हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – वो वीर तिरंगे का वारिस था ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज आपके “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण , समसामयिक एवं ओजस्वी रचना  – वो वीर तिरंगे का वारिस था।  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  वो वीर तिरंगे का वारिस था ☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

जलाया होगा खुद का जिस्म बारूद गोलों से,

और फिर अनेकों गोलीयां सीनें पर खाई होगी।

दुश्मन के खून से खेली होगी सीमा पर होली,

इस तरह वतन परस्ती की रस्म निभाई होगी।।1।।

हिम्मत से मारा होगा दुश्मन को सरहद पे,

इस तरह मां की आबरू उसने बचाई होगी।

पहना होगा तिरंगे का कफन हमारी खातिर,

इस तरह अपनी‌ पूंजी वतन पे लुटाई होगी।।2।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

घर बार वतन वो छोड़ चला,चमन चहकता छोड़ चला ।

दुश्मन की कमर तोड़ने वह,अंधी मां को घर छोड़ चला।

गलियों में गांव के पला बढ़ा, सबका राज दुलारा था।

अंधी की कोख से पैदा था, उसके जीवन का सहारा था।।1।।

आंखों से देख सकी न उसे, खुशबू  से पहचानती थी।

पदचापों की आहट से, वह अपने लाल को जानती थी।

जब लाल सामने होता तो, उसको छू कर दुलराती थी।

मुख माथा चूम चूम उसका, उसको गले लगाती थी।।2।।

वह पढ़ा लिखा जवान हुआ, सेना का दामन थाम लिया था ।

उस दिन टटोल वर्दी हाथों से,  मां ने उसको सहलाया था।

अब वतन लाज तेरे हाथों, वर्दी  का मतलब बतलाया था।

उसको गले लगा करके,अपनी ममता से नहलाया था।।3।।

 

वतन पे मरने का मकसद ले, सरहद की तरफ बढ़ा था वह।

अपने ही वतन के गद्दारों की,  नजरों में आज चढ़ा था वह।

जम्मू कश्मीर जल रहा था, थे नौजवान बहके बहके।

आगे दुश्मन की गोली थी, पीछे हाथों में पत्थर थे।।4।।

 

वह अभिमन्यु बन चक्रव्यूह में,खड़ा खड़ा बस सोच रहा।

समझाउं उसको या मारूं,  ना समझ पड़ा बस देख रहा।

क्या करें वो कैसे समझाये, कानून के हाथों बंधा हुआ।

सीने में गोली सिर पे पत्थर,खाता फिर भी तना हुआ ।।5।।

पीछे अपनों के पत्थर है, आगे दुश्मन की ‌गोली है।

मेरे शौर्य उठती उंगली है कुछ लोगों की कड़वी  बोली है।

इस तरह खड़ा कुछ सोच रहा, उसको बस समझ नहीं आया।

अपनों से बच गैरों से निपट यह सूत्र काम उसके आया।।6।।

अपनों की मार सही उसने,उफ़ ना किया ना हाथ उठा,

अंतहीन लक्ष्य साथ ले सरहद पे चला वह क़दम बढ़ा।

अपनी तोपों के गोलों से दुश्मन का हौसला तोड़ दिया। ।

पीछे को दुश्मन भाग चलाउनके रुख को वह मोड़ दिया ।।7।।

 

धोखे से बारूद पे पांव पड़े तब उसमें विस्फोट  हुआ।

मरते मरते जय हिन्द बोला सरहद पे उसकी जली चिता।

सरहद पे जिसकी चिता जली वो असली हिंदुस्तानी था।

जो जाति धर्म से ऊपर उठकर मातृभूमि बलिदानी था ।।8।।

कर्मों से इतिहास ‌लिखा इक अंधी मां का बेटा है।

उसने भी अपने सीने में इक हिंदुस्तान ‌समेटा है।

अपनों के नफरत‌ से वह  घायल था बेहाल था।

वो वीर तिरंगे का वारिस था भारत मां का लाल था ।।9 ।।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या # 16 ☆ दिवाना ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है ।आज प्रस्तुत है उनकी एक  श्रृंगारिक कविता “दिवाना“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 16 ☆

☆ दिवाना

अगं मी तुझा दिवाना, आता नको बहाना

खुणवूनी दूर जाशी, ये बाहूपाशी ये नां !!

 

तुझी ती मयुरचाल, अन् ते हेलकावे

एका लयीत हलती, कानातली ती बाळे

घायाळ मजशी केले, फेकून नयनबाणा

अगं मी तुझा दिवाना…..!!

 

रसदार ओठ दोन्ही, अन् केस रेशमाचे

गालातली खळी ती, नयनात मोर नाचे

किती वेळ खेळशी गं, हा खेळ जीवघेणा

अगं मी तुझा दिवाना……..!!

 

तू रात्रभर पौर्णिमेची, दुग्धात नाहलेली

तू शुक्रतारका गं, पहाटेस चिंब ओली

तुज संगमरवरीला, बिलगून राहू दे नां

अगं मी तुझा दिवाना……..!!

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 9 – दादा साहब फाल्के….3 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : दादा साहब फाल्के…. पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 9 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : दादा साहब फाल्के….3 ☆ 

जब विवाद बहुत बढ़ गया तो कम्पनी ने फ़िल्म निर्माण का ज़िम्मा उनके साथ पहली फ़िल्म से जुड़े साथियों मामा शिंदे, अन्ना सालुंखे, गजानन साने, त्र्यम्बक बी तेलंग, दत्तात्रेय तेलंग और नाथ तेलंग को सौपने का निर्णय किया। उन सब के द्वारा ज़िम्मेदारी लेने पर फाल्के को क्षतिपूर्ति भुगतान नहीं करना होगा। फाल्के ने बहुत दुखी मन से कम्पनी और बम्बई छोड़कर काशी प्रवास का निर्णय किया और सबकुछ त्याग कर सपरिवार काशी चले गए। उन्होंने पूरी कहानी नवयुग नामक अख़बार में प्रकाशित करवाई।

वे काशी में पुराने मित्र नारायण हरी आपटे से मिलकर घुमंतू नाटक संस्था “किर्लोसकर नाटक मंडली” से जुड़ गए जिसमें शंकर बापू जी मजूमदार, मनहर बर्वे और गणपत राव बर्वे कार्यरत थे। उन्होंने तात्कालिक नाट्य स्थिति पर व्यंग करते हुए मराठी में रंगभूमि नाटक लिखा। तभी बाल गंगाधर तिलक और पुराने साथी जी. एस. खपार्डे कांग्रेसी अधिवेशन में भाग लेने आए, उन्हें नाटक सुनाया तो उन्होंने आर्यन सिनेमा पूना में नाटक का मंचन शुरू करवाया  जो एक साल चला। नाटक का मंचन बम्बई के बलिवला थिएटर में 1922 में हुआ, उसके बाद नासिक में मंचित हुआ। उसके बाद फाल्के काशी में जम गए।

उन्होंने जमशेद जी के मदन थिएटर के लिए फ़िल्म बनाने का प्रस्ताव सहित अनेकों प्रस्ताव ठुकरा दिए तब संदेश अख़बार के सम्पादक अच्युत कोलहाटकर ने उनसे निर्णय बदल कर फ़िल्मी दुनिया में फिरसे आकर फ़िल्म बनाने का सुझाव दिया जिसके उत्तर में फाल्के ने पत्र में लिखा कि “फ़िल्मों के लिए फाल्के मर चुका है।” अच्युत कोलहाटकर ने वह पत्र संदेश अख़बार में छाप दिया, जिसके जवाब में सैंकड़ों की संख्या में पाठकों के पत्र आए, वे भी उन्होंने अख़बार में छापे और सारे अख़बार फाल्के को भेज दिए।

फाल्के तुरंत नासिक आ गए तब पूना की पुरानी हिंदुस्तान सिनेमा कम्पनी के साथियों वामन आपटे और बापू साहेब पाठक ने उनको बतौर फ़िल्म निर्माण मुखिया का पद 1,000 रुपया मासिक पर निमंत्रित किया जिसे उन्होंने मंज़ूर कर लिया। उन्होंने 1922 से 1929 तक कुछ फ़िल्मे बनाईं लेकिन नहीं चलीं उनका वेतन 1,000 से 500 और फिर 250 मासिक कर दिया गया। उन्होंने फाल्के डायमंड कम्पनी के बैनर तले बम्बई में माया शंकर भट्ट से 50,000 रुपयों की सहायता से सेतुबंधन फ़िल्म बनाना शुरू किया जिसकी शूटिंग हम्पी, चेन्नई और रत्नागिरी में हुई। धन की कमी से फ़िल्म रुक गई। वामन आपटे ने फाल्के डायमंड कम्पनी को हिंदुस्तान सिनेमा कम्पनी में विलय की शर्त पर फ़िल्म दो साल में पूरी करवाई। वह फाल्के की अंतिम फ़िल्म के पहले की फ़िल्म थी। वह पहली बोलती फ़िल्म 14 मार्च 1931 को प्रदर्शित हुई तब आलमआरा के निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने उसे 40,000 खर्चे पर हिंदी में डब करवाकर प्रदर्शित करवाया।

कोल्हापुर रियासत के महाराजा रामराम-III ने दिसंबर 1934 में फाल्के को कोल्हापुर सिनटोन के लिए फ़िल्म बनाने हेतु आमंत्रित किया, फाल्के ने पहले मना कर दिया दोबारा आमंत्रण 1,500 स्क्रिप्ट लिखने और 500 मासिक खर्चे पर मंज़ूर कर लिया।

उपन्यासकार नारायण आपटे ने कहानी और स्क्रिप्ट लिखने में सहयोग किया और विश्वनाथ जाधव ने संगीत देकर “गंगा अवतरण” फ़िल्म 2,50,000 रुपयों की लागत से दो साल के समय में 1937 में बनकर तैयार हुई। वह फाल्के द्वारा बनाई गई एकमात्र सवाक् याने बोलने वाली फ़िल्म थी।

समय के साथ फ़िल्म तकनीक, निर्देशन, संगीत, गायन और कथानक के उतार चढ़ाव में बड़े परिवर्तन हो  चुके थे। फाल्के जिनसे तादात्म्य नहीं बिठा पाए क्योंकि वे काशी जाकर फ़िल्म की मुख्य धारा से कट चुके थे। 16 फ़रवरी 1944 को जन्मस्थान नासिक में उनका निधन हो गया।

उनकी अन्य फ़िल्मों की सूची इस प्रकार है।

लंका दहन (१९१७),श्री कृष्ण जन्म (१९१८), कलिया मर्दन (१९१९), बुद्धदेव (१९२३), भक्त प्रहलाद (१९२६)

भक्त सुदामा (१९२७), रूक्मिणी हरण (१९२७)

रुक्मांगदा मोहिनी (१९२७), द्रौपदी वस्त्रहरण (१९२७)

हनुमान जन्म (१९२७), नल दमयंती (१९२७)

परशुराम (१९२८), श्रीकृष्ण शिष्टई (१९२८)

काचा देवयानी (१९२९), चन्द्रहास (१९२९)

मालती माधव (१९२९), मालविकाग्निमित्र (१९२९)

वसंत सेना (१९२९), संत मीराबाई (१९२९)

कबीर कमल (१९३०), सेतु बंधन (१९३२)

गंगावतरण (१९३७)- दादा साहब फाल्के द्वारा निर्देशित पहली बोलती फिल्म है।

कोल्हापुर नरेश के आग्रह पर 1937 में दादासाहब ने अपनी पहली और अंतिम सवाक फिल्म “गंगावतरण” बनाई। दादासाहब ने कुल 125 फिल्मों का निर्माण किया। 16 फ़रवरी 1944 को 74 वर्ष की अवस्था में पवित्र तीर्थस्थली नासिक में भारतीय चलचित्र-जगत का यह अनुपम सूर्य सदा के लिए अस्त हो गया। भारत सरकार उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष चलचित्र-जगत के किसी विशिष्ट व्यक्ति को ‘दादा साहब फालके पुरस्कार’ प्रदान करती है।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 48 – आयुर्वेद और अमृत तत्व ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  आयुर्वेद और अमृत तत्व। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 48 ☆

☆ आयुर्वेद और अमृत तत्व

आयुर्वेद हमारे शरीर, मस्तिष्क और प्रकृति को समझने में सहायता कर सकता है, और प्रकृति के स्वरूप को पहचानने में सक्षम है ताकि हम उस प्रकृति के स्वरूप को हमारे शरीर के भीतर भी देख सके ।

प्रकृति के तीन गुण हमारे मस्तिष्क को नियंत्रित करते हैं; हमारे शरीर की संरचना और आस-पास की प्रकृति के लिए पाँच तत्व जिम्मेदार हैं और छह स्वाद शरीर और मस्तिष्क  के बीच संबंध को नियंत्रित करते हैं । हम छह चक्र, तीन गुण, पाँच तत्व, छः स्वाद, और दस इंद्रियों की अभिव्यक्ति है । ये 24 असीमित आत्मा को सीमित या शरीर और मस्तिष्क से बंधे हुए हैं ।

हमें अपने शरीर और मस्तिष्क को प्रकृति के साथ समक्रमिक करने के लिए तीन नियमों का पालन करना होगा । सबसे पहले हमारे शरीर और मस्तिष्क को पर्यावरण, मौसम और आसपास के वातावरण इत्यादि के ताल के साथ ताल मिलाना है । दूसरा आसपास के साथ संरेखण है; और तीसरा बाहरी प्रकृति की हमारे शरीर की आंतरिक प्रकृति के साथ ध्रुवीयता है ।

अब मैं आपको आयुर्वेदिक दोषों के विषय में बताऊँगा । पहला कफ है जो वास्तव में पृथ्वी और जल तत्वों का संयोजन है । यह शरीर की स्थिरता और स्नेहन, ऊतक और शरीर के अपशिष्ट को नियंत्रित करता है । कफ सेल की संरचना को भी नियंत्रित करता हैं और स्रावों और पाचन अंगों को संरक्षित करने वाली चिकनाई को भी नियंत्रित करता हैं । मस्तिष्क में कफ एक समय में एक विचार को समझने के लिए मस्तिष्क के लिए आवश्यक स्थिरता प्रदान करता है । कफ की प्रकृति तेलीय, ठंडी, भारी, स्थिर, घनी और चिकनी है ।

दूसरा दोष पित्त है जो वास्तव में पानी और अग्नि तत्वों का संयोजन है । यह शरीर के संतुलन और संभावित ऊर्जा के संतुलन को नियंत्रित करता है । सभी पित्त की प्रक्रियाओं में पाचन शामिल है । इसके अतरिक्त पित्त कोशिकाओं के कार्यों के लिए ऊर्जा प्रदान करने के लिए पोषक तत्वों का पाचन करता है । मस्तिष्क में पित्त नए सूचना को संसाधित करता है और निष्कर्ष निकालता है । पित्त की प्रकृति तेलीय, गर्म, हल्की, तीव्र, तरल आदि है ।

तीसरे दोष के विषय में केवल कुछ लोग जानते हैं, यह अग्नि और वायु तत्वों का संयोजन है । यह विभिन्न अंगों की सतह के साथ शरीर की ऊर्जा के आंदोलन के लिए ज़िम्मेदार होता है ।

चौथा दोष वात है जो वायु और आकाश तत्वों का संयोजन है । यह शरीर में गतिशील ऊर्जा का सिद्धांत है, मुख्य रूप से तंत्रिका तंत्र से संबंधित है और सभी शरीर की गतिविधियों को नियंत्रित करता है । यह पोषक तत्वों को कोशिकाओं में अंदर एवं अपशिष्ट को बाहर ले जाता है । यह भोजन को निगलने और चबाने के लिए भी जिम्मेदार है । मस्तिष्क में यह नयी सूचनाओं की तुलना में स्मृति से व्यापक सूचना पुनर्प्राप्त करता है । इसकी प्रकृति शुष्क, ठंडा, हल्का, अनियमित और गतिशील है ।

पाँचवे दोष के विषय में महान ऋषियों को छोड़कर और कोई नहीं जानता है यह आकाश और छठा चक्र के तत्व महत या ब्रह्मंडीय बुद्धि का सयोजन होता है यह आध्यात्मिक प्रथाओं की इच्छाओं और भावनाओं के लिए जिम्मेदार है ।

अब अगर हम शरीर में देखते हैं, तो दो प्रकार की क्रियाओं से एक बीमारी उत्पन्न हो सकती है । पहली एक दूसरे के साथ दोषों के असंतुलन से होती है जैसे कि कभी-कभी वात बढ़ता है और कफ और पित्त कम हो जाते हैं, और इसी तरह अन्य दोषों के लिए ।  दूसरी, दोषों की आंतरिक संरचना से, जैसे कि कफ दोष, जो पृथ्वी और जल का संयोजन है- यदि पृथ्वी का तत्व बढ़ता है और जल कम हो जाता है, तो यह गुर्दे में पत्थरी की तरह की बीमारी पैदा कर सकता है, इसी तरह यदि विपरीत हो अर्थात पृथ्वी तत्व कम हो जाये और जल तत्व बढ़ जाये तो अन्य विपरीत समस्याएँ हो सकती है, और इसी तरह अन्य दोषों के लिए ।

इस परिदृश्य के अनुसार शरीर और मस्तिष्क की कुल संभावित बीमारियों की संख्या 45 है और शेष इन 45 बीमारियों की ही उप श्रेणियाँ हैं ।

अगर हम अपने स्वाद कलियों के छह स्वाद देखें । मीठा स्वाद पृथ्वी और जल तत्वों का संयोजन है, खट्टा पृथ्वी और अग्नि तत्वों का संयोजन है, नमकीन स्वाद जल और अग्नि तत्वों का संयोजन है, तीखा स्वाद अग्नि और वायु तत्वों का संयोजन है कड़वा वायु और आकाश तत्वों का संयोजन है और कसैला वायु और पृथ्वी तत्वों का संयोजन है ।

क्या आप प्रकृति को नियंत्रित करने के स्तर पर आत्मनिर्भर बनाने के विषय में जानते हैं, सृजन का पूरा अनुक्रम है । भोजन से रस बनता है । रस से रक्त, रक्त से माँस बनता है । माँस से मैदा, मैदा से हड्डिया बनती है और हड्डियों से मज्जा धातु जिसे शरीर का सार कहते हैं जब इसे शरीर में बनाए रखा जाता है तो यह सघन होकर रोशनी उत्पन्न करता है । जो ओजस होता है तपस्या के द्वारा ओजास को तप में परिवर्तित किया जाता है, और तप से व्यक्ति सिद्ध या प्रकृति का नियंत्रक बन जाता है ।

मैंने पहले ही बताया है कि हम जो ठोस भोजन खाते हैं वह तीन भागों में विभाजित होता है सकल या स्थूल अपशिष्ट या मल के रूप में शरीर से बाहर निकल जाता है, मध्यम माँस का निर्माण करता है, और सूक्ष्म भाग मन बन जाता है ।

इसी प्रकार हम जिस तरल को पीते हैं वह तीन भागों में विभाजित होता है स्थूल भाग मूत्र के रूप में अपशिष्ट होता है, मध्यम रक्त बन जाता है, और सूक्ष्म प्राण बन जाता है ।

इसी तरह ‘तेज’ या चिकनाई जो हम खाते हैं तीन भागों में विभाजित हो जाता है सकल या स्थूल से हड्डी बनती है, मध्यम से मज्जा, और सूक्ष्म हमारी जुबान या बोलने की शक्ति बन जाती हैं ।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे # 38 – वसुंधरा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  आज प्रस्तुत है श्रीमती उर्मिला जी की  वर्षा ऋतू पर आधारित रचना  “वसुंधरा ”।  उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ केल्याने होतं आहे रे # 38 ☆

☆ वसुंधरा ☆ 
 

आला पाऊस आला पाऊस !

जलधारांच्या माळा घेऊन !!

 

भिजली धरणी जलधारांनी !

हरित तृणांचे लेणे लेऊनी !!

 

सजली जणू नववधू लाजरी !

हिरवा रेशमी शालू लेऊनी !

दिसते किती छान गोजिरी !!

 

ढगाआडुनी सखा डोकवी !

दिसते कशी मज सखी साजणी !

 

पाहुनी ही सुंदरा वसुंधरा !

सखा झाला कावरा बावरा !!

सखा झाला कावरा बावरा!!

 

©️®️उर्मिला इंगळे

सातारा

दिनांक:१७-६-२०

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कपिल साहित्य – सु…शांत ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते.  आज प्रस्तुत है स्व सुशांत सिंह राजपूत जी की स्मृति में युवा लेखक श्री कपिल जी के ह्रदय के उदगार उनके आलेख  सु…शांत के माधयम से।) 

 ☆ कपिल साहित्य – सु…शांत ☆

बातमी हादरावून सोडणारी होती. काही काम नसल्याने दुपारी झोपलो होतो. जाग आली तेव्हा सवयीने मोबाईल घेतला. मोबाईल डेटा ऑन करून व्हाटसअॅप सुरू केले. सकाळपासून सूरू न केल्याने  एकशे दहांवर समूह व वयक्तीक मॅसेज येऊन पडले होते.

असो. एकेक समूहातून शक्य तेवढे मॅसेज वाचायला सुरुवात केली. एका न्यूज चॅनलचा स्क्रीन शाॅट होता.  ज्यात स्पष्ट लिहीलं होतं. कि ‘अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत याची गळफास घेऊन आत्महत्या’ खरं तर विश्वास बसला नाही. कारण अफवा पसरवणारे एडिटींग काही अशा प्रकारे करतात की बघणा-याला विश्वास करावाच लागतो. म्हणून ती न्यूज अफवा म्हणुन दुर्लक्षित केली.

यु-ट्यूब वर जाऊन एका न्यूज चॅनलची लाइव वेबसाईट ओपन केली. तेव्हा बातमी खरी होती. ते एकून धक्काच बसला. ‘एम.एस. धोनीची’ शूटिंग सुरू असतांना शूटिंग दरम्यान औरंगाबादला त्याला पाहिलं होतं. नंतर अनेक चित्रपट, शो मध्ये पाहीलं. त्याच्या चेह-यावरची स्माईल अशी काही होती की बघणारा कितीही तणावात असला तरी त्याला तणावातून बाहेर काढण्याची क्षमता त्यात होती. आणि अभिनय तर कौतुकास पात्र होताच.

आपल्या अभिनयाची छाप प्रेक्षकांच्या मनावर पाडणारा हा हरहुन्नरी अभिनेत्याला असा कोणता तणाव होता. की त्यातून त्याला जगण्याचा मार्गच सापडू नये. त्यानंतर बाॅलीवूड मधली काही बडी मंडळीवर त्याला डावलल्याने तो डिप्रेशन मध्ये गेला आणि त्यातून त्याने हे पाऊल उचलले असे मिडियात येऊ लागले. ते काही असेल ती कारणे पोलिस शोधणारच. पण बातमी हैराण करणारी होतीच. कारण एक चांगला कलाकार आपण गमावला होता.

काही इतरही मॅसेज वाचले. ज्यात लिहीलं होतं की 2020 हे सालंच मनहूस आहे. एक तर कोरोना महामारीने अख्या जगाला  वैताग आणला असतांना ॠषी कपूर, इरफान खान, वाजिद आणि इतरही काही बाॅलीवूड मधील कलाकार सोडून गेली आणा त्यात सुशांत ही शांत झाला. त्यांचही म्हणनं योग्यच आहे. पण कोणत्या गोष्टींवर कीती आणि कोणती दोषण द्यावीत. हे किती योग्य आहे.

काळाने आपल्या विशिष्ट वेळेवर अनेक महान व्यक्तींना परत बोलावले आहे. या आधीही खुप वेळा मानव जातीला घातक अशा परिस्थिती अवनीवर आले आहेत. त्यात काही अशा होत्या की ज्यांनी त्यावेळची मानवी संस्कृतीच नष्ट करण्याचे काम केलंय.

पण जे झालं ते कधीही समर्थनास पात्र  नाही. भलेही कोरोनाने जगभरात थैमान घातले असले तरी ताणतणावांना एवढे कधीही प्रभावी होऊ देऊ नये की त्याने आपल्याकडून आपली जगण्याची उमेदच हिरावून घेईल.

तसं पाहिलं तर निसर्ग विशिष्ट काळानंतर दिलेले श्वास परत घेणारच आहे. पण जोपर्यंत ते आहेत तोपर्यंत भरभरून जगायला शिकायला हवे. जगात अगणित लोक आली आणि गेली. त्यातून काही मोजकीच लोकं इतिहासाच्या पानांवर सापडतात. बाकीची लोकं आली तशीच गेली. प्रत्येकाला प्रत्येक इच्छित गोष्ट मिळत नाही. म्हणून हा अट्टाहास सोडायला हवा आणि आहे त्यात खूश राहण्याचा प्रयत्न करायला हवा. असो.

बाॅलीवूडच्या  या हरहुन्नरी अभिनेत्यांला भावपुर्ण श्रद्धांजली

 

 © कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 52 ☆ आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 52 ☆

☆ आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर

‘यदि दूसरे आपकी सहायता करने को इंकार कर देते हैं, मैं उनका आभार व्यक्त करता हूं, क्योंकि न कहने के कारण मैं इसे करने में समर्थ हो पाया। इसलिए आत्मविश्वास कीजिए; यही आपको उत्साहित करेगा,’ आइंस्टीन के उपरोक्त कथन में विरोधाभास है। यदि कोई आपकी सहायता करने से इंकार कर देता है, तो अक्सर मानव उसे अपना शत्रु समझने लग जाता है। यदि हम इसके दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें, तो यह इंकार हमें ऊर्जस्वित करता है; हमारे अंतर्मन में आत्मविश्वास जाग्रत कर उत्साहित करता है और हमें अपनी आंतरिक शक्तियों का अहसास दिलाता है, जिसके बल पर हम उसे क्रियान्वित करने में सफल हो जाते हैं। सो ! हमें उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए, जो हमें बीच मंझधार छोड़ कर चल देते हैं। सत्य ही तो है, जब तक इंसान गहरे जल में छलांग नहीं लगाता, वह तैरना कैसे सीख सकता है? उसकी स्थिति तो कबीरदास के नायक की भांति ‘मैं बपुरौ बूड़न डरा,रहा किनारे बैठ’ जैसी होगी।

सो! यह मत कहो कि ‘मैं नहीं कर सकता’, क्योंकि आप अनंत हैं। आप कुछ भी कर सकते हैं।’ स्वामी विवेकानंद जी की यह उक्ति मानव में अदम्य साहस संचरित करती है, उत्साहित करती है कि आप में अनंत शक्तियां संचित हैं; आप कुछ भी कर सकते हैं। हमारे गुरु-जन, आध्यात्मिक वेद-शास्त्र व उनके ज्ञाता विद्वत्तजन हमें अंतर्मन में निहित अलौकिक शक्तियों से रू-ब-रू कराते हैं और हम उन असंभव कार्यों को भी सहजता-पूर्वक कर गुज़रते हैं। इसके लिए मौन का अभ्यास आवश्यक है, क्योंकि यह साधक को अंतर्मुखी बनाता है; जो उसे ध्यान की गहराइयों में ले जाने में सहायक सिद्ध होता है। महर्षि रमण, महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर वर्द्धमान आदि ने भी मौन साधना द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार किया।

मौन रूपी वृक्ष पर शांति के फल लगते हैं अर्थात् मौन से हमारे अंतर्मन में अलौकिक शक्तियां जाग्रत होती हैं और जीवन में सकारात्मकता दस्तक देती है। वास्तव में मौन जीवन का सर्वाधिक गहरा संवाद है। सो! मानव को शब्दों का चयन सावधानीपूर्वक करना चाहिए, क्योंकि यह महाभारत जैसे महायुद्ध के जनक भी हो सकते हैं।

स्वामी योगानंद जी के शब्दों में ‘यह हमारा छोटा-सा मुख एक तोप के समान है और शब्द बारूद के समान हैं– जो सब कुछ नष्ट कर देते हैं। सो! व्यर्थ व अनावश्यक मत बोलो और तब तक मत बोलो; जब तक तुम्हें यह न लगे कि तुम्हारे शब्द कुछ अच्छा कहने जा रहे हैं।’ इसलिए मौन मानव की वह मन: स्थिति है, जहां पहुंच कर तमाम झंझावात शांत हो जाते हैं और मानव को विभिन्न मनोविकारों चिंता, तनाव, आतुरता व अवसाद से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। इसलिए स्वामी योगानंद जी मानव-समाज को अपनी अमूल्य शक्ति व समय को निरंतर व्यर्थ के वार्तालाप में बर्बाद न करने का संदेश देते हैं; वहीं भोजन व कार्य करते समय भी मौन रहने की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं।

सो! जब आपके हृदय की भाव-लहरियां शांत होती हैं, उस स्थिति में आपको अच्छे विकल्प सूझते हैं; आप में आत्मविश्वास का भाव जाग्रत होता है और आप उन लोगों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं; जिनके कारण आप उस असंभव कार्य को अंजाम देने में समर्थ हो सके। परंतु इस समस्त प्रक्रिया में तथाकथित अनुकूल परिस्थितियों व आपकी सकारात्मक सोच का भी अभूतपूर्व योगदान होता है। इसलिए ‘मैं कर सकता हूं’ को जीवन का मूल-मंत्र बनाइए और आजीवन निराशा को अपने हृदय में प्रवेश न पाने दीजिए। इसमें दोस्त, किताबें, रास्ता व सोच अहम् भूमिका निभाते हैं। यदि वे ठीक हैं, तो आपके लिए सहायक सिद्ध होते हैं; यदि वे ग़लत हैं, तो गुमराह कर पथ-भ्रष्ट कर देते हैं और उस अंधकूप में धकेल देते हैं; जहां से मानव कभी बाहर आने की कल्पना भी नहीं पाता। इसलिए सदैव अच्छे दोस्त बनाइए; अच्छी किताबें पढ़िए; सकारात्मक सोच रखिए और सही राह का चुनाव कीजिए… राग-द्वेष व स्व-पर का त्याग कर, ‘सर्वे भवंतु सुखीनाम्’ की स्वस्ति कामना कीजिए, क्योंकि जैसा आप दूसरों के लिए करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है। सो ! संसार में स्वयं पर विश्वास रखिए और सदैव अच्छे कर्म कीजिए, क्योंकि वे आपकी अनमोल धरोहर होते हैं; जो आपको जीते-जी मुक्ति की राह पर चलने को प्रेरित ही नहीं करते; आवागमन के चक्र से मुक्त करा देते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 5 ☆ काश! ये हो पाता… ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सकारात्मक आलेख  ‘काश! ये हो पाता…।)

☆ किसलय की कलम से # 5 ☆

☆ काश! ये हो पाता…☆

भारतीय संस्कृति, हिन्दुधर्म, सनातन परम्पराओं तथा रिश्तों की प्रगाढ़ता से तो विदेशी भी अभिभूत रहते हैं परन्तु जमीनी हकीकत शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में नजदीकी भ्रमण से ही पता चलती है। हम अपने मियाँ मुँह मिट्ठू सदा से बनते आये हैं। अपनी तारीफों के पुल बाँधते लोग कहीं भी दिख जायेंगे। वैसे तो देश के मंत्री-संतरियों से लेकर आम आदमी तक विदेशों तक में अपना लोहा मनवाने और अपना झंडा गाड़ने का सामथ्र्य रखता है। अपने दृष्टिकोण और अपनी हर अच्छी-बुरी बात को सही मनवाना अपने बाँये हाथ का खेल समझता है। ऐसा ही एक वाक्या विगत दिनों मेरे साथ हुआ जब एक सज्जन ने अपने इस शहर की सड़कों, स्ट्रीट लाईट्स, सरकारी नलों, ट्रैफिक पुलिस और साहित्यकारों की विचित्र स्थितियों पर हमसे लम्बी चर्चा की। कई विषयों पर उन्होंने मुझे विस्तार पूर्वक समझाने की कोशिश की पर मेरी समझ के परे ही रहा।  उनका कहना था कि जबलपुर की सड़कों के गड्ढों से लोग परेशान कम लाभान्वित ज्यादा हो रहे हैं। मैंने जब बड़े विस्मयभाव से पूछा कि कैसे, तो उन्होंने बताना शुरू किया कि गड्ढों भरी सड़क पर चलते समय कूद-कूदकर गड्ढे पार करने और संतुलन बनाए रखने से लोगों की एक्सरसाइज होती है, जिससे मॉर्निंग अथवा ईव्हनिंग वाक पर जाने की जरूरत नहीं पड़ती, इस बचे हुए समय का उपयोग ये लोग बड़ी सिद्दत से किसी दूसरे महत्त्वपूर्ण कार्यों में कर लेते हैं। इन सड़कों पर जब वाहनों का उपयोग किया जाता है तो गड्ढों द्वारा उत्पन्न हिचकोलों से लोगों का पाचन संस्थान और एक्टिव हो जाता है। भोजन को पचाने के लिए अलग से कोई डाईजिन टेबलेट्स या अन्य पाचक चूर्ण नहीं खाना पड़ता। इन गड्ढों के कारण लोगों के वाहन तेज रफ्तार से नहीं भाग पाते जिससे एक्सीडेंट के खतरे की गुंजाईश लगभग समाप्त हो जाती है। आप मानें या न मानें, ये गड्ढे स्पीड ब्रेकर का भी काम करते हैं, जिससे स्पीड ब्रेकर बनाने में खर्च होने वाले सरकारी पैसे तथा समय दोनों की बर्बादी रुकती है। ऐसे में आपके दिमाग में ये जरूर आया होगा कि जब तेज रफ्तार नहीं तो ट्रैफिक पुलिस की क्या आवश्यकता है। तब उनका मानना था कि यदि फायदे न होते तो ट्रैफिक पुलिस का गठन ही क्यों किया जाता? वैसे भी बिना गड्ढों वाली सड़कों पर ये पुलिस वाले ट्रैफिक व्यवस्था देखते ही कब हैं। हमने तो इन्हें बगुलों की तरह शिकार पर पैनी नजर रखते देखा है अथवा चंद पैसों के लिए लार बहाते देखा है। कतिपय पुलिस वाले एनकेनप्रकारेण चालान काटने का डर दिखाकर लोगों से पैसे ऐंठ लेते हैं और उन पैसों से अपनी जरूरतें तथा शौक पूरे करते हैं। होटलों तथा बार में लंच, डिनर, पीना-खाना इनके प्रिय शगल होते हैं। इससे एक ओर इनको होटल का लजीज खाना मिल जाता है वहीं घर में उनकी बीवियों को भी खाना न बनाने की वजह से आराम मिल जाता है। फिर यदि  सड़कों की मरम्मत हेतु जनता परेशान होकर गुहार लगाती है तो नगर निगम सड़कों के गड्ढे भरने के लिए ठेका दे देता है। ठेका में कमीशन बाजी होती है। जब कमीशन बाजी होगी तो गुणवत्ता निश्चित रूप से कम होगी ही। जहाँ गिट्टी-डामर या सीमेंट-रेत-गिट्टी लगाना चाहिए वहाँ आसपास का मलमा, मिट्टी और राखड़ वगैरह डालकर गड्ढे भर दिए जाते हैं। लोगों और संबंधित अधिकारियों की आँखों में धूल झोंकने के लिए ज्यादा हुआ तो मलमा और ईंटों के टुकड़ों से भरी गई सड़कों पर काली डस्ट डाल दी जाती है, जिससे यह समझ में नहीं आता कि इनमें केवल खानापूर्ति की गई है।

अब स्ट्रीट लाइट की बात करें तो स्ट्रीट लाइट से दबंग लोगों के घरों के सामने लगे सोडियम लेम्प, मरकरी लेम्प, हाई मॉस लाइट उनकी बिल्डिंगों को जगमगाते हैं। अपने जगमग घरों को देखकर ये लोग फूले नहीं समाते, वहीं आम लोगों की भी समझ में आता रहता है कि ये धन्नासेठों-राजनेताओं के मकान हैं। इससे यह भी होता है कि इन बिल्डिंग वालों को बाहर अतिरिक्त कोई लाईट नहीं जलाना पड़ती। कारपोरेशन का प्रकाश आँगन, लॉन या टेरिस पर आने-जाने, उठने-बैठने या मौज-मस्ती हेतु पर्याप्त होता है। स्ट्रीट लाईट वाले अक्सर लाईट बुझाना भूल जाते हैं, इससे फायदा ये होता है कि ये लाइटें उल्टे दिन में सूर्य को प्रकाशित करती रहती हैं। वहीं शाम को कर्मचारी द्वारा लाईट जलाने की जहमत नहीं उठाना पड़ती, इससे मानो कुछ कर्मचारियों की अघोषित छुट्टी हो जाती है और ये अपने दूसरे काम निपटा लेते हैं। लाईटें खराब न होने पर भी उन्हें बदलने के बहाने कीमती लाईट से संबंधित सामान इश्यू करा लिए जाता है, जिसे बेचकर कर्मचारी कुछ अतिरिक्त पैसे कमा लेते हैं। इससे उनके कई छोटे-मोटे सपने भी पूरे होते रहते हैं। मैंने सोचा इसमें भी क्या बुरा है, देश का पैसा देश में तो रहता है। लोग तो विदेशी स्विस बैंक में पैसे जमा करते हैं, जो उनके अलावा दूसरे के काम आता ही नहीं है। शिकायतें करने का दायित्व पब्लिक हमेशा की तरह एक-दूसरे पर छोड़ती है, जिससे कार्यवाही के अभाव में कर्मचारियों पर अंकुश नहीं लग पाता और सब यूँ ही चलता रहता है।

यही हाल सरकारी नलों एवं निगम के टैंकरों के होते हैं। इसी तरह की छोटी-छोटी छूटों या खामियों का फायदा उठाने में कुछ विशेष किस्म के माहिर लोग होते हैं। ये लाईट न होने या फाल्ट सुधारने के नाम पर नल-जल की सप्लाई बंद करवा देते हैं जिससे पानी के टैंकरों की बिक्री बढ़ जाती है। वाटर सप्लायर्स भी खुश हो जाते हैं। वहीं पत्नीव्रता पतियों की सारे घर के कपड़े धोने की छुट्टी स्वतंत्रता दिवस के रूप में बदल जाती है। शहर के अधिकांश नलों की टोंटियाँ लोगों के घरों में देखी जा सकती हैं। बूँद-बूँद पानी का महत्त्व समझने वाले बड़े शहरों के लोगों को ये सब देखकर आश्चर्य होता है। उन्हें हमारी खुशकिस्मती पर ईष्र्या होने लगती है, पर हमारे नगर निगम का तजुर्बा है कि बिना टोंटी के नलों से बहने वाला पानी वातावरण को शीतलता प्रदान करता है और पानी द्वारा उत्पन्न लहलहाती हरियाली से शहर की सुंदरता में चार चाँद लगते हैं। कहीं कहीं यह पानी छोटी-छोटी झीलों का रूप धारण कर लेता है जहाँ लोग श्वेत बगुलों को तैरते देख आनन्दानुभूति प्राप्त कर सकते हैं।

हमारे एक दोस्त का कहना है कि जो आदमी अपनी बुद्धि का जितना उपयोग करता है उसकी जेब उतनी ज्यादा गर्म रहती है। पर मेरा मानना है कि बुद्धि के सदुपयोग से ज्यादा बुद्धि के दुरुपयोग से जल्दी और ज्यादा पैसा कमाया जा सकता है परन्तु यह काम सोने पर सुहागा तब हो जाता है जब इन परम बुद्धिमानों का जेल गमन होता है। वहाँ तो खाना-पीना और पैर पसार कर सोना सब मुफ्त उपलब्ध होने लगता है, समाचार पत्रों और मीडिया की हेड लाइन बनना उनके लिए आम बातें हो जाती हैं।

आगे साहित्यकारों के बारे में उन्होंने बताया कि आज के साहित्यकारों द्वारा दूसरों की रचनाएँ पढ़ने का शौक ही खत्म हो गया है। ये तो बस अपनी सुनाना चाहते हैं, जिससे आत्मावलोकन या स्वमूल्यांकन के अवसर ही नहीं आ पाते। इसीलिए किसी दूसरे की नई या पुरानी रचना को देखकर, उसमें कुछ फेरबदल कर या पात्र बदलकर कम मेहनत में रचना तैयार कर ली जाती है, जो कुछ साहित्यकारों के बीच अपनी धाक जमाने में काम आती है। ऐसे लोग भाषा के जानकार तो होने के साथ साथ अपने नकल-कौशल से अपना लोहा मनवाने का भी हुनर रखते हैं। इनसे पूछने पर इनका सीधा जवाब होता है कि रचना तो ऊपर से उतरती है, हम तो बस अपनी कलम चलाते हैं। परोक्ष रूप में उनके श्रीमुख से सच ही निकल जाता है कि वे बस अपनी कलम चलाते हैं। विचार तो पके-पकाये मिल ही जाते हैं। रात के 2,00 – 3,00 बजे तक जागने की बजाए दूसरों का, दूसरे देशों का साहित्य चुराकर अपना सीना ठोकते हुए ऐसे लोग अपने नाम से उस रचना को सुनाना ज्यादा आसान मानते हैं। पकड़े जाने पर उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे वाली कहावत सार्थक कर देते हैं। अक्सर इन सबका एक ही कहना रहता है कि मैंने नहीं उनने मेरी रचना चुराई है। ऐसे शब्दों के हेरफेर करने वाले लोग आज बहुतायत में देखे जा सकते हैं। आजकल यह भी देखा गया है कि लोग अपना बेशकीमती समय खपाकर जब एक रचना का सृजन करते हैं तो उसका प्रतिफल उन्हें न के बराबर मिलता है, लेकिन एक या दो रचना लेकर पूरा इंडिया घूमने वाले कवि, चुटकुलेबाज अनेक मिल जाएँगे। इतना सब कुछ करने और चिंतन-मनन के बाद अब हमारी भी तीव्र इच्छा होने लगी है कि ऐसी मेहनत किस काम की जो दो पैसे भी न दिला सके। इससे अच्छा तो आज मंच से तथाकथित नामी-गिरामी चुटकुलेबाज, कवि एक-दो मुक्तक की आड़ में 25-50 चुटकुले सुनाकर रुपये कमा लेते हैं, वाहवाही लूटते रहते हैं। हम ऐसे श्रोताओं को अतिरिक्त धन्यवाद देना चाहेंगे जो इन तथाकथित प्रसिद्धिप्राप्त चुटकुलेबाजों की आय के साधन हैं। लेकिन हमें तरस आता है अपने उन उत्तम और सच्चे साहित्यकारांें पर जो धन के महत्त्व को समझते हुए भी उनकी लाईन में जाना पसंद नहीं करते! और देखिए, जनता आखिरी तक इंतजार करती रह जाती है कि शायद अब एक आदर्श रचना उनसे सुनने मिलेगी मगर चुटकुलेबाज कभी अपने घटियापन से बाज नहीं आते। वे निम्न स्तरीय बातों या नेताओं पर बनाये चुटकुलों की झड़ी लगा देंगे लेकिन उस कवि सम्मेलन के नाम की सार्थकता एक दिशाबोधी कविता सुनाकर सिद्ध नहीं करेंगे। अरे भाई वे तो बस फिल्मी धुनों पर पैरोडी सुनाते हैं और जनता को चुटकुले सुना-सुनाकर बहलाते रहते हैं।

तथाकथित सज्जन की बातों से मेरा सिर चकराने लगा था। उनकी बातों में कुछ बात तो थी। मैंने उनसे कहा बस भी करो भाई। मुझे और भी काम हैं, इतना कहते हुए तेजी से उन्हें वहीं छोड़कर भाग निकला परंतु उनकी उल्टी बातें मुझे सीधा सोचने पर मजबूर कर रहीं थी। काश! एक बार फिर हमारे साहित्यकार बंधु अपने दायित्व को समझते। बिजली वाले, नगर निगम वाले या और सभी सरकारी कर्मचारी- अधिकारी अपना फर्ज निभाते तो समाज और देश की आधी से ज्यादा समस्याएँ वैसे ही समाप्त हो जातीं और सामान्य जनता राहत की साँस लेती। काश! ये हो पाता…, यही सोचता हुआ मैं अपने घर की ओर भाग रहा था।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 51 ☆ लघुकथा – इज्जत ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  और सार्थक लघुकथा  “इज्जत । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 51 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – इज्जत ☆

आज मामी का फोन आया और बिटिया की शादी का शुभ समाचार मिला। बहुत खुशी हुई सोचा आज मामा होते तो बहुत खुश होते। शादी में अभी समय है पता चला दिती घर से चली गई है।  वह शादी नहीं करना चाहती। लेकिन मालूम हुआ उसके मौसाजी समझा बुझाकर उसे घर वापस ले आए और शादी के लिए मजबूर किया। सिर्फ घर की इज्जत बची रहे।

लेकिन आज शादी के कई  वर्ष बाद पता चला दोनों में बन नहीं रही अक्सर झगड़ा होता रहता है। दोनों की इतने वर्षों में भी नहीं बन पाई।

मौसी ने बताया कि ..” क्योंकि दिती अपने प्यार को भूल नहीं पा रही और अक्सर मिलती रहती है।”

ओह ऐसी बात है  “अब मामी की इज्जत कहां गई जिसे बचाने के लिए अपनी बेटी की खुशियां कुर्बान कर दी।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 42 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  भावप्रवण  “ संतोष के दोहे ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 42 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

विपदा

विपदा जब हो सामने, डरिये कभी न मित्र

धीरज धरम न छोड़िए, खीचें ऐसा चित्र

 

पक्षपात

पक्षपात जब भी हुआ, बढ़ा आपसी द्वंद

अगर भलाई चाहिए, छोड़ें सब छल छंद

 

मायावी

दुनिया मायावी लगे, बहुरूपी इंसान

रहें संभलकर जगत में, बनें नहीं नादान

 

आहत

दिल को आहत कर गया, सीमा चीन विवाद

इसे जल्द सुलझाइए, करें सघन संवाद

 

विभोर

सुन वर्षा का आगमन, वन में नाचे मोर

छटा सुहानी देख कर, मन हो गया विभोर

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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