हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 72 ☆ राजभाषा विशेष – भाषायें  अनुपूरक होती हैंं  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  राजभाषा माह के अंतर्गत एक विशेष आलेख  भाषायें  अनुपूरक होती हैंं ।  इस विचारणीय समसामयिक आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 72 ☆

☆ राजभाषा विशेष – भाषायें  अनुपूरक होती हैंं ☆

चरित्र प्रमाण पत्र का अपना महत्व होता है, स्कूल से निकलते समय हमारे  मा

 

 

 

संविधान सभा में देवनागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है. स्वाधीनता आन्दोलन के सहभागी रहे हमारे नेता जिनके प्रयासो से हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया  आखिर क्यो चाहते थे कि हिन्दी  केन्‍द्र और प्रान्तों के बीच संवाद की भाषा बने? स्पष्ट है कि वे एक लोकतांत्रिक राष्ट्र का सपना देख रहे थे जिसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी थी. उन मनीषियो ने एक ऐसे नागरिक की कल्पना थी जो बौद्धिक दृष्टि से तत्कालीन राजकीय  संपर्क भाषा अंग्रेजी का पिछलग्‍गू नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर हो.  यही स्वराज अर्थात अपने ऊपर अपना ही शासन की अवधारणा की संकल्पना  भी थी.  इस कल्पना में आज भी वही शक्ति है.  इसमें आज भी वही राष्ट्रीयता का आकर्षण है.

आजादी के बाद से आज तक अगर एक नजर डालें तो हमें दिखता है कि भारत की जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा इस बीच हिन्दी, उर्दू, मराठी, गुजराती, कन्नड़, तमिल, तेलगू आदि भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही साक्षर हुआ है. आजादी के समय 100 में 12 लोग साक्षर थे,  आज साक्षरता का स्तर बहुत बढ़ा है.  इस बीच भारत की आबादी भी बहुत अधिक बढ़ी है,अर्थात आज ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो हिन्दी में पढ़ना-लिखना जानते हैं.

हिन्दी आज ३० से अधिक देशो में ८० करोड़ लोगो की भाषा  है.विश्व हिन्दी सम्मेलन सरकारी रूप से आयोजित होने वाला हिन्दी पर केंद्रित  महत्वपूर्ण आयोजन है.  यह सम्मेलन प्रत्येक तीसरे वर्ष आयोजित किया जाता है। इस वर्ष यह आयोजन मारीशस में आयोजित हो रहा है.वैश्विक स्तर पर भारत की इस प्रमुख भाषा के प्रति जागरुकता पैदा करने, समय-समय पर हिन्दी की विकास यात्रा का मूल्यांकन करने, हिन्दी साहित्य के प्रति सरोकारों को मजबूत करने, लेखक-पाठक का रिश्ता प्रगाढ़ करने व जीवन के विवि‍ध क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से 1975 से विश्व हिन्दी सम्मेलनों की श्रृंखला आरंभ हुई है । हिन्दी को वैश्विक सम्मान दिलाने की  परिकल्पना को पूरा करने की दिशा में विश्वहिन्दी सम्मेलनो की भूमिका निर्विवाद है.

सम्मेलन में विश्व भर से हि्दी अनुरागी भाग लेते हैं. जिनमें गैर हिन्दी मातृ भाषी ‘हिन्दी विद्वान’ भी शामिल होते हैं। 1975 में नागपुर में पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के सहयोग से  संपन्न हुआ था,  जिसमें विनोबा जी ने हिन्दी को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित किये जाने हेतु संदेश भेजा था. उसके बाद मॉरीशस, ट्रिनिदाद एवं टोबैको, लंदन, सूरीनाम में ऐसे सम्मेलन हुए।  इनमें से कम से कम चार सम्मेलनों में संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप स्थान दिलाये जाने संबंधी प्रस्ताव पारित भी हुए.

यह सम्मेलन प्रवासी भारतीयों के ‍लिए बेहद भावनात्मक आयोजन होता है. क्योंकि ‍भारत से बाहर रहकर हिन्दी के प्रचार-प्रसार में वे जिस समर्पण और स्नेह से भूमिका निभाते हैं उसकी मान्यता और प्रतिसाद भी उन्हें इसी सम्मेलन में मिलता है. निर्विवाद रूप से देश से बाहर और देश में भी हम सब को एकता के सूत्र में जोड़ने में हिन्दी की व्यापक भूमिका है. अनेक हिन्दी प्रेमियो के द्वारा निजी व्यय व व्यक्तिगत प्रयासो से विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे सरकारी आयोजनो के साथ ही समानान्तर प्रयास भी किये जा रहे हैं.  स्वंयसेवी आधार पर हिंदी-संस्कृति का प्रचार-प्रसार, भाषायी सौहार्द्रता तथा सामूहिक रूप से सांस्कृतिक अध्ययन-पर्यटन सहित एक दूसरे से अपरिचित सृजनरत रचनाकारों के मध्य परस्पर रचनात्मक तादात्म्य के लिए अवसर उपलब्ध कराना भी ऐसे आयोजनो का उद्देश्य है. इस तरह के प्रयास  समर्पित हिन्दी प्रेमियो का एक यज्ञ हैं. विश्व हिन्दी सम्मेलनो की प्रासंगिकता हिन्दी को विश्व  स्तर पर प्रतिष्ठित करने में है.प्रायः ऐसे सम्मेलनो में हिस्सेदारी और सहभागिता प्रश्न चिन्ह के घेरे में रहती है क्योकि लेखक, रचनाकार, साहित्यकार होने के कोई मापदण्ड निर्धारित नही किये जा सकते. सत्ता पर काबिज लोग अपने लोगो को हिन्दी के ऐसे पवित्र यझ्ञ के माध्यम से उपकृत करने से नही चूकते.यही हाल हिन्दी को लेकर सरकारी सम्मानो और पुरस्कारो का भी रहता है. वास्तविक रचनाधर्मी अनेक बार स्वयं को ठगा हुआ महसूस करता है. अस्तु.

शहरों, छोटे कस्बों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भी आज मोबाइल के माध्यम से इन्टरनेट का उपयोग बढ़ता जा रहा है. ऐसे में इस नये संपर्क माध्यम को हिन्दी सक्षम बनाना, हिन्दी में तकनीकी, भाषाई, सांस्कृतिक जानकारियां इंटरनेट पर सुलभ करवाने के व्यापक प्रयास आवश्यक हैं. सरल हिंदी के माध्यम से विद्यार्थियों, शिक्षकों, व्यापारियों एवं जन सामान्य हेतु  व्यापार के नए आयाम खोज रहे हर एक हिंदी भाषी भारतीय का न सिर्फ ज्ञान वर्धन बल्कि एक सफल भविष्य-वर्धन अति आवश्यक है. विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों में ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ व्यापारियों ने एक छोटी सी सोच को बड़ा व्यापार बनाया है. भाषा का इसमें बड़ा योगदान रहा है. चिंतन मनन हिन्दी के अनुकरण प्रयोग को बढ़ावा देने, विचारों को जागृत करना ही विश्व हिन्दी सम्मेलनो, हिन्दी दिवस के आयोजनो का मूल उद्देश्य  है.

प्रायः जब भी हिन्दी की बात होती है तो इसे अंग्रेजी से तुलनात्मक रूप से देखते हुये क्षेत्रीय भाषाओ की प्रतिद्वंदी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. यह धारणा नितांत गलत है. आपने कभी भी हाकी और फुटबाल में, क्रिकेट और लान टेनिस में या किन्ही भी खेलो में परस्पर प्रतिद्वंदिता नही देखी होगी. सारे खेल सदैव परस्पर अनुपूरक होते हैं, वे शारीरिक सौष्ठव के संसाधन होते हैं, ठीक इसी तरह भाषायें अभिव्यक्ति का माध्यम होती हैं, वे संस्कृति की संवाहक होती हैं वे परस्पर अनुपूरक होती हैंं प्रतिद्वंदी तो बिल्कुल नही यह तथ्य हमें समझने और समझाने की आवश्यकता है. इसी उदार समझ से ही हिन्दी को राष्ट्र भाषा का वास्तविक दर्जा मिल सकता है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 34 ☆ नाले पर ताला ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “नाले पर ताला”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 34 – नाले पर ताला ☆

बरसाती उफान आते ही नालों की पूछ परख बढ़ जाती है। तेज बारिश में सड़कें  अपना अस्तित्व मिटा नाले में समाहित होकर, नाले के पानी को घर  तक पहुँचा देतीं हैं। सच कहूँ तो अच्छी बारिश होने का मतलब है, शहर का जलमग्न होना। जितना बड़ा शहर उतनी ही बड़ी उसके जलमग्न होने की खबर।

पहली बारिश में ही जन जीवन अस्त- व्यस्त हो, नगर निगम द्वारा किये गए; सफाई के कार्यों की पोल खोल कर रख देता है। सड़क पर चल रहे वाहन वहीं थम जाते हैं। और तो और सड़कों पर नाव चलने की खबरें भी टीवी पर दिखाई जाती है। इतने खर्चे से नालों का निर्माण होता है। सफाई होती है, शहर का विकास व  सारे घर नगर निगम की अनुमति से ही बनते हैं, फिर भी जल निकासी की सुचारू व्यवस्था नहीं दिखती।

कारण साफ है कि सबको अपनी – अपनी जेब भरने से फुर्सत मिले तब तो सारे कार्यों को करें। नालों की चौड़ाई अतिक्रमण का शिकार हो रही है,और गहराई कचरे का। बहुत से लोग इसे डस्टबीन की तरह प्रयोग कर सारा कचरा इसमें ही फेंकते हैं।

जब हल्ला मचता है, तो नेता जी सहित नगर निगम के कर्मचारी आकर सर्वे करते हैं, और मुआवजा देने की बात कह कर आगे बढ़ जाते हैं। आनन- फानन में सभी लोग अपने नुकसान की पूर्ति हेतु, आधार कार्ड व बैंक पासबुक की फ़ोटो कापी जमा कर देते हैं।

वर्ष में तीन- चार बार तो बाढ़ पीड़ितों की चर्चा; अखबारों की सुर्खियाँ बनतीं हैं। सचित्र,लोगों के दुख दर्द, का व्योरा प्रकाशित होता है। नालों पर बनें हुए घर, दुकान व अन्य अतिक्रमण की भी फोटो छपती है। लोगों को जमीन की इतनी भूख होती है, कि वे जल निकासी कैसे होगी इसका भी ध्यान नहीं देते। जहाँ जी चाहा वैसा बदलाव अपने आशियानें में कर देते हैं। नाला तो मानो सबकी बपौती है, इस पर  कोई दुकान, कोई अपनी बाउंडरी बाल या कुछ नहीं तो सब्जियाँ ही उगाने लगता है। ऐसा लगता है, कि सारे कार्य इसी जमीन पर होने हैं।

सारे लोग जागते ही तभी हैं, जब आपदा सिर पर सवार हो जाती है, कुछ दिन रोना- धोना करके, पुनः अपने ढर्रे पा आ जाते हैं।

खैर डूबने – उतराने  का खेल तो इसी तरह चलता ही रहेगा, आखिरकार यही तो सबसे बड़ा गवाह बनता है, कि इस शहर में, प्रदेश में,  सूखा नहीं रहा है। जम कर बारिश हुई है, जिससे फसल भरपूर होगी। और हर किसान मुस्कायेगा।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 64 – हाइबन – तोरणद्वार ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “तोरणद्वार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 64 ☆

☆ तोरणद्वार ☆

खोर ग्राम स्थित बिरला सीमेंट फैक्ट्री तहसील-जावद, जिला- नीमच के पास0 ग्रेनाइट पत्थर पर नक्काशीदार यह तोरणद्वार का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इसका महत्व देखते हुए इसे पुरातत्व महत्व का स्थान घोषित किया गया है । मगर इस तरुणद्वार पर स्थापित शिलालेख पर 11वीं शताब्दी के संग्रहणीय इमारत का उल्लेख मिलता है।

सीमेंट फैक्ट्री के नजदीक स्थित्व यह खूबसूरत स्थान नक्काशीदार नंदी और तोरणस्तंभ की बारीक कारीगरी देखने लायक है । अरावली श्रंखला के नजदीक बसे इस स्थान के बारे में कहा जाता है कि प्राचीन समय में यहां से चित्तौड़गढ़ किले तक जमीन में एक गुप्त रास्ता जाता था । इस रास्ते  से होकर राजा महाराजा, जासूस और उनकी सेनाएं गुप्त रूप से आतीजाती थी।

नीमच से चित्तौड़ या उदयपुर रास्ते में जाते समय राजस्थान सीमा से 8 किलोमीटर उत्तर में स्थित यह स्थान और बिरला फैक्ट्री के नजदीक स्थित है।  जहां पर यत्रतत्र नक्काशीदार पत्थर बिखरे पड़े हैं जो किसी विशेष कहानी को अपनी भाषा में बयान करते नजर आते हैं।

तोरणद्वार~

सेल्फी लेते फिसली

नवब्याहता।

~~~~~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

21-08-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 41 ☆ संकल्प मन में ठान ले ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक नवगीत  “संकल्प मन में ठान ले .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 41 ☆

☆ संकल्प मन में ठान ले  ☆ 

 

जिंदगी हर पल परीक्षा ले रही है मान ले।

आत्मा तो अंश है भगवान का यह जान ले।।

 

यह जरूरी है नहीं  मिल जाए सब आसानी से।

लक्ष्य पाने के लिए संकल्प मन में ठान ले।।

 

चाहता है, तू अगर जीना खुशी के साथ में।

वक्त कुछ अपने लिए भी कीमती पहचान ले।।

 

दुःख देता है न कोई और ना  ही सुख तुम्हें।

कर्म का प्रतिफल सुनिश्चित है यही संज्ञान ले।।

 

शोर कोलाहल अहम अभिमान भटकाता सदा।

मुक्ति पाना है अगर तो मुक्ति के अरमान ले।।

 

मिट नहीं सकती कभी हस्ती अगर प्रभु साथ हैं।

चक्र सो जा छोड़ चिंता और चादर तान ले।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पाऊले चालती चालती ☆ श्रीमती सुधा भोगले

☆ कवितेचा उत्सव ☆ पाऊले चालती चालती ☆ श्रीमती सुधा भोगले ☆ 

 

पाऊले चालती चालती अध्यात्माची वाट

साधकाच्या मानसात चैतन्याची झाली पहाट || ध्रु ||

पूज्य गुरूंनी लावला सत्संगाचा लळा

इथे येतो दिव्यत्वाचा प्रत्ययही वेगळा || १ ||

फुलती इथे हरीभक्तिचे हिरवागार मळे

 गुरुच्या सहवासाने जीवा-शिवाची भेट कळे || २ ||

प्रभूचरणाशी समर्पणाने अहंकार लोपला

कैवल्याचे दर्शन होता आत्मा पावन झाला || ३ ||

अध्यात्माच्या वाटेवरचा गिरविला ओनामा

ब्रम्हपदी पोहचू आम्ही कां मोक्ष धामा || ४ ||

पाऊले चालती चालती अध्यात्माची वाट

साधकाच्या मानसात चैतन्याची झाली पहाट || ध्रु ||

© श्रीमती सुधा भोगले 

९७६४५३९३४९ / ९३०९८९८९१९

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 63 – आशाओं के द्वार खुलेंगे .. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना आशाओं के द्वार खुलेंगे…… । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 63 ☆

☆ आशाओं के द्वार खुलेंगे ….  ☆  

 

सिकुड़े सिमटे पेट

पड़े रोटी के लाले

दुर्बल देह मलीन

पैर में अनगिन छाले

मन में है उम्मीद

कभी कुछ तो बदलेगा

इस बीहड़ में कब तक खुद को रहे संभाले।।

 

सूरज के संग उठें

रात तक करें मजूरी

घर आकर सुस्ताते

बीड़ी जलाते सोचें,

क्यों रहती है भूख

हमारी रोज अधूरी,

कौन छीन लेता है अपने हक के रोज निवाले।।

 

अखबारों में

अंतिम व्यक्ति की तस्वीरें

बहलाते मंसूबे

स्वप्न मनभावन लगते

और देखता फिर

हाथों की घिसी लकीरें

क्या अपनी काली रातों में होंगे कभी उजाले।।

 

अपना मन बहलाव

एक लोटा अरु थाली

इन्हें बजा जब

पेट पकड़कर गीत सुनाते

बहती मिश्रित धार

बजे सुख-दुख की ताली।

आशाओं के द्वार खुलेंगे, कब बंधुआ ताले।।

 

रोज रात में

पड़े पड़े गिनते हैं तारे

जितना घना अंधेरा

उतनी चमक तेज है

क्या मावस के बाद

पुनम के योग हमारे

बदलेंगे कब ये दिन और छटेंगे बादल काले।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 44 – बापू के संस्मरण-17- मैं फरिश्ता नहीं, छोटा सा सेवक हूँ ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “महात्मा गांधी और राष्ट्र भाषा”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 17 – मैं फरिश्ता नहीं, छोटा सा सेवक हूँ ☆ 

नोआखली-यात्रा के समय की बात है । गांधीजी चलते-चलते एक गांव में पहुंचे ।

वहां किसी परिवार में नौ-दस वर्ष की एक लड़की बहुत बीमार थी । उसके मोतीझरा निकला था । उसी के साथ निमोनिया भी हो गया था । बेचारी बहुत दुर्बल हो गई थी । मनु को साथ लेकर गांधीजी उसे देखने गये । लड़की के पास घर की और स्त्रियां भी बैठी हुई थीं । गांधीजी को आता देखकर वे अंदर चली गईं । वे परदा करती थीं ।

बेचारी बीमार लड़की अकेली रह गई । झोंपड़ी के बाहरी भाग में उसकी चारपाई थी । गांव में रोगी मैले-कुचैले कपड़ों में लिपटे गंदी-से-गंदी जगह में पड़े रहते । वही हालत उस लड़की की थी ।

मनु उन स्त्रियों को समझाने के लिए घर के भीतर गई।  कहा, ” तुम्हारे आंगन में एक महान संत-पुरुष पधारे हैं । बाहर आकर उनके दर्शन तो करो ।” लेकिन मनु की दृष्टि में जो महान पुरुष थे, वही उनकी दृष्टि में दुश्मन थे । उनके मन में गांधीजी के लिए रंचमात्र भी आदर नहीं था । स्त्रियों को समझाने के बाद जब मनु बाहर आई तो देखा, गांधीजी ने लड़की के बिस्तर की मैली चादर हटाकर उस पर अपनी ओढ़ी हुई चादर बिछा दी है । अपने छोटे से रूमाल से उसकी नाक साफ करदी है । पानी से उसका मुंह धो दिया है । अपना शाल उसे उढ़ा दिया है और कड़ाके की सर्दी में खुले बदन खड़े-खड़े रोगी के सिर पर प्रेम से हाथ फेर रहे हैं । इतना ही नहीं बाद में दोपहर को दो तीन बार उस लड़की को शहद और पानी पिलाने के लिए उन्होंने मनु को वहां भेजा । उसके पेट और सिर पर मिट्टी की पट्टी रखने के लिए भी कहा. मनु ने ऐसा ही किया । उसी रात को उस बच्ची का बुखार उतर गया ।

अब उस घर के व्यक्ति, जो गांधीजी को अपना दुश्मन समझ रहे थे, अत्यंत भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम करने आये  बोले,”आप सचमुच खुदा के फरिश्ते हैं । हमारी बेटी के लिए आपने जो कुछ किया, उसके बदले में हम आपकी क्या खिदमत कर सकते हैं?” गांधीजी ने उत्तर दिया, “मैं न फरिश्ता हूं और न पैगम्बर , मैं तो एक छोटा-सा सेवक हूं। इस बच्ची का बुखार उतर गया, इसका श्रेय मुझे नहीं है । मैंने इसकी सफाई की । इसके पेट में ताकत देने वाली थोड़ी सी खुराक गई, इसीलिए शायद बुखार उतरा है ।

अगर आप बदला चुकाना चाहते हैं तो निडर बनिये और दूसरों को भी निडर बनाइये. यह दुनिया खुदा की है । हम सब उसके बच्चे हैं । मेरी यही विनती है कि अपने मन में तुम यही भाव पैदा करो कि इस दुनिया में सभी को जीने-मरने का समान अधिकार है ।”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 14 – वक्त कभी रुकता नहीं ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता वक्त कभी रुकता  नहीं ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 14 – वक्त कभी रुकता नहीं

 

जीवन वक्त के पीछे चलता है, वक्त कभी रुकता नहीं,

हम वक्त को नजरअंदाज करते है वक्त कभी नजरअंदाज करता नही ||

 

जीवन-चक्र वक्त का गुलाम है, वक्त कभी टूटता नही,

मत करो नजरअंदाज वक्त को,वक्त कभी वापिस लौट कर आता नहीं ||

 

दिन रात चलता है वक्त, वक्त घड़ी देखकर चलता नहीं,

चकते-चलते जीवन रुक जाता है मगर वक्त कभी रुकता नहीं ||

 

हिम्मत हारने से कुछ नहीं होता, वक्त के साथ हम चलते नहीं,

ये हमारी फिदरत है वक्त के भरोसे रह जिंदगी में कुछ करते नही ||

 

हम भले बुरे में वक्त का बंटवारा करते, वक्त कभी कुछ कहता नहीं,

अच्छा बुरा वक्त हमारी सोच है, वक्त अपना बंटवारा करता  नहीं ||

 

वक्त के संग जिंदगी गुजार ले, वक्त जिंदगी के लिए रुकता नहीं,

जिंदगी झुक जाएगी वक्त के आगे, वक्त जिंदगी के आगे कभी झुकता नहीं ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 65 – कोरोना ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक समसामयिक विषय पर आधारित विचारणीय कविता  कोरोना। सुश्री प्रभा जी ने इस कविता के माध्यम से  वैश्विक महामारी पर गंभीर विमर्श किया है। आज इस वाइरस के कारण मानवजाति के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग गया है। मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे। आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 65 ☆

☆ कोरोना ☆

प्रथम पाहिली बातमी,

चीनमध्ये पसरलेल्या,

या भयानक विषाणू संसर्गाची,

वटवाघूळाच्या भक्षणाने,

झालेल्या आजाराची!

 

अनेक अफवा, तर्कवितर्क,

हा विषाणू पक्षाप्राण्यातून आलाय

की प्रयोगशाळेत तयार केलाय,

मानवाने मानुष्यजातीच्या

विनाशासाठी…….??

 

जगभर पसरलेली ही लागण,

सगळेच व्यवहार ठप्प!

जग थांबले आहे जणू

स्टॅच्यूच्या खेळासारखे!!

 

मी घरात बंद गेले सहा महिने,

विश्वशांती,विश्वाचे आरोग्य,

सांभाळणारा विधाताही

बंद देवळात…..

आणि आम्ही करतोय प्रार्थना…

ए मालिक तेरे बंदे हम…..

 

आम्ही करतोय कविता,

घेतोय वाफ नाकातोंडात

व्हाटस् एप्प वर वाचतोय

सुरक्षित रहाण्याचे उपाय….

 

मोबाईल वर वाजतेय धून

बाहेर न पडण्याविषयी…..

 

आणि मैत्रीण करतेय आग्रह…

गाठीभेटीचा….

पण गावात …शहरात…गल्लीत…

पसरलेला हा कोरोना–कोविड–

नाही मुभा देत कुणाच्याच घरी

जाण्याची अथवा कुणाला

घरी बोलवण्याचीही….

 

या उमाळ्याच्या गाठीभेटींपेक्षा

आवश्यकता आहे अस्तित्व

टिकविण्याची, स्वतःचं आणि इतरांचंही…..

घरात राहूनच जिंकायचे आहे युद्ध

ज्याचं त्यालाच….

सांगून टाकते निर्वाणीचं….

व्हाटस् एप्प च्याच भाषेत…

“घरी हूँ मैं बरी हूँ मै”

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (24) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

(ॐ तत्सत्‌के प्रयोग की व्याख्या)

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।

प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌।।24।।

ब्रह्मवादी इससे ही सब ‘ओम‘ का कर उच्चार

यज्ञ, दान, तप, कर्म का करते हैं व्यवहार ।।24।।

 

भावार्थ :  इसलिए वेद-मन्त्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा ‘ॐ’ इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं।।24।।

Therefore, with the utterance of “Om” are the acts of gift, sacrifice and austerity as enjoined in the scriptures always begun by the students of Brahman.।।24।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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