हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 13 – सोहराब मोदी ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : सोहराब मोदी पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 14 ☆ 

☆ सोहराब मोदी  ☆

सोहराब मोदी अपने जमाने के जाने-पहचाने इंडो-फ़ारसी नाट्यकर्मी, फ़िल्मी कलाकार, निर्देशक और निर्माता थे। उनका जन्म फ़ारसी परिवार में 02 नवम्बर 1897 को बनारस के नज़दीक रामपुर में हुआ था, उनके पिता मेरवान जी मोदी इंडीयन सिविल सर्विस में थे। उनकी परवरिश यूनाइटेड प्रोविंस (उत्तर प्रदेश) के ग्रामीण इलाक़ों में होने से उनका हिंदी और उर्दू ज़बान पर बराबर का नियंत्रण था और घर के प्रशासनिक माहौल  व घर पर अंग्रेज़ी तालीम से अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य पर भी अच्छा ख़ासा अधिकार था। सोहराब मोदी बुलंद आवाज़ के ऊँचे-पूरे क़द और मज़बूत काठी के मुकम्मिल इंसान थे।

उन्होंने शेक्सपियर के नाटक हेलमेट पर आधारित “खून ही खून”, सिकंदर, पुकार, पृथ्वी वल्लभ, झाँसी की रानी, मिर्ज़ा-ग़ालिब, जेलर और नौशेरवान-ए-आदिल नामक बेहतरीन फ़िल्में बनाईं थीं। उनकी फ़िल्मों में हमेशा एक उद्देश्यपरक संदेश होता था। फ़िल्मों में उनके योगदान के लिए उन्हें 1980 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया था।

वे स्कूली पढ़ाई पूरी करके अपने भाई केकी मोदी के साथ मिलकर 26 साल की उम्र में एक नाटक कम्पनी “आर्य सुबोध थिएटर कम्पनी” स्थापित करके पूरे देश में नाटक करते रहे। जिसकी कमाई से एक प्रोजेक्टर ख़रीदा और ग्वालियर के टाउन हाल में एक फ़िल्म दिखाई।

भारत में से बाबा साहब फाल्के 1913 से मूक फ़िल्म बनाना शुरू कर चुके थे, उनकी पहली फ़िल्म “हरिशचंद्र तारामती” थी लेकिन 1931 तक सवाक् फ़िल्मों का दौर शुरू होने से नाटक कम्पनी के नाटकों का क्रेज़ जाता रहा इसलिए सोहराब मोदी फ़िल्मों की तरफ़ मुड़ गए। उन्होंने शेक्सपियर के नाटक हेलमेट और किंग जॉन पर आधारित खून का खून और सैद-ए-हवस फ़िल्मे बनाईं लेकिन दोनों बॉक्स आफ़िस पर पिट गईं।

उन्होंने 1936 में मिनर्वा मूवी टोन नामक संस्था स्थापित की और 1938 में मीठा ज़हर और तलाक़ बनाईं जो ख़र्चा निकालने में सफल रहीं। 1939 में पुकार, 1941 में सिकंदर, 1943 में पृथ्वी-वल्लभ बनाईं। पुकार फ़िल्म बादशाह जहांगीर की न्याय व्यवस्था पर केंद्रित थी जिसमें चंद्र मोहन, नसीम बानो और कमाल अमरोही के डायलाग ने धूम मचा दी। सिकंदर भी एक बड़ी सफलता सिद्ध हुई जिसमें पृथ्वी राज कपूर बने थे सिकंदर और सोहराब मोदी ख़ुद राजा पोरस और के.एन. सिंग राजा आम्भी बने थे, फ़िल्म के डायलाग आज भी बेमिशाल माने जाते हैं। तीनों की आवाज़ बुलंद और हिंदुस्तानी का उच्चारण साफ़ था। फ़िल्म के संवाद पर दर्शक पर्दे पर सिक्कों की बारिश करते थे। बाद में एक और सिकंदर-ए-आज़म बनी थी जिसमें सिकंदर दारा सिंह और पृथ्वी राज कपूर राजा पोरस बने थे।

पृथ्वी वल्लभ फ़िल्म कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी के उपन्यास पर आधारित थी जिसमें सोहराब मोदी और दुर्गा खोटे के लम्बे डायलाग चलते हैं। नायिका रानी मृणालवती फ़िल्म के नायक का अनादर करते हुए उससे बहस करते-करते उससे प्रेम करने लगती है। सोहराब मोदी के फ़िल्मी सेट में पारसी थिएटर की झलक मिलती है। जेलर और भरोसा इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

सोहराब मोदी के उनकी फ़िल्मों की नायिका नसीम से रोमांटिक सम्बंध रहे लेकिन 1950 में शीशमहल फ़िल्म बनते समय तक उनके सम्बंधों में ठंडापन आ गया था। उसके बाद उनसे 20 साल छोटी महताब नाम की एक कलाकार उनसे नौशेरवान-ए-आदिल फ़िल्म से जुड़ी, जिससे उन्होंने 48 साल की उम्र में शादी कर ली, उनका उससे एक पुत्र महल्ली सोहराब हुआ।

सोहराब मोदी की फ़िल्म शीशमहल बम्बई की मिनर्वा थिएटर में लगी तो वे ख़ुद दर्शकों की प्रतिक्रिया पता करने वहाँ मौजूद थे, उन्होंने देखा कि सामने की कुर्सी पर बैठा एक दर्शक आँख बंद करके बैठा है। उन्होंने थिएटर के मैनेजर को बुलाकर उस दर्शक की टिकट के पैसे लौटाने को कहा। मैनेजर ने थोड़ी देर बाद आकर उन्हें बताया कि वह दर्शक अंधा है, इसलिए वह सिर्फ़ सोहराब मोदी के डायलाग सुनने आया है। सोहराब मोदी ने फ़िल्म समाप्त होने पर उस दर्शक को मैनेजर के रूम में बुलाकर उसे उस फ़िल्म के डायलाग सुनाए। फ़िल्मकार का दर्शक से ऐसा रिश्ता हुआ करता था।

मैंने भारत भवन में सोहराब मोदी की “झाँसी की रानी” फ़िल्म देखी जिसे उन्होंने अपनी बीबी महताब को लेकर बनाई थी, जिसमें वे ख़ुद झाँसी की रानी के राजगुरु की भूमिका में थे। झाँसी और लड़ाइयों की शूटिंग के साथ कसा कथानक और धाराप्रवाह डायलाग बांधे रखे रहे। सोहराब मोदी की ‘झांसी की रानी'(1953) भारतीय सिनेमा की पहली रंगीन फिल्म थी।

उन्होंने 1954 में मिर्ज़ा-ग़ालिब बनाई जिसमें सुरैया को मिर्ज़ा-ग़ालिब की महबूबा की भूमिका में उतारकर  मिर्ज़ा-ग़ालिब की ग़ज़लें उनसे गवाईं थीं। ज़फ़र, ज़ौक़, मोमिन, तिशना और सेफता को बिठाकर इस दौर की महफ़िल का समां बांधा था, वह देखते ही बनता है। फ़िल्म को राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक मिला था, तब फ़िल्म की स्क्रीनिंग के बाद नेहरु जी ने कहा था कि आपने ग़ालिब को ज़िंदा कर दिया। उन्हें 1980 में दादा साहब फाल्के अवार्ड मिला था। उनकी पत्नी ने कहा था कि फ़िल्म उनकी पहली और आख़िरी प्रेमिका थी। 28 जनवरी 1984 को 86 साल की पकी उम्र में उनका देहांत हो गया था। भारत सरकार ने 2013 में उनकी याद को अक्षुण बनाए रखने हेतु डाक टिकट जारी किया था।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे # 40 – रेल्वेत भेटलेली मस्त मैत्रीण ! ☆ श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  आज प्रस्तुत है श्रीमती उर्मिला जी  का एक विस्मरणीय संस्मरण   “रेल्वेत भेटलेली मस्त मैत्रीण  !”।  उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ केल्याने होतं आहे रे # 40 ☆

☆ रेल्वेत भेटलेली मस्त मैत्रीण  ! ☆ 

साधारण पंचवीस वर्षांपूर्वीची घटना…..

सातारा रेल्वे स्टेशनवर बंगलोरला निघालो होतो.कोरेगाव गेलं रहिमतपूर स्टेशन आलं तशी एक साधारण पस्तीशीची एक खेडवळ बाई डोक्यावर पिशवी  हातात ट्रंक घेऊन चढायचा प्रयत्न करत होती दोन्ही हात सामानाला गुंतलेले ..

मग काय..ती म्हणाली ” काय बया पायऱ्या तरी केल्यात्या ..रेल्वेवाल्यांनला इवढं सारीक कळत न्हाय..आवं बाया मानसास्नी चढाय तरी याया पायजेल का नगं .! ”

बहुधा ती पहिल्यांदाच रेल्वेने प्रवास करत असावी.

मी दाराशी जाऊन तिच्या डोक्यावरची पिशवी उचलून घेतली त्यामुळं तिचा उजवा हात मोकळा झाला मग त्या हाताच्या आधारानं ती डब्यात आली.अन् दाणकन् तो  दणकट देह समोरच्याच रिकाम्या बर्थवर दिला झोकून .म्हणाली ” ” ”  कित्ती येळ वाट पहातिया पन् गाडी म्हनून येळवर यील ती रेल्वी कसली वं…  नंनंदेच  घर टेसनापस्न जवळच हाय तवा ऐकू यत समदं..आज आमकी  गाडी दोन तास उशीराने धावत आहे.

….अवं . कसलं काय आन् फाटक्यात पाय.

..”!

” कुठं चाललाय..?

” आवं सांगलीच्या तितं आमचं गाव हाय……..”

पण तुम्ही तर आता इथं रहिमतपुरला गाडीत चढलात..?

आवं हितं माजी ननंद ऱ्हातीया म्हनलं आलोया हिकडं तवा जावांवं भिटून तिला…”

” आवं मंबईला गेलती भनीकडं .लयी दीस बलवत हुती भन म्हनलं जावावं .. मंबई बगाव..”

गेली बया पन् कसलं काय आन् शेनात पाय….!”

गेली तितं तर बया भराभरा डोक्यावर फिरतंय …..म्हनंलं ” हे गं काय? त म्हन्ती ” अगं हितं लयी गरम हुत असतं तवा पंखा लावायलाच लागतोया.

म्हनलं “. बरं हाय बया आमच्या गावाकडं कसं समदं मोकळं  ढाकळं .घरात बसा भायेर बसा कसलं भन्नाट येतया वारं……! … “कसली बया तुझी मंबई साधं वारं सुदिक पंक्यानं आन् ती बी  इकात  घियाचं…”!

तिला म्हटलं .. तुमच्या घरी पंखा नाही.. कां…?”

तशी ती ..”छ्या बया आमच्या खेड्यागावात  कशाला पायज्येल ह्यो पंका न् बिंका…! मस्त वारं सुटतया बघा….आन् त्ये बी फुकाट……”!

” आवं त्या आमच्या मंबईच्या भनीकडं सक्काळी उटले आपली बगते तर कुट्ट्ं म्हनून मोकळी जागा न्हाई ..आवं सक्काळी सक्काळी मानसाला जायाला व्हंवं कां नगं..सांगा बरं…?

नुसतीच म्हनत्यात मंबई लयी.ऽऽ…म्होट्टी….”.!”

तशी भनीन मला न्हेलं दरवाजा उगाडला न् म्हनली  “जा हितं….!..आन् बघते तं काय  तितं पादुका !…अग बया…?

पयला नमस्कार क्येला बघा ! म्हनलं देवा परवास समदा ब्येस झाला बग…तुज्या कुरपेनं…”!

तशी भन आली म्हनली ,

“अगं ताई हे काय देवळ न्हाई ह्याला संडास म्हणत्यात.सकाळी हितंच जायाचं असतया जा….. !”

म्या श्याप सांगितलं.. म्हनलं ,” म्या न्हाई बया पादुकावर पाय ठिऊन पाप डोक्यावं घ्यियाची…….!”मंग काय..?

आवं तिनं घेतलं की भायेरनं दार लावून ……न् मी  आत..हुबी….”!

कसंबसं दोन दीस काडलं बया मंबईत  न् आले बया परत.प्वाॅट लयी गच्चं झाल्यालं मंग  यस्टीनं हितंआली…”..!

आमच्या गावाला जायाला लयी येळ लागल म्हून हितं नंनंद ऱ्हाती तिच्याकडं ग्येले तितं काय म्हनत्यात ते नाटकात ते ” होल वावर इज आवर …” .! तितं ग्येले बया खळाखळा एकदा प्वाॅट रितं झालं तवा बरं वाटलं बगा….”!

विक्रेत्याच्या सामोस्यांच्या  खमंगवासाने आमची भूकही चाळवली.आम्ही सामोसे घेतले तिला म्हटलं घ्या   गरम गरम .”.. !

” नग बया , माज्या नंदनं दिलीयाकी मला डाळकांदा भाकर बांदून…मी खाईन नंतरनं…..तुम्ही खावा…!”

पण नंतर बहुधा सामोशाच्या वासानं तिलाही खावंसं वाटलं असावं मग म्हणाली…

” ये…..पोऱ्या बगु वाईच एकांदा…लयी नगं… वास ब्येष्ट येतुया…म्हनून……”!

आणि तिनंही एक घेतला चव मस्त लागतीय  म्हणल्यावर आणखी दोन खाल्ले. म्हणाली ” आता बास झालं बया.दुपारच्या जेवणाची बेगमीच झाली बगा….”!

तिचं तोंड खाण्यात गुंतल्यामुळं तेवढाच  आमच्या श्रवणेंद्रियांना विश्राम मिळाला.आम्हालाही जरा डुलकी यायला लागली…थोडा वेळ शांततेत गेला.जरा बरं वाटलं.

तिनं विचारलं..” ताई कुटं जाऊ लयी लागलीया..”

मी खुणेनेच दाखवलं तशी…

ती गेली दार उघडलन् …. ओरडली अगं बया ..ऽऽ…ऽ. हितंबी पादुका…ऽऽ…. !”

तेवढ्यात गाडी एका छोट्याशा स्टेशनवर थांबली तशी ती डब्याच्या दाराकडं धावली अन् म्हणाली ……

“आवं जरा.. ….कंडाक्टरला म्हनावं आलेचं. बरं कां………”!. असं म्हणत आम्ही काही सांगण्याच्या आधीच ती उतरुन धूम चकाट……….!

 

©️®️उर्मिला इंगळे

सातारा

दिनांक:-१२-७-२०

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 56 ☆ शांति और प्रशंसा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय एवं प्रेरक आलेख शांति और प्रशंसा।  मौन एवं ध्यान का हमारे जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है जिसका  आध्यात्मिक अनुभव हमें उम्र तथा अनुभव के साथ ही मिलता है अथवा किसी अनुभवी व्यक्ति के मार्गदर्शन से मिलता है ।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 56 ☆

☆ शांति और प्रशंसा

मानव जीवन का प्रमुख प्रयोजन है– शांति प्राप्त करना, जिसके लिए वह आजीवन प्रयासरत रहता है। शांति बाह्य परिस्थितियों की गुलाम नहीं है, बल्कि इसका संबंध तो हमारे अंतर्मन व मन:स्थिति से होता है। जब हम स्व में स्थित हो जाते हैं, तो बाह्य परिस्थितियों का हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और हम सत्, चित्, आनंद अर्थात् अलौकिक आनंद को प्राप्त कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में मानव हृदय में दैवीय गुणों-शक्तियों का विकास होता है और वह निंदा, राग-द्वेष, स्व-पर, आत्मश्लाघा आदि दुष्प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लेता है। आत्म- प्रशंसा करना व सुनना संसार में सबसे बड़ा दोष है, जिसका कोई निदान नहीं। यह मायाजाल युग- युगांतर से निरंतर चला आ रहा है और वह ययाति जैसे तपस्वियों को भी अर्श से फर्श पर गिरा देता है।

ययाति घोर तपस्या के पश्चात् स्वर्ग पहुंचे, क्योंकि  उन्हें ब्रह्मलोक में विचरण करने का वरदान प्राप्त था; जो देवताओं की ईर्ष्या का कारण बना। एक दिन इंद्र ने ययाति  की प्रशंसा की तथा उस द्वारा किए गये जप-तप के बारे में जानना चाहा। ययाति आत्म- प्रशंसा सुन फूले नहीं समाए और अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने लगे। इंद्र ने ययाति को आसन से उतर जाने को कहा, क्योंकि उसने ऋषियों, गंधर्वों, देवताओं व मनुष्यों की तपस्या का तिरस्कार किया  और वे स्वर्ग से नीचे गिर गए। परंतु उसके अनुनय- विनय पर इन्द्र ने उसे सत्पुरुषों की संगति में रहने की अनुमति प्रदान कर दी।

सो! आत्म-प्रशंसा से बचने का उपाय है मौन, जो प्रारंभ में तो कष्ट-साध्य प्रतीत होता है। परंतु धीरे- धीरे श्वास व शब्द को साधने से हृदय की चंचलता समाप्त हो जाती है और चित्त शांत हो जाता है। आती-जाती श्वास को देखने पर मन स्थिर होने लगता है और मानव को उसमें आनंद आने लगता है। यह वह दिव्य भाव है, जिससे चंचल मन की समस्त वृत्तियों पर अंकुश लग जाता है। मानव अपना समय निरर्थक संवाद व तेरी-मेरी अर्थात् पर-निंदा में समय नष्ट नहीं करता। मौन की स्थिति में मानव आत्मावलोकन करता है तथा वह संबंध- सरोकारों से ऊपर उठ जाता है। इस स्थिति में अपेक्षा-उपेक्षा के भाव का भी शमन हो जाता है। जब व्यक्ति को किसी से अपेक्षा अथवा उम्मीद ही नहीं रहती, फिर विवाद कैसा? उम्मीद सब दु:खों की जननी है। जब मानव इससे ऊपर उठ जाता है, तो भाव-लहरियां शांत हो जाती हैं; संशय व अनिर्णय की स्थिति पर विराम लग जाता है। परिणामत: मानसिक द्वंद्व को विश्राम प्राप्त होता है और दैवीय गुणों स्नेह, करूणा, सहानुभूति, त्याग आदि के भाव जाग्रत होते हैं। उसे संसार में हम सभी के तथा सब हमारे नज़र आते हैं तथा ‘सर्वेभवन्तु सुखीनाम्’ का भाव जाग्रत होता है।

मानव हरि चरणों में सर्वस्व समर्पित कर मीरा की भांति ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूजो न कोय’ अनुभव कर सुक़ून पाता है। इस स्थिति में सभी भाव- लहरियों को अपनी मंज़िल प्राप्त हो जाती है तथा अहं का विगलन हो जाता हो, जो सभी दोषों की जड़ है। अहं हमारे अंतर्मन में सर्वश्रेष्ठता का भाव उत्पन्न करता है, जो आत्म- प्रशंसा का जनक है। अपने गुणों के बखान करने के असाध्य रोग से वह चाह कर भी मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। वह न तो दूसरे की अहमियत स्वीकारता है; न ही उसके द्वारा प्रेषित सार्थक सुझावों की ओर ध्यान देता है। सो! वह गलत राहों पर चल निकलता है। यदि कोई उसके हित की बात भी करता है, तो वह उसे शत्रु-सम भासता है और वह उसका निरादर कर संतोष पाता है। उसके शत्रुओं की संख्या में निरंतर इज़ाफ़ा होता जाता है। एक लम्बे अंतराल के पश्चात् जब उसका शरीर क्षीण हो जाता है और वह एकांत की त्रासदी झेलता हुआ तंग आ जाता है, तो उसे अपने घर व परिवार-जनों की स्मृति आती है। वह लौटना चाहता है, अपनों के मध्य… परंतु उसके हाथ निराशा ही लगती है और उसे प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य विकल्प नज़र नहीं आता। वह सांसारिक ऊहापोह व मायाजाल से निज़ात पाना चाहता है; चैन की सांस लेना चाहता है, परंतु यह उसके लिए संभव नहीं होता। उसे लगता है, वह व्यर्थ ही धन कमाने हित उचित- अनुचित राहों पर चलता रहा, जिसकी अब किसी को दरक़ार नहीं। वह न पहले शांत था, न ही उसे अब सुक़ून प्राप्त होता है। वह शांति पाने का हर संभव प्रयास करता रहा, परंतु अतीत की स्मृतियां ग़ाहे-बेग़ाहे उसके हृदय को उद्वेलित-विचलित करती रहती हैं। वह चाह कर भी इनके शिकंजे से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। अंत में इस जहान से रुख्स्त होने से पहले वह सबको इस तथ्य से अवगत कराता है कि सुख-शांति अपनों के साथ है। सो! संबंधों की अहमियत स्वीकारो…आत्म-प्रशंसा की भूल-भुलैया में फंस कर अपना अनमोल जीवन नष्ट न करो। सच्चे दोस्त संजीवनी की तरह होते हैं, उनकी तलाश करो। वे हर आकस्मिक आपदा व विषम परिस्थिति में आपकी अनुपस्थिति में भी आपकी ढाल बन कर खड़े रहते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 9 ☆ हमारा दुर्भाग्य है रिश्तों की टूटती कड़ियाँ ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

`डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं अनुकरणीय आलेख  हमारा दुर्भाग्य है रिश्तों की टूटती कड़ियाँ।)

☆ किसलय की कलम से # 9 ☆

☆ हमारा दुर्भाग्य है रिश्तों की टूटती कड़ियाँ ☆

रिश्ता अथवा बंधन शब्द दो या दो से अधिक समान या भिन्न-भिन्न जीवों, वनस्पतियों, पदार्थों आदि की उत्पत्ति का एक ही स्रोत होना, अति निकट आना, परस्पर मिश्रित अथवा समाहित होने का परिणाम है। एक ही प्रजाति के परिवार में परस्पर समानता के गुण पाए जाते हैं। यह समानता मनुष्यों में इसलिए स्पष्ट समझ में आ जाती है क्योंकि मनुष्य एक दूसरे के दैहिक, चारित्रिक, बौद्धिक गुणों के साथ-साथ नृत्य, संगीत, गायन जैसी कलाओं को आसानी से परखने की सामर्थ्य रखता है। वैसे भी एक वंश में उत्पन्न संतति में  प्रायः अनेक समानताएँ हम सब देखते चले आ रहे हैं। ये अनुवांशिक गुण खून के रिश्तों में ही पाए जाते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे परिलक्षित होते रहते हैं। फिर बात आती है दो अलग-अलग परिवारों के रिश्तों की, जो वैवाहिक बंधन से बनते हैं। इसमें एक परिवार की लड़की और दूसरे परिवार का लड़का होता है और वह सदा के लिए पति-पत्नी कहलाते हैं। अगले क्रम के रिश्ते इन्हीं दो अलग-अलग परिवारों के शेष सदस्यों से बन जाते हैं, जिन्हें फूफा, मौसी, मामा, नाना, नानी आदि का नाम दिया जाता है। तत्पश्चात मानव विभिन्न कारणों से भी रिश्तों में बँधता-बिखरता रहता है। मालिक-नौकर, दुकानदार-ग्राहक, समान गुण, कला, संगीत, साहित्य, पड़ोस, व्यवसाय आदि में भी रिश्ते कायम होते हैं। एक और  रिश्ते को पृथक से वर्गीकृत करना आवश्यक है और वह है मित्रता का रिश्ता। प्रमुखतः ये दो तरह के होते हैं।  प्रथम किसी हेतुवश की गई मित्रता और द्वितीय निःस्वार्थ मित्रता। आज निःस्वार्थ मित्रता के रिश्ते बड़े दुर्लभ व कहानियों तक सीमित हो गए हैं। आधुनिक युग में इसे पागलपन कहा जाता है और ये पागलपन भला आज कोई क्यों करेगा?

संबंध या रिश्तों की बात आते ही हम राम-लक्ष्मण, यशोदा-कृष्ण, रावण-विभीषण, देवकी-कंस, अर्जुन-कृष्ण, सीता-राम, पांडव-कौरवों के रिश्तों में स्वयं का किरदार नियत करने की सोचने लगते हैं, लेकिन हम स्वयं की तुलना इनमें से किसी के साथ नहीं कर पाते, क्योंकि आज के युग में हम न लक्ष्मण जैसे भाई बन सकते, न ही यशोदा जैसी माँ और न ही सीता जैसी आदर्श पत्नी, लेकिन हम स्वार्थवश रावण, कंस अथवा कौरवों से भी आगे वाले किरदारों की जरूर सोच लेंगे।

एक समय था जब कबीले का मुखिया सबका ध्यान रखता था, उनके उदर-पोषण का दायित्व सम्हालता था। फिर संयुक्त परिवारों का मुखिया समान रूप से व्यवहार व सुरक्षा करने लगा। एकाध सदी पूर्व का संयुक्त परिवार माँ-बाप, पति-पत्नी और बच्चों तक सिमट गया। पिछले कुछ ही दशकों में हमें अपने माँ-बाप या सास-श्वसुर भी बोझ लगने लगे। वर्तमान में इसका कारण आवश्यकता कम स्वच्छंदता की चाह ज्यादा समझ में आती है। हम अपने ही बूढ़े माँ-बाप या सास-श्वसुर की सेवा नहीं करना चाहते। आखिर हमारी सोच इतनी निम्न क्यों होती जा रही है?

यह बात इतनी सीधी व सरल नहीं है। हम माँ-बाप से अलग रहने पर विवश क्यों हो जाते हैं?

गंभीर चिंतन व मनन से कुछ प्रमुख कारण सामने जरूर आएँगे। सबसे प्रमुख बात है हमारी संस्कृति, संस्कार, परंपराओं और सोच में बदलाव की। अपनी संतानों को हम अपने धार्मिक व पौराणिक ग्रंथों में निहित सीख व उपदेशों के साथ-साथ नाना-नानी की प्रचलित रहीं दिशाबोधी कथा-कहानियों से लगातार दूर रखने लगे। वैसे भी गुरुकुल प्रथा की समाप्ति के पश्चात व्यवसाय केंद्रित शिक्षा ने हमारे सारे आदर्शों को हाशिए पर डाल दिया है। रही शेष बचे प्रेम-भाईचारे, त्याग-समर्पण, सरलता, परोपकार जैसे कर्त्तव्यों की बात, तो इनके दूसरे घृणित पहलुओं पर केंद्रित चलचित्र, टीवी शो, टीवी धारावाहिकों के साथ अब सोशल मीडिया ने भी भारतीय संस्कारों और परंपराओं के विरुद्ध पूरे समाज की सोच और परिवेश तक बदलने की ठान ली है।

आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बात बिना हिंसा, सौदेबाजी, लूटमार, शोषण और वैमनस्यता के पूरी होती ही नहीं है। चूँकि सच्चाई कभी बदली नहीं जा सकती, इसीलिए श्रोताओं व दर्शकों के भय से दस-बीस प्रतिशत सच्चाई को दिखाना इन की विवशता होती है, परंतु हमारी संतानें बार-बार, लगातार यही देखते और सुनते रहने से क्या भ्रमित होने से बच पाएँगी? आज घर के ही सदस्यों के मध्य द्वेष, घृणा, स्वार्थ, अनैतिक संबंधों के दृश्य दिखाने की अनियत सीमा नई पीढ़ी को अमानवीय व तथाकथित आधुनिकता के रंग में रँगना चाहती है। निर्माताओं तथा लेखकों की पैंतरेबाजी, कानून की लचर धाराओं और देश के कर्णधारों का भी इस ओर ध्यान न दिया जाना, वर्तमान के साथ ही भावी पीढी के लिए भी घातक बनता जा रहा है।

संयुक्त परिवार तो अब अंतिम साँसें गिन ही रहे हैं। एकल परिवार का रुझान अब एक आम प्रक्रिया हो चली है। तन-मन-धन खपाने वाले माँ-बाप की त्याग-तपस्या आज मूल्यहीन मानी जाती है। बचपन से जवानी तक किया गया सब कुछ अपनी आँखों से देखने वाली संतान जब स्वयं अपने माँ-बाप को महत्त्व न दे। नवागत वधु अपने सास-श्वसुर की सेवा-सुश्रूषा तथा चिंता की बात तो दूर महत्त्व ही न दें और खुद का बेटा विवश होकर उसका साथ दे, तो क्या होगा उन असहाय बुजुर्ग माँ-बाप का। कोई बाहरी व्यक्ति तो उनकी मदद करने से रहे। बेटे की विवशता और उसकी दुविधा अपने माता-पिता के साथ पत्नी के हितों से भी जुड़ी होती है। स्वभावतः अथवा माता-पिता द्वारा उचित शिक्षा, संस्कार व कर्त्तव्य निर्वहन के गुण सीखकर न आने वाली वधुएँ भी आज केवल पति और अपने बच्चों के साथ एकल परिवारों को बढ़ाने में अहम भूमिका का निर्वहन कर रही हैं। वैसे अविवाहित रहते उनके माँ-बाप द्वारा सिखाने का भी एक समय होता है। आचार-व्यवहार व सलीके स्वयं सीखना भी उनका दायित्व है, लेकिन जब इन बातों की अनदेखी होगी तो परिवार में टूटन के साथ खून के रिश्तो में दरार पड़ने से कोई भी नहीं रोक पायेगा।  अपने माता-पिता की छत्रछाया के अनगिनत लाभों को नजर अंदाज कर कुछेक स्वार्थों की पूर्ति हेतु एकल परिवारों की बाढ़ आना आज के युग की सबसे बड़ी विडंबना कही जाएगी। ये पारिवारिक रिश्तों की टूटती कड़ियाँ हमारा दुर्भाग्य ही हैं।

आजकल महिलाओं की आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता आंदोलनों के अधूरे सच ने भी विकट स्थितियाँ निर्मित की हैं। जिस उद्देश्य को लेकर महिला मोर्चा और नारी आंदोलन शुरू किए गए थे उनका मूल उद्देश्य नारी का सम्मान, समानता का भाव और शोषण से मुक्त होना था, लेकिन आज इनकी आड़ में यदा-कदा बहुत कुछ ऐसा भी होने लगा है, जिससे समाज में किंचित असहजता तथा रिश्तों में गाँठें भी दिखाई देने लगी हैं। नारी हितार्थ बने कानूनों का भी दुरुपयोग होते देखा गया है। आज मित्रता हो, संपत्ति बँटवारा हो, वर्चस्व की बात हो अथवा राजनीतिक बात हो, ये लगभग सभी रिश्ते स्वार्थ के सहारे ही अग्रसर होने लगे हैं। गिरते नैतिक मूल्य, निजी स्वार्थों का टकराव और अपनों के प्रति त्याग-समर्पण तथा आत्मीयता की कमी आज आदर्श रिश्तों के अंत के प्रमुख कारकों में गिने जायेंगे।

उपरोक्त सभी तथ्यों पर आदिकाल से ही पढ़ा, सुना और देखा जा रहा है। आज भी यही सब हो रहा है, लेकिन कोई भी इसे स्वीकारने हेतु तैयार नहीं है। आज अधिकांश लोग खून के रिश्तों तक का निर्वहन करना भूलते जा रहे हैं। हम सभी जानते हैं मानव जीवन क्षणभंगुर है, जग में आपकी उपलब्धियों और आपके आचार-व्यवहार के अतिरिक्त कुछ भी याद नहीं किया जायेगा। यह भी परम सत्य है कि रिश्तों तथा अपनों के प्रति किए गए दुर्व्यवहार व अनैतिक कृत्यों की अंतःपीड़ा से कोई जीवन पर्यंत भी नहीं उबर पाता। अतः मानव की श्रेष्ठ योनि में जन्म लेकर सद्व्यवहार, सत्कर्म, परोपकार तथा रिश्तों के उचित निर्वहन में स्वयं समर्पित होना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है और यही सच्चे अर्थों में रिश्तों की कड़ियों को टूटने से बचाना भी कहलायेगा।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 55 ☆ सावन ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  समसामयिक गीत  “सावन । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 55 – साहित्य निकुंज ☆

☆ सावन ☆

 

सावन में मनवा बहक बहक जाए।

पिया की याद मोहे बहुत ही सताए ।

हरे भरे मौसम में मनवा गीत गाए।

पिया की याद मोहे बहुत  ही सताये।

 

कंगना भी बोले,  झुमका भी डोले।

पायल भी बोले, बिछुआ भी बोले।

हिया मोरा तुझसे मिलने को तरसे।

मन मोरा पिया बस डोले ही डोले।

 

पिया की याद मोहे बहुत ही सताये।

 

रिमझिम -रिमझिम वो  बूंदे बौछारे ।

मनवा में छाई उमंग की फुहारें ।

बावरा मन मोरा मिलने को तरसे।

प्रीत का रंग छाया मन के ही द्वारें।

 

पिया की याद मोहे बहुत ही सताये।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 46 ☆ अपनी सेना बड़ी महान ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है प्रेरक एवं देशभक्ति से सराबोर भावप्रवण रचना  “अपनी सेना बड़ी महान ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 46 ☆

☆ अपनी सेना बड़ी महान ☆

 

अपनी सेना बड़ी महान

रखना याद सदा बलिदान

 

सियाचीन की सर्द पहाड़ी

उस पर भी ये खूब दहाड़ी

 

जयति जयति जाँबाज जवान

अपनी सेना बड़ी महान

 

जैसलमेर की तपती गरमी

फिर भी तनिक न इसमें नरमी

 

साहस देख शत्रु  हैरान

अपनी सेना बड़ी महान

 

बड़ी कारगिल की पटखनी

बनी पाक सेना की चटनी

 

सारा जग करता गुणगान

अपनी  सेना बड़ी महान

 

साहस भरा हुआ रग -रग में

चपला सी फुर्ती डग -डग में

 

क्या भूला दुश्मन नादान

अपनी सेना बड़ी महान

 

शिला खंड से डटे खड़े हैं

दुश्मन से निर्भीक  लड़े हैं

 

झुके नहीं दे दी पर जान

अपनी सेना बड़ी महान

 

करें न मौसम की परवाह

देश भक्ति की मन में चाह

 

रक्षा की है हाथ कमान

अपनी सेना बड़ी महान

 

होता सैनिक से “संतोष”

दुश्मन पर आता है रोष

 

सदा सैनिकों से है  शान

अपनी सेना बड़ी महान

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी/मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ डॉ लता अग्रवाल की हिन्दी लघुकथा ‘अर्धांगिनी’ एवं मराठी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। )

आज प्रस्तुत है  सर्वप्रथम डॉ लता अग्रवाल जी  की  मूल हिंदी लघुकथा  ‘अर्धांगिनी’ एवं  तत्पश्चात श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  द्वारा मराठी भावानुवाद ‘अर्धांगिनी

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डॉ लता अग्रवाल

(सुप्रसिद्ध हिंदी वरिष्ठ साहित्यकार  एवं शिक्षाविद डॉ लता अग्रवाल जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है । आप महाविद्यालय में प्राचार्य पद  पर सेवारत हैं । प्रकाशन शिक्षा पर – 16 पुस्तकें, कविता संग्रह –4,  बाल साहित्य – 5, कहानी संग्रह – 2, लघुकथा संग्रह – 5, साक्षात्कार संग्रह –1, उपन्यास – 1, समीक्षा – 3, लघुरूपक – 18 । पिछले 10 वर्षों से आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर संचालन, कहानी तथा कविताओं का प्रसारण, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका में रचनाएँ प्रकाशित | )

☆ अर्धांगिनी 

“अच्छा ! माँ –बाबा ! मैं चलता हूँ।”

“कितनी बार कहा है चलता हूँ नहीं आता हूँ कहते हैं बेटा।” मां ने गंभीर चेहरे पर बनावटी शिकायत का भाव लाते हुए कहा।

“ओह हां ! आता हूं माँ –बाबा।” अभी 8 ही दिन हुए हैं अवधेश के विवाह को, पूरे 1 माह की छुट्टी लेकर आया था, विवाह के पश्चात पत्नी को कहीं मनोरम स्थान पर घुमाने ले जायेगा …दोनों एक दूसरे के मन के भाव जानेंगे, मगर अटारी बॉर्डर पर हुए सैनिक हमले में कई सैनिक मारे गए अतः हेड ऑफिस से कॉल आया,

‘लेफ्टिनेंट अवधेश ! इमीजियेट ज्वाइन योर ड्यूटी।’ आदेश पाते हैं अवधेश ने जब अपनी नवविवाहित पत्नी से सकुचाते हुए कहा,

“सीमा ! हेड क्वार्टर से बुलावा आया है मुझे अर्जेंट ही जाना होगा।”

“क्या कल ही चले जायेंगे ?”

“हां ! अलसुबह निकलना होगा।”

“कुछ दिन और नहीं रुक सकते।” सीमा ने आत्मीय भाव से पूछा।

“नहीं सीमा उधर बॉर्डर पर मेरी आवश्यकता है …मेरा इंतजार हो रहा होगा। पता नहीं मेरे कौन-कौन साथी …।” अपने अनजाने खोये साथियों के शोक की कल्पना में अवधेश के स्वर डूब गये।

“फिर कब लौटना होगा ?”

“कह नहीं सकता …जब तक सीमा पर शांति बहाल ना हो या …शायद ……।”

“बस आगे कुछ मत कहिए, अच्छा सोचिये सब शुभ होगा।” सीमा ने पति के होठों पर प्यार से उंगली रखते हुए कहा।

“मैं जानता हूँ सीमा यह सप्ताह तुम्हारा रीति रिवाजों की औपचारिकता और मेहमान नवाजी के बीच बीत गया और अब हमें अपना हनीमून भी कैंसिल करना होगा मैं तुम्हें कुछ नहीं दे पाया उल्टे अब घर की मां -बाबा की देखभाल भी तुम्हें सौंपे जा रहा हूं। ” अवधेश ने सीमा को सीने से लगाते हुए कहा।

“आप चिंता मत कीजिए जी, हम सैनिकों की पत्नियों को ईश्वर अतिरिक्त साहस और धैर्य देकर भेजता है। आप निश्चिंत रहें आपके लौटने तक मैं मां -बाबा का पूरा ख्याल रखूंगी और आपका इंतजार करूंगी।” पत्नी ने अवधेश के मन का बोझ उतार दिया। अत: आज जाते हुए अवधेश स्वयं को  हल्का महसूस कर रहा था अपना प्रतिनिधि मां -बाबा की सेवा के लिए जो छोड़े जा रहा था। जाते हुए घर के बाहर गांव के कई लोग जमा थे बुजुर्ग कह रहे थे,

‘गांव के अपने इस लाड़ले पर हमें नाज है।’ युवा, बच्चे सभी अवधेश को सैल्यूट देते हुए,

‘जय हिन्द अवधेश भैय्या’ कह रहे थे।  दूर दहलीज पर पर्दे की ओट में खड़ी सीमा की ओर देखते हुए आंखों में कृतज्ञता का भाव लिए अवधेश ने एक जोरदार सैल्यूट दिया,

‘थैंक्स अर्धांगिनी, सही मायने में सैनिक तो तुम हो जो अपने जीवन के अमूल्य पल हंसते- हंसते हम पर कुर्बान कर देती हो।’ भाव सीमा तक पहुंच गये थे, उसके मुट्ठी के कसाव ने पर्दे  को जोर से भींच लिया ।

© डॉ लता अग्रवाल

भोपाल, मध्यप्रदेश मो – ९९२६४८१८७८

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☆ अर्धांगिनी 

(मूळ  रचना –  डॉ लता अग्रवाल भोपाल  अनुवाद – उज्ज्वला केळकर  )

 ‘अच्छा! आई-बाबा मी जातो.’

‘किती वेळा सांगितलं, जातो, नाही येतो, म्हणावं रे!’ आई गंभीर चेहर्‍याने  खोट्या तक्रारीच्या सुरात म्हणाली.

‘ओह! येतो!’

अवधेशाच्या विवाहाला अद्याप आठ दिवससुद्धा झाले नव्हते. चांगली एक महिन्याची सुट्टी घेऊन आला होता तो. विवाहानंतर पत्नीला एखाद्या निसर्गरम्य ठिकाणी तो घेऊन जाणार होता. दोघांना एकमेकांच्या मनातले भाव नीटपणे जाणून घेता येतील. पण अटारी बॉर्डरवर सैनिकांवर आक्रमण झाले. अनेक सैनिक मारले गेले. हेड ऑफिसमधून त्याला कॉल आला, ’लेफ्टनंट अवधेश, ताबडतोब तुमच्या ड्यूटीवर हजार व्हा.’ आदेश मिळताच अवधेश आपल्या नवपरिणीत पत्नीला संकोचत म्हणाला, ‘सीमा, हेडक्वार्टरवरून आदेश आलाय, मला लगेचच निघायला हवं!’

‘उद्याच निघणार?’

‘हो! उद्या पहाटेच निघायला हवं’

‘आणखी काही दिवस नाही थांबू शकणार?’ सीमानं आत्मीयतेने विचारलं .

‘नाही सीमा, तिकडे बॉर्डरवर माझी वाट बघत असतील. कुणास ठाऊक माझे कोण कोण साथी…’ आपल्या अज्ञात हरवलेल्या साथिदारांच्या शोकाच्या कल्पनेने अवधेशचा स्वर भिजून गेला.

‘परत कधी येणं होईल?’

‘काही सांगता येत नाही. जोपर्यंत सीमेवर शांतीचा वातावरण… किंवा मग…’

‘बस… बस .. पुढे काही बोलू नका. चांगला विचार करा. सगळं शुभ होईल. सीमा पतीच्या ओठांवर बोट ठेवत म्हणाली.’

‘सीमा, हा आठवडा रीती-रिवाजांची औपचारिकता आणि पाहुण्यांचे आदरसत्कार करण्यात निघून गेला॰ आता तर आपल्याला आपला हनीमूनही कॅन्सल करावा लागतोय. मी तुला काहीच देऊ शकलो नाही. उलट आई-बाबांना सांभाळण्याची जबाबदारी तुझ्यावर सोपवून चाललोय.’ सीमाला छातीशी कवटाळत अवधेश म्हणाला.

‘आपण काळजी करू नका. आम्हा सैनिकांच्या पत्नींना ईश्वर अतिरिक्त साहस आणि धैर्य देऊन पाठवत असतो. आपण निश्चिंत रहा. आपण येईपर्यंत आई-बाबांची मी नीट काळजी घेईन आणि आपली वाट पाहीन.’ सीमाने अवधेशच्या मनावर असलेला भार  हलका केला. त्यामुळे आज घरातून बाहेर पडताना अवधेशला अगदी हलकं हलकं वाटत होतं॰ आपल्या आई-बाबांची सेवा करण्यासाठी तो आपला प्रतिनिधी मागे ठेवून जात होता. तो घराबाहेर पडला, तेव्हा बाहेर किती तरी लोक त्याला निरोप देण्यासाठी जमा झाले होते. ज्येष्ठ मंडळी म्हणत होती, ‘गावाच्या या लाडक्या मुलाचा आम्हाला अभिमान आहे.’ तरुण , मुले सगळे अवधेशला सॅल्यूट देत म्हणत होते, ‘जय हिंद अवधेशभैय्या!’ दूर उंबरठ्यावर पडद्याआड उभ्या असलेल्या सीमाकडे बघताना त्याच्या डोळ्यात कृतज्ञता होती. अवधेशने तिला एक जोरदार सॅल्यूट देत, तो डोळ्यांनीच म्हणाला , ‘थॅंक्स अर्धांगिनी खर्‍या अर्थाने तूच सैनिक आहेस. आपल्या जीवनातले अमूल्य क्षण तू हसत हसत आमच्यावरून ओवाळून टाकतेस.’

त्याच्या मनातले भाव सीमापर्यंत पोचले. तिच्या मुठीने पडद्याची कड घट्ट धरून ठेवली.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य – पंढरी माहेर . . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी  एक भावप्रवण रचना “पंढरी माहेर . . . ! )

☆ विजय साहित्य – पंढरी माहेर . . . ! ☆

मुराळी होऊन

घेतसे विसावा

माये तुझ्या नेत्री

विठ्ठल दिसावा. . . . !

 

पंढरीची वारी

ऊन्हात पोळते

गालावरी माये

आसू ओघळते.. . . !

विठ्ठलाची वीट

उंबरा घराचा

ओलांडून येई

पाहुणा दारचा.

पंढरीची वारी

भेटते विठूला

आठवांची सर

आलीया भेटीला. . . . !

विठू दर्शनाची

घरा दारा आस

परी सोडवेना

प्रपंचाची कास.

पंढरीची वारी

हरीनाम घेई

माय लेकराला

दोन घास देई. . . . !

पंढरीची वारी

रिंगण घालते

माय शेतामधी

माया कालवते.. . . !

पंढरीची वारी

माऊलींच्या दारा

माय पदराचा

लेकराला वारा. . . . !

म्हणोनीया देवा

पंढरी माहेर

आसवांचे मोती

करती आहेर.

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 38 ☆ लघुकथा – जिज्जी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी महानगरीय जीवनशैली पर विमर्श करती लघुकथा जिज्जी।  आज भी हम जीवन में ऐसे  संबंधों को निभाते हैं  जिसकी अपेक्षा अपने रिश्तेदारों से भी नहीं कर सकते हैं। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 38 ☆

☆  लघुकथा – जिज्जी

किसी ने बडी जोर से दरवाजे भडभडाया,  ऐसा लगा जैसे कोई दरवाजा तोड ही देगा , अरे ! जिज्जी होंगी, सामने घर में रहती हैं, बुजुर्ग हैं, हमारे सुख – दुख की साथी. जब से शादी होकर आई हूँ इस मोहल्ले में माँ की तरह मेरी देखभाल करती रही हैं, सीढी नहीं चढ पातीं इसलिए नीचे खडे होकर अपनी छडी से ही दरवाजा खटखटाती हैं – सरोज बोली.  यह सुनकर मैं मुस्कुराई कि तभी आवाज आई – तुम्हारी दोस्त है तो हम नहीं मिल सकते क्या ?  हमसे मिले बिना चली जाएगी ? नहीं जिज्जी, हम उसे लेकर आपके पास  आते हैं . लाना जरूर,  यह कहकर जिज्जी छडी टेकती हुई अपने घर की ओर चल दीं. पतली गली के एक ओर सरोज और दूसरी ओर उनका घर था. दरवाजे पर खडे होकर भी आवाज दो तो सुनाई पड जाए. गली इतनी सँकरी कि  दोपहिया वाहन ही उसमें चल सकते थे. गलती  से अगर गली में गाय – भैंस आ जाए फिर तो  उसके पीछे – पीछे   गली के अंत तक जाएं या खतरा मोल लेकर उसके बगल से भी आप जा सकते हैं.

सरोज बोली – जिज्जी से मिलने तो जाना ही पडेगा,  नहीं तो बहुत बुरा मानेंगी. हमें देखते ही वह खुश हो गईं,बोली – आओ बैठो,  सरोज भी बैठने ही वाली थी कि बोली- अरे तुम बैठ जाओगी तो चाय, नाश्ता कौन लाएगा ? जाओ रसोई में, हाँ  जिज्जी  कहकर वह चाय बनाने चली गई.  जिज्जी बडे स्नेह से बात करे जा रही थीं और मैं उन्हें देख रही  थी. उम्र सत्तर से अधिक ही  होगी, सफेद साडी और सूनी मांग  उनके वैधव्य के सूचक  थे. सूती साडी के पल्ले से आधा सिर ढंका था जिसमें से  सफेद घुंघराले बाल दिख रहे थे. गांधीनुमा चश्मे में से बडी – बडी आँखें झाँक रही थीं.हाथों में  चाँदी के कडे पहने थीं. झुर्रियों ने चेहेरे को और ममतामय बना  दिया था. बातों ही बातों में  जिज्जी ने बता दिया कि बेटियां अपने घर की हो गईं और बेटे अपनी बहुओं के. सरोज तब तक चाय, नाशता ले आई,उसकी ओर देखकर बोलीं- हमें अब किसी की जरूरत भी नहीं है, डिप्टी साहब ( उनके पति ) की पेंशन मिलती है और ये है ना हमारी सरोज,  एक आवाज पर  दौडकर आती है. बिटिया हमारे लिए तो आस-  पडोस ही सब कुछ है, ये लोग ना होते तो कब के मर खप गए होते.

जिज्जी, बस भी करिए अब,  बीमारी -हारी में आप ही तो रहीं हैं  हमारे साथ, मेरे बच्चे इनकी गोद में बडे हुए हैं, जगत अम्माँ हैं ये —-  सरोज और जिज्जी एक दूसरे की कुछ भी ना होकर बहुत कुछ थीं. कहने को ये दोनों पडोसी ही थीं, जिज्जी  का  स्नेहपूर्ण अधिकार और सरोज का सेवा भाव मेरे लिए अनूठा था. महानगर की फ्लैट संस्कृति में रहनेवाली  मैं  हतप्रभ थी जहाँ डोर बैल बजाने पर ही दरवाजा खुलता है नहीं तो सामने के दरवाजे पर लगी नेमप्लेट  मुँह चिढाती रहती है . दरवाजा  खुलने और बंद होने में घर के जो लोग दिख जाएं बस वही परिचय, बाकी कुछ नहीं, सब एक दूसरे से अनजान, अपरिचित. फ्लैट से निकले  अपनी गाडियों में  बैठे और  चल दिए, लौटने पर  दरवाजा खुला और फिर अगली सुबह तक के लिए बंद.

मन ही मन बहुत कुछ समेटकर जब  मैं चलने को हुई, जिज्जी छडी टेकती हुई उठीं – हमारा बटुआ लाओ सरोज, बिटिया पहली बार हमारे घर आई है,  जिज्जी  टीका करने के लिए बटुए में  नोट ढूंढने लगीं.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ शब्द- दर-शब्द ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ शब्द- दर-शब्द

 

शब्दों के ढेर सरीखे,

रखे हैं काया के

कई चोले मेरे सम्मुख,

यह पहनूँ, वो उतारूँ

इसे रखूँ , उसे संवारूँ..?

 

तुम ढूँढ़ते रहना

चोले का इतिहास

या तलाशना व्याकरण,

परिभाषित करना

चाहे अनुशासित,

अपभ्रंश कहना

या परिष्कृत,

शुद्ध या सम्मिश्रित,

कितना ही घेरना

तलवार चलाना,

ख़त्म नहीं कर पाओगे

शब्दों में छिपा मेरा अस्तित्व!

 

मेरा वर्तमान चोला

खींच पाए अगर,

तब भी-

हर दूसरे शब्द में,

मैं रहूँगा..,

फिर तीसरे, चौथे,

चार सौवें, चालीस हज़ारवें

और असंख्य शब्दों में

बसकर महाकाव्य कहूँगा..,

 

हाँ, अगर कभी

प्रयत्नपूर्वक

घोंट पाए गला

मेरे शब्द का,

मत मनाना उत्सव

मत करना तुमुल निनाद,

गूँजेगा मौन मेरा

मेरे शब्दों के बाद..,

 

शापित अश्वत्थामा नहीं

शाश्वत सारस्वत हूँ मैं,

अमृत बन अनुभूति में रहूँगा

शब्द- दर-शब्द बहूँगा..,

 

मेरे शब्दों के सहारे

जब कभी मुझे

श्रद्धांजलि देना चाहोगे,

झिलमिलाने लगेंगे शब्द मेरे

आयोजन की धारा बदल देंगे,

तुम नाचोगे, हर्ष मनाओगे

भूलकर शोकसभा

मेरे नये जन्म की

बधाइयाँ गाओगे..!

 

©  संजय भारद्वाज

( कविता संग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता।’)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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