English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 19 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 19 सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 19 ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

लोग  तलाशते  हैं  कि

कोई  तो  फिकरमंद  हो,

वरना कौन ठीक होता है

यूँ ही सिर्फ हाल पूछने से…

 

People  keep   searching  for    

someone who is worried, but then

How could  anyone ever get  fine

Just by inquiring his well-being!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

आये  हो  जो  आँखों  में

तो  कुछ  देर  ठहर जाओ,

एक  उम्र  गुजर  जाती है

यूँही एक ख्वाब सजाने में…

Now that you’ve come in eyes

then, stay there for a while,

An  epoch  passes  by  in

Realising  such  a   dream…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

मेंरे जुनूँ का नतीजा

ज़रूर निकलेगा

इसी सियाह समुंदर से

नूर निकलेगा…

 

Result of my passion

Will definitely come out

From the same dark sea only

The effulgence shall emerge…

  ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

 क्यूँ  कर  आरजू  करूँ  कि

तुम  मुझे  चाहोगे  उम्र  भर

इतना ही ऐतबार काफी है कि

ताउम्र भूल नहीं पाओगे तुम मुझे

 

Why  should  I  desire that  you

must love me throughout the life

The trust that you won’t be able

to forget me lifelong, is enough

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 18 ☆ मुक्तिका ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  मुक्तिका )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 18 ☆ 

☆ मुक्तिका  ☆ 

 

सलिल बूँद मिल स्वाति से, बन जाती अनमोल

तृषा पपीहे की बुझे, जब टेरे बिन मोल

 

मन मुकुलित ममतामयी!, हो दो यह वरदान

सलिल न पंकिल हो तनिक, बहे मधुरता घोल

 

मनुज छोर की खोज में, भटक रहा दिन-रैन

कौन बताये है नहीं, छोर जगत है गोल

 

रहे शिष्य की छाँह से, शिक्षक हरदम दूर

गुरु कह गुरुघंटाल बन, परखें स्वारथ तोल

 

झूम बजाएँ नाचिए, किंतु न दीजै फाड़

अटल सत्य हर ढोल में, रही हमेशा पोल

 

सगा न कोई किसी का, सब मतलब के मीत

सरस सत्य हँस कह सलिल, अप्रिय सत्य मत बोल

 

अगर मधुरता अत्यधिक, तब रह सजग-सतर्क

छिप अमृत की आड़ में, गरल न करे किलोल

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

३-४-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-4 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय  भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-4

अब तूफ़ान थम चुका था। उनके सारे सपने बिखर गये थे। वे वापस  लौट चलें थे।  अपने गाँव की उन गलियों की ओर जिसके निवासियों ने उन्हें अपार स्नेह दिया था। वहीं पर उनके अपने ने घृणा नफरत का उपहार दिया था।उन्हें प्रांगण से ‌बाहर निकलता देख रामखेलावन की जान में जान आई थी,और तुरंत मंचासीन हो अपनी कुर्सी संभाल चुके थे। प्रतियोगियों को पुरस्कृत भी किया था।  लेकिन उनके हृदय का सारा उत्साह जाता रहा था।  उन दोनों बाप बेटों के मन में अपने ही विचारों के  अंतर्द्वंद्व की  आँधियां चल रही थी।  दोनों की व्यथा अलग अलग थी। रामखेलावन सोच रहे थे कि यही स्थिति रही तो एक न एक दिन बूढ़ा बेइज्जती कर ही देगा। पिता जी के आचरण से मुझे अपमानित होना पड़ेगा। उन्होंने अपने मन‌ में झूठी शानो-शौकत तथा बड़प्पन का दंभ पाल लिया था।वे शायद यह भूल चुके थे कि वह आज जो कुछ भी है,वह रघूकाका के त्याग तपस्या व व्यवहार का परिणाम था। उसी के चलते ऊँचा ओहदा ऊँची कुर्सी मिली थी। वे आज दृढ़ निश्चय कर घर को चले थे कि अब और नहीं वे आज ही बुढऊ की ढोल खूंटी पर टांग देंगे। एक तरफ जहां रामखेलावन के‌ हृदय में आक्रोश की ज्वाला क्षोभ का लावा उबाल मार रहा था, वहीं  रघूकाका किसी हारे हुए जुआरी की तरह  ‌बोझिल कदमों से घर लौट रहे थे

ऐसा लगा जैसे ‌जीवन के जुये में एक ही दांव पर वे अपना सब कुछ अपनी ‌सारी पूँजी एक बार में ही हार बैठे हों। आज चोट बलिष्ठ शरीर पर नहीं भावुक दिल पर लगी थी। वे सोच रहे थे कि काश उस दिन अंग्रेजों की एक गोली उनके छाती में उतर गई होती तो अपमान जनक जिंदगी से सम्मानजनक मौत भली होती। इस प्रकार भावनाओं के भंवर में ‌डूबते उतराते ही रघूकाका घर  पहुँचे थे। तब तक राम खेलावन का तांगा भी घर के दरवाजे पर आ लगा था।

लालटेन की‌ पीली जलती हुई लौ की रोशनी के साये में उन दोनों बाप-बेटे का‌ सामना हुआ था।

एक ही रोशनी में बाप बेटों का रंग अलग अलग दिख रहा ‌था। रघूकाका का चेहरा जहां जूड़ी के बुखार के मरीजों की तरह पीला म्लान एवम् उतरा दीख रहा था, वहीं रामखेलावन के चेहरे की‌ भाव भंगिमा बता‌ रही थी कि आक्रोश की आग में  जलते दहकतेअंगारों सी लालिमा लिए रामखेलावन रूपी उगता सूरज आज अवश्य कहर ढायेगा ।

रघूकाका के सामने आते ही ना दुआ ना सलाम फट पड़े थे बारूद के गोले की तरह रामखेलावन – “का हो बुढ़ऊ!  काहे हमरे इज्जत के कबाड़ा करत हउआ,अब तक ई ढोल रख द, तोहार सारी कमी हम पूरा करब।”

अब रघूकाका से भी रहा नहीं गया।

उनके हृदय में पक कर मथ रहा भावनाओं का‌ फोड़ा फूट‌ पडा़ और वे भी अपने ‌ताव में आ गये और बोल पडे़ – “राम खेलावन जी, आज ई जे कुर्सी  तोहके मिलल ह, ई
एही ढोल के कमाई ह, हमें खुशी तो तब होत जब तूं सारे समाज के सामने सीना तान के कहता कि हम‌ एगो आल्हा गावे‌ वाला स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के लडिका हई, जेवन
अपने मेहनत अ इनके ‌परिश्रम के पसीना से इहा तक पहुंचल हइ,। औ अपने समाज के उदाहरन‌ बनता, लेकिन जे समाज में अपना बाप के बाप ना कहि‌ सकल उ बेटा के रिस्ता का निभाई,जा बेटा‌ तू आपन सम्मान के‌ जिनगी में सुखी रहा, हमें हमरे हाल पे छोडि दा  तू भले छूटि जईबा लेकिन  ई समाज अ ढोलक हम ना छोडि पाईब” इस ‌प्रकार रघूकाका के व्यंगबाणो ने रामखेलावन को आहत तो किया ही । निरूत्तर भी,और बह चली उस सेनानी की आंखों से अश्रु धारा और फिर एक बार लौट चलें अपनी‌ सहचरी  ढोल को कंधे पे‌ लटकाये नीम स्याह काले घने अंधेरे के बीच जीवन की पथरीली राहों पर अपने जीवन की नई राह तलाशने। उस राह पे चल पड़े उल्टे पांव जिस राह से चलकर वे घर आये थे।

उन्होंने उस नीम अंधेरी घनी  काली आज की ‌रात  अपने मन में मचलते अंतर्दद्व के साथ शिवान में खेतों बीच बने भग़्न शिवालय में ‌बिताने का निश्चय कर लिया था। आखिर वे जाते भी तो कहां ? राम खेलावन की उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं हुई थी। वो सोच रहे थे कि कल की मंजिल सुबह की सूर्योदय के साथ नई उम्मीद के सहारे ढ़ूढ़ ही लेंगे ।
वो मंदिर के बरामदे में बैठे कुछ सोच रहे थे। गतिशील समय के साथ रात गहराती जा रही‌ थी और उसी गहराती रात के साथ रघूकाका के हृदय का अंतर्दद्व तीव्र हो चला था। उसी अंतर्दद्व में फँसे अपनी स्मृतियों डूबते चले गये थे। जब विचारों की गहनता बढ़ी तो रघूकाका के‌ स्मृतिपटल पर पत्नी का  चेहरा नर्तन कर उठा।  ऐसा लगा जैसे वे उन बीते पलों से संवाद कर उठे हो।

उन्हें पत्नी के साथ बिताए ‌पल हंसाने व रूलाने लगे थे।  सहसा उनके स्मृति में पत्नी के मृत्यु के समय का दृश्य उभर आया थाऔर जीवन के आखिरी पल में कहे पत्नी के शब्द याद आ रहे थे।

आखिरी समय में उनकी पत्नी ने प्यार से उनका हाथ थामते हुए आशा भरी नजरों से उन्हें देखते हुए कहा था “देखो जी रामखेलावन अभी बच्चा है इसे पाल पोस कर अच्छा इंसान ‌बनाना , . मेरे मरने पर इसी के‌ सहारे जीवन बिताना। अपना बुढ़ापा काटना। लेकिन दूसरी शादी मत करना।”

इसके बाद वह कुछ नहीं कह पाई क्यो कि रघूकाका ने उसको ओंठो पर अपना हाथ रख दिया।अब जीवन के आखिरी पलों में बिछोह‌ पीड़ा का भाव रघूकाका के हृदय में कटार की तरह चुभ रहे थे, जिसे सहने में वे असहाय नजर आ रहे थे। और फिर अगली सुबह उनकी पत्नी उनको रोता बिलखता छोड़ नश्वर संसार से बिदा हो गई।

क्रमशः …. 5

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 6 ☆ शिक्षक दिवस विशेष – विद्या की महत्ता ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( शिक्षक दिवस के विशेष अवसर पर प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  का आशीर्वचन विद्या की महत्ता। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 6 ☆

☆ शिक्षक दिवस विशेष – विद्या की महत्ता ☆

विद्या बिन मांगे दिया करती है वरदान

पढे लिखो का हर जगह होता है सम्मान

 

बुद्धि को देती धार नई समझ को चमक निखार

विद्या पा ही व्यक्ति बन पाता है गुणवान

 

मिट जाता अज्ञान सब हट जाता अंधियार

शिक्षा पा ही व्यक्ति हर कहलाता विद्वान

 

सोच समझ के क्षेत्र में आता बडा सुधार

सही गलत की परख की मिल जाती पहचान

 

खुद पर बढता भरोसा  सध सकते सब काम

शिक्षित जन की जिंदगी हो जाती आसान

 

शुभ शिक्षा जहॉ मिले उसका लीजै लाभ

विद्या अमृत बिंदु है नित करती कल्याण

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 17 – महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान-2 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 17 ☆ 

☆ महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान – 2 ☆

हिन्दी सिनेमा की फ़िल्मों में पर्दे पर पहली बार होली फ़िल्म ‘औरत’ में खेली गई थी। यह ब्लैक एंड वाइट फ़िल्म साल 1940 में रिलीज़ हुई थी। यह फ़िल्म फ़िल्मकार महबूब ख़ान के निर्देशन में बनी थी, लेकिन पर्दे पर होली के रंग देखे नहीं जा सके। महबूब ख़ान की 1952 में आई फ़िल्म ‘आन’ में होली के असली रंग पर्दे पर देखने को मिले। इससे पहले फ़िल्मों में होली तो दिखती थी, लेकिन रंग नज़र नहीं आते थे। जाहिर है, जब रंगीन फ़िल्म आई, तो रंग भी पर्दे पर नज़र आए। यह नादिरा की डेब्यू फ़िल्म थी। नादिरा वाले किरदार के लिए महबूब ख़ान की पहली पसंद नर्गिस थीं लेकिन उनके पास अधिक फ़िल्म होने के कारण समय नहीं था। मधुबाला से सम्पर्क किया गया, उनके पास भी एक साल तक तारीख़ नहीं थीं। फ़िल्म देखने के बाद लगता है कि नर्गिस फ़िल्म की ख़ूँख़ार राजकुमारी और बाद में समर्पित प्रेमिका की भूमिका हेतु उपयुक्त होतीं।

आन भारत की पहली टेक्नीकलर फ़िल्म थी, जिसे 16 एम-एम ब्लेक-व्हाइट में बनाकर 32 एम-एम में लन्दन से रंगीन करवाया गया था। जिसमें दिलीप कुमार, निम्मी और प्रेमनाथ के अलावा इराक़ी लड़की नादिरा ने काम किया था और उसे पूरी दुनिया में लन्दन में रिलीज़ किया गया था।

‘अंदाज’ फिल्म प्रेम त्रिकोण के लोकप्रिय बंबइया फार्मूले पर बनी होने के बावजूद एक ताजगी की बहार लेकर आती है। उस दौर में उन्होंने दिलीप कुमार से जो निगेटिव शेड वाले चरित्र का अभिनय करवाया है वह आज भी अभिनेताओं को प्रेरणा प्रदान करता है। अंदाज़ 1949 की भारतीय बॉलीवुड फ़िल्म है, जिसे नौशाद द्वारा संगीत के साथ महबूब खान द्वारा निर्देशित किया गया है। फिल्म में दिलीप कुमार, नरगिस और राज कपूर एक प्रेम त्रिकोण में, सहायक भूमिकाओं में कुक्कू और मुराद के साथ थे। फ़िल्म का संगीत नौशाद और मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा गीत लिखे गए। दिलीप कुमार और राज कपूर की एक साथ ऑनस्क्रीन फीचर एकमात्र फिल्म है।

महबूब ने ‘औरत’ के बाद ‘रोटी’ फिल्म बनाई, जो वर्गभेद के साथ ही पूँजीवाद और धन की लालसा के नकारात्मक प्रभाव पर केंद्रित थी। काल्पनिक पृष्ठभूमि में बनी इस फिल्म में सामाजिक असमानता, पैसों पर आधारित सामाजिक मूल्यों को खूबसूरती से चित्रित किया गया था। फिल्म के अंत में प्यास के कारण नायक की मौत हो जाती है। हालाँकि मौत के समय उसके पास काफी मात्रा में सोना एवं धन होता है। इस फिल्म के माध्यम से महबूब खान का सामाजिक झुकाव स्पष्ट दिखता है। ‘रोटी’ के बाद महबूब खान ने महबूब प्रोडक्शंस की स्थापना की। वह किसी साम्यवादी दल के सदस्य नहीं थे, लेकिन उनकी कृतियों में साम्यवादी विचारधारा के प्रति झुकाव स्पष्ट दिखता है। उनकी फिल्मों में अत्यधिक नाटकीयता भी नहीं दिखती।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 44 ☆ शहरातून गावी परतलेल्या मजुरांचे मनोगत… ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  रचित एक समसामयिक भावप्रवण  कविता  “शहरातून गावी परतलेल्या मजुरांचे मनोगत…। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 44 ☆

शहरातून गावी परतलेल्या मजुरांचे मनोगत…  

 

मातीतच राहतो मी….

 

आताच आलो होतो

पाय वळवून गावाकडे मी,

रंगीत शहराची तालीम

लगेचच फिरवू कसा मी.

 

भरकटलो वर्षानुवर्षे

आताच वळलो होतो,

शेताच्या मातीत आता

बीज बनून रूजलो मी.

 

धावलो स्वप्नांच्यामागे

क्षणाची उसंत नव्हती

आताच कुठेसा रोजच

हृदयाशी बोलतो मी.

 

कोंदटलेल्या श्वासात

मज बांधून घेतले होते.

आता कुठेसा गावात

प्राणवायू शोषतो मी.

 

हिरवळ गर्द हिरवी

चहुकडे पसरलेली

रोखून ठेवी गावात

शहरी कसा येऊ मी.

 

हा बांध शेतावरचा

ओलांडू न देई मजला

खुणेनंच सांगतो नाते

मातीशी जोडतो मी.

 

आता नको ते मजला

वाळू, सिमेंट, घमेले

डोक्यावरील ओझे

मातीत सोडतो मी.

 

मातीत परिश्रम करूनि

पेरतो मी रक्त-घाम

माझाच बनून आता

मातीतच राहतो मी.

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 60 ☆ महाभारत नहीं रामायण ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख महाभारत नहीं रामायण । इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 60 ☆

☆ महाभारत नहीं रामायण ☆

जब तक सहने की चरम सीमा रही, रामायण लिखी जाएगी। मांगा हक़ जो अपने हित में महाभारत हो जाएगी। जी! हां, यही सत्य है जीवन का, जो सदियों से धरोहर के रूप में सुरक्षित है। इसलिए जीवन में नारी को सहन करने की शिक्षा दी जाती है, क्योंकि मौन सर्वश्रेष्ठ निधि है। वैसे तो यह सबके लिए वरदान है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने मौन रहकर, चित्त को एकाग्र कर अपने अभीष्ट को प्राप्त किया है और जीव-जगत् व आत्मा-परमात्मा के रहस्य को जाना है। जब तक आप में सहन करने व त्याग करने का सामर्थ्य है; परिवार-जन व संसार के लोग आपको सहन करते हैं, अन्यथा जीवन से बे-दखल करने में पल-भर भी नहीं लगाते। विशेष रूप से नारी को तो बचपन से यही शिक्षा दी जाती है, ‘तुम्हें सहना है कहना नहीं’ और  वह धीरे-धीरे उसे जीवन जीने का मूल-मंत्र बना लेती है तथा पिता, पति व पुत्र के आश्रय में सदैव मौन रह कर अपना जीवन बसर करती है।

वास्तव में नारी धरा की भांति सहनशील है; गंगा की भांति निर्मल व निरंतर गतिशील है; पर्वत की भांति अटल है; पापियों के पाप धोती है, परंतु कभी उफ़् नहीं करती। इसी प्रकार नारी भी ता-उम्र सबके व्यंग्य-बाणों के असंख्य भीषण प्रहार व ज़ुल्म हंसते-हंसते सहन करती है… यहां तक कि वह कभी अपना पक्ष रखने का साहस भी नहीं जुटा पाती। वैसे तो पुरुष वर्ग द्वारा यह अधिकार नारी प्रदत्त ही नहीं है। सो! वह दोयम दर्जे की प्राणी समझी जाती है… एक हाड़-मांस की जीवित प्रतिमा, जिसे दु:ख-दर्द होता ही नहीं, क्योंकि उसका मान-सम्मान नहीं होता। इसलिए आजीवन कठपुतली की भांति दूसरों के इशारों पर नाचना उसकी नियति बन जाती है। वह आजीवन समस्त दायित्व-वहन करती है; उसी आबोहवा में स्वयं को ढाल लेती है; दिन-भर घर को सजाती-संवारती व व्यवस्थित करती है और वह उस अहाते में सुरक्षित रहती है। बच्चों को जन्म देकर ब्रह्मा व उनकी परवरिश कर विष्णु का दायित्व निभाती है और उसके एवज़ में उसे वहां रहने का अधिकार प्राप्त होता है। यदि वह संतान को जन्म देने में असमर्थ रहती है, तो बांझ कहलाती है और उससे उस घर में रहने का अधिकार भी छीन लिया जाता है, क्योंकि वह वंश-वृद्धि नहीं कर पाती। परिणाम-स्वरूप पति के पुनः विवाह की तैयारियां प्रारंभ की जाती हैं। इस स्थिति में साक्षर-निरक्षर का भेद नहीं किया जाता है… भले ही वह अपने पति से अधिक धन कमा रही हो; अपने सभी दायित्वों का सहर्ष वहन कर रही हो। मुझे स्मरण हो रही है ऐसी ही एक घटना…जहां एक शिक्षित नौकरीशुदा महिला को केवल बांझ कह कर ही तिरस्कृत नहीं किया गया; उसे पति के विवाह में जाने को भी विवश कर लिया गया, ताकि उसके मांग में सिंदूर व गले में मंगलसूत्र धारण करने का अधिकार कायम रह सके और उसे उस छत के नीचे रहने का अधिकार प्राप्त हो सके। परंतु एक अंतराल के पश्चात् घर में बच्चों की किलकारियां गूंजने के पश्चात् घर-आंगन महक उठा और वह खुशी से अपना पूरा वेतन घर में खर्च करती रही। धीरे-धीरे उसकी उपस्थिति नव-ब्याहता को खलने लगी और वह उस घर को छोड़ने को मजबूर हो गयी। परंतु फिर भी वह मांग में सिंदूर धारण कर पतिव्रता नारी होने का स्वांग रचती रही। है न यह अन्याय….परंतु उस पीड़िता के पक्ष में कोई आवाज़ नहीं उठाता।

सो! जब तक सहनशक्ति है, आपकी प्रशंसा होगी और रामायण लिखी जाएगी। परंतु जब आपने अपने हित में हक़ मांग लिया, तो महाभारत हो जाएगी। वैसे भी अपने अधिकारों की मांग करना संघर्ष को आह्वान करना है और संघर्ष से महाभारत हो जाता है और जीवन का कोई भी पक्ष इससे अछूता नहीं। राजनीति हो या धर्म, घर-परिवार हो या समाज, हर जगह इसका दबदबा कायम है। राजनीति तो सबसे बड़ा अखाड़ा है, परंतु आजकल तो सबसे अधिक झगड़े धर्म के नाम पर होते हैं। घर-परिवार में भी अब इसका हस्तक्षेप है। पिता-पुत्र, भाई-भाई, पति- पत्नी के जीवन से स्नेह-सौहार्द इस प्रकार नदारद है, जैसे चील के घोसले से मांस। जहां तक पति-पत्नी का संबंध है, उनमें समन्वय व सामंजस्य है ही नहीं… वे दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी के रूप में अपना क़िरदार निभाते हैं, जिसका मूल कारण है अहं, जो मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। इसी कारण आजकल वे एक-दूसरे के अस्तित्व को भी नहीं स्वीकारते, जिसका परिणाम अलगाव व तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष है। वैसे भी आजकल संयुक्त परिवार-व्यवस्था का स्थान एकल परिवार व्यवस्था ने ले लिया है, परंतु फिर भी पति-पत्नी आपस में प्रसन्नता से अपना जीवन बसर नहीं करते और एक-दूसरे से निज़ात पाने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करते। वैसे भी आजकल ‘तू नहीं, और सही’ का बोलबाला है। लोग संबंधों को वस्त्रों की भांति बदलने लगे हैं, जिसका मूल कारण लिव-इन व प्रेम-विवाह है। अक्सर बच्चे भावावेश में संबंध तो स्थापित कर लेते हैं और चंद दिन साथ रहने के पश्चात् एक-दूसरे की कमियां उजागर होने लगती हैं, उन्हें वे स्वीकार नहीं पाते और परिणाम होता है तलाक़, जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। वैसे आजकल सिंगल पेरेंट का प्रचलन भी बहुत बढ़ गया है। सो! इन विषम परिस्थितियों में बच्चों का सर्वांगीण विकास कैसे संभव है? एकांत की त्रासदी झेलते बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो जाता है। वे असामान्य हो जाते हैं; सहज नहीं रह पाते और वही सब दोहराते हुए अपना जीवन नरक-तुल्य बना लेते हैं।

ग़लत लोगों से अच्छी बातों की अपेक्षा कर हम आधे ग़मों को प्राप्त करते हैं और आधी मुसीबतें हम अच्छे लोगों में दोष ढूंढ कर प्राप्त करते हैं। ग़लत साथी का चुनाव करके हम अपने जीवन के सुख-चैन को दांव पर लगा देते हैं और दोष-दर्शन हमारा स्वभाव बन जाता है, जिसके परिणाम-स्वरूप हमारा जीवन जहन्नुम बन जाता है। आजकल लोग भाग्य व नियति पर कहां विश्वास करते हैं? वे तो स्वयं को भाग्य- विधाता समझते हैं और यही सोचते हैं कि उनसे अधिक बुद्धिमान संसार में कोई दूसरा है ही नहीं। इस प्रकार वे अहंनिष्ठ प्राणी पूरे परिवार के जीवन भर की खुशियों को लील जाते हैं। संदेह व अविश्वास इसके मूल कारक होते हैं। सो! समाज में शांति कैसे व्याप्त रह सकती है? इसलिए बीते हुए कल को याद करके, उससे प्राप्त सबक को स्मरण रखना श्रेयस्कर है। मानव को अतीत का स्मरण कर अपने वर्तमान को दु:खमय नहीं बनाना चाहिए, बल्कि उससे सीख लेकर अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहिए। जीवन में सफलता पाने का मूल-मंत्र यह है कि ‘उस लम्हे को बुरा मत कहो, जो आपको ठोकर पहुंचाता है; बल्कि उस लम्हे की कद्र करो, क्योंकि वह आपको जीने का अंदाज़ सिखाता है। दूसरे शब्दों में अपनी हर ग़लती से सीख गहण करो, क्योंकि आपदाएं धैर्य की परीक्षा लेती हैं और तुम्हें मज़बूत बनाती हैं। सो! ग़लती को दोहराओ मत। जो मिला है, उन परिस्थितियों को उत्तम बनाने की चेष्टा करो, न कि भाग्य को कोसने की। हर रात के पश्चात् सूर्योदय अवश्य होता है और अमावस के पश्चात् पूनम का आगमन भी निश्चित है। जीवन में आशा का दामन कभी मत छोड़ो। गया वक्त लौटकर कभी नहीं आता। हर पल को सुंदर बनाने का प्रयास करो। जीवन में सहन करना सीखो; त्याग करना सीखो, क्योंकि अगली सांस लेने के लिए मानव को पहली सांस को त्यागना पड़ता है। संचय की प्रवृत्ति का त्याग करो। इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही इस संसार से जाना है। सदाशयता को अपनाओ और दूसरों के प्रति कर्तव्यनिष्ठता का भाव  रखो, क्योंकि कर्त्तव्य व अधिकार अन्योन्याश्रित हैं। अधिकार स्थापत्य अशांति-प्रदाता है; हृदय का सुक़ून छीन लेता है। उसे अपने जीवन से बाहर का रास्ता दिखा दो, ताकि हर घर में रामायण की रचना हो सके। पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष व संघर्ष को जीवन में पदार्पण मत करने दो, क्योंकि ये महाभारत के जनक हैं, प्रणेता हैं। सो! अलौकिक आनंद से अपना जीवन बसर करो।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ समझ समझकर.. ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ समझ समझकर.. ☆

प्रातः भ्रमण कर रहा हूँ। देखता हूँ कि लगभग दस वर्षीय एक बालक साइकिल चला रहा है। पीछे से उसी की आयु की एक बिटिया बहुत गति से साइकिल चलाते आई। उसे आवाज़ देकर बोली, ‘देख, मैं तेरे से आगे!’ इतनी-सी आयु के लड़के के ‘मेल ईगो’ को ठेस पहुँची। ‘..मुझे चैलेंज?… तू मुझसे आगे?’  बिटिया ने उतने ही आत्मविश्वास से कहा, ‘हाँ, मैं तुझसे आगे।’ लड़के ने साइकिल की गति बढ़ाई,.. और बढ़ाई..और बढ़ाई पर बिटिया किसी हवाई परी-सी.., ये गई, वो गई। जहाँ तक मैं देख पाया, बिटिया आगे ही नहीं है बल्कि उसके और लड़के के बीच का अंतर भी निरंतर बढ़ाती जा रही है। बहुत आगे निकल चुकी है वह।

कर्मनिष्ठा, निरंतर अभ्यास और परिश्रम से लड़कियाँ लगभग हर क्षेत्र में आगे निकल चुकी हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था लड़के का विलोम लड़की पढ़ाती है। लड़का और लड़की, स्त्री और पुरुष विलोम नहीं अपितु पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा। महादेव यूँ ही अर्द्धनारीश्वर नहीं कहलाए। कठिनाई है कि फुरसत किसे है आँखें खोलने की।

कोई और आँखें खोले, न खोले, विवाह की वेदी पर लड़की की तुला में दहेज का बाट रखकर संतुलन(!) साधनेवाले अवश्य जाग जाएँ। आँखें खोलें, मानसिकता बदलें, पूरक का अर्थ समझें अन्यथा लड़कों की तुला में दहेज का बाट रखने को रोक नहीं सकेंगे।

समझ समझकर समझ को समझो।…भाई लोग, क्या समझे!

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 7:43 बजे, 3.9.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 13 ☆ पावस में शिव आराधना तथा उत्तम स्वास्थ्य की सहज दिनचर्या ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  पावस में शिव आराधना तथा उत्तम स्वास्थ्य की सहज दिनचर्या)

☆ किसलय की कलम से # 13 ☆

☆ पावस में शिव आराधना तथा उत्तम स्वास्थ्य की सहज दिनचर्या

पावस को भारतीय ऋतु-चक्र में महत्त्वपूर्ण  माना गया है। पावस में ही श्रावण मास भी आता है, जो व्रत, पर्वों, उपवास तथा स्वास्थ्य के लियेअत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। श्रवण नक्षत्र के योग के कारण ही ‘श्रावण मास’ कहलाने वाले  इस मास और प्रकृति का आपस में अत्यंत मधुर संबंध है। पावस ग्रीष्म की तपन से व्याकुल जीवों को वर्षा और फुहारों से शीतलता प्रदान कर आत्मिक सुख देता है। आँखों के सामने सर्वत्र हरियाली व यत्रतत्र भरा हुआ जल दिखाई देता है। विशेषतः कृषकों के चेहरे हरे-भरे खेतों को देखकर खिल उठते हैं। प्रकृति नवयौवना सी सजने लगती है। पपीहे, मोर, चातक, कोयल व विभिन्न पक्षियों की मधुर आवाजें कानों में रस घोलती हैं। थोड़ा सा मौसम खुलते ही भँवरे व तितलियाँ  सबकी आँखों को अनोखा सुख पहुँचाती हैं। हमारे देश में सावन की झड़ी तथा वर्षा की फुहारें जनमानस में विशेष स्थान रखती हैं। जल की उपलब्धता, फसलों की पैदावार व प्राकृतिक हरियाली भी इसी वर्षा पर निर्भर करती है।

पावस  व्रत-पर्वों का समय होता है। हरियाली तीज, रक्षाबंधन, नागपंचमी व शिव को समर्पित श्रावण के सभी सोमवार, हसलषष्ठी, संतान सप्तमी आदि अनेक त्यौहार पावस को हर्षोल्लास से युक्त तथा भक्तिमय बना देते हैं। भगवान विष्णु के देवशयनी एकादशी से योगमुद्रा में जाने के पश्चात भगवान शिव ही सृष्टि के पालनकर्ता बन जाते हैं। यही कारण है कि श्रावण में शिव भगवान की सर्वाधिक भक्ति व आराधना की जाती है। इन्हीं दिनों देवी सती ने अपना शरीर त्यागने से पूर्व हर जन्म में शिव जी को ही पति के रूप में पाने का प्रण लिया था। समुद्र-मंथन से निकले विष को भी श्रावण माह में ही शिव जी ग्रहण कर नीलकंठ के नाम से विख्यात हुए। विष की तपन और व्याकुलता कम करने के लिए उस समय सभी ऋषि-मुनियों व देवताओं ने शिवजी को जल अर्पित किया था।  तब से आज तक श्रावण में शिव जी को जलाभिषेक से शीतलता प्रदान कर प्रसन्न किया जाता है। कन्यायें योग्य वर के लिए व महिलायें अपने पति की मंगल कामना हेतु व्रत, उपवास व शिव आराधना करती हैं। वैसे भी शिव ध्वनि में ऐसी विराट शक्ति है कि जिसके प्रभाव से प्राणियों के दुख-संकट दूर हो जाते हैं। “शिवमस्तु सर्व जगताम्” अर्थात संपूर्ण विश्व का कल्याण हो। आशय यह है कि जब शिव का मूल ही कल्याण हो तब उनकी भक्ति-आराधना से मनुष्यों का कल्याण तो होना ही है। अतः सनातन धर्मावलंबियों के लिए देवों के देव महादेव अर्थात शिव जी विशेष महत्त्व रखते हैं। ऐसे विशिष्ट देव और भगवान राम के आराध्य शिवजी की पूजा तथा आराधना भी विशिष्ट तरह से ही की जाती है।

मंदिरों व देवस्थानों के अतिरिक्त पार्थिव शिवलिंग का भी विशेष महत्त्व हमारे ग्रंथों में वर्णित है। स्नान करने के उपरांत इष्ट का स्मरण करते हुए गंगाजल अथवा पवित्र जल, भस्म, गाय का गोबर, कोई एक अनाज, उपलब्ध फलों का रस, कनेर के पुष्प, मक्खन, गुड़ एवं स्वच्छ मिट्टी अथवा रेत सहित सभी को किसी बड़े पात्र में लेकर गूँथ लें। तत्पश्चात पवित्र किए गए नियत स्थान पर अक्षत रखकर शिवलिंग का निर्माण करें। अभिषेक हेतु ताम्रपत्र के अतिरिक्त अन्य धातु के पात्रों का उपयोग करें, क्योंकि दुग्ध अथवा पंचामृत ताम्रपात्र में मदिरा तुल्य हो जाते हैं और हम अनजाने में शिव जी को विष का अर्पण कर देते हैं। इसी तरह शिव जी द्वारा श्रापित केतकी के फूल, तुलसी पत्र, हल्दी, सिंदूर आदि शिवलिंग पर न चढ़ायें। दुग्ध, शहद, दही, जल से शिवलिंग का अभिषेक करें। बिल्व पत्रों पर चंदन से ‘ॐ नमः शिवाय’ लिखकर शिवलिंग पर चढ़ायें। शिव जी भोले भंडारी हैं। आप के पास पूजन हेतु जो भी सामग्री उपलब्ध उनका ही उपयोग करें, शेष हेतु अपने भाव निवेदित करने से भी वही फल प्राप्त होता है। अतः जो भी उपलब्ध हो- दूर्वा, हरसिंगार, जुही, कनेर, बेला, चमेली, अलसी के फूल, शमी के पत्ते, बेलपत्र, केसर, चंदन, इत्र, मिश्री, ऋतुफल, चंदन, अबीर, भभूती, गुलाल, ऋतुफल, भाँग, धतूरा, अकौआ, श्वेत मिष्ठान, धूप, दीप, हवन, आरती के साथ पूजन संपन्न करें। पूजन के उपरांत चावल, तिल जौ, गेहूँ, चना आदि गरीबों में बाँटना चाहिए। ऐसा भी कहा गया है कि पारद शिवलिंग की पूजा से समृद्धि व धन-धान्य प्राप्त होता है। काँसे के पात्र में भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिये। शरीर पर तेल न लगायें। दिन में शयन न करें। नंदी (बैल) को हरी घास या कुछ न कुछ अवश्य खिलायें। श्रावण में व्रत न रखने वाले प्राणी स्नानपूर्व कुछ ग्रहण न करें और न ही तामसी भोजन करें। आटे की गोलियाँ मछलियों को खिलाना चाहिए। हरे पेडों को न काटें। हमारे शिव जी इतने भोले हैं कि शिवमूर्ति अथवा शिवलिंग के अभाव में भक्तजन अपने अंगूठे को भी शिवलिंग मानकर उनका स्मरण कर सकते हैं, इसीलिये  तो कहा गया है कि ईश्वर भाव के भूखे होते हैं।

भगवान शिव का अभिषेक जल से करने पर ताप-ज्वर, शहद चढ़ाने से क्षय रोग व गौ-दुग्ध से शारीरिक क्षीणता समाप्त होती है। पंचाक्षरी मंत्र ‘ॐ नमः शिवाय’ के जाप से मानसिक शांति प्राप्त होती है।

वैज्ञानिक दृष्टि से श्रावण मास सहित पूरे पावस में उपवास रखने से पाचन संस्थान ठीक से कार्य करता है। स्वच्छता, संतुलित भोजन, सुपाच्य फलाहार, धूप, दीप, हवन, आराधना, ध्यान, जाप आदि निश्चित रूप से शांति व स्वास्थ्यवर्धक होते हैं। व्रत, शिव आराधना, परोपकार व सात्त्विक दिनचर्या जहाँ तनाव एवं रक्तचाप बढ़ने नहीं देती वहीं मानव कठिन परिस्थितियों में विचलित भी नहीं होता। ऐसा करने पर प्राणी स्वयं से मौसमी बीमारियाँ दूर रखते हुए नीरोग रह सकता है, क्योंकि अब यह वैज्ञानिक तौर पर भी सिद्ध हो चुका है कि कुछ मंत्रों के जाप, शंख ध्वनि, तुलसी, पंचामृत, पंचगव्य, हवन, धूप आदि हानिकारक जीवाणुओं और विषाणुओं को नष्टकर हमें अनेक बीमारियों से सुरक्षित रखने में सक्षम हैं।

पावस में प्राकृतिक सौंदर्य बढ़ जाता है। धरा को जलवृष्टि से संतृप्ति मिलती है। पावस प्राणियों में सद्भावना का गुण विकसित करता है। पवित्रता, स्वच्छता तथा संयमित खानपान हमें बीमारियों से बचाते हैं।  प्राणियों द्वारा किये जाने वाले व्रत, उपवास और शिव की पूजा-आराधना का विधान संपूर्ण विश्व के कल्याण हेतु ही बना है। यही पावस के श्रावण मास में शिव आराधना का उद्देश्य तथा उत्तम स्वास्थ्य की सहज दिनचर्या भी है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

दिनांक: 22 जुलाई 2020

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 59 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 59 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

कलम

कलम आज जो लिख रही,

जीवन का संग्राम।

दर्ज हुआ इतिहास में,

रणवीरों के नाम।।

 

यामा

यामा के संघर्ष को,

मिला अंततः न्याय।

चाहत ने अभिनव लिखा,

जीवन का अध्याय।।

 

आमंत्रण

आमंत्रण अनुराग का,

करते हैं स्वीकार।

हल्दी, कुमकुम में रचा,

बसा तुम्हारा प्यार।।

 

अनुराग

प्रियतम के प्रति चित्त में,

यह कैसा अनुराग।

प्रति दिन छल करता रहा,

किया नहीं पर त्याग।।

 

नलिनी

नलिनी जब खिलने लगी,

हर्षित हुए तड़ाग।

कल-कल कल झरना बहे,

मधुरिम गाता राग।।

 

अनुराग

कभी प्रेम की बांसुरी,

कभी सुरों का राग।

कभी पिया की रागिनी,

जीने का अनुराग ।।

 

तर्पण

है आमंत्रण काग को,

जगे काग के भाग।

पितरों को तर्पण करें,

बुला मुँडेर काग।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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