मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य – विडंबन रचना – वाट वाकडी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी  कामगारों के जीवन पर आधारित एक विडंबन रचना “वाट वाकडी )

☆ विजय साहित्य – विडंबन रचना – वाट वाकडी ☆

☆मुळ  गीत☆

 

गर्द सभोती रान साजणी,  तू तर चाफेकळी

काय हरवले सांग, शोधिशी त्या यमुनेच्या जळी

 

ती वनमाला ,म्हणे नृपाळा,हे तर माझे घर

पाहत बसते मी तर येथे, जललहरी सुंदर

 

रात्रीचे वनदेव पाहुनी,भुलतील रमणी तुला

तु वनराणी दिसे भुवन, या तुझिया रूपा तुला

 

अर्ध स्मित तव मंद मोहने, पसरे गालावरी

भुलले तुजला ह्रदय साजणी, ये चल माझ्या घरी

 

गीतकार  बालकवी

संगीत  जितेंद्र  अभिषेकी

नाटक संगीत मत्स्य गंधा

गायक आशालता वाफगावकर

 

☆ वाट वाकडी ☆

 

मर्द देखणे,तुझ्या सभोती, तू तर नवदेखणी

काय गवसले ,सांग षोडशे ,आवडला का कुणी ?

 

ती दचकोनी म्हणे तयाला ,अपुला रस्ता धर

करू नको तू वाट वाकडी,  वळणावर सुंदर.

 

खात्रीचे ना दिसे कुणी ग,फसवतील हे तुला

तू फुलराणी ,गंध भारली, प्राशून घेतो तुला .

 

कडाडली ती दुर्गा होऊन , प्रसाद गालावरी

पादत्राणे घेत गरजली,  जा पळ अपुल्या घरी.

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 36 ☆ लघुकथा – देवी नहीं, इंसान है वह ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक सामाजिक त्रासदी पर विमर्श करती लघुकथा  “देवी नहीं, इंसान है वह। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 36 ☆

☆  लघुकथा – देवी नहीं, इंसान है वह

 

उसे देवी मत बनाओ, इंसान समझो- आजकल ये पंक्तियां  स्त्री के लिए कही जा रही हैं. हाँ खासतौर से भारतीय नारी के लिए जिसे आदर्श नारी के फ्रेम में जडकर  दीवार पर टाँग दिया जाता है, उसकी जिंदा मौत किसी को नजर नहीं आती, खुद उसे भी नहीं, क्योंकि ये तो घर – घर की बात है.

उसे भी मायके से विदा होते समय यही समझाया गया था कि पति परमेश्वर होता है, मायके की बातें ससुराल में नहीं कहना और ससुराल में तो जैसे रखा जाए, वैसे रहना.  वह भूलती नहीं थी अपने पिता की बात – डोली में जा रही हो ससुराल से अर्थी ही उठनी चाहिए. सुनने में ये बातें साठ के दशक की किसी पुरानी फिल्म के संवाद लगते हैं, पर नहीं, ये उसका  जीवन था जिसे उसने जिया. इतनी गहराई से जिया कि अपनी बीमारी में वह सब भूल गई लेकिन यह ना भूली कि पति परमेश्वर होता है. उसे ना अपने खाने – पीने की सुध थी, ना अपनी, बौराई- सी इधर – उधर घूमती  बोलती रहती – आपने खाना खाया कि नहीं ? बताओ किसी ने अभी तक इन्हें खाने के लिए नहीं पूछा, हम अभी बना देते हैं. वह सिर पीट रही थी –  हे भगवान बहुत पाप लगेगा हमें कि पति से पहले हमने खा लिया.  थोडी देर बाद वही बात दोहराती, फिर वही, वही —.

सिलसिला थमता कैसे ? वह अल्जाइमर की रोगी है.  इस रोग ने भी उसे ससुराल जाते समय दी गई सीख को भूलने नहीं दिया. शायद वह सीख नहीं, मंत्र होता था जिसे अनजाने ही स्त्रियां जीवन भर जपती रहतीं थीं.  धीरे – धीरे उसमें अपना अस्तित्व ही खत्म कर लेती थीं, अपना  खाना- पीना, सुख – दुख सब  होम . उससे मिलता क्या था उन्हें ? आईए यह भी देख लेते हैं –

वह अब घर की चहारदीवारी में कैद है, कहने को मुक्त, पर उसे कुछ पता नहीं . बूढे पति देव छुटकारा पाने के लिए निकल लेते हैं दोस्तों – यारों से मिलने.  उनके आने पर वह कोई शिकायत ना कर कभी उन्हें पुचकारती है, कभी सिर पर हाथ फेरती है, कहती है बहुत थक गए होंगे आओ पैर दबा दूँ, क्या खाओगे ? वे झिडक देते हैं – हटो, जाओ यहाँ से अपना काम करो —

अपना काम??? वह दोहराती है, इधर- उधर जाकर फिर लौटती है उसी प्यार और अपनेपन के साथ, पूछती है – थक गए होगे, पैर दबा दूँ, क्या खाओगे ——  फिर झिडकी —————-.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 60 ☆ व्यंग्य – बकवास काम की ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर व्यंग्य “बकवास काम की । श्री विवेक जी का यह व्यंग्य सोशल मीडिया  के सामाजिक विसंगतियों पर पड़ रहे  प्रभावों पर एक सार्थक विमर्श है। इस सार्थक व्यंग्य के लिए श्री विवेक जी  का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्या # 60 ☆

☆ व्यंग्य  – बकवास काम की  ☆

गूगल ने हम सबको ज्ञानी बना दिया है. हर कोई इतना तो जानने समझने ही लगा है कि गूगल की सर्च बार पर उसके बोलते ही संबंधित जानकारी मोबाईल स्क्रीन पर सुलभ है. हर किसी के पास मोबाईल है ही, मतलब सारी जानकारी सबकी जेब में है . इसके चलते भले ही लोगों के भेजे में कुछ न हो, भेजा खुद घुटने में हो, पर हर अदना आदमी भी महा ज्ञानी बन बैठा है. दूसरे की सलाह हर किसी को बकवास ही लगती है. इतनी बकवास कि यदि फोन रखते ही तुरंत कहे गये सद्वाक्य, सामने वाला वह व्यक्ति जिससे फोन पर महा ज्ञान की चर्चायें चल रही थीं,  सुन ले तो हमेशा के लिये रिश्ते ही समाप्त हो जावें.

व्यंग्य पढ़ना सबको पसंद है, ऐसा इसलिये लिख रहा हूं क्योकि हर अखबार व्यंग्य छाप रहा है. संपादकीय पन्नों पर प्रमुखता से छप रहा है. व्यंग्य पढ़ कर उसके कटाक्ष पर सब मुस्कराते भी हैं, पर वह विसंगति जिस पर व्यंग्य लिखा जा रहा है, कोई सुधारना नही चाहता. उसे हम सब हास्य में उड़ा देना चाहते हैं. सब शुतुरमुर्ग की तरह समाज के उस कमजोर पक्ष को महज व्यंग्य में मजे लेने का विषय बने रहने देना चाहते हैं. रिश्वत हो, भ्रष्टाचार हो, भाई भतीजावाद हो, हार्स ट्रेडिंग हो, व्यवहार का बनावटीपन हो, ऐसी सारी विसंगतियो के प्रति समाज निरपेक्ष भाव से चुप लगाकर बैठने में ही भला समझ रहा है. ऐसे माहौल में देशप्रेम, चरित्र, धर्म, नैसर्गिक मूल्य, सम्मान जैसे सारे आदर्श उपेक्षित हैं. ट्वीट की असंपादित त्वरित संक्षेपिकायें सारे बंधन तोड़ रही हैं. एक क्लिक पर वर्जनायें स्वतः निर्वसन हो रही हैं. इसे फैशन कहा जा रहा है. ऐसे दुष्कर समय में हमारे जैसे व्यंग्यकार बकवास किये जा रहे हैं.

हर वह रोक टोक, वह हिदायत जो कभी उम्र के बहाव में या कथित प्रगतिशीलता के प्रभाव में बकवास लगती रही हैं, परिपक्वता की उम्र में किसी न किसी पड़ाव पर समझ आती हैं, और तब वह बड़ों की सारी बकवास काम की समझ आने लगने लगती है.नई पीढ़ी को पुनः वही बकवास इस या उस तरीके से दोहराकर बतलाई जाती है. कोरोना काल में तो दादी नानी की साफ सफाई की सारी पुरातन बकवास, बड़े काम की सिद्ध हो रही दिखती हैं.

हर कबीर को कभी उसके समय में लोगों ने सही नही समझा. बाद में जब किसी ने उसकी काम की बकवास को पढ़ा, समझा, गुना तो ढ़ाई आखर पर पी एच डी की उपाधियां बंटी. कबीरों के नाम पर प्रशस्तियां बांटी गईं. आज कोई पढ़े न पढ़े, समझे न समझे, समाज के पहरुये व्यंग्य साधक, हर पीढ़ी के कबीर यह काम की बकवास लिख ही रहे हैं. समय कभी मूल्यांकन अवश्य करेगा. इस  प्रत्याशा में कि यह बकवास काम की है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 25 ☆ बैन बनाम चैन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बैन बनाम चैन।  वास्तव में श्रीमती छाया सक्सेना जी की प्रत्येक रचना कोई न कोई सीख अवश्य देती है। सोशल मीडिया में विदेशी एप्प्स को बैन करने के सकारात्मक परिणामों के कटु सत्य पर विमर्श करती यह सार्थक रचना हमें राष्ट्रहित में उठाये कदमों हेतु प्रेरित करती है, बस समय के साथ जीवन शैली परिवर्तित करने  की आवश्यकता है।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 25 ☆

☆ बैन बनाम चैन

चैन बना कर व्यापार को बढ़ाने की खूबी तो आजकल जोर -शोर से सिखायी जा रही है । इतनी लंबी चैन की सामने वाले का चैन ही छीन ले । बस प्रचार – प्रसार हेतु छोटे- छोटे वीडियो बना कर पोस्ट करना तो मानो परम्परा का रूप ही धारण करने लगा है। हर बात को मीडिया से जोड़कर रखने में ही लोग फैशन समझते हैं । शेयर, हैश टैग, कमेंट, मैसेज ये सब रुतबे के साथ डिजिटल प्लेटफॉर्म में घूमते नजर आते हैं ।

हर पीढ़ी के दिलोदिमाग पर इनकी गहरी छाप पड़ चुकी है । चार- चार लॉक डाउन बिना ऊफ किये यदि मजे से बीत गए हैं ; तो केवल डिजिटलाइजेशन की वजह से । इसकी खूबी है; कि जब मोबाइल हाथ में तो कैसे वक्त बीतता जाता है , कुछ पता ही नहीं चलता ।  जिस प्रश्न का उत्तर गूगल बाबा से पूछो तो उसके साथ – साथ बहुत से उत्तर अनोखे अंदाज में देने लगता है । यदि आप कच्चे मन के  स्वामी हुए तो बस वहीं अटक कर रह जायेंगे, यदि  छूटने हेतु थोड़ा और जोर लगाया तो यू ट्यूब के फंदे में अवश्य फसेंगे । बस यहाँ से आपको भगवान भी नहीं बचा सकते क्योंकि यहाँ आध्यात्म से  जुड़े हुए एक से एक रोचक प्रसंग भी उपलब्ध रहते हैं ।

अब कैसे बचें ? आखिर इस सब से पेट तो भरेगा नहीं । फिर भी मनोरंजन तो जरूरी है;  सो प्रयोग करते रहें । अब जबकि कुछ एप्स पर बैन लग चुका है तो इनके यूजर बेचारे रुआसे से हो रहे हैं । मजे की बात देखिए कि इस मुद्दे पर भी दो खेमे तैयार  हैं, एक पक्ष में दूसरा विपक्ष में । क्या राष्ट्रीय हितों पर ही गुटबाजी अच्छी बात है ।  इन एप्स का इतना नशा कि आप राष्ट्र की अस्मिता को भी दाँव पर लगा कर इनके प्रयोग के समर्थन में जी- जान की बाजी लगा देंगे ।

अच्छा हुआ जो बैन लगा, पता तो चला कि इस विदेशी एप तकनीकी ने किस तरह से माइंड को  बड़ी सफाई के साथ  सेट कर मास्टरमाइंड बना दिया है। सही है ; जब मानसिक युद्ध मोबाइल के मार्फ़त हो रहा है, तो बचाव भी मोबाइल के माध्यम से ही होना चाहिए । समय रहते सचेत होने से स्वदेशी एप को बढ़ावा मिलेगा व भारतीय और तकनीकी रूप से उन्नत होने का प्रयास करेंगे जिससे सुखद परिणाम अवश्य आयेंगे अतः बेचैन होने से अच्छा है ; चैन के साथ बैन का स्वागत करें ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 34 ☆ नवगीत – भीगिए, गाइए आज गाना ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक सकारात्मक एवं भावप्रवण नवगीत  “भीगिए, गाइए आज गाना.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 34 ☆

☆ नवगीत  – भीगिए, गाइए आज गाना ☆ 

 

फिर हुआ

आज मौसम सुहाना

आ गया बारिशों का जमाना

भीगिए

गाइए आज गाना

 

गा रही हैं फुहारें

छतों पर

दर्द लिख दीजिए

सब खतों पर

 

बचपने में चले जाइएगा

बूँदों से है

रिश्ता पुराना

 

युग-यगों से

प्रतीक्षा रही है

मीत!अब आस

पूरी हुई है

 

प्रेयसी आ गई

आज मिलने

बात मन की

उसे अब बताना

 

जागिए

अब निकलिए घरों से

उड़ चलें आज

मन के परों से

 

छेड़ दी रागिनी

पंछियों ने

देखिए

पंख का फड़फड़ाना

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 55 – तनाव ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “तनाव। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 55 ☆

☆ लघुकथा – तनाव ☆

 

“ रंजना ! ये मोबाइल छोड़ दे. चार रोटी बना. मुझे विद्यालयों में निरीक्षण पर जाना है. देर हो रही है.”

रंजना पहले तो ‘हुहाँ’ करती रही. फिर माँ पर चिल्ला पड़ी, “ मैं नहीं बनाऊँगी. मुझे आज प्रोजेक्ट बनाना है. उसी के लिए दोस्तों से चैट कर रही हूँ. ताकि मेरा काम हो जाए और मैं जल्दी कालेज जा सकू.”

तभी पापा बीच में आ गए, “ तुम बाद में लड़ना. पहले मुझे खाना दे दो.”

“ क्यों ? आप का कहाँ जाना है ? कम से कम आप ही दो रोटी बना दो ?” माँ ने किचन में प्रवेश किया.

“ हूँउ  ! तुझे क्या पता. आज मेरे ऑफिस में आडिटर आ रहा है. इसलिए जल्दी जाना है.”

यह सुनते ही वह चिल्लाते हुए पलटी , “ पहले कहना था. सब ठेका मेरा ही है.”

पापा पीछे थे. उन के हाथ के गिलास से पानी छलका. गर्म तवे पर गिर कर उछलने लगा. कटोरे में पड़ी रोटी पेट में जाने का इंतजार करती रह गई और माँ के कान में भी अपने कहे यही शब्द गूंजते रहे, “ पहले कहना था.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०७/०८/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 52 – आसरा…! ☆ सुजित शिवाजी कदम

सुजित शिवाजी कदम

(सुजित शिवाजी कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण कविता  “आसरा…!”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #52 ☆ 

☆ आसरा…! ☆ 

इवलासा जिव

फिरे गवोगाव

आस-याचा ठाव

घेत असे..

 

पावसाच्या आधी

बांधायला हवे

घरकुल नवे

पिल्लांसाठी..

 

पावसात हवे

घर टिकायला

नको वहायला

घरदार..

 

विचाराने मनी

दाटले काहूर

आसवांचा पूर

आटलेला..

 

पडक्या घराचा

शोधला आडोसा

घेतला कानोसा

पावसाचा..

 

बांधले घरटे

निर्जन घरात

सुखाची सोबत

होत असे..

 

घरट्यात आता

रोज किलबिल

सारे आलबेल

चाललेले..

 

© सुजित शिवाजी कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

दिनांक  27/3/2019

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 54 – होती पूर्ण कहाँ कविता है ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता  होती पूर्ण कहाँ कविता है। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 54 ☆

☆  होती पूर्ण कहाँ कविता है ☆  

 

होती पूर्ण कहाँ कब कविता

जितने शब्द भरें हम इसमें

फिर भी घट रीता का रीता।

 

धरती लिखा, किंतु

कब इस पर किया गौर है

शुरू कहां से हुई

आखिरी कहां छोर है,

किसने नापा है

हाथों में लेकर फीता।।

 

जब आकाश लिखा,

सोचा ये भी अनन्त है

सूर्य-चांद, तारे ग्रह

फैले, दिग्दिगन्त है,

स्वर्ग-नर्क के तर्कों में

क्या विश्वसनीयता।।

 

लिखा भूख, तो

रोज पेट खाली का खाली

प्यासा मन कब भरी

एषणाओं की प्याली,

अनगिन व्याप्त

वासनाओं से कौन है जीता।।

 

अलग-अलग हिस्सों में

बंटी हुई, कविताएं

जैसे बंटा आदमी

ले, छिटपुट चिंताएं

पढ़ा, सुना है, पूर्ण

एक वह सृष्टि रचियता।।

 

होती पूर्ण कहां कब कविता

जितने शब्द भरें हम इसमें

फिर भी घट रीता का रीता।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 56 – कसे यायचे पंढरपूरा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  पंढरपुर न आ पाने की पीड़ा बयां करती  हुई प्रार्थना  कसे यायचे पंढरपूरा । सुश्री प्रभा जी की यह नवीन रचना वास्तव में उन सभी पंढरपुर वारी (विट्ठल भक्त पदयात्रियों) की मनोभावनाएं हैं। हम आशा एवं प्रार्थना करते हैं कि भगवान् विट्ठल हम सबकी मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण करेंगे एवं अगले वर्ष से अपने भक्तों को पुनः पदयात्रा पूर्ण कर अपने दर्शन के अवसर अवश्य देंगे। सुश्री प्रभा जी द्वारा रचित  इस भावप्रवण रचना के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 56 ☆

☆ कसे यायचे पंढरपूरा ☆ 

 

अरे विठ्ठला  कसे यायचे पंढरपूरा

नको वाटते जिणेच सारे या घटकेला

तुझ्या कृपेची छाया राहो आयुष्यावर

नको कोणते आरोप झुटे दिन ढळल्यावर

 

पापभिरू मी सदा ईश्वरा तुलाच भ्याले

आणि विरागी वस्त्रच भगवे की पांघरले

कोणी माझे नव्हते येथे मी एकाकी

संकटकाळी तुला प्रार्थिले असेतसेही

 

अशी जराशी झुळूक आली आनंदाची

आणि वाटले जन्मभरीची हीच कमाई

भ्रमनिरास  होता व्यर्थच की सारे काही

दूर  पंढरी दूर दूर तो विठ्ठल राही

 

निष्क्रिय वाटे,नसे उत्साह का जगताना

विठुराया तुज शल्य कळेना माझे आता

भेटीस तुझ्या आतुरले मन येई नाथा

अस्तिकतेचा भरलेला घट माझा त्राता

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 35 – बापू के संस्मरण-9 लेकिन सिर्फ नाक ही क्यों… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – लेकिन सिर्फ नाक ही क्यों…”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 35 – बापू के संस्मरण – 9 – लेकिन सिर्फ नाक ही क्यों… ☆ 

एक बार गांधीजी बारडोली में ठहरे हुए थे।  किसी ने उनके साथियों को सूचना दी कि एक हट्टा-कट्टा पहाड़ जैसा काबुली मस्जिद में आकर ठहरा है। क्योंकि वह गांधीजी के बारे में पूछता रहता है, कही वह गांधीजी पर हमला न कर दे , इसलिए उनके साथियों ने मकान के आस-पास कंटीले तारों की जो आड़ लगी हुई थी।  दिन  उसका दरवाजा बंद करके ताला लगा दिया। उसी वह काबुली उस दरवाजे के पास देखा गया।  उसने अंदर आने का प्रयत्न भी किया।  लेकिन वहां पहरेदार थे, इसलिए सफल नहीं हो सका। दूसरे दिन कुछ मुसलमान भाइयों ने आकर बताया, “वह काबुली पागल मालूम होता है, कहता है कि मैं गांधीजी की नाक काटूंगा।

यह सुनकर सब लोग और भी घबराये, लेकिन गांधीजी से किसी ने कुछ नहीं कहा। वे उसी तरह अपना काम करते रहे। रात होने पर वह अपने स्वभाव के अनुसार खुले आकाश के नीचे सोने के लिए अपने बिस्तर पर पहुंचे। उन्होंने देखा कि उनको घेरकर चारों ओर कुछ लोग सोये हुए हैं। उन्हें आश्चर्य हुआ. पूछा, ” आप सब लोग तो बाहर नहीं सोते थे। आज यह क्या बात है?”

उन लोगों ने उस काबुली की कहानी कह सुनाई। सुनकर गांधीजी हंस पड़े और बोले, “आप मुझे बचाने वाले कौन हैं? भगवान ने मुझे यदि इसी तरह मारने का निश्चय किया है तो उसे कौन रोक सकेगा? जाइये आप लोग अपने रोज के स्थान पर जाइये।” गांधीजी के आदेश की उपेक्षा भला कौन कर सकता था! सब लोग चले गये, परंतु सोया कोई नहीं।

वह काबुली पहली रात की तरह आज भी आया, लेकिन अंदर नहीं आ सका। फिर सवेरा हुआ, प्रार्थना आदि कार्यों से निबटकर गांधीजी कातने बैठे। देखा, वह काबुली फिर वहां आकर खड़ा हो गया है। एक व्यक्ति ने गांधीजी से कहा, “बापू, देखिये, यह वही काबुली है ।”

गांधीजी बोले, “उसे रोको नहीं, मेरे पास आने दो।” वह गांधीजी के पास आया। उन्होंने पूछा, “भाई, तुम यहां क्यों खड़े थे?” काबुली ने उत्तर दिया, “आप अहिंसा का उपदेश देते हैं। मैं आपकी नाक काटकर यह देखना चाहता हूं कि उस समय आप कहां तक अहिंसक रह सकते हैं।”

गांधीजी हंस पड़े और बोले, “बस, यही देखना है, लेकिन सिर्फ नाक ही क्यों, अपना यह धड़ और यह सिर भी मैं तुम्हें सौंपे देता हूं। तुम जो भी प्रयोग करना चाहो, बिना झिझक के कर सकते हो।” वह काबुली गांधीजी के प्रेम भीने शब्द सुनकर चकित रह गया। उसने ऐसा निडर व्यक्ति कहां देखा था! एक क्षण वह खड़ा रहा। फिर बोला, “मुझे यकीन हो गया है कि आप सत्य और अहिंसा के पुजारी हैं. मुझे माफ कर दीजिये.”

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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