट्ठियों की जगह फोन ने ले ली। चिट्ठी में भावों में बहकर मन की सारी बातें उडेलना, जगह कम पडे तो अंतर्देशीय पत्र के कोने – कोने में छोटे अक्षरों में लिखना, उसका अलग ही सुख था। जगह कम पड जाती लेकिन मन की बातें मानों खत्म ही नहीं होती थी। लिखनेवाला भी अपनी लिखी हुई चिट्ठी को कई बार पढ लेता था, चाहे तो चुपके – चुपके रो भी लेता और फिर चिट्ठी चिपका दी जाती। फिर कुछ याद आता – ओह! अब तो चिपका दी चिट्ठी।

कितने बच्चे हैं, बेटा है? नहीं है, बेटियां ही हैं, ( माँ की याद्दाश्त खत्म होने लगी थी ) चलो कोई बात नहीं आजकल लडकी – लडके में कोई अंतर नहीं है। ये मुए लडके कौन सा सुख दे देते हैं? बीबी आई नहीं कि मुँह फेरकर चल देते हैं। तुम चिट्ठी लिखो हमें, साथ में बच्चों की फोटो भी भेजना, तुम्हारे  बच्चों को देखा ही नहीं हमने ( बार – बार वही बातें दोहराती है )।  फोन पर बात करते समय  हर बार वह यही कहती – बेटी ! फोन से दिल नहीं भरता, चिट्ठी लिखा करो।

कई बार कोशिश की, लिखने को पेन भी उठाया लेकिन कागज पर अक्षरों की जगह माँ का चेहरा उतर आता। अल्जाइमर पेशंट माँ को अपनी सुध नहीं है, सबके बीच रहकर भी वह मानों सबसे अन्जान, आँखों में सूनापन लिए जैसे कुछ तलाश रही हो। उसके हँसते –मुस्कुराते चेहरे पर अब आशंका और असुरक्षा  के भावों ने घर कर  लिया है। फोन पर अब वह मुझे नहीं पहचानती लेकिन जताती नहीं और बार –बार कहती ऐसा करो चिट्ठी  में सब बात लिख देना – कहाँ रहती हो, बच्चे क्या करते हैं? चिट्ठी  लिखना जरूर और यह कहकर फोन रख देती। मैं सोचती हूँ कि क्या वह अनुमान लगाती है कि मेरा कोई अपना है फोन पर? या चिट्ठियों से लगाव उससे यह बुलवाता है? पता नहीं —-उसके मन में क्या चल रहा है क्या पता, उसके चेहरे पर तो सिर्फ अपनों को खोजती आँखें, बेचारगी और झुंझलाहट है।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #77 ☆ नवरात्रि विशेष – स्त्री सम्मान और नवरात्र ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  नवरात्रि पर्व पर विशेष विचारणीयआलेख स्त्री सम्मान और नवरात्र ।  इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 77 ☆

☆ नवरात्रि विशेष स्त्री सम्मान और नवरात्र ☆

जहाँ हमारी संस्कृति में नार्याः यत्र पूज्चयनते रमन्ते तत्र देवता का उद्घोष था, दुखद स्थिति है कि आज प्रति दिन महानगरो में ही नही छोटे बड़े कस्बो गांवो तक में  स्त्री के प्रति अपराधो की बाढ़ सी आ गई लगती है. एक ओर तो महिलायें देश के लिये ओलम्पिक में कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं, लड़कियां अंतरिक्ष में जा रही हें, सेना में स्थान बना रही हैं, जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष को कड़ी प्रतियोगिता दे रही हैं तो  दूसरी ओर स्त्रियो को  लैंगिक भेदभाव, केवल स्त्री होने के कारण अनेक बलात अपराधो का सामना करना पड़ रहा है.  कोई समाचार पत्र उठा लें, कोई चैनल चला लें नारी के प्रति पीड़ा भरी, प्रत्येक सभ्य मनुष्य  को मर्माहत करने वाली खबरें  देखने सुनने को मिल जाती हैं. मनोरंजन हेतु आयोजित किये जाने वाले  ऑर्केस्ट्रा आदि के आयोजनो में नृत्य कला के नाम पर अश्लीलता दिनों दिन सारी सीमायें लांघ रही है. इन आयोजनो में स्त्री  को केवल देह के रूप में, उपभोग की वस्तु के रूप में दिखाया-सुनाया जा रहा है. लोक नृत्य व विशेष रूप से भोजपुरी संगीत के नाम पर फूहड़ गीत धार्मिक आयोजनो का भी हिस्सा बन चुके हैं. हरियाणा के अनेक गांवो की चौपालो के मंचो पर सार्वजनिक रूप से बेहूदे डांस के आयोजन मनोरंजन व राजनैतिक दलो द्वारा भीड़ जुटाने हेतु  परम्परा का हिस्सा बन रहे हैं.

अनेक अभियानों, प्रयासों और कानूनी प्रावधानों के बावजूद देश में महिलाओं के प्रति हिंसा और यौन दुराचार की घटनाएं रुक नहीं रही हैं.विडम्बना है कि डेढ़-दो साल तक की बच्चियों के साथ भी दुराचार की खबरें आती हैं. विवाह में दहेज व अल्पायु में विवाह की कुरीति पर किसी हद तक नियंत्रण हो रहा है तो दूसरी ओर अभी भी हमारी मुस्लिम बहनो के प्रति कट्टरपंथी सोच के चलते समुचित न्याय नही हो पा रहा. विज्ञापनो में नारी शरीर का उन्मुक्त प्रदर्शन,  फैशन की अंधी दौड़ में स्वयं स्त्रियो द्वारा नारी स्वातंत्र्य व पुरुष से बराबरी के नाम पर दिग्भ्रमित वेषभूषा व जीवन शैली अपनाई जा रही है. सिने जगत युवा पीढ़ी का प्रबल मार्गदर्शक होता है, किन्तु देखने मिला कि आदर्शो की जगह खलनायको का महिमा मण्डन हाल की कुछ फिल्मो के माध्यम से हुआ. फिल्मी कलाकार नशे के गिरफ्त में दिखे ।

स्त्री के प्रति बढ़ती हिंसा व अपराध के अनेक कारण हैं पर सबसे प्रमुख कारण महिलाओं को केवल एक शरीर बना देना है. मीडिया, एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री, बाजार सभी ही उन्हें वस्तु बनाने और उन्हें वस्तु होना समझाने में लगे हैं. महिलाओं को एक वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, स्वयं स्त्री को बड़ी ही चतुराई से इसमें सहभागी बनाया जा रहा है. कानून की सरासर अवमानना करते हुये अवयस्क किशोर भी ऐसे मनोरंजन के आयोजनो में शामिल होते हैं जिनमें स्त्री को बेहूदे नृत्यो के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है. इस सबका नव किशोरो के कोमल मन पर जो मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है उसी का दुष्परिणाम है कि निर्भया जैसे प्रकरणो में किशोर बच्चे भी अपराधी की भुमिका में पाये गये हैं. ऐसी सामाजिक परिस्थिति में स्त्रियों के लिए समता-समानता के संवैधानिक संकल्प को पूरा कर पाना तो दूर की बात है, लैंगिक न्याय, लैंगिक सम्वेदीकरण आदि के सामान्य से सामान्य कार्यक्रम भी सफल नहीं हो सकते। अश्लीलता हमारी लोक संस्कृति के अपार भण्डार और सांस्कृतिक धरोहर को भी ख़त्म कर रही है।चिंतन मनन का विषय है कि अश्लीलता को बढ़ावा देनेवाले लास्य और कामुकता के बीच का, और अच्छे और बुरे कार्यक्रम के बीच का अंतर स्थापित किया जावे. स्त्री को समाज में सम्मान का स्थान तभी मिल सकेगा जब हम किशोरों में, युवाओ में लड़कियो के प्रति सम्मान की भावना के संस्कार अधिरोपित करने में सफल हो सकेंगे.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 68 – नक्शे का मंदिर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “नक्शे का मंदिर। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 68 ☆

☆ नक्शे का मंदिर ☆

 नक्शे पर बना मंदिर। जी हां, आपने ठीक पढ़ा। धरातल की नीव से 45 डिग्री के कोण पर बना भारत के नक्शे पर बनाया गया मंदिर है। इसे भारत माता का मंदिर कह  सकते हैं। इस मंदिर की छत का पूरा नक्शा भारत के नक्शे जैसा हुबहू बना हुआ है। इसके पल में शेष मंदिर का भाग है।

इस मंदिर की एक अनोखी विशेषता है । भारत के नक्शे के उसी भाग पर लिंग स्थापित किए गए हैं जहां वे वास्तव में स्थापित हैं । सभी बारह ज्योतिर्लिंग के दर्शन इसी नक्शे पर हो जाते हैं।

कांटियों वाले बालाजी का स्थान कांटे वालों पेड़ की अधिकता के बीच स्थित था। इसी कारण इस स्थान का नाम कांटियों वाले बालाजी पड़ा।  रतनगढ़ के गुंजालिया गांव, रतनगढ़, जिला- नीमच मध्यप्रदेश में स्थित भारत माता के इस मंदिर में बच्चों के लिए बगीचे, झूले, चकरी आदि लगे हुए हैं । इस कारण यह बच्चों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

कटीले पेड़~

नक्शे पर सेल्फी ले

फिसले युवा।

~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-09-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 38 ☆ अवसरवादी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “अवसरवादी”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 38 – अवसरवादी ☆

जो एक बार कार्य में हीला हवाली करता है ,उसे दुबारा कभी भी अवसर नहीं देना चाहिए। ऐसा एक संस्था प्रमुख ने अपने अधीनस्थ से कहा।

सर, बिना न नुकुर के तो कोई अच्छे कार्य आज तक हुए ही नहीं है। आखिर थोड़ा बहुत नक्शा तो दिखाना ही पड़ता है।

सही कहा,  सरल कार्य को कठिन बना कर,  रास्ते को बाधित करते हुए जीने की कला तो नौकरशाहों को सबसे पहले सिखाई जाती है। यही तो एटीट्यूट कहलाता है। सफल ऑफिसर वही माना जाता है, जो अपने लिए दुर्गम राहों से भी राह निकाल लेता है, और दूसरों को उसमें उलझा कर रख देता है।

जी सर, मेरा तो मानना है कि कोई कितना भी अच्छा क्यों न हो यदि कहने से न चले तो उसे बाहर का रास्ता दिखाने में देरी नहीं करनी चाहिए। कोई किसी को न तो बढ़ा सकता है न घटा सकता है। व्यक्ति स्वयं ही अपने भाग्य का  निर्माता होता।

बिल्कुल सही ,अब मेरी कार्यशैली आपको समझ में आने लगी है। स्थायी कुछ भी नहीं होता है। जो कार्य करना चाहता है, उसे रास्ते भी मिलते हैं और मददगार भी। जब सब कुछ आपको दिया गया है तो उसे बेहतर कर के दिखाइए अन्यथा दूसरों को मौका देना होगा।

जी सर जी, यह एक बड़ा सत्य है। अक्सर लोग ये शिकायत करते दिखते हैं कि मुझे कोई महत्व नहीं  देता। कारण साफ है , जब आप उपयोगी बनेंगे, तभी पूछ परख बढ़ेगी। कार्य गुणवत्तापूर्ण हो, कुछ नयापन हो, सबसे महत्वपूर्ण बात उससे मानवता को लाभ पहुँचे। ऐसे लोग जो जरूरत के समय बहानेबाजी करें, उन्हें दुबारा अवसर न दें। हमेशा बैकअप प्लान तैयार रखें। सबसे महत्वपूर्ण स्वयं को तराशें, वन मैन आर्मी को ही सब पसंद करते हैं। अधिकारी वही बनता है , जो जरूरत पड़ने पर हर कार्य को बखूबी कर सके। अक्सर व्यक्ति आखिरी क्षणों में ही हिम्मत हार जाता है। और धैर्य खो देता है। बस वहीं से उसकी तरक्की रुक जाती है।

सही कहा आपने। दो लोगों की लड़ाई में सही परिणाम नहीं आने पाता, जो बलशाली हुआ उसी की तरफ पड़ला झुक जाता है। तटस्थ लोग ही इसके दोषी होते हैं क्योंकि सेफ जोन के चक्कर में वे मूक दर्शक बन कर पूरी फिल्म का आनन्द उठाते हैं ,सर जी।

ऐसे लोग भी हमको चाहिए क्योंकि भीड़तंत्र की आवश्यकता संस्थाओं को पड़ती ही है।

जी सर , अब पूरी तस्वीर मेरी आँखों में छप चुकी है। अब दुबारा आपको शिकायत का मौका नहीं दूंगा।

चलिए देर आये दुरस्त आये कहते हुए संस्था प्रमुख हँस दिए।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 45 ☆ दो मुक्तक ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  “दो मुक्तक.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 45 ☆

☆ दो मुक्तक  ☆ 

 

भारती के मान पर अभिमान होना चाहिए।

देशभक्तों का सदा सम्मान होना चाहिए।

जो वतन पर जान की बाजी लगाकर मर-मिटे,

उन शहीदों के नाम हिन्दुस्तान होना चाहिए।।

 

धर्म कविता का परस्पर प्यार होना चाहिए।

शब्दशः सद्भाव का संचार होना चाहिए।

भेद ना हो बाहरी बर्ताव का दिल से कभी,

कवि हृदय का सत्य ही औजार होना चाहिए ।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 67 – तू भी वही, मैं भी वही….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना तू भी वही, मैं भी वही…..। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 67 ☆

☆ तू भी वही, मैं भी वही….. ☆  

 

तू  भी  वही, मैं भी  वही

उस परम के सब अंश हैं

फिर क्यों कोई बगुले हुए हैं

और, कोई हंस हैं।

 

है ध्येय, सब का एक ही

सौगात खुशियों की मिले

क्यों अलग पथ अरु पंथ हैं

है परस्पर, शिकवे-गिले,

वसुदेव जैसे, है जहाँ

तो क्यों, वहीं पर कंस हैं।

तू भी वही …….

 

है पंचतत्वों का घरोंदा

इंद्रियाँ सब की वही

नवद्वार, विविध विकार हैं

कोई कहीं, कोई कहीं,

सब ब्रह्म की संतान तो

फिर क्यों अलग ये वंश हैं।

तू भी वही ……

 

संस्कारवश ये हैं अगर

प्रारब्ध भी यदि मान लें

सत्कर्म से बंधन कटे

दुष्कर्म बंधन बांध लें,

है ज्ञान,तप सेवा जहाँ

क्यों कुटिलता के दंश हैं।

तू भी वही…..

 

विस्तार व्यापक हो रहा

है ज्ञान औ’ विज्ञान का

चिंतन मनन से विमुख सा

मन भ्रमित है इंसान का,

गर नव सृजन निर्माण है

फिर क्यों वहीं विध्वंस है।

तू भी वही….

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 45 – बापू के संस्मरण-21 – कितने कुर्ते  आपको चाहिए ? ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “कितने कुर्ते  आपको चाहिए ?”)

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 21 – कितने कुर्ते  आपको चाहिए ? ☆ 

एक बार गांधीजी अपनी कलकत्ता  यात्रा  के दौरान  एक बंगाली सज्जन  के घर  उनसे मिलने गए।

उस  समय   वे केवल धोती  के समान  एक छोटा  सा  कपड़ा  पहनते  थे। उन्हे इस तरह देख गृह स्वामी  की छोटी बच्ची  ने कौतूहलवश  उनसे  एक सवाल  पूछ लिया –क्या  आपके  पास  पहनने के कपड़े  नहीं है ?  गांधीजी भी बड़े विनोदी स्वभाव के थे। उन्होने  उत्तर  दिया – “क्या  करूँ, सचमुच  मेरे  पास कपड़े  नहीं है।”

यह  सुनकर  वह बच्ची  बोल उठी – “मैं  अपनी माँ  से कह कर  आपको कुर्ता दिलवा  दूंगी। मेरी माँ के हाथ  का  सिला कुर्ता  आप पहनेंगे न ?”

गांधीजी ने कहा –”जरूर पहनूँगा ,लेकिन  एक कुर्ते  से मेरा  काम नहीं चलेगा।”

“कोई  बात नहीं, मेरी  माँ  आपको  दो कुर्ते  दे देगी” –उस बच्ची  ने कहा।

“नहीं,नही, दो कुर्ते  से मेरा  काम नहीं चलेगा”– गांधी का उत्तर  था।

“तब  कितने कुर्ते  आपको चाहिए ?”- बच्ची  का सवाल  था।

तब  गांधीजी ने बड़ी गंभीरता  से कहा – “बेटी, मुझे  35 करोड़ कुर्ते  चाहिए। जब  तक  देश के हर व्यक्ति के तन  पर कपड़ा नहीं होगा, तब तक  मैं  कैसे और कपड़े  पहन लूँ।”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 18 ☆ मंजिल खो गयी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मंजिल खो गयी) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 18 ☆ मंजिल खो गयी 

 

मंजिल खो गयी जिंदगी के ताने-बाने बुनने में,

जो बहुत हसीन दिख रही थी बचपन के खुशनुमा लम्हों में ||

 

सोचा था उलझनों को तो सुलझा लेंगे आसानी से,

पहले जिंदगी सुलझा ले जो दिख रही ज्यादा उलझनों में ||

 

मगर अफ़सोस जिंदगी भी कितनी बेवफा निकली,

उलझा कर रख दिया मुझको बुझते दियों को जलाए रखने में ||

 

अफ़सोस आसान दिखती उलझने सुलझ ना सकी,

जिसे आंसा समझ बैठा, उलझ गयी जिंदगी उसी के मकड़जाल में ||

 

ए ऊपरवाले अब तो कुछ मुझ पर रहम कर,

क्या जिंदगी हमेशा ऐसे ही उलझी रहेगी इस  मकड़जाल में ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नवरात्रि विशेष☆ देवी गीत – रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे …….. ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित नवरात्रि पर्व पर विशेष  देवी गीत रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे ……..। ) 

☆ नवरात्रि विशेष  ☆ देवी गीत – रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे …….. ☆

रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे

भटकते दूर से थके हारे , आये दर्शन को माता तुम्हारे

 

भक्ति की भावना में नहाये , मन में आशा की ज्योति जगाये

सपनों की एक दुनियां सजाये , आये मां ! हम हैं मंदिर के द्वारे

 

चुन के विश्वास के फूल , लाके हल्दी , अक्षत औ चंदन बना के

थाली पूजा की पावन सजाके , पूजने को चरण मां तुम्हारे

 

सब तरफ जगमगा रही ज्योति , बड़ी अद्भुत है वैभव विभूति

पाता सब कुछ कृपा जिस पे होती , चाहिये हमें भी माँ सहारे

 

जग में जाहिर है करुणा तुम्हारी  , भीड़ भक्तों की द्वारे है भारी

पूजा स्वीकार हो मां हमारी , हम भी आये हैं माँ बन भिखारी

 

माँ  मुरादें हो अपनी  पूरी , हम आये हैं झोली पसारे

हरी ही हरी होये  किस्मत , दिवाले जैसे जवारे

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 69 – तेजशलाका ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 69 ☆

☆ तेजशलाका ☆

 

तू श्रीहरीची मधूर बासरी

सरस्वतीची वीणा मंजूळ

वसुंधरेची नव चैत्रपालवी

मृगनयनी तव रूप लाघवी

 

तू साक्षात्कारी एक कल्पना

कवितेमधली मृदूल भावना

प्राजक्ताचा प्रसन्न दरवळ

तरूणाईचा तरंग अवखळ

 

तू पूर्वेची पहाटलाली

 नवकिरणांची तेजशलाका

साकारलेले स्वप्न मनोहर

नवयुवती तुज प्राप्त युगंधर

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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