(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की अगली कड़ी में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी की एक सार्थक कविता – महापौर। )
( डॉ निधि जैन जी भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता “चाँद पाने का सफर”।)
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है। सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक भावप्रवण रचना “मास्क”। श्री श्याम खापर्डे जी ने इस कविता के माध्यम से मास्क के महत्व की चर्चा की है जो विचारणीय है।)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज प्रस्तुत है एक यथार्थवादी व्यंग्य ‘छगनभाई और फेसबुक’। आज सोशल साइट्स ने लोगों की दुनिया ही बदल डाली। लाइक और कमेंट की पतवार के सहारे कई लोगों की नैया सोशल साइट्स में तैर rahi है। थोड़ी सी अड़चन आई और नाव डूबे या ना डूबे मन जरूर डूब जाता है। विश्वास न हो तो यह व्यंग्य पढ़ लीजिये। इस सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 68 ☆
☆ व्यंग्य – छगनभाई और फेसबुक ☆
छगनभाई फेसबुक के कीड़े हैं। दिन रात फेसबुक में डूबे रहते हैं। फेसबुक में अपनी एक अलग दुनिया बसा ली है। उसी में रमे रहते हैं। अब बाहरी दुनिया की बेरुखी की ज़्यादा परवाह नहीं रही। फेसबुक पर ‘लाइक’ और ‘कमेंट’ लेते-देते रहते हैं। उसी में मगन रहते हैं।
छगनभाई साहित्य की सभी विधाओं में दखल रखते हैं। कविता, कहानी, निबंध, गज़ल, चुटकुले, कुछ भी ठोकते रहते हैं और दोस्तों की तारीफ और ‘वाह वाह’ पाकर निहाल होते रहते हैं। जो ‘लाइक’ नहीं देते उन्हें दोस्तों की लिस्ट से खारिज करते रहते हैं।
उस दिन सबेरे सबेरे छगनभाई बाहर निकले। मौसम सुहाना था। बिजली के तारों पर बैठीं चिड़ियां चहचहा रही थीं। सूरज का लाल गोला सामने उभर रहा था। छगनभाई के मन में कविता फूटी। तत्काल वापस लौट कर तख्त पर आसन जमाया और एक चौबीस लाइन की कविता ठोक दी। उसके बाद फटाफट उसे फेसबुक पर ठेल दिया और फिर चातक की तरह टकटकी लगाकर बैठ गये कि ‘लाइक’और ‘कमेंट’ की बूंदें गिरें और उनकी बेचैन आत्मा को सुकून मिले।
समय गुज़रता गया और मोबाइल चुप्पी साधे रहा। न कोई ‘लाइक’,न ‘कमेंट’। छगनभाई कोई भी टोन आने पर उम्मीद में मोबाइल में झांकते और वहां फैले वीराने को देखकर मायूस हो जाते। धीरे धीरे दोपहर हो गयी। कहीं से कोई हलचल नहीं। छगनभाई का भरोसा दुनिया से उठने लगा। दुनिया बेरौनक, बेरंग, बेवफा लगने लगी।
जब शाम तक कोई सन्देश नहीं आया तो छगनभाई का धीरज छूट गया। एक घनिष्ठ मित्र जनार्दन जी को फोन लगाया। पूछा, ‘क्या हालचाल है?’
जवाब मिला, ‘सब बढ़िया है गुरू। आप सुनाओ। ‘
छगनभाई बोले, ‘कहां हो अभी?’
जनार्दन जी बोले, ‘ग्वारीघाट आया था। नर्मदा जी में डुबकी लगा कर निकला हूँ। चित्त प्रसन्न हो गया। ‘
छगनभाई बोले, ‘एक कविता फेसबुक पर डाली है। देख लेना। ‘
उधर से जवाब मिला, ‘घर पहुंचकर देखूंगा भैया। मैं तो आपकी पोस्ट को बिना पढ़े ही ‘लाइक’ या ‘बढ़िया’ ठोक देता हूँ। आखिरकार दोस्त किस दिन काम आएंगे?’
छगनभाई चुप हो गये। चैन नहीं पड़ा तो एक और मित्र शीतल जी को फोन लगाया। पूछा, ‘फेसबुक पर मेरी कविता देखी क्या?’
शीतल जी दबी ज़बान से बोले, ‘अभी एक प्रवचन में बैठा हूँ। घर पहुँचकर पढ़ूँगा। ‘
छगनभाई कुढ़ गये। हताश पलंग पर लेट गये। लग रहा था दुनिया में सब व्यर्थ है, कोई आदमी भरोसे के लायक नहीं।
घर में उनके साले साहब आये हुए थे। पत्नी से छोटे। बोले, ‘जीजाजी, उठिए। सिनेमा देख आते हैं। अच्छी फिल्म लगी है। टिकट मेरे जिम्मे। ‘
छगनभाई भुनकर बोले, ‘ये फिल्म-विल्म सब फालतू लोगों के काम हैं। मुझे कोई फिल्म नहीं देखना। तुम अपनी दीदी को लेकर चले जाओ। ‘
पत्नी नाराज़ होकर बोली, ‘आपको नहीं जाना तो विक्की को क्यों डाँट रहे हैं?आपका मिजाज़ समझना बड़ा मुश्किल है। पता नहीं कब देवता चढ़ जाएं। ‘
छगनभाई में पत्नी से टकराने का साहस नहीं था। मुँह को चादर से ढक कर पड़े रहे।
तभी मोबाइल की टोन बजी। छगनभाई ने चादर हटाकर उसमें झाँका। एक फेसबुक मित्र ने उनकी कविता की भरपूर प्रशंसा की थी और उन्हें शब्दों का चितेरा और अद्भुत प्रतिभा-संपन्न बताया था। पढ़ कर छगनभाई की तबियत बाग-बाग हो गयी। सबेरे से जमकर बैठा अवसाद पल भर में छँट गया। दुनिया सुहानी और भरोसे के लायक लगने लगी।
उसके पीछे पीछे एक और पोस्ट आयी। उसमें भी छगनभाई की कविता की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी थी और उन्हें आला दर्जे का कवि सिद्ध किया गया था।
छगनभाई चादर फेंककर पलंग से उठ बैठे। विक्की के कंधे को बाँह में लपेट कर बोले, ‘मैं तो ऐसे ही मज़ाक कर रहा था। फिल्म देखने ज़रूर चलूँगा और टिकट भी मैं ही खरीदूँगा।’
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – जीवन और टी-20 क्रिकेट ☆
जीवन एक अर्थ में टी-20 क्रिकेट ही है। काल की गेंदबाजी पर कर्म के बल्ले से साँसों द्वारा खेला जा रहा क्रिकेट। अंपायर की भूमिका में समय सन्नद्ध है। दुर्घटना, अवसाद, निराशा, आत्महत्या फील्डिंग कर रहे हैं। मारकेश अपनी वक्र दृष्टि लिए विकेटकीपर की भूमिका में खड़ा है। बोल्ड, कैच, रन-आऊट, स्टम्पिंग, एल.बी.डब्ल्यू…., ज़रा-सी गलती हुई कि मर्त्यलोक का एक और विकेट गया। अकेला जीव सब तरफ से घिरा हुआ है जीवन के संग्राम में।
महाभारत में उतरना हरेक के बस में नहीं होता। तुम अभिमन्यु हो अपने समय के। जन्म और मरण के चक्रव्यूह को बेध भी सकते हो, छेद भी सकते हो। अपने लक्ष्य को समझो, निर्धारित करो। उसके अनुरूप नीति बनाओ और क्रियान्वित करो। कई बार ‘इतनी जल्दी क्या पड़ी, अभी तो खेलेंगे बरसों’ के फेर में अपेक्षित रन-रेट इतनी अधिक हो जाती है कि अकाल विकेट देने के सिवा कोई चारा नहीं बचता।
परिवार, मित्र, हितैषियों के साथ सच्ची और लक्ष्यबेधी साझेदारी करना सीखो। लक्ष्य तक पहुँचे या नहीं, यह समय तय करेगा। तुम रन बटोरो, खतरे उठाओ-रिस्क लो, रन-रेट नियंत्रण में रखो। आवश्यक नहीं कि मैच जीतो ही पर अंतिम गेंद तक जीत के जज़्बे से खेलते रहने का यत्न तो कर ही सकते हो न!
यह जो कुछ कहा गया, ‘स्ट्रैटिजिक टाइम आऊट’ में किया गया दिशा निर्देश भर है। चाहे तो विचार करो और तदनुरूप व्यवहार करो अन्यथा गेंदबाज, विकेटकीपर और क्षेत्ररक्षक तो तैयार हैं ही।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 24 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 24) ☆
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
☆ English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media# 24☆
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी की एक रचना। )
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित आलेख “काशी महिमा–काशी तीन लोक से न्यारी भाग–२”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – काशी महिमा–काशी तीन लोक से न्यारी भाग–२☆
(दो शब्द लेखक के— काशी को मोक्षदायिनी नगरी कहा जाता है, हर व्यक्ति मोक्ष की कामना ले अपने जीवनकाल में एक बार काशी अवश्य आना चाहता है।आखिर ऐसा क्या है? कौन सा आकर्षण है जो लोगों को अपनी तरफ चुंबक सा खींचता है? लेखक इस आलेख के द्वारा काशी, काशीनाथ, गंगा, अन्नपूर्णा तथा भैरवनाथ की महिमा से प्रबुद्ध पाठक वर्ग को अवगत कराना चाहता है। आशा है आपका स्नेह प्रतिक्रिया के रूप में हमें पूर्व की भांति मिलता रहेगा । – सूबेदार पाण्डेय )
पिछले अंक में इस शोधालेख में आपने काशी तथा गंगा के पौराणिक कथाओं मान्यताओं के आधार पर उसकी जीवन शैली पौराणिक महत्व तथा विभूतियों के बारे लेखक की राय जानी, अब क्रमशःअगले भाग में काशी के बारे जनश्रुति तथा लोक मानस में व्याप्त ऐतिहासिक महत्त्व का अध्ययन करेंगे, तथा अपनी अनमोल प्रतिक्रिया से अभिसिंचित करेंगे। जी हां ये वही काशी है, जहां आज भी लोग विश्व के कोने-कोने से शिक्षा संस्कृति तथा अध्यात्म की गहराई को नजदीक से जानने समझने की कामना लेकर आते हैं। तथा अध्यात्मिक सांस्कृतिक जीवन शैली की गहराई में डूबकर यहीं के होकर रह जाते है।
वर्तमान समय में काशी के उत्तरी छोर पर बसा सारनाथ बौद्ध महातीर्थ यात्रा परिपथ है, यहीं से बौद्ध धर्म चक्र प्रवर्तन चला था, उसके उत्तर में जिले के अंतिम सीमा पर बसे कैथी ग्राम में गंगा गोमती के पावन संगम तट पर बसा महाभारत कालीन मार्कण्डेय महादेव का ऐतिहासिक अतिप्राचीन मंदिर तथा तपस्थली है जिसके बारे में पौराणिक मान्यता है कि अपनी तपस्या के प्रताप से उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न कर अपने आयु बल की पुनर्समीक्षा कर नवजीवन प्रदान करने के लिए देवताओं को बाध्य कर दिया था।
काशी के दक्षिण में महामना की ज्ञान बगिया भारतीय हिंदू युनिवर्सिटी है।
काशी के पूर्वी छोर पर गंगा के उस पार राजा बनारस का रामनगर का किला है, जहां आज भी राजसी आन बान शान के साथ एक माह तक अनवरत चलने वाला रामलीला का सांस्कृतिक मंचन तथा आयोजन होता है जो काशी के इतिहास की सांस्कृतिक धरोहर है। तथा सारे विश्व में राजपरिवार के मुखिया की पहचान भगवान शिव के सांस्कृतिक प्रतिनिधि के रुप में होती है। रामनगर किले के पास से बहने वाली गंगा अर्धचंद्राकार स्वरूप में बहती है जिसके जल में पड़ने वाले द्वीप समूहों तथा प्रकाश स्तंभों का झिलमिल प्रकाश शिव के मस्तक पर चंद्रमा के होने का मृगमरीचिका का भ्रम पैदा कर देता है। वहीं पश्चिमी छोर पर पंचकोसी परिक्रमा पथ पर बसा महाभारत कालीन भगवान शिव का रामेश्वर महादेव स्वरूप काशी क्षेत्र को अभिनव गरिमा से भर देता है।
काशी में गंगा घाट पर उगते सूर्य के साथ सुबह बनारस, तथा लखनवी शामें अवध अपनी अद्भुत छवि के लिए सारे विश्व में प्रसिद्ध है, सबेरे की गंगा घाट की सुर साधना तथा सायंकालीन गंगा आरती काशी के आध्यात्मिक सौंदर्य को नवीन आभा मंडल प्रदान करती है। यह काशी के आध्यात्मिक वातावरण का प्रभाव ही है, जो लोगों को बार बार काशी भ्रमण के लिए प्रेरित करता है।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता के इतिहास में काशी वासियों का अभूतपूर्व योगदान रहा है। यहां के निवासियों का “अतिथि देवो भव” का सेवाभाव भक्ति साधनायुक्त जीवन-शैली से ओत-प्रोत फक्कडपन भरा खांटी देशी अंदाज की जीवन शैली लोगों के जीवन काल का अंग बन गई है। यहां रहनेवाला हर समुदाय तथा संप्रदाय का व्यक्ति उत्सवधर्मी है। यहां साल के तीसों दिन बारहों महीने कोई न कोई उत्सव चलता ही रहता है। जो काशी वासियों के हृदय में उमंग उत्साह का सृजन तो करता ही है, यात्रीसमूहों को आकर्षित भी करता है।तभी तो काशी की महिमा से आश्वस्त कबीर कहते हैं – जौ काशी तन तजें कबीरा,रामै कौन निहोरा रे।
अर्थात् काशी में महाप्रयाण करने पर तो मोक्ष अवश्यंभावी है, इसमें राम का कैसा एहसान है, और अंतिम समय में अपने सत्कर्मो के परीक्षण के लिए मगहर चले जाते हैं। अनेक लोक कहावतें भी काशी को महिमा मंडित करती हैं, तथा उसकी महत्ता दर्शाती है, लोक मानस में ये उक्ति प्रचलित है ———–
ये कहावत काशी वासियों के हृदय का उद्गगार है। जिसमें आत्मसंतुष्टि से ओत-प्रोत जीवन की अलग ही छटा दीखती है। जिस काशी की महिमा पुराणों तथा लोक मानस ने गाई है, उस काशी के बारे में यह भी किंवदंती है कि इसी काशी में बाबा विश्वनाथ ने मां अन्नपूर्णा से भिक्षा स्वरूप वरदान मांगा था कि यहां भूखा भले ही कोई उठे, पर सायंकाल कोई भी व्यक्ति भूखा न सोये। काशी में मां गंगा तथा मां अन्नपूर्णा पेट भरने के लिए भोजन तथा पीने के लिए पवित्र गंगा जल हमेशा उपलब्ध कराती हैं। इस क्षेत्र में मां अन्नपूर्णा की कृपा सदैव बरसती है। यहां रहनेवाला कोई भी जीव चाहे पशु-पक्षी ही क्यों न हो, वह मां अन्नपूर्णा के आंचल की छांव तले सुखी शांत जीवन यापन करता है। यहां का धर्मप्राण चेतना युक्त जनसमूह पशुओं पंछियों बीमारों अपाहिजो सबका ध्यान रखता है। नर सेवा नारायण सेवा के कथन में विश्वास रखता है, बाबा विश्वनाथ को अवढरदानी भी कहते हैं। वह अपना सब कुछ लुटा कर लोगों का दुख हरते हैं। इसी विश्वास और भरोसे पर तो रामबनवास के समय अयोध्या में महाराज दशरथ का आकुल व्याकुल आर्तमन पुकार उठता है।
यही कारण है कि काशी में विश्वनाथ, मां अन्नपूर्णा, मां गंगा तथा काशी कोतवाल भैरवनाथ प्रात: स्मरणीय तथा पूजनीय है। जिनके स्मरण मात्र से जीव स्थूल शरीर त्याग स्वयं शिवस्वरूप हो जाता है। इसी भरोसे तथा विश्वास के पुष्टि में कबीर लिख देते हैं———
हेरत हेरत हे सखी ,रहा कबीर हेराइ।
बूंद समानी समझ में अरु किछु कहा न जाइ।।
संभवतः यही कारण बना होगा इस कहावत के पीछे कि – काशी तीन लोक से न्यारी।
( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी की एक भावप्रवण कविता कभी अनचाहा जो जाता है । हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 11 ☆
☆ कभी अनचाहा जो जाता है ☆
जीवन की राहों में देखा ऐसे भी कभी दिन आते है
जिन्हें याद न रखना चाहते भी हम भूल कभी न पाते है।
होते हैं अनेकों गीत कि जिनके अर्थ समझ कम आते है
पर बिन समझे अनजाने ही वे फिर फिर गाये जाते है
छा जाते नजारे नयनों में कई वे जो कहे न जाते हैं
पर मन की ऑखो के आगे से वे दूर नहीं हो पाते है।
सुनकर या पढ़कर बातें कई सहसा आँसू भर आते हैं
मन धीरज धरने को कहता पर नयन बरस ही जाते हैं
अच्छी या बुरी घटनायें कई सहसा ही हो यों जाती हैं
जो घट जाती हैं पल भर में पर घाव बडे कर जाती हैं
सुंदर मनमोहक दृष्य कभी मन को ऐसा भा जाते हैं
जिन्हें फिर देखना चाहें पर वे फिर न कभी भी आते हैं