हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 59 – डोल रही है सारी धरती ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक  अतिसुन्दर एवं सार्थक कविता  “डोल रही है सारी धरती ।  एक विचारणीय कविता। इस सार्थक कविता के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 59 ☆

☆ डोल रही है सारी धरती

 

आज यशोदा के कान्हा को

फिर से बहुत पुकारा है

डोल रही है सारी धरती

अब तुम्हारा सहारा है

 

मचा हुआ जीवन कोलाहल

छलकता विष का प्याला है

धू-धू करती आग उगलती

हर रिश्तो में ज्वाला है

 

डोल रहीं हैं सारी धरती

अब तुम्हारा सहारा हैं

 

झर-झर बहते अश्रु धार

नैनो के बीच समाया है

थिरक थिरक मधुमास लिए

गुलशन बना मधुशाला है

 

डोल रहीं हैं सारी धरती

अब तुम्हारा सहारा हैं

 

कौन श्रृंगार करे दर्पण से

हर चेहरा मुखौटा है

जीवन में उन्माद समाया

सांझ यौवन नशीला है

 

डोल रही हैं सारी धरती

अब तुम्हारा सहारा है

 

न दिया की बाती कोई

अब ना भेंट भलाई है

बना हुआ कैसा उलझन

शोर मचाती तरुणाई है

 

डोल रही हैं सारी धरती

अब तुम्हारा सहारा हैं

 

कटुता समाए मन में

दिखाता छल छलावा है

लगाए बातों की मक्खन

पीठ में खंजर चुभाता है

 

डोल रही है सारी धरती

अब तुम्हारा सहारा है

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 59 ☆ कवितेचा पक्षी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता  “कवितेचा पक्षी।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 59 ☆

☆ कवितेचा पक्षी ☆

 

माझ्या कवितेचा पक्षी

फिरे आकाशी चौफेर

 

मोत्या सारखं अक्षर

त्याला विणण्याला जर

अशी मोत्याची या माळ

कंठी जाता होई सूर

 

कशी शब्दांच्या या भाळी

बिंदी शोभते कपाळी

कुंकू भाळात भरलं

चंद्रकोर त्याच्यावर

 

मात्रा असते बोलकी

जशी खांद्यावर काठी

कुणी भेटता नाठाळ

देई शब्दांचा ही मार

 

शब्द करतो संस्कार

तोच जीवनी आधार

जरा जपून वापरा

त्याला असते हो धार

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे। )

  ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

दोहों के दरबार में, हाजिर दोहा कार ।

सिंधु समाता सीप में, दोनों में संसार दोहा ।।

 

दोहा, दूहा, दोहरा, संबोधन के नाम।

वामन काया में छिपा, याद रंग अभिराम ।।

 

खुसरो ने दोहे कहे, कहे कबीर कमाल ।

फिर तुलसी ने खोल दी, दोहों की टकसाल।।

 

गंग, वृंद, दादू वली, या रहीम मतिराम ।।

दोहों के रस लीन से, कितने हुए इमाम ।।

 

दोहे हम भी रच रहे, कविवर हुए अनेक।

किंतु बिहारी की छटा, घटा न पाया एक।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 11 – ओ सुहागिन झील ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “ओ सुहागिन झील”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 11 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ ओ सुहागिन झील  ☆

 

लक्ष्य को संधान करते

देखता है नील

धनुष की डोरी चढ़ाते

काँपता है भील

 

कथन :: एक

 

बस अँगूठा, तर्जनी की

पकड़ का यह संतुलन भर

आदमी की हिंस्र लोलुप

वृत्ति का उपयुक्त स्वर

 

या प्रतीक्षित परीक्षण का

मौन यह उपक्रम अनूठा

या कदाचित अनुभवों

की पुस्तिका अश्लील

 

कथन :: दो

 

पुण्य पापों की समीक्षा

के लिये उद्यत व्यवस्था

याक जंगल के नियम को

जाँचने कोई अवस्था

 

या प्रमाणों में कहीं

बचता बचाता झूठ कोई

दी गई जिसको यहाँ पर

फिर सुरक्षित ढील

 

कथन:: तीन

 

गहन हैं निश्चित यहाँ की

राजपोषित सब प्रथायें

फिर कहाँवन के प्रवर्तित

रूप पर कर लें सभायें

 

पैरव फैलाये थके हैं

सभी पाखी अकारण ही

जाँच लेतू भी स्वयं को

ओ! सुहागिन झील

 

© राघवेन्द्र तिवारी

27-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 58 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – बड़ा उपन्यास ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 58 

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – बड़ा उपन्यास ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय –

आपके बहुत सारे पाठकों-प्रशंसकों से की प्रबल इच्छा रही है कि छोटे-आकार-प्रकार वाले लेखों-टिप्पणियों में जिनमें स्तम्भ लेखन भी शामिल है, से मुक्त होकर अब आपको कोई बड़ा उपन्यास या नाटक या ऐसी ही कोई और चीज लिखनी चाहिए, कोई ऐसी रचना जिसमें समकालीन जीवन अपेक्षाकृत अधिक विविधता और सम्पूर्णता के साथ एक जगह चित्रित हो सके, इस इच्छा में क्या आप स्वंय को भी शामिल मानते हैं ?

हरिशंकर परसाई –

हां, मुझसे अपेक्षा तो बहुत पहले से की जा रही है, मैं उस तरह का उपन्यास, जिसको परंपरागत उपन्यास कहते हैं, उसको तो नहीं लिख सकता। मुझमें वह टेलेंट नहीं है और जैसा कि मैंने आपसे कहा कि मैं एक फेन्टेसी उपन्यास लिख सकता हूं, जिसमें सभी क्षेत्र आ जावें जीवन के, और कोशिश भी कर रहा था उसके लिए…..अब इस अवस्था में जबकि मेरा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता, क्षीणता भी आ गई है, मैं उतनी मेहनत भी नहीं कर पाता….उम्र भी 71 साल के लगभग हो रही है, मैं कोई उपन्यास बड़ा लिख सकूंगा उसकी मुझे अभी संभावना तो नहीं दिखती है। हो सकता है कि कुछ परिस्थितियां पलटें और मैं लिखूं। लिखना जरूर चाहता हूँ, लेकिन फिर या तो किसी व्यक्ति को लेकर, उसके जीवन पर आधारित उपन्यास, जिसमें और भी बहुत से पात्र आ जावेंगे, उसमें समाज का चित्रण हो सकेगा या फिर वौ एक लम्बी फेन्टेसी होगी उपन्यास के रूप में। मैं आशा करता हूं कि जैसी अपेक्षा है मुझसे, इस तरह का एक बड़ा उपन्यास लिखूं……

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 10 ☆ कोरोना काळातील संवेदना…☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी)  मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “कोरोना काळातील संवेदना…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 10 ☆ 

☆ कोरोना काळातील संवेदना… 

 

कोरोना काळातील संवेदना

कैसी विशद करावी

अनपेक्षित या विपदेची

भरपाई कैसी मिळावी…१

 

विदेशी संक्रमण झाले

नेस्तनाबूत करून गेले

पडल्या प्रेताच्या राशी

अंत्यविधी, हात न लागले… २

 

मातृभूमी आठवताच

पदयात्रा कुठे निघाली

उपवास घडले अनेकांना

कित्येकांची कोंडमारी झाली… ३

 

अजगर रुपी विषाणू

मजूर वर्ग, हकनाक संपला

शेवटचे स्वप्न, रात्र न पुरली

रक्त, मांस सडा, शिंपल्या गेला… ४

 

आईचा पान्हा जसा आटला

अवकाळी देह पार्थिव बनला

स्वार्थ मोह, क्षणात सुटता

शेवटचा श्वास, कुणी घेतला… ५

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन,

वर्धा रोड नागपूर,(440005)

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 60 ☆ व्यंग्य – पटरी से उतरी व्यवस्था ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘पटरी से उतरी व्यवस्था’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से पटरी से उतरी व्यवस्था और व्यवस्था को पटरी से उतारने के लिए जिम्मेवार भ्रष्ट लोगों पर तीक्ष्ण प्रहार किया है साथ ही एक आम ईमानदारआदमी की मनोदशा का सार्थक चित्रण भी किया है। इस  सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 60 ☆

☆ व्यंग्य – पटरी से उतरी व्यवस्था

वे दोनों मेरे पुराने मित्र थे। धंधे के सिलसिले में मेरे शहर आते जाते रहते थे। वे समझदार लोग थे, मेरे जैसे गावदी नहीं थे। उन्होंने ज़माने को पकड़ लिया था, मैं ज़माने की दुलत्तियाँ सहते सहते अधमरा हो रहा था। उन पर लक्ष्मी की कृपा थी,मेरे सरस्वती-मोह ने लक्ष्मी जी को हमेशा मुझसे दो हाथ दूर रखा था। वे अपनी हैसियत के हिसाब से होटल में रुकते थे, धंधे से निपट कर वक्त गुज़ारने के लिए मेरे घर आ जाते थे।

उस शाम वे आये तो मगन थे। बोले, ‘दो तीन सरकारी इमारतों का ठेका मिलना है। पिछली बार आये थे तो अफ़सरों से बात हो गयी थी। पक्का वादा मिल गया था। मंत्री जी से भेंट हो गयी थी। उनका आशीर्वाद भी मिल गया था। इस बार पूरी तैयारी से आये हैं।’

उन्होंने गोद में रखा ब्रीफ़केस बजाया। मैं समझ गया कि उसमें लक्ष्मी जी कैद हैं।

वे बोले, ‘यहाँ यह बहुत अच्छा है कि सही रास्ता पकड़ लिया जाए तो फिर कोई परेशानी नहीं होती। हाँ,सही रास्ते की खोज में ही थोड़ी दिक्कत होती है,लेकिन एक बार मिल गया तो फिर गाड़ी अपने आप चलने लगती है। फिर तो अफ़सर खुद ही टेलीफोन करके बुलाने लगते हैं। हम अगर अफ़सरों और मंत्रियों से बेईमानी न करें तो वे पूरी ईमानदारी से साथ देते हैं। नीयत साफ रहना बहुत ज़रूरी है। ‘
मैंने सहमति में सिर हिलाया।

वे बोले, ‘नीयत में खोट न हो तो सब काम आराम से चलता जाता है। पेमेंट टाइम से मिल जाता है,और जो दिक्कतें हों उन्हें दूर करने में सबकी मदद मिलती है। सब काम प्यार मुहब्बत से चलता है। दूसरी जगहों जैसी बेईमानी यहाँ नहीं होती। वहाँ तो पैसा लेने के बाद भी काम होने की कोई गारंटी नहीं होती। ‘
दूसरी शाम वे आये तो उनके मुँह लटके हुए थे। माथे का पसीना पोंछते हुए बोले, ‘यहाँ तो सब गड़बड़ हो गया। कोई अफ़सर हाथ नहीं धरने देता। ऐसे बिदकते हैं जैसे हम प्लेग या एड्स के मरीज़ हों। मंत्री ने पहचानने से इनकार कर दिया। सब महतमा गांधी हो गये। ‘

मैंने आश्चर्य से पूछा, ‘क्या

हुआ?’

वे बोले, ‘हमारी समझ में आये तो बताएं। सुना है कि हाल में मंत्रियों अफ़सरों पर सी.बी.आई. के. छापे पड़े हैं। उसी से सब गड़बड़ हुआ है। ‘

मैंने कहा, ‘हाँ,अखबारों में पढ़ा तो था। ‘

वे माथे पर हाथ धर कर बोले, ‘क्या ज़माना आ गया कि मंत्रियों को भी नहीं छोड़ा जा रहा है। अब आप बताइए ऐसे में कौन काम करेगा और कैसे कमाई करेगा?’

मैंने हमदर्दी के स्वर में कहा, ‘चिन्ता मत कीजिए। सब ठीक हो जाएगा। जब वे दिन नहीं रहे तो ये भी नहीं रहेंगे।’

वे कृतज्ञ भाव से मेरी तरफ देखकर बोले, ‘यही उम्मीद है, लेकिन अफसोस तो होता ही है कि ऐसी बढ़िया चल रही व्यवस्था खटाई में पड़ गयी। किसी चीज़ को बनाने में सालों लग जाते हैं, लेकिन बिगाड़ने में मिनट भी नहीं लगते। ‘

मैंने उनके दुख में अपना दुख मिलाते हुए कहा, ‘इसमें क्या शक है!’

वे शून्य में आँखें गड़ाकर जैसे अपने आप से बोले, ‘आहा! क्या सिस्टम था। एकदम ‘वेल आइल्ड’, एकदम ‘परफेक्ट’। ‘

मैंने कहा, ‘ऐसे सिस्टम को ‘वेल आइल्ड’ न कहकर ‘वेल ग्रीज़्ड’ कहना चाहिए क्योंकि अंग्रेज़ी में रिश्वत के लिए ‘ग्रीज़’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। ‘

वे कुछ अप्रतिभ होकर बोले, ‘कुछ भी कहिए, काम होना चाहिए। चाहे तेल से हो, चाहे ग्रीज़ से। जब काम ही नहीं होना है तो तेल क्या और ग्रीज़ क्या। काम नहीं होगा तो देश आगे कैसे बढ़ेगा और लोग ख़ुशहाल कैसे होंगे?’

मैंने कहा, ‘ठीक कहते हैं। ‘

विदा होने लगे तो वे बोले, ‘हमने उम्मीद नहीं छोड़ी है। हम जल्दी ही फिर आएंगे। व्यवस्था फिर बदलेगी। जब अच्छी व्यवस्था नहीं रही तो बुरी भी नहीं रहेगी। शक-शुबह की रात ढलेगी और प्यार-मुहब्बत की सुबह फिर फूटेगी। ‘

चलते वक्त वे बोले, ‘इस ब्रीफ़केस में कुछ रुपये हैं। हम सोचते हैं इस को यहीं छोड़ जाएं। कहाँ लिये लिये फिरेंगे। बाद में तो यहाँ इसकी ज़रूरत पड़ेगी ही। ‘

मैंने पूछा, ‘इसमें कितना रुपया है?’

वे बोले, ‘तीन लाख हैं। ‘

सुनकर मेरा रक्तचाप बढ़ गया। घबराकर बोला, ‘भाईजान, इतना रुपया संभालने की मेरी कूवत नहीं है। हमारा घर से निकलना मुश्किल हो जाएगा। दिन का चैन और रात की नींद हराम हो जाएगी। इसे आप अपने साथ ले जाएं या किसी हैसियत वाले के पास छोड़ जाएं।’

वे सुनकर हँसने लगे। बोले, ‘आप तो ऐसे घबरा गये जैसे हम कोई साँप या बिना लाइसेंस की बन्दूक छोड़े जा रहे हों। तीन लाख तो आजकल लोगों की एक दिन की ख़ूराक होती है।’

मैंने कहा, ‘हाँ,मैंने भी ऐसे महापुरुषों के बारे में पढ़ा सुना है, लेकिन साथ करने का सौभाग्य नहीं मिला। अपनी तो हालत यह है कि एक बार भोपाल जाते समय एक मित्र ने बीस हज़ार के नोट थमा दिये कि वहाँ पहुँचकर उनके रिश्तेदार को दे दूँ। बस भाईजान,अपना तो पेशाब-पानी बन्द हो गया। नोट हैंडबैग में थे। टायलेट जाता तो हैंडबैग भीड़ के बीच से गले में लटका कर ले जाता। साथ के यात्री सोचने लगे कि मैं सनका हूँ। जब गाड़ी भोपाल पहुँची तब जान में जान आयी। ‘

वे हँसकर बोले, ‘अगली बार हम आपको भी कुछ धंधा करना सिखाएंगे। तभी आपको रुपया संभालने की आदत पड़ेगी। ‘

मैंने कहा, ‘भाई, बूढ़े तोते को राम राम पढ़ाना मुश्किल है। ‘

वे बोले, ‘हुनर सीखने की कोई उम्र नहीं होती। जब जागे तभी सबेरा। ‘

मैंने हाथ जोड़कर कहा, ‘पधारना भाई। मैं इन्तज़ार करूँगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 16 ☆ गुमनाम साहित्यकारों की कालजयी रचनाओं का भावानुवाद ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।

स्मरणीय हो कि विगत 9-11 जनवरी  2020 को  आयोजित अंतरराष्ट्रीय  हिंदी सम्मलेन,नई दिल्ली  में  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी  को  “भाषा और अनुवाद पर केंद्रित सत्र “की अध्यक्षता  का अवसर भी प्राप्त हुआ। यह सम्मलेन इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय, हिंदी उर्दू भाषा के कार्यक्रम के सहयोग से आयोजित  किया गया था। इस  सम्बन्ध में आप विस्तार से निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं :

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 16/सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 16 ☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / यूअर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का कठिन परिश्रम कर अंग्रेजी भावानुवाद  किया है। यह एक विशद शोध कार्य है  जिसमें उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी है। 

इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है और इसके लिए उन्हें साधुवाद। वे इस अनुष्ठान का श्रेय  वे अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना मैडल से सम्मानित कैप्टन प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। वे स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

क्या करेगा रौशन उसे आफ़ताब बेचारा

लबरेज़ हो जो खुद अपने ही रूहानी नूर से

जब चाँद ही हो आफ़ताब से ज़्यादा नूरानी 

तो उसे क्या ताल्लुक़ात अंधेरे या उजाले से

 

How can poor sun illumine him 

Who is self-effulgent with spiritual light

When moon itself is brighter than sun

Then what’s its concern with darkness or light

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

 

गुफ़्तुगू करे हैं अक्सर

उंगलियां ही अब तो..

ज़बां तरसती है

कुछ कहने के लिए..

 

Fingers only chat 

these days now ..

The tongue  longs

To say something…

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

तेरी बात को यूँही…

 खामोशी से मान लेना

 ये भी एक अंदाज़ है,

मेरी  नाराज़गी  का…

 

Just simply accepting

your  words  quietly…

Is  also  my  way  of

expressing resentment…

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

रूबरू  होने   की  तो  छोड़िये,

गुफ़्तगू से  भी  क़तराने  लगे हैं,

ग़ुरूर ओढ़ते  हैं  रिश्ते  अब तो,

हैसियत पर अपनी इतराने लगे हैं…

 

Leave apart being face to face,

They’ve begun  to avoid talking,

Relations are so conceited now,

Proudly unmask their haughtiness

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-1 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का प्रथम भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-1

अलाव घास फूस तथा‌ लकडी  के उस ढेर को कहते हैं जो जाड़े के दिनों में दरवाजों पर जलाया जाता है, जिससे लोग हाथ सेकते हैं जिसके अलग अलग भाषाओं में अनेक नाम हैं, जैसे कौड़ा, तपनी,  तपंता, धूनी आदि। यही वो जगह है जहां  कथा-कहानियों की अविरल धारा बहती थी। यहीं गीता,  रामायण, महाभारत की कथाओं  का आकर्षण खींच लाता था। अगर अलाव न होते तो आज सारी दुनियां मुंशी प्रेमचंद की कालजयी रचनाओं से  वंचित ही‌ रहती और कफ़न जैसी काल जयी रचना का जन्म न हो पाता। शायद  इस कथा का जन्म भी यहीं हुआ था। इसका उद्गम स्थल भी अलाव ही है। ‌– सूबेदार पाण्डेय

हमारे बगल वाले गांव के ही रहने वाले थे रघु काका। उन्होंने अपने जीवन में बहुत सारे उतार चढ़ाव देखे थे। हमारे दादा जी जब कभी अलाव के पास बैठ रघु काका के बहादुरी की चर्चा छेड़ते तो लगता जैसे वे उनके साथ बीते दिनों की स्मृतियों में कहीं खो जाते। क्योंकि वे उनके विचारों के प्रबल समर्थक थे और इसके साथ हम बच्चों के ज़ेहन में रघू काका का व्यक्तित्व तथा उनके निष्कपट व्यवहार की यादें बस‌ जाती। तभी वे हमारे लोक कथा के नायक बन उभरे।

यद्यपि आज वो हमारे बीच नहीं रहे। दिल की लगी गहरी भावनात्मक चोट ने उन्हें विरक्ति के मार्ग पर ढकेल दिया। लेकिन वे और उनका चरित्र हमारी स्मृतियों में बसा हुआ आज भी कहानी बन कर पल रहा है।अब जब कभी स्मृतियों के झरोखे खुलते हैं, तो उनकी यादें  बरबस ही ताजा हो उठती हैं। उनके द्वारा बचपन में सुनाये गये गीतों के स्वर लहरियों की ध्वनितरंगे  कानों में मिसरी सी घोलती गूँज उठती है। उनका प्रेम पगा व्यवहार संस्मरण बन जुबां ‌पे मचल उठता है।

रघू काका ने पराधीन भारत माता की अंतरात्मा की पीड़ा, बेचैनी की  छटपटाहट को बहुत ही नजदीक से अनुभव किया था। वे भावुक हृदय इंसान थे। वो उस समुदाय से आते थे, जो अब भी यायावरी करता जरायम पेशा से जुड़ा हुआ है। जहां आज भी अशिक्षा, नशाखोरी, देह व्यापार गरीबी तथा कुपोषण के जिन्न का नग्नतांडव देखा जा सकता है। सरकारों द्वारा उनके विकास की बनाई गई हर योजना उनके दरवाजे पहुँचने के पहले ही दम तोड़ती नजर आती हैं। उनके कुनबों के लोगों का जीवन आज भी आज यहाँ तो कल वहाँ सड़कों के किनारे सिरकी तंबुओं में बीतता है। ढोल बजाकर, गाना गाकर, भीख मांग कर खाना तथा आपराधिक गतिविधियों का संचालन ही उस समुदाय का पेशा था। उसी समुदाय की उन्हीं परिस्थितियों से धूमकेतु बन उभरे थे रघू काका जिनका स्नेहासिक्त  जीवन व्यवहार उन्हें औरों से अलग स्थापित कर देता है। वे तो किसी और ही मिट्टी के बने थे। वे भी अपनी रोजी-रोटी की तलाश में वतन से दूर साल के आठ महीने टहला करते। बहुत दूर दूर तक उनका जाना होता।

लेकिन वे बरसात के दिनों का चौमासा अपने गांव जवार में ही बिताते। वो बरसात के दिनों में गांवों-कस्बों में घूम घूम आल्हा कजरी गाते सुनाते। ईश्वर ने उन्हें अच्छे स्वास्थ्य का मालिक बनाया था। शरीर जितना स्वस्थ्य हृदय उतना ही कोमल चरित्र बल उतना ही निर्मल। बड़ी बड़ी सुर्ख आंखें, घुंघराले काले बाल  रौबदार घनी काली मूंछें, चौड़ा सीना लंबी कद-काठी, मांसल ताकतवर भुजाओं का मालिक बनाया था उन्हें। बांये कांधे पर लटकती ढोल थामें दांये कांधे पर अनाज की गठरी ही उनकी पहचान थी। वे बहुत ज्यादा की चाह न रख बहुत थोड़े में ही संतुष्ट रहने वाले इंसान थे। वे भले ही चौपालों में गीत गा कर पेट भरते रहे हो, लेकिन हृदय दया से परिपूर्ण था और हम बच्चों के तो वो महानायक हुआ करते थे।  लोकगायक होने के नाते वे भावुक हृदय के मालिक थे।

वो बरसात में जब हमारे चौपालों में आल्हा या कजरी गीतों के सुर भरते तो मीलों दूर से लोग उनकी आवाज़ सुन उसके आकर्षण से बंधे खिंचे चले ‌आते और  चौपालों में भीड़ मच जाती। वे भावों के प्रबल चितेरे थे। कभी आल्हा-ऊदल केशौर्य चित्रण करते जोश में भर नांच उठते तो कभी कजरी गीतों में राम की विरह वेदना का चित्रण करते रो पड़ते। अथवा सुदामा द्रोपदी के चीर हरण कथा सुना लोगों को रोने पर विवश कर देते। वे जब कभी रामचरितमानस की चौपाइयों में बानी जोड़ ‌गाते———–

लछिमन कहां जानकी होइहै, ऐसी विकत अंधेरिया ना।
घन घमंड बरसै चहुओरा, प्रिया हीन तरपे मन मोरा।
ऐसी विकट अंधेरिया ना।।

(अरण्यकांड रामचरित मानस )से

तो उनकी भाव विह्वलता से सबसे ज्यादा प्रभावित महिला ‌समाज ही‌ होता और उसके ‌बाद चौपालों में बिछी चादर पर कुछ पलों में ही अन्नपूर्णा और लक्ष्मी दोनों ही बरस पड़ती। गांवों घरों की‌ महिलाएं अन्न के रूप में स्नेह वर्षा से उनकी झोली भर देती। जिसे बाजार में बेच वे नमक तेल लकड़ी तथा आंटे का प्रबंध कर लेते और उनकी गृहस्थी की गाड़ी ‌आराम से चल जाती। वे जब भी बाजार से लौटते तो हम बच्चों के लिए रेवड़ियाँ तथा नमकीन का उपहार लाना कभी भी नहीं भूलते। हम बच्चों से मिलने का उनका अपना खास अंदाज था। वे जब हमारे झुण्डों के करीब होते तो खास अंदाज में ‌ढ़ोलक पर थाप देते।  हम बच्चों का झुंड उस ढ़ोलक की चिर परिचित आवाज के ‌सहारे आवाज की दिशा में दौड़ लगा देते,उनकी तरफ कोई गले का हार बन उनसे लिपट जाता तो कोई पांवों में जंजीर बन।  इसी बीच शरारती बच्चा उनके हाथ का थैला छीन भागता तो दौड़ पड़ते उसके पीछे पीछे और नमकीन का थैला ले सबको बराबर बराबर बांट देते ।

क्रमशः …. 2

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 4 ☆ पंद्रह अगस्त अति पुनीत पर्व है प्यारा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( स्वतंत्रता दिवस के शुभ अवसर पर प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  रचना पंद्रह अगस्त अति पुनीत पर्व है प्यारा। अब हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 4 ☆

☆ पंद्रह अगस्त अति पुनीत पर्व है प्यारा ☆

पंद्रह अगस्त अति पुनीत पर्व है प्यारा
आजाद हुआ था इसी दिन देश हमारा
फहराता तिरंगा इसी दिन आसमान में
सूरज ने नई रोशनी दी थी विहान में
मन को मिली खुशी और आंखों को एक चमक
सबकी जुबां पर चढ़ा जय हिंद का नारा

आजाद हुआ देश आजाद ही रहेगा
सदियों ने किया बर्बाद अब आबाद रहेगा
आई बहार कैसे यह सपने चमन में
ये लंबी कहानी है इतिहास है सारा
फिर मिलकर कसम आज यहां साथ में खाएं
मेहनत के बल पर देश को मजबूत बनाएं

सपना जो शहीदों का था साकार करें हम
अब चाहता है हमसे यह कर्तव्य हमारा
गांधी ने, शहीदों ने जो पौधे थे लगाए
होकर बड़े अब आज फलने को आए
हम इनको सींच देश को खुशहाल रखे अब
लू की लपट इनको नहीं होती है गवारा

जिस देश की धरती ने हमें इतना दिया है
उसके लिए अब तक भला हमने क्या किया है
हम खुद से करें सवाल और जवाब दें
हम से ही तो बनता है सदा देश हमारा

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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