हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 14 – व्ही शांताराम-1 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : व्ही शांताराम पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 14 ☆ 

☆ व्ही शांताराम…1 ☆

शांताराम राजाराम वनकुर्डे जिन्हें व्ही शांताराम या शांताराम बापू या अन्ना साहब के नाम से भी जाना जाता है का जन्म 18 नवम्बर 1901 को कोल्हापुर रियासत के ख़ास कोल्हापुर में हुआ था। वे हिंदी-मराठी फ़िल्म निर्माता, और अभिनेता के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने ड़ा कोटनिस की अमर कहानी, झनक-झनक पायल बाजे, दो आँखें बारह हाथ, नवरंग, दुनिया न माने, और पिंजरा जैसी अमर फ़िल्म बनाईं थीं।

डॉ. कोटनीस की अमर कहानी हिंदी-उर्दू के साथ-साथ अंग्रेजी में निर्मित 1946 की भारतीय फिल्म है। इसकी पटकथा ख़्वाजा अहमद अब्बास ने लिखी है और इसके निर्देशक वी शांताराम थे। अंग्रेजी संस्करण का शीर्षक “द जर्नी ऑफ डॉ. कोटनीस” था। दोनों ही संस्करणों में वी शांताराम डॉ॰कोटनीस की भूमिका में थे। फिल्म एक भारतीय चिकित्सक द्वारकानाथ कोटनीस के जीवन पर आधारित है, जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में जापानी आक्रमण के दौरान चीन में अपनी सेवाएँ दी थीं।

फिल्म ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानी “एंड वन डिड नॉट कम बैक” पर आधारित थी, जो खुद भी डॉ.द्वारकानाथ कोटनीस के बहादुर जीवन पर आधारित है। डा. कोटनीस को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान येनान प्रांत में जापानी आक्रमण के खिलाफ लड़ने वाले सैनिकों को चिकित्सा सहायता प्रदान करने के लिए चीन भेजा गया था। चीन में रहते हुए उन्होंने जयश्री द्वारा अभिनीत एक चीनी लड़की चिंग लान से मुलाकात की। उनकी मुख्य उपलब्धि एक विपुल प्लेग का इलाज ढूँढना थी, लेकिन बाद में वे स्वयं इससे ग्रस्त हो गए। वे एक जापानी पलटन द्वारा पकड़े भी गए, किंतु वहाँ से भाग निकले। आखिरकार बीमारी ने उनकी जान ले ली।

व्ही शांताराम कोल्हापुर में बाबूराव पेंटर की महाराष्ट्र फ़िल्म कम्पनी में फुटकर काम करते थे। उन्हें 1921 में मूक फ़िल्म “सुरेखा हरण” में सबसे पहले काम करने का अवसर मिला। उन्होंने महसूस किया कि फ़िल्म सामाजिक बदलाव का सशक्त माध्यम हो सकता है। उन्होंने एक तरफ़ मानवता और मानव के भीतर अंतर्निहित अच्छाइयों को सामने लाते  हुए अन्याय और बुराइयों का प्रतिकार प्रस्तुत किया, वहीं संगीत के प्रभाव से मनोरंजन का संसार रचा। सात दशक तक उनकी फ़िल्म संसार में सक्रियता रही। उनमें संगीत की समझ थी इसलिए वे संगीतकारों से विचारविमर्श करके कलाकारों से कई बार रिहर्सल करवाते थे। चार्ली चैप्लिन ने उनकी मराठी फ़िल्म मानूस की प्रशंसा की थी

उन्होंने विष्णुपंत दामले, के.आर. धैबर, एस. फट्टेलाल और एस. बी. कुलकर्णी के साथ मिलकर 1929 में प्रभात फ़िल्म कम्पनी बनाई जिसने नेताजी पालेकर फ़िल्म का निर्माण किया और 1932 में “अयोध्याचे राजा” फ़िल्म बनाई। उन्होंने 1942 में प्रभात फ़िल्म कम्पनी छोड़कर राजकमल कलामंदिर की स्थापना की, जो कि अपने समय का सबसे श्रेष्ठ स्टूडियो था।

शांताराम की सृजनात्मकता उनके प्रेम प्रसंगों और उनकी तीन शादियों से जुड़ी थी। उन्होंने 1921 में पहली शादी अपने से 12 साल छोटी विमला बाई से की थी। उनका पहला विवाह उनके बाद के दो विवाहों के वाबजूद पूरे जीवन चला, पहली शादी से उनके चार बच्चे हुए। प्रभात, सरोज, मधुरा और चारूशीला। मधुरा का विवाह प्रसिद्ध संगीतज्ञ पंडित जसराज से हुआ था।

शांताराम की एक  नायिका जयश्री कमूलकर थी, जिनके साथ उन्होंने कई मराठी फ़िल्म और एक हिंदी फ़िल्म शकुंतला की थी, दोनों ने प्रेम में पड़ कर 22 अक्टूबर 1941 को शादी कर ली। जयश्री से उनको तीन बच्चे हुए, मराठी फ़िल्म निर्माता किरण शांताराम, राजश्री (फ़िल्म हीरोईन) और तेजश्री। शांताराम ने राजश्री को बतौर हीरोईन और जितेंद्र को हीरो के रूप में  साथ-साथ “गीत गाया पत्थरों में” अवसर दिया था।

दो आँखे बारह हाथ, झनक-झनक पायल बाजे, जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली, सेहरा और नवरंग की नायिका संध्या के साथ काम करते-करते शांताराम और संध्या में प्रेम हो गया तो 1956 में उन्होंने शादी कर ली।

जब “झनक-झनक पायल बाजे” और “दो आँखे बारह हाथ” बन रही थी तब शांताराम के पास के सभी आर्थिक संसाधन चुक गए इसलिए उन्होंने विमला बाई और जयश्री से उनके ज़ेवर गिरवी रखकर बाज़ार से धन लेने माँगे। विमला बाई ने तुरंत अपने ज़ेवर निकालकर दे दिए, संध्या ने शांताराम की प्रेमिका और फ़िल्म की नायिका होने के नाते भी शांताराम के माँगे बिना अपने सभी ज़ेवर शांताराम को सौंप दिए लेकिन जयश्री ने अपने ज़ेवर दुबारा माँगने पर भी नहीं दिए। इस बात को लेकर शांताराम और जयश्री के सम्बंधों में खटास पड़ गई। जयश्री को जब बाद में संध्या द्वारा दिए गए ज़ेवरों के बारे में पता चला तो उसने कुछ ज़ेवर उसे देना चाहे लेकिन संध्या ने यह कहकर कि उसने ज़ेवर पहनना छोड़ दिया है, ज़ेवर लेने से मना कर दिया।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 57 ☆ लफ़्जों के ज़ायके ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय एवं प्रेरक आलेख लफ़्जों के ज़ायके।  यह बिलकुल सच है कि लफ़्जों के ज़ायके होते हैं । आदरणीय गुलज़ार साहब के मुताबिक़ परोसने के पहले चख लेना चाहिए। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 57 ☆

☆ लफ़्जों के ज़ायके

‘लफ़्जों के भी ज़ायके होते हैं। परोसने से पहले चख लेना चाहिए।’ गुलज़ार जी का यह कथन महात्मा बुद्ध के विचारों को पोषित करता है कि ‘जिस व्यवहार को आप अपने लिए उचित नहीं मानते, वैसा व्यवहार दूसरों से भी कभी मत कीजिए’ अर्थात् ‘पहले तोलिए, फिर बोलिए’ बहुत पुरानी कहावत है। बोलने से पहले सोचिए, क्योंकि शब्दों के घाव बणों से अधिक घातक होते हैं; जो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। सो! शब्दों को परोसने से पहले चख लीजिए कि उनका स्वाद कैसा है? यदि आप उसे अपने लिए शुभ, मंगलकारी व स्वास्थ्य के लिए लाभकारी मानते हैं, तो उसका प्रयोग कीजिए, अन्यथा उसका प्रभाव प्रलयंकारी हो सकता है, जिसके विभिन्न उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘अंधे की औलाद अंधी’ था…महाभारत के युद्ध का मूल कारण…सो! आपके मुख से निकले कटु शब्द आपकी वर्षों की प्रगाढ़ मित्रता में सेंध लगा सकते हैं; भरे-पूरे परिवार की खुशियों को ख़ाक में मिला सकते हैं; आपको या प्रतिपक्ष को आजीवन अवसाद रूपी अंधकार में धकेल सकते हैं। इसलिए सदैव मधुर वाणी बोलिए और तभी बोलिए जब आप समझते हैं कि ‘आपके शब्द मौन से बेहतर हैं।’ समय, स्थान अथवा परिस्थिति को ध्यान में रखकर ही बोलना सार्थक व उपयोगी है, अन्यथा वाणी विश्राम में रहे, तो बेहतर है।

मौन नव-निधि के समान अमूल्य है। जिस समय आप मौन रहते हैं… सांसारिक माया-मोह, राग-द्वेष व स्व-पर की भावनाओं से मुक्त रहते हैं और आप अपनी शक्ति का ह्रास नहीं करते; उस प्रभु के निकट रहते हैं। यह भी ध्यान की स्थिति है; जब आप  निर्लिप्त भाव में रहते हैं और संबंध सरोकारों से ऊपर उठ जाते हैं… यही जीते जी मुक्ति है। यही है स्वयं में स्थित होना; स्वयं पर भरोसा रखना; एकांत में सुख अनुभव करना… यही कैवल्य की स्थिति है; अलौकिक आनंद की स्थिति है; जिससे मानव बाहर नहीं आना चाहता। इस स्थिति में यह संसार उसे मिथ्या भासता है और सब रिश्ते-नाते झूठे; जहां मानव के लिए किसी की लेशमात्र भी अहमियत नहीं होती।

सो! ऐ मानव, स्वयं को अपना साथी समझ। तुमसे बेहतर न कोई तुम्हें जानता है, न ही समझता है। इसलिए अन्तर्मन की शक्ति को पहचान; उसका सदुपयोग कर; सद्ग्रन्थों का निरंतर अध्ययन कर, क्योंकि विद्या व ज्ञान मानव का सबसे अच्छा व अनमोल मित्र है, सहयोगी है; जिसे न कोई चुरा सकता है; न बांट सकता है; न ही छीन सकता है और वह खर्च करने पर निरंतर बढ़ता रहता है। इसका जादुई प्रभाव होता है। यदि आप निर्दिष्ट मार्ग का अनुसरण करते हैं, तो मन कभी भी भटकेगा नहीं और उसकी स्थिति ‘जैसे उड़ि-उड़ि जहाज़ का पंछी, उड़ी-उड़ी जहाज़ पर आवै’ जैसी हो जाएगी। उसी प्रकार हृदय भी परमात्मा के चरणों में पुनः लौट आएगा। माया रूपी महाठगिनी उसे अपने मायाजाल में नहीं बांध पायेगी। वह अहर्निश उसके ध्यान में लीन रहेगा और लख चौरासी से जीते जी मुक्त हो जाएगा, जो मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है…  और उसकी मुख्य शर्त है; ‘जल में कमलवत् रहना अर्थात् संसार में जो हो रहा है, उसे साक्षी भाव से देखना और उसमें लिप्त न होना।’ इस परिस्थिति में सांसारिक माया-मोह के बंधन व स्व-पर के भाव उसके अंतर्मन में झांकने का साहस भी नहीं जुटा पाते। इस स्थिति में वह स्वयं तो आनंद में रहता ही है, दूसरे भी उसके सान्निध्य व संगति में आनंद रूपी सागर में अवगाहन करते हैं, सदा सुखी व संतुष्ट रहते हैं। इसलिए ‘कुछ हंस कर बोल दो,/ कुछ हंस कर टाल दो/ परेशानियां तो बहुत हैं/  कुछ वक्त पर डाल दो’ अर्थात् जीवन को आनंद से जियो, क्योंकि सुख-दु:ख तो मेहमान हैं, आते-जाते रहते हैं। इसलिए दु:ख में घबराना कैसा…खुशी से आपदाओं का सामना करो। यदि कोई अप्रत्याशित स्थिति जीवन में आ जाए, तो उसे वक्त पर टाल दो, क्योंकि समय बड़े से बड़े घाव को भी भर देता है।

मुझे स्मरण हो रही हैं, गुलज़ार जी की यह पंक्तियां ‘चूम लेता हूं/ हर मुश्किल को/ मैं अपना मान कर/ ज़िदगी जैसी भी है/ आखिर है तो मेरी ही’ अर्थात् मानव जीवन अनमोल है, इसकी कद्र करना सीखो। मुश्किलों को अपने जीवन पर हावी मत होने दो। जीवन को कभी भी कोसो मत, क्योंकि ज़िंदगी आपकी है, उससे प्यार करो। उन्हीं का यह शेर भी मुझे बहुत प्रभावित करता है… ‘बैठ जाता हूं/ मिट्टी पर अक्सर/ क्योंकि मुझे अपनी औक़ात अच्छी लगती है।’ जी! हां, यह वह सार्थक संदेश है, जो मानव को अपनी जड़ों से जुड़े रहने को प्रेरित करता है और यह मिट्टी हमें अपनी औक़ात की याद दिलाती है कि मानव का जन्म मिट्टी से हुआ और अंत में उसे इसी मिट्टी में मिल जाना है। सो! मानव को सदैव विनम्र रहना चाहिए, क्योंकि अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। सो! इसे अपने जीवन में कभी भी प्रवेश नहीं करने देना चाहिए, क्योंकि अहं हृदय को पराजित कर मस्तिष्क के आधिपत्य को स्वीकारता है। इसलिए मस्तिष्क को हृदय पर कभी हावी न होने दें, क्योंकि यह मानव से गलत काम करवाता है। स्वयं का दर्द महसूस होना जीवित होने का प्रमाण है और दूसरों के दर्द को महसूस करना इंसान होने का प्रमाण है। सो! मानव को आत्म- केन्द्रित अर्थात् निपट स्वार्थी नहीं बनना चाहिए; परोपकारी बनना चाहिए। ‘अपने लिए जिए, तो क्या जिए/ तू जी ऐ दिल/ ज़माने के लिए।’ औरों के लिए जीना व उनकी खुशी के लिए कुर्बान हो जाना…यही मानव जीवन का उद्देश्य है अर्थात् ‘नेकी कर, कुएं में डाल’ क्योंकि शुभ कर्मों का फल सदैव अच्छा व उत्तम ही होता है।

‘कबिरा चिंता क्या करे/ चिंता से क्या होय/ मेरी चिंता हरि करें/ मोहे चिंता न होए।’ कबीरदास जी का यह दोहा मानव को चिंता त्यागने का संदेश देता है कि चिंता करना निष्प्रयोजन व हानिकारक होता है। इसलिए सारी चिंताएं हरि पर छोड़ दो और आप हर पल उसका स्मरण व चिंतन करो। कष्ट व दु:ख आप से कोसों दूर रहेंगे और आपदाएं आपके निकट आने का साहस नहीं जुटा पाएंगी। ‘सदैव प्रभु पर आस्था व विश्वास रखो, क्योंकि विश्वास ही एक ऐसा संबल है, जो आपको अपनी मंज़िल तक पहुंचाने की सामर्थ्य रखता है’– स्वेट मार्टन की यह उक्ति मानव को ऊर्जस्वित करती है कि सृष्टि-नियंता पर अगाध विश्वास रखो और संशय को कभी हृदय में प्रवेश न पाने दो। इससे आप में आत्मविश्वास जाग्रत होगा। विश्वास सबसे बड़ा संबल है, जो हमें मंज़िल तक पहुंचा देता है। इसलिए सपने में भी संदेह व शक़ को जीवन में दस्तक न देने दो। जीवन में खुली आंखों से सपने देखिए; उन्हें साकार करने के लिए हर दिन उनका स्मरण कीजिए और अपनी पूरी ऊर्जा उन्हें साकार करने में लगा दीजिए। स्वयं को कभी भी किसी से कम मत आंकिए… आपको सफलता अवश्य प्राप्त होगी।

जीवन में हर कदम पर हमारी सोच, हमारे बोल व हमारे कर्म ही हमारा भाग्य लिखते हैं। सो! मानव को जीवन में नकारात्मकता को प्रवेश नहीं करने देना चाहिए, क्योंकि हमारी सोच, हमारी वाणी के रूप में प्रकट होती है और हमारे बोल व हमारे कर्म ही हमारे भाग्य-विधाता होते हैं। इसलिए कहा गया है कि बोलने से पहले चख लेना श्रेयस्कर है। सो! अपनी वाणी पर नियंत्रण रखिए। सदैव सत्कर्म कीजिए। लफ़्ज़ों के भी ज़ायके होते हैं… चख कर उनका सावधानी-पूर्वक प्रयोग करना ही उपयोगी, कारग़र व सर्वहिताय है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 10 ☆ वर्तमान परिदृश्य में आदर्श प्रेम और मानव प्रवृत्ति ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं अनुकरणीय आलेख  वर्तमान परिदृश्य में आदर्श प्रेम और मानव प्रवृत्ति।)

☆ किसलय की कलम से # 10 ☆

☆ वर्तमान परिदृश्य में आदर्श प्रेम और मानव प्रवृत्ति ☆

प्रेम समस्त ब्रह्मांड का एकमात्र बहुआयामी, व्यापक व परम् पावन ऐसा शब्द है, जिसे मानव के साथ समग्र प्राणी जगत भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से अनुभव करता है। प्रेम की बोली, प्रेम प्रदर्शन, प्रेमिल क्रियाकलापों की अनुभूति सबके हृदय व चेतना को सकारात्मकता से ओतप्रोत कर देती है। ऐसा माना जाता है कि प्रेम पूर्व में एक निश्छल तथा सत्यपरक परम् कर्त्तव्य परायणता का आदर्श रूप माना जाता था। सर्वोत्कृष्टता के आधार पर राधा-कृष्ण के प्रेम से सम्पूर्ण जनमानस परिचित है। प्रेमान्त अथवा वियोग की परिणति मृत्यु का भी कारण बन जाती है। मनुष्य व पशु-पक्षियों के ऐसे अनेकानेक उदाहरण हम में से अधिकांशों ने देखे होंगे, जब एक निश्छल प्रेमी अपने प्रिय के वियोग में कुछ पल भी जीवित नहीं रहे। हमारी भारतीय संस्कृति व हमारे भारतीय इतिहास में ऐसे विविध उदाहरण व लेख हैं। ऐसे आदर्श प्रेम के बारे में यह सत्य ही कहा गया है कि प्रेम किया नहीं जाता, हो जाता है। उभय पक्षों का परस्पर प्रेम तभी सफलता की ऊँचाई पर पहुँचता है, जब प्रेम क्रोध, ईर्ष्या, स्वार्थ, अहंकार, लोभ, मोह, आसक्ति, असमानता, भय, संशय, असत्य, घृणा जैसे नकारात्मक भावों की तिलांजलि न दे दी जाए। इनमें से एक भाव भी प्रेम के मध्य विद्यमान होने पर उसकी विराटता कलंकित हो जाती है। प्रेम किसी जाति-पाँति, रंग-रूप, लिंगभेद, उम्र, आदि का भेद नहीं करता। प्रेम देश, धर्म अथवा संस्कृति से भी हो सकता है, प्रेम मीरा, सूर, तुलसी के समान भी किया जा सकता है। प्रेम मानव की विचारधारा बदल देता है। प्रेम में डूबे मानव को आसपास के परिवेश में कुछ भी पराया नहीं लगता। प्रेम तो वह व्यापक और निष्कलंक धर्म के सदृश है जो हर किसी से किया जा सकता है। यह ईश्वर, प्रकृति, जीव-जंतु, पशु-पक्षी, माता-पिता, भाई-बहन, पिता-पुत्र, माँ-बेटी, पति-पत्नी अथवा स्त्री-पुरुष किसी से भी हो सकता है। पूर्वकाल में नैतिक व मानवीय मूल्यों की सर्वोच्च महत्ता थी, तत्पश्चात ही अर्थ-स्वार्थ की बात आती थी, इसी कारण प्रेम को आदर्श स्थान प्राप्त था। प्रेम किसी पूजा-आराधना से कमतर नहीं होता। शनैःशनैः स्वार्थ, ऐशोआराम व धन के मोह ने हमारी प्रगति का मार्ग प्रशस्त तो किया लेकिन अनैतिक कृत्यों व अवांछित स्वार्थगत गतिविधियों के क्रम को अंतहीन बना दिया।

आज इक्कीसवीं सदी के आते-आते वह आदर्श प्रेम गहन अंधकार की गहराई में विलुप्त होने को है। आज मात्र ‘प्रेम’ नामक शब्द ही शेष रह गया है, इसके मायने पूर्णरूपेण बदल चुके हैं। आज ऐसी कोई  मिसाल अथवा उदाहरण नजर नहीं आते, जिसे हम वास्तविक प्रेम कह सकें। ‘मैं उससे प्रेम करता हूँ’। ‘हम प्रेम की बातें करेंगे’। ऐसे वाक्य प्रेम को व्यक्त करने हेतु कदापि सक्षम नहीं हैं। प्रेम प्रदर्शित नहीं किया जाता, वह स्वयमेव अनुभूत होता है। युवक-युवती का किसी उद्यान में अकेले वार्तालाप करना प्रेम हो, यह आवश्यक नहीं है। यह आसक्ति हो सकती है, मोह भी हो सकता है। यह जरूरी नहीं है कि नौकर का मालिक के हितार्थ कार्य अथवा सेवा करना प्रेम की श्रेणी में आए, क्योंकि इसमें स्वार्थ हो सकता है, भय भी हो सकता है। मेरी दृष्टि में यह तथाकथित प्रेम का अनुबंध ही आज की परिपाटी बन गई है। आज तो किसी भी प्रकार से दूसरे पक्ष को खुश रखना, उसके हितार्थ काम करना, उसकी हाँ में हाँ मिलाना, उसकी प्रशंसा करना अथवा अपना स्वार्थ सिद्ध करना भी प्रेम की श्रेणी में गिना जाने लगा है। आज प्रायः एक पुत्र अपने पिता से प्रेम इसलिए करता है कि उसे माँ-बाप के रूप में अवैतनिक नौकर और उनके जीवन भर की कमाई तथा अचल-संपत्ति की चाह होती है। प्रेमी अथवा प्रेमिका के मध्य मोह, स्वार्थ व आसक्ति के भाव ही प्रमुख रूप से रहते हैं। मित्रता में भी परस्पर हित व अवसरवादिता ही दिखाई देती है। लाभपूर्ति के पश्चात अथवा अहम के आड़े आते ही यह मित्रता रूपी प्रेम फुर्र से उड़ जाता है। पड़ोसी या मोहल्ले वाले स्वार्थ, लाभ, लालच जैसे अनेक कारणों से छद्म प्रेम प्रदर्शित करते हैं। यह हमारी विवशता ही कहलाएगी कि हम यदि किसी से आदर्श प्रेम करना भी चाहें तो सामने वाला बदले में हमें वही प्रेम दे, आज की परिस्थितियों में ये संभव ही नहीं है। एक अहम बात यह भी है कि जब हमारे पास खाने को नहीं रहता, तब हम कमाने की होड़ में शामिल हो जाते हैं और जब हमारे पास अकूत धन-संपत्ति और खाने को रहता है, तब हम स्वास्थ्य कारणों से खा नहीं पाते। स्वास्थ्य, शांति, सुख व प्रेम की तलाश करते-करते हम पुनः पूर्ववत जीवन अपनाने हेतु बाध्य हो जाते हैं। निश्चित रूप से ये कमाई की होड़ ही हमें लालची, स्वार्थी, भ्रष्टाचारी व अचारित्रिक बनाती है, इसलिये ही यहाँ प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं बचता। तत्पश्चात बुढ़ापे में जब मानव इस प्रेम की तलाश करता है, तब तक अधिकांश हमसे बहुत दूर जा चुके होते हैं। आशय यह है कि जब एक अवधि के बाद हम अपने ही कमाए धन का उपयोग नहीं कर पाएँगे, तो हम वे सारे अनैतिक कार्य करते ही क्यों हैं? उतना धन एकत्र करते ही क्यों हैं, जिसे दान, धर्मशालाओं, चैरिटेबल आदि को देकर बुढ़ापे में शांति की कामना करना पड़े। प्रारम्भ में ही हमारे मानस में यदि प्रेम और सौहार्दभाव का बीजारोपण कर दिया गया होता तो हमारी स्वार्थलिप्तता हमें इतनी भावहीन न कर पाती। हम निश्छल प्रेम को बखूबी समझ गए होते।

प्रेम के कारक समाज में आपकी राह देख रहे हैं। संतोष, सदाचार व अपरिग्रह के भाव अपने हृदय में अंकुरित होने दें। मानव के प्रति प्रेमभाव जागृत करें। आपका जीवन कुछेक कठिनाईयों को छोड़कर शेष प्रेममय, आनंदमय व शांतिमय बीतने लगेगा। वृद्धावस्था में तनाव के स्थान पर शांति व प्रसन्नता का अनुभव होगा। हमारे धर्म ग्रंथों में लिखा है, कलयुग में अनैतिकता बढ़ेगी, बुराई, ईर्ष्या और द्वेष की वृद्धि होगी, प्रेम का पूर्ण अंत होगा, लेकिन अपने किये गए कर्मों से अपना वर्तमान तो सुधारा ही जा सकता  है। जैसा कि कहा गया है ‘हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा’। हो सकता है आपका प्रयास एक आंदोलन बने, आंदोलन एक अभियान बने और वह अभियान प्रेम को आदर्श दिशा की ओर मोड़ने में सफल हो।

आज ऐसे ही चिंतन की महती आवश्यकता है, जो समाज में आदर्श प्रेम को बढ़ावा दे सके एवं स्वयं को निश्छल, निःस्वार्थ तथा कल्याणकारी प्रेमपथ का अनुगामी बना सके।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 56 ☆ जवाब ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता  “जवाब। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 56 – साहित्य निकुंज ☆

☆ जवाब ☆

क्या आप जानते हैं

हमें मिलते नहीं

कुछ सवालों के जवाब

सदियां बीत जाती है

युगों युगों तक

ढूंढते रह जाते हैं जवाब

पीढ़ी दर पीढ़ी

बढ़ती चली जाती है

अपना रूप रंग परिवर्तन

होता जाता है

और सवाल

बन जाते हैं एक धरोहर

सवाल खो जाते हैं

किसी भीड़ के साए में

खामोशी ओढ़ लेते हैं

और यहां से वहां

कुछ सवालों के जवाब

रेत की तरह ढह जाते हैं

नदिया में बह जाते हैं

समंदर में मिल जाते हैं.

सब

अपने के बहाव में बहते रहते हैं

इन्हीं सारे सवालों

की गुत्थी पर खड़ा होता है

समाज

तब फिर नए सवालों का जन्म होता है

नित नित

युगों युगों तक

सवाल उपजते हैं

तब भी

नहीं मिलता है उनका जवाब .।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 47 ☆ ये दिल रोशन है…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है प्रेरक एवं देशभक्ति से सराबोर भावप्रवण रचना  “ये दिल रोशन है….”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 47 ☆

☆ ये दिल रोशन है….  ☆

अब तो तेल भी न बचा चराग़ में

ये दिल रोशन है वफ़ा की आग में

 

यूँ देख कर न हमसे नज़र घुमाइये

हम भी माली थे कभी इस बाग में

 

देते हैं दिल को वो तसल्ली जरूर

पर यकीं कैसे करें उनके इस राग में

 

खेला खूब दिल से दिखाये सपने कई

अब आता नहीं कोई उनके सब्जबाग में

 

काँटों से उलझते रहे हम तमाम उम्र

जख्म फूलों के दिखे दिल के दाग में

 

काँटों के ख़ौफ़ से अब बाहर निकलिये

खिलने लगे हैं फूल मुहब्बत के बाग में

 

है वफ़ा की ज़ुस्तज़ु “संतोष”हमे

ज्यूँ भँवरे की नज़र होती है पराग में

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

Please share your Post !

Shares

हिन्दी/मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #5 ☆ सुश्री वसुधा गाडगिल की हिन्दी लघुकथा ‘स्नेहरस’ एवं मराठी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  

आज प्रस्तुत है  सर्वप्रथम सुश्री वसुधा गाडगिल जी की  मूल हिंदी लघुकथा  ‘स्नेहरस ’ एवं  तत्पश्चात श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  द्वारा मराठी भावानुवाद  ‘स्नेहरस

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #5 ☆ 

सुश्री वसुधा गाडगिल

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री वसुधा गाडगिल जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है । पूर्व प्राध्यापक (हिन्दी साहित्य), महर्षि वेद विज्ञान कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, जबलपुर, मध्य प्रदेश. कविता, कहानी, लघुकथा, आलेख, यात्रा – वृत्तांत, संस्मरण, जीवनी, हिन्दी- मराठी भाषानुवाद । सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक, भाषा तथा पर्यावरण पर रचना कर्म। विदेशों में हिन्दी भाषा के प्रचार – प्रसार के लिये एकल स्तर पर प्रयत्नशील। अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलनों में सहभागिता, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ,आकाशवाणी , दैनिक समाचार पत्रों में रचनाएं प्रकाशित। हिन्दी एकल लघुकथा संग्रह ” साझामन ” प्रकाशित। पंचतत्वों में जलतत्व पर “धारा”, साझा संग्रह प्रकाशित। प्रमुख साझा संकलन “कृति-आकृति” तथा “शिखर पर बैठकर” में लघुकथाएं प्रकाशित , “भाषा सखी”.उपक्रम में हिन्दी से मराठी अनुवाद में सहभागिता। मनुमुक्त मानव मेमोरियल ट्रस्ट, नारनौल (हरियाणा ) द्वारा “डॉ. मनुमुक्त मानव लघुकथा गौरव सम्मान”, लघुकथा शोध केन्द्र , भोपाल द्वारा  दिल्ली अधिवेशन में “लघुकथा श्री” सम्मान । वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। )

☆ स्नेहरस 

कॉलोनी की दूसरी गली में बड़े से प्लॉट पर बहुमंज़िला इमारत बन रही थी। प्लॉट के एक ओर ईंटों की चारदीवारी बनाकर चौकीदार ने पत्नी के साथ छोटी – सी गृहस्थी बसाई थी। चारदीवारी में कुल जमा चार बर्तनों की रसोई भी थी। वहीं बगल से मिश्रा चाची शाम की सैर से लौट रही थीं। उनकी वक्र दृष्टि दीवार पर ठहर गई ! ईंटों के बीच स्वमेव बने  छेदों से धुंआँ निकल रहा था। धुंआँ देख मिश्रा चाची टाट के फटे पर्दे को खींचकर तनतनायीं

“कैसा खाना बनाती है ! पार्किंग में धुँआँ फैल जाता है  तड़के की गंध फैलती है सो अलग ! हें…”

पति की थाली में कटोरी में दाल परोसती चौकीदार की पत्नी के हाथ एक पल के लिये रूक गये फिर कटोरी में दाल परोसकर थाली लेकर मिश्रा चाची के करीब आकर वह प्रेमभाव से बोली

“आओ ना मैडमजी, चख कर तो देखो !”

गुस्से से लाल – पीली हुई मिश्रा चाची ने  चौकीदारीन को तरेरकर देखा । दड़बेनुमा कमरे में फैली महक से अचानक मिश्राचाची की नासिका फूलने लगी और रसना  ललचा उठी !उन्होंने थाली में रखी कटोरी मुँह को लगा ली। दाल चखते हुए बोलीं

“सुन , मेरे घर खाना बनाएगी ?”

चौकीदारीन के मन का स्नेह आँखों और हाथों के रास्ते  मिश्रा चाची के दिल तक पहुँच चुका था!

 

– डॉ. वसुधा गाडगीळ , इंदौर.© वसुधा गाडगिल

संपर्क –  डॉ. वसुधा गाडगिल  , वैभव अपार्टमेंट जी – १ , उत्कर्ष बगीचे के पास , ६९ , लोकमान्य नगर , इंदौर – ४५२००९. मध्य प्रदेश.

❃❃❃❃❃❃

☆ स्नेहरस 

(मूल कथा – स्नेहरस मूल लेखिका – डॉ. वसुधा गाडगीळ अनुवाद – उज्ज्वला केळकर)

कॉलनीच्या दुसर्‍या गल्लीत मोठ्या प्लॉटवर एक बहुमजली इमारत होत होती. प्लॉटच्या एका बाजूला विटांच्या चार भिंती  बनवून चौकीदाराने आपल्या पत्नीसमवेत छोटासा संसार मांडला होता. चार भिंतीत एकूण चार भांडी असलेलं स्वैपाकघरही होतं. मिश्रा आंटी आपलं संध्याकाळचं फिरणं संपवून त्याच्या शेजारून चालली होती. विटांच्यामध्ये आपोआप पडलेल्या भेगातून धूर बाहेर येत होता. मिश्रा आंटी आपलं संध्याकाळचं फिरणं संपवून त्याच्या शेजारून चालली होती. धूर बघून मिश्रा आंटीनं तरटाचा फाटका पडदा खेचला आणि तणतणत म्हणाली,

‘कसा स्वैपाक करतेयस ग! पार्किंगमध्ये सगळा धूरच धूर झालाय. फोडणीचा वास पसरलाय, ते वेगळच. पतीच्या थाळीतील वाटीत डाळ वाढता वाढता तिचा हात एकदम थबकला. मग वाटीत डाळ घालून ती थाळीत ठेवत ती मिश्रा काकीच्या जवळ आली आणि प्रेमाने म्हणाली, ‘या ना मॅडम, जरा चाखून तर बघा.

रागाने लाल – पिवळी झालेली मिश्रा काकी तिच्याकडे टवकारून बघू लागली. त्या डबकेवजा खोलीत पसरलेल्या डाळीच्या सुगंधाने अचानक मिश्रा काकीच्या नाकपुड्या फुलू लागल्या. जिभेला पाणी सुटलं. तिने थाळीतली वाटी तोंडाला लावली. डाळीचा स्वाद घेत ती म्हणाली,

‘काय ग, उद्यापासून माझ्या घरी स्वैपाकाला येशील?

चौकीदारणीच्या मनाचा स्नेह, डोळे आणि हातांच्या रस्त्याने मिश्रा काकीच्या हृदयापर्यंत पोचला होता.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 1 – साक्षीदार ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे

श्री शेखर किसनराव पालखे

( मराठी साहित्यकार श्री शेखर किसनराव पालखे जी  लगातार स्वान्तः सुखाय सकारात्मक साहित्य की रचना कर रहे हैं । आपकी रचनाएँ ह्रदय की गहराइयों से लेखनी के माध्यम से कागज़ पर उतरती प्रतीत होती हैं। हमारे प्रबुद्ध पाठकों का उन्हें प्रतिसाद अवश्य मिलेगा इस अपेक्षा के साथ हम आपकी  रचनाओं को हमारे प्रबुद्ध पाठकों तक आपके साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य शीर्षक से प्रत्येक शुक्रवार पहुँचाने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता  “साक्षीदार”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य # 1 ☆

☆ कविता – साक्षीदार ☆

 

एका रमणीय भूतकाळाचा

वारसा असलेलो आपण

एका उध्वस्त होऊ घातलेल्या

वर्तमानाचे साक्षीदार होऊन

नक्की कुठे चाललो आहोत?…

एका भयावह विनाशाकडे

की त्याच्याही शेवटाकडे?…

का उभे आहोत आणखी एका

नवीन सृजनाच्या उंबरठ्यावर…

याच अस्वस्थ जाणिवेच्या विवंचनेत

घुटमळतोय माझा आत्मा…

येऊ नये त्याच्याही आत्म्याच्या मनावर

भूतकाळातील पापांचे ओझे…

लाभो त्याला सदगती-

हीच एकमेव सदिच्छा!!!

तेवढंच करणं माझ्या हाती…

 

© शेखर किसनराव पालखे 

पुणे

12-04-20

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य – श्रावण येतो  आहे ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  श्रवण माह पर विशेष कविता  “श्रावण येतो  आहे )

☆ विजय साहित्य – श्रावण येतो  आहे ☆

 

पर्णफुलांचे ध्वज उंचावीत , श्रावण येतो  आहे.

फुलवित हिरवी स्वप्ने आपली,श्रावण येतो आहे. ||धृ.||

 

घनगर्भित नभ गर्द सावळे, इंद्रधनुची अवखळ बाळे

तनामनावर लाडे लाडे, कोण उचलूनी घेतो आहे?

पर्णफुलांचे ध्वज उंचावीत , श्रावण येतो  आहे.

फुलवित हिरवी स्वप्ने आपली,श्रावण येतो आहे. ||1||

 

भिजली झाडे,भिजली माती,सुगंध मिश्रीतअत्तरदाणी

अन् चंदेरी गुलाबपाणी,  कोण धरेवर शिंपीत आहे?

पर्णफुलांचे ध्वज उंचावीत , श्रावण येतो  आहे.

फुलवित हिरवी स्वप्ने  आपली, श्रावण येतो  आहे. ||2||

 

श्रावण मासी,हर्ष मानसी,मनात हिरव्या ऊन सावली.

रविकिरणांची लपाछपी ती,कोण चोरूनी बघतो आहे ?

पर्णफुलांचे ध्वज उंचावीत , श्रावण येतो  आहे.

फुलवित हिरवी स्वप्ने आपली, श्रावण येतो  आहे. ||3||

 

किलबिल डोळे तरूवेलींवर,चिमणपाखरे गिरिशिखरांवर

ओल्या चोची,ओला चारा, कोण कुणाला भरवत आहे?

पर्णफुलांचे ध्वज उंचावीत , श्रावण येतो  आहे.

फुलवित हिरवी स्वप्ने  आपली, श्रावण येतो  आहे. ||4||

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 39 ☆ लघुकथा – माँ दूसरी तो बाप तीसरा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री पर विमर्श करती लघुकथा माँ दूसरी तो बाप तीसरा ।  यह अक्सर देखा गया है कि प्रथम पत्नी के बाद बच्चों के देखभाल के नाम से दूसरी पत्नी ब्याह लाता है। इस कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 39 ☆

☆  लघुकथा – माँ दूसरी तो बाप तीसरा 

कभी कुछ बातें खौलती हैं भीतर ही भीतर, इतना तर्क – वितर्क दिल दिमाग में कि आग विचारों का तूफान- सा ला देती है। ऐसे ही एक पल में पति के यह कहने पर कि करती क्या हो तुम दिन भर घर में ? वह कह गई  – हाँ ठीक कह रहे हो तुम, औरतें कुछ नहीं करतीं घर में, बिना उनके किए ही होते हैं पति और बच्चों के सब काम घर में। लेकिन जब असमय मर जाती हैं तब तुरंत ही लाई जाती है एक नई नवेली दुल्हन फिर से, घर में कुछ ना करने को ?

एक बार नहीं बहुत बार यह वाक्य उसके कानों में गर्म तेल के छींटों – सा पड़ा था, जब दिन भर घर के कामों में खटती माँ या दादी को घर के पुरुषों से कहते सुना था – करती क्या हो घर में सारा दिन ? वे नहीं दे पातीं थीं हिसाब घर के उन छोटे – मोटे हजार कामों का जिनमें दिन कब निकल जाता है, पता ही नहीं चलता। नहीं कह पाती थीं वे बेचारी कि हम ही घर की पूरी व्यवस्था संभाले हैं खाने से लेकर कपडों तक और बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक की। जिसका कोई मोल नहीं, कहीं गिनती नहीं। हाँ,शरीर लेखा जोखा रखता उनके दिन भर के कामों का, पिंडलियों में दर्द बना ही रहता और कमर दोहरी हो जाती थी काम करते करते उनकी।

सोचते – सोचते कड़वाहट- सी घुल गई मन में, आँखें पनीली हो आई। उभरी कई तस्वीरें, गड्ड – मड्ड होते थके, कुम्हलाए चेहरे माँ, दादी और – सच ही तो है, एक विधवा स्त्री अपने बच्चों के पालन पोषण के लिए  माता- पिता  बन संघर्ष करती पूरा जीवन बिता देती है। लेकिन पुरुष घर और बच्चों की देखभाल के नाम पर कभी – कभी साल भर के अंदर ही दूसरी पत्नी ले आता है। पहली पत्नी इतने वर्ष घर को संभालने में खटती रही, वह सब दूसरी शादी के मंडप तले होम हो जाता है। बच्चों की देखभाल के लिए की गई दूसरी शादी के बारे में दादी से सुना था कि माँ दूसरी तो बाप तीसरा हो जाता है ?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 58 – गुरुदक्षिणा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “गुरुदक्षिणा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 58 ☆

☆ लघुकथा – गुरुदक्षिणा ☆

” आज समझ लो कि उपथानेदार साहब तो गए काम से ,” एक सिपाही ने कहा तो दूसरा बोला,” ये रामसिंह है ही ऐसा आदमी. हर किसी को लताड़ देता है. इसे तो सस्पैंड होना ही चाहिए.”

” देख लो इस नए एसपी को, कितनी कमियां बता रहा है,” पहले सिपाही ने कहा तो दूसरा बोला,” इस एसपी को पता है कि कहां क्या क्या कमियां है,” दूसरे ने विजयभाव से हंस कर कहा.

तभी दलबल के साथ एसपी साहब थानेदार के कमरे में गए. रामसिंह ने अपनी स्थिति में तैयार हुए. झट से अपने अधिकारी के साथ एसपी साहब को सैल्यूट जड़ दिया.

जवाब में सैल्यूट देते हुए एसपी साहब उपथानेदार के चरण स्पर्श करने को झूके. तब उन्हों ने झट से कहा, ” अरे साहब ! यह क्या करते हैं ? मैं तो आप का मातहत हूं.” उन के मुंह से भय और आश्चर्य से शब्द निकल नहीं पा रहे थे .

” जी गुरूजी !” एसपी साहब ने कहा, ” मैं सिपाही था तब यदि आप ने इतना भयंकर तरीके से मुझे न लताड़ा होता तो उस वक्त मेरे तनमन में आग नहीं लगतीऔर मैं आज एसपी नहीं होता. इस मायने में आप मेरे गुरू हुए,” कहने के साथ एसपी साहब तेजी से अपने दलबल के साथ चल दिए, ” सभी सुन लों. मैं ने जो जो कमियां बताई हैं उसे पंद्रह दिन में ठीक कर ​लीजिएगा अन्यथा….”

तेजी से आती हुई इस आवाज़ को उपथानेदार साहब अन्य सिपाहियों के साथ जड़वत खड़े सब सुनते रहे. उन्हें समझ में नहीं आया कि यह सब क्या हो रहा है ?

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२७/१२/२०१९

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

Please share your Post !

Shares