हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 65 – घी निकालना है तो… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना घी निकालना है तो…। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 65 ☆

☆ घी निकालना है तो… ☆  

 

घी निकालना है तो प्यारे

उंगली टेढ़ी कर

या फिर श्री चरणों में उनके

अपना मस्तक धर।

 

नब्ज पकड़ कर इनकी

जमकर अपनी बात बता

चाहे तो पहले इसके

ले, जी भर इन्हें सता,

कुछ पिघलेगा, किंतु

दिखाएगा कुछ और असर

घी निकालना है तो …….।।

 

धूर्त चीन सी चालें

और चलेंगे ये बेशर्म

हमको भी ऊर्जस्वित हो

फिर हो जाना है गर्म

रखें पूँछ पर पांव, तभी

हलचल करते अजगर।

घी निकालना है तो……….।।

 

लंपट, धूर्त स्वार्थ में डूबे

इनका क्या है मोल

रहे बदलते सदा देश का

ये इतिहास भूगोल

दहन करें होली पर इनका

या की दशहरे पर।

घी निकालना है………..।।

 

सीधे-साधे लोगों की

क्या कीमत क्या है तोल

ऊपर से नीचे तक

नीचे से ऊपर तक पोल

किंतु जगा अब देश

ढहेंगे इनके छत्र-चँवर।

घी निकालना है तो प्यारे

उंगली टेढ़ी कर।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 16 – ☆ ख़ुशी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ख़ुशी ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 16   ☆– ख़ुशी

 

एक दिन घर की खिड़की से झाँक रहा था,

ख़ुशी वहां से गुजर रही थी,

 

मैंने उसे इशारे से रोका मगर वो आगे निकल गयी ,

देखा खुशी दो दुःख दरवाज़े पर छोड़ चली गयी ||

 

दरवाजा बन्द रखने लगा दुखों के आने के डर से,

एक दिन फिर किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी,

दरवाजा खोलकर देखा ख़ुशी जा चुकी थी,

देखा खुशी दो दुःख दरवाजे पर छोड़ चली गयी ||

 

एक दिन फिर खिड़की से झाँक रहा था,

ख़ुशी गुजर रही थी, मैंने रोकने की कोशिश की,

खुशी बोली कभी शक्ल देखी है अपनी आईने में,

देखा खुशी दो दुःख दरवाजे पर छोड़ चली गयी ||

 

दुखों से संघर्ष करके जिंदगी हार गया,

खिड़की बन्द देख खुशी ने दरवाजे पर दस्तक दी,

देखों आज तुम्हारे लिए खुशियों की सौगात लायी हूँ,

मुझे बेजान देख खुशी दरवाजे पर खुशियां छोड़ चली गयी ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 67 – गझल – वृत्त – पीनाकी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 67 ☆

☆ गझल – वृत्त – पीनाकी ☆

(लगागागा लगागागा लगागागा लगागा)

 

अता वाटे खरेतर हे जगा माहीत होते

कशाला मी उगाचच लपविले का भीत होते

 

असावे पूर्वजन्मीचे ऋणादीबंध काही

जसे राधा मुरारीही जुने मनमीत होते

 

गझल अद्यापही ज्यांची मना वेढून आहे

कळाले नाव ते चित्रा सहित जगजीत होते

 

मला आल्या पुन्हा हाका दिशा दाही उजळल्या

तुला सांगू कसे हे काय धुंडाळीत होते

 

अशी आहे नशा जगण्यात गझलेचीच सारी

थवे आजन्म शब्दांचेच कुरवाळीत  होते

 

फुले वाट्यास आलेली जरी बेरंग  होती

तरीही  क्षण सुखाचे पूर्ण गंधाळीत होते

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- sonawane.prabha@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 40 ☆ व्यंग्य संग्रह – ५ वां कबीर – श्री बुलाकी शर्मा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री बुलाकी शर्मा जी  के  व्यंग्य  संग्रह   “५ वां कबीर  ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 40 ☆ 

पुस्तक – ५ वां कबीर

व्यंग्यकार – श्री बुलाकी शर्मा

पृष्ठ – ११२

मूल्य – १०० रु

पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह   – ५ वां कबीर  – व्यंग्यकार – श्री बुलाकी शर्मा

व्यंग्य यात्रा में हर सप्ताह हमें किसी नई व्यंग्य पुस्तक, किसी नये व्यंग्य लेखक को पढ़ने का सुअवसर मिलता है.. जाने माने व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा के व्यंग्य उनके मुख से सुन चुका हूं. पढ़ने तो वे प्रायः मिल ही जाते हैं. प्रकाशन के वर्तमान परिदृश्य के सर्वथा अनुरूप ११२ पृष्ठीय ” ५ वां कबीर ” में बुलाकी जी के कोई ४० व्यंग्य संग्रहित हैं. स्पष्ट है व्यंग्य ८०० शब्दो के सीमित विस्तार में हैं. इस सीमित विस्तार में अपना मंतव्य पायक तक पहुंचाने की कला ही लेखन की सफलता होती है. वे इस कला में पारंगत हैं.

जितने भी लोग नये साल को किसी कारण से जश्न की तरह नही मना पाते वे नये साल के संकल्प जरूर लेते हैं, अपने पहले ही लेख में लेखक भी संकल्प लेते हैं, और आत्मनिर्भरता के संकल्प को पूरा करने के आशान्वित भरोसे के साथ व्यंग्य पूरा करते हैं. जरूर यह व्यंग्य जनवरी में छपा रहा होगा, तब किसे पता था कि कोरोना इस बार भी संकल्प पर तुषारापात कर डालेगा. दुख के हम साथी, फिर बापू के तीन बंदर पढ़ना आज २ अक्टूबर को बड़ा प्रासंगिक रहा, जब बापू के बंदर बापू को बता रहे थे कि वे न बुरा देखते, सुनते या बोलते हैं, तो टी वी पर हाथरस की रपट देख रहा मैं सोच रहा था कि हम तो बुरा मानते भी  नहीं हैं…… पांचवे कबीर के अवतरण की सूचना पढ़ लगा अच्छा हुआ कि कबीर साहब के अनुनायियों ने यह नहीं पढ़ा, वरना बिना कबीर को समझे, बिना व्यंग्य के मर्म को समझे केवल चित्र या नाम देखकर भी इस देश में कट्टरपंथियो की भावनाओ को आहत होते देख शासन प्रशासन बहुत कुछ करने को मजबूर हो जाता है. लेकिन वह व्यंग्यकार ही क्या जो ऐसे डर से अपनी अभिव्यक्ति बदल दे. बुलाकी जी कबीर की काली कम्बलिया में लिखते हैं ” मन चंचल है किंतु बंधु आप अपने मन को संयमित करने का यत्न कीजीये. ” प्याज ऐसा विषय बन गया है जिसका वार्षिक समारोह होना चाहिये, जब जब चुनाव आयेंगे, प्याज, शक्कर, स्टील, सीमेंट कुछ न कुछ तो गुल खिलायेगा ही.उनका प्याज व्यंग्यकार से कहता है कि वह बाहर से खुश्बूदार होने का भ्रम पैदा करता है पर है बद्बूदार. अब यह हम व्यंग्यकारो पर है कि हम अंदर बाहर में कितना कैसा समन्वय कर पाते हैं.

अस्तु कवि, साहित्य, साहित्यिक संस्थायें आदि पर खूब सारे व्यंग्य लिखे हैं उन्होने, मतलब अनुभव की गठरी खोल कर रख दी है. बगावती वायरस बिन्दु रूप लिखा गया शैली की दृष्टि से नयापन लिये हुये है. डायरी के चुनिंदा पृष्ठ भी अच्छे हैं.

मेरी रेटिंग, पैसा वसूल ।

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 66 ☆ प्रीतिचा झरा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता  “प्रीतिचा झरा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 66 ☆

☆ प्रीतिचा झरा 

 

डावी खिडकी हृदयाची या उघडायाला हवी

शुद्ध येईल हवा प्रीतिची तेव्हा हृदयी नवी

 

शृंगाराचा ऐवज माझा मी तर आहे परी

सुरूंग लावू आभाळाला बरसतील या सरी

 

चिरून घेते हृदय कोवळे फाळाकडुनी धरा

पाटामधुनी वहात आहे कसा प्रीतिचा झरा

 

अंधाराचे राज्य संपले वाटतोस तू रवी

प्रकाश किरणें मला खुलवती साथ तुझी रे हवी

 

असे गीत हे गाऊ आपण असेल त्याला गती

तुझ्या नि माझ्या मधे यायला नको कधीही यती

 

प्रीत सागरा नसे किनारा अधी वाटले बला

सहज पोहून गेलो नंतर छान वाटली कला

 

जमवू काड्या बांधू घरटे घरात लावू दिवा

कुणी तरी हा पुढे वारसा सांभाळाया हवा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

ashokbhambure123@gmail.com

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

  ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

दोपहर सी है जिंदगी ,गोधूलि है पास।

 याद बावली हो गई, चंद्रकिरन की आस।।

क्या होगा यदि ले लिया ,यादों ने वनवास ।

जीवन बाबा भारती, एक आस विश्वास ।।

एक जिल्द सी ज़िंदगी ,अनगिन है अध्याय।

बहुमत में आरोप है ,कहां मिलेगा न्याय।।

खोकर ही पाया तुम्हें ,कैसा अजब विधान।

चुप्पी साधे संतजन, चुप साधे विज्ञान।।

लो अनंग में हो गया, यानी हुआ विदेह।

चमत्कार अनुभव किया, छूकर तेरी देह।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 18 – नदी हमारे गाँव  ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “नदी हमारे गाँव । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 18– ।। अभिनव गीत ।।

☆ नदी हमारे गाँव 

 

नदी हमारे गाँव

वेदना में डूबी रहती

पानी सूख गया फिर भी

आँसू से है बहती

 

इसकी आँखों में सचेत सा

था भविष्य उजला

जो बहने की प्रखर भूमिका

से था बस बहला

 

रेत पत्थरों में विनम्र हो

सदा बही है वह

और अभी भी ना जाने

कितने गम है सहती

 

सारा तन छिल गया

सूखते पानी का अपना

किन्तु उमीदों में पलता

वह ना डूबा सपना

 

नदी, नदी है अपना दुख

ढोती बहती जाती

अन्तर्मन की यह पीड़ा

खुद से भी ना कहती

 

पूछ रहा था पानी का

रिश्ता परसों सूरज

तुम्हें बहुत बहना है जब

क्यों छोड़ चुकी धीरज

 

बहना और सूख जाना

तो लक्षण  पानी के

एक यही पीड़ा क्यों

तुमको लगी यहाँ महती

 

© राघवेन्द्र तिवारी

26-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 12 ☆ व्यंग्य ☆ गैंग रेप : शर्म का नहीं सियासत का विषय है ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  समसामयिक विषय पर व्यंग्य  “गैंग रेप : शर्म का नहीं सियासत का विषय है। इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 12 ☆

☆ व्यंग्य – गैंग रेप : शर्म का नहीं सियासत का विषय है 

अब यह तो पता नहीं कि ये सरकारों के सुशासन का ही परिणाम है या नारी सशक्तीकरण आंदोलनों की सफलता, मगर जो भी हो, एक अच्छी बात यह है कि बलात्कार करना आसान सा अपराध नहीं रह गया है. इतना तो हो ही गया है कि अकेले रेप करने की हिम्मत अब कम ही लोग कर पाते हैं. सामूहिक रूप से गैंग बना कर करना पड़ता है. एक से भले दो, दो से भले चार. पैन इंडिया – नोयडा, बैतूल, बेटमा, जयपुर, बलरामपुर, मुंबई, कोलकत्ता, चंडीगढ़. नई सभ्यता, नये समाज का नया नार्म है – गैंग रेप. नया चलन, नई फैशन. एक आरोपी से मैंने पूछा – “गैंग कैसे बनाते हैं आप ? मेरा मतलब है मिनिमम कितने आदमी रखते हैं ?”

“चार तो होना ही चाहिये. चार में, कम से कम, एक दो लड़के सांसदो के, विधायकों के, पार्षदों के, सरपंच के भांजे, भतीजे रख लेते हैं. मंत्रीजी का लड़का हो तो सोने में सुहागा.”

“टाइमिंग का भी ध्यान रखना पड़ता होगा आपको ?”

“बिल्कुल. हमसे कुछ केसेस में टाइमिंग की ही मिस्टेक हुई. जब संसद का सत्र चल रहा हो, विधान सभा चल रही हो या किसी सूबे में चुनाव नजदीक हों, तब नहीं करना चाहिये. मामला ज्यादा तूल पकड़ लेता है. समूची बहस पीड़िता से हट कर इस बात पर आ टिकती है कि उसकी जाति-समाज के वोट कितने प्रतिशत हैं ? पीड़िता दलित है कि महादलित ? दलित है तो जाटव है कि गैर जाटव ? रेप से सूबे की सरकार पर क्या असर पड़ेगा ? सोशल इंजिनियरिंग दरक गयी तो सूबेदार फिर से सत्ता में आ पायेगा कि नहीं ? सामूहिक बलात्कार कैसे सूबे की सरकार के लिए कैसे राजनीतिक चुनौती बन सकता है ? रेप हमारे लिये एक प्रोजेक्ट है तो सियासतदानों के लिये सुपर-प्रोजेक्ट. इसीलिये सोचते हैं आगे से इस पीरियड में ‘नो-गैंगरेप-डेज’ डिक्लेयर कर देंगे.”

“गैंगरेप में बड़ी बाधा क्या है ?”

“मीडिया से परेशानी है. शहरों में, शहरों के आसपास मीडिया हाइपर-एक्टिव है. हमारे छोटे-छोटे प्रोजेक्ट्स भी हाइप का शिकार हो जाते हैं. इसीलिये हमें दूर गांवो में अन्दर जाना पड़ता है. शिकार नाबालिग हो, आदिवासी हो, गरीब हो, ठेठ गांव के पास बाजरे जुआर के खेत में हो तो केसेस लाइट में नहीं आ पाते. जो पीड़िताएँ दिल्ली नहीं ले जाईं जाती उनके केस में बवाल इतना नहीं कटता.”

“रेप कर चुकने के बाद खर्चा तो लगता होगा ना.”

“ओह वेरी मच. बाद में ही ज्यादा लगता है. लीगल एक्सपेंसेस  भारी पड़ते हैं. अस्पताल, पोस्ट-मार्टम, पुलिस, वकील, गवाह, कोर्ट- कचहरी,  मुंशी,  मोहर्रिर. सब जगह पैसा तो लगता ही है, फीस कम रिश्वतें ज्यादा. मीडिया जितना ज्यादा कवर करता है पैसा उतना ज्यादा लगता है. लेकिन, जैसा मैंने आपको बताया कि व्यापारी, उद्योगपति, अफसर, किसी बड़े बल्लम का बेटा साथ में हो तो फिनांस मैनेज हो जाता है.”

“कभी शर्म लगती है आपको ?”

“हमारी छोड़िये सर, किसे लगती है अब ? सियासत की दुनियां में हम शर्म के विषय नहीं रह गये है.”

“तब भी अपराधी कहाने से डर तो लगता होगा ?”

“किसने कहा हम अपराधी हैं. हम या तो ठाकुर हैं या ब्राह्मण हैं या दलित हैं या महादलित हैं. जाति अपराध पर भारी पड़ती है सर. पॉवर पोजीशन में अपनी जाति का आदमी बैठा हो तो नंगा नाच सकते हैं आप. कोई टेंशन नहीं है.”

“पुलिस वालों को नहीं रखते हैं टीम में ?”

“नहीं, वे अपनी खुद की गैंग बनाकर थाने में ही कर लेते हैं. हमारे साथ नहीं आते.”

“आगे की योजना क्या है ?”

वे सिर्फ मुस्कराये और थैंक्यू कह कर चले गये. जल्दी में हैं. गैंग के बाकी सदस्य इंतज़ार कर रहे होंगे उनका, एक दो प्रोजेक्ट्स प्लान कर लिये हैं उन्होंने. आखिर दुनिया की आधी आबादी उनके लिये एक शिकार है और जीवनावधि छोटी. कब पूरे होंगे उनके सारे प्रोजेक्ट्स!!!

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

(ई-अभिव्यक्ति किसी व्यंग्य /रचना की वैधानिक जिम्मेदारी नही लेता। लेखकीय स्वतंत्रता के अंतर्गत प्रस्तुत।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 64 ☆ लघुकथा – विसर्जन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  की एक सार्थक लघुकथा – विसर्जन । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 64

☆ लघुकथा – विसर्जन ☆ 

एक बार कबूतरों के झुंड से एक कबूतर को निकाल दिया गया, तो उस कबूतर ने एक तखत में कब्जा कर प्रवचन देने प्रारंभ कर दिए,श्रोता जुड़ते गए… अच्छा विचार विमर्श होता रहता।

जीवन में अनुशासन और मर्यादा की खूब बातें होती, फिर प्रवचन देने का काम बारी बारी से दो और कबूतर करने लगे। बढ़िया चलने लगा, तखत से नये नये प्रयोग होने लगे, और ढेर सारे कबूतर श्रोता बनके जुड़ने लगे, अनुशासन बनाए रखने की तालीम होती रहती,नये नये विषयों पर शानदार प्रवचनों से श्रोता कबूतरों को नयी दृष्टि मिलने लगी, विसंगतियों और विद्रूपताओं पर ध्यान जाने लगा।

एक कबूतरी पता नहीं कहां से आई, और सबके रोशनदान से घुसकर गुटरगू करने लगी, सबको खूब मज़ा आने लगा, प्रवचन देने वाले पहले कबूतर का ध्यान भंग हो गया, कबूतर अचानक संभावनाएं तलाशने लगा, कबूतरी महात्वाकांक्षी और अहंकारी थी, आत्ममुग्धता में अनुशासन और मर्यादा भूल जाती थी।

एक दिन प्रवचन चालू होने वाले थे तखत में प्रवचन करने वाले दोनों कबूतर बैठ चुके थे ,क्रोध में चूर कबूतरी तखत के चारों ओर उड़ने लगी, प्रवचन चालू होने के पहले बहसें होने लगीं, श्रोता कबूतरों ने कहा ये तो महा अपकुशन हो गया, शुद्ध तखत के चारों तरफ अशुद्ध कबूतरी को चक्कर नहीं लगाना था। फिर उसी रात को ऐसी आंधी आयी कि जमा जमाया तखत उड़ गया। सारे कबूतर उड़ गए, दो दिन बाद किसी ने बताया कि भीषण आंधी से तखत उड़ कर टूट गया था इसीलिए उसका विसर्जन कर दिया गया।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 21 ☆ महात्मा गांधी ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  “महात्मा गांधी”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 21 ☆ 

☆ महात्मा गांधी

 

हर आत्मा की जान, मेरे कंठ से कैसे करूँ उनका गुणगान,

मेरे शब्द छोटे, बात बड़ी, महात्मा जिनका नाम।

 

आजादी का रास्ता दिखला, कर खुद को कुर्बान,

साबरमती का संत, बापू जिनका नाम,

सत्य अहिंसा का पाठ पढ़ाया, कर खुद को कुर्बान,

युगों युगों तक सदा रहेगा, अमर जिनका नाम,

हर आत्मा की जान, मेरे कंठ से कैसे करूँ उनका गुणगान,

मेरे शब्द छोटे, बात बड़ी, महात्मा जिनका नाम।

 

कद में छोटे, बात बड़ी करते, कर्म जिनका महान,

खादी, चरखा, सत्याग्रह जिनकी पहचान,

आँखों की ऐनक और खादी जिनकी जान,

जात-पात की तोड़ दी जंजीरे, वैसे बापू महान,

हर आत्मा की जान, मेरे कंठ से कैसे करूँ उनका गुणगान,

मेरे शब्द छोटे, बात बड़ी, महात्मा जिनका नाम।

 

आओ इस दिवस पर एक हो जाएँ हम,

अपने आप को अपने आप से ऊपर उठाएँ हम,

कॉलेज की भूमि को स्वच्छ बनाएँ हम,

एक नया इतिहास रचाएँ हम,

हर आत्मा की जान, मेरे कंठ से कैसे करूँ उनका गुणगान,

मेरे शब्द छोटे, बात बड़ी, महात्मा जिनका नाम।

 

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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