हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 58 ☆ आईना झूठ नहीं बोलता ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय एवं प्रेरक आलेख आईना झूठ नहीं बोलता।  यह आलेख पढ़ करअनायास ही काजल फिल्म का कालजयी गीत ” तोरा  मन दर्पण कहलाये ” याद आ गया । इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 58 ☆

☆ आईना झूठ नहीं बोलता

लोग आयेंगे, चले जायेंगे। मगर आईने में जो है, वही रहेगा, क्योंकि आईना कभी झूठ नहीं बोलता, सदैव सत्य अर्थात् हक़ीक़त को दर्शाता है…जीवन के स्याह व सफेद पक्ष को उजागर करता है। परंतु बावरा मन यही सोचता है कि हम सदैव ठीक हैं और दूसरों को स्वयं में सुधार लाने की आवश्यकता है। यह तो आईने की धूल साफ करने जैसा है, चेहरे को नहीं, जबकि चेहरे की धूल साफ करने पर ही आईने की धूल साफ होगी। जब तक हम आत्मावलोकन कर दोष-दर्शन नहीं करेंगे, हमारी दुष्प्रवृत्तियों का शमन कैसे संभव होगा? हम हरदम परेशान व दूसरों से अलग-थलग रहेंगे।

जीवन मेंं सदैव दूसरों का साथ अपेक्षित है। सुख बांटने से बढ़ता है तथा दु:ख बांटने से घटता है। दोनों स्थितियों में मानव को लाभ होता है। सुंदर संबंध शर्तों व वादों से नहीं जन्मते, बल्कि दो अद्भुत लोगों के मध्य संबंध स्थापित होने पर ही होते हैं। जब एक व्यक्ति अपने साथी पर अथाह, गहन अथवा अंध-विश्वास करता है और दूसरा उसे बखूबी समझता है, तो यह है संबंधों की पराकाष्ठा।

सम+बंध अर्थात् समान रूप से बंधा हुआ। दोनों में यदि अंतर भी हो, तो भी भाव-धरातल पर समता की आवश्यकता है। इसी में जाति, धर्म, रंग, वर्ण का स्थान नहीं तथा पद-प्रतिष्ठा भी महत्वहीन है। वैसे प्यार व दोस्ती तो विश्वास पर कायम रहती है, शर्तों पर नहीं। महात्मा बुद्ध का यह कथन इस भाव को पुष्ट करता है कि ‘जल्दी जागना सदैव लाभकारी होता है। फिर चाहे नींद से हो, अहं से, वहम से या सोए हुए ज़मीर से। ख़िताब, रिश्तेदारी सम्मान की नहीं, भाव की भूखी होती है…बशर्ते लगाव दिल से होना चाहिए, दिमाग से नहीं।’ सो! संबंध तीन-चार वर्ष में समाप्त होने वाला डिप्लोमा व डिग्री नहीं, जीवन भर का कोर्स है। यह अनुभव व जीने का ढंग है। सो! आप जिससे संबंध बनाते हैं, उस पर विश्वास

कीजिए। यदि कोई उसकी निंदा भी करता है, तो भी आप उसके प्रति मन में अविश्वास का भाव न पनपने दें, बल्कि संकट की घड़ी में उसकी अनुपस्थिति में ढाल बन कर खड़े रहें। लोगों का काम तो कहना होता है। वे किसी को उन्नति के पथ पर अग्रसर होते देख, केवल ईर्ष्या ही नहीं करते, उनकी मित्रता में सेंध लगा कर ही सुक़ून पाते हैं। सो! कबीर की भांति आंख मूंद कर नहीं, आंखिन देखी पर ही विश्वास कीजिए। उन्हीं के शब्दों में ‘बुरा जो ढूंढन मैं चला, मोसों बुरा न कोय।’ इसलिए अपने अंतर्मन में झांकिए, आप स्वयं में असंख्य दोष पाएंगे। दोषारोपण की प्रवृत्ति का त्याग ही आत्मोन्नति का सुगम व सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। केवल सत्य पर विश्वास कीजिए। झूठ के आवरण को हटाने के लिए चेहरे पर लगी धूल को हटाने की आवश्यकता है अर्थात् अपने अंतस की बुराइयों पर विजय पाने की दरक़ार है।

इसी संदर्भ में मैं कहना चाहूंगी कि ऐसे लोगों की ओर आकर्षित मत होइए, जो ऊंचे मुक़ाम पर पहुंचे हैं,। परंतु वे तुम्हारे सच्चे हितैषी हैं, जो तुम्हें ऊंचाई से गिरते देख थाम लेते हैं। सो! लगाव दिल से होना चाहिए, दिमाग़ से नहीं। जहां प्रेम होता है, तमाम बुराइयां, अच्छाइयों में परिवर्तित हो जाती हैं तथा अविश्वास के दस्तक देते व अच्छाइयां लुप्तप्राय: हो जाती हैं। त्याग व समर्पण का दूसरा नाम दोस्ती है। इसमें दोनों पक्षों को अपनी हैसियत से बढ़ कर समर्पण करना चाहिए। अहं इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। ईगो अर्थात् अहं तीन शब्दों निर्मित है, जो रिलेशनशिप अर्थात् संबंधों को ग्रस लेता है। दूसरे शब्दों में एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं। संबंध तभी स्थायी अथवा शाश्वत बनते हैं, जब अहं, राग-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं होता।

सो! जिससे बात करने में खुशी दुगुन्नी तथा दु:ख आधा रह जाए, वही अपना है, शेष तो दुनिया है, जो तमाशबीन होती है। वैसे भी अहंनिष्ठ लोग समझाते अधिक व समझते कम हैं। इसलिए अधिकतर मामले सुलझते कम, उलझते अधिक हैं। यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन हमारी सोच का साकार रूप है। जैसी सोच, वैसा जीवन। इसलिए कहा जाता है कि असंभव दुनिया में कुछ नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोचते हैं। इसलिए कहा जाता है, मानव असीम शक्तियों का पुंज है। स्वेट मार्टन के शब्दों में ‘केवल विश्वास ही एकमात्र ऐसा संबल है, जो हमें अपनी मंज़िल तक पहुंचा देता है।’ सो! विश्वास के साथ-साथ लगन व्यक्ति से वह सब करवा लेती है, जो वह नहीं कर सकता। साहस व्यक्ति से वह सब कराता है, जो वह कर सकता है। किन्तु अनुभव व्यक्ति से वह कराता है, जो उसे करना चाहिए। इसलिए अनुभव की भूमिका सबसे अहम् है, जो हमें गलत दिशा की ओर जाने से रोकती है और साहस व लग्न अनुभव के सहयोगी हैं।

परंतु पथ की बाधाएं हमारे पथ की अवरोधक हैं … कोई निखर जाता है, कोई बिखर जाता है। यहां साहस अपना चमत्कार दिखाता है। सो! संकट के समय परिवर्तन की राह को अपनाना चाहिए। तूफ़ान में कश्तियां/ अभिमान में हस्तियां/ डूब जाती हैं/ ऊंचाई पर वे पहुंचते हैं/ जो प्रतिशोध के बजाय/ परिवर्तन की सोच रखते हैं। सो! अहंनिष्ठ मानव पल भर मेंं अर्श से फ़र्श पर आन गिरता है। इसलिए ऊंचाई पर पहुंचने के लिए मन में प्रतिशोध का भाव न पनपने दें, क्योंकि इसका जन्म ईर्ष्या व अहं से होता है। आंख बंद करने से मुसीबत टल नहीं जाती और मुसीबत आए बिना आंख नहीं खुलती। जब तक हम अन्य विकल्प के बारे में सोचते नहीं, नवीन रास्ते नहीं खुलते। इसलिए मुसीबतों का सामना करना सीखिए। यह कायरता है, पराजय है। ‘डू ऑर डाई, करो या मरो’ जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। कौन कहता है आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो। दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं। अक्सर मानव को स्वयं स्थापित मील के पत्थरों को तोड़ने में बहुत आनंद आता है। सो थक कर राह में विश्राम मत करो और न ही बीच राह से लौटने का मन बनाओ। मंज़िल बाहें पसारे आपकी राह तकेगी। स्वर्ग-नरक की सीमाएं निश्चित नहीं हैंं, हमारे कार्य-व्यवहार ही उन्हें निर्धारित करते हैं।

श्रेष्ठता संस्कारों से प्राप्त होती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। जिसने दूसरों के दु:ख में दु:खी होने का हुनर सीख लिया, वह कभी दुखी नहीं हो सकता। ‘ज़रा संभल कर चल/ तारीफ़ के पुल के नीचे से/  मतलब की नदी बहती है।’ इसलिए प्रशंसकों से सदैव दूरी बना कर रखनी चाहिए, क्योंकि ये उन्नति के पथ में अवरोधक होते हैं। इसलिए कहा जाता है, घमंड मत कर ऐ दोस्त/ अंगारे भी राख बनते हैं। इसलिए संसार में इस तरह जीओ कि कल मर जाना है। सीखो इस तरह, जैसे आपको सदैव जीवित रहना है। शायद इसलिए ही थमती नहीं ज़िंदगी किसी के बिना/  लेकिन यह गुज़रती भी नहीं/ अपनों के बिना। सो क़िरदार की अज़मत को न गिरने न दिया हमने/  धोखे बहुत खाए/ लेकिन धोखा न दिया हमने। इसलिए अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, आनंद आभास है/  जिसकी सबको तलाश है/ दु:ख अनुभव है/ जो सबके पास है। फिर भी ज़िंदगी में वही कामयाब है/ जिसे खुद पर विश्वास है। इसलिए अहं नहीं, विश्वास रखिए। आपको सदैव आनंद की प्राप्ति होगी। रास्ते अनेक होते हैं। निश्चय आपको करना है कि आपको किस ओर जाना है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 11 ☆ व्यावहारिक ज्ञान की कमी बच्चों की सबसे बड़ी कमजोरी ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  व्यावहारिक ज्ञान की कमी बच्चों की सबसे बड़ी कमजोरी)

☆ किसलय की कलम से # 11 ☆

☆ व्यावहारिक ज्ञान की कमी बच्चों की सबसे बड़ी कमजोरी ☆

जिस ज्ञान का उपयोग दैनिक जीवन में किया जाता हो, दिनचर्या का जो विशेष अंग हो। वार्तालाप और कार्य करते समय जिस ज्ञान से आपकी सकारात्मक छवि का पता चले, वही व्यावहारिक ज्ञान है। बच्चों के क्रियाकलाप, आचार-विचार, बड़ों के प्रति श्रद्धा व सम्मान इसी व्यावहारिक ज्ञान की परिणति होते हैं। दो-तीन पूर्व-पीढ़ियों से मानव समाज में व्यवहारिकता लगातार कम होती जा रही है। आदर, सम्मान, परमार्थ, सद्भाव, भाईचारा, मित्रता, दीन-दुखियों की सेवा जैसे गुणों की कमी स्पष्ट दिखाई देने लगी है। शिक्षा प्रणाली, अर्थ-महत्ता, सामाजिक व्यवस्था व हमारे बदलते दृष्टिकोण भी इसके महत्त्वपूर्ण कारक हैं। आज गुरुकुल प्रथा लुप्त हो गई है, जहाँ बच्चों को भेजकर उन्हें शिक्षा के अतिरिक्त व्यावहारिक ज्ञान, आचार-विचार, आदर-सम्मान, परिश्रम, आत्मनिर्भरता, विनम्रता, चातुर्य, अस्त्र-शस्त्र विद्या, योग-व्यायाम के साथ-साथ भावी जीवन के उच्च आदर्शों को भी सिखाया जाता था। संयुक्त परिवार में बड़े-बुजुर्ग अपने अनुभव व ज्ञान के सूत्र संतानों को बताया करते थे। बच्चों के हृदय में झूठ, घमण्ड, ईर्ष्या, अनादर, असभ्यता का कोई स्थान नहीं होता था। न ही कोई उन्हें ऐसे कृत्यों हेतु बढ़ावा दे सकता था। व्यावहारिक ज्ञान के एक उदाहरण को तुलसीदास जी प्रस्तुत करते हैं-

प्रातकाल उठि कै रघुनाथा #

मात, पिता, गुरु नावहिं माथा

ऐसी एक नहीं असंख्य जीवनोपयोगी बातें हैं, जिन्हें बच्चे बचपन में ही हृदयंगम कर लेते थे। ऐसे संस्कारित बच्चों को देखकर घर आये मेहमान तक उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने से स्वयं को रोक नहीं पाते थे। ये वही सद्गुण थे जो उनके द्वारा जीवनपर्यंत व्यवहार में लाए जाते थे। बच्चों को सत्य-असत्य, घृणा-प्रेम, छल-निश्छल का अंतर बचपन में ही समझा दिया जाता था। उन्हें इस तरह से संस्कारित किया जाता था कि वे सदैव सकारात्मकता की ओर अग्रसर हों और प्रायः होता भी यही था। तभी तो उस काल के समाज में झूठ, आडंबर, छल, द्वेष, निरादर के आज जैसे उदाहरण कम दिखाई देते थे। धीरे-धीरे जब हम अधिक स्वार्थी, चतुर और चालाक होते गए तो उसी अनुपात में मानवीय आदर्श भी हमसे शनैःशनैः दूर होने लगे। हमारे द्वारा किये जा रहे निम्न स्तरीय व्यवहार व कृत्य हमारी संतानों को भी विरासत में मिल ही रहे हैं। आजकल जब हम स्वयं अपनी संतानों के मन में झूठ, अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अवसरवादिता आदि अवगुणों को सुभाषितों जैसे रटाते हैं, तब हम कल्पना तो कर ही सकते हैं कि बच्चों में किन संस्कारों अथवा कुसंस्कारों की बहुलता होगी। कुछ अपवाद छोड़ भी दिए जाएँ तो हम पाएँगे कि आजकल अधिकांश घरों में पहुँचते ही संबंधित व्यक्ति को छोड़कर परिवार के अधिकांश सदस्य किनारा कर लेते है, अभिवादन की बात तो बहुत दूर की है। उस परिवार के बच्चों को चरण स्पर्श करना, नमस्ते करना जब सिखाया ही नहीं गया होता तो वे करेंगे ही क्यों? कारण यह भी है कि ऐसा न करने पर उनके माता-पिता तक उन्हें ऐसा करने हेतु नहीं कहते। वहीं आप पिछली सदी की ओर मुड़कर देखें और स्मरण कर स्वयं से पूछें-  क्या आप घर आए मेहमान को यथोचित अभिवादन नहीं करते थे? उनके स्वागत-सत्कार में नहीं लग जाते थे? यदि पहले आप अपने से बड़ों का आदर करते थे, तो आज आप अपने बच्चों में वैसे ही श्रेष्ठ संस्कार क्यों नहीं डालते? यह भी एक चिंतन का विषय है। क्या आपको परंपराओं व संस्कारों के लाभ ज्ञात नहीं हैं, या फिर अभी तक आप भेड़-चाल ही चल रहे हैं। अपने घर या समाज में देखा कि वह किसी ऋषि-मुनियों या बुजुर्गों के पैर छूता है, तो मैं भी पैर छूने लगा। पूरे विश्व को विदित है कि हमारी भारतीय संस्कृति एवं अधिकांश परंपराओं के अनेकानेक लाभ हैं। आपके द्वारा चरणस्पर्श करने से क्या आप में विनम्रता का गुण नहीं आता? क्या अहंकार का भाव कम नहीं होता? परसेवा से आपके हृदय को जो शांति मिलती है, क्या वह आपने अनुभव नहीं की? कभी भूखे को भोजन, प्यासे को पानी, बेसहारा को सहारा, बीमार की तीमारदारी अथवा भटक रहे व्यक्ति को सकुशल गंतव्य तक पहुँचाने पर मिली आत्मशांति को पुनः स्मृत नहीं किया। आज भी आप इन हीरे-मोतियों से भी बहुमूल्य ‘गुणरत्नों’ से अपने अंतर्मन का श्रृंगार कर सकते हैं। आज जब सारे विश्व का परिदृश्य बदल रहा है, मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा है। अपने बड़े-बुजुर्ग ही स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगे हैं तब हम सभी को अपनी जान से प्यारी संतानों के लिए यही सब सिखाने का बीड़ा तो उठाना ही पड़ेगा। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाएगा कि हम स्वयं ही आज अपनी संतानों को अवगुणों की भट्टी में झोंकने पर तुले हैं।

बड़ी ग्लानि व दुख होता है आज की अधिकतर संतानों को देखकर, जो भौतिक सुख-समृद्धि व स्वार्थ की चाह में अपना दुर्लभ मानव जीवन अर्थ और स्वार्थ में व्यर्थ गँवा रहे हैं। महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि अब इन अनभिज्ञ बच्चों को व्यावहारिक ज्ञान समझाने के लिए न ही कोई गुरुकुल बचे हैं और न ही उनके आजा-आजी, नाना-नानी या चाचा-चाची उनके पास होते हैं। आजकल माता-पिता की व्यस्त दिनचर्या के चलते बच्चों को शिक्षा और संस्कार देने वाले मात्र वैतनिक शिक्षक होते हैं। उनमें से बहुतायत में वे लोग शिक्षा देने का दायित्व सम्हाले हुए हैं जिन्हें स्वयं न ही व्यावहारिक, न ही शैक्षिक और न ही नैतिक ज्ञान का पूर्व अनुभव होता है। आप स्वयं पता लगा सकते हैं कि केवल आम डिग्रियों के आधार पर ही अन्य  पदों की तरह शिक्षक पद की पात्रता सुनिश्चित कर दी जाती है। क्या ‘गुरु के वास्तविक पद’ के अनुरूप आज के शिक्षक कहीं दिखाई देते हैं? समाज में ऐसी ही विसंगतियों व कमियों के चलते आज आदर्श और समर्पित शिक्षकों की महती आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। घर में भी माता-पिता और बुजुर्गों द्वारा अपने बच्चों को व्यावहारिक ज्ञान और संस्कार देने की भी जरूरत है। अब भी यदि ऐसा नहीं होता, तो आगे क्या होगा आप-हम स्वयं अनुमान लगा सकते हैं।

हमें बच्चों में जीवनोपयोगी कहानियों, कविताओं, सद्ग्रंथों व अपने व्यवहार से उनमें यथासंभव सकारात्मकता के बीज रोपने होंगे, तभी हमारे बच्चे सुसंस्कारित हो पाएँगे, हमारा समाज सुधर पायेगा और तब जाकर ही वे परिस्थितियाँ निर्मित होंगी जब शिक्षकों तथा आपका दिया गया व्यावहारिक ज्ञान समाज में बदलाव लाने हेतु सक्षम हो सकेगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 57 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 57 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

 

हर युग के साहित्य का  ,

अपना समकालीन।

बिन सोचे की रच रहे,

विषय विचाराधीन।।

 

रचती जाती पूतना ,

है षड्यंत्री जाल ।

मनमोहन तो समझते,

उसकी है हर चाल।

 

मन मोहन के रूप की,

लीला अपरम्पार।

वामन प्रभु का रूप धर,

तीनों लोक अपार।।

 

नागिन के हर रूप को,

समझ न पाए श्याम।

पाकर दरस मोहन का,

पहुँची गंगा धाम।।

 

देख रहे हैं हम सभी,

जन जीवन है सून।

कोरोना के काल में,

बदला है कानून।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 48 ☆अवध में बाज रही बधईया …. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री राम भक्तिप्रेम  से सराबोर भावप्रवण गीत अवध में बाज रही बधईया ….”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 48☆

☆ अवध में बाज रही बधईया ….  ☆

(श्री संतोष नमन “संतोष” जी द्वारा  राम मंदिर भूमि पूजन शिलान्यास के अवसर पर रचित भजन अवध में बाज रही बधईया को वरिष्ठ राष्ट्रीय  भजन गायक श्री दुर्गेश ब्यवहार “दर्शन” जी ने अपना मधुर स्वर दिया है। आपके मधुर भजनों का प्रसारण संस्कार,आस्था,दिव्य आदि चैनलों पर होता रहता है. तो आइए सुनिए यह भजन इस  यूट्यूब लिंक पर क्लिक कर  >>>> अवध में बाज रही बधईया )

 

अवध में बाज रही बधईया

घर आ रहे राम रघुरईया

अवध में बाज रही बधईया

 

जन-जन खूब उमंग में झूमे

राम लला के द्वार को चूमे

मन में उठ रहीं बहुत लहरिया

अवध में बाज रही बधईया

 

पांच अगस्त को दिन है प्यारो

रामागार बन रहो न्यारो

खुश भईं कौशल्या मईया

अवध में बाज रही बधईया

 

वर्षों की आशा भई पूरी

काम आगई सबकी सबूरी

भक्त नाचते ता ता थईया

अवध में बाज रही बधईया

 

आशीष देवें राजा दशरथ

सफल हो गये उनके मनोरथ

दिल में खुशी समातई नइयां

अवध में बाज रही बधईया

 

झूम रही है अयोध्या नगरी

साज-सजावट हो गई सगरी

झिलमिल रोशन सगरी नगरिया

अवध में बाज रही बधईया

 

सरयू पुलकित होके पुकारे

धन्य धन्य हैं भाग्य हमारे

भर खुशियों से मन की  घगरिया

अवध में बाज रही बधईया

 

“संतोष” बहुत दरश को प्यासो

मंदिर भव्य बन रओ अब खासो

प्रभु लेते हैं सबकी खबरिया

अवध में बाज रही बधईया

 

आज खुश होते चारों भइया

खुश हो रहीं हैं सीता मइया

अवध में बाज रही बधईया

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 2 – अस्तित्वभान!!! ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे

श्री शेखर किसनराव पालखे

( मराठी साहित्यकार श्री शेखर किसनराव पालखे जी  लगातार स्वान्तः सुखाय सकारात्मक साहित्य की रचना कर रहे हैं । आपकी रचनाएँ ह्रदय की गहराइयों से लेखनी के माध्यम से कागज़ पर उतरती प्रतीत होती हैं। हमारे प्रबुद्ध पाठकों का उन्हें प्रतिसाद अवश्य मिलेगा इस अपेक्षा के साथ हम आपकी  रचनाओं को हमारे प्रबुद्ध पाठकों तक आपके साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य शीर्षक से प्रत्येक शुक्रवार पहुँचाने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता  “अस्तित्वभान!!!”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य # 2 ☆

☆ कविता – अस्तित्वभान!!! ☆

 

प्रत्येक गजबजलेल्या घराघरांत

नांदते आहे एक रिकामंपण

समुद्राची गंभीर गाज

ऐकू येते आहे घरापर्यंत

माणसांच्या गर्दीतसुद्धा

माणूसपण हरवत चालले आहे

संवादातील लय बिघडून

जिवंतपण संपते आहे

अंधाराला येते आहे का

प्रकाशाची गती?…

कुंठित होऊ घातली आहे

मानवजातीची मती…

अजून किती दिवस मी -माझं -मला?…

हा तुझा गाव नाही

याचं भान येऊदे तुला…

घरातील पाहुण्यासारखा

चार दिवस छान रहा

शुद्ध मनानं सर्व सोपवून

मोक्षासाठी तयार व्हा .

 

© शेखर किसनराव पालखे 

पुणे

15-04-20

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 40 ☆ लघुकथा – मैडम ! चलता है ये सब ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा  मैडम ! चलता है ये सब ।  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 40 ☆

☆  लघुकथा – मैडम ! चलता है ये सब   

मैडम ! मैं आज पुणे आ रही हूँ, आई (माँ) एडमिट है उसका शुगर बढ़ गया है। उसे देखने आ रही हूँ। आपसे मिले बिना नहीं जाऊँगी। आप व्यस्त होंगी तो भी आपका थोड़ा समय तो लूँगी ही।

मैंने हँसकर कहा- आओ भई ! तुम्हें कौन रोक सकता है। मेरी शोध छात्रा स्नेहा का फोन था। स्नेहा का स्वभाव कुछ ऐसा ही था। इतने अपनेपन और अधिकार से बात करती कि सामनेवाला ना बोल ही नहीं पाता। दूसरों के काम भी वह पूरे मन से करती थी। आप उसे अपना काम कह दीजिए, फिर देखिए जब तक काम पूरा न हो चैन नहीं लेती, ना दूसरे को लेने देगी। परेशान होकर आदमी उसका काम पूरा कर ही देता है। मैं कभी-कभी मज़ाक में उससे कहती कि स्नेहा ! तुम्हें तो किसी नेता की टीम में होना चाहिए लोगों का भला होगा।

‘क्या मैडम आप भी’ यह कहकर वह हँस देती।

नियत समय पर स्नेहा मेरे घर के सामने थी। रिक्शा रोके रखा, उसे तुरंत वापस जाना था। चिरपरिचित मुस्कान के साथ वह मेरे सामने बैठी थी, कुछ अस्त-व्यस्त-सी लगी। हमेशा की तरह दो-तीन बैग उसके कंधे पर झूल रहे थे। मैं समझ गयी कि घर से माँ के लिए खाना बनाकर लायी होगी। हल्के गुलाबी रंग का सूट पहने थी, उस पर भी तरह-तरह के दाग-धब्बे  दिख रहे थे , वह इस सब से बेपरवाह थी। आई (माँ) को देखना है और मैडम से मिलना है ये दो काम उसे करने थे। अर्जुन की तरह पक्षी की आँख जैसा उसका लक्ष्य हमेशा निर्धारित रहता था।

स्नेहा मेरी नजर भाँप गयी। मेरा ध्यान उधर से हटाने के लिए उसने अपने शोध-कार्य के कागज मेज पर फैला दिए। अधिक से अधिक बातों को तेजी से समेटती हुई बोली- मैम ! ये किताबें मुझे मिली हैं| इनमें से विषय से संबंधित सामग्री जेरोक्स करा ली है। एक अध्याय पूरा हो गया है। आप फुरसत से देख लीजिएगा।

ठीक है, मैं देख लूँगी। घर में सब कैसे है स्नेहा ? स्नेहा के पारिवारिक जीवन की उथल-पुथल से मैं परिचित थी। ससुरालवालों ने उसके जीवन को नरक बना रखा था। मैं यह भी जानती थी कि स्नेहा जैसी जीवट लड़की ही वहाँ टिक सकती है। मेरे प्रश्न के उत्तर में स्नेहा मुस्कुरा दी, बोली-

मैडम ! शादी को सात साल पूरे होनेवाले हैं पर वहाँ कुछ नहीं बदलता। सास का स्वभाव वैसा ही है। संजय कहता है कि ‘माँ जो करती है, सब ठीक है। मैं माँ को कुछ नहीं कहूँगा।’ उन लोगों को पैसा चाहिए, कहते हैं नौकरी करो,  अपने मायके से माँगो। मुझे पढ़ने भी नहीं देते। जिस दिन मेरी  परीक्षा होती है उससे एक दिन पहले मेरी सास को घर के सारे भूले-बिसरे काम याद आते हैं  और पति को लगता है कि बहुत दिन से उसने अपने दोस्तों को घर पर दावत नहीं दी। मना करो तो गाली-गलौज सुनो। मेरी बेटी सौम्या अब छ: साल की होनेवाली है। लड़ाई-झगड़े से वह डर जाती है  इसलिए मैं घर का माहौल ठीक रखना चाहती  हूँ।

मैडम ! इससे अच्छा ये लोग होने देना नहीं चाहते , इससे बुरा मैं होने नहीं दूँगी। गर्भ ठहर गया था। मैं दूसरा बच्चा नहीं चाहती। ये मुझे उसमें अटकाना चाहते थे। मेरी पढ़ाई-लिखाई सब चौपट। मैंने तय किया……….. मैं ऐसा नहीं होने दूँगी। मुझे किसी भी हालत में नेट परीक्षा पास करनी है, पीएच.डी. का काम पूरा करना है। मुझसे नजरें बचाती हुई धीरे से बोली-  मैंने कल एबॉर्शन करवा लिया है , मजबूरी थी , नहीं तो किसे अच्छा लगता है यह सब ? फिर बात बदलने के लिए बोली- छोड़ो ना मैडम ये सब चलता रहता है। डबडबाई आँखों को पोंछती स्नेहा फिर हँस पड़ी  थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 59 – हाइबन – मेनाल का झरना ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “मेनाल का झरना। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 59 ☆

☆ मेनाल का झरना ☆

बेगू जिला चित्तौड़गढ़ में स्थित मेनाल राजस्थान की सीमा पर बहता एक खतरनाक झरना है। जहां झरने के ऊपर बहती नदी में नहाने के दौरान बहुत ध्यान रखना पड़ता है । वहां पर कभी-कभी नदी में अचानक और बहुत सारा पानी एक साथ आ जाता है । इस दौरान नदी में अठखेलियां करते कई व्यक्ति अचानक बहकर गहरे झरने की खाई में गिर कर मर जाते हैं।।कई चेतावनी के बावजूद हर साल इस झरने में घटना घटती रहती है।

झरने के पास शिव मंदिर का बहुत सुन्दर और भव्य प्रांगण बहुत ही दर्शनीय है। यहां प्रांगण के पास ही झरने को देखने के लिए दर्शक दीर्धा बनी हुई है। मगर फिर भी लोग झरने के ऊपर से बहती उथली नदी में अठखेलियां करने चले जाते हैं।

इस मंदिर की एक अन्य विशेषता भी है । मंदिर के चारों ओर की दीवारों पर कामदेव की मूर्तियां उकेरी हुई है। कहते हैं कि प्राचीन समय में यहां के मंदिर पर कामकला की शिक्षा दी जाती थी । यह पुराने समय का प्रसिद्ध मानव जीवन मूल्यों की शिक्षा देने वाला प्रमुख स्थल था । इस मंदिर की भव्यता को इस प्रांगण की विशालता और स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूनों से समझा जा सकता है।

‘काम’ की मुर्ति~

झरने में गिरते

नवदम्पति।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 29 ☆ सम्मान की आहट ….. ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु‘

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सम्मान की आहट …..। यह रचना सम्मान के मनोविज्ञान का सार्थक विश्लेषण करती है । इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 29☆

☆ सम्मान की आहट …..

जब भी सम्मान पत्र बँटते हैं; उथल -पुथल, गुट बाजी व किसी भी संस्था का दो खेमों में बँट जाना स्वाभाविक होता है। कई घोषणाएँ तो,  सबको विचलित करने हेतु ही की जाती हैं,  जिससे जो जाना चाहे चला जाए क्योंकि ये दुनिया तो  कर्मशील व्यक्तियों से भरी है;  ऐसा कहते हुए संस्था के एक प्रतिनिधि  उदास होते हुए माथे पर हाथ रखकर बैठ गए ।

तभी सामान्य सदस्य ने कहा – इस संस्था में कुछ विशिष्ट जनों पर ही टिप्पणी दी जाती है, वही लोग आगे-आगे बढ़कर सहयोग करते दिखते हैं,  या नाटक करते हैं ; पता नहीं ।

क्या मेरा यह अवलोकन ग़लत है …?  मुस्कुराते हुए संस्था के सचिव महोदय से पूछा ।

वर्षो से संस्था के शुभचिन्तक रहे विशिष्ट सदस्य ने गंभीर मुद्रा अपनाते हुए, आँखों का चश्मा ठीक करते हुए कहा बहुत ही अच्छा प्रश्न है ।

सामान्य से विशिष्ट बनने हेतु सभी कार्यों में तन मन धन से सहभागी बनें, सबकी सराहना करें, उन्हें सकारात्मक वचनों से प्रोत्साहित  करें, ऐसा करते ही सभी प्रश्नों के उत्तर मिल  जायेंगे।

सामान्य सदस्य ने कहा मेरा कोई प्रश्न ही नहीं, आप जानते हैं, मैं तो ….

अपना काम और जिम्मेदारी पूरी तरह से निभाता हूँ । आगे जो समीक्षा कर रहा है ; कामों की वो जाने।

एक अन्य  विशिष्ट सदस्य ने कहा आप भी कहाँ की बात ले बैठे ये तो सब खेल है,  कभी भाग्य का, कभी कर्म का, बधाई हो; पुरस्कारित होने के लिये आपका भी तो नाम है।

आप हमेशा ही सार्थक कार्य करते हैं, आपके कार्यों का सदैव मैं प्रशंसक हूँ।

तभी एक अन्य सदस्य खास बनने की कोशिश करते हुए कहने लगा,  कुछ लोगों को गलतफहमी है मेरे बारे में, शायद पसंद नहीं करते ……मुँह बिचकाते हुए बोले,  मैं तो उनकी सोच बदलने में असमर्थ हूँ, और समय भी नहीं ये सब सोचने का….।

पर कभी कभी लगता है;  चलिए कोई बात नहीं।

जहाँ लोग नहीं चाहते मैं रहूँ; सक्रियता कम कर देता हूँ। जोश उमंग कम हुआ बस..।

सचिव महोदय जो बड़ी देर से सबकी बात सुन रहे थे  कहने लगे – इंसान की कर्तव्यनिष्ठा , उसके कर्म,  सबको आकर्षित करते हैं। समयानुसार सोच परिवर्तित हो जाती है।

मुझे ही देखिये  कितने लोग पसंद करते हैं.. …. हहहहहह ।

अब भला संस्था के दार्शनिक महोदय भी  कब तक चुप रहते  कह उठे जो व्यक्ति स्वयं को पसंद करता है उसे ही सब पसंद करते हैं।

सामान्य सदस्य जिसने शुरुआत की थी,  बात काटते हुए कहने लगा शायद यहाँ वैचारिक भिन्नता हो।

जब सब सराहते हैं, तो किये गए कार्य की समीक्षा और सही मूल्यांकन होता है, तब खुद के लिये भी अक्सर पॉजीटिव राय बनती है, और बेहतर करने की कोशिश भी।

दार्शनिक महोदय ने कहा दूसरे के अनुसार चलने से हमेशा दुःखी रहेंगे अतः जो उचित हो उसी अनुसार चलना चाहिए जिससे कोई खुश रहे न रहे कम से कम हम स्वयं तो खुश होंगे।

सत्य वचन ,आज से आप हम सबके गुरुदेव हैं , सामान्य सदस्य ने कहा।

सभी ने हाँ में हाँ मिलाते हुए फीकी  सी मुस्कान  बिखेर दी और अपने- अपने गंतव्य की ओर चल  दिए ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 36 ☆ व्यंग्य संग्रह – बड्डे गढ़्डे और चौगड्डे – श्री रमाकांत ताम्रकार☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री श्री रमाकांत ताम्रकार जी  के  व्यंग्य -संग्रह  “बड्डे गढ़्डे और चौगड्डे ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 36 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य-संग्रह   – बड्डे गढ़्डे और चौगड्डे – व्यंग्यकार – श्री रमाकांत ताम्रकार

यह हम व्यंग्य यात्रियो का अपनापन ही है कि जहां सामान्यतः लोग स्वयं को छिपाकर रखना चाहते हैं, व एक आवरण में लपेट कर अपना रुपहला पक्ष ही सबके सम्मुख रखते हैं वही अपनी ही विवेचना करवाने के लिये व्यंग्य यात्री सहजता से ग्रुप में सबके सम्मुख उत्साह से  प्रस्तुत रहते हैं. रमाकांत ताम्रकार जी की सद्यः प्रकाशित कृति बड्डे गढ़्डे और चौगड्डे के शीर्षक में जबलपुर की स्थानीयता प्रतिबिंबित होती है .जबलपुर में जाने अनजाने हरेक को बड्डे संबोधन सहज है.  श्री रमाकांत ताम्रकार जी जबलपुर से हैं, आंचलिकता की महक उनके कई व्यंग्य लेखो में दृष्टिगत होती है. ३४ विभिन्न विषयो पर उन्होने व्यंग्य को माध्यम बनाकर चुटीली, रोचक प्रस्तुतियां इस पुस्तक में की हैं. इनमें से कई व्यंग्य उनके श्रीमुख से सुनने के सुअवसर भी मिले हैं. जैसे दो रुपये दे दो भैया, जरा खिसकना, राजनीति बनाम डकैती आदि. वे प्रवाहमय लिखते हैं. वे राजनीतिज्ञो को शेर की खाल में भेड़िया लिखते हैं, उन्हें हद्डी विहीन सर्प बताते हैं. हमने सीखा है कि व्यंग्य में केवल इशारो में बात होनी चाहिये पर वे सीधे मोदी जी का नाम लेकर लिखने का दुसाहस करने वाले व्यंग्यकार हैं. वे भ्रष्टाचार के रुपयों को बापू का सर्टिफिकेट लिखते हैं. आशय है कि व्यंग्य के माध्यम से समाज की विसंगतियो पर प्रहार की यात्रा में वे हम सभी के सहगामी हें. मेरी मंगल कामनायें उनके साथ हैं ।

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 58 – वंदे मातरम….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  स्वतंत्रता दिवस पर रचित एक देशप्रेम से  ओतप्रोत गीत  वंदे मातरम…. । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 58 ☆

☆ एक बाल कविता – वंदे मातरम…. ☆  

देश प्रेम के गाएं मंगल गान

वंदे मातरम

तन-मन से हम करें राष्ट्र सम्मान

वंदे मातरम।।

 

हम सब ही तो कर्णधार हैं

प्यारे हिंदुस्तान के

तीन रंग के गौरव ध्वज को

फहराए हम शान से,

इसकी आन बान की खातिर

चाहे जाएं प्राण

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएं मंगल गान, वंदे मातरम।

 

धर्म पंथ जाति मजहब

नहीं ऊंच-नीच का भेद करें

भाई चारा और प्रेम

सद्भावों के हम बीज धरें,

मातृभूमि दे रही हमें

धन-धान्य सुखद वरदान,

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाए मंगल गान, वंदे मातरम

 

अमर रहे जनतंत्र

शक्ति संपन्न रहे भारत अपना

सोने की चिड़िया फिर

जगतगुरु हो ये सब का सपना

देश बने सिरमौर जगत में

यह दिल में अरमान,

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएं मंगल गान, वंदे मातरम।

 

युगों युगों तक लहराए

जय विजयी विश्व तिरंगा ये

अविरल बहती रहे, पुनीत

नर्मदा, जमुना, गंगा ये,

सजग जवान, सिपाही, सैनिक

खेत और खलिहान,

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएं मंगल गान, वंदे मातरम।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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