हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 57 ☆ फासले ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साbharatiinझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “फासले”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 57 ☆

☆  फासले ☆

 

नज़दीक हमारे हाय वो आ न सके

दर्द-ए-जिगर हम उन्हें बता ना सके

 

परिंदे ख्वाब के उड़ते आसमान में

मुक़द्दर उन सा हम पा ना सके

 

तिनके के जैसी होती है हैसियत

किस्मत अपनी हम आजमा ना सके

 

दरख़्त खड़े थे वहाँ सीना ताने हुए

झुके रहे हरदम, हम महका ना सके

 

क्या किस्मत पायी है गुलाब ने भी

काटों में फंसे रहे, आगे जा ना सके

 

जब भी झांका शीशा तो टूट ही गया

अपने अक्स से हाथ मिला ना सके

 

हाताश आये थे, चले जायेंगे उदास से

फासला जो दरमियाँ था मिटा ना सके

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 44 ☆ व्यंग्य संग्रह – अपनी ढपली अपना राग – श्री मुकेश राठौर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  श्री मुकेश राठौर  जी  के  व्यंग्य  संग्रह   “अपनी ढ़पली अपना राग” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 44 ☆ 

व्यंग्य संग्रह – अपनी ढ़पली अपना राग 

व्यंग्यकार – श्री मुकेश राठौर 

प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर 

पृष्ठ १००

मूल्य १२० रु

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह  – अपनी ढ़पली अपना राग – व्यंग्यकार – श्री मुकेश राठौर ☆ पुस्तक चर्चाकार -श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

यूं तो मुझे किताब पढ़ने का सही आनंद लेटकर हार्ड कापी पढ़ने में ही मिलता है, पर ई बुक्स भी पढ़ लेता हूं. मुकेश राठौर जी का व्यंग्य संग्रह अपनी ढ़पली अपना राग चर्चा में है.  इसकी ई बुक पढ़ी.

मुकेश जी जुझारू व्यंग्यकार हैं. नियमित ही यहां वहां पढ़ने मिल रहे हैं व अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करवाते हैं.

उन्हें स्वयं के लेखन पर भरोसा है. संग्रह के कुछ व्यंग्य पूर्व पठित लगे संभवतः किसी पत्र पत्रिका या समूह में नजरो से गुजरे हैं. राजनीति, सोशल मीडीया,मोबाईल, बजट, प्याज, और ग्राम्य परिवेश के गिर्द घूमते विषयो पर उन्होने सार्थक कलम चलाई है. भेडियो की दया याचना संवाद शैली में व्यंग्य का अच्छा प्रयोग है. प्रतीको के माध्यम से न्याय व्यवस्था पर गहरी चोट समझी जा सकती है. बाजा, गाजा और खाजा से शुरू किताब का शीर्षक व्यंग्य अपनी ढ़पली अपना राग  छोटा है, वर्णात्मक ज्यादा है  इसको अधिक मुखर, संदेश दायक व प्रतीकात्मक लिखने की संभावनायें थीं. सच है जीवन में संगीत का महत्व निर्विवाद है. हर कोई अपने तरीके से अपनी सुविधा से अपनी जीवन ढ़पली पर अपने राग ठेल ही रहा है.

ठगबंधन का कामन मिनिमम प्रोग्राम वर्तमान राजनैतिक स्थितियो कर गहरा कटाक्ष है. घर में ” जितनी बहुयें उतने ही बहुमत “, हम वो नही जो चुनाव जीतने के बाद बदल जायें हमने आपकी सेवा के लिये ही पार्टी बदली है, या बाबुओ की थकती कलम के कारण विलम्बित वेतन जैसे अनेक शैली गत व्यंग्य प्रयोग बताते है कि मुकेश जी में व्यंग्य रचा बसा है वे जिस भी विषय पर लिखेंगे उम्दा लिख जायेंगे. बस विषय के चयन का केनवास बड़ा बना रहे तो उनसे हमें धड़ाधड़ धाकड़ व्यंग्य मिले रहेंगे. यही आकांक्षा भी है मेरी.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 68 – कर्मवीर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा  “कर्मवीर।  कई बार हम जल्दबाजी और आवेश में कुछ  ऐसे निर्णय ले लेते हैं जिसके लिए जीवनपर्यन्त पछताते हैं और वह समय लौट कर नहीं आता।  / शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है। इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 68 ☆

☆ लघुकथा – कर्मवीर ☆

कर्मवीर का बोर्ड लगा देख प्रकाश ठिठक सा गया। अंदर जाने की हिम्मत नहीं हुई। क्योंकि वह तो लगभग 21 साल बाद शहर लौट रहा था। दरवाजे पर आवाज दिया, एक हट्टा कट्टा नौजवान  बाहर आया और पूछा… कौन है और क्या चाहिए?? प्रकाश ने सोचा शायद में गलत जगह पर आ गया। यह शायद स्नेहा  का घर तो नहीं है। लौट कर वह चला गया।

स्नेहा और प्रकाश दोनो एक बिजली विभाग में काम करती थें। दोनों में आपसी तालमेल के कारण दोनों परिवारों की विरोध के बावजूद विवाह कर लिया था।

दोनों  की हमेशा कर्म और संस्कारों को लेकर एक जैसी राय बनती थी और दोनों की बातें भी एक जैसी थी। दोनों में बहुत प्यार था परंतु न जाने किसकी नजर लगी दोनों का आपस में मतभेद हो गया।

एक साल के अंदर ही दोनो अलग अलग हो गए दोनों को एक शब्द बहुत पसंद था वो था कर्मवीर अपने  बच्चे का नाम रखना चाहते थे।

अलग होने के बाद प्रकाश तबादला करा  दूसरे शहर चला गया और लौटकर जब आया बहुत देर हो चुकी थी।

ऑफिस पहुंचा तो  बिजली ऑफिस वालों ने बताया साहब आपके ट्रांसफर के बाद लगभग दो साल बाद तक स्नेहा  मैडम ऑफिस नहीं आई।

और फिर आने लगी शायद उन्होंने दूसरी शादी कर ली है। क्योंकि एक सारांश नाम का नौजवान गाड़ी में छोड़ने और लेने आता है।

प्रकाश को याद है थोड़ी सी बात और मतभेद के कारण दोनों ने अलग होने का फैसला बहुत जल्दी में ले लिया था।

और दोनों अलग हो चुके थे प्रकाश के जाते जाते स्नेहा बता भी नहीं सकी थी कि वह पापा बनने वाले हैं।

करवा चौथ का सामान लेकर स्नेहा शाम को घर जा रही थी।इक्कीस मिट्टी के करवा खरीद रही थीं। बेटे को आश्चर्य तो हुआ पर बोला कुछ नहीं।

शाम को खुद श्रंगार कर, करवो को  भरकर, दीपक सजा पूरे घर को सजाकर स्वयं तैयार हो गई। सारांश,अपने बेटे को कहा…. आज करवा चौथ का पूजन करना है।  बेटे ने सिर्फ हा में सिर हिला दिया।

मां के दिन रात मेहनत और उनके व्यवहार के कारण  कभी कोई बात नहीं पूछना चाहता था।

शाम ढले सब समान लेकर मां और सारांश दोनो छत पर पहुंच गए। पूजन का थाल  लिए मां बेटा दोनो छत पर खड़े  चांद का इंतजार कर रहे थे। बेटे ने आवाज लगाई… मां चांद निकल आया पूजन कर लो परंतु स्नेहा बोली… मैं थोड़ा और इंतजार कर लूं। फिर पूजन करती हूं।

इक्कीस करवो का दीपक लहरा रहा था। जो ही उसने आरती की थाली उठाई सामने की सीढ़ियों से प्रकाश को आते देख चूनर से सिर ढकते बोल उठी…. बेटा आ जा चांद निकल आया। सारांश की समझ में कुछ नहीं आ रहा था परन्तु उसने देखा  ये तो वही व्यक्ति हैं जो सुबह आए थे और बिना कुछ बोले चले गये थे। वह सीधी छलनी के सामने जाकर खड़े हो गए और मां खुशी से रोए जा रही थी।

सारांश तो बस इन लम्हों को अपने मोबाइल में कैद करते जा रहा था कि आज मां  पहला करवा चौथ मना रही है। वह भी पहली बार शायद पापा के साथ। त्यौहार मना रही है बहुत खुश था सारांश। स्नेहा और प्रकाश बस एक दूसरे को निहार रहे थे।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

मात्र छुअन की महक से, महक रहा है गात।

बेला फूले रात को, सूरजमुखी  प्रभात ।।

 

वृंदावन – सा मन मिला, सांसे जमुना नीर।

सम्मुख रूपम राधिका, उड़ता संयम चीर।।

 

तिष्यरक्षिता की तरह, चली जगत ने चाल।

नेत्रहीन ‘इच्छा ‘ हुई, जैसे धीर कुणाल ।।

 

मन में उपजी वासना, जो  सकत है रोक।

कालांतर में स्यात वह,  हो सम्राट अशोक।।

 

पारिजात विद्योत्तमा, कालिदास वन गंध ।

हो दोनों का मिलन जब, मिटे द्वैत की धुंध।।

 

बाहर खिल खिल निर्झरी, भीतर झरते नैन ।

विकल प्रतीक्षित हृदय को, हर क्षण काली रैन।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 23 – वीणा में ठहर गए…. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “वीणा में ठहर गए….। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 23– ।। अभिनव गीत ।।

☆ वीणा में ठहर गए…. ☆

तुम्हें सुना जब से कल

आहिस्ता फोन पर

लगा तुंग- भद्रा तट गाती है

राग-यमन, किशोरी अमोनकर

 

स्वप्न-पंख ओढ़

थाट का लहरा

मींड, मन्द्र, द्रुत  का

झण्डा फहरा

 

जिक्र हुआ तेरा

सब पूछते हैं

घराना यह किराना

या जौनपुर

 

यादों का यह

ख्याल गायन  है

सरगम में छुपा

शब्द सावन है

 

मधुर कण्ठ ले

ज्यों अालाप  लगा

वीणा में ठहर गए

मौन पर

 

स्थाई, अंतरा

सम्हाल कर

स्वर भरते गत में

हर ताल पर

 

जैसे कि अटक  गया

स्वाद कहीं

प्रीतिभोज  का

किंचित नोंन पर

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

28-01-2019

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 68 ☆ आमने-सामने -4 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है ।

प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ  के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से  आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के  पढ़ सकेंगे। इस कड़ी में प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध  साहित्यकार सुश्री अलका अग्रवाल सिगतिया जी ( मुंबई ) एवं श्री शशांक दुबे जी  ( मुंबई ) के प्रश्नों के उत्तर । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 68

☆ आमने-सामने  – 4 ☆

अलका अग्रवाल सिगतिया (मुंबई) – 

प्रश्न- 

आपने परसाईं जी का साक्षात्कार  भी किया है।

उस साक्षात्कार  के अनुभव क्या रहे?

आज यह कहा जा रहा है, व्यंग्यकार खुल कर नहीं  लिख रहे,अक्सर व्यंग्य  चर्चाओं  में  बहस छोड़ रही है ।

कितने सहमत  हैं, आप?

क्या अभिव्यक्ति  के खतरे पहले नहीं  थे?

आपके लेखन में आप इसे कितना  उठाते हैं, या स्टेट बैंक  के मुख्य प्रबंधक  पद  पर रहकर उठाए?

परसाई जी से आप अपने लेखन  को लेकर चर्चा  करते थे?

 

जय प्रकाश पाण्डेय – 

अलका जी की कहानियां हम 1980 से पढ़ रहे हैं, कहानियां मासिक चयन (भोपाल) पत्रिका में हम दोनों अक्सर एक साथ छपा करते थे। उन्हें परसाई जी का आत्मीय आशीर्वाद मिलता रहा है।

वे परसाई जी के बारे में सब जानतीं हैं। पर चूंकि प्रश्र किया है इसलिए थोड़ा सा लिखने की हिम्मत बनी है।

सुंदर नाक नक्श, चौड़े ललाट,साफ रंग के विराट व्यक्तित्व परसाई जी से हमने इलाहाबाद की पत्रिका कथ्य रूप के लिए इंटरव्यू लिया था। हमने उनकी रचनाओं को पढ़कर महसूस किया कि उनकी लेखनी स्याही से नहीं खून से लेख लिखती थी, व्यंग्य करती थी और हृदय भेदकर रख देती थी। परसाई जी से हमारे घरेलू तालुकात थे, ऐसे विराट व्यक्तित्व से इंटरव्यू लेना बड़े साहस का काम था। इंटरव्यू के पहले परसाई जी कुछ इस तरह प्रगट हुए जैसे अर्जुन के सामने कृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाया था। उनके विराट रूप और आभामंडल को देखकर हमारी चड्डी गीली हो गई, पसीना पसीना हो गये क्योंकि उनके सामने बैठकर उनसे आंख मिलाकर सवाल पूछने की हिम्मत नहीं हुई, तो टेपरिकॉर्डर छोटा था हमने बहाना बनाया कि टेपरिकॉर्डर पुराना है आवाज ठीक से रिकार्ड नहीं हो रही और हमने उनके सिर के तरफ बैठकर सवाल पूछे। परसाई जी पलंग पर अधलेटे जिस ऊर्जा से बोल रहे थे, हम दंग रह गए थे।

हमारा सौभाग्य था कि हमारी पहली व्यंग्य रचना परसाई ने पढ़ी और पढ़कर शाबाशी दी, और लगातार लिखते रहने की प्रेरणा दी।

आजकल बहुत से व्यंंग्यकार खुल कर नहीं लिख रहे हैं, इस बारे में आदरणीय शशांक दुबे जी  के उत्तर में स्पष्ट कर दिया गया है।

 

श्री शशांक दुबे (मुंबई) – 

पाण्डेय जी आपको व्यंग्य के बहुत बड़े हस्ताक्षर हरिशंकर परसाई जी का सान्निध्य प्राप्त हुआ है। परसाई जी के दौर के व्यंग्यकारों के बौद्धिक व रचनात्मक स्तर में और आज के दौर के व्यंग्यकारों के स्तर में आप कोई अंतर देखते हैं?

 

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय भाई दुबे जी, वास्तविकता तो ये है कि जब परसाई जी बहुत सारा लिख चुके थे, उन्होंने 1956 में वसुधा पत्रिका निकाली, उसके दो साल बाद हमारा धरती पर आना हुआ। बड़ी देर बाद परसाई जी के सम्पर्क में आए 1979 से। पर हां 1979से 1995 तक उनका आत्मीय स्नेह और आशीर्वाद मिला।

परसाई और जोशी जी के दौर के व्यंंग्यकार त्याग, तपस्या, संघर्ष की भट्टी में तपकर व्यंग्य लिखते थे,उनका जीवन यापन व्यंग्य लेखन से होता था, उनमें सूक्ष्म दृष्टि, गहरी संवेदना, विषय पर तगड़ी पकड़ के साथ निर्भीकता थी ।आज के समय के व्यंग्यकारों में इन बातों का अभाव है। परसाई जी, जोशी जी के दिमाग राडार के गुणों से युक्त थे,वे अपने समय के आगे का ब्लु प्रिंट तैयार कर लेते थे, उन्हें पुरस्कार और सम्मान की भूख नहीं थी। बड़े बड़े पुरस्कार उनके दरवाजे चल कर आते थे।आज के अधिकांश व्यंग्यकार अवसरवादी, सम्मान के भूखे, पकौड़े छाप जैसी छवि लेकर पाठक के सामने उपस्थित हैं और इनके अंदर बर्र के छत्ते को छेड़ने का दुस्साहस कहीं से नहीं दिखता।

क्रमशः ……..  5

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 24 ☆ अन्तर ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  “अन्तर”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 24 ☆ 

☆ अन्तर

कुछ तो अन्तर कर हे मानव पेड़ों, पौधों और पशुओं में।

तू तन से सबल, तू मन से सबल,

तू तन से पूर्ण, तू मन से पूर्ण,

तू भगवान की श्रेष्ठ कृति है,

तू उजाले की किरण अँधेरी रति में,

तू कर सकता है एक पल में सागर को पार,

तू ज्वालामुखी सा रखता शक्ति अपार,

कुछ तो अन्तर कर हे मानव पेड़ों, पौधों और पशुओं में।

 

तू है जननी इस संस्कृति का।

तू है रचयिता इस सामाजिक आकृति का,

तू है सरिता सुंदरता का,

तू है आधुनिकता का आधार,

तू है प्रेम उस निराकार का,

तू है ज्ञान का भंडार,

कुछ तो अन्तर कर हे मानव पेड़ों, पौधों और पशुओं में।

 

तुझसे है रीति जगत की,

तुझसे है प्रीति जगत की,

तू है मोह का भन्डार,

तुझमें है प्रेम अपार,

तू मानव अब आलस छोड़,

तू मानव अब छोड़ लालच का भन्डार,

कुछ तो अन्तर कर हे मानव पेड़ों, पौधों और पशुओं में।

 

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #16 ☆ बीती हुई दिवाली की यादें ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर, अर्थपूर्ण एवं भावप्रवण  कविता “बीती हुई दिवाली की यादें ”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 16 ☆ 

☆ बीती हुई दिवाली की यादें ☆ 

 

दिवाली के दीप

जब जगमगाते हैं

बीते हुए दिन

याद आते हैं

अब भी-

हर लौ में

तुम मुस्कुराती हो

तुमसे रोशन

घर बार हो जाते है

वो तुम्हारे हाथ में थी फुलझड़ी

वो मेरे हाथ में थी

पटाखों की लड़ी

वो गगन में उड़ते हुए

आकाशदीप

वो मेरे पास थी

तुम्हारी दो आंखें बड़ी-बड़ी

जब तुम छुपकर

छत पे आयी थी।

कितनी छत पर

छाई रोशनाई थी

जैसे अंधेरी रात में

चाँद निकला था

अपनी रात दीपों से

जगमगाई थी।

कितनी स्वादिष्ट

वो मिठाई थी।

जो छुपाकर

तुम लाई थी।

कितने प्यार से

तुमने खिलाई थी।

हम दोनों ने

मिलकर खाई थी।

वो तुम्हारा नया नया परिधान

वो तुम्हारी आन और शान

वो अधखुली आंखों से

तुम्हारे व्यंग बाण

वो तुम्हारा मुझको

करना परेशान

यह बातें जब भी

याद आती है

शान्त लहरों मे

तूफान लाती है

बेमजा हुई

इस जिंदगी में

कुछ पल रंगीनियां

झिलमिलाती है

अब यह सब व्यर्थ है

इन सबका ना कोई अर्थ है

ना जाने तुम कहाँ

और हम कहाँ

आज यह जमाना

दीपोत्सव में गर्क है

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 23 ☆ सरी वर सरी… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 23 ☆ 

☆ सरी वर सरी… ☆

 (अंत्य-ओळ काव्य)

उन्हाळा हिवाळा पावसाळा

अनमोल दातृत्व निसर्गाचे

उन्हाळा संपता संपता

आगमन ते पर्जन्याचे…०१

 

आगमन ते पर्जन्याचे

सरी सर सर येती

सरी वर सर पडतांना

तुषार पाण्याचे उडती…०२

 

तुषार पाण्याचे उडती

इंद्रधनू सुरेख खुले

पाठशिवणीचा खेळ

ऊन सावलीचा चाले…०३

 

ऊन सावलीचा चाले

खेळ हा जन्मोजन्मीचा

निसर्गाच्या करामती

जन्म तोकडा माणसाचा…०४

 

जन्म तोकडा माणसाचा

क्षणभंगुर आयुमान हे

नावालाच ती शंभर वर्षे

स्वप्न जन्म-जन्मांचे पाहे…०५

 

© कवी म. मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 53 – घडू दे दर्शन ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 54 – घडू दे दर्शन ☆

तुच द्रौपदी, आहिल्या,

सीता, तारा, मंदोदरी।

किती युगे पालटली

कसोटीच्या त्याच परी।

 

इथे लागते  पणाला

रोज द्रौपदी नव्याने ।

कान्हा विसरला आज

धावा ऐकून  धावणे।

 

किती शापीत आहिल्या

शीलारुप गावोगावी।

तया उध्दारीना कोणी

आज रामाच्या अभावी।

 

दिला शब्द पाळणारा

हरिश्चंद्र ना जगती।

रोज लिलाव मांडण्या

हवी त्यास तारामती।

 

लाखो रावण मातले

पेटविल्या सीता किती।

हातबल राम आज

विसरला बाण भाती।

 

ज्ञानी योद्ध्या रावणास

उमजेना मंदोदरी।

पातिव्रत्य दानवाचे

सांभाळते घरोघरी.।

 

सत्व परीक्षा सोडून

करी असूर मर्दन।

काली दुर्गा भवानीचे

पुन्हा घडू दे दर्शन।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares