हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 45 ☆ दो मुक्तक ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  “दो मुक्तक.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 45 ☆

☆ दो मुक्तक  ☆ 

 

भारती के मान पर अभिमान होना चाहिए।

देशभक्तों का सदा सम्मान होना चाहिए।

जो वतन पर जान की बाजी लगाकर मर-मिटे,

उन शहीदों के नाम हिन्दुस्तान होना चाहिए।।

 

धर्म कविता का परस्पर प्यार होना चाहिए।

शब्दशः सद्भाव का संचार होना चाहिए।

भेद ना हो बाहरी बर्ताव का दिल से कभी,

कवि हृदय का सत्य ही औजार होना चाहिए ।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 67 – तू भी वही, मैं भी वही….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना तू भी वही, मैं भी वही…..। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 67 ☆

☆ तू भी वही, मैं भी वही….. ☆  

 

तू  भी  वही, मैं भी  वही

उस परम के सब अंश हैं

फिर क्यों कोई बगुले हुए हैं

और, कोई हंस हैं।

 

है ध्येय, सब का एक ही

सौगात खुशियों की मिले

क्यों अलग पथ अरु पंथ हैं

है परस्पर, शिकवे-गिले,

वसुदेव जैसे, है जहाँ

तो क्यों, वहीं पर कंस हैं।

तू भी वही …….

 

है पंचतत्वों का घरोंदा

इंद्रियाँ सब की वही

नवद्वार, विविध विकार हैं

कोई कहीं, कोई कहीं,

सब ब्रह्म की संतान तो

फिर क्यों अलग ये वंश हैं।

तू भी वही ……

 

संस्कारवश ये हैं अगर

प्रारब्ध भी यदि मान लें

सत्कर्म से बंधन कटे

दुष्कर्म बंधन बांध लें,

है ज्ञान,तप सेवा जहाँ

क्यों कुटिलता के दंश हैं।

तू भी वही…..

 

विस्तार व्यापक हो रहा

है ज्ञान औ’ विज्ञान का

चिंतन मनन से विमुख सा

मन भ्रमित है इंसान का,

गर नव सृजन निर्माण है

फिर क्यों वहीं विध्वंस है।

तू भी वही….

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 45 – बापू के संस्मरण-21 – कितने कुर्ते  आपको चाहिए ? ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “कितने कुर्ते  आपको चाहिए ?”)

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 21 – कितने कुर्ते  आपको चाहिए ? ☆ 

एक बार गांधीजी अपनी कलकत्ता  यात्रा  के दौरान  एक बंगाली सज्जन  के घर  उनसे मिलने गए।

उस  समय   वे केवल धोती  के समान  एक छोटा  सा  कपड़ा  पहनते  थे। उन्हे इस तरह देख गृह स्वामी  की छोटी बच्ची  ने कौतूहलवश  उनसे  एक सवाल  पूछ लिया –क्या  आपके  पास  पहनने के कपड़े  नहीं है ?  गांधीजी भी बड़े विनोदी स्वभाव के थे। उन्होने  उत्तर  दिया – “क्या  करूँ, सचमुच  मेरे  पास कपड़े  नहीं है।”

यह  सुनकर  वह बच्ची  बोल उठी – “मैं  अपनी माँ  से कह कर  आपको कुर्ता दिलवा  दूंगी। मेरी माँ के हाथ  का  सिला कुर्ता  आप पहनेंगे न ?”

गांधीजी ने कहा –”जरूर पहनूँगा ,लेकिन  एक कुर्ते  से मेरा  काम नहीं चलेगा।”

“कोई  बात नहीं, मेरी  माँ  आपको  दो कुर्ते  दे देगी” –उस बच्ची  ने कहा।

“नहीं,नही, दो कुर्ते  से मेरा  काम नहीं चलेगा”– गांधी का उत्तर  था।

“तब  कितने कुर्ते  आपको चाहिए ?”- बच्ची  का सवाल  था।

तब  गांधीजी ने बड़ी गंभीरता  से कहा – “बेटी, मुझे  35 करोड़ कुर्ते  चाहिए। जब  तक  देश के हर व्यक्ति के तन  पर कपड़ा नहीं होगा, तब तक  मैं  कैसे और कपड़े  पहन लूँ।”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 18 ☆ मंजिल खो गयी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मंजिल खो गयी) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 18 ☆ मंजिल खो गयी 

 

मंजिल खो गयी जिंदगी के ताने-बाने बुनने में,

जो बहुत हसीन दिख रही थी बचपन के खुशनुमा लम्हों में ||

 

सोचा था उलझनों को तो सुलझा लेंगे आसानी से,

पहले जिंदगी सुलझा ले जो दिख रही ज्यादा उलझनों में ||

 

मगर अफ़सोस जिंदगी भी कितनी बेवफा निकली,

उलझा कर रख दिया मुझको बुझते दियों को जलाए रखने में ||

 

अफ़सोस आसान दिखती उलझने सुलझ ना सकी,

जिसे आंसा समझ बैठा, उलझ गयी जिंदगी उसी के मकड़जाल में ||

 

ए ऊपरवाले अब तो कुछ मुझ पर रहम कर,

क्या जिंदगी हमेशा ऐसे ही उलझी रहेगी इस  मकड़जाल में ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नवरात्रि विशेष☆ देवी गीत – रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे …….. ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित नवरात्रि पर्व पर विशेष  देवी गीत रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे ……..। ) 

☆ नवरात्रि विशेष  ☆ देवी गीत – रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे …….. ☆

रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे

भटकते दूर से थके हारे , आये दर्शन को माता तुम्हारे

 

भक्ति की भावना में नहाये , मन में आशा की ज्योति जगाये

सपनों की एक दुनियां सजाये , आये मां ! हम हैं मंदिर के द्वारे

 

चुन के विश्वास के फूल , लाके हल्दी , अक्षत औ चंदन बना के

थाली पूजा की पावन सजाके , पूजने को चरण मां तुम्हारे

 

सब तरफ जगमगा रही ज्योति , बड़ी अद्भुत है वैभव विभूति

पाता सब कुछ कृपा जिस पे होती , चाहिये हमें भी माँ सहारे

 

जग में जाहिर है करुणा तुम्हारी  , भीड़ भक्तों की द्वारे है भारी

पूजा स्वीकार हो मां हमारी , हम भी आये हैं माँ बन भिखारी

 

माँ  मुरादें हो अपनी  पूरी , हम आये हैं झोली पसारे

हरी ही हरी होये  किस्मत , दिवाले जैसे जवारे

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 69 – तेजशलाका ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 69 ☆

☆ तेजशलाका ☆

 

तू श्रीहरीची मधूर बासरी

सरस्वतीची वीणा मंजूळ

वसुंधरेची नव चैत्रपालवी

मृगनयनी तव रूप लाघवी

 

तू साक्षात्कारी एक कल्पना

कवितेमधली मृदूल भावना

प्राजक्ताचा प्रसन्न दरवळ

तरूणाईचा तरंग अवखळ

 

तू पूर्वेची पहाटलाली

 नवकिरणांची तेजशलाका

साकारलेले स्वप्न मनोहर

नवयुवती तुज प्राप्त युगंधर

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 54 ☆ बारिश ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “बारिश”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 54 ☆

☆  बारिश ☆

 

फिर वही खिलते हुए गुल,

फिर वही गीत गाती कोयल,

फिर वही बारिश,

फिर मेरा वो भीग जाने को मचल जाना

और फिर वही बूंदों में

किसी हमख़याल का अक्स…

 

बाहर बगीचे में निकली

तो बादल रुखसत ले ही रहे थे,

पर कुछ आखिरी बूँदें मेरे लब पर ठहर गयी

और मुझे मुहब्बत से भिगोने लगीं

और झाँकने लगा उससे वो अक्स…

 

मैंने मुस्कुराते हुए

लबों से उन बूंदों को हटा दिया,

कि मुहब्बत से लबरेज़ होने के लिए

नहीं थी ज़रूरत मुझे

या ही बूंदों की या ही बारिश की…

 

इंसान को बनाते वक़्त

ईश्वर मुहब्बत के पैग़ाम तो

यूँ ही उसके ज़हन में भर देता है,

पर उस राज़ से कुछ अनजान से

हम खोजते रहते हैं उसे यहाँ-वहाँ!

 

मेरा अब इस पैग़ाम से

यूँ रिश्ता बन गया था

कि जिगर में मेरे जब चाहूँ

बारिश हो जाया करती थी!

 

बगीचे की बारिश तो मात्र एक बहाना थी

खुश होने का!

असली बारिश तो गिरती ही रहनी चाहिए

जिगर के हर ज़रीन कोने में!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

मेरे मन की विफलता, तेरे मन का ताप ।

हैं लहरें एहसास की, कह जाती चुपचाप।।

 

मन को कसकर बांध लो, कड़ी परीक्षा द्वार ।

चाह रहा में हारना, तुम जीतो सरकार।।

 

नाम तुम्हारा कुछ नहीं, हम भी हैं बेनाम ।

अलग-अलग थे कब हुए, जाने केवल राम।।

 

आयु रूप की संपदा ,सब कुछ है बेमेल ।

एकाकी अर्पित हुआ, यह किस्मत का खेल।।

 

दिल के भीतर वायलिन, झंकृत है हर तार।

भावों का पूजार्चन, साधे    बंदनवार।।

 

बार-बार में कर रहा, तर्क और अनुमान।

सत्यापित कैसे करूं, जन्मों की पहचान।।

 

दो क्षण के सानिध्य ने, सौंप दिए मधुकोष।

तृषित आत्मा को मिला ,अद्वितीय परितोष।।

 

प्रेम तृषा की वासना, अद्भुत तिर्यक रेख।

चातक मन की चाहना, मौन मुग्ध आलेख।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 14 ☆ व्यंग्य ☆ मासूम गुस्ताखियों से तामीर मोहब्बत का नायाब शाहकार ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  मासूम गुस्ताखियों से तामीर मोहब्बत का नायाब शाहकार । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 14 ☆

☆ व्यंग्य – मासूम गुस्ताखियों से तामीर मोहब्बत का नायाब शाहकार  ☆

दोस्तों, आज हम आपको बताते हैं कि कैसे एक आर्किटेक्ट एक बिल्डिंग का पूरा कैरेक्टर बदल सकता है. अब आप ताजमहल को ही लीजिये. कालिंदी किनारे, सुरम्य वातावरण में खड़ी की गई भव्य, खूबसूरत, नायाब इमारत को अपना रेजिडेंस बनाना कौन नहीं चाहेगा ? लेकिन शाहजहाँ ने ऐसा नहीं किया, उसने उसमें मकबरा बनाने का फैसला किया तो इसके पीछे एक महान आर्किटेक्ट की अहम् भूमिका रही है. इतिहास में जो अब तक दर्ज नहीं किया जा सका वो काल्पनिक किस्सा संक्षेप में कुछ इस तरह से है.

जैसा कि आपको पता ही है ताजमहल मुग़ल शासक शाहजहाँ ने क्रोनोलॉजी के हिसाब से अपनी बेगम क्रमांक दो मुमताज़-महल के मरने के बाद बनवाया था, मगर उसका शुरूआती इरादा इसे मकबरा बनाने का नहीं था. वो अपनी नेक्स्ट बेगम के साथ वहाँ एक थ्री बीएचके विथ लॉन एंड कवर्ड पार्किंग बनवाकर बाकी की जिंदगी सुकून से गुजारना चाहता था, मगर आर्किटेक्ट ने आलीशान इमारत तान दी. वो महज रसोईघर में संगेमरमर लगवाने के मूड में था, आर्किटेक्ट ने पूरी बिल्डिंग संगेमरमर की तामीर कर दी. आर्किटेक्चर की ये महान परम्परा आज भी जारी है – आप कॉम्प्लेक्स डिझाइन करवाईये आर्किटेक्ट होटल बना देगा, होटल कहेंगे तो अस्पताल तान देगा, और अस्पताल कहेंगे तो मॉल खड़ा कर देगा. कभी कभी तो किसी बिल्डिंग को देखकर आप हैरत में पड़ जाते हैं कि यार ऐसा बेहूदा स्ट्रक्चर खड़ा करने में कितनी बेवकूफियाँ लगीं होंगी. बहरहाल, पठ्ठे ने एक न्यारा सा बंगला बनाने के चक्कर में एक भव्य इमारत बना दी, तब भी वो इमारत रेजिडेंस के लायक नहीं बन सकी.

हुआ ये कि रेजिडेंस शिफ्ट करने से पहले एक रोज़ बादशाह अपनी बेगम क्रमांक तीन के साथ मुआईना करने गये कि आखिर कैसा बना है नया आशियाना. उन्होंने पाया कि आर्किटेक्ट वॉश एरिया निकालना तो भूल ही गया. फटकारे जाने पर उसने कहा – ‘जहाँपनाह, नये डिजाईन के घरों में वॉश एरिया का चलन खत्म हो गया है. मुल्क में जो फिरंगी आना शुरू हुवे हैं उनसे पूछ लीजिये. विलायत में बने उनके घरों में वॉश एरिया नहीं होता. घर में कहीं भी वॉश करने की फ्रीडम बड़ी चीज़ है. और फिर आप तो ठहरे शहँशाह, जहाँ मन करे वॉश करें आप.’ मन तो किया बादशाह का कि इस खूबसूरत बहानेबाज़ी पर इस साले को इन्हीं दीवारों में जिंदा चुनवा दें. मगर वो मन मसोस कर रह गया.

हर कालखंड में आर्किटेक्ट कभी सिर्फ आर्किटेक्ट नहीं रहे, वे वकील भी होते हैं, अपने किये धरे के पक्ष में कैसी भी दलील दे सकते हैं. वे डिप्लोमेट भी होते हैं, आप उनके जवाब में कोई भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं. वे तर्कशास्त्री भी होते हैं, वे दरवाजे को खिड़की, खिड़की को झरोखा, झरोखे को उजालदान, उजालदान को दरीचा निरुपित कर सकते हैं. एक सफल आर्किटेक्ट उन सारी प्रमेयों को हल कर सकता है जो बड़े बड़े गणितज्ञ अभी तक नहीं कर पाये. उनके कुतर्क मालिक-ए-मकाँ की जेनुइन जरूरतों पर भारी पड़ते हैं.

बेगम ने रसोईघर का मुआईना करते हुवे पूछा – “यहाँ चूल्हा रखेंगे तो पानी का नल कहाँ लगेगा ?” बादशाह ने इस पर आर्किटेक्ट की ओर घूर कर देखा.

“जान की अमान हो जहाँपनाह, पीछे कालिंदी कल-कल बह रही हैं. बेगम साहिबा चाहेंगी तो हम उसकी एक पूरी नहर आपकी रसोई में से होती हुई बाहर की तरफ निकाल देंगे. चौबीस घंटे नेचुरल वाटर. रियाया में आपकी कुदरत से बेपनाह मोहब्बत का डंका बजने लगेगा.” बादशाह ने जान की अमानत नहीं दी होती तो अब तक तो सर कलम करवा दिया होता. आगे बढ़े – “और ये इतने बड़े बड़े गुसलखाने ? आरामखाना इतना छोटा और अटैच्ड गुसलख़ाना इतना बड़ा ?”

“जहाँपनाह, नाचीज़ आपके गुसलख़ाने में गाने का शौक से वाकिफ़ है. आप जब तक चाहें, जितना चाहें, घूम घूम कर गा सकें इसीलिये गुसलख़ाने आरामखानों से दोगुना बड़े रखे गये हैं.”

“और इसमें कमोड लगाने को कहा गया था तुम्हें वो.”

“जहाँपनाह, इन्डियन स्टाईल में घुटनों की एक्सरसाईज हो जाती है इसीलिए खुड्डीवाली लगवा दी है.” गुस्से में दांत पीस लेता बादशाह मगर मसूड़े कमजोर हो चले थे सो नहीं पीस पाया.

“और ये पार्किंग की जगह इतनी कम छोड़ी है, हम अपनी शाही बग्घी खड़ी कहाँ करेंगे ?”

“वो तो कोचवान आपको छोड़कर अपने घर ले जायेगा. पार्किंग में स्पेस वेस्ट क्यों करना जहाँपनाह.”

अब तक आगबबूला हो चुका था बादशाह. यही आर्किटेक्ट था जो पीछे पीछे चल रहे वजीर के मकान के काम लगा चुका था. उसने मौका मुनासिब जानकर पूछा – “जहाँपनाह भूस लाया हूँ साथ में, भरवा दूं इसकी खाल में ?”

आर्किटेक्ट ने बादशाह के लिये कुछेक ऐशगाहें बेगम से छुपाकर बनाईं थीं. राज़ खुल जाने के डर से उसने उस समय तो मना कर दिया मगर कहते हैं बाद में उसके हाथ कटवा दिये. सोचा कम से कम उसके हाथों अब और किसी के मकान का डिझाईन खराब न हो.

इस बीच बेगम ने इसरार किया कि अब जैसा भी है उसी में शिफ्ट कर लेते हैं मगर इंटीरियर कराना पड़ेगा. बादशाह इंटीरियर का खर्च सोचकर ही डर गया. सोने से घड़ावन महँगी. इमारत से ज्यादा लागत इंटीरियर की. ताजमहल पूरा करने में एक बारगी तो पूरा खजाना खाली हो चला था. जो इंटीरियर कराता बादशाह तो उधार लेना पड़ता. अब उस समय आईएमएफ, वर्ल्ड बैंक जैसी एजेंसियां तो थी नहीं कि सार्वभौम मुग़ल सल्तनत को आसान शर्तों पर लोन दे सके, कि लीजिये युवर मेजेस्टी हमने आपके लिये ईएमआई कम कर दी है और कोई प्रोसेसिंग शुल्क भी नहीं.

तब बादशाह ने एक अकलमंदी का काम किया. उसने फ़ौरन से पेश्तर रेजिडेंस शिफ्ट करने का फैसला रद्द किया. फिर ऊपर नीली छतरी की ओर देखकर मरहूम बेगम मुमताज़-महल को याद किया. बुदबुदाये – ‘बेगम ये इमारत हम आपके मकबरे के लिये मुकम्मल करते हैं. इस निकम्मे तामीरगार की वजह से हम इसमें रहने तो नहीं आ सकेंगे, अलबत्ता मरने के बाद आपके बगलगीर जरूर होंगे. हमारी मोहब्बत का यह बुलंद शाहकार क़ुबूल फरमायें.’

दोस्तों, इस तरह एक आर्किटेक्ट की कुछ मासूम गुस्ताखियों ने दुनिया को मोहब्बत का खूबसूरत स्मारक भेंट किया है. सो, द रियल ट्रिब्यूट गोज टू द आर्किटेक्ट.

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 20 – ओ सुहागिन झील ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “ओ सुहागिन झील। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 20– ।। अभिनव गीत ।।

☆ ओ सुहागिन झील

लक्ष्य को संधान करते

देखता है नील

धनुष की डोरी चढ़ाते

काँपता है भील

 

कथन :: एक

बस अँगूठा ,तर्जनी की

पकड़ का यह संतुलन भर

आदमी की हिंस्र लोलुप

वृत्ति का उपयुक्त स्वर

 

या प्रतीक्षित परीक्षण का

मौन यह उपक्रम अनूठा

या कदाचित अनुभवों

की पुस्तिका अश्लील

 

कथन :: दो

पुण्य पापों की समीक्षा

के लिये उद्यत व्यवस्था

याक जंगल के नियम को

जाँचने कोई अवस्था

 

या प्रमाणों में कहीं

बचता बचाता झूठ कोई

दी गई जिसको यहाँ पर

फिर सुरक्षित ढील

 

कथन:: तीन

गहन हैं निश्चित यहाँ की

राजपोषित सब प्रथायें

फिर कहाँवन के प्रवर्तित

रूप पर कर लें सभायें

 

पैरव फैलाये थके हैं

सभी पाखी अकारण ही

जाँच लेतू भी स्वयं को

ओ! सुहागिन झील

याक=या कि

पैर व= पैर

© राघवेन्द्र तिवारी

27-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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