हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – उसका सूरज  — कवयित्री – भारती संजीव ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 10 ?

?उसका सूरज  — कवयित्री – भारती संजीव ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

? वो अपने घर का सूरज थी  श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक- उसका सूरज

विधा- कविता

कवयित्री- भारती संजीव

प्रकाशक- आर के पब्लिकेशन मुम्बई 

मूल्य- 195/- 

देहरी का नाम आते ही/उभरती है एक स्त्री/ जिसके पास न जीभ है /न कान, न आँख /न स्वयं के विचार / ना विरोध की दरकार / है तो सिर्फ कुछ मिले हुए संस्कार / थोपे हुए विचार / जो है समिधा की तरह /स्वाहा होने को तैयार..

‘उसका सूरज’ भारती संजीव का पहला कवितासंग्रह है। उपरोक्त पंक्तियाँ उनके पहले कवितासंग्रह की पहली कविता से हैं। पहली कविता से ही कवयित्री की  विधागत दृष्टि, दृष्टिगोचर होने लगती है। समिधा की आहुति से अग्नि जन्म लेती है। अग्नि विशुद्ध महाभूत होती है। आग पीकर, आग से होकर, आग होकर जन्मती है कविता। यही कारण है कि कविता अभिव्यक्ति की विशुद्व विधा है। भारती संजीव के ‘उसका सूरज’ में यह शुद्धता अन्यान्य पृष्ठों पर प्रखरता से अवलोकित होती है।

कविता की एक विशेषता कम शब्दों में मर्म तक पहुँचना और पहुँचाना भी है। इसके चलते कविता को गागर में सागर की उपमा दी गई है। भीड़ द्वारा डायन घोषित कर किसी स्त्री के साथ किया जानेवाला अघोरीपन पिघलता लोहा है। इस लोहे का कविता में ‘टर्निंग द टेबल’ का दृश्य देखिये-

भीड़ के मनोविकारों की शिकार/डायनें/  लगाती हैं प्रश्नचिह्न व्यवस्था पर /वे छोड़ देती हैं /पिघलता गर्म लोहा /संविधान पर..

विज्ञान बताता है कि एक्स और वाई गुणसूत्र के मिलन से लड़का अथवा लड़की जन्म लेती है। इसका कारक पुरुष होता है ना कि स्त्री। तब भी स्त्री पर लड़की जनने का दोषारोपण और आधुनिक समाज में भी लड़की को कम आंकने की मनोरुग्णता देखने को मिलती है। गुणसूत्र के विज्ञान से परे व्यवहारिक ज्ञान को साधन बनाकर कवयित्री यही बात समाज को समझाने का प्रयास करती हैं।

न ही ईंट-गारे-पत्थर से /बनाई जाती हैं /वे भी पैदा होती हैं/ उसी तरह/जिस तरह पैदा होता है/घर का चिराग..

स्त्री और पुरुष के लिए लिखने की सुविधा में गहरा अंतर है। पुरुष 8 घंटे के लिए काम पर होता है। स्त्री 24×7 गृहिणी होती है। लेखन जब प्रस्फुटित होता है, उसे उसी समय काग़ज़ पर उतारना होता है। उस क्षण चूक जाना, एक रचना से हाथ धो बैठना है। सुबह के अलार्म से उठने के साथ रात को बिस्तर को जाने तक स्त्री अपनी अनेक रचनाओं के गर्भ में ही दम तोड़ने का साक्षी बनती है।

इन अनकहे शब्दों की मृत्यु का/ कोई गवाह नहीं/ जो पन्नों पर उतर आते/  वही स्त्री रचित कहलाते हैं..

स्त्री अपार संभावनाओं का पर्यायवाची है। स्त्री को आधी दुनिया कहना स्त्रीत्व के प्रति असम्मान है। सत्य तो यह है शेष आधी दुनिया को स्त्री अपनी कोख में धारण किए हुए है। विसंगति यह कि ब्रह्मांड होते हुए भी स्त्री को सृष्टि में अपने इच्छा को, अपने भाव को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है, अपना स्थान बनाने के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। उसे बार-बार, लगातार अपनी क्षमता को सिद्ध करना पड़ता है। तथापि जिजीविषा की धनी स्त्री प्रतिदिन उगनेवाले सूरज की तरह हर सुबह अपना नया सूरज बनाती है। घर, परिवार को आलोकित एवं ऊर्जस्वित कर देती है।

वह आटे की थाली पर/ उकेरती है शब्द/ रंगोली में फुटबॉल, किताबें, नदियाँ /और पहाड़..

……

वह स्त्री है/ सूरज के आने से पहले/  उठती है/ हाथ में रंग कूची लिए/ अपना सूरज/स्वयं बनाती है..

…….

वो अपने घर का सूरज थी/  वो स्त्री थी..

संग्रह में स्त्री संवेदना मुख्य रूप से अभिव्यक्त हुई है। अलबत्ता ऐसा नहीं है कि सारा संग्रह इसी पर केंद्रित हो। संग्रह में श्रमिकों की समस्याओं पर ध्यानाकर्षण है, महामारी की वेदना है, किसानों की चर्चा है, व्यवस्था के विरुद्ध आवाज़ है। ढेर सारी विसंगतियों को कवयित्री बहुत कम शब्दों में पिरो देती हैं-

केंद्र से बहुत दूर/ सारी व्यवस्था के केंद्र में/ आम आदमी..

यह एक स्त्री की रचनाओं का संग्रह है। स्वाभाविक है इनमें करुणा, ममता, वात्सल्य और प्रेम है। घटनाओं, प्रबोधन, प्रवर्तन, युद्ध आदि के मुकाबले प्रेम की सर्वग्राह्यता और अमाप परिधि शब्दों में ढली है।

मैंने क्रांति नहीं की/ मैंने युद्ध भी नहीं किया/ मैंने तो बस प्रेम किया था/ क्रांति तो/ अपने आप हो गई..

स्त्रैण सृष्टि का स्थायी भाव है। वह कायम रहता है। इसी भाँति अक्षर का क्षरण नहीं होता,  अक्षर सदा कायम रहता है। कवयित्री भारती संजीव का यह कविता संग्रह उनके चिंतन और सृजन के प्रति आशा जगाता है। विश्वास किया जाना चाहिए कि आने वाले समय में कवयित्री  पाठकों की इस आशा को कायम रखेंगी।

कायम होना चाहती हूँ/ जैसे कायम होती है/ नमी, समुद्री किनारों पर/ रंग और खुशबू बहारों पर/ झिलमिलाहट सितारों पर/ स्वच्छंदता हवाओं पर..

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 18 – ग़ज़ल – ख़ुदा ख़ैर करे… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम ग़ज़ल – ख़ुदा ख़ैर करे… 

? रचना संसार # 18 – ग़ज़ल – ख़ुदा ख़ैर करे… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

उनकी नज़रें बनीं तलवार ख़ुदा ख़ैर करे

हुस्न के हो गये बीमार ख़ुदा ख़ैर करे

लोग चेहरे पे लगा लेते हैं चेहरा ही नया

झूठ का गर्म है बाज़ार ख़ुदा ख़ैर करे

 *

क़ैद हैं कब से क़फ़स में तेरी उल्फ़त के सनम

अब तो मरने के हैं आसार ख़ुदा ख़ैर  करे

 *

अद्ल-ओ -इंसाफ़ की हमसे न करे बात कोई

बिकते सच के भी हैं दरबार ख़ुदा ख़ैर करे

 *

ख़ुद-ग़रज़ होके किये ज़ुल्म भी क़ुदरत पे बहुत

वक़्त की पड़ने लगी मार ख़ुदा ख़ैर करे

 *

हर तरफ देख बिछीं लाशें ही लाशें मौला

जीना अब हो गया दुश्वार ख़ुदा ख़ैर करे

 *

 ग़ैर होते, तो नहीं रंज जफ़ा का होता

सारे अपने हैं गुनहगार ख़ुदा ख़ैर करे

 *

शे’र कहने का सलीक़ा भी नहीं है जिनको

लब पे उनके भी हैं  अशआर ख़ुदा ख़ैर करे

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #246 ☆ भावना के दोहे – रक्षा बंधन… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – रक्षा बंधन)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 246 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – रक्षा बंधन☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

रक्षा बंधन प्यार का, प्यारा सा त्योहार।

खुशियां भाई बहिन की, मना रहा संसार।।

भैया घर पर आ रहे, यही बहन की चाह।

धागा राखी का लिए , देख रही है राह।।

 *

लगी द्वार पर टकटकी, देख रही हूँ राह।

राखी का त्योहार है, है बहना को चाह।।

 *

चौमासे की धूम है,  हर दिन है त्यौहार।

संग सखी,  भाई बहन, मिले पिया का प्यार।।

 *

धागा प्यारा लग रहा, है बहन का प्यार।

यह केवल धागा नहीं, रक्षा का त्योहार।।

 *

भाव समाहित हो रहे, मिलता है आशीष।

भाई आदर कर रहा, झुके सदा ही शीष।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #228 ☆ दो मुक्तक… जागरुकता ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है दो मुक्तकजागरुकता आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 228 ☆

☆ दो मुक्तक जागरुकता ☆ श्री संतोष नेमा ☆

(संस्कारधानी जबलपुर पर आधारित)

दवाओं   में   लूट   बहुत   है

प्रशासन   की  छूट  बहुत  है

जनप्रतिनिधि जाग कर सोते

नेताओं   में   फूट   बहुत   है

*

शहर  के लिए एक हो जाओ

करो  विकास  नेक हो जाओ

जबलपुर  का मान रखो  सब

जागरूक  प्रत्येक  हो  जाओ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 234 ☆ अधिक मास दिवस पंधरावा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 234 – विजय साहित्य ?

☆ अधिक मास दिवस पंधरावा…! ☆

पौराणिक कथा,

वैज्ञानिक जोड

आहे बिनतोड,

कथासार…!

*

जाणूनीया घेऊ,

चांद्र, सौर ,मास .

कालाचा प्रवास, सालोसाल…!

*

कलेकलेनेच,

होई वृद्धी, क्षय

चंद्रबिंब पूर्ण,

पौर्णिमेस…!

*

पौर्णिमेच्या दिनी,

नक्षत्राचा वास

तोच चांद्रमास, ओळखावा…!

*

नक्षत्रांची नावे,

मराठी महिने

बारा महिन्यांचे,

चांद्रवर्ष…!

*

पौर्णिमांत आणि,

दुसरा अमात

चांद्रवर्ष रीत,

गणनेची…!

*

तिनशे चोपन्न ,

चांद्रवर्ष दिन

सौरवर्ष मोठे,

अकरानी…!

*

मासभरी सूर्य,

एकाच राशीत

म्हणोनी संक्रांत,

राशी नामी…!

*

हर एक मासी,

प्रत्येक राशीत

सूर्याची संक्रांत,

सौरवर्षी…!

*

मधु, शुक्र, शुचि ,

माधव, रहस्य.

इष नी तपस्य ,

संज्ञा त्यांच्या…!

*

अकरा दिसांचा,

वाढता आलेख

अधिकाची मेख, तेहतीस…!

*

कविराज लेखी,

अधिकाचा नाद

अंतर्यामी साद,

मानव्याची…!

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १२ — भक्तियोग — (श्लोक ११ ते २0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १२ — भक्तियोग — (श्लोक ११ ते २0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः । 

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्‌ ॥ ११ ॥

*

असाध्य तुजला असतील अर्जुना ही सारी साधने

मतीमनाचा जेता होउनी त्याग कर्मफलाचा करणे ॥११॥

*

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाञ्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते । 

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌ ॥ १२ ॥

*

अजाण अभ्यासाहुनिया खचित श्रेष्ठ ज्ञान

ज्ञानापरिसही अतिश्रेष्ठ परमेशरूप ध्यान

तयापरीही श्रेष्ठतम जाणी त्याग कर्मफलांचा 

त्वरित प्राप्ती परम शांतीची लाभ असे त्यागाचा ॥१२॥

*

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । 

निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ १३ ॥ 

सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः । 

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १४ ॥

*

निस्वार्थी अद्वेष्टी दयावान प्रेमळ क्षमाभाव

ममत्व नाही निरहंकार सुखदुःखसमभाव

योगी सदैव संतुष्ट दृढनिश्चयी आत्मा जयाचा

मतीमनाने अर्पण मजला भक्त मम प्रीतिचा ॥१३, १४॥

*

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः । 

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ १५ ॥

*

कुणापासुनी नाही पीडा कोणा ताप न देय

मोद मत्सर नाही भय उद्वेग मला भक्त प्रिय ॥१५॥

*

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः । 

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १६ ॥

*

निरपेक्ष मनी चतुर तटस्थ शुद्ध अंतर्बाह्य 

दुःखमुक्त निरभिमानी भक्त असे मजसी प्रिय ॥१६॥

*

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति । 

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥ १७ ॥

*

हर्ष ना कधी शोकही नाही ना थारा द्वेषा इच्छेला

शुभाशुभ कर्मांचा त्याग भक्तीयुक्त तोची प्रिय मला ॥१७॥

*

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः । 

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥ १८ ॥

*

शत्रू असो वा मित्र मान  असो अपमान अथवा

विचलित होई ना मनातुनी  जोपासे समभावा

शीतउष्ण सुखदुःख असो समान ज्याची वृत्ती

साऱ्यापासून अलिप्त राही कसलीच नसे आसक्ती ॥१८॥

*

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌ । 

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥ १९ ॥

*

निंदा कोणी अथवा वंदा मनातुनीया स्थित

प्राप्त तयात निर्वाह करूनी सदैव राही तृप्त 

निकेताप्रती उदासीनता कशात ना आसक्त

अतिप्रिय मजला जणुन घ्यावे स्थिरबुद्धी भक्त ॥१९॥

*

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते । 

श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥ २० ॥

*

धर्मामृत सेवन करती निष्काम प्रेमभावना 

श्रद्धावान मत्परायण भक्तप्रीती मन्मना ॥२०॥

*

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

 

ॐ श्रीमद्भगवद्गीताउपनिषद तथा ब्रह्मविद्या योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुन संवादरूपी भक्तीयोग नामे निशिकान्त भावानुवादित द्वादशोऽध्याय संपूर्ण ॥१२॥

 

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 210 ☆ … ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना त्यौं-त्यौं उज्ज्वल होय। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 210 ☆ त्यौं-त्यौं उज्ज्वल होय…

जिस कार्य को आप कर रहे हैं उसमें आपको शत प्रतिशत योग्य होना चाहिए और ये योग्यता एक पल में नहीं मिल जाती, इसके लिए सतत परिश्रम, धैर्य, योग्यता, कुछ कर गुजरने का जज़्बा, किसी भी परिस्थिति में हार न मानने का प्रण।

जब आप सफ़लता के नजदीक होते हैं तभी लोग एक- एक कर साथ छोड़ने लगते हैं, कारण शीर्ष पर खड़े होना सबके बस की बात नहीं होती इसीलिए वे दूर हो जाते हैं। ऐसे समय में कदम पीछे करने के बजाय पूरी ताकत के साथ बढ़ते रहना चाहिए क्योंकि लक्ष्य की राह में कोई और नहीं आ सकता यहाँ तक कि स्वयं के मन का भय भी नहीं। केवल मंजिल पर निगाह हो, एक रास्ता बंद हो तो दूसरा खोजें, राह भी बनानी पड़े तो बनाएँ पर अपनी जीत सुनिश्चित करें।

तिनके – तिनके जोड़ के, कुनबा लिया बनाय।

नेह भाव मन में बसे, करिए सतत उपाय।।

जीवन में कई बार ऐसा होता है कि आप ने सब कुछ अपने परिश्रम से बनाया पर एक झटके में वो सब बिखर गया, ऐसे में बिल्कुल भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है ये मंत्र सदैव याद रखें जो होता है अच्छे के लिए होता है, कोई भी आपका सब कुछ छीन सकता है पर भाग्य नहीं छीन सकता। अपने को हमेशा समय के साथ अपडेट करते रहें, तकनीकी का ज्ञान ऐसे समय में आपकी सहायता करता है आप अध्ययन करते रहें निरंतर अपनी योग्यता को बढ़ाते रहें।

किसी ऐसे विषय का चयन करें जिसमें आपकी विशेष रुचि हो उसी को विस्तारित करते रहें विश्वास रखें एक न एक दिन दुनिया आपका लोहा मानेगी। बिना मेहनत के यदि आपने कुछ हासिल कर भी लिया तो उसका कोई अर्थ नहीं है, योग्यता सबसे जरूरी होती है योग्य व्यक्ति ही समाज में अपना स्थान बना पाता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 18 – आलस्य का नया युग ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना आलस्य का नया युग)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 18 – आलस्य का नया युग ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

एक दिन, हमारे देश के नेताओं ने एक नई योजना बनाई। उन्होंने सोचा कि अब पुराने नारे जैसे ‘वंदेमातरम’ और ‘जयहिंद’ आउट-ऑफ डेट हो चुके हैं। अब समय आ गया है कि हम अपने नागरिकों को एक नया नारा दें – ‘सुस्त बनो, मस्त रहो’।

नेताओं ने एक बड़ी सभा बुलाई और जनता को संबोधित किया। “भाइयों और बहनों,” नेता जी ने कहा, “आज हम एक नए युग में प्रवेश कर रहे हैं। अब हमें आलस को अपनाना होगा। यह हमारे समाज का नया विकास मंत्र है।”

सभा में बैठे लोग पहले तो चौंक गए, लेकिन फिर तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा मैदान गूंज उठा।

नेता जी ने आगे कहा, “हम सदा शरीर को कष्ट देने वाले नारे लगाते आ रहे हैं, लेकिन अब इन नारों का कोई अर्थ नहीं रहा। अब हमें श्री श्री 1008 श्री आलस्य ऋषि का लिखा आलस्य पुराण पढ़ना चाहिए।”

सभा में बैठे एक बुजुर्ग ने कहा, “नेता जी, यह आलस्य पुराण क्या है?”

नेता जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “आलस्य पुराण में आलसी बनने के तरीके, उससे फायदे और आधुनिक युग में आलसी बने जिंदा रहने के तरीके बताए गए हैं।”

सभा में बैठे लोग हंस पड़े।

नेता जी ने कहा, “स्व. आलसी बाबा ने कहा था कि मैं कोई काम जल्दी नहीं करता। ऐसा करने से बदन दर्द देने लगता है। फाइल खुद चलकर आए तो काम करने का मजा आता है, टेबल पर रखी फाइल देख लेंगे तो हमारी तौहीन नहीं होगी क्या।”

सभा में बैठे लोग अब पूरी तरह से सहमत हो गए थे।

नेता जी ने कहा, “अब हमें ‘आलस्य परमो गुणः’ जैसे गबन-राग छेड़ते हुए आलस्य बढ़ाने के आंदोलन करने चाहिए। हमें अधिकतम आलस्य करना चाहिए और अपने देश को इस मामले में सिरमौर का दर्जा दिलवाना चाहिए।”

सभा में बैठे लोग अब पूरी तरह से उत्साहित हो गए थे।

नेता जी ने कहा, “आलस्य धर्म-जाति-वर्ग निरपेक्ष होता है। यह हमारे समाज को एकीकृत करने में बहुत काम आएगा।”

सभा में बैठे लोग अब पूरी तरह से आलस्य को अपनाने के लिए तैयार हो गए थे।

नेता जी ने कहा, “आइए, अति आलसी बनकर अति मस्त बनें।”

सभा में बैठे लोग अब पूरी तरह से आलस्य को अपनाने के लिए तैयार हो गए थे।

लेकिन, इस आलस्य के चलते समाज में अराजकता फैल गई। लोग एक-दूसरे को धोखा देने लगे। कामचोरी और खर्राटे लेना आम हो गए।

एक दिन, जब एक सेवानिवृत्त बूढ़ा अपनी पेंशन की फाइल के बारे में पूछा, तो देखा कि उसकी फाइल चूहों की भेंट चढ़ चुकी थी।

बूढ़े ने रोते हुए कहा, “मैंने अपनी पूरी जिंदगी मेहनत से काम किया, लेकिन अब मुझे समझ आ गया कि इस समाज में मेहनत की कोई कीमत नहीं है।”

बूढ़े की आंखों में आंसू थे और उसने अपनी खोई फाइल की याद में रोते हुए कहने लगा, “अब मैं भी अपने बच्चों को आलसी बनाऊँगा, ताकि उन्हें मेहनत करके कोई नौकरी न करना पड़े।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 298☆ आलेख – दुनियां एक रंगमंच… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 298 ☆

? आलेख – दुनियां एक रंगमंच? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

ये दुनिया एक रंगमंच है. हम सब छोटे बड़े कलाकार और परमात्मा शायद हम सबका निर्देशक है जिसके इशारो पर हम उठते गिरते परदे और प्रकाश व ध्वनि के तेज कम होते नियंत्रण के साथ अपने अपने चरित्र को जी रहे हैं. जो कलाकार जितनी गम्भीरता से अपना किरदार निभाता है, दुनिया उसे उतने लम्बे समय तक याद रखती है.

एक लेखक की दृष्टि से सोचें तो अपनी भावनाओ को अभिव्यक्त करने की अनेक विधाओ में से नाटक  एक श्रेष्ठ विधा है. कविता न्यूनतम शब्दो में अधिकतम कथ्य व्यक्त कर देती है, किन्तु संप्रेषण तब पूर्ण होता है जब पाठक के हृदय पटल पर कविता वे दृश्य रच सकें जिन्हें कवि व्यक्त करना चाहता है. वहीं नाटक चूंकि स्वयं ही दृश्य विधा है अतः लेखक का कार्य सरल हो जाता है, फिर लेखक की अभिव्यक्ति को निर्देशक तथा नाटक के पात्रो का साथ भी मिल जाता है. किन्तु आज फिल्म और मनोरंजन के अन्य अनेक आधुनिक संसाधनो के बीच विशेष रूप से हिन्दी में नाटक कम ही लिखे जा रहे हैं. एकांकी, प्रहसन, जैसी नाट्य विधायें लोकप्रिय हुई हें. इधर रेडियो रूपक की एक नई विधा विकसित हुई है जिसमें केवल आवाज के उतार चढ़ाव से अभिनय किया जाता है. नुक्कड़ नाटक भी नाटको की एक अति लोकप्रिय विधा है. प्रदर्शन स्थल के रूप में किसी सार्वजनिक स्थल पर एक घेरा, दर्शकों और अभिनेताओं का अंतरंग संबंध और सीधे-सीधे दर्शकों की रोज़मर्रा की जिंद़गी से जुड़े कथानकों, घटनाओं और नाटकों का मंचन, यह नुक्कड़ नाटको की विशेषता है.

हिन्दी सिनेमा में अमोल पालेकर, फारूख शेख, शबाना आजमी जैसे अनेक कलाकार मूलतः नाट्य कलाकार ही रहे हैं. किन्तु नाट्य प्रस्तुतियो के लिये सुविधा संपन्न मंचो की कमी, नाटक से जुड़े कलाकारो को पर्याप्त आर्थिक सुविधायें न मिलना आदि अनेकानेक कारणो से देश में सामान्य रूप से हिन्दी नाटक आज दर्शको की कमी से जूझ रहा है. लेकिन मैं फिर भी बहुत आशान्वित हूं, क्योकि सब जगह हालात एक से नही है. जबलपुर में ही तरंग जैसा प्रेक्षागृह, विवेचना आदि नाट्य संस्थाओ के समारोह, भोपाल  में रविन्द्र भवन, भारत भवन आदि दर्शको से खचाखच भरे रहते है.

मराठी और बंगाली परिवेश में तो रंगमंच सिनेमा की तरह लोकप्रिय हैं.

सच कहूं तो नाटक के लिये एक वातावरण बनाने की जरूरत होती है, यह वातावरण बनाना  हमारा ही काम  है. नाटक अभिजात्य वर्ग में अति लोकप्रिय विधा है. सरकारें नाट्य संस्थाओ को अनुदान दे रहीं हैं. हर शहर में नाटक से जुड़े, उसमें रुचि रखने वाले लोगो ने  संस्थायें या इप्टा अर्थात इंडियन पीपुल थियेटर एसोशियेशन जैसी १९४३ में स्थापित राष्ट्रीय संस्थाओ की क्षेत्रीय इकाइयां स्थापित की हुई हैं. और नाट्य विधा पर काम चल रहा है. वर्कशाप के माध्यम से नये बच्चो को अभिनय के प्रति प्रेरित किया जा रहा है. पश्चिम बंगाल व  महाराष्ट्र में अनेक निजी व संस्थागत नाट्य गृह संचालित हैं, दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, भोपाल में भारत भवन आदि सक्रिय संस्थाये इस दिशा में अपनी भूमिका का निर्वाह कर रही हैं. नाटक के विभिन्न पहलुओ पर पाठ्यक्रम भी संचालित किये जा रहे हैं.

जरूरत है कि नाटक लेखन को और प्रोत्साहित किया जावे क्योकि आज भी जब कोई थियेटर ग्रुप कोई प्ले करना चाहता है तो उन्ही पुराने नाटको को बार बार मंचित करना पड़ता है. नाटक लेखन पर कार्यशालाओ के आयोजन किये जाने चाहिये, मेरे पास कई शालाओ के शिक्षको के फोन आते हैं कि वे विशेष अवसरो पर नाटक करवाना चाहते हैं पर  उस विषय का कोई नाटक नही मिल रहा है, वे मुझसे नाटक लिखने का आग्रह करते हैं, मैं बताऊ मेरे अनेक नाटक ऐसी ही मांग पर लिखे गये हैं. मेरे नाटक पर इंटरनेट के माध्यम से ही संपर्क करके कुछ छात्रो ने फिल्मांकन भी किया है. संभावनायें अनंत हैं. आगरा में हुये  एक प्रयोग का उल्लेख जरूरी है, यहां १७ करोड़ के निवेश से अशोक ओसवाल ग्रुप ने एक भव्य नाट्यशाला का निर्माण किया है, जहां पर “मोहब्बत दि ताज” नामक नाटक का हिन्दी व अंग्रेजी भाषा में भव्य शो प्रति दिन वर्षो से जारी है, जो पर्यटको को लुभा रहा है. अर्थात नाटको के विकास के लिये  सब कुछ सरकार पर ही नही छोड़ना चाहिये समाज सामने आवे तो नाटक न केवल स्वयं संपन्न विधा बन सकता है वरन वह लोगो के मनोरंजन, आजीविका और धनोपार्जन का साधन भी बन सकता है.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 217 ☆ बाल सजल – बचपन में न बचपन पाते… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 217 ☆

बाल सजल – बचपन में न बचपन पाते… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

बोझ पढ़ाई से घबराते।

बच्चे लाइब्रेरी कब आते।।

शेष समय मोबाइल खाता,

टीवी देख देख हर्षाते।।

 *

भोजन रुचि से कब हैं खाते।

पिज्जा , बर्गर  खूब सुहाते।।

 *

भाता है क्रिकेट गेम अब,

चौका , छक्का दे मुस्काते।।

 *

पानी की कीमत क्या जानें,

नल खोलें फिर खूब नहाते।।

 *

दादी, नानी दूर हो गईं,

किस्से कथा कहाँ अब भाते।।

 *

गई नमस्ते , बाय हाय है,

अब न गलतियों पर शर्माते।।

 *

चक्र’ देख बच्चों की दुनिया ,

बचपन में न बचपन पाते।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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