(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक भावप्रवण कविता अनुस्वार । इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिकआभार। )
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक लघुकथा “ कारण”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 69 ☆
☆ कारण ☆
“लाइए मैडम ! और क्या करना है ?” सीमा ने ऑनलाइन पढ़ाई का शिक्षा रजिस्टर पूरा करते हुए पूछा तो अनीता ने कहा, “अब घर चलते हैं । आज का काम हो गया है।”
इस पर सीमा मुँह बना कर बोली, ” घर ! वहाँ चल कर क्या करेंगे? यही स्कूल में बैठते हैं दो-तीन घंटे।”
“मगर, कोरोना की वजह से स्कूल बंद है !” अनीता ने कहा, ” यहां बैठ कर भी क्या करेंगे ?”
“दुखसुख की बातें करेंगे । और क्या ?” सीमा बोली, ” बच्चों को कुछ सिखाना होगा तो वह सिखाएंगे । मोबाइल पर कुछ देखेंगे ।”
“मगर मुझे तो घर पर बहुत काम है,” अनीता ने कहा, ” वैसे भी ‘हमारा घर हमारा विद्यालय’ का आज का सारा काम हो चुका है। मगर सीमा तैयार नहीं हुई, ” नहीं यार। मैं पांच बजे तक ही यही रुकुँगी।”
अनीता को गाड़ी चलाना नहीं आता था। मजबूरी में उसे गांव के स्कूल में रुकना पड़ा। तब उसने कुरेद कुरेद कर सीमा से पूछा, “तुम्हें घर जाने की इच्छा क्यों नहीं होती ? जब कि तुम बहुत अच्छा काम करती हो ?” अनीता ने कहा।
उस की प्यार भरी बातें सुनकर सीमा की आँख से आँसू निकल गए, “घर जा कर सास की जली कटी बातें सुनने से अच्छा है यहाँ सुकून के दो चार घंटे बिता लिए जाए,” कह कर सीमा ने प्रसन्नता की लम्बी साँस खींची और मोबाइल देखने लगी।
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “सॉरी का चलन ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 39 – सॉरी का चलन ☆
कुछ लोगों को ये शब्द इतना पसंद आता है, कि वे कामचोरी करने के बाद इसका प्रयोग यत्र-तत्र करते नजर आ जाते हैं। उम्मीदों की गठरी थामकर जब कोई चल पड़ता है, तो सबसे पहले इसी शब्द से उसका पाला पड़ता है। जिसकी ओर भी उम्मीद की नज़र से देखो वो अपना पल्ला झाड़कर,आगे बढ़ जाता है। अब क्या किया जाए कार्य तो निर्धारित समय पर करना ही है, सो बढ़ते चलो, जो मेहनती है, वो अवश्य ही अपने उदेश्य में सफल होगा ।
क्षमा कीजिए का स्थान सॉरी शब्द ने तेजी के साथ हड़प लिया है। सनातन काल से ही क्षमा को वीरों का अस्त्र व आभूषण कहा जाता रहा है। इसका प्रयोग कमजोर लोग नहीं कर पाते हैं, वे क्रोधाग्नि में आजीवन जलकर रह सकते हैं किंतु अपना हृदय विशाल कर किसी को माफ नहीं कर सकते। जैन धर्म में तो क्षमा पर्व का आयोजन किया जाता है। जिसमें वे एक दूसरे से हाथों को जोड़कर अपनी जानी – अनजानी गलतियों के प्रति प्रायश्चित करते हुए दिखते हैं।
अच्छा ही है, अपनी पुरानी भूलों को भूलकर आगे बढ़ना ही तो सफल जिंदगी का पहला उसूल होता है। पापों को धोने की परंपरा तो अनादिकाल से चली आ रही है। पवित्र नदियों में डुबकी लगाकर हम यही तो करते चले आ रहे हैं।
क्षमा की बात हो और महात्मा गांधी जी का नाम न आये ये तो बिल्कुल उचित नहीं है। जिनका मन सच्चा होता है वे किसी के प्रति भी कोई दुराग्रह नहीं रखते हैं। हो सकता है किसी व्यस्तता के चलते आज उन्होंने सॉरी कहा हो पर जैसे ही अच्छे दिनों की दस्तक होगी अवश्य ही हाँ कहेंगे, “अरे भई मेरी ओर भी निहारा कीजिए, हम भी लाइन में खड़े होकर कब से दस्तक दे रहे हैं।”
समय पर समय का साथ भले ही छूट जाए पर ये शब्द कभी नहीं छूटना चाहिए। आज वो सॉरी कह रहे हैं कल सफ़लता हासिल करने के बाद आप भी इसे बोल सकते हैं। जिस तरह ब्रह्मांड में ऊर्जा घूमती रहती है, कभी नष्ट नहीं होती, ठीक वैसे ही ये शब्द व्यक्ति, स्थान, भाव, उदेश्य को बदलता हुआ इस मुख से उस मुख तक चहलकदमी करता रहता है। लोगों को तो अब इसका अभ्यास हो चुका है। बात- बात पर सॉरी कहा औरआगे बढ़ चले।
बस कहते – सुनते हुए आगे बढ़ते रहें यही हम सबका मुख्य लक्ष्य होना चाहिए।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं “राष्ट्र अस्मिता ”.)
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना पहले खुद को पाठ पढ़ायें .। )
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. लेख में वर्णित विचार श्री अरुण जी के व्यक्तिगत विचार हैं। ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक दृष्टिकोण से लें. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ प्रत्येक बुधवार को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “आज़ाद हिन्द फौज के सेनानी और बापू ”)
☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 22 ☆
☆ आज़ाद हिन्द फौज के सेनानी और बापू ☆
गांधी जी के अपनी ओर से आज़ाद हिन्द फौज के कैदियो के बचाव मे कोई कमी नहीं रहने दी थी ,उनकी सलाह पर कॉंग्रेस कार्य समिति ने अपनी राय व्यक्त की थी कि ‘यह सही और उचित भी है कि कॉंग्रेस आज़ाद हिन्द फौज के सदस्यो का मुकदमे मे बचाव करे और संकटग्रस्तो को सहयता दे। ‘भूलाभाई देसाई, तेज़ बहादुर सप्रू और जवाहर लाल नेहरू आज़ाद हिन्द फौज के सैनिको के बचाव मे आगे आए थे।
आज़ाद हिन्द फौज के केदियो को अतिशय गुप्तता से भारत लाया गया था।सरदार पटेल ने गांधी जी को यह सूचना दी थी कि कुछ कैदियो को फौजी अदालत मे मुकदमा चला कर गोलो मार दी गई तब गांधीजी ऐसी कार्यवाही के कड़े विरोध मे वाइसराय लार्ड बेवेल को लिखा था कि मैं सुभाष बाबू द्वारा खड़ी की गई सेना के सैनिकों पर चल रहे मुकदमे की कार्यावही को बड़े ध्यान से देख रहा हूँ। यद्पि शस्त्र बल से किए जानेवाले किसी संरक्षण से मैं सहमत नहीं हो सकता, फिर भी शस्त्रधारी व्यक्तिओ द्वारा अकसर जिस वीरता और देशभक्ति का परिचय दिया जाता हैं,उसके प्रति मैं अंधा नहीं हूँ।जिन लोगो पर मुकदमा चल रहा है ,उनकी भारत पूजा करता है।मैं तो इतना ही कहूँगा कि जो कुछ किया जा रहा है वह उचित नहीं हैं। गांधीजी इन कैदियो के बचाव को लेकर भारत के प्रधान सेनापति जनरल आचिनलेक से भी मिले और उनसे आश्वस्त करनेवाला उत्तर पाकर गांधी जी को प्रसन्नता हुई थी।
गांधीजी सरदार पटेल के साथ इन कैदियो से दो बार मिलने गए –एक बार काबुल लाइंस मे और दूसरी बार लाल किले मे। बैरकों मे चल कर गांधी जी जनरल मोहन सिंह से मिलने गए। वे आज़ाद हिन्द फौज के संस्थापक थे वहाँ से गांधीजी फौजी अस्पताल भी गए और वे मेजर जेनरल चटर्जी ,मेजर जनरल लोकनाथन और कर्नल हबिबुर्रहमान से भी मिले
गांधीजी ने आज़ाद हिन्द फौज के सैनिको की बहादुरी और भारत की स्वतन्त्रता के खातिर मरने की उनकी तैयारी की खुल कर हृदय से प्रशंसा की थी।
( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें सफर रिश्तों का तथा मृग तृष्णा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता जीवन तो कुछ ऐसे बह गया)
Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>> मृग तृष्णा
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 19 ☆ जीवन तो कुछ ऐसे बह गया☆
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना “बेबसी”। )
आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है श्री शंतिलाल जैन जी के व्यंग्य संग्रह “वे रचना कुमारी को नहीं जानते” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। संयोग से इस व्यंग्य संग्रह को मुझे भी पढ़ने का अवसर मिला। श्री शांतिलाल जी के साथ कार्य करने का अवसर भी ईश्वर ने दिया। वे उतने ही सहज सरल हैं, जितना उनका साहित्य। श्री विवेक जी ने भी उसी सहज सरल भाव से पैंतालीस कॉम्पैक्ट व्यंग्य रचनाओं परअपने सार्थक विचार रखे हैं। यह तय है कि एक बार प्रारम्भ कर आप भी बिना पूरी पुस्तक पढ़े नहीं रह सकते।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 42 ☆
पुस्तक – वे रचना कुमारी को नहीं जानते
व्यंग्यकार – श्री शांतिलाल जैन
प्रकाशक – आईसेक्ट पब्लिकेशन , भोपाल
पृष्ठ – १३२
मूल्य – १२०० रु
☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – वे रचना कुमारी को नहीं जानते– व्यंग्यकार – श्री शांतिलाल जैन ☆
किताबों की दुनियां बड़ी रोचक होती है. कुछ लोगों को ड्राइंगरूम की पारदर्शी दरवाजे वाली आलमारियों में किताबें सजाने का शौक होता है. बहुत से लोग प्लान ही करते रहते हैं कि वे अमुक किताब पढ़ेंगे, उस पर लिखेंगे. कुछ के लिये किताबें महज चाय के कप के लिये कोस्टर होती हैं, या मख्खी भगाने हेतु हवा करने के लिये हाथ पंखा भी.
मैं इस सबसे थोड़ा भिन्न हूँ. मुझे रात में सोने से पहले किताब पढ़ने की लत है. पढ़ते हुये नींद आ जाये या नींद उड़ जाये यह भी किताब के कंटेंट की रेटिंग हो सकता है. अवचेतन मन पढ़े हुये पर क्या सोचता है, यह लिख लेता हूँ और उसकी चर्चा कर लेता हूँ जिससे मेरे पाठक भी वह पुस्तक पढ़ने को प्रेरित हो सकें.
श्री शांति लाल जैन जी अन्य महत्वपूर्ण सम्मानो के अतिरिक्त प्रतिष्ठित डा ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य सम्मान २०१८ से सम्मानित सुस्थापित व्यंग्यकार हैं . “वे रचना कुमारी को नहीं जानते” उनका चौथा व्यंग्य संग्रह है . लेखन के क्षेत्र में बड़ी तेजी से ऐसे लेखको का हस्तक्षेप बढ़ा है, जिनकी आजीविका हिन्दी से इतर है. इसलिये भाषा में अंग्रेजी, उर्दू का उपयोग, सहजता से प्रबल हो रहा है. श्री शान्तिलाल जैन जी भी उसी कड़ी में एक बहुत महत्वपूर्ण नाम हैं, वे व्यवसायिक रूप से बैंक अधिकारी रहे हैं.
किताब की लम्बी भूमिका में डा ज्ञान चतुर्वेदी जी ने उन्हें एक बेचैन व्यंग्यकार लिखा, और तर्को से सिद्ध भी किया है. लेखकीय आभार अंतिम पृष्ठ है. मैं श्री शांति लाल जैन जी को पढ़ता रहा हूँ, सुना भी है . “वे रचना कुमारी को नहीं जानते ” पढ़ते हुये मेरी मेरी नींद उचट गई, इसलिये देर रात तक बहुत सारी किताब पढ़ डाली. मैने पाया कि उनका मन एक ऐसा कैमरा है जो जीवन की आपाधापी के बीच विसंगतियो के दृश्य चुपचाप अंकित कर लेता है. मैं डा ज्ञान चतुर्वेदी जी से सहमत हूं कि वह दृश्य लेखक को बेचैन कर देता है, छटपटाहट में व्यंग्य लिखकर वे स्वयं को उस पीड़ा से किंचित मुक्त करते हैं . वे प्रयोगवादी हैं.
लीक से हटकर किताब का नामकरण ही उन्होंने “ये तुम्हारा सुरूर” व्यंग्य की पहली पंक्ति “वे रचना कुमारी को नहीं जानते” पर किया है , अन्यथा इन दिनो किसी प्रतिनिधि व्यंग्य लेख के शीर्षक पर किताब के नामकरण की परंपरा चल निकली है. इसलिये संग्रह के लेखो की पहली पंक्तियो की चर्चा प्रासंगिक है. कुछ लेखो की पहली पंक्तियां उधृत हैं जिनसे सहज ही लेख का मिजाज समझा जा सकता है. पाठकीय कौतुहल को प्रभावित करती लेख की प्रवेश पंक्तियो को उन्होंने सफल न्यायिक विस्तार दिया है.
वाइफ बुढ़ा गई है … , ” मि डिनायल में नकारने की अद्भुत प्रतिभा है” कार्यालयीन जीवन में ऐसे अनेको महानुभावो से हम सब दो चार होते ही हैं, पर उन पर इस तरह का व्यंग्य लिखना उनकी क्षमता है. इसी तरह आम बड़े बाबुओ से डिफरेंट हैं हमारे बड़े बाबू ,हुआ यूं कि शहर में एक्स और वाय संप्रदाय में दंगा हो गया …
उनके लेखन में मालवा का सोंधा टच मिलता है “अच्छा हुआ सांतिभिया यहीं पे मिल गये आप” मालगंज चौराहे पर धन्ना पेलवान उनसे कहता है . ….
या पेलवान की टेरेटरी में मेंढ़की का ब्याह …
वे करुणा के प्रभावी दृश्य रचने की कला में पारंगत हैं ..
बेबी कुमारी तुम सुन नही पातीं, बोल नही पाती, चीख जरूर निकल आती है, निकली ही होगी उस रात. बधिर तो हम ठहरे दो दो कान वाले . …
राजा, राजकुमार, उनके कई व्यंग्य लेखो में प्रतीक बनकर मुखरित हुये हैं. गधे हो तुम .. सुकुमार को डांट रहे थे राजा साहब …. , या बादशाह ने महकमा ए कानून के वजीर को बुलाकर पूछा ये घंटा कुछ ज्यादा ही जोर से नही बज रहा ?
मुझे नयी थ्योरी आफ रिलेटिविटी रिलेटिंग माडर्न इंडिया विथ प्राचीन भारत पढ़कर मजा आ गया. इसी तरह छीजते मूल्य समय में विनम्र भावबोध की मनुहार वादी कविताएं वैवाहिक आमंत्रण पत्रो पर मुद्रित पंक्तियो का उनका रोचक आब्जरवेशन है. इसी तरह समय सात बजे से दुल्हन के आगमन तक भी वैवाहिक समारोहो पर मजेदार कटाक्ष है.
वे लोकप्रिय फिल्मी गीतों का अवलंबन लेकर लिखते मिलते हैं, जैसे महिला संगीत में बालीवुड धूम मचा ले से शुरूकरके, जस्ट चिल तक पहुँचता गुदगुदाता भी है, वर्तमान पर कटाक्ष भी करता है.
मैं पाठको को अपनी कुछ विज्ञान कथाओ में अगली सदियो की सैर करवा चुका हूँ इसलिये आँचल एक श्रद्धाँजंली पढ़कर हँस पड़ा, रचना यूँ शुरू होती है “३ जुलाई २०४८ … आप्शनल सब्जेक्ट हिंदी क्लास टेंथ . …
पैंतालीस काम्पेक्ट व्यंग्य लेख. वैचारिक दृष्टि से नींद उड़ा देने वाले, सूक्ष्म दृष्टि, रचना प्रक्रिया की समझ के मजे लेते हुये, खुद के वैसे ही देखे पर अनदेखे दृश्यो को याद करते हुये जरूर पढ़िये.
रेटिंग – मेरे अधिकार से ऊपर
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈